Friday, September 28, 2018

फेवरेट सिनेमा- अनुरनन


ये शाम इतनी खूबसूरत है, क्या इसे मैं हमेशा के लिए अपने पास नहीं रख सकती? जब कभी मेरा मन उदास हो जाय तब इसी शाम को क्या मैं फिर से नहीं जी सकती?
क्यों नहीं? बस करना यह है कि ऐसे लम्हों को एक याद में बदल देना है,
'शब्द होते हैं पल भर के लिए निशब्द होता है अनंतकाल के लिए.'

( फिल्म अनुरनन से)

'अनुरनन' ( resonance ) यह मेरी प्रिय फिल्मों में शुमार है. इस पर मैं बहुत तसल्ली से लिखना चाह रही थी.हालंकि तसल्ली अब भी कहाँ मिली है. सिनेमा किस तरह अपना असर दिखाता है, किस तरह वो आपके करीब आकर बैठ जाता है. किरदार आपसे दोस्ती कर लेते हैं ऐसा कुछ महसूस हुआ इस फिल्म को देखते हुए. फिल्म के सभी किरदार राहुल बोस, रितुपर्णो सेनगुप्ता, राइमा सेन और रजत कपूर बेहद संतुलित ढंग से फिल्म में अपनी भूमिकाओं में पैबस्त हैं. मानो वो अभिनय न कर रहे हों, एक खूबसूरत धुन में गुम हों. फिल्म के कुछ दृश्य तो तमाम थकन को निचोड़कर फेंक देने में कामयाब हैं.

बेहद सुंदर भरोसे और प्यार भरे रिश्तों के बीच भी अचानक किस तरह समाज अपनी गलतफहमियों की टोकरी उठाये दाखिल होता है और फिर होता ही जाता है. जिस वक़्त आर्टिकल 497 को लेकर तरह तरह की विवेचनाएँ आ रही हों उस वक़्त ऐसे रिश्तों के ताने-बाने से गुंथी फिल्म को दोबारा देखा जाना चाहिए. समाज की गलतफहमियों वाली टोकरी उतारकर दूर रख आने से जिन्दगी कितनी खूबसूरत, कितनी आसान हो सकती थी लेकिन ऐसा होना कहाँ आसान है.

फिल्म कई परतों में खुलती भी है और हमारी तमाम परतों को खोलती भी है. सच कहूँ तो इस फिल्म ने बहुत सुकून बख्शा था एक वक़्त में. सिनेमोटोग्राफ़ी सुंदर है. फिल्म के तमाम दृश्य किसी तिलस्मी सौन्दर्य से भरपूर नजर आते हैं. बात करने को दिल नहीं चाहता, सिर्फ उन दृश्यों में गुम जाने को जी चाहता है अपनी साँसों की आवाज सुनते हुए.


Monday, September 17, 2018

फेवरेट सिनेमा- सिमरन



प्यारी सी है सिमरन...

अगर बात सिर्फ बंधनों को तोड़ने की है तो बात जरूरी है लेकिन बात जब बंधनों को पहचानने की हो तो और भी ज़रूरी हो जाती है. सही गलत सबका अपना होता है ठीक वैसे ही जीवन जीने का तरीका भी सबका अपना होता है. भूख प्यास भी सबकी अपनी होती है, अलग होती है. हमारा समाज अभी इस अलग सी भूख प्यास को पहचानने की ओर बढ़ा नहीं है. सिमरन उसी ओर बढती हुई फिल्म है.

जाहिर है हिंदी फिल्मों में भी एक लम्बे समय तक अमीरी गरीबी, जातीय वर्गीय भेद, सामंती पारिवारिक दुश्मनियों के बीच प्यार के लिए जगह बनाने की जद्दोजहद में लगा हिंदी सिनेमा अंत में मंगलसूत्रीय महिमा के आगे नतमस्त होता रहा. फिर समय आया कि अगर एक साथी बर्बर है, हिंसक है, बेवफा है तो कैसे सहा जाए और किस तरह उस साथी को वापस परिवार संस्था में लौटा लाया जाए, लेकिन इधर हिंदी सिनेमा ने नयी तरह की अंगड़ाई ली है.

