Sunday, July 31, 2022

अच्छा लगने का स्वाद


तुम्हारा पास होना 
जैसे धरती पर छनक उठना 
ख्वाहिशों की पाजेब 
रुनझुन रुनझुन रुनझुन रुनझुन  
जिसकी धुन में गुम हों 
हम तुम तुम हम 

जैसे खिलना हजारों पीले गुलाब धरती पर 
और वादी में उतरना एक खूबसूरत धुन 
जैसे तपती दोपहर को मिलना
बारिश की फुहार 
बेचैन मन को मिलना चैन 

जैसे सदियों से जागी आँखों को मिलना 
भर मुठ्ठी नींद 
हरसिंगार के पेड़ का भर जाना फूलों से 
अप्रैल के महीने में 

जैसे बुलबुलों की उड़ान में शामिल होना शरारत  
जैसे रास्तों में भटक जाना और 
भटकते हुए खो जाना 
अनजाने सुख के घने जंगल में 
जैसे बंद आँखों से बरसना सुख की बदलियाँ 
जैसे चखना स्वाद पहली बार 
'अच्छा लगना' का. 

Wednesday, July 27, 2022

होंठों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं चुम्बन...


किसी कवि को पढ़ना उसे पढ़ते हुए देखने जैसा होना चाहिए. गौरव गुप्ता ख़ामोशी से एक स्पेस बना रहे हैं. उनकी पोस्ट, कवितायें पढ़ती रहती हूँ. उनमें एक सम्मोहक सा ठहराव है. गौरव किसे पढ़ते हैं, कैसे पढ़ते हैं, आवाजें, दृश्य और कोलाहल सब उनकी दुनिया में एक अलग ही ढंग से आता है. पिछले दिनों उनके द्वारा कुछ कविताओं का अनुवाद नजर में आया. दुन्या मिखाइल, निज़ार कब्बानी, अर्नेस्टो कार्डेनल और महमूद दरवेश. ये सब मेरे भी प्रिय कवि हैं. तो गौरव के अनुवाद के जरिये हिंदी में आये इन प्रिय कवियों को सहेज रही हूँ. गौरव को शुक्रिया कहते हुए और उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं देते हुए कि उनके भीतर की नमी यूँ ही बची रहे...

दुन्या मिखाइल की कविता

(1965 में जन्मी दुन्या मिखाइल अरबी भाषा की इराक़ी कवि हैं। अपने लेखन के कारण अधिकारियों से प्रताड़ित होने के बाद उन्होने अमेरिका में शरण ली )

1-धन्यवाद

मैं उन सभी को धन्यवाद देती हूं
जिन्हें मैं प्यार नहीं करती।
वे मुझे दिल का दर्द नहीं देते
उन्हें मैं लम्बा पत्र नहीं लिखती
वे मेरे सपनों में खलल नहीं डालते
मैं बेचैनी से उनकी प्रतीक्षा नहीं करती
मैं पत्रिकाओं में उनके राशिफल नहीं पढ़ती
मैं उनके नंबर डायल नहीं करती
मैं उनके बारे में नहीं सोचती रहती।
मैं उनका बहुत धन्यवाद करती हूं
वे मेरे जीवन को क्षत-विक्षत नहीं करते।

******

निज़ार कब्बानी की कविता
(1923-1998) सीरियाई कवि, राजनयिक तथा प्रकाशक

निजार कब्बानी की कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति के साथ ही स्त्री की आजादी का भाव भी व्यक्त हुआ है।

१-
लालटेन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है प्रकाश
नोटबुक से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है कविताएँ
और होठों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते है चुंबन
तुम्हारे लिए
लिखे गए मेरे ख़त
ज्यादा महत्वपूर्ण हैं हम दोनों से
वे एकमात्र दस्तावेज़ हैं
जहाँ लोग पाएंगे
दर्ज किया गया
तुम्हारा सौंदर्य और मेरा पागलपन।

२-
मैं तुम्हारे दूसरे प्रेमियों सा नहीं हूँ
मेरी प्रिये
अगर वें तुम्हें बादल देते हैं
तो मैं दूँगा तुम्हें बारिश
अगर वे देते हैं तुम्हें चिराग़
तो मैं दूँगा तुम्हें पूरा का पूरा चाँद
अगर वे तुम्हें एक टहनी सौंपते हैं
तो मैं रख दूँगा तुम्हारे सामने पूरा दरख़्त
अगर वे देते हैं तुम्हें जहाज़
तो मैं दूँगा तुम्हें एक सुंदर सफ़र।

३-
एक लंबे अंतराल के बाद
हर बार, जब मैं तुम्हें चूमता हूँ
मैं महसूसता हूँ
जैसे लाल रंग के लेटरबॉक्स में
जल्दी-जल्दी में डाल रहा एक प्रेम पत्र।

४-
मैंने तुम्हें चुनने के अवसर दिया है
इसलिये चुनो
तुम कहाँ मरना पसंद करोगी?
मेरे सीने पर
या मेरी कविताओं के पन्नों के बीच

*****
अर्नेस्टो कार्डेनल की कविता
(निकारगुअन कवि)

जब मैंने तुम्हें खो दिया
हम दोनों हार गए
मैं इसलिए हारा
क्योंकि वो तुम थी जिसे मैंने सबसे ज्यादा प्रेम किया.
और तुम इसलिए हारी
क्योंकि वो मैं था जिसने तुम्हें सबसे ज्यादा प्रेम किया.
लेकिन हम दोनों में
तुमने सबसे ज्यादा खोया है
क्योंकि मैं किसी औऱ से उतना ही प्रेम कर सकता हूँ
जितना मैंने तुम्हें प्रेम किया था
लेकिन कोई दूसरा
तुम्हें उतना प्रेम कभी नहीं कर सकता
जितना मैं तुमसे करता था

(2)
यही होगा मेरा प्रतिशोध
कि एक रोज़ तुम्हारे हाथों में होगी
एक प्रसिद्ध कवि की कविता की किताब
और तुम पढ़ोगी उन पंक्तियों को
जिसे कवि ने तुम्हारे लिए लिखा था
और तुम कभी जान नहीं पाओगी यह बात।

