Sunday, May 11, 2025

युद्ध के बाद की कुछ कवितायें

झरती हुई पत्तियां 
-MARGARET POSTGATE COLE 
(November 1915)



आज एक ठहरी हुई दोपहर में मैंने
पेड़ों से झरते हुए देखा
कत्थई पत्तियों को
कोई हवा नहीं थी वहां
जो उन झरी हुई पत्तियों को उड़ाकर
ले जा सकती आसमान तक
वीरान सी ख़ामोशी थी उनके गिरने में
वो झरीं जैसे झरती है पहाड़ों पर बर्फ
जिनके झरते ही भरी दोपहर
सिमट जाती है उदास सांझ के साये में
वो झरीं और भटकती फिरीं यहाँ से वहां
सोचते हुए वीरता, युद्ध और जीत के गर्व में डूबी भीड़ के बारे में
वो सारी उदास मुरझाई हुई पत्तियां
जानती हैं कि युद्ध में मारे गये लोगों
उम्र और महामारी की कोई दवा नहीं
लेकिन उन उदास पत्तियों का गिरना भी
धरती को खूबसूरत ही बना रहा है
जैसे मिट्टी को सुंदर बना देते हैं
झरते हुए चमकीले बर्फ के टुकड़े


युद्ध के बाद 
MAY WEDDERBURN CANNAN

युद्ध के बाद शायद फिर बैठ सकूं
उस टेरेस पर जहाँ बैठती थी तुम्हारे साथ
और जी सकूं गुजरती हुई दोपहर को
देखते हुए आसमान के बदलते हुए रंग
मन के किसी उदास कोने में याद है तुम्हारी
और उन खोए हुए सुख के दिनों की जो हमने साथ जिए
कामना है इतनी सी कि काश कोई होता
जो पुकारता मेरा नाम
ठीक वैसे ही जैसा पुकारते थे तुम.

वार गर्ल्स 
JESSIE POPE

एक लड़की तुम्हारे लिए काट रही है ट्रेन की टिकट
एक लड़की है जो तुम्हारे लिए चलाती है लिफ़्ट
एक लड़की है जो बरसते दिनों में भी
पहुँचाती है तुम तक दूध
और तुम्हारी ज़रूरत के सामान के ऑर्डर लेती है
ये मज़बूत, सौम्य, समझदार लड़कियाँ
बाहर निकली हैं यह बताने 
कि कितना धैर्य है उनके भीतर
कि वो संभाल सकती हैं सारे काम
पूरी समझदारी और ऊर्जा से
कुछ भी रुका नहीं है यहाँ
उन्होंने संभाल रखा है सब कुछ
कि एक दिन लौटेंगे योद्धा युद्ध से

एक लड़की है जो भारी वाहन चला रही है
एक लड़की ने संभाल रखा है बूचड़खाना
एक लड़की हिसाब रखने की खातिर चिल्लाती है
तेज़ आवाज़ में बिलकुल पुरुषों की तरह
एक लड़की है जो सड़क पर सीटी बजाती है

वो जानती हैं कि हर वर्दी के नीचे
एक धड़कता हुआ कोमल दिल है
हालाँकि उस कोमल दिल को
कुछ भी गलत नहीं लगता
लेकिन यह एक गम्भीर बयान है
कि उनके पास आलिंगन और चुम्बनों के लिए समय नहीं है
तब तक, जब तक कि खाकी वर्दी वाले योद्धा लौट न आयें...

अनुवाद- प्रतिभा कटियार


Friday, May 9, 2025

शिक्षा और सम्मान पर तो सबका बराबर हक़ है- संगीता फ़रासी



उत्तराखंड के श्रीनगर शहर की एक ख़ूबसूरत पहाड़ी पर एक स्कूल है, राजकीय प्राथमिक विद्यालय बहड़। इस स्कूल में एक कहानी लिखी जा रही है। लिख रही हैं स्कूल की शिक्षिका संगीता फ़रासी। शिक्षा और सम्मान इस कहानी के मुख्य पात्र हैं। यह कहानी है शहर में भीख माँगकर गुज़ारा करने वालों की बस्ती की। दो वक़्त की रोटी की जुगाड़ को भटकते इस समुदाय की ज़रूरतों में शिक्षा सपना ही रही। फिर इस समुय पर चोरी, पॉकेटमारी जैसे आरोप भी लगे। उनकी चुनौतियों को समझने, और उनका भरोसा हासिल करने की। साथ ही यह कहानी है बच्चों का हा]थ थाम स्कूल तक लाने, उन्हें राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं तक पहुँचाने, और पढ़ने-लिखने में रुचि पैदा करने वाली शिक्षिका और आत्मविश्वास से भरे बच्चों की।

‘‘स्कूल में विविध सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (जैसे— प्रवासी समुदाय, निम्न आय वाले परिवार, असहाय परिस्थिति में रहने वाले बच्चे, बाल तस्करी के शिकार, अनाथ, भीख माँगने वाले बच्चे); अलग-अलग सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान (जैसे— अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, महिला व ट्रांसजेंडर); विविध धार्मिक अस्मिताओं; और भाषाई व भौगोलिक पहचान (जैसे— गाँव, क़स्बे, विशेष आवश्यकता वाले); आदि विभिन्न परिवेश से आने वाले हर बच्चे को स्कूल उसकी अपनी प्रिय जगह महसूस हो।” एनसीएफ़एसई 2023


समावेशन को समझने और उसपर काम करने के लिए जिन दो मुख्य बातों की ज़रूरत है, उन दोनों पर संगीता मैडम लगातार काम करने का प्रयास कर रही हैं। पहली बात समावेशन की ज़रूरत को समझना, यानी उन मुद्दों को देख पाना जो बहिष्करण का कारण बनते हैं, समाज में भी और स्कूल में भी। दूसरी बात है प्रक्रिया। समावेशन इतने सहज ढंग से हो कि किसी को कुछ पता ही न चले, और तमाम विविध अस्मिताएँ अपनी पहचान के साथ आपस में घुल-मिलकर रहें। दस बरस पहले जब संगीता मैडम ने इस दिशा में क़दम उठाया था तो उन्हें नहीं पता था कि सफ़र कितना लम्बा चलेगा, कितना बदलाव आएगा। समावेशन के लिए उनके प्रयासों को दो हिस्सों, सामाजिक बदलाव और अकादमिक प्रयास, के रूप में देखा जा सकता है:


सामाजिक बदलाव
सन्दर्भों को समझना: किसी भी समस्या का निवारण जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है उसके कारणों को समझना। संगीताजी ने यही किया। तब उनके सामने खुली एक ऐसी बस्ती की दुनिया, जहाँ तिरस्कार, शोषण और अन्याय से उपजी ग़रीबी के लिए अभिशप्त लोग भीख माँगकर गुज़ारा करके रहते हैं। मैडम को बात समझ में आई कि जिनके लिए मूल प्रश्न अपना पेट भरने और पहचान का हो, उनसे शिक्षा की बात करने से पहले बहुत कुछ करना होगा। कुछ ऐसा जिससे यह समुदाय अपनी बदहाली के कारणों को समझे और हमपर भरोसा कर सके।

भरोसा जीतना: समुदाय का भरोसा जीतना बहुत चुनौतीपूर्ण था। संगीताजी ने समुदाय की ज़रूरत को समझा और कहा, “आप सबके बच्चे जितना दिनभर में भीख माँगकर कमाते हैं, उतनी आर्थिक मदद आप सबकी करूँगी। आप अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू करो।” और संगीताजी ने बच्चों के अभिभावकों को राशन देना शुरू किया। यह उन्होंने अपने निजी बजट से किया। यह सब करने से पहले मैडम ने बस्ती में रोज़ जाकर उनकी समस्याओं को सुना, समझा, और कुछ हद तक उन्हें हल करना शुरू किया।
 

नियमितता एक अड़चन: बच्चों का मैडम के पास नियमित आना अभी भी समस्या थी। वे बार-बार भीख माँगने चले जाते थे। कुछ आदत के चलते और कुछ अभिभावकों के दबाव के चलते। इस समस्या पर मैडम ने दो तरह से काम किया। पहला, जिसका बच्चा नियमित स्कूल आएगा उसकी माँ को ‘बेस्ट मॉम अवॉर्ड’ दिया जाएगा। इस अवॉर्ड में राशन और कपड़े भी दिए जाएँगे। यह सब खर्च संगीताजी खुद वहन कर रही थीं। दूसरे, उन्होंने सब इंस्पेक्टर संध्या को अपनी समस्या के बारे में बताया। उपाय के तौर पर सब इंस्पेक्टर संध्या को जब भी बच्चे भीख माँगते दिखते, वे उन्हें प्यार से समझाकर मैडम के पास भेज देतीं।

इन उपायों से बच्चों की नियमितता बढ़ी। ज़ाहिर है, इसका बहुत असर उनके अच्छा पढ़ने-लिखने और अन्य बातें सीखने के अवसरों पर भी पड़ा। बेस्ट मॉम का पहला अवॉर्ड मिला था अंकुल की माँ को। अंकुल अब हाई स्कूल की परीक्षा दे रहा है और बस्ती के बाक़ी बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ ही उनकी मदद भी करता है।

स्कूल के लिए तैयारी: बच्चों का नियमित आना अभी मैडम के घर तक ही था। यहाँ मैडम बच्चों के साथ कुछ खेल खेलतीं, कहानियाँ सुनातीं, पढ़ने-लिखने के मायने समझातीं। स्कूल जाने का सिलसिला अभी शुरू नहीं हुआ था। स्कूल जाने की तैयारी में उन्हें आपस में व शिक्षकों बात और व्यवहार करना सिखाना। उनके लिए स्कूल ड्रेस, बस्ता, किताबें, जूते, आदि की व्यवस्था की जानी थी। इनमें सामान की व्यवस्था करना अब आसान होने लगी थी क्योंकि शहर के कुछ लोग इस मुहिम में साथ देने आगे आने लगे थे। मुख्य दिक़्क़त थी व्यवहार की, भाषा की। बातचीत में गाली देना सामान्य बात थी क्योंकि बच्चे इसी माहौल में पले-बढ़े थे। बड़ों से कैसे बात करनी होती है नहीं जानते थे। चिंता यह भी थी कि अगर यह सब बदला नहीं तो स्कूल में जो बाकी बच्चे आ रहे हैं, उन्हें और उनके अभिभावकों को परेशानी भी हो सकती है। संगीताजी बताती हैं, “मेरे पास इसके लिए दो ही चीज़ें थीं— एक धैर्य और दूसरा प्रेम। मैं जानती थी इस बदलाव में वक़्त लगेगा। हालाँकि कई बार मैं भी कमज़ोर पड़ जाती थी, लेकिन फ़िर मासूम चेहरे याद आ जाते और मुझे ऊर्जा मिलती।”

