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Tuesday, August 29, 2017

उठो न शहर गोरखपुर


सुनो गोरखपुर,

कब तक उठाते रहोगे अपने कन्धों पर
मासूमों की लाशें
कब तक अव्यवस्थाओं को
अपना चेहरा बना रहने दोगे

कब तक 'गोरख्पुरिये' शब्द को
अजीब तरह से इस्तेमाल होते देखते रहोगे
और कब तक कुछ भी हो जाने पर भी
चैन से करवट लेकर सोते रहोगे
कब तक मासूमों की मौतों को
आंकड़ों में तब्दील होते देखते रहोगे

बोलो शहर,
क्या तुम्हारे सीने में कोई दर्द की लहर नहीं उठती
कोई ज्वालामुखी नहीं फूटता
क्या सचमुच तुम्हारा जी नहीं करता कि
मासूमों की सांसों को तोड़ देने वाली सरकारों की
धज्जियाँ उड़ा दी जाएँ

बोलो शहर
अगस्त को बच्चों की मौत का महीना कहकर
पल्ला झाड़ने वालों से तुम्हें कोई शिकायत नहीं

सुनो फ़िराक गोरखपुरी के शहर के वाशिंदों
जरा अपनी आत्मा में अकुलाहट भरो
जरा निवाला तोड़ने से पहले
उन मासूमों के चेहरे याद करो जो
बरसों से वक़्त से पहले विदा होते जा रहे हैं
जरा चैन से अपने घरों में चादर ओढकर सोने से पहले
उन माओं की आँखों को याद कर लो
जो बरसों से सोयी नहीं हैं

उठो न शहर गोरखपुर
कि तुम्हारी चुप्पी अब असहनीय है....


(यह कोई कविता न समझी जाय. यह कुछ न कर पाने की कुंठा है और जो हो रहा है उसके प्रति गुस्सा है )

Thursday, April 16, 2015

जिंदगी तुझको बड़ी देर से जाना मैंने...


सुफैद फूलों की कतारें थीं...दूर तक. बहुत दूर तक. रात की वीरानी...सफेद फूलों की कतारों के संग संगीत सा रच रही थी. मृत्यु का कोमल संगीत...जिसके गले में कोई हिचकी कोई सिसकी अटकी हुई हो...और मृत्यु का उत्सव मुस्कुराहट बन सजा हो होठोें पर। किसी नर्मदा, बेतवा, झेलम किसी चिनाब को आंखों से छलकने की आजादी नहीं...

सुुफैद फूलों की कतारों के बीच-बीच में स्मृतियों के दिये जल रहे थे, दिये की लौ में मुस्कुराता चेहरा...ओह....मृत्यु. शुक्रिया कि तुमने दर्द का एक सिलसिला खत्म किया। मर्सी किलिंग सिर्फ बहस का ही मुद्दा है न्यायालयों के लिए, और आत्महत्या गुनाह ही। मृत्यु इन सबसे आजाद है। वही जिंदगी की तमाम गिरहों को खोलने में समर्थ है।

लड़की स्मृतियों के दियों में लगातार तेल डालती जाती, बाती बढ़ाती जाती। हवाओं को उसने अपनी लटों में बांध रखा था। हवा का कोई टुकड़ा दियो को बुझा नहीं सकता था। सुफैद फूलों की उन कतारों में सुफैद दुपट्टा लहराती लड़की कोई उड़ता हुआ ख्वाब सा मालूम होती थी। 

मरना सिर्फ देह भर नहीं होता...लड़की जानती है। एक घायल जिस्म को ढोते-ढोते भी कभी कोई थक ही जाता है। जब जज्बातों का, अहसासों का ईंधन ही न बचा हो तो बचाने को रह भी क्या जाता है। मृत्यु की कामना अपराध मालूम होती है लेकिन नहीं भी। जिस्म हो या रिश्ते जब बोझ बनकर ढोये जाने लगें,उनसे सलीके से विलग होना जीवन का सौन्दर्य बनाये रखता है। 

दुःख होना अलग बात है और शोक होना अलग। लड़की उसके जीते जी शोक में थी अब दुःख में है। दुःख में एक राहत भी घुली है...अब उसे रोज जख्मों पर मरहम नहीं लगाना होगा, अब टूटी चटखी लगभग घिसटती उम्मीदों को सहेजने की कोशिश में खुद को खपा नहीं देना होगा, अब नहीं सुनने होंगे सांत्वना के वो खंजर से चुभते शब्द कि 'सब ठीक हो जायेगा एक दिन'...जबकि जानता हर कोई है कि कुछ चीजें कभी ठीक नहीं होतीें...अब उसे रोज खुद को जवाब नहीं देना होगा कि 'क्या अब उसे प्यार नहीं रहा। '

जिंदा रहना जरूरी है...लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि जीवन जीने लायक बचा भी है या नहीं। सड़ता, गिजगिजाता , पीड़ा व संत्रास से भरा जीवन....जीते जाना जैसे कोई सजा...