****

महमूद दरवेश की कविता

1941-2008

फिलिस्तीनी प्रतिरोधी साहित्य के प्रसिद्ध कवि। विश्व प्रसिद्ध “लोटस” पुरस्कार और “लेनिन शांति पुरस्कार” से सम्मानित।

आज सुबह तुम्हारे लिए फूल खरीदना चाहा था
लेकिन कुछ दोस्त भूखे थे
इसलिए मैंने उनके लिए रोटियां खरीदीं
और तुम्हें लिखी प्रेम कविताएँ

*****
(वागर्थ पत्रिका में प्रकाशित )

Sunday, July 24, 2022

और हम भटक चुके थे



जीवन में जितना उजला मिला वो हरे के पास मिला. कच्ची सी नींद में थी कि कोई सिरहाने एक उजली सी सुबह रख गया. हरे रंग में जगमगाती उजली सी सुबह. पलकों से ख़्वाब छलक रहे थे. हथेलियों में तितलियां लिख रही थीं प्रेम की इबारत. सर पर रौशनी का समन्दर था जो हरी कोंपलों के भीतर से चलते हुए हम पर छलक रहा था. एक गहरी ख़ामोशी थी चारों ओर. ज़िन्दगी की सरगम का पहला सुर एकदम ठीक से सध रहा था.

हम नहीं जानते थे हम कहाँ जा रहे थे, रास्ते का रुख किधर का है. सचमुच, न जानने का सुख बहुत होता है. एक लय थी हमारे साथ आगे बढ़ते कदमों में, एक अभिलाषा थी घने जंगलों में कहीं भटक जाने की. हम भटक जाने को बेताब थे. और हमने मुस्कुरा कर एक-दूसरे की आँखों में देखा. हम भटक चुके थे.

कुदरत की ऐसी मेहरबानियों के आगे सज़दे में कौन न झुक जाए. एक हरा हमारे भीतर उग रहा था, एक हरा हमारे आगे बिखरा हुआ था और एक टुकड़ा हरा मेरे बालों में आ टंका था.

पलकों से उतरकर ख़्वाब अब हमारी हथेलियों पर रखे थे, टुकुर-टुकुर देख रहे थे हमें. सुनहरी रौशनी की किरणों ने हमें आगोश में भर लिया. इतना उजला हरा कभी नहीं देखा था...हरे की उस रोशनी से ज़िन्दगी जगमग है. आँख क्यों न डबडबायेगी भला.

Friday, July 22, 2022

भाषा से बाहर



जब मैं लिखना चाहती हूँ
सदियों से गले के भीतर अटकी हुई
सिसकी के बारे में
लाख खंगालने के बावजूद
भाषा के पास नहीं मिलता कोई शब्द,

जब मैं लिखना चाहती हूँ भूख
दुनिया के तमाम शब्दकोषों को पलटने के बाद भी
नहीं मिलता एक शब्द जो
भूख से उठने वाली पेट की ऐंठन, चुभन
सिकुड़ती खाल, नाउम्मीद हो चुकी आँखों का सूखापन
दर्ज कर सके,

जब मैं लिखना चाहती हूँ मौन
तब न जाने कहाँ से आ जाते हैं
ढेर सारे शब्द
शोर मचाते हुए,

जब मैं लिखना चाहती हूँ
बेबसी, यातना, पीड़ा
भाषा के आंगन में शुरू हो जाता है
शब्दों का खेल,

जब मैं लिखना चाहती हूँ प्रेम
खिल उठते हैं तमाम फूल
बरसने लगते हैं बादल
बच्चे खिलखिलाने लगते हैं,
गैया लौटने लगती हैं घर
चूल्हे में बढ़ने लगती है आंच
नदियों में कोई वेग आ जाता है
रास्ते मुस्कुराने लगते हैं
यह सब होता है भाषा के बाहर,

और जब मैं तुम्हें देखती हूँ
दुनिया की तमाम भाषाएँ
देखती हैं मुझे तुम्हें देखते हुए
किसी भाषा के पास वह शब्द नहीं
जो इस देखने की मिठास को समेट सके...

Thursday, July 14, 2022

पढ़ना यानी मिलना अपनी रूह से...


आज की सुबह बारिश नहीं है. हरारत भी नहीं है. अजब सी उदास सी शांति है. किसी भी कहानी का आरम्भ और अंत मुझे मुश्किल लगता है. जैसे एक ठीक सुर से उठाना कोई राग और उसी एकदम दुरुस्त सुर पर उसे पूरा करना. दोनों सिरे अगर संभल जाएँ तो मध्यम और पंचम खिल उठते हैं.

कल रात जब मैं इसके अंतिम पन्नों से गुजर रही थी तो यात्रा की समाप्ति की थकान और शान्ति दोनों साथ थी. किताब बंद करते ही मेरी कोरों से कुछ बूँदें लुढकीं और मैं एक ख़ामोशी ओढकर देर तक आसमान देखती रही. तब तक, जब तक वो शाम के नीले से रात के काले में न बदल गया...

मुझे नहीं मालूम आज मैं क्या लिखना चाहती हूँ. क्योंकि मैं तो असल में चुप रहना चाहती हूँ. चुप ही हूँ कई दिनों से. और चुप्पी को लिखना जरूरी क्यों है. लेकिन शायद जरूरी है कि ख्वाजाबाग के जिस घर में कई दिन अटकी रही, जिस नीले दरवाजे और सफेद दीवारों को सपने में देखती रही उससे बाहर आना जरूरी है. उसके बाद क्या हुआ क्या नहीं इसके बारे में नहीं है यह बात. यह बात है एक ऐसी यात्रा के अनुभवों की बाबत जिनसे गुजरना बेहद जरूरी है.