शादी, प्यार, बेवफाई के अलावा भी है जिन्दगी यही सिमरन की कहानी है. कंगना पहले भी एक बार 'क्वीन' फिल्म में अपने सपने पूरे करने अकेले ही निकलती है. शादी टूटने को वो सपने टूटने की वजह बनने से बचाती है लेकिन सिमरन की जिंदगी ही एकदम अलग है. वो प्यार या शादी की तमाम बंदिशों से पार निकल चुकी है. शादी के बाद तलाक ले चुकने के बाद अपनी जिंदगी को अपनी तरह से जीना चाहती है. उसके किरदार को देखते हुए महसूस होता है कि किस तरह नस-नस में उसकी जिंदगी जीने की ख्वाहिश हिलोरे मारती है. जंगल के बीच अपनी फेवरेट जगह पर तितली की तरह उड़ती प्रफुल्ल यानि कंगना बेहद दिलकश लगती है. उसका प्रेमी उसे कहता है, 'कोई इतना सम्पूर्ण कैसे हो सकता है, तुम्हें सांस लेते देखना ही बहुत अच्छा लगता है'. सचमुच जिंदगी छलकती है सिमरन यानि प्रफुल्ल में.

वो अपने पिता से कहती है, 'हाँ मैं गलतियां करती हूँ, बहुत सी गलतियां करती हूँ लेकिन उन्हें मानती भी हूँ न'. वो जिंदगी का पीछा करते-करते कुछ गलत रास्तों पर निकल जाती है मुश्किलों में फंसती चली जाती है लेकिन हार नहीं मानती। उसकी संवेदनाएं उसका साथ नहीं छोड़ती। बैंक लूट के वक़्त जब एक सज्जन को दौरा पड़ता है तो उन्हें पानी पिलाती है.' बैंक लूट की घटना के बाद किस तरह ऐसे अपराधों के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार मान लिए जाने की आदत है लोगों में इस पर अच्छा व्यंग्य है साथ ही एक मध्यमवर्गीय भारतीय पिता की सारी चिंता किसी भी तरह बेटी की शादी पर ही टिकी होती हैं इसको भी अंडरलाइन करती है फिल्म।

सिमरन एक साफ़ दिल लड़की है. छोटे छोटे सपने देखती है, घर का सपना, जिंदगी जीने का सपना, शादी उसका सपना नहीं है, वो प्यार के नाम पर बिसूरती नहीं रहती लेकिन किसी के साथ कोई धोखा भी नहीं देती। गलतियों को जस्टिफाई नहीं करती, उनसे बाहर निकलने का प्रयास करती है. प्रफुल्ल के किरदार को कंगना ने बहुत प्यार और ईमानदारी से निभाया है. फिल्म शादी, ब्वॉयफ्रेंड, दिल टूटने या जुड़ने के किस्सों से अलग है. तर्क मत लगाइये, सही गलत के चक्कर में मत पड़िये बस कंगना से प्यार हो जाने दीजिये।

पिछले दिनों अपने बेबाक इंटरव्यू को लेकर कंगना काफी विवाद में रही है. विवाद जो उसकी साफगोई से उपजे। कौन सही कौन गलत से परे एक खुद मुख़्तार लड़की कंगना ने अपना मुकाम खुद बनाया है.... उसकी हंसी का हाथ थाम लेने को जी करता है, सब कुछ भूलकर जिन्दगी को जी लेने को दिल करता है.

Sunday, September 16, 2018

नायिका उस प्रेम से बाहर नहीं आ सकी थी


और मैंने पाया है अक्सरहाँ यह गुण तुम्हारी नायिका में कि वह घटनाओं में, संबंधों में, अनुष्ठानों में, कार्यक्रमों में, संवादों में, बारिशों में, स्वप्नों में आसानी से प्रवेश करती नहीं। और फिर जो भीतर चली ही जाए तो बाहर लौटती नहीं। बिना ओर-छोर के जंगल में भटकती जाने कौन-सी जड़ी-बूटी खोजती फिरती तुम्हारी नायिका। जीवन की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते तुम्हारी कथाओं की जल भरी बावड़ी में उतर डुबकी लगाने वाली नायिका। फिर नर्मदा तट पर दीयों की झिलमिल संग डूबते-उतराते किसी अँधेरे ज़ेहन में उतर जाने वाली तुम्हारी नायिका।

नहीं, प्रेम से ही नहीं, तुम्हारी यह नायिका कहीं से भी बाहर नहीं आती। बल्कि ये बाहर आने के सारे विकल्पों पर कँटीली बाड़ खींचकर जंगल में प्रवेश करती है। ऐसी नायिका को जीवन की वह गुमी हुई बूटी न मिले तो भला किसे मिले ?

और वह पुरुष, जिसके पास हज़ार ज़िम्मेदारियों का विलाप रहा होगा, हमेशा एक हड़बड़ी रही होगी, गहमागहमी रही होगी; वह पुरुष कहीं प्रवेश नहीं करता पूरा-पूरा। वह, जो दिखता है परिवार में भी, ऑफ़िस की मीटिंगों में भी, अख़बार की सुर्ख़ियों पर बिला नागा प्रतिक्रियाओं में भी, घड़ी में भी, कैलेंडर में भी, स्मृतियों में भी, प्रेम में भी, वह कहीं नहीं है।
क्योंकि बात बड़ी सीधी है कि जो हर कहीं है, वह कहीं नहीं है।

और तुम्हारी यह दुष्टना नायिका, प्रतिभा !