सुबह की अज़ान का वक्त हुआ, लड़की की थकी हुई आंखों में नींद का एक टुकड़ा जो आ टिका था वो खुद को झाड़कर खड़ा हो गया। लड़की ने चौंककर देखा. दिये अब पलकें झपकाने लगे थे। फूलों को भी नींद आने लगी थी। सूरज कहीं आसपास ही था शायद।

उसने किचन में जाकर चाय का पानी चढ़ा दिया...एक कप चाय...बिना इलायची की अदरक वाली चाय, कम चीनी कम दूध वाली जैसी उसे खुद को पसंद है...

सुबह की पहली किरन के साथ ही उसने रात भर जागे दियों को समेट दिया...सुफैद फूलों को कहा सो जाओ...वो देर तक नहाई...कमरे में मेंहदी हसन की आवाज को धूपबत्ती की तरह जलाया...मनपसंद सैंडविच बनाये...वार्डरोब खंगाली और पहनी अपनी पसंद की असमानी साड़ी....घर से निकली तो चेहरे पर सुकून था, खूब रोने के बाद की ताजगी चेहरे पर, जैसे लगातार टीसते जख्म से निजात का सुख...

'कैसी लड़की है...अभी इसके घर में मौत हुई है...और इसके लक्षण तो देखो...' लड़की कान में मोतियों वाले बुंदे पहनते हुए सुनती है...मुस्कुराती है...

जिंदगी तुझको बड़ी देर से जाना मैंने...वो बुदबुदाती है।

उसकी स्कूटी स्टार्ट होती है...और वो ज्यययूूूंयूं से निकल जाती है...'गली-गली तेरी याद बिछी है, प्यारे रस्ता देख के चल...' एफ एम के जरिये उसके कानों गूंजती है मंेंहदी हसन की आवाज, वो स्कूटी रोककर दूसरा एफ एम चैनल को लगाती है...रास्ता अब भी वही था...

Tuesday, September 9, 2014

रब सा ऊंचा इश्क़....


छोटा पेड़ - सुनो, आसमान के इत्ते पास पहुंचकर कैसा लगता है?
बड़ा पेड़ - तुझे कैसे पता कि मैं आसमान के पास हूँ?

छोटा पेड़- देखकर लगता है.
बड़ा पेड़- (हा हा  हा) जिस रोज देखे हुए को सच मानने से मुक्त होगे, उस रोज मिल जायेगा तुम्हें अपने सवाल का जवाब भी. 

छोटा पेड़- (अनमना होकर ) मत बताओ। लेकिन ज्ञान मत दो. हुँहहहह

बड़ा पेड़- अच्छा सुनो, मैं आसमान के पास नहीं गया. एक रोज मेरे कानो से होकर गुजरा एक शब्द 'इश्क़' उसी रोज ये आसमान झुककर मेरे करीब आ गया.…
ऊँचाई क़द की नहीं इश्क़ की होती है....समझे ?
छोटा पेड़- (सर खुजाते हुए) पता नहीं, हाँ शायद, नहीं शायद 
बड़ा पेड़- हा हा हा.…

(कमबख्त इश्क़ )


Friday, September 20, 2013

सब ठीक है....



सुबह जल्दी जागती हूं इन दिनों
रियाज़ के लिए चुनती हूं राग भैरवी

सैर में भैरवी की तान के संग
गुनती चलती हूं स्कूल जा रहे
बच्चों की मुस्कुराहटें

चाय के साथ बस थामे रहती हूं अखबार
फिर उठाकर रख देती हूं दूर

व्यवस्थित करती हूं घर
ढूंढती हूं कुछ खोई हुई चीजें

दवाइयां वक्त पर लेती हूं

ऑफिस में भी सब ठीक है
काम अपनी गति से चल रहा है

मुस्कुराहटों वाली चूनर में
कुछ छेद हो गये थे
पिछले दिनों उसे भी रफू करा लिया है

गाड़ी की सर्विसिंग ड्यू नहीं है

बच्चों की परीक्षाएं भली तरह निपट गयी हैं

बहुत दिन हुए किसी दोस्त से
नहीं हुई खट-पट

चैनलों को देखकर
जागता था गुस्सा
सो अब इंटरटेनमेंट चैनल में
मुंह घुसाये रहती हूं कुछ घंटे

पलटती हूं कुछ किताबें सोने से पहले
और खुद से बुदबुदाती हूं कि
सब ठीक है....
नमी से भरपूर ये शब्द
हर रात मुझे मुंह चिढ़ाते हैं...