 कुछ तो लोग कहेंगे: एक तरफ़ चुनौती थी बच्चों को स्कूल लाना, पढ़ाना, इसके लिए उन्हें तैयार करना, उनके घर वालों की मुश्किलें समझना, समाधान निकालना और भरोसा जीतना। दूसरी तरफ़ चुनौती थी लोगों का यह कहना, “यह तो पागलपन है।” संशय करना, “ज़रूर इनाम लेने के लिए कर रही होंगी, ज़्यादा दिन नहीं करेंगी”; ‘‘घर से पैसे लगाकर कितने दिन कर पाएँगी’’ “इसके पीछे ज़रूर कोई और मंशा होगी”; आदि। ऐसा भी नहीं कि संगीताजी पर इसका कोई असर न पड़ता हो, वो उदास न हुई हों, टूटी न हों, लेकिन उनका साथ दिया उनके परिवार ने। वे मन-ही-मन सोचतीं, “कुछ तो लोग कहेंगे”, और मुस्कुराकर बस्ती की तरफ़ चल पड़तीं...।

बच्चों को नए अनुभव देना: पढ़ना सिर्फ़ स्कूल में नहीं होता है, न सिर्फ़ किताबों से? संगीताजी इस बात को जानती थीं, और उन्होंने बच्चों की ज़िन्दगी में नए अनुभवों को शामिल करना शुरू किया। ऐसे अनुभव जो उनके जीवन में अब तक नहीं थे। मसलन, आसपास की जगहों को देखने जाना, उनके बारे में बच्चों से बातचीत करना, कार में बैठकर घूमना, मेज़-कुर्सी पर बैठकर खाना, टीवी देखना, आदि। ऐसे ही अनुभवों में एक अनुभव था बच्चों को कुछ खिलाने के लिए होटल ले जाना। जिस होटल के दरवाज़े के बाहर से ही भगा दिए जाते हों, वहाँ निडरता से जाना, टेबल पर मिल-बैठकर खाना, पार्टी करना एक नई दुनिया के खुलने जैसा था। वो बताती हैं, “उस दिन मैं बच्चों के साथ एक होटल में थी। तेज़ बारिश हो रही थी। एक बच्चा होटल के शीशे के इस पार से बारिश देख रहा था। एकदम चुप, एकटक। मैंने उससे पूछा, ‘इतने ग़ौर से क्या देख रहे हो?’ उसने भरी-भरी आँखों से मुझे देखा और कहा, “आज आपकी वजह से हम यहाँ हैं। बारिश में जब सारा शहर भीग रहा है, हम नहीं भीग रहे। कोई और दिन होता तो हमें सिर छुपाने के लिए भी कोई यहाँ खड़ा भी नहीं होने देता। हर कोई हमें डाँटकर भगा देता है। लेकिन आज हमें भगाने वाले ख़ुद भीग रहे हैं ।” उस बच्चे की आँखों में क्या था, पता नहीं। लेकिन संगीता मैडम की आँखें आज भी उस घटना के ज़िक्र होने-भर से छलक पड़ती हैं।
 


अकादमिक प्रयास
स्कूल जाने से पहले, स्कूल से आने के बाद: बच्चे संगीताजी से हिल-मिल गए थे, अभिभावक भी उनपर भरोसा करने लगे थे, लेकिन इतना-भर काफ़ी नहीं था। बच्चों की स्कूल जाने की तैयारी भी होनी थी। तो कभी बस्ती में जाकर और कभी बच्चों को घर बुलाकर उनकी पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई। इस मुहिम में रेखा और अनिल नाम के युवाओं ने साथ दिया, और शांतिजी ने न सिर्फ दिया, हौसला भी दिया। संगीताजी ने बताया “हम लोग बच्चों को रोज़ थोड़ी देर पढ़ाते थे। कोशिश यह होती कि इस पढ़ाई-लिखाई से उन्हें ऊब न हो। कभी उनकी पसन्द के खेल होते, कभी गाने होते, खाना-पीना होता, लेकिन साथ में होतीं किताबें। कहानियों और कविताओं से बात शुरू होती और अक्षर पहचान व रोज़मर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले गणित से जा जुड़ती। बच्चों के लिए यह मज़ेदार था कि किसने किसको कितने धक्के मारे, किसने कितनी रोटी खाईं, यह भी गणित है ।” बच्चों का जीवन बदलने लगा था। स्कूल की यूनिफ़ॉर्म में तैयार बच्चे मैडम द्वारा लगाई गई मोटरगाड़ी में बैठकर स्कूल जाते, दिनभर स्कूल में खेलकूद, पढ़ाई, और वापस मैडम के घर जहाँ मिलता बढ़िया भात। ये सिलसिला बरसों से ऐसे ही चल रहा है। अब भी बच्चे स्कूल के बाद मैडम के घर में देखे जाते हैं, जहाँ खाना खाते हैं, पढ़ाई होती है, खेलते हैं, टीवी देखते हैं। बच्चों के बस्ते मैडम के घर पर ही रहते हैं। यहीं से सुबह फिर बच्चे बस्ते लेकर गाड़ी में बैठकर स्कूल जाते हैं।

इन बच्चों के स्कूल आने से पहले स्कूल में बच्चों की संख्या 11 थी और अब 23 है। लेकिन यहाँ बात नामांकन बढ़ने से आगे की है। बच्चों में कोई भेदभाव नहीं है, अभिभावकों को भी कोई परेशानी नहीं है, सब मिलकर प्रेम से खेलते हैं, पढ़ते हैं।

सन्दर्भ से जोड़कर पढ़ाना: मैडम हर बच्चे को गले लगाती हैं, सिर पर हाथ फेरती हैं, और उनका हौसला बढ़ाती हैं। हाँ, यही है उनकी शिक्षण विधि का पहला हिस्सा। यही है उनका अपनी पेडागोजी के लिए बालमित्र वातावरण बनाना। बच्चे मैडम से अपनापन महसूस करने लगे हैं कि उनके द्वारा सीखने-सिखाने के लिए करवाई जा रही हर गतिविधि में उत्साह से भागीदारी करने लगे हैं।

जब तक बच्चों के सन्दर्भों को नहीं समझेंगे, सीखने-सिखाने के बीच एक दूरी रहेगी ही। इसका एहसास मुझे उस रोज़ स्कूल पहुँचकर हुआ। दो कमरे और एक छोटे से बरामदे वाले स्कूल में बच्चे व्यवस्थित ढंग से अलग-अलग समूहों में पढ़ रहे थे। संगीताजी बच्चों के बीच बैठी हुई थीं। उनके चारों तरफ़ अलग-अलग घेरे थे। ये अलग-अलग दक्षता स्तर के बच्चे थे, और वो सबके साथ, बारी-बारी से काम कर रही थीं। मैंने बच्चों से दोस्ती की, कुछ बच्चे शरमाए, लेकिन जल्दी ही दोस्त बन गए। मैं कक्षा 1 के बच्चों के उस समूह के पास बैठ गई जो अभी वर्णों से शब्द बनाना और शब्दों में वर्ण पहचानना सीख रहे थे। सोचा, जो ये पढ़ रहे हैं उसी के बारे में क्यों न बात की जाए! मैंने पूछा, “अच्छा, ‘ब’ से और क्या-क्या होता है?” बच्चों ने ज़रा भी देर किए बिना बताना शुरू किया... बारिश, बकरी, बेकार, बकबक, बदबू, बेर। फिर ‘क’ से कबूतर कहीं जा उड़ा, और जो शब्द आए वो थे... कूड़ा, कचरा, काना, कल्लू, कचूमर, कद्दू। बच्चों को उनके सन्दर्भ से जोड़कर पढ़ाया जाना ज़रूरी है, यह सन्दर्भ यहाँ ठीक-ठीक खुल रहा था। फिर कुछ देर गणित के मौखिक सवालों पर काम किया जिससे बच्चे जोड़-घटाना समझ सके। बाद में बच्चों से पूछा, “तुम्हें खाने में क्या पसन्द है?” बच्चों ने कहा... दाल, चावल, भात, दाल, दाल-भात, खिचड़ी... बस इतना ही।

 टीएलएम का उपयोग और एक दूसरे से सीखना: संगीता मैडम बच्चों के मन को समझने की कोशिश करतीं जिससे उन्हें पढ़ना अच्छा लगे। उन्होंने खेल गतिविधियाँ, खिलौने और साथ में टीएलएम आदि का इस्तेमाल करना शुरू किया। कुछ जोड़ना था, कुछ घटाना था, कुछ शब्दों के खेल खेलने थे, कहानियाँ सुननी थीं, सुनानी थीं और लिखने-पढ़ने की ओर बढ़ना था। प्रोत्साहन का जादू ख़ूब चल रहा था। एक बच्चा कुछ सीखता तो उसे वही बात दूसरे को सिखाने को कहतीं। उन्होंने ऐसे समूह बनाए जिनमें अलग-अलग दक्षता वाले बच्चे भी थे जो एक दूसरे से सीख रहे थे। पढ़ना और लिखना बोझ न लगे, मज़ेदार लगे, इसका पूरा ध्यान उन्होंने रखा। तमाम समस्याओं के बीच अब बच्चों को सहजता से लिखना-पढ़ना आने लगा है।

स्कूल संसाधन और प्रबन्धन सब बच्चों के हवाले: स्कूल में दो कमरे हैं। एक कमरा मिला-जुला रीडिंग रूम व लाइब्रेरी का है जिसमें आयु समूह अनुसार बच्चों के लिए विविध रोचक किताबें हैं। यहाँ बच्चों के पढ़ने के लिए अच्छी बैठक व्यवस्था है। लाइब्रेरी का संचालन बच्चे ही करते हैं। दूसरे कमरे में हिन्दी, अँग्रेज़ी, गणित, ईवीएस, आदि विषयों के तरह-तरह के टीएलएम, प्रोजेक्ट, मॉडल हैं जिन्हें बच्चों ने मैडम के साथ मिलकर बनाया है। बच्चे इनके बारे में विस्तार से बात कर लेते हैं, और बता पाते हैं कि किस प्रोजेक्ट का मतलब क्या है। इस कमरे में एक कम्प्यूटर है जिसका उपयोग बच्चे ही करते हैं। उन्हें पता है किस लिंक पर कौन-सी कहानी मिलेगी, और कहाँ सवालों के बारे में बात होगी। वे पूरे आत्मविश्वास से कम्प्यूटर चलाते हैं, और डेटा के लिए मैडम का फ़ोन ले आते हैं। मैडम का फ़ोन तो जैसे बच्चों का अधिकार क्षेत्र है। मैडम भी ख़ुशी-ख़ुशी अपना फ़ोन उन्हें दे देती हैं। और हाँ, बच्चों की पढ़ाई बाहर बरामदे में होती है क्योंकि वहाँ रोशनी बेहतर है।