मानव का यह यात्रा वृतांत सिर्फ कश्मीर यात्रा का वृतांत भर नहीं है. यह कई यात्राओं की बाबत है. खुद को जानने समझने की बाबत है. हम क्या हैं, क्यों हैं, जैसे हम हैं वैसे ही क्यों हैं. क्या सच में हम ऐसे ही होना चाहते हैं? हमारी किसी के प्रति नाराजगी, गुस्सा, प्रेम यह सब कहाँ से आता है. देश क्या है आखिर. अपनापन कैसा होता है. इतिहास की उन चालाकियों को देखना हम कब सीखेंगे आखिर जो जानबूझकर अधूरा सच लिए हमारे सामने खड़ा कर दिया जाता है. क्या हम उसके पार जाकर देख पाने की योग्यता कभी ग्रहण कर सकेंगे?

खुद के भीतर झांकना मनुष्य होने की पहली और अनिवार्य शर्त है. यह सिलेबस में कहीं नहीं है, स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता खुद के भीतर झांकना, खुद को टटोलना. समूचे देश को, एक ऐसी नफरत की आग में झोंकना आसान है जिसका असल में कोई सर-पैर ही नहीं लेकिन यह मुश्किल है कि उदासी और नाराजगी की नन्ही किरचों को सुभीते से निकाला जाय कि दर्द में तनिक कमी आये.

कश्मीर क्या है आखिर...कश्मीरी कौन हैं. जिन कश्मीरी पंडितों के दर्द, तकलीफ को राजनीति ने बेहद चालाकी से अपने नफे के लिए भरपूर उगाहा उनके दर्द असल में हैं क्या यह किसने पूछा? जिन कश्मीरी मुसलमानों के लिए नफरत उगाई उनके भीतर जो प्यार था/है, जो अपनापन है उसे किसने देखा?

जिन दिनों मैं रूह के जरिये कश्मीर की यात्रा पर निकली थी उन दिनों मेरी बेटी मुझे पढ़ते हुए देख रही थी. और एक रोज उसने मुझे मैसेज किया, ' रूह के बारे में लिखना, रूह को पढ़ना अपनी रूह को तलाशने जैसा है.' मैंने उसे पूछा कि यह किसने लिखा? उसने कहा, यह तुम्हारे बारे में है. मुझे लगा तुम ऐसा ही महसूस कर रही हो.

एक ही वाक्य में उसने मेरी पाठकीय यात्रा को कह दिया. सचमुच यह अपनी रूह तलाशने जैसा है. इस किताब में न जाने कितनी ऐसी जगहें हैं जहाँ देर तक ठहरना चाहिए. न जाने कितने ऐसे हिस्से हैं जिनका सार्वजनिक पाठ होना चाहिए. यह किताब प्रेम के बारे में है नफरत के बारे में नहीं. जो होती नफरत के बारे में तो शायद बेस्ट सेलर हो चुकी होती अब तक, नफरत की मार्केट जो कमाल की है.

मुझे ख़ुशी है कि अपनी ही दुनिया में डूबा हिंदी साहित्य जगत कितना ही आत्म आनन्द में रत रहे लेकिन रूह को युवा पाठकों ने दिल से लगा रखा है. मैं हर युवा के हाथ में यह किताब देखना चाहती हूँ, रिकमंड करती हूँ. अगर आप सचमुच इंसानियत के पैरोकार हैं, दुनिया में अमन और सुकून चाहते हैं, कश्मीर को सच में इस देश का हिस्सा मानते हैं तो कुछ धाराओं और अनुच्छेदों से बाहर आकर, वहां के लोगों को गले से लगाना होगा. यह किताब वादी के हर इन्सान के दिल में धड़कते उस प्यार के बारे में है जो वो हमसे करते हैं, उस उदासी के बारे में है जो उन पर थोपे गए इल्जामों के भीतर सांस लेती रहती है. उस उम्मीद के बारे में है जिसमें प्यार की रौशनी होगी एक दिन.

कश्मीर सिर्फ पेड़, पहाड़, झील नहीं है, कश्मीर वहां रहने वालों के दिलों की धड़कन से आबाद है. नफरत से सिर्फ नफरत बढ़ सकती है, प्यार से प्यार. माया आंटी कहती हैं कि 'अगर हम वर्तमान को दुरुस्त करना चाहते हैं तो हमें सामने वर्तमान ही रखना होगा. बार-बार अतीत को सामने रखकर हम वर्तमान को दुरुस्त नहीं कर सकते.' कितनी सच बात है यह. लेकिन सच में क्या हम दुरुस्त करना चाहते हैं? अगर चारों तरफ प्रेम और सौहार्द हो गया तो क्या होगा राजनीति का. बेहद चालाकी से हमें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया गया और हम मोहरे की तरह इस्तेमाल होते रहे.

यह एक कश्मीरी पंडित की इनसाइड स्टोरी है, वो परिवार जिसने वो सब सहा जिसे फिल्म में देखकर लोगों का  खून खौल उठता है और उनका देश प्रेम हिंसक हो उठता है. लेकिन जिसने वह सब जिया, सहा उसके भीतर तो कोई गुस्सा नहीं, कोई प्रतिशोध नहीं. वो तो प्यार से भरा हुआ है. रूह को पढ़ते हुए और भी न जाने कितने कश्मीर से आये दोस्त, पड़ोसी, सहकर्मी याद आये जिनके पास उनकी कहानियां तो थीं लेकिन नफरत नहीं थी कहीं. मैं खुद 8 साल एक कश्मीर से विस्थापित परिवार के घर में किरायेदार के तौर पर रही हूँ. मकान मालिक की आँखों से जो कश्मीर मैं देखा करती थी उसमें हमेशा प्रेम ही नजर आता था और उनकी याद में जो लोग आते थे वो न हिन्दू थे न मुसलमान वो बस कश्मीरी थे. 

रूह को पढ़ना जरूरी है और अगर इसे ठीक से पढ़ा है तो निश्चित तौर पर भीतर काफी कुछ बदलता महसूस होगा. क्योंकि यह सचमुच अपनी रूह को टटोलने जैसा है.

Monday, July 11, 2022

बस घर आने वाला है- रूह


एक बड़ा सा इतवार सारा दिन घर में डोलता रहा. मैं उससे आँखें चुराती रही. आलस खूबसूरत शय है. मैंने आलस का हाथ थाम रखा था और इतवार के मन में जितने मंसूबे थे उन सबको धराशाई करती रही. दिन भर बारिश होती रही और मैं सोने और जागने के बीच में झूलते हुए आसमान ताकती रही.