Sunday, January 20, 2013

तुझसे नाराज नहीं जिन्दगी...


(दृश्य - एक सजा संवरा से कमरा है. हर चीज करीने से. एक टेबल और दो चेयर. टेबल पर अभी पीकर रखे गये चाय के कप के निशान हैं.)

जीवन- तुम हंसती क्यों रहती हो?
मत्यु- क्योंकि तुम रोते रहते हो.
जीवन- मैं कहां रोता हूं. मैं तो खुश रहता हूं.
मत्यु- तो मैं कहां हंसती हूं. मेरा तो स्वभाव ही है ऐसे दिखने का.
जीवन- तुम झूठ बोलती हो. तुम असल में हमारी लाचारगी का उपहास करती हो.
मत्यु- देखो, मैंने तुम्हें लाचार नहीं कहा, तुमने खुद कहा.
जीवन- मैंने कब कहा?
मत्यु- अरे, अभी...कहा ना
जीवन- ओ...हां. मैं तुमसे डरता हूं न जाने क्यों? उसी डर में रहता हूं.
मत्यु- मुझसे डरते हो. मुझसे? मैं ही तुम्हारा एकमात्र सत्य हूं. तुम्हें तो मुझे प्रेम करना चाहिए.
जीवन- अरे, नहीं चाहिए सत्य. तुम दूर रहो मुझसे. मैं खुश रहूंगा.
मत्यु- तो तुम्हें लगता है कि मेरे न रहने पर तुम खुश होगे.
जीवन- हां, एकदम.
मत्यु- तो ठीक है. मैं तुम्हारे पास नहीं आउंगी. कभी नहीं. चलो अब खुश हो जाओ.
जीवन- हम्म्म्म

कई बरस बाद
(दृश्य- एक वीरान सा आंगन. पतझड़ का मौसम. बरामदे से सटे उलझे हुए से कमरे में जिसे देखकर लगता है कि कभी वो बेहद करीने से रहा होगा में एक बिस्तर पर लेटा हुआ छत को ताकता एक बूढ़ा.)
जीवन- कबसे तुम्हारे इंतजार में हूं. तुम कहां हो. क्यों नहीं आतीं. मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं. हर पल तुम्हारे आने की आहटों पर कान लगाये बैठा हूं.
(पत्तो की सरसराहट की आवाज...)
जीवन - तुम आ गयीं...मुझे पता है तुम ही हो. बोलो न तुम आ गयीं ना?
नियति- तुम्हें किसका इंतजार है मालूम नहीं. ये तो मैं हूं हर पल तुम्हारे पास. तुम्हारी नियति. लो थोड़ा पानी पी लो.
जीवन- नहीं...नहीं पीना मुझे पानी. गुस्से में गिलास फेंक देता है. तुमसे नफरत है मुझे. चली जाओ यहां से.
नियति- हंसते हुए. मैं चली जाऊं? मैं ही तो हूं तुम्हारी नियति. मैं चली जाउंगी फिर...
जीवन- फिर क्या...तुम चली जाओगी तो सब ठीक हो जायेगा. मुझे मुक्ति मिल जायेगी.

(नियति जोर से हंसती है. तभी एक दूसरी खूबसूरत लड़की आकर नियति के करीब खड़ी हो जाती है. उसका नाम मुक्ति है. )

मुक्ति- क्या हुआ. तुम क्यों हंस रही हो?
नियति- अच्छा हुआ तुम आ गयीं. ये पड़ा है तुम्हारा आशिक. कहता है इसे मुक्ति चाहिए.
(मुक्ति जोर से हंसती है.)
मुक्ति- मैं जब भी इसके पास गई ये लोभ, मोह, माया, वासना में खुद को उलझाये बैठा मिला. आज इसे मुक्ति चाहिए.
(तभी किसी और के हंसने की आवाज आती है. एक और स्त्री का प्रवेश.)
मत्यु- हां, तुमसे ठीक पहले ये मेरी कामना कर रहा था. जबकि कई वर्ष पहले इसने मेरा तिरस्कार किया और कहा कि मैं इससे दूर रहूं.
नियति- यही इसका दोष है कि जब जो इसके पास है तब इसे वो नहीं चाहिए. जो है उसका तिरस्कार, जो नहीं है उसके पीछे भागना.
जीवन- मुझे मेरे दुखों से मुक्ति चाहिए. मैं दर्द से तड़प रहा हूं. मेरी मत्यु को बुलाओ कोई. मेरी देह को आराम मिले.