इस तरह आपसी समन्वय से यहाँ शिक्षण भी होता है और खेल भी। यही वजह है कि स्कूल के 4 बच्चे राज्य स्तरीय खेलों में प्रतिभाग करने जा रहे हैं। समाज में भले ही तरह-तरह के भेदभाव का व्यवहार हो, लेकिन स्कूल में इसकी कोई जगह नहीं है। सारे बच्चे एक दूसरे के साथ खेलते हैं, पढ़ते हैं और खाते हैं। वे एक दूसरे की सीखने में मदद करते हैं। इसके लिए मैडम ने बच्चों के अलग-अलग समूह बनाए हैं। इनमें सारी अस्मिताओं के बच्चे शामिल हैं। पढ़ाई के समूह खेल के समूहों से अलग हैं। महत्त्वपूर्ण है कि स्कूल के वातावरण में भेदभाव की कोई गुंजाइश ही नहीं। बच्चे कहने से ज़्यादा देख समझकर सीखते हैं, और इसे यहाँ बख़ूबी देखा जा सकता है।

“यहाँ एक बगिया है जिसे बच्चों ने बनाया है”, बताते हुए संगीताजी ने मेरे सामने लाल चाय का गिलास बढ़ा दिया। “इसमें बच्चों के लगाए पेड़ का नींबू है”, कहते हुए मैडम की आँखें मुस्कुरा रही थीं, और सामने मुस्कुरा रहा था बच्चों के हाथों से रोपा और सहेजा गया नींबू का पेड़।



हर बच्चे का सम्मान है: ‘ये बच्चे’, ‘इनके घर वाले’, ‘इनसे’, ‘ये लोग’ जैसे सम्बोधन बच्चों या उनके घरवालों के लिए करना ठीक नहीं। बच्चे कहते कुछ नहीं, लेकिन सुनते तो हैं, और उन्हें इस बात का बुरा भी लगता है। इस तरह के सम्बोधन उन्हें अलग तरह से श्रेणीबद्ध करते हैं। संगीताजी इस तरह के सम्बोधनों का न तो ख़ुद उपयोग करती हैं न किसी को करने देती हैं। बच्चों के सम्मान में ज़रा-सी भी कमी उन्हें एकदम सहन नहीं।

पढ़ने-लिखने में अलग से सहयोग: पढ़ने-लिखने का सफ़र भी आसान नहीं रहा। लेकिन ये बच्चे किसी से कम नहीं हैं यह बात समझना भी ज़रूरी था। मैंने लोगों के साथ मिलकर बच्चों को अलग से पढ़ाना शुरू किया। इस पहल ने ब्रिजिंग का काम किया। धीरे-धीरे बच्चों का सीखना गति पकड़ने लगा। जब कोविड आया तो लगा अब यह सिलसिला टूट जाएगा। लेकिन भरोसे की हिम्मत से कोविड में भी सारे नियमों का पालन करते हुए बच्चों का पढ़ना-लिखना जारी रहा।

जो शहर बहुत कुछ कहता था: संगीताजी कहती हैं, “शहर जो मेरे काम को एक पागलपन का नाम दिया करता था, या कुछ को लगता था कि ये सब ज़्यादा दिन नहीं चलेगा, या मैं यह सब वाहवाही लेने या पुरस्कार पाने के उद्देश्य से कर रही हूँ, लेकिन धीरे-धीरे इन सारी ग़लतफ़हमियों से पर्दा हटता गया, और जो लोग सन्देह करते थे अब साथ देने लगे हैं। बच्चों ने मुझे इतना प्यार दिया है, मुझ पर इतना भरोसा किया है कि मेरी आँखें भीग जाती हैं। एक बार मैं बीमार पड़ी, स्कूल नहीं जा सकी तो स्कूल के बाद बच्चों ने मेरा खूब ध्यान रखा। कोई जूस निकालकर ला रहा था, कोई फल काटकर खिला रहा था, और कोई मेरे लिए चाय बना रहा था।” लोगों के मन में सवाल आ सकता है कि अपने पास से पैसे खर्च करके, अपना समय और ऊर्जा लगाकर कोई क्यों काम करेगा भला लेकिन मुझे जो संतुष्टि मिलती है बच्चों को पढ़ते देख वो बेशकीमती है। मेरे लिए यह आसान नहीं होता अगर मेरा परिवार मेरा साथ न देता। साथ देते हैं स्कूल के बाकी साथी भी। प्रिंसिपल ललित मोहन बिष्ट कहते हैं, ‘मैडम बहुत अच्छा काम कर रही हैं। मैं जितना संभव हो उनके प्रयासों में साथ देने का प्रयास करता हूँ’।

 


कुछ अफ़सोस, कुछ उम्मीद: सब ठीक चल रहा है, लेकिन अभी बहुत कुछ ठीक होना बाक़ी है। आसपास के स्कूल इन बच्चों को अपने यहाँ दाख़िला नहीं देते। अभी और बच्चे हैं जिनका स्कूल जाना बाक़ी है। टुकड़ों में मदद करना या प्रशंसा करना अलग बात है, लेकिन बच्चों को दिल से अपनाना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। उसमें अभी कमी है। मेरे पास बच्चे पाँचवीं तक ही तो पढ़ सकते हैं, लेकिन उनका सफ़र तो लम्बा है। सबको यह बात समझना ज़रूरी है कि शिक्षा उनका अधिकार है। मुझे बहुत अफ़सोस है कि मेरे स्कूल का एक बच्चा, अंकुल, किसी और स्कूल में दाख़िला न मिलने के कारण दसवीं की प्राइवेट परीक्षा दे रहा है, जबकि उसे किसी भी स्कूल में दाख़िला मिलना चाहिए था।

मैं चाहती हूँ कि अंकुल की पढ़ाई पूरी हो, उसे नौकरी मिले जिससे इस समुदाय को भरोसा हो कि इस दुनिया में उनका भी उतना ही हिस्सा है जितना बाक़ी सबका। सम्मान की रोटी कोई ख़्वाब नहीं है। अभी तो शुरुआत है, यह सफ़र अभी लम्बा है...

“शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता प्राप्त करने का एकमात्र और सबसे प्रभावी साधन है। समतामूलक और समावेशी शिक्षा न सिर्फ़ स्वयं में एक आवश्यक लक्ष्य है बल्कि समतामूलक और समावेशी समाज निर्माण के लिए भी अनिवार्य क़दम है, जिसमें प्रत्येक नागरिक को सपने सँजोने, विकास करने, और राष्ट्र हित में योगदान करने का अवसर उपलब्ध हो।”

— नई शिक्षा नीति 2020

“संगीता फ़रासी एक मेहनती अध्यापिका हैं। उन्होंने जिस तरह अभिभावकों को विश्वास में लेकर बच्चों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया है वो वस्तुतः किसी संस्था के पूर्णकालिक काम के समान कहा जा सकता है। बच्चों के लिए अपने संसाधनों से स्कूल आने-जाने की व्यवस्था सुनिश्चित करना, और शाम को अपने घर पर उन्हें पढ़ाना प्रेरणा देता है। बस्ती के परिवारों से उन्होंने जो आत्मिक रिश्ता बनाया है, उनका भरोसा जीता है वो अपने-आप में विशेष है।” — अश्विनी रावत, खण्ड शिक्षा अधिकारी खिर्सू, ज़िला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड

“संगीता मैडम ने एक मिसाल क़ायम की है। जो बच्चे पहले इधर-उधर भटकते थे अब वो स्कूल जाते हैं, पढ़ते हैं, कितना सुन्दर है ये!”

— संध्या नेगी, सब इंस्पेक्टर महिला थाना, श्रीनगर, उत्तराखंड

(प्रतिभा कटियार 14 वर्ष हिन्दी प्रिंट मीडिया में पत्रकारिता करने के बाद अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन के साथ जुड़कर काम कर रही हैं। इनकी 4 पुस्तकें प्रकाशित हैं और दो कहानियों पर लघु फ़िल्मों का निर्माण हुआ है। अंडमान पर लिखा यात्रा संस्मरण और कविता ओ अच्छी लड़कियो कर्नाटका के रानी चेनम्मा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। इनकी कविताओं का गुजराती, मराठी और अँग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है।)

सम्पर्क: pratibha.katiyar@azimpremjifoundation.org

Monday, May 5, 2025

'कबिरा सोई पीर है'- अनसुनी आवाजों की दास्तान


सूरज की किरन सिर पर से टप्पा खाकर जमीन पर लुढ़क गयी थी। ठीक उसी जगह जहां रात भर खिलखिलाने के बाद ऊँघते हुए मोगरे झरे पड़े थे और गिलहरियों की उदुक-फुदुक चल रही थी। अरसे से कैद एक लंबी सिसकी के रिहा होने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था जैसे तपती दोपहर पर किसी ने पानी के छींटे मारे हों।

नहीं जानती कि कैसे लिखा जाता है कोई उपन्यास, कोई कहानी, कोई कविता या कुछ भी। कभी-कभी तो लगता है कि कैसे जिया जाता है जीवन यह भी तो नहीं जानती। बस हर दिन एक इरेज़र और एक पेंसिल लिए घूम रही हूँ कि ज़िंदगी की कॉपी पर दर्ज अनचाही इबारतें मिटाकर कुछ सलोनी सी इबारतें लिख सकूँ। फिर एक रोज समझ आता है कि ऐसा इरेज़र इस सामंती सामाजिक व्यवस्था ने बनने ही नहीं दिया जिससे अन्याय, पीड़ा और जुल्म की इबारतों को मिटाया जा सके। और पेंसिल ऐसी मिली कि उसे जितना छीलो वो टूटती जाती है। कच्ची पेंसिल। कि इसे बनाकर बमुश्किल दो-चार शब्द लिखते ही यह फिर टूट जाती है। लिखने, मिटाने के इस खेल में ज़िंदगी की कॉपी में काफी गचर-पचर हो गयी। जो मिटाया वो मिटा नहीं, जो लिखा वो दिखा नहीं। कुछ लोग, कुछ अस्मितायें ज़िंदगी का वही पन्ना हैं जो इरेज़र लगातार घिस रहे हैं इतना कि कॉपी का पन्ना ही कई बार फट जाता है और लिखने की कोशिश में पेंसिल ही नहीं उँगलियाँ तक छील चुके हैं।