वह एक अछूते गिटार के तारों में तक प्रवेश कर गयी है, जिसे कभी बजाया नहीं जाता। उस गिटार की असह्य धुन पूरी कहानी में गूँजी है।

ओह ! ऐसा आरोह !

मैं तुम्हें बताऊँ, मेरी दोस्त !
कि वह गिटार तुम्हारी कहानी का सबसे मुख्य क़िरदार है।
और बहुत रुलाया तुमने मुझे ऐसी रुत में
कि जब बाद बारिश सूरज तक चिपचिपाता है
कि जब मैंने ख़याल किया था कि नहीं देखनी है एक और बार 'द जैपनीज़ वाइफ़'
कि जब मुझे प्रेस करनी थी मटकुल की वह लेसदार रेड फ़्रॉक
कि जब मुझे समझना था इन दिनों कैसे रुपये किलो टमाटर का भाव
कि जब मुझे अकेले ढूँढ़ निकालना था ट्रेन में अपनी सीट
कि जब मुझे आँखें मूँद कर देखना था अपनी श्वास का विलोम
कि जब मुझे नज़र में आती चीज़ों को भी कर देना था नज़रअंदाज़
कि जब मुझे उड़ने देनी थी अपनी हँसी की तितलियाँ
तब मेरी दोस्त !
तुमने भेजीं मेरे लिए बेहिसाब बारिशें
मिलनी चाहिए तुम्हें इसकी कुछ तो सज़ा
कि जब इस मौसम में, प्रतिभा !
सूरज तक चिपचिपाता है
मैंने तय किया कि रहूँगी दिन भर एरिक क्लैप्टन के
मनभेदिये गिटार के साथ

टियर्स इन हैवन.. टियर्स इन हैवन
टियर्स इन..

**

[ प्रतिभा की ताज़ा कहानी के भीतर चले जाने के बाद ]


#बाबुषा

Saturday, September 15, 2018

फेवरेट सिनेमा- जापानीज़ वाइफ


एक फिल्म देखी थी जापानीज़ वाइफ. यह धीरे-धीरे सरकती हुई फिल्म है ठीक वैसे ही जैसे आहिस्ता-आहिस्ता नसों में उतरता है प्यार. कोई हड़बड़ी नहीं पूरे धैर्य के साथ. यह फिल्म जेहनी सुकून की तलाश को पूरती है, सुख क्रिएट करती है और उसे सहेजकर आगे बढती है. अपर्णा सेन की यह फिल्म मेरी प्रिय प्रेम कहानियों में से एक है. इस फिल्म को देखते हुए प्रेम की साधारणता के साथ उसकी उच्चता को एक साथ महसूस किया मैंने. 

यह कहानी दो ऐसे प्रेमियों की है जो पत्रों के माध्यम से एक दुसरे को जानते हैं. स्नेहमोय (राहुल देव) एक स्कूल टीचर है और उसकी दोस्ती जापान की मियागी (Chigusa Takaku)से हो जाती है. यह दोस्ती खतों के माध्यम से होती है फिर यह खतों के माध्यम से ही प्रेम में बदलती है और फिर ब्याह में. इस दौरान स्नेहमोय के घर में एक विधवा स्त्री संध्या अपने 8 बरस के बच्चे के साथ आती है, उस बच्चे के साथ स्नेहमोय का भावनात्मक लगाव फिल्म में खिलता है साथ ही संध्या की चुप चुप सी उपस्थिति में एक अलग सा खिंचाव है. रिश्तों के पेचोखम में उलझाये बगैर फिल्म प्रेम की सादगी को संभाले हुए आगे बढती रहती है.

इस ज़माने में जब वाट्सप पर फेसबुक पर सेकेंड्स में सन्देश जा पहुँचते हों, वीडियो कॉल के जरिये दुनिया के किसी भी कोने में बैठे किसी भी व्यक्ति से झट से कनेक्ट किया जा सकता हो उस दौर की प्रेम की कहानी को महसूस करना जब कि चिठ्ठियाँ खुदा की किसी नेमत ही मालूम हुआ करती थीं और डाकिया बाबू खुदा के बंदे लगते थे अलग ही अनुभव देता है. ट्रंक कॉल के पैसे जमा करना, कॉल न लगना या आवाज न आना, बात भी न हो पाना और पैसे भी लग जाना, आँख भर-भर चिठ्ठी का इंतजार करना और चिठ्ठी मिलने पर सुख से छलक पड़ना. प्रेम में मिलने का अपना महत्व है लेकिन यह प्रेम कहानी लौंग डिस्टेंस रिलेशनशिप की कहानी एक अलग ही परिभाषा गढ़ती है प्रेम की. प्रेमी जो कभी मिले नहीं उनके प्रेम की प्रगाढ़ता किस तरह फिल्म में खिलता है इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. फिल्म के दृश्य, बारिश, जंगल, नदी सब प्रेम को कॉम्प्लीमेंट करते हैं.