रूह पास में रखी रही...मैं उसे देखती रही. कभी पलट भी लेती लेकिन आगे के पन्नों पर बढ़ने से जाने कैसा संकोच था कि पढ़े हुए पन्नों को फिर से पढ़ने लगती. फिर उसे पलटकर रख देती और खिड़की के शीशे पर गिरती बारिश से बनती आकृतियों को देखने लगती.

आखिर शाम तक आलस में और मुझमें समझौता हो गया. मैंने उससे थोड़ी मोहलत मांगी उसने आसानी से दे भी दी. मैंने रूह उठा ली. वाइन पीने की इच्छा को चाय पीने की इच्छा के आगे देर तक रखे रहने दिया. और आखिर चाय पीने की इच्छा ने चाय का कप आगे बढ़ा दिया.

असल में मुझे नहीं पता था कि मैं किस यात्रा पर निकली हूँ या फिर शायद मुझे पता था. ख्वाज़ाबाग़ पहुँचने की मुझे कोई जल्दी नहीं थी. लेकिन आखिर तो पहुंचना ही था. और...मेरी शाम धुंधलाने लगी. यह बीती रात की बाबत है. बीती रात जब मैं पन्ना दर पन्ना सफर करते हुए रूह का हाथ थामे ख्वाजाबाग की उस गली, उस गेट को ढूंढ रही थी जो लेखक की स्मृति में था. पढ़ते हुए इस कदर इकसार हो चुकी हूँ कि मुझे यह मेरी ही कहानी लग रही है. और ख्वाजाबाग की उस कॉलोनी की उस गली के आखिरी घर के सामने मैं ही खड़ी हूँ.

कि मुझमें उस घर के भीतर जाने की हिम्मत नहीं हो रही. मैं किताब को पलटकर रख देती हूँ. एक अजीब सी हूक, एक बेचैनी घेर लेती है. आखिर फिर से किताब उठा लेती हूँ और फफक फफक कर रो पड़ती हूँ. रोती ही जाती हूँ.

ऊंचे फ्रेस के पेड़ों की कतारों को पहचनाते हुए पिता की गोद में बैठे हुए सुनना कि 'बस घर आने वाला है'.
रूह ने मेरा हाथ पूरे वक़्त कसकर पकड़ा हुआ था. रूह चाहती थी घर में मैं अकेले प्रवेश करूँ.
'बस यहीं रोक दो यही मेरा घर है...'
'हम जिस दरवाजे से सेब चुराने जाते थे हमें अब उस दरवाजे से भीतर जाना होगा.'
अपनी हिचकिचाहट में मैंने दरवाजे को धक्का दिया. कुछ देर की जद्हदोजेहद के बाद वह दरवाजा खुला इसके भीतर प्रवेश पूरी तरह अतीत में प्रवेश था,

सच कहूँ इन पन्नों से गुजरते हुए मैं हर पल बिखर रही थी. टूटी सिसकियाँ, अटकी हुई हिचकियाँ बरसती बूंदों के सुर में सुर मिला रही थीं. इनको कोई कैसे लिख सकता है. मैं कैसे लिख सकती हूँ ख्वाजाबाग के उस घर, उस बुखारी, उस बैठक, उस रसोई की बाबत कुछ भी.उस खिड़की के बारे में कैसे लिख सकती हूँ जिससे लेखक ने घंटों आसमान ताकना सीखा था. उस जगह के बारे में कोई भी कैसे कुछ लिख सकता है जहाँ बचपन में टाफियां छुपाई हों...मेरे बचपन की तमाम स्मृतियाँ ख्वाजबाग की स्मृतियों में घुलने लगीं. लेखक और मैं इकसार होने लगे थे. कि मेरी रुलाई की रफ्तार तेज़ होती जा रही थी.

बस फर्क इतना था कि लेखक अपनी बेचैनी के साथ घर से निकल गया और मैं वहीं छूटी रह गयी. वहीं दरवाजे से टिककर खड़ी रसोई में माया आंटी को खाना बनाते देख रही थी ठीक वैसे ही जैसे इंदौर में देखती हूँ उनके आश्रम में. मैं वहीं फर्श पर लेट जाना चाहती हूँ, बचपन में छुपाई सारी टॉफियां निकाल लेना चाहती हूँ, कुछ नयी टॉफियां छुपा देना चाहती हूँ कि फिर कोई लौटे बरसों बाद तो वो उदास न हो.

रूह ने कहा, 'कुछ देर और ठहर जाओ, पता नहीं फिर तुम कब यहाँ कभी आ भी पाओगे या नहीं.'
'मैं आऊँगा पर अभी मैं रुक नहीं सकता हूँ...'

लेखक अपनी उदास आँखें लेकर घर से जा चुका है जबकि मैं वहीं छूटी हुई हूँ. रात भर सपने में मैं उस घर में भटक रही थी. क्या वो मेरा ही घर था, क्या मैं रूह थी...मेरी रूह कहाँ है आखिर.मेरी आवारा रूह तो कहीं भी भटक जाती है, अटक जाती है. मैं देहरादून में हूँ और वो मेरे पास नहीं...

(अंतिम से पहले...)

Friday, July 8, 2022

रूह की तस्वीर कोई कैसे खींच सकता है



कल दिन भर पेट में हंसी के बगूले उठते रहे. शाम को बेबी आंटी का फोन आया और बगूलों को उनकी आवाज़ ने थाम लिया. बेबी आंटी से मैं मिली नहीं हूँ, उनके कुछ किस्से सुने हैं माया आंटी से. उनके फोन आने की बात से लगा कि मैं उन्हें जानती हूँ. उनके गले लग जाने की इच्छा हुड़क बनकर उभरने लगी. उनका कहना 'तू बस आ जा' आँखों में बदलियाँ भर देता है.

'मैं कुछ भी नहीं कह पा रहा था. मेरा गला भारी हो गया था. मैं कितना कहना चाहता था कि बेबी आंटी मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ, अभी भी. ठीक इस वक्त मैं आपके गले लग जाना चाहता हूँ. जब उन्हें मेरी तरफ से कोई आवाज़ नहीं आई तो उन्होंने, 'अच्छा बेटा आना तो फोन करना' कहकर फोन काट दिया.