जबकि इसी बीच कुछ लोगों के पास थे बढ़िया जेल पेन और अच्छे से चिकने कागज़ वाली डायरी। जिस पर उन्होंने लिखा कि 'सब ठीक है' 'कहीं कोई अन्याय नहीं' या फिर राजनैतिक लाभ के लिए तमाम अस्मिताओं के जीवन के लिए जो जरूरी एहबाब था उसे मुद्दों में तब्दील कर लिया। परीक्षा में निबंध का विषय, कविता, कहानी या उपन्यास का विषय और...और बस।

गिलहरियों की उदुक-फुदुक को देखते हुए आसमान की ओर देखा तो आँखें भर आयीं। गर्दन सीधी करके चलना भी कहाँ सीखा था जो यूं आंख भर आसमान देखते। आज इस देखने में जीवन की लंबी यात्रा, न जाने कितनी चुभी, अनचुभी किरचें शामिल हैं। वो कितनी ही चुप्पियां जो आवाज़ बन पाने की आस में मुरझाती रहीं।

एक रोज सदियों से दरकिनार की गयी अस्मिताओं ने अपनी चुप्पियों को खाली बंजर जमीन पर बो दिया था। उनके आंसुओं की बरसात और संघर्षों की धूप ने उन चुप्पियों के बीजों की परवरिश की और उस बंजर जमीन पर अंकुर फूटे। यह उपन्यास वही अंकुर है। नारों, भाषणों, विमर्शों के शोर में अनसुनी आवाजों के अंकुर। जो बुदबुदाते हुए कहती हैं, 'जिस बारे में आप सब बात कर रहे हैं वो मैं हूँ।' विमर्श और चर्चाओं में व्यस्त लोग उन आवाज़ों को मुंह पर उंगली रखने का इशारा करते हुए चुप रहने का संकेत करते हैं।

वही आवाजें इस उपन्यास में सुस्ताने चली आई हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए शायद पाठक उन आवाज़ों को देख पाएँ, महसूस कर पाएँ, उनकी तरफ हाथ बढ़ा सकें, गले लगा सकें।

सबको उनके हिस्से की धूप, बारिशें और जीवन पूरे अधिकार के साथ मिले इसी कामना के साथ पहला उपन्यास आप सबके हवाले है।

link of the book- https://shorturl.at/47uu7

Monday, April 21, 2025

मेरे भीतर पाखंड भरा है



'मैं ख़ुद के भीतर चल रही इस उलझन को समझ नहीं पा रहा हूँ तृप्ति। मुझे लगता था मैं काफी लिबरल हूँ, लेकिन इस एक घटना ने मेरी अब तक अपने बारे में बनाई गई राय को खंडित कर दिया। मुझे महसूस हुआ कि मेरे भीतर काफी पाखंड भरा है, लिबरल होने का पाखंड। मैं आम आदमी ही हूँ, आम पुरुष, बल्कि उनसे भी बुरा। क्योंकि मैंने अपने भीतर लिबरल होने का झूठ पाल रखा है।'
 
कबिरा सोई पीर है • प्रतिभा कटियार
#साथजुड़ेंसाथपढ़ें #लोकभारतीप्रकाशन

Wednesday, April 16, 2025

कबिरा सोई पीर है- सामाजिक विषमताएं उभरती हैं पात्रों के अंतर्द्वंद्व में


- सुरेखा भनोट 

इंतजार के बाद आ ही गया 'कबिरा सोई पीर है' मेरे हाथों में भी। और एक ही दिन में चार बार शांत वातावरण ढूंढकर इस बेहद सुंदर कृति को पढ़ लिया। पूरा दिन तृप्ति ,अनुभव ,सीमा, कनिका,उनके परिवारजन, उनके संघर्ष, अन्तर्द्वन्द महसूस करती रही। प्रतिभा, तुमने प्रत्येक पात्र जो विविध मानसिकता, विभिन्न परिस्थितियों में जी रहे हैं, अपने संघर्ष, अन्तर्द्वन्द के साथ, उनके आपसी संबंधों को कुछ ऐसा गढ़ा है कि हम हर पात्र को बिना किसी मूल्यांकन के समझ पाते हैं। इन पात्रों के माध्यम से तुमने बेबाक उभारा है जाति का दंश, दंभ, पितृसत्ता की साजिश, स्त्री की निरहिता , सामाजिक विषमताएं। 

भाषा बहुत सुंदर ,सरल कवितामय है।  हर प्रसंग एक उपयुक्त शेर से शुरू होता है, अंत में पूरा शेर। यह शैली मुझे बहुत रास आई। ऋषिकेश शहर, उसमे बहती गंगा का विवरण और उसका सबके साथ एक अपना ही प्यार सा रिश्ता है जो भी मन को छू जाता है। 

प्रतिभा का कवि मन, उसकी कल्पना, प्रकृति के साथ तादात्म्य झलकता है पूरे उपन्यास में। कनिका और तृप्ति की दोस्ती स्वयं प्रतिभा के अनन्य लोगो के साथ खूबसूरत दोस्ती की झलक है। ये किताब तो बार-बार, कोई भी पृष्ठ खोलकर स्वयं को , समाज को सुंदर, भरोसेमंद बनाने के लिए प्रेरित करेगी, मार्गदर्शन देगी। 

शाबाश, बधाई, प्यार प्रतिभा इतना सुंदर उपन्यास लिखने के लिए! 🥰

(सुरेखा जी बिट्स पिलानी की प्रोफेसर रही हैं। सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक कार्यों से जुड़ी हैं।)

Monday, April 14, 2025

बेहद प्रासंगिक है 'कबिरा सोई पीर है'



- श्रुति कुशवाहा 
(पत्रकार, कवि)
आजकल एक ट्रेंड सा चल पड़ा है…आप किसी मुद्दे को उठाइए और कई लोग मंत्र की तरह जपने लगेंगे ‘अब ऐसा कहा होता है’ ‘दुनिया बदल गई है’ ‘आप किस ज़माने की बात कर रहे हैं’ ‘ये सब गुज़रे समय की बात हो गई’। मुद्दों को डाइल्यूट/डिस्ट्रेक्ट/डायवर्ट करने का ये सबसे आसान तरीका है।
 
आपके घर में..आपके मोहल्ले में..आपकी सोसाइटी में या आपके आसपास का माहौल बदल जाने भर का अर्थ ये नहीं कि सारी दुनिया बदल गई है। दुनिया उतनी रंगीन नहीं है..जितनी आपके चश्मे से दिखाई देती है।
दुनिया आज भी बेतरह चुनौतीपूर्ण, संघर्षों और समस्याओं से भरी हुई है..जिसे Pratibha Katiyar के उपन्यास ‘कबिरा सोई पीर है’ में पूरी मुखरता से दर्शाया गया है।

‘जाति’ पर बात करना आज के समय में कुछ आउटडेटेड मान लिया गया है। बार-बार वही जुमला सुनाई देता है…’अब कहा होता है भेदभाव’ ‘अब तो *उनको* सारी सुविधाएं मिला हुई हैं, रिजर्वेशन है, हम *उनके* हाथ का खा भी लेते हैं, *उनके* घर आना-जाना भी है*’। लेकिन इन सबमें ये जो “उनके” है न…यही भेदभाव है। आज भी रिजर्वेशन के नाम पर कितने लोग मुँह बिचकाते हैं..कभी गौर किया है आपने ?

‘कबिरा सोई पीर है’ उपन्यास में इस विषय पर बहुत गहनता से गौर किया गया है। एक प्रेम-कहानी है जिसके इर्द-गिर्द वास्तविक दुनिया कितनी प्रेम-विहीन और निष्ठुर है..ये उकेरा गया है। यकीन मानिए प्रेम की भी राजनीति होती है। प्रेम भी समय और समाज के कलुष से अछूता नहीं रह पाता। चाहे जितना प्रगाढ़ हो..प्रेम पर भी कुरीतियों के कुपाठ का प्रभाव पड़ता है।

प्रतिभा जी के उपन्यास को पढ़ते हुए मन बार-बार व्यथित होता है। मैंने कई बार चाहा कि पन्ना पलटने के साथ काश कोई जादू हो जाए। लेकिन ये चाहना वास्तविकता से मुँह फेरना ही तो है। और उपन्यास वास्तविकता से बिल्कुल भी मुँह नहीं फेरता है। इसमें कई मुद्दों को छुआ गया है लेकिन जाति व्यवस्था मूल विषय है। यहाँ कोई लागलपेट नहीं है..कोई छद्म आडंबर नहीं है..शब्दों की चाशनी नहीं है..भाषा का खेल नहीं है..सौंदर्य का कृत्रिम आवरण नहीं है। 

इस उपन्यास में आपको खरा सच मिलेगा..और सच से आँख मिलाने की कठिन चुनौती भी।
बहुत सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखने वालीं प्रतिभा कटियार जी का ये पहला उपन्यास है जिसमें सरोकार, ईमानदारी और बेबाकी के साथ इस गंभीर मुद्दे को उकेरा गया है। ये उपन्यास आपकी संवेदनाओं को झकझोरता है और कई प्रश्नों के साथ छोड़ जाता है। इसे पढ़ने के बाद कोई भी संवेदनशील व्यक्ति बेचैनी से भर जाएगा। जब तक मनुष्य को जाति के पैमाने पर तौला जाता रहेगा..इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी रहेगी। और आज के विद्रूप होते समय में ये उपन्यास बेहद प्रासंगिक है।

‘कबिरा सोई पीर है’ पढ़ा जाना चाहिए और इसमें उठाए सवालों पर मनन होना चाहिए।

Saturday, April 12, 2025

समाज की सच्चाई की परतें खुलती हैं कबिरा सोई पीर है में



- जयंती रंगनाथन 
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक )

प्रतिभा कटियार बेहद अजीज है, सालों का रिश्ता है। अंदर-बाहर से बेहद प्यारी। हम कम मिले हैं, पर जब भी मिले हैं, झूम कर, प्यार से और ऐसे कि कोई बेहद पुराना सा रिश्ता हो।
प्रतिभा बहुत प्यारी और गहरी कविताएं लिखती हैं। उसका पहला उपन्यास आया है कबिरा सोई पीर है, लोकभारती पेपरबैक्स से। बिलकुल प्रतिभा की ही तरह है उसका उपन्यास, बोलता हुआ और बहुत कुछ कहता हुआ। जितना लिखा है, उससे भी गहरा।