(तीनो नियति, मुक्ति और मत्यु मिलकर हंसती हैं. तभी किसी के जूतों की आहट होती है. एक सजीला नवयुवक प्रवेश करता है. वो सबको देखता है और मुस्कुराता है. तीनों उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखती हैं.)
लड़का- मैं यथार्थ हूं.
तीनों एक साथ- हुंह....
लड़का- देखो सच यही है कि अब इसके मुक्त होकर मत्यु के पास जाने का समय आ गया है. क्यों नियति?

(नियति ख़ामोशी से सर झुका लेती है. जीवन सबको बुझती हुई नजर से देखता है और यथार्थ की बांह पकड़ लेता है. उसकी आंखों में आंसू हैं. वो मत्यु का आलिंगन करके दर्द से मुक्ति चाहता है. नियति उसे दूर से देख रही है...तेज हवा का झोंका आता है और एक पत्ता टूटकर उड़ते हुए जीवन के करीब आकर गिरता है....)
परदा धीरे-धीरे गिरता है.

Monday, August 6, 2012

एक लायक आदमी इश्क के लायक नहीं बचता...




इश्क को उसने उठाकर जिन्दगी के सबसे ऊंचे वाले आले में रख दिया था. उस आले तक पहुँचने के लिए पहले उसने खुद को पंजों पर उठाया. अपने हाथों को खींचकर लम्बा करना चाहे. इतनी मशक्कत मानो अचानक
उसके पैरों की लम्बाई बढ़ जाएगी, हाथों की लम्बाई भी. इतनी ज्यादा कि उसके बराबर दुनिया में कोई लम्बा ना हो सके...और जिन्दगी के सबसे ऊंचे आले तक कोई कभी ना पहुँच सके. अचानक उसने महसूस किया कि वाकई उसका कद बढ़ने लगा है...उसने अपने इश्क को अपने दिल के रैपर में लपेटकर उस आले में रख दिया. ऊपर से कुछ पुआल भर दिया ताकि उसकी सबसे कीमती चीज़ पर किसी को कोई नजर ही ना पड़े. काम हो जाने के बाद वो वापस अपने कद में लौट आया. यही कोई पांच फुट ग्यारह इंच.

वो हमेशा कहती थी कि 'एक इंच कम क्यों...? पूरे छह क्यों नहीं...' ऐसा कहकर वो अक्सर हंस देती. लड़का उसकी बात सुनते हुए अपने कद की एक इंच कम लम्बाई के बारे में सोचने लगता. लड़की उसकी लम्बी बाँहों में झूलते हुए कहती...'तुम पांच फुट के होते तब भी मुझे तुमसे इतना ही प्यार होता पगले...' लड़का खुश हो जाता. उनका प्रेम किशोर वय का प्रेम था. हालाँकि प्रेम हर उम्र में किशोर वय ही होता है...वे खेतों में दिन भर घूमते. उसे लड़की के लिए सबसे ऊंची डाल पर लगे फूल तोड़ने में सबसे ज्यादा सुख मिलता था.

पापा का उसे आईएएस बनाने का ख्वाब उसे खासा बोरिंग लगता.
गांव के तालाब में कंकड़िया फेंकते हुए उसे इतना सुख मिलता कि उसे लगता जिन्दगी में इससे बड़ा कोई सुख ही नहीं. लड़की उसे हर बार नया निशाना बताती और उसकी कंकड़ी ठीक उसी जगह जा पहुँचती. लड़की खुश होकर नाचने लगती. कई बार अति उत्साह में उसे चूम भी लेती थी. फिर अगले ही पल उसकी आँखें भर आतीं.
वो संकोच में सिमट जाती और अपने कदम पीछे लौटा लाती...लड़का अभिसार के रंग में रंग चुका होता और बहुत प्यार से पूछता, 'क्या हुआ?' लड़की कहती, ' कुछ नहीं'  
'कुछ तो?' वो फिर से पूछता.