मेरे मन में अजीब सी कशमकश चल रही है. क्या बेबी आंटी लेखक के और देहरादून में बैठी इस पाठक के, इंदौर में बैठी माया आंटी के मन में उनके लिए कितना प्रेम है कभी जान पायेंगी. अगर नहीं तो क्यों नहीं. लेखक ने क्यों नहीं कहा, जो उसने महसूस किया. शायद वो हम सबके हिस्से का भी कह देता. न कहकर क्या लेखक अपने लिए लिखने का राशन जमा करता है. यह तो ठीक नहीं. मुझे नहीं पढ़ना ये सब. नाराजगी आ घेरती है. 

लेखक की बरसों पहले लिखी एक कविता का टुकड़ा याद आ गया, 

'सोचता हूँ, 
अभी वो कहीं अगर मुझसे टकरा जाएगी,
कहीं भी
सड़क में, बाज़ार में, किसी मोड़ पर
तब शायद वो मुझे मेरे नाम से ही पुकारेगी
पर मैं इस तरफ खड़े होकर,
विदूषक ही तरह सुन रहा होऊंगा
और चुप रहूँगा 
मानो वो किसी और को आवाज़ दे रही हो
फिर मैं ऊपर आसमान की तरफ देखूंगा,
अगर बादल होंगे तो उनके बारे में सोचूंगा...

अपने मन की बात न कह पाने, पुकार पर पलटकर जवाब न देने पर पूरी किताब लिख सकते हैं लेकिन कह नहीं सकते कि 'तुमसे प्यार है...' हद है. एक अजीब सी बेचैनी के साथ दोबारा किताब उठती हूँ तो भीगी आँखें हंस देती हैं. इसी कशमकश में तो लेखक भी है. न कह पाने और फिर उस एक लम्हे में अपने मन की बात न कह पाने की पीड़ा को यहाँ-वहां बरसों व्यक्त करने की बेचैनी. सरल होना इतना कठिन क्यों बना लेते हैं हम. मेरे सामने बेबी आंटी हैं...और उनकी गोद में बैठा एक नन्हा सा बच्चा जो उन्हें बेहद प्यार करता है, अब भी. लेकिन दुनिया में शब्दों का इतना ढेर है, इतना शोर है कि सबसे पवित्र भावों को कहने के समय उसने चुप रहना सीख लिया है.

पढ़ने के दौरान...नहीं, लिखने के दौरान या शायद जीवन के दौरान जिन पलों के आने से आँखें चुराती हूँ जब वो सामने आ खड़े होते हैं तो पैर के अंगूठे से पत्थर की फर्श को कुरेदने का जतन शुरू कर देती हूँ. हमेशा से सोचती थी कि प्रेम में भीगे लम्हों की बाबत बात नहीं करनी चाहिए, उन्हें लिखना नहीं चाहिए, उन्हें पढ़ना नहीं चाहिए. उन्हें छोड़ देना चाहिए वैसे ही जैसे हम साँसों के बारे में बात नहीं करते उसके बारे में लिखते नहीं लेकिन वो न हो तो क्या हो आखिर...जैसे क्या हम फूल खिलने को लिख सकते हैं, हवा की छुअन को लिख सकते हैं उसी तरह प्रेम के लम्हों को भी क्योंकर लिखना चाहिए...उन्हें तो बस खिलना चाहिए...महकना चाहिए...

तमाम यात्रा एक लम्बी कविता में बदलने लगी है. रूहानी, लेखक और गुल मोहम्मद के साथ गुलमर्ग के रास्ते पर निकल पड़ी हूँ. सारे रास्ते मुझे गुलमर्ग याद आता रहा. 2012 में इन्हीं रास्तों पर पहली बार मैं कुदरत की ऐसी खूबसूरती देख फूटफूट कर रोई थी. यूँ पूरी कश्मीर यात्रा के दौरान मेरी आँखें भीगी ही थीं. लेकिन गुलमर्ग के रास्तों पर मैंने पहली बार अजीब सी दिव्यता, अपनेपन और मुक्ति को एक साथ महसूस किया था. शायद आध्यात्मिक लोग इसे ही कहते होंगे ईश्वर के दर्शन होना. मेरी बहती आखें रूहानी की शरारतों और लेखक के संकोच को इग्नोर कर रही हैं.

बस लेखक के लिखे में कुछ वायलिन के गुंथे हुए सुरों को पढ़ पा रही हूँ.
'तुम्हें कुछ पढ़कर सुनाऊँ?' रूह ने पूछा.
'हाँ सुनाओ' लेखक ने कहा.
ये ललद्यद हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं...
who is to die and who they kill?
who can kill and who is to die?
one who gorgets God for the sake of the hearth,
Is sure to die and is to be killed.''

तुम्हें पता है, हर देश में, हर धर्म में ललद्यद जैसे लोग हुए हैं जिन्होंने भाईचारे, आपसी प्रेम और शांति से जीने की सुंदर बातें की हैं. और वो आम लोगों के बीच बेहद प्रसिद्ध भी हुए हैं. लेकिन फिर भी ये हिंसा कभी खत्म नहीं हुई.'

'मुझे लगता है कि लोग बोर हो जाते हैं. जैसे हमारे देश में लोग गाँधी से बोर हो गए हैं. जैसे ही कोई गाँधी के अलावा कोई विवादास्पद बात उनके बारे एसा कहता है तो लोगों के कान खड़े हो जाते हैं. हमें अपनी ज़िन्दगी में लगातार ड्रामा चाहिए होता है. हमारे घरों को ही ले लो, चार-छह लोगों में हम इतना ड्रामा खड़ा कर देते है कि हमारा आपस में साथ रहना मुश्किल हो जाता है.'