प्रतिभा ने अपने पहले उपन्यास का विषय साहस से उठाया है, समाज का वो वर्ग, जो सालों से दबा-कुचला रहा है। उस वर्ग की दो बहनें तृप्ति और सीमा अलग-अलग तरह से अपने परिवेश और घुटन से लड़ती हैं। तृप्ति पढ़ने में होशियार, सीमा व्यवहारकुशल। सांवली और औसत दिखने वाली तृप्ति सिविल सर्विस के मुहाने पर खडी है, प्रिलिम्स क्लीयर कर चुकी है। कोचिंग क्लास का साथी सवर्ण लड़का उसे चाहता है। पर जाति की दीवार इतनी लंबी-चौंडी-संकरी है जिससे पार पाना मुश्किल। उपन्यास पढ़ते हुए कई बार मैंने पन्नों को मोड़ कर रख दिया, इस दुआ के साथ कि आगे के पन्नों पर बहनों के साथ सब अच्छा हो। भरे मन के साथ पन्ने खोलती। वहां तो सच की चादर तनी थी। एक गुस्सा सा व्याप्त होने लगा कि हम जिस जमीन पर खड़े हैं, वहां से एक गज नीचे हमने दूसरों को रहने लायक छोड़ा ही नहीं।

इस उपन्यास की कई परतें हैं। किरदारों की भी। आप अंत तक यही मनाते हैं कि सब ठीक हो जाए।
एक बात और, मैंने जो जिंदगी देखी और आसपास देख रही हूं, वहां अब जाति को ले कर इतने खूंखार मसले नहीं रहे। हमारी बिल्डिंग में ही गाड़ी साफ करने वाले आदमी को जब किसी गाड़ी के मालिक ने गाली दी, तो हंगामा हो गया। अंतत: पुलिस आई, गाली देने वाले को उठा कर ले गई और उसे माफी मांगनी पड़ी। इस चेतावनी के साथ कि आगे से वो गाली-गलौच नहीं करेगा। माली, काम वाली, क्लीनर सबके बच्चे घर आते हैं, बिल्कुल हमारे बच्चों की तरह रहते हैं। सबके बच्चे मिल कर खेलते हैं। मैंने कभी किसी माता-पिता को यह कहते नहीं देखा कि तुम माली या ... के बच्चे के साथ नहीं खेलोगे
माहौल बदल रहा है। सकारात्मक बदलाव।
इस समाज का सालों से हमें इंतजार था
बड़े पदों पर एससी एसटी काम कर रहे हैं, पूरी इज्जत के साथ।
किसकी हिम्मत है कि उनके कहे की अवहेलना करे

यह भी अहम बात है कि गांव-कस्बों में दलितों खासकर लड़कियों के साथ होने वाली नृशंस घटनाओं की खबर लगभग रोज अखबारों में छपती हैं। दिल दहलाने वाली। खून खौलता है कि कैसे उन्हें बचाया जाए
ऐसे परिप्रेक्ष्य में तृप्ति और उसके परिवार का संघर्ष पढ़ना भारी कर जाता है

पर हमारे यहां की तमाम तृप्तियों और सीमाओं को उनकी मनचाही जिंदगी जीने का हौसला मिले यही कामना है।
प्रतिभा ने कबिरा सोई पीर है में अपना दिल उडेला है, कलेजा छलनी कर देता है इसका विवरण और इसके किरदार। मन ही मन खूब दुआ तुम्हारे लिए प्रतिभा। सच को सुनना और लिखना हर किसी के बस की बात नहीं है।

Thursday, March 27, 2025

जब उदास होती हूँ


जब उदास होती हूँ
किसी नदी का हाथ थाम लेती हूँ
  
जब फफक कर रो पड़ने को होती हूँ 
किसी पेड़ को गले लगा लेती हूँ 

जब अन्याय की पराकाष्ठा होती है 
और मूर्खतापूर्ण बहसों का दौर शुरू होता है 
किसी मजदूर के पास बैठकर 
उसकी बीड़ी साझा करती हूँ।  

जब दुनिया नाउम्मीदी से भरने को होती है 
किसानों के साथ मिलकर 
उम्मीद के बीज बोने लगती हूँ 

जब नायक की विद्रूप हंसी भयभीत करती है 
बेहतर दुनिया के सपने देखने लगती हूँ 

जानती हूँ मेरे अकेले के बस का नही 
इस दुनिया को जीने लायक बना पाना 
फिर भी स्त्री हूँ, हार कैसे मानूँगी
इसलिए अपने हिस्से के काम 
और सुभीते से करने लगती हूँ...

Wednesday, March 26, 2025

मनोकामिनी सा मन



बीतती नहीं वो रात 
जब आसमान झील में औंधा पड़ा था 
और जुगनू हमारे साथ 
झील में पड़े सितारों से बतिया रहे थे 

हवाओं में एक खुनक थी 
और तुमने मेरी देह पर 
ख़ामोशी की चादर लपेट थी 

तुम्हारी आँखों से सारा अनकहा 
मनोकामिनी की ख़ुशबू सा झर उठा था 
झील की सतह पर हवाएँ नृत्य कर रही थीं 
जैसे नृत्य करती है स्त्री की अभिलाषा 

हमने साँसों के सम पर मुस्कुराहटें पिरो दीं थीं 
सितारों भरा आसमान 
आसमान काँधों से आ लगा था

कोई तारा टूटने नहीं दिया तुमने उस रोज 
कि हर ख़्वाब को आहिस्ता से सहेज लिया 

इन जिये हुए लम्हों ने दुनिया संभालने की ताक़त दी है 
इन उम्मीद भरे लम्हों ने मज़लूमों का साथ देने 
और मगरूर शासक से आँख मिलाने की हिम्मत दी है 

हाँ, प्रेम जरूरी है दुनिया को सुंदर बनाने के लिए 
इंसानियत में आस्था बनाए रखने के लिए। 

Monday, March 24, 2025

जिद्दी हवाओं के गीत



झील में डुबकी लगाकर आई हवाओं में 
कोई बेफिक्री तारी थी 

देर रात की जाग 
हवाओं की आँखों की चमक थी 

उन्हें न सूरज से निस्बत 
न पहाड़ से, न जंगल से 
उन्हें बस हमारे करीब आना था 
हम दोनों के बीच ही बैठना था 
हम दोनों का हाथ थामना था 
उन्हें हमारी सुबह की चाय में 
किसी जादू सा घुल जाना था 

वो जिद्दी हवाएँ थीं 
सुबह बीत जाने के बाद भी 
अपनी पूरी धज से इतरा रही हैं 

उन जिद्दी हवाओं की खुशबू 
रोज एक गीत लिखती है 
कि दुनिया एक रोज 
सबके जीने के लायक होगी 
न कोई हिंसा होगी, न कोई नफरत 

उन गीतों को 
एक ख़्वाबिदा सी लड़की 
रोज गुनगुनाती है 
सूरज की किरणें उन गीतों को 
लाड़ करती हैं 

तुम मेरा माथा चूमते हो 
और धरती आश्वस्ति की धुन पर 
झूम उठती है। 

Sunday, March 23, 2025

पंछी घर देर ले लौटे थे उस रोज...



दुनियादारी और जिम्मेदारियों के बोझ से
बस झुकने को थे कांधे 
कि तुम्हारे स्पर्श के फाहे 
राहत बन उतर आए थे उन पर
 
आँखों के नीचे सदियों के रतजगे 
अपनी स्थाई पैठ बनाने ही वाले थे 
कि तुम्हारी पोरों की छुअन ने 
उन्हें गुलाबी पंखुड़ियों में बदल दिया था 

भागते-दौड़ते पैरों में उग आए छालों तले 
तुमने अपनी हथेलियाँ रख दी थीं 
और पीड़ा का सुर 
प्रेम के सुर में ढलने लगा था 

तुम जानते हो कि 
स्त्री के दुख का उपाय सिर्फ प्रकृति के पास है 
इसलिए हमेशा 
तुम तोहफे में कभी नदी, कभी जंगल 
कभी समंदर तो कभी तारों भरा आसमान भेजा करते 

कोई दुख कैसे टिकता भला जब 
सामने प्यार से भरा सागर हो 
और साथ हो तुम्हारा प्रेम...

सूरज ने थोड़ा ओवरटाइम किया था उस रोज 
और पंछी भी घर देर से लौटे थे। 

Saturday, March 22, 2025

हम मिलेंगे


 हम मिलेंगे 
जब सूरज डूबा नहीं होगा 
और साँझ 
नदी में झिलमिलाते दिन की परछाईं 
एकटक देख रही होगी 

हम मिलेंगे जब नफ़रतें 
अपना सामान समेटकर जाने को होंगी 
और दुनिया के सारे रास्ते 
इश्क़ गली की ओर मुड़ रहे होंगे 

हम मिलेंगे 
जब शाखें उम्मीदों से भर उठेंगी 
तारों भरा आसमान 
हथेली पर उतर आएगा 
और तुम सप्तऋषि मण्डल को 
मेरे माथे पर सजाते हुए कहोगे 
कि देखो पल भर को ही सही 
हमारे प्यार ने 
दुनिया को सुंदर बना तो दिया है। 

गुजराती अनुवाद- 
|| આપણે મળીશું ||
આપણે મળીશું
જ્યારે
સૂર્ય હજુ ડૂબ્યો નહીં હોય
અને સાંજ
નદીમાં ઝબકતા દિવસના ઓળા
એકીટશે નિહાળતી હશે
આપણે મળીશું
જ્યારે નફરત પોતાનો સામાન સંકેલીને જવામાં હશે
અને દુનિયાના બધાં રસ્તા
પ્રેમ - ગલી તરફ વળતાં હશે
આપણે મળીશું
જ્યારે શાખાઓ આશાઓથી લચી પડી હશે
તારા - ખચિત આકાશ
હથેળીમાં ઉતરી આવ્યું હશે
અને તું
સપ્તર્ષિ - મંડળને મારી સેંથીમાં પૂરીને કહીશ
' જો, ભલે પળવાર માટે હો
પણ આપણા પ્રેમથી
દુનિયા સુંદર બની તો ખરી ને ! '
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિન્દી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી

Saturday, March 8, 2025

बबल को तोड़ता उपन्यास - मेघना तारे



- मेघना

दो दिन हुये उपन्यास को आये पर कुछ था जो कह रहा था कि अभी नहीं, बाद में पढ़ना, क्योंकि इसके बाद शायद काफी कुछ सोचना पड़ेगा. अपनी छोटी सी नौकरी और उसके साथ वाली रिसर्च के छोटे से दायरे में सिमटा मेरा छोटा सा विश्व (जिसे मैं अक्सर "बबल" कहती हूँ, क्योंकि इसके बाहर क्या होता है, कभी-कभार ही पता चलता है) भी "आजकल कहाँ होता है ऐसा" वाली मान्यता के हैं। देर सबेर खुद को लिबरल भी कहला ही लेती हूँ। पर यह उपन्यास दिमाग के दरवाज़े ही नहीं खोलता, पर हथौड़े के माफिक वार कर सच्चाई के सामने खड़ा करता है... 