मुझे इस प्रेम कहानी का अंत और भी खूबसूरत लगता है हालाँकि इसके अंत से काफी सारे व्यावहारिक लोग असहमत हो सकते हैं लेकिन चूंकि प्रेम की शुरुआत और अंत सिर्फ प्रेम है किसी घटना का कोई आकार लेना नहीं इस लिहाज से इस कहानी का अंत कुछ भी होता इसे इतना ही खूबसूरत होना था. टिपिकल बॉलीवुड अंत से इसे बचाकर अच्छा ही किया है अपर्णा सेन ने. 15 बरस का प्रेम और एक भी मुलाकात नहीं...झर झर झरते आंसुओं के बीच इस प्रेम कहानी को देखना मैं कभी भूल नहीं पाती.

राहुल बोस मेरे प्रिय कलाकार हैं उन्होंने इस बार भी मोहा है लेकिन फिल्म के अन्य कलाकारों राइमा सेन, मौसमी चटर्जी और Chigusa Takaku ने भी अच्छा अभिनय किया है. अनय गोस्वामी की सिनेमोटोग्राफ़ी कमाल की है.

Friday, September 14, 2018

बारिश का बोसा और सितम्बर


चुपके से दबे पाँव आता है सितम्बर
पीठ से पीठ टिका कर बैठ जाता है
झरनों का संगीत सुनाता है
ओढाता है
बदलते मौसम की नर्म चादर
उंगलियों में सजाता है हरी दूब से बनी मुंदरी
और मंद-मंद मुस्कुराता है मूँद कर आँखें

दूर जाती खाली सड़क पर रख देता है इंतजार
पीले फूलों में आस भर देता है
तेज़ कर देता है खिलखिलाहटों की लय
बिखेरता है धरती पर मोहब्बत के बीज
उदास ख़बरों की उदासी पोंछता है
बंधाता है ढाढस

बारिश का बोसा देता है सितम्बर
पलकों पर रखता है सुकून की नींद के फाहे
सांसों की मध्धम आंच पर सेंकता है सीली ख्वाहिशें
मोहब्बत पर यकीन की लौ तेज़ करते हुए
धीमे से मुस्कुराता है सितम्बर

जिन्दगी को जिन्दगी बनाता है सितम्बर

Thursday, September 13, 2018

फेवरेट सिनेमा - बियोंड द क्लाउड्स


यह फिल्म मैंने हाल ही में देखी और यकीन मानिए इसका जादू उतरा नहीं अब तक. माजिद मज़ीदी की फिल्म कुछ ज्यादा ही उम्मीद से न देखी जाय ऐसा न होना नामुमकिन है. चिल्ड्रेन ऑफ हेवेन का असर तारी होने लगता है फिल्म देखने से पहले हालाँकि किसी भी फ़िल्मकार के लिए यह अच्छी बात नहीं कि इस तरह वो उम्मीद के बोझ से दब जाता है लेकिन बात अगर मज़ीदी की हो तो वो कितनी भी उम्मीदों को पंखों की तरह हल्का बनाना जानते हैं बोझ नहीं बनने देते. यह फिल्म फ्रेम दर फ्रेम बांधती है. मज़ीदी का निर्देशन अनिल मेहता का कैमरा और रहमान का संगीत इसे खूबसूरत अनुभव में ढालते हैं. इस फिल्म का जौनर डिसाइड करना थोड़ा मुश्किल है. इशान खट्टर की यह पहली फिल्म है लेकिन उन्हें देखकर कतई नहीं लगता कि यह उनकी पहली फिल्म है. उनकी आँखें वादा भरी आँखें हैं कि निराश नहीं करूँगा. यह वादा उन्होंने हाल में रिलीज धड़क में बखूबी निभाया. बहन की भूमिका में मालविका ने भी बहुत अच्छा काम किया. 