लड़की रोने लगती और रोते रोते उसके कन्धों पे टिक जाती. उसका रोना बढ़ता जाता. लड़के को समझ में नहीं आता के प्रेम के सबसे खूबसूरत पलों में लड़की अचानक रोने क्यों लगती है. वो उसे चुप करता रहता...और लड़की रोती जाती. सूरज डूबने को होता और जाते जाते लड़की के कान में कह जाता कि आज कि मुलाकात
का वक़्त ख़त्म हुआ. लड़की आंसूं पोंछती और घर की और भाग जाती. जाने क्यों लड़के को जाते हुए क़दमों में लड़की का आना ही सुनाई देता हमेशा. अपने सीने में बसी लड़की के आंसुओं की खुशबू में वह डूब जाता. वो अकेले ही तालाब के किनारे बैठ जाता और सूरज का डूबना फिर चाँद का उगना देखता रहता. इन दिनों उसे किसी से मिलना, बात करना कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. घर देर से पहुँचता और खाने से बचने के लिए तुरंत चादर के भीतर छुप जाता. वो रात भर छत को देखता रहता...छत अचानक आसमान बन जाती और कमरे में पड़ी चारपाई जमीन. वो अपनी बाँहों में लड़की के सर का होना महसूस करता और महसूस करता
कि तारे उतारकर लड़की की मांग में सज जाते...इस वक़्त भी लड़की की आँखों में कोई नदी उफनने को होती. वो यह कभी नहीं समझ पाया कि लड़की आखिर क्यों रो पड़ती है प्रेम के असीम पलों में. लेकिन वो उन आसुंओं को अपनी हथेलियों में समेट लेता.

एक रोज उसने कहा, 'एक दिन तेरे सारे आंसुओं को धरती पर बो दूंगा और प्यार की फसल लहलहाएगी....' लड़की रोते-रोते हंस देती....हर प्रेम कहानी की तरह ये भी एक सामान्य प्रेम कहानी थी. जिसमे लड़के को जाना पड़ा. पापा को और टालना मुश्किल था. उसे शहर जाकर लायक आदमी बनना था.
'इश्क काफी नहीं जिन्दगी के लिए' सोचते हुए उसने भीगी पलकों की गठरी में सारे ख्वाब बांधे और निकाल पड़ा. उसने लड़की को वादा किया वो जल्दी लौटेगा और उसे हमेशा के लिए ले जायेगा. जाते वक़्त उसने अपने इश्क को जिन्दगी के सबसे ऊंचे आले में संभाल के रख दिया. तीन बरस लड़का लायक आदमी बनने में लगा रहा. लौटा तो उसने जिन्दगी के उसी आले को ढूँढा जिसमे उसने अपना इश्क रखा था. अब ना वो दरो-दीवार रहे, ना वो जिन्दगी, ना आला कोई. वो अपने पंजो से उचक-उचक कर जिन्दगी के सारे खानों को तलाशता फिरता...लेकिन उसका ही इश्क अब उसकी पहुँच से बहुत दूर हो गया..बहुत दूर...एक लायक आदमी इश्क के लायक नहीं बचता.... उसने सोचा. अब वो अकेले ही रोता था...अकेले ही तालाबों के किनारों घूमता,
खेतों में वही दिन वही खुशबू ढूंढता. ना जाने कितने बरस बीत गए...वो लायक आदमी अब किसी का पति है
किसी का पिता और किसी का बेटा...उसकी आँखें अक्सर नाम रहती हैं. जिन्दगी ने उसके साथ बेईमानी की. अपने ही इश्क तक उसके हाथ क्यों नहीं पहुँचने दिए...

वो धरती के ना जाने किस कोने में अब सांस लेती होगी. वो क्या अब भी रोती होगी प्यार के पलों में...क्या वो कभी किसी और को प्रेम कर पायेगी...उसे अपनी बाँहों में वही नमी महसूस होती, वही खुशबू...नहीं वो अब कभी नहीं रोती होगी...लड़के की आँखें भीग जतिन तो उसकी पत्नी पूछती 'क्या हुआ?' लड़का कहता 'आँख में कोई तिनका चला गया शायद...' जिन्दगी का तिनका...वो नहीं कह पाता. 

जिन्दगी के सबसे ऊंचे आले में रखा उनका इश्क पूरी दुनिया में अपनी खुशबू बिखेर रहा है.