अन्त आते आते अवसाद हुआ, रुलाई नहीं फूटी!! दो‌ या तीन मिनटों बाद आँसू रिसे, जो मुश्किल‌ से ज़ब्त‌ हुये, एक नयी तैयारी के लिये।

फिलहाल जिस मन:स्थिति में हूँ, हर दिन एक नया दिन‌ है! ये उपन्यास् एक शाम में पढ़ लेने वाला तो है, पर शायद एक बार‌ में समझ आने वाला नहीं है!! मेरी; शायद हम सभी की कंडिशनिंग ऐसी ही है... 

ज़्यादा कुछ रिवील नहीं करना चाहती, (चूँकि चाहती हूँ कि प्रतिभा जी ने जिस तरह से एक thought process को गूंथा है, आप सभी भी उससे लाभान्वित हों) पर हां प्रतिभा जी ने अपने काफी सारे निशान इसमें चिन्हित किये हैं, सुबह, फूल, खुशबू, चाय और नदी... और क्या चाहिये?

प्रतिभा जी, मेरे जैसे लोगों के लिये हो चुके एक आम विषय (जो सिर्फ खबर‌ हो गया है) को सतह पर लाने के लिये, हम सबको sensitize करने के लिये आपको साधुवाद!

(मेघना बिट्स पिलानी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

Friday, February 14, 2025

कबिरा सोई पीर है



मूलतः एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली प्रतिभा कटियार का यह पहला उपन्यास अपनी पठनीयता और अपने सरोकार दोनों वजहों से लगभग चकित करता है। खास बात यह है कि यह उपन्यास बड़ी सहजता से लिखा गया है। सरोकार और संवेदना के नाम पर हिंदी में जिस भारी-भरकम और लगभग समाजशास्त्रीय रूखेपन को छूते लेखन की उम्मीद की जाती है, उससे अलग यह उपन्यास अपने छोटे कलेवर में एक बड़ा वृत्तांत रचता है।

उपन्यास की कहानी एक कोचिंग सेंटर से शुरू होती है जहां अलग-अलग वर्गों के छात्र एक सी महत्वाकांक्षा के साथ पहुंचते हैं। मगर वहां भी छात्रों की पसंद-नापसंद, उनकी मैत्री और उनके संबंधों में एक स्पष्ट भेदभाव चला आता है। उपन्यास में ऐसे किरदार हैं जो इस भेदभाव को तोड़कर आगे बढ़ते हैं और बताते हैं कि दुनिया इन खानों से बड़ी है। जाहिर है, यह प्रेम और आपसी समझ के रसायन से बनी मनुष्यता है जो सामाजिक चाल-चलन पर भारी पड़ रही है। लेकिन दरअसल उपन्यास अगर इसी दिशा में बढ़ कर एक सुखांत पर खत्म हो जाता तो तो शायद वह बराबरी की कामना का एक रूमानी बयान होकर रह जाता। यहां लेखिका साबित करती हैं कि उनके लहजे में चाहे जितनी रूमानियत हो, यथार्थ की उनकी समझ बहुत खरी है। वे घर परिवार और समाज के सारे पूर्वग्रह और पाखंड जैसे तार-तार कर देने पर तुली हैं। वे एक पल के लिए भी इस बात को ओझल नहीं होने देतीं कि यह समाज बहुधा कुछ लोगों के प्रति बहुत अमानुषिक व्यवहार करता है और अगर यह भी न हो तो अपनी उदारता के चरम लम्हों में भी वह उनके अवसर छीनने में कोई कोताही नहीं करता, कोई हिचक नहीं दिखाता।

उपन्यास की नायिका दलित समाज से आती है और बचपन से ही देखती है कि उसकी प्रतिभा दूसरों की आंख का कांटा बनी हुई है। उसकी सफलता भी उसका अभिशाप है। जब उसे कोचिंग सेंटर में ऐसा दोस्त मिलता है जो बराबरी पर भरोसा करता है और उससे प्रेम करने लगता है तब वह कुछ बदलती दिखती है। लेकिन अंत में क्या होता है? क्या वह जीवन के इम्तिहानों और अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं में एक साथ पास कर पाती है? क्या वह अपने लक्ष्य और अपना प्रेम हासिल कर पाती है? इन सवालों के जवाब के लिए उपन्यास पढ़ना होगा।

इसमें संदेह नहीं कि यह उपन्यास एक सांस में पढ़ा जा सकता है, लेकिन उसके बाद जिस गहरी और लंबी सांस की ज़रूरत पड़ती है, वह कहीं हलक में अटकी रह जाती है। कई किरदारों और स्थितियों के बीच रचा गया यह उपन्यास हमारे समय की एक बड़ी विडंबना पर उंगली रखता है।

- प्रियदर्शन
 वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार

Wednesday, February 5, 2025



सारा सबकुछ, कुछ नहीं बचा इतना 

इन दिनों आँखें नम रहती हैं...सबसे इनकी नमी छुपाती हूँ, गर्दन घुमाती हूँ, बातें बदलती हूँ कि कोई सिसकी कलाई थाम लेती है. फिर तन्हाई चुराती हूँ थोड़ी सी...आँखों के बाँध में फंसी नदी को खुला छोड़ती हूँ...फिर रोती हूँ...फिर और रोना आता है. जाने कैसी उदासी है...जाने कैसा मौसम मन का. कुछ समझ नहीं आता कि बस इस उदासी के सजदे में झुक जाती हूँ. ये सुख की उदासी है. सुख जब भी आते हैं अपने साथ उदास नदियाँ लेकर आते हैं.

इन दिनों ऐसे ही सुखों से घिरी हूँ कि आँखें हर वक़्त डबडब करती रहती हैं. क्या है आखिर मुझमें ऐसा? मुझे प्यार की आदत नहीं पड़ी है. सुख की आदत नहीं पड़ी शायद. जब भी प्यार, अपनेपन, सम्मान, स्नेह की बारिशें मुझे भिगोती हैं मैं उदास हो जाती हूँ. कहीं छुप जाना चाहती हूँ. सम्भलता नहीं प्रेम. भरी-भरी आँखों से प्रेमिल लोगों को देखती हूँ. सोचती हूँ इन्हें मुझमें क्या नज़र आता होगा आखिर. क्योंकर मुझे करते हैं इतना प्रेम. ये इन सबकी ही अच्छाई है, मुझमें तो ऐसा कुछ भी नहीं. और फिर आँखें छलक पड़ती हैं.

प्रेम के कारण रुलाने वालों में सबसे नया नाम जुड़ा है विनोद कुमार शुक्ल जी का.

मेरी आँखों में जो गिने चुने सपने थे, जीवन में जो गिनी चुनी ख्वाहिशें थीं उनमें से एक थी विनोद कुमार शुक्ल से मिलने की ख्वाहिश. कई बार ऐसे अवसर बने कि उनसे मिलना होता लेकिन वो अवसर बगलगीर होकर गुजरते रहे. जाने किस लम्हे की तैयारी में कितने लम्हे हमसे छूटते जाते हैं.

इस बार यात्रा की बाबत मैं वहां से लिखूंगी उस अंतिम दृश्य से जो आँखों में बसा हुआ है, फ्रीज हो गया है. रायपुर में विनोद जी के घर से विदा होने का वक़्त. उनका वो जाली के पीछे खड़े होकर स्नेहिल आँखों से हमें देखना और कहना ठीक से जाना, फिर आना. सुधा जी के गले लगना, शाश्वत का कहना मैं चलता हूँ छोड़ने. बमुश्किल उसे मनाना कि तुम रहो यहीं, हम चले जायेंगे.

जैसे नैहर से विदा होती है बिटिया कुछ ऐसी विदाई थी. गला रुंधा हुआ था. और जब तक नजर में रहीं सुधा जी तब तक विदा का हाथ हवा में तैरता रहा.

लौटते समय हम इतने खामोश थे कि हमारी ख़ामोशी के सुर में हवा का खामोश सुर भी शामिल हो गया था.


जब रायपुर जाने की योजना बनी तब हर तरफ से एक ही बात सुनने को मिली, कैसी पागल लड़की है. जब सारी दुनिया गर्मी से राहत पाने को पहाड़ों की तरफ भाग रही है ये पहाड़ छोड़कर रायपुर जा रही है. इतनी गर्मी में. मैं हर सवाल पर मुस्कुरा देती कि यह सिर्फ मैं जानती हूँ कि अपने जिस प्रिय लेखक से मुलाकात का सपना बरसों से मन में छुपा हुआ है उनसे मुलाकात से जो सुकून की ठंडक मुझे मिलने वाली है उसके आगे इस मौसमी ताप की बिसात ही क्या.

मेरे मन में विनोद जी से मिलने की इच्छा में एक संकोच, एक झिझक थी जबकि मेरी प्यारी माया आंटी के मन उत्साह का तूफ़ान था. उन्होंने खुद आनन-फानन में टिकट करायीं और साफ़ कहा, कोई ना-नुकुर नहीं, चलना है तो बस चलना है. मैं तो खुद ही जाना चाहती थी बस मुझे फ़िक्र थी उनकी कि उनके उत्साह का मेल उनकी सेहत से बना रहना भी जरूरी है. मैंने उन्हें समझाया हम फिर चल सकते हैं कभी अच्छे मौसम में. उन्होंने डपट दिया, कोई न-नुकुर नहीं, बस हम जा रहे हैं. और मैं मन में बुदबुदाई हाँ, हम जा रहे हैं.

इंदौर प्रवास के दो दिनों में खूब सारे दोस्तों से मिलना हुआ लेकिन एक मध्धम सुर लगा रहा विनोद जी पास जाने का. सबके कुछ प्लान थे, सबके पास योजनायें थीं. क्या देखना है, कहाँ जाना है, क्या खाना है, क्या खरीदना है. मेरे पास था सिर्फ इंतज़ार कि मुझे विनोद जी से मिलना है.

हालाँकि हर वक़्त वो झिझक साथ ही थी कि क्या कहूँगी मिलकर उनसे. क्या कोई सवाल करुँगी? सवाल तो कोई है नहीं मेरे पास. उन्हें अपने बारे में क्या बताउंगी. विनोद जी माया आंटी को जानते हैं. कई बरसों से. माया आंटी से मैंने कहा,'मुझसे पूछेंगे कि मैं कौन हूँ तो मैं कह दूँगी कि मैं आपका सामान उठाने आई हूँ, आपकी अस्सिटेंट.' वो हंस देतीं इस बात पर. लेकिन मैंने सच में उनसे कहा, 'आप बातें करना मैं चुपचाप सुनूंगी. मैं बस कुछ देर उनके करीब बैठना चाहती हूँ.'