मुम्बईया भाईगिरी, लड़ाई, झगड़ा, भागमभाग, हिंसा के बीच फिल्म किस कदर नरम मुलायम है यह इसे देखकर ही जाना जा सकता है. यह कहानी एक भाई और बहन की है. बड़ी बहन को रोज पति से पिटते देखते और खुद भी अपने बहन के पति से बेइंतहा पिटता वो नन्हा भाई एक दिन घर से भाग जाता है और बड़ा होकर ड्रग्स माफियाओं के साथ काम करने लगता है. हालाँकि इस सबके पीछे उसके मन में एक सुंदर जिन्दगी का सपना है. मन में बहन के लिए नाराजगी है जो जल्दी ही खत्म हो जाती है. नाटकीय मोड़ों से गुजरती फिल्म में बहन का जेल जाना, वहां दूसरी महिला कैदी के बच्चे से उसकी दोस्ती होना एक अलग ही मुकाम पर ले जाता है फिल्म को. मासूम से कुछ धागे देह पर तैरते महसूस होते हैं. इधर भाई बहन के साथ बलात्कार करने वाले के बच्चों के साथ है और उनके मोह में बंधने लगता है. मज़ीदी ने छायाओं और संगीत के साथ मासूम मुस्कुराहटों का खूबसूरत कोलाज रचा है. बादलों के पार सपनों की जो गठरी है उसका रास्ता दिखाया है. यह फिल्म साथ रह जाने वाली फिल्मों में से एक है. मुझे इस फिल्म में बच्चों के साथ फिल्माए दृश्य, दीवार का पेंटिंग में तब्दील होना, छायाओं में कहानियां बनना बेहद खूबसूरत लगा. और यह भी कि बचपन हर हाल में बचपन है उसे मुस्कुराने का पूरा हक है. 

Wednesday, September 12, 2018

फेवरेट सिनेमा- कभी अलविदा न कहना


'कभी अलविदा न कहना' जाने क्यों यह फिल्म मुझे काफी अच्छी लगी थी जबकि स्टार फेवरेज्म बिलकुल नहीं है इसका कारण.यह फिल्म रिश्तों के उन पेचोखम को खोलती है जो बेहद बारीक़ हैं और जिन पर समाज अभी भी ठीक से बात नहीं करता. शादी होती है क्योंकि शादी होनी होती है. प्यार वही है जैसा फिल्मों में देखा, किताबो में पढ़ा या दोस्तों से सुना. यह फिल्म इस देखे सुने के पार जाने का प्रयास करती है.

कोई बहुत अच्छा होगा तो उससे प्यार हो ही जायेगा यह भला किस तरह संभव है ठीक उसी तरह जैसे किसी से प्यार न होने का कारण उस व्यक्ति का बुराइयों से भरा होना भी क्यों जरूरी है. दो बहुत अच्छे लोगों में भी सब कुछ अच्छा, ठीक तथाकथित आदर्श होते हुए भी प्रेम का एलिमेंट मिसिंग हो सकता है लेकिन इस मिसिंग होने की समझ न तो व्यक्तियों में है न समाज में. अगर किसी से अलग होना है तो उसकी हजार कमियां सामने रखनी होती हैं और किसी का हाथ थामना हो तो उसकी हजार अच्छाईयां.जबकि मन का बावरा पंछी उस डाल पर जाकर भी बैठ सकता है जिसके फल उसे पसंद न हों. इस फिल्म में किसी को हीरो किसी को विलेन नहीं बनाया गया. शादी के पक्ष में बेमतलब के तर्क नहीं रखे गये. बस नहीं है तो नहीं है प्यार शादी में. कोई जबरदस्ती है क्या कि होना ही चाहिये क्योंकि पति अच्छा कमाता है, गुड लुकिंग है, केयरिंग है या पत्नी सुंदर है, डायनमिक है, इसी चश्मे से लोगों को, रिश्तों के देखने वाले समाज के लिए इस फिल्म को हजम करना आसान नहीं हुआ था.

यह फिल्म संवेदनशील होने वाले उस चश्मे से भी धूल पोछती है जहाँ हम अतिरिक्त केयर करके या ख्याल रखके भी एक अनमना सा बोझ डालते हैं साथी पर और अपने भीतर अनजाना सा सुपिरियटी कॉम्प्लेक्स पाल लेते हैं.

उस वक़्त भी इस फिल्म पर काफी बवाल हुआ था. हमने अख़बार में इस पर लम्बे समय तक परिचर्चा भी चलाई थी. बवाल होता भी क्यों न कि अच्छा घर, नाक नक्शा, खानदान, सैलरी देखकर रिश्ते तय करने वाला समाज जो है यह. और शादी के बाद कितनी भी सडन, घुटन, पीड़ा क्यों न हो भीतर शादी के फ्रेम को चमका कर रखने वाला समाज जो है यह. इस फिल्म ने मेरे लिहाज से इस तरह सोचने, देखने और महसूस करने की स्पेस की बात की थी.2006 में आई करन जौहर की इस फिल्म का संगीत भी अच्छा था.