'यह इतना आसान नहीं है.' रूह ने कहा. 
'वह बर्फ में पैर रखते हुए पहाड़ों में ऊपर की तरफ चलने लगी. मेरी इच्छा हुई कि मैं उसकी तस्वीर खींच लूं इस वक़्त. इन घने देवदार के जंगल में, बर्फ के बीच चलती हुई वह किसी पेंटिंग सी लग रही थी.'
तस्वीर खींचने की इच्छा को भीतर धकेलते हुए लेखक ने सोचा कि रूह को तस्वीर खिंचवाना पसंद नहीं, यूँ भी कोई रूह की तस्वीर कैसे खींच सकता है.

सोशल मीडिया पर उतराते मैसेज की बाढ़ का ललद्यद जैसे कवि कभी मुकाबला नहीं कर सकते.
'जिस देश में लोगों को अच्छी कला, अच्छी कविता की समझ नहीं है, वहां हिंसा का होना आम बात है.'

(जारी...)

Thursday, July 7, 2022

उसका नाम रूहानी था - रूह



आँख देर से खुली. जाने रात की हरारत के कारण या बारिश की मध्धम धुन को ओढ़े पड़े रहने के लालच के कारण. माँ फोन पर पूछती हैं, बुखार कैसा है? मैं हंसकर कहती हूँ, 'बुखार नहीं है, हरारत है. एक किताब पढ़ रही हूँ जब तक वह खत्म नहीं होगी यह हरारत रहेगी.' माँ मेरे पागलपन की आदी हैं. बेफिक्री से कहती हैं, 'ठीक है फिर जल्दी खत्म करो किताब'. 

बालकनी की खिड़की खोलती हूँ तो जूही की पत्तियों पर अटकी बूँदें मुस्कुराकर कहती हैं 'गुड मॉर्निंग'. मैं हंस देती हूँ. सुबह की चाय बनाते हुए 'रूह' का ख्याल साथ है. सुबह पढ़ने का सुख, सुबह पढ़ने का सुख ही है उसे किसी से बदला नहीं जा सकता. कल के पढ़े हुए के साथ गड्डमगड्ड करते हुए सोचती हूँ सुबह Pat Boone, सुनूँ या Cliff Richard.' Cliff Richard गाने लगे हैं. आज की सुबह में 'रूह' को उठाने की बेताबी नहीं है. चाय के कप के करीब रूह को रखे देखना सुख है. जैसे दो प्रिय बैठे हों साथ.

'आजकल आप रूह पढ़ रही हैं न? बहुत अच्छी किताब है क्या? कितना सुंदर लिख रही हैं आप?' कल इनबॉक्स में किसी ने पूछा था. मैं देर तक चुप रही. समझ नहीं आया क्या कहूँ...क्या मैं अच्छा लिख रही हूँ? क्या किताब बहुत अच्छी है? अच्छा लगना कैसा होता है. 'अच्छी और बहुत जरूरी किताब है' इनबॉक्स में जवाब ठेलने के बाद सोचती रहती हूँ.

जीवन का सारा अच्छा वहां था जब असल में वह अच्छा नहीं था. इस किताब को पढ़ते हुए अच्छा नहीं लगता, दुःख, उदासी, बेचैनी, पीड़ा उभरती है...कहीं-कहीं अच्छा भी लगता है. मेरे तईं सबसे अच्छा पढ़ना वही था जिसे पढ़ने के बाद मैं महीनों, सालों उस पढ़े हुए में घूमती रही, परेशान रही, सोचती रही. उससे जुड़े तमाम तार ढूंढती रही, कुछ और पढ़ने को बेचैन होती रही. इस लिहाज से यह अच्छी किताब है. कि कल से दो नए गायक मेरी जिन्दगी में शामिल हो चुके हैं और एक किताब जो कल विश लिस्ट में थी तोहफा भेजने को आतुर दोस्तों में से एक ने ऑर्डर कर दी है.

रूह अपनी पूरी धज के साथ घर में रहती है. जैसे यह उसका ही घर है. किचन में, ड्राइंगरूम में, बालकनी में, कार में...हर जगह. हाँ, यह रूह का ही तो घर है.

पहली बार लेखक की हेठी घुटने टेकते हुए दिखी है तो सच कहूँ तो अच्छा लग रहा है. 'रूह हर चीज़ की तह तक जाकर संवाद करती है.' वह लेखक को कश्मीर पर लिखने को उकसाती है लेकिन यह भी कहती है कि 'कश्मीर से निकलते ही मैं जा चुकी होऊंगी.'
'हम दोनों के पास सिर्फ कश्मीर तक का ही वक्त था. जब मैंने सुझाव दिया कि हम दोनों कश्मीर के बाद भी टच में रह सकते हैं क्या? उसने कहा था, कश्मीर यात्रा खत्म होने के बाद हमारे साथ रहने का कोई कारण नहीं है.' मैं जब भी प्रेम सरीखे वाक्य बोलता तो वो डर जाती...'
इन हिस्सों को पढ़ते हुए मेरे भीतर चोर मुस्कुराहट तैर जाती है. मुझे 'बहुत दूर कितना दूर होता है' की कैथरीन याद आती है और कैथरीन की फिर से मिलने की इच्छा पर लेखक का यह सोचना याद आता है कि 'अभी तो मैं गिलहरियों का खेल देख रहा हूँ, अभी मैं कैसे आ सकता हूँ.' रूह ही कैथरीन लगने लगती है. यह लिखते हुए जो मुस्कुराहट है उसमें लेखक की रूह के साथ टच में रहने की इच्छा को इग्नोर होते देखने की तसल्ली शामिल है. सच, रूह ही है जो हमारी तमाम हेकड़ी को ठिकाने लगा सकती है.

तभी इति और उदय से मुलाकात होती है. अरे, इति और उदय? इन्हें तो मैं जानती हूँ. ये यहाँ कैसे. इति उदय और बिलाल के साथ ट्रैक पर निकल पड़ी हूँ. जिस तरह पढ़ना डुबकी लगाने जैसा होना चाहिए मुझे लगता है उसी तरह देखना भी दृश्य में घुल जाने जैसा होना चाहिए. लिखना कैसा होना चाहिए इसके बारे में ठीक-ठीक पता नहीं लेकिन यह हिस्सा पढ़ते हुए लगता है कि दृश्यों को जीना ऐसा ही होना चाहिए...