ऐसी ही उहापोह के बीच हम रायपुर पहुंचे. बारिश की बौछारों ने ठंडे मौसम ने हमारा स्वागत किया. सैनिक गेस्ट हाउस की तरह भागती टैक्सी के भीतर दो प्रेमिल छवियाँ एकदम चुप थीं. विनोद जी की तमाम कवितायें साथ चल रही थीं. लेकिन उस वक़्त सबसे करीब थी उनकी कविता की ये पंक्तियाँ-

'मैं फुरसत से नहीं

उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा।
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।'

('जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे' कविता से)

हाँ, हम एक बेहद बेहद जरूरी काम नहीं, इच्छा की तरह उनसे मिलने जा रहे थे. उनके लिए तोहफे में क्या ले जाते तो थोड़ी सी बारिश थोड़ा सा ठंडा मौसम मंगा लिया था...

सुबह वैसी ही थी जैसी उसे होना था. महकती हुई, खुशगवार. सुबह की हथेलियों पर रात की बारिशों के बोसे रखे हुए थे. भीगी हुई सुबह ने जब गाल छुए तो लगा शहर ने लाड़ किया हो जैसे. पैर जैसे थिरक रहे थे और मन उससे भी ज्यादा. मैं और माया आंटी देर रात जागते रहे, गप्प लगाते रहे, हंसी ठिठोली करते रहे. इसमें श्रुति ने भी इंट्री ली बीच में. माया आंटी के भीतर की ऊर्जा चौंकाती है बहुत. तो उस हंसी ठिठोली के बीच मैं ही पहले सो गयी. सुबह आँख खुली तो माया आंटी नहा धोकर वॉक करके आ चुकी थीं. अब बारी मेरी थी समय पर तैयार होने की.

हमने सोचा था कि एक घंटे के करीब विनोद जी के पास बैठेगे फिर देखेंगे क्या करना है. आखिर एक बुजुर्ग व्यक्ति को कितना परेशान कर सकते थे. हम वक़्त पर पहुंचना चाहते थे इसलिए वक़्त से निकल पड़े लेकिन शहर में राजनैतिक उबाल आया हुआ था. जगह-जगह सरकार के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे थे. रास्ते बंद थे. बमुश्किल हम ढेर सारे रास्ते बदलने के बाद विनोद जी के घर पहुंचे. घर जो अब हमारा भी हो गया है. घर जिसका पता मुठ्ठियों में लिए ऐसा महसूस हो रहा था कि सुंदर मौसम का पता हो हाथों में. गली का आखिरी मकान जिसके एक तरफ मौलश्री के दो पेड़ हैं और दूसरी तरह एक आम का पेड़. घर जिसके सामने लगे पेड़ों पर बैठे पंछी बाट जोहते हैं खुशदिल लोगों की आमद की.

घर के करीब पहुँचते ही शाश्वत बाहर खड़े दिख गये. विनोद जी और सुधा जी भी बरामदे में इंतजार करते मिले. किसी को इंतजार में देखना सुखद होता है. मैं जानती थी यह इंतजार मेरा नहीं माया आंटी का था. लेकिन मैं कब माया आंटी से अलग थी. तो मैं उस इंतजार से अभिभूत थी. अभी हम अंदर जाकर बैठे ही थे कि माया आंटी को याद आया कि वो कुछ भूल आई हैं. मैं तुंरत उठी और वापस सैनिक गेस्ट हाउस का रुख किया. तब तक माया आंटी और विनोद जी बात करते रहे और मैं शहर के धरने प्रदर्शन के बीच चक्कर काटती रही. मुझे जाकर वापस आने में 40 मिनट लग गये. मैंने सोचा अभी भी 20 मिनट तो हैं मेरे पास. कुछ देर तो साथ बैठ ही पाऊँगी. उनके हस्ताक्षर लेने के लिए उन्हीं की किताब 'सबकुछ होना बचा रहेगा' मेरे पर्स में थी. और उम्मीद थी कि एक तस्वीर स्मृति के लिए तो मिल ही जायेगी. मेरी कामनाओं की लिस्ट हमेशा बहुत छोटी ही रही है. मेरे लिए इतना पर्याप्त से भी ज्यादा ही था. मैं खुश थी कि उनके साथ 20 मिनट रहूंगी.

लेकिन जब तक मैं लौटी माया आंटी ने माहौल ही बदल दिया था. मैं पहुंची, बैठी तो विनोद जी मुझे लाड़ से देख रहे थे. माया आंटी ने बताया कि मैंने इतनी देर में बता दिया है कि ‘तुम बहुत अच्छा लिखती हो, तुम्हारी किताबें आई हैं.’ जब वो ऐसा कह रही थीं विनोद जी की स्नेहिल दृष्टि मेरे चेहरे पर थी और मेरी ऑंखें एकदम पनीली. मैंने लगभग रुआंसी होकर कहा, 'आपने ऐसा क्यों किया आंटी.' मैं संकोच में इस कदर धंस गयी थी कि समझ में नहीं आ रहा था कहाँ जाऊं. अपने प्रिय लेखक के सम्मुख खुद को लेखक के तौर पर पटका जाना सहज नहीं था. इस लम्हे की तो मेरी तैयारी ही नहीं थी. मैं अपनी ख़ामोशी और संकोच में सिमट गयी थी कि तभी शाश्वत ने कहा, 'आपने फोन पर बात की थी न एक बार मुक्तिबोध के बारे में' मैंने हाँ, में सर हिलाया.

विनोद जी मेरा संकोच समझ गये थे शायद. उन्होंने पास आने को कहा, पास बैठने को. मैं उनके करीब तो बैठना चाहती थी लेकिन उनके बराबर नहीं सो उनके पास फर्श पर मैंने अपने बैठने की सही जगह ढूंढ ली. विनोद जी ने कहा, 'अपनी किताबें लायी हो?'







मैंने नहीं में सर हिलाया और लगभग रो पड़ी. बस इतना ही कह पायी कि ‘अपने प्रिय और इतने वरिष्ठ लेखक के सम्मुख खुद को लेखक के तौर पर लाने की तो मेरी हिम्मत ही नहीं. मैं तो एक विद्यार्थी की तरह आई हूँ. पास बैठूंगी कुछ देर तो यकीनन बहुत कुछ सीखूंगी आपसे.’ यह कहते हुए मेरा स्वर इतना भीगा हुआ था कि शब्द शायद साफ़ नहीं निकल रहे थे. उधर माया आंटी अपने पर्स में मेरी किताब ढूंढ रही थीं और मैं सोच रही थी कि काश न मिले. और वो नहीं मिली. शाश्वत भी समझ गये थे मेरा संकोच. उन्होंने कहा, 'अरे ऐसा क्यों कह रही हैं. यहाँ तो कितने लोग आते हैं किताबें लेकर. देकर जाते हैं.' मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था बस एक चुप थी.

भावुकता बुरी शय है यह सब बहा ले जाती है. लेकिन अगर भावुकता को सहेजने वाला करीब हो तो यह बहुत खूबसूरत हो उठती है, इसके साए में लम्हे महकने लगते हैं. विनोद जी की कोमलता का सुर मेरे संकोच और झिझक के सुर के संग लग गया था. वो मुझे सहज करने का प्रयास करने लगे. ऐसा करते हुए वो लगातार मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने पास बिठाकर कहा, ‘पूछो क्या पूछना है, क्या बात करनी है.’ शाश्वत से उन्होंने ही कहा, रिकॉर्ड करने को. उधर

माया आंटी भी कैमरा तैयार कर चुकी थीं उस बातचीत को रिकॉर्ड करने की जिसकी न मेरे पास कोई योजना थी न तैयारी. मेरे पास कोई सवाल नहीं थे तो मैंने उनसे मुक्तिबोध के बारे में पूछा कि विनोद जी मुक्तिबोध से पहली बार कब मिले थे कैसी थी वो मुलाकात. (वह बातचीत रिकॉर्डेड है जिसे इत्मिनान से पाठकों के सम्मुख लाया जाएगा.)

मैंने उनसे पूछा था अपने मन की दुविधा के बारे में कि जब आप अपने प्रिय लेखक से मिलते थे तो आप उनसे क्या पूछते थे, आपको कैसा लगता था? उन्होंने कहा, बिलकुल वैसा ही जैसा अभी तुम्हें लग रहा है. मैं उनसे एक प्रश्नचिन्ह की तरह मिलता था बिना प्रश्न के.

मैंने इस बात को इस तरह समझा कि जानने की ढेर उत्सुकता लेकिन बिना किसी सवाल के.

मैंने ज़िन्दगी से जो सीखा या जाना है वो यह कि सवाल पूछकर हमें तयशुदा जवाब मिल जाते हैं लेकिन सवाल न पूछकर, संवाद करके हमें उन सवालों के पार जानने का अवसर मिलता है. इसलिए मैं सवाल करने से बचती हूँ, बात करने को उत्सुक होती हूँ. और अभी तक की यात्रा में इसने मेरा काफी साथ दिया है.
उनके साथ हुई बातचीत में जिक्र आया मानव कौल का. उनकी और मानव की उस आत्मीय तस्वीर का. रिल्के और मारीना का. डा वरयाम सिंह जी का, नरेश सक्सेना जी का, नामवर सिंह जी का. यह बातचीत बहुत आत्मीय हो चली थी.

मैं उन्हें बार-बार कह रही थी कि आप थक गए होंगे आराम कर लीजिये लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें बात करना अच्छा लग रहा है. मुझे शिवानी जी से हुई वह मुलाकात याद आई जब बमुश्किल उनसे मिलने का थोड़ा सा वक़्त मिला था क्योंकि वो लम्बे समय से बीमार चल रही थीं लेकिन जब उनसे मुलाकात हुई तो घंटों बात हुई. मुझे ही उन्हें बार-बार रोकना पड़ा था कि आप थक जायेंगी और वो कहतीं 'बड़े दिन बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा है.' इस मुलाकात में उस मुलाकात की स्मृति घुल गयी थी. घुल गयी थी वरयाम जी की वो मीठी डांट जिसमें मेरे लिए फ़िक्र हुआ करती थी.



सोचती हूँ तो रोयें खड़े हो जाते हैं, आखें भीग जाती हैं ऐसा क्या है मुझमें आखिर, कितना लाड़ मिला मुझे इन सबका. शहरयार, निदा फाजली, नीरज, गुलज़ार, जगजीत सिंह...कितने नाम...कितना स्नेह. ये सब लोग मेरे लिए लोग नहीं स्नेह का दरिया हैं. शायद इसी स्नेह ने मुझे संवारा है. मुझमें जो कुछ अच्छा है (अगर है तो) उसमें इन सबका योगदान है. यकीनन.