Saturday, September 8, 2018

सवाल करना बड़ी ज़हमत है जो लोकतंत्र लेकर आता है- नवनीत बेदार

नवनीत बेदार को उनके नजदीकी यहाँ तक कि उनके गुरुजन भी अक्सर ‘बेदार साहब’ के नाम से बुलाते हैं | वो तब से साहब हैं जब वर्तमान वाले चर्चित ‘साहब’, ‘साहब’ नहीं बने थे | शाहजहाँपुर में पैदा हुआ यह शख्स न सिर्फ घनघोर यारबाज़ है बल्कि बेतरह लड़ाकू और पढ़ाकू भी | मुझे याद है जब बिलकुल कड़क कलफ लगे झक्क सुफैद कुर्ता-पायजामा पहने बेदार साहब से मैं पहली बार मिला था | वो जेएनयू का सतलज हॉस्टल था और बेदार साहब की धज जेएनयू के मिजाज़ से मेल नहीं खा रही थी | मैं किसी ‘इंकलाबी’ काम से ही यहाँ आया था | साहब को देख कर इन्कलाब से रिसाव शुरू हो चुका था | मैंने कहा ‘नमस्ते सर!’ और अपना परिचय दिया | साहब उठकर खड़े हुए...मेरी पीठ पर धौल मारी और कहा ‘चलो पहले चाय पीकर आते हैं’ फिर बेतकल्लुफ़ी से कहा ‘यार ये सर-वर मत कहा करो...सीधे नाम लेकर बुलाया करो!’ मैं अब समझ रहा था कि जेएनयू लिबास में नहीं मिजाज़ में बसता है | मैंने उनकी बात आंशिक रूप से मान ली और अब मैं उन्हें ‘नवनीत सर’ कह के बुलाता हूँ |- प्रियंवद अजात 

आप ही बताएं कि अगर ‘ख’ जो ‘क’ से सिर्फ 10 वर्ष छोटा है और ‘क’ की पैदाइश 1940 की है और ‘ख’ की 1950 की और किसी संवाद में ‘क’, ‘ख’ से कहे कि आप अभी बच्चे हैं तो इसे कैसे देखा जाए। जब मैंने इसे लोकतंत्र के संदर्भ में देखा और सवाल किया ‘कि क्या अपने से 10 वर्ष छोटे को बच्चा कहना लोकतांत्रिक है? तो इस पर कोई ‘प’ ‘फ’ ‘ब’, मुझको ही समझाने लगे कि आप अशिष्ट हैं और आप अभद्रता कर रहे हैं। जितनी आपकी उम्र है उतना समय तो क ने लिखते हुए बिताया है... वगैरह वगैरह। लगे हाथों उन्होंने जे. एन. यू को भी कोस लिया कि उस विश्वविद्यालय ने मुझ जैसे हीरे भी निकाले हैं। (यहां ये बताना कम जरूरी नहीं होगा कि ये ‘क’ ‘ख’ और ‘प’ ‘फ’ ‘ब’ सब निरे साहित्यिक जीव हैं और देखने में प्रगतिशील से लगते हैं। क तो कई जगह कोर्स में भी शामिल हैं। ‘ख’ और ‘प’ ‘फ’ ‘ब’ के भी कई उपन्यास और किताबें प्रकाशित हैं।) हमारी एक शिकायत ख से भी है कि उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया।

इस अनुभव से गुजरते हुये मुझे एक वाक्या याद आ गया। जे. एन. यू. के दिनों में एक मित्र के साथ पुरुषोत्तम अग्रवाल जी के यहां बैठा था, हम किसी चर्चा में मशगूल थे कि इसी दौरान एक मित्र ने बीए के विद्यार्थियों को ‘बच्चे’ कह दिया। मुझे याद है मित्र के इस सम्बोधन पर तुरंत पुरुषोत्तम सर ने नाराज़ होते हुए टोका और उसे समझाया कि लोकतंत्र में आप एक मतदाता हो चुके व्यक्ति को किसी भी हालत में बच्चा नहीं कह सकते। इस वाकये के कुछ दिन पहले ही स्कूल आफ सोशल सांइसेज़ में मैंने एक छात्र को अपने प्रोफेसर को नाम से पुकारते देखा था, मुझे उस वक्त एक छात्र का अपने प्रोफेसर का सीधे नाम लेना अजीब लगा। यह शायद इसलिए कि मेरे सामाजीकरण के दौरान मैंने अपने से बड़ों को पुकारते वक्त नाम के साथ जी,सर या भाई कहते ही पाया था। जब पुरुषोत्तम अग्रवाल सर से इस संदर्भ में और बातचीत हुई तो मुझे उस छात्र का अपने प्रोफेसर का नाम लेकर पुकारना भी समझ में आया और मन में लोकतंत्र की समझ भी कुछ मजबूत हुई ।