'रात के क़रीब तीन बजे मेरी आँख खुली, मुझे पेशाब करना था. तभी टेंट के बाहर कुछ बहुत धीमी हरकत सुनाई देने लगी. डर के मारे मैंने ख़ुद को स्लीपिंग बैग में छुपा लिया. जब आवाज़ आनी बंद हो गयी तो मुझे उठना पड़ा , पेशाब करना बहुत जरूरी था. जैसे ही मैंने टेंट के बाहर कदम रखा तो मैं हतप्रभ सा आसमां ताकता रह गया. इतने सारे तारे मैंने एक साथ कभी नहीं देखे थे, लग रहा था कि सारे तारे पृथ्वी के थोड़ा ज्यादा क़रीब आ चुके थे. नीचे तालाब को देखने से लग रहा था कि जाने कितने तारे टूटकर तालाब में गिर पड़े हैं. चारों तरफ चांदनी में नहाए ऊंचे पहाड़. मैं कुछ देर के लिए पेशाब करना भूल गया था. मैं इसे देखते हुए सोच रहा था कि अगर मैं इस दृश्य को कभी लिखूंगा तो क्या पढ़ने वाले को वही दिखेगा जो मैं देख रहा हूँ.'

इस दृश्य को पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा है कि यह सुबह चांदनी रात में तब्दील हो गई है. और मैं तारों भरे आकाश के नीचे तारों भरे तालाब के किनारे कहीं बैठी हूँ. भला हुआ कि मुझमें चीज़ों को शब्दशः पढ़ने का हुनर न आया और मैं उन्हें भावशः पढ़ती रही, सुनती रही, देखती रही.
बिलाल के घर न जाने और जूते चोरी के किस्सों को छोड़ आगे बढ़ रही हूँ लेकिन चोपानों की और बिलाल की पीड़ा को साथ लिए हुए ही.

बड़ी देर बाद शायद पहली बार किताब में एक ऐसा हिस्सा आता है वो भी एकदम अचानक कि मेरी हंसी ही नहीं रुक रही. होटल में एक अकेली लड़की से मुलाकात होना और उससे लेखक का कहना, 'कल मैं गुलमर्ग जा रहा हूँ अगर आप चाहें तो मैं आपको ड्रॉप कर सकता हूँ.'
'शुक्रिया ! मैं आपसे पूछने ही वाली थी. मुझे लगा आपको यह न लगे कि मैं आपके गले पड़ रही हूँ.'
'नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, बस मैं अपनी पत्नी से पूछकर आपको बताता हूँ.'
'बीवी?'
'जी वो ऊपर सो रही है'...

इसके बाद का किस्सा पाठकों के लिए छोड़ रही हूँ कि मेरी हंसी रुक ही नहीं रही...

लड़की का नाम रूहानी था...

(जारी...)

Wednesday, July 6, 2022

यह सदियों की उदासी है- रूह

'तुम लोग तो चले गये थे, उसके बाद हम बचे हुए कश्मीरियों के बहुत बुरे हाल हुए थे...'

कल जब पेज 94 पर बुकमार्क लगाकर किताब बंद की थी तब आसमान साफ़ था बाहर लेकिन भीतर ढेर सारा कुहासा घिर आया था. मेरी पढ़ने की गति काफी अच्छी है. यूँ माँ कहती हैं कि तुम्हारे हर काम में बहुत गति है, सामान्य से काफी ज्यादा. यह बात मुझे भी लगती है. तो गति के मुताबिक 175 पेज की यह किताब एक सिटिंग में पढ़ना आसान था मेरे लिए. लेकिन गति भी एक नियम चाहती है, उसकी भी एक इच्छा होती है. आखिर बात रूह की है तो जल्दबाजी कैसे काम करती. सच कहूँ तो किताब के आने में जितनी देर हो रही थी मुझे ठीक ही लग रहा था. इस बात को ठीक-ठीक मैं समझ पायी रूह पढ़ते हुए ही. कि जिस जगह आप असल में शिद्दत से पहुंचना चाहते हैं वहीं जाने से कन्नी काटते रहते हैं लेकिन उसके आस पास घूमते रहते हैं और वहां पहुँचने की इच्छा को जीने का सुख च्विंगगम की तरह चुभलाते रहते हैं. 

आज की सुबह भीगी हुई है. रात भर बरस चुकने के बाद बारिश अपनी बूंदों भरी ओढ़नी धरती को ओढ़ाकर सुस्ताने लगी है. मैंने रूह उठा ली है. कुछ ही पन्ने पढ़ पायी हूँ. आगे बढ़ नहीं पा रही. फिर कल पढ़े हुए पन्नों को जिन्हें कल सारा दिन चुभलाती रही दोबारा पलटती हूँ. रोकती नहीं आंसुओं को. बहने देती हूँ...

मुश्ताक कहना जारी रखते हैं... 'तुम लोग तो चले गये थे, उसके बाद हम बचे हुए कश्मीरियों के बहुत बुरे हाल हुए थे. मुझे लगता है कि मेरी उम्र के जो लोग उस वक्त इस वादी में बड़े हो रहे थे उनका मानसिक संतुलन अगर अच्छा है तो यह बहुत बड़ी बात है.' (पेज 83) मुश्ताक कहना जारी रखते हैं मैं उनकी ज़ानिब से सुनती हूँ उन सबकी आवाज़, उन सबकी पीड़ा जिन्होंने सदियों से सिर्फ सहा है. उन्हें न सुना गया ठीक से, न समझा गया.

इतिहास...सबका अपना इतिहास है. और सबके अपने सच. कब और कैसे एक के सच को दूसरे के सच के प्रतिपक्ष में खड़ा करना है यह राजनीति का काम है जो वो बखूबी कर रही है. इतिहास में क्या दर्ज होना है, कैसे दर्ज होना है यह भी राजनीति बखूबी जानती है. हमारे सामने कुछ आधा सच लिए हुए कहानियों को अलग ढंग से अलग तरह के इतिहास में लपेटकर परोस दिया जाता है. हम उसे ही पूरा सच मान लेते हैं. यह हमारी मासूमियत ही है जो राजनीति की खुराक है.