मेरे हिस्से के 20 मिनट कबके फुर्रर हो चुके थे. मैं रसोई पर काबिज हो चुकी थी. पहले चाय फिर खाने की तैयारी में. विनोद जी खुश थे. उन्होंने सर पर हाथ फेरकर कहा, 'माया जी के आने की ख़बर से लग रहा था कि कोई उत्सव आ रहा है घर में, कोई त्योहार. लेकिन यह नहीं जानता था कि उनके साथ एक प्यारी सी ख़ुशी भी आ रही है जिसका नाम प्रतिभा है. तुम घर की बिटिया हो गयी हो.' मेरी आँखें फिर डबडब करने लगीं.

सारा दिन मेरी आँखें डबडब करती रहीं. यकीन नहीं आ रहा था कि मैं विनोद जी की रसोई सम्भाल रही थी, उनके लिए रोटी बनाना, थाली लगाना, उन्हें परोसकर खाना खिलाना यह सब मेरे हिस्से के सुख थे. मेरे हिस्से के बचे हुए 20 मिनट मुंह बनाये खड़े थे और विनोद जी के साथ बिताया जा रहा एक पूरा दिन उन बीस मिनट को मुंह चिढ़ा रहा था.




मैं भूल ही नहीं पा रही कि किस तरह वो सारे सुख मेरे नाम कर देना चाहते थे. कि सब कुछ मैं खा लूं, सब कुछ ले लूं उनसे. जितनी देर में मैं रोटियां बना रही थी वो अपनी किताब पर मेरे लिए स्नेह की बारिश कर रहे थे,

आत्मीय प्रतिभा कटियार
जो इस घर की बेटी है
को सारा सब कुछ
कुछ नहीं बचा इतना
आशीर्वाद...

फिर उन्होंने इस लिखे को रिकॉर्ड भी किया मेरे लिए. तस्वीर खींचते समय उन्होंने कहा, देखो सब लोग मुस्कुरा रहे हों...



इस पूरी मुलाकात में सुधा जी का जिक्र बेहद जरूरी है कि उनकी प्रेमिल हथेलियों की गर्माहट साथ लिए आई हूँ, शाश्वत की सादगी और सरलता की छवि कभी नहीं बिसरेगी मन से.

कबिरा सोई पीर है- पहला उपन्यास



वसंत हाथ थामे साथ चल रहा है। सचमुच। ट्रेन में हूँ, देहरादून लौट रही हूँ। पूरे रास्ते सरसों के खेतों की बहार छाई हुई है। बहार को देखते हुए अपने दिल की धड़कनों से कहती हूँ, जरा आहिस्ता चलो, दोस्तों से एक ख़बर साझा करनी है। कि मेरा पहला उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है' लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित होकर आ गया है। आज यानि 3 फरवरी से पुस्तक मेले में राजकमल प्रकाशन समूह के स्टॉल पर उपलब्ध है।

मनोज पांडेय का शुक्रिया उन्होंने मेरे लिखे को सुंदर ढंग से सहेज दिया है। अशोक भौमिक मेरे प्रिय हैं, उनका चित्र आवरण पर होना सम्मान की बात है।

प्रियदर्शन जी ने उपन्यास पढ़कर जब मुझे फोन किया था, मुझे लगा जैसे मेरा रिजल्ट आने वाला है। लेकिन जब उन्होंने कहा, 'यह उपन्यास एक सांस में पढ़ा जाने वाला उपन्यास है’ तो काफी देर लगी इस बात को जज़्ब कर पाने में। फिर उन्होंने इसी बात को ब्लर्ब में कुछ इस तरह लिखा, ‘इसमें संदेह नहीं कि यह उपन्यास एक सांस में पढ़ा जा सकता है, लेकिन उसके बाद जिस गहरी और लंबी सांस की ज़रूरत पड़ती है, वह कहीं हलक में अटकी रह जाती है। कई किरदारों और स्थितियों के बीच रचा गया यह उपन्यास हमारे समय की एक बड़ी विडंबना पर उंगली रखता है।‘
बहरहाल, पहला उपन्यास है। और पहले का एहसास कितना अलग होता है, आप सब जानते ही हैं। उम्मीद है जैसे आप सबने अब तक मेरे लिखे को स्नेह दिया है, इस उपन्यास को भी देंगे।
तो, ‘कबिरा सोई पीर है’ अब आपके हवाले है...

Sunday, January 12, 2025

टर्मिनल 3


झारखण्ड से लौट आई हूँ। पूरे 18 घंटे की बेसुध नींद के बाद उठी हूँ तो मन एकदम निर्मल है। हालांकि वापसी में हिन्दी वाला खूबसूरत सफर अँग्रेजी वाले suffer से एक्सचेंज हो जाने के कारण मन थोड़ा कसैला तो था, लेकिन इस जाग में मुझे जो याद है वो पल भर को मेरी पनीली आँखों और थकान में झाँकती उस लड़की की आँखें हैं जिसमें सफर की असुविधा को समझ पाने की और कुछ न कर पाने की निरीहता थी, चलते वक़्त हथेलियों को थामकर कहे वो शब्द थे, 'सॉरी मैम, हम कुछ कर नही पाए ठीक से, आप अपना खयाल रखिएगा।' उस एक पल में मेरा तमाम आक्रोश, सारी असुविधा और थकान मानो ठहर गए थे।

तो किस्सा जरा सा है,राँची से ही फ्लाइट 2 घंटे लेट हो गयी, कारण तकनीकी था। दिल्ली से देहरादून की कनेक्टिंग फ्लाइट थी। सिर्फ 7 मिनट की देरी से वो फ्लाइट मिस हो गयी। हालांकि महान एयर इंडिया का स्टाफ रांची से बेवकूफ बनाने, गैर जिम्मेदार बातें करने और अपनी ज़िम्मेदारी दूसरे पर फेंक देने जैसा व्यवहार कर रहा था। दिल्ली में भी स्टाफ के बेहद खराब व्यवहार और बदइंतजामी के चलते फ्लाइट छूट गयी, जैसे उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, आप जाइए भाड़ में।

इसके बाद इस काउंटर से उस काउंटर, इस ऑफिसर से उस ऑफिसर के बीच झुँझलाते, धक्के खाते टर्मिनल 3 मेरी कहानी का दर्शक बना रहा। बेहद खराब व्यवहार, बेहद खराब व्यवस्था, और बेहद ढीली प्रक्रिया के चलते 1.50 बजे की फ्लाइट मिस होने के बाद मुझे अगले दिन की फ्लाइट का टिकट नसीब हुआ शाम 5 बजे और रहने की व्यवस्था हुई रात 9 बजे वो भी गुड़गाँव के किसी बेहद थके हुए होटल में, जो लगभग धर्मशाला जैसा था। हमें किससे कांटेक्ट करना है हमारे पास कोई नंबर नहीं किसी का। मांगने पर ऐसी झिड़क, कि पूछिये मत। कहा गया कि सुबह आपके पिकअप के लिए कैब भेजी जाएगी। जानते हैं, उस पिकअप कैब के डिटेल्स कब आए? मैं देहरादून पहुँच चुकी थी तब।

कनेक्टिंग फ्लाइट के चलते मेरा सामान भी कहीं गुमशुदा था, जिसकी तलाश में सुबह 3.30 बजे से 5 बजे तक इस काउंटर से उस काउंटर के धक्के खाने का काम शुरू हुआ। और अंत में वो मिला। शुक्र ये रहा कि इस बार फ्लाइट लेट नहीं हुई और देहरादून पहुँच गयी। अब यहाँ जो बैग मिला वो टूटा हुआ था। फिर उसकी कम्पलेन का खेल शुरू हुआ। हालांकि देहरादून का स्टाफ सहयोग भी कर रहा था और विनम्र भी था।

मैं यह पोस्ट क्यों लिख रही हूँ, जबकि एयर इंडिया की शिकायत हर सही जगह पर की जा चुकी है। मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ मानवीय संवेदना की जानिब से। हम किसी भी काम पर हैं, कहीं भी हैं, हमारा व्यवहार कितनी सारी मुश्किलों को कम कर सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में मैंने कई बुजुर्गों को, परिवारों को, छात्रो को इसी तरह परेशान होते देखा। फ्लाइट कैंसिल होना, मिस होना, यह आम बात होगी एयरलाइंस वालों के लिए लेकिन उस व्यक्ति के मन को कौन समझेगा जो किस योजना से कहीं के लिए निकला है। एक बुजुर्ग महिला व्हील चेयर के लिए 4 घंटे से इंतज़ार कर रही थीं। एक बच्ची पहली बार अकेले सफर पर निकली थी पढ़ने के लिए जा रही थी, एक अंकल जो बीमार थे, उन्हें घर पहुँचना था और एक स्टाफ था जो ठीक से बात तक नहीं कर रहा था। दूसरी टिकट कराने और बेकार से होटल में रुकने के इंतजाम को किसी एहसान की तरह दिखाने वाले व्यवहार के खिलाफ मन में ज्यादा गुस्सा था। फिर लगा हमारी इंसानी तरबियत होने में अभी बहुत वक़्त लगेगा। इसका कोई कैप्सूल नहीं, कोई ट्रेनिंग इसे सिखा नहीं सकती। 'हमारी एयरलाइन में आपका स्वागत है, नमस्ते...आपकी यात्रा शुभ हो, आशा है आप हमारी एयरलाइन में फिर से यात्रा करेंगे, आपका दिन शुभ हो ' जैसे नाटकीय वाक्यों में संवेदना कहीं नहीं।
 
संवेदना थी उस बच्ची की आँखों में जिसने कैब में बिठाते हुए मेरी हथेलियाँ थामी थीं। और बस आज की सुबह में उसी हथेलियों की नरमी सिमटी हुई है, वही उम्मीद है। वो ड्यूटी पर तैनात सहेज नहीं थी, इंसानी संवेदना थी...

हाँ, मैं बेहद आशान्वित रहती हूँ हर हाल में, और देखिये न टर्मिनल 3 पर लिखी गयी इस अङ्ग्रेज़ी वाले Suffer की इस कहानी में भी एक आशा तो मुझे मिल ही गयी। 

चित्रा सिंह इस सुबह में गुनगुना रही हैं, सफर में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो...और मैं मुस्कुरा रही हूँ। जीवन के सफर का हाल भी तो कुछ ऐसा ही है न। 

आपकी यात्रा शुभ हो...