आज जब क, प फ ब के साथ संवाद की ये घटना घटी तो अपनी लोकतंत्र की समझ पर मेरा भरोसा थोड़ा और बढ़ गया। मुझे लगता है कि किसी को ‘बच्चा’ कहना एक बेहद गैरजिम्मेदाराना और सामंती सोच का परिणाम है। इसमें उम्र की दृष्टि से माने जाने वाले अवयस्क भी शामिल हैं। यहाँ बच्चा कहने के पीछे दो भाव छुपे नज़र आते हैं- एक- आपको अभी समझ नहीं है, आपने अभी दुनिया नहीं देखी है और आपको अभी बहुत कुछ (मुझसे) सीखना है। और ‘मैं’ जो आपको बच्चा कह रहा हूं, बहुत दुनिया देख चुका हूं और मेरे पास आपके सीखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन आप बच्चे हैं इसलिए आप मुझसे सीखने लायक भी नहीं हैं। या ये भी समझा जा सकता है कि आप अभी बहुत छोटे हैं मुझसे बात न करें। मुझे बात करने के लिए बराबर वाले चाहिए।‘ ये सब सामंती मानसिकता के व्यवहार हैं, बच्चे बड़ों के बीच में न बैठें, उनके कहे को सर झुकाकर मान लें, जबानदराज़ी तो बिल्कुन न करें। वरना पछताएंगे। (घर में तो ऐसे मौकों पर तुरंत पूजन भी शुरू हो जाता था।) और किसी बड़े ‘महान’ के विरुद्ध कुछ भी कह देना और सवाल पूछ लेना तो ब्लास्फेमी टाइप कुछ हो जाता है।

मेरी लोकतंत्र की इस समझ को और मजबूती मिली हमारे दूसरे साथी रोहित धनकर से। रोहित ने भी, जो मुझसे लगभग 20 वर्ष बड़े हैं हमेशा नाम से ही बुलाने को प्रेरित किया। लेकिन क्या करें अपनी सामंती परवरिश जो ठहरी कि ‘जी’ लगाए बगैर अपुन रोहित बोल ही नहीं पाए।

हां, तो दिगंतर में रहते हुए मेरी दो तरह की समझ बनी, एक- शिक्षा, जीवन के अनुभवों का ही विस्तार है। उससे अलग कोई अजूबी चीज नहीं है जो मिल गई तो आप विशिष्ट बन जाते हैं। आप अपने अनुभवों में ही कबीर, गांधी और जायसी को नहीं ढा़ल पाए तो पढ़ने-लिखने का कोई फायदा नहीं। दिगंतर में ही रहते समय ये भी समझा कि बच्चा पैदा ही सीखने के लिए होता है और जन्मते से ही सीखना शुरू कर देता है। और इसलिए किसी के अनुभव को कमतर कहना केवल इसलिए जायज़ नहीं हो जाता कि बाई चांस वो आपके बाद पैदा हुआ है। एक नागरिक के तौर पर एक बच्चे के और एक वयस्क के अधिकार बराबर हैं और लोकतंत्र यही सिखाता है। एक और बात, हमारे यहां बचपन और बच्चे को लेकर समझ काफी कच्ची रही है। उनकी छवियां अक्सर बड़ों के मिनिएचर या लघु रूप में देखी जाती रही हैं। बच्चे के अपने वजूद को दरकिनार किया जाता रहा है और माना जाता रहा है कि वह बड़ा होकर ही कुछ बनेगा। यानी अभी वह ‘कुछ नहीं’ के आस-पास ही है। बच्चा भी स्वयं को इसी तरह से देखने का आदी हो जाता है और अपने वर्तमान को तिलांजलि देकर अपने बड़ों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनने के प्रयास में जुट जाता है। हम सब वैसे ही कुछ-कुछ बने हैं और कुछ नहीं बन पाए हैं। हम अपने बड़ों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनने के प्रयास में न तो वो बन पाते हैं जो बड़े हमें बनाना चाहते हैं और न ही अपनी खुदी, अपनी स्वयं की इच्छा को बचा पाते हैं।

यहाँ एक और बात ध्यान देने की है कि आमतौर पर यह भ्रम है कि सीखने की प्रक्रिया में बड़ा ही छोटे को सिखा सकता है। क्योंकि छोटा तो अपरिहार्य रूप से बड़े से ज्यादा जान ही नहीं सकता, अत: उसके पास अपने से बड़ों को सिखाने के लिए कुछ हो ये संभव ही नहीं। ऐसे में एक बात और निकलती है कि सिखाई जाने वाली चीज़, जिस पर बड़े का ही अधिकार है, वह कुछ स्थायी किस्म की है और एक परम्परा से उसके पास आई है और थाती के तौर पर उसे अपनी अगली पीढ़ी को आगे देकर जाना है। यानि ज्ञान स्थायी है, परिवर्तनशील नहीं। और परिणामस्वरूप जो थाती के रूप में परम्परा से होकर आया है वही सही है और उसके अतिरिक्त सब कुछ गलत है और अस्वीकार्य है। ( शायद पीढ़ियों के बीच का गतिरोध ‘जनरेशन गैप’ इसी में जन्म लेता है)