Saturday, May 26, 2012

यमन की सी मिठास गंगा की शान्ति



उसे रंगों से बहुत प्यार था. कुदरत के हर रंग को वो अपने ऊपर पहनती थी. उसका बासंती आंचल लहराता तो बसंत आ जाता. चारों ओर पीले फूलों की बहार छा जाती. वो हरे रंग की ओढनी ओढती तो सब कहते सावन आ गया है. उसका मन भीगता जब भी तो बादल आकर पूरी धरती को बूंदों के आंचल में समेट लेते. सावन लहराने लगता. उसकी उदासियां काली बदलियों में और उसका अवसाद भीषण तूफान में जज्ब हो जाता. वो लाल रंग पहनती कभी-कभी. वो सुर्ख शरद के दिन हुआ करते थे. धूप अच्छी लगने लगती और नजर की आखिरी हद तक सुर्ख फूलों की कतार सज जाती. यहां तक कि उसके गालों पर भी गुलाब उतर आते. उसकी नाराजगी के दिनों को गर्मियों का नाम दिया लोगों ने. हालांकि वो जानती थी कि ये नाराजगी उसकी खुद से है और इससे किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए. ऐसे में उसकी आंखें छलक पडतीं और तेज गर्मियों में बारिश की कुछ बरस पडतीं. वो मुस्कुराती और दुनिया को तेज गर्मियों से राहत मिलती. असल में उसे जिंदगी से प्यार था. जिंदगी के हर रंग से, हर खुशबू से.

वो रोज खुशबुओं के गुच्छे उतारकर लाती और उन्हें घर के हर कोने में लटका देती. खुशबुओं के उन गुच्छों को हर रोज एक नया रंग देती. कभी गुलाबी रंग वाला गुच्छा बाहर वाले कमरे के ठीक सामने टांग देती और बैंगनी रंग का गुच्छा रसोई में. सफेद रंग की खुशबू वो अपने सोने के कमरे में ले जाती और और दीवारों से लेकर छत तक, खिडकियों से लेकर फर्श तक बिखरा देती. सोने के कमरे में कोई बिस्तर नहीं था...सफेद फूलों की खुशबू जमीन पर बिखराकर वो खुद भी जमीन पर बिखर जाती....कभी-कभी खुशबुएं अपना रंग बदलतीं, जगह बदलतीं. हवाओं में हलचल होती और वे उठकर एक कमरे से उठकर दूसरे कमरे की ओर चल पडतीं. सुर्ख रंग की खुशबू अमूमन दरवाजे पर टंगी होती थी और बडी हसरत से सफेद खुशबू वाले कमरे की ओर देखती थी.

एक रोज लडकी सारी खुशबुओं को समेटकर बैठी थी. सुर्ख भी, सफेद भी, गुलाबी भी, नारंगी भी....उसने खुशबुओं के चेहरों पर अपना हाथ फिराया और पल भर में उनकी पहचान गुम हो गई. सारी खुशबुएं उसकी हथेलियों में उतर आईं और रंग वहीं बेजान से पडे रहे...लड़की वक्त के दरख्त पर पीले रंग की खुशबू तलाश रही थी...वो खुशबू जिसमें राग यमन की सी मिठास होती थी और गंगा की लहरों सी शान्ति. वो तलाशती रही....उसकी आंखों में गंगा यमुना, ब्रहृमपुत्र, गोदावरी, कावेरी सब की सब उतर आईं. अपनी खुशबू भरी हथेलियों से उसने उन नदियों को साधना चाहा लेकिन नहीं साध पाई...उसकी हथेली में सिमटी हुई सारी खुशबुएं नदियों में बह गईं...हर नदी का पानी महकने लगा...लेकिन लडकी की हथेलियां भी सूनी हो गईं, आखें भी और घर भी....

लडकी का मन हल्का हो रहा था. अपनी आंखों से प्रवाहित होने वाली नदियों में उसने समस्त इच्छाओं का तर्पण जो कर दिया था...नदियों के पानी में उसके अवसाद का नीला रंग घुल गया. खुशबू के साथ अवसाद के नीले रंग का मेल किसी नई कंपोजिशन सा मालूम होता.

बिना खुशबू वाले उस घर से उस रोज पहली बार चंदन की खुशबू आती लोगों ने महसूस की...लडकी फिर कभी नहीं दिखी ऐसा लोग कहते हैं, हालाँकि खुशबू और नदियां हमेशा उसके होने का ऐलान करती हैं...

Sunday, April 1, 2012

तेरी जुस्तजू करते रहे...