मुश्ताक का सच पन्नों में सिमटने वाला सच नहीं है, वो कोई किस्सा नहीं है. 

'हमारा गांव तीन तरफ से घिर गया था. एक तरफ जेकेएलएफ, दूसरी तरफ हिज़बुल और तीसरी तरफ मुस्लिम मुजाहिदीन.' 

 'मैंने अपने दोस्त को जलते हुए देखा था'

एक बार हिज़बुल ने गाँव में पर्चे बंटवा दिए कि कोई भी गाँव में बत्ती बंद नहीं करेगा. एमएम ने भी पर्चे बंटवाए कि कि किसी के घर से रौशनी नहीं दिखनी चाहिए. मेरे पिता ने सारी खिड़कियों में ईंटें लगवाकर उन्हें चुनवा दिया था, हवा के लिए एक ईंट की जगह ख़ाली छोड़ी थी जिस पर भी जाली लगा दी थी. हम रातों में बत्ती जलाकर रखते पर घर चारों तरफ से बंद था इसलिए रौशनी बाहर नहीं जाती थी. आम कश्मीरी को दोनों से बचने के उपाय करने होते थे.'

कल पढ़े हुए पन्ने आज भी खड़े हुए रोयें में शामिल हैं अपनी तमाम पीड़ा के साथ. क्या जानते हैं हम कश्मीर के बारे में वहां के लोगों के बारे में. कुछ भी तो नहीं. कश्मीर हमारा है तो ये सब लोग भी तो हमारे हैं, मुश्ताक, बशीर ये सब भी तो हमारे हैं. उनका जिया हुआ सच भी तो हमारा ही होना चाहिए न? क्यों नहीं है...यह सवाल सबसे बड़ा है. हालाँकि जवाब से अनजान कोई नहीं.

'क्या हम दूसरे के डरों को छू सकते हैं? मुश्ताक के किस्सों में कहीं भी लड़कियों का जिक्र नहीं था. कुछ रेप के वाकये थे पर लड़कों के साथ बड़ी हो रही लड़कियों के किस्से क्यों नदारद थे?' ' मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारे आसपास बड़ी हो रही लड़कियों का क्या हुआ होगा?'  लेखक की जिज्ञासा असल में हम सबकी जिज्ञासा है. 

'असल में वे औरते ही थीं जिन्होंने मिलिटेंटस को घर में घुसने नहीं दिया था. पर उन औरतों पर बहुत कम लिखा गया.'
 
'मैंने लड़कियों को अपने चेहरे पर चूल्हे की राख मलते हुए देखा है ताकि वो अपना गोरापन छुपा लें. उन्हें किसी ने नहीं छोड़ा न हिज़बुल ने, न एमएम ने, न आर्मी ने.'

एक गहरी ख़ामोशी पसरी हुई है...बिना किसी सिसकी के आँखें लगातार बह रही हैं. फराह बशीर की किताब 'रूमर्स ऑफ स्प्रिंग' विश लिस्ट में शामिल हो गयी है. मिलिटेंसी के दौरान वादी में बड़ी होती एक लड़की की निजी दास्तान जिसका लेखक ने जिक्र किया है.

आज की सुबह में कल की उदासी है...असल में यह सदियों की उदासी है...

(जारी...)

Tuesday, July 5, 2022

कौन सा कश्मीर हमारा है- रूह



'ठीक है, एक दिन लिखूंगा...' कहकर लेखक ने रूह के कश्मीर पर लिखने के इसरार को थाम लिया है. पेज 92 पर ठीक इसी जगह मेरा सब्र टूट गया है. अब तक जो आँखों में नमी पिछले पन्नों को पढ़ते हुए साथ चल रही थी अब वह भभक कर फूट पड़ी है. घर का खालीपन मुझे जी भरके रोने के लिए खूब पनाह देता है.

मैं किताब के बारे में नहीं लिख रही. उन सवालों, उन एहसासों के बारे में लिख रही हूँ जो किताब से गुजरते हुए जन्मे. किताब के बारे में लिखने के मेरे मन के अभी हालात नहीं.  

तो कश्मीर की बात करते हैं. सबसे पहले मेरे मन में सवाल आता है कि हम बचपन से 'कश्मीर हमारा है' सुनते हुए बड़े हुए. तबसे, जबसे हमें यह भी नहीं पता था कि आखिर यह बात कहने की जरूरत क्या है. जो चीज़ अपनी होती है वो तो होती है यानी कुछ गड़बड़ तो थी जो तब समझ नहीं आई थी अब भी कितनी समझ आई है पता नहीं.

'कश्मीर हमारा है' के भीतर देशप्रेम की जो आग सुलग रही है उसे समझना चाहती हूँ. जब हम कहते हैं कि कश्मीर हमारा है तो कश्मीर से हमारा आशय क्या होता है. वहां की सड़कें, पेड़, झीलें, पहाड़? बस इतना ही? यही है कश्मीर? फिर धारा 370 लागू होने के वक़्त के सस्ते चुटकुले और टिप्पणियाँ याद आयीं....और याद आया कैसे कश्मीरी लड़कियों को लेकर बात करते थे देशभक्त शोहदे.

फिर आई 'कश्मीर फ़ाइल' और एक बार फिर कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्मों को लेकर देशभक्ति उबाल लेने लगी. बहुत बुरा हुआ कश्मीरी पंडितों के साथ...वहां के मुसलमानों ने बड़े जुल्म किये. इस सबमें प्रतिशोध बजबजाता हुआ साफ़ दिख रहा था, दिख रहा है.

सवाल यह है कि हम किस कश्मीर के बारे में बात कर रहे हैं. क्या उस कश्मीर में वहां के लोग शामिल नहीं हैं? लोग शामिल हैं तो उनमें से कौन से लोग शामिल नहीं हैं? और उनके न शामिल होने का आधार क्या है?

रूह...को यह सब समझने के लिए पढ़ा जाना चाहिए. कि जिन कश्मीरी पंडितों के दर्द से भावनात्मक होने का ड्रामा करते हुए प्रतिहिंसा को अपनाकर देशभक्