दूसरी बात, सवाल करना एक और बड़ी ज़हमत है जो लोकतंत्र लेकर आता है। इसीलिए किसी सामंती समाज में सवाल करना अच्छा नहीं माना जाता। यदि आप अपने से बड़े से सवाल करते हैं या उनकी बात को टोकते हैं तो उसे जबान लड़ाना, बदजुबानी करना, अभद्रता और अशिष्टता कहा जाएगा। और अगर कहीं ये सवाल किसी ऐसे स्थापित व्यक्ति से हों तो समझो कि ब्लास्फेमी हो गई। कुछ लोग धर्म-ध्वजा लेकर आपके पीछे पड़ जांएगे और आपसे आपके शिजरे के साथ आपकी जड़ें खोद-खोदकर समूलोच्छेद करने को उतारू हो जाएंगे। ज़रा सोचिए ऐसा क्यूँ होता है? दरअसल, हमें स्कूल में भी सवाल करना नहीं बल्कि उत्तर देना सिखाया जाता रहा है और जो सवाल पूछे भी जाते रहे हैं वो सवाल भी बेहद कमज़र्फ किस्म के होते हैं, मानो सवाल केवल इसलिए पूछे जा रहे हैं कि अमुक परीक्षा में पास होना है। ज़ाहिर है कि जब सवाल पूछना सिखाया ही नहीं गया तो सवाल का पूछा जाना अशिष्टता और अभद्रता तो लगेगी ही। एक छात्र के रूप में हमें जो शिक्षक ने बता दिया बस वही अंतिम सत्य है, उसके न दांए देखने की जरूरत है और न बांए देखने की।

सवाल करना दरअसल परम्परा के प्रति एक अस्वीकार को दर्शाता है। इसका कारण भी शायद वह परम्परागत ज्ञान और उसका स्वरूप ही रहा हो जिसमें कतिपय कथनों के लिए कोई तर्क आवश्यक नहीं माना गया। जो कह दिया गया उसे मान लया गया। जब कभी हितों में टकराव हुआ और उसके लिए तर्क खोजे गये या उस पर सवाल पूछे गए, तो उसे वचन के प्रति विद्रेाह माना गया और उसे दबाने के प्रयास किए गए। इसके कई उदाहरण आपको साहित्य से लेकर धर्म-परम्पराओं में देखने को मिल जाएंगे।

अक्सर बड़ों के अगम्भीर व्यवहार को बचपना और मूर्खतापूर्ण व्यवहार को बचकाना कह कर खिल्ली उड़ाने के पीछे भी आप बच्चे के प्रति व्यस्क की हिकारत देख सकते हैं। यानि फिर वही भाव कि बच्चे तो गम्भीर और ज्ञान की बात करने वाले हो ही नहीं सकते। बच्चों के गीत और प्रार्थनाएं भी कुछ इसी तरह से पेश किए जाते हैं कि ‘ हम सब बच्चे हैं नादान’…… , स्वयं को मूढ़मति के रूप में स्थापित करते हुए ऊपर वाले से ज्ञान मांगा जाता है। हमारी परम्परा में नादानी और बच्चे एक दूसरे के पर्याय से लगते हैं।

ऐसे परिवेश में एक बार फिर से समझने की जरूरत है कि बच्चे को लोकतंत्र के जानिब से देखा जाए, परम्परागत नज़रिए को ताक पे रखते हुए।

पुन: बाद में चर्चा के अंत में ‘क’ ने स्वीकार किया कि ‘बच्चे हो’ जैसा मुहावरा अपना अर्थ खो चुका है।

नवनीत बेदार को मैंने हमेशा एक बेहद सरल, सादा और स्पष्ट इन्सान के तौर पर पाया है. बजरिये देवयानी मैंने नवनीत में एक दोस्त को पाया. नवनीत के साथ बैठना, बात करना इतना सहज होता है कि लगता है दुनिया में ऐसे लोगों की कितनी जरूरत है जिनके साथ आप इस कदर सहज हो सकें कि स्त्री पुरुष का भेद मिट जाए.  ऐसे ही एक मित्र हैं प्रियंवद. नवनीत के बारे में ठीक से बात कर पाने के लिए मुझे प्रियंवद ही याद आये. नवनीत का लिखा पहली बार 'प्रतिभा की दुनिया' में आया है लेकिन यह सिलसिला बनेगा इस उम्मीद से-- प्रतिभा