पहाड़ों की एक महकती शाम...लड़की न भी चाहे तो भी चाँद की किनारी आँचल से छू ही जाती. वो मुंह फिराकर नाराज होने का नाटक करे तो भी चाँद शदीद मोहब्बत सीने में दबाये सामने आ खड़ा होता है...लड़की उसे घूर के देखती, गुस्से में कहती....' दुश्मन'. वो हंस देता है. वो भी हंस देती. मौसम भी मुस्कुरा देता है. ये एक तरह का खेल है. न न...कोई ख्याल नहीं है बस एक खेल है....
दिन भर की थकान के बाद अक्सर नाराज़गी सर उठती है. किस पे उतारी जाए, तो जनाब चाँद ही सही...यूँ उससे भी नाराज होने का अपना मजा है... ये भी क्या बात हुई कि नाराज होने की कोई वजह होनी ही चाहिए. अरे, हम बेवजह ही नाराज होंगे...तो क्या कर लेंगे आप?
लड़की ने 'हुंह...' कहकर सर घुमाया तो वो मुस्कुराकर वहीँ उसके घुटनों के पास सर टिकाकर बैठ गया. 
लड़की की आँखों में कोई बदली बरसने को तैयार थी...लड़की ने उसके सर पर हाथ फिराया...तो कोई नमी हाथों को छू गयी. 
उसने अचानक सुर बदला...दूर किसी पहाड़ी से आती कुछ छायाएं कोई पहाड़ी धुन गुनगुना रही थीं. 
उसने कहा, 'एक बात बताओ हम दोनों रो क्यों रहे हैं?' 
उसने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा, 'क्योंकि हम मुद्दत बाद मिले हैं.' 
'मुद्दत बाद क्यों...रोज ही तो तुम मेरे सर पे टंगे रहते हो...' लड़की बोली. 
'हाँ, टंगा रहता हूँ लेकिन तुम्हें याद है कि तुमने मुझे नज़र भर कब देखा था आज से पहले?'
'वो मेरे शहर की कोई रात थी....मेरे छत की कोई रात. उस रोज भी मैंने तुझसे कहा था, कि तू बेवजह ही गुमान किये फिरता है...इस धरती पर जो मेरा चाँद है न वो तुझसे भी सुन्दर है...पर सच्चाई ये है कि तनहा वो भी है और तनहा मै भी, और तनहा तू भी तो है.....तू उस रोज भी आँखें भिगोये मेरे दर पे खड़ा था...'
'मै तुम्हारे दर से कभी गया ही नहीं....' चाँद की आवाज भारी थी...
'मेरा दर?'
'मेरा तो कोई दर ही नहीं...बस एक गम कि गली है जिसमे अश्कों का आशियाना है. मेरी दुनिया में उसकी याद का सूरज कभी बुझता ही नहीं...चाँद कभी ढलता ही नहीं...ऋतुएँ आती हैं, ठहर जाती हैं. हाँ, ये बात और है कि उसका आना भी एक ख्याल ही रहा और वो ख्याल कभी जाता ही नहीं.' 
'वो जो नहीं है वही तो है हर जगह.' 
'तुम्हें इंतजार है उसका?' उसने पूछा.
'इंतजार?' 
'नहीं...वो तो है हर पल, हर सांस, मेरा होना है उसका ही होना...जो गया ही नहीं उसके आने का इंतजार कैसा...कहते हुए लड़की की आँख भर आई....नहीं है कोई इंतजार....कोई इंतजार नहीं...'
चाँद ने उसकी कलाई थाम ली...'बस कर...चुप हो जा. वो आएगा एक रोज.' 
'कौन...कब...कहाँ...' 
लड़की बावली होने लगी...उसने चाँद के हाथों में फंसी अपनी कलाई को छुड़ाया नहीं...
'बोलो न कब?' बेसब्री छलकी जा रही थी... 
वो मुस्कुराया...'बहुत जल्दी.' कुदरत का ज़र्रा-ज़र्रा तेरे प्रेम का गवाह है...तेरे प्रेम की शिद्दत से बचकर कोई कहाँ जायेगा...फ़िलहाल मै जा रहा हूँ. 
'कहाँ...' लड़की घबराई...फिर से अकेलेपन की दीवारें उठने को थीं....'तेरे प्रेम के सन्देश को पहुँचाने..उसके देश, उसकी गली, उसकी छत पर...'
'मुझे भी ले चलो न?' लड़की मुस्कुराई...
'चलो...' चाँद ने शरारत से बाहें पसार दीं...
लड़की शरमा के खुद में सिमट गयी...'इस मिटटी की देह को अब उनकी आमद का है इंतजार...उनसे कहना कि जिन्दगी कि यात्रा ख़त्म होने को है...मेरी आत्मा को मुक्त करें और इस देह से इसे आजाद करें...जीवन अब भार हुआ जाता है...' उसकी आँखों में छुपी बदलियाँ बरस चली थीं...पहाड़ अचानक भीगने लगे.
चाँद चल दिया....लड़की अपना संदेशा बांचती रही...
तभी सुबह कुलबुलाई...घाटियाँ राग भैरव के आलाप से सज रही थीं...मंदिर में किसी ने घंटा बजाया था...क्या निज़ाम आये थे शिव मंदिर में प्रसाद की चाय पीने...या मेरे सांवरे की है ये आहट...लड़की धीरे से बुदबुदाई...


Saturday, November 27, 2010

डायरीनुमा कुछ अगड़म बगड़म-2

मुझे कभी-कभी सिस्टमैटिक होने से बड़ी शिकायत होती है. बल्कि यूं कहूं कि एक अजीब सी ऊब होती है. कभी-कभी तो यह ऊब इस कदर बढ़ जाती है कि घबराहट में तब्दील होने लगती है. सजा संवरा घर, हर काम का एक वक्त मुकर्रर, जिंदगी एकदम करीने से. ये भी कोई जीना है.
मैंने हमेशा कल्पना की एक सजे-संवरे सुलझे, साफ-सुथरे घर की. अपनी इस कल्पना को साकार करने के लिए काफी मशक्कत भी की. लेकिन मुझे आकर्षित किया हमेशा बिखरे हुए घरों ने. जहां घर भले ही बिखरे हों पर मन एकदम ठिकाने पर. इन दिनों मैं उसी उलझाव को जी रही हूं. सब कुछ बिखरा हुआ है. संभालने का मन भी नहीं. और बिखेर देने का मन है. किताबों की ओर देखने का दिल नहीं चाहता. आइस पाइस खेलने का दिल चाहता है. इक्कम दुक्कम भी. दुनिया की खबरें जानने का मन नहीं करता, मां के संग गप्पें लड़ाने का मन करता है. तेज आवाज में बेसुरा सा गाने को जी चाहता है. जिंदगी को उलट-पुलट करने को जी चाहता है. सूरज को चांद के भीतर छुपा देने का मन होता है. धरती का घूमना रोक कर चांद को घुमाने का मन करता है. सब उल्टा-पुल्टा. मन भी कितना अजीब होता है.

Friday, January 15, 2010

ये मेरे चाँद की जीत है...

दिन दहाड़े चाँद ने सूरज को छुपा लिया....
किसी ने कुछ कहा..किसी ने कुछ देखा...
हमने देखा अपने चाँद को मुस्कुराते हुए...
सूरज पर कब्ज़ा जमाते हुए...
(फोटो- अतुल हुंडू)

Thursday, August 6, 2009

रात भर

रात भर एक ख्याल सुलगता रहा
रात भर एक रिश्ता आंखों में पलता रहा
रात भर मन मोम सा पिघलता रहा
और रात पूरी उम्र में ढलती रही...

Friday, July 24, 2009

इंतजार


नदियों ने छोड़ दिये रास्ते,
पहाड़ों ने मंजूर कर लिया पीछे हटना,
फूलों ने सीख लिया टहनियों पर ठहरना,
हवाओं में दाखिल हो गई शाइस्तगी
सेहरा सारे पानियों से भर गये,
आंखों में उतर आये अनगिनत सपने,
मेरी ही तरह इन सबको भी हुआ है
वहम उनके आने का...

Wednesday, June 24, 2009

मत बुझाओ इंतजार का चांद

तिथियों की गणना के हिसाब से तो पूर्णमाशी थी उस रोज लेकिन चांद न जाने कहां गुम था। हवाओं ने जिस्म को सहलाया तो महसूस हुआ कि हवाओं में भी तिथियों की वही गणना है जो ज़ेहन में। कैलेंडर-वैंलेंडर की बात नहीं है। दिल की बातें और वही हिसाब-किताब। न एक रत्ती कम, न एक रत्ती ज्यादा।

इंतजार की गहरी पीड़ा से डूबे, रचे-बुने एक-एक लम्हे की कीमत सोने या हीरे से कम भी तो नहीं होती। इसलिए पक्के सुनार की तरह हर लम्हे का सही-सही हिसाब रखना होता है. एक अनकहा वादा था दोनों के बीच कि पूर्णमाशी का चाँद साथ देखेंगे हमेशा. उस रात की सारी हवाओं को एक साथ पियेंगे. जख़्मों को खुला छोड़ देंगे कि हवा ही लगे कुछ. तो ये कौन सी अमावस आ गई है, जिसने तिथियों का हिसाब-किताब बिगाड़ दिया।

देखो, उस पगली को लालटेन लेकर ढूंढ रही है अपने ख्वाब का चांद...


Friday, March 20, 2009



लो देख लो ये वस्ल है, ये हिज्र है, ये इश्क
अब लौट चलें आओ बहुत काम पड़ा है....

Sunday, March 8, 2009

हम हैं तो जग है....

किस तरह भरूं मैं अपनी उड़ान
ये आसमान तो बहुत कम है....

Tuesday, January 27, 2009

इंतजार


किसकी खातिर धूप के गजरे

इन शाखों ने पहने थे

जंगल जंगल मीरा रोई

कोई न आया रात हुई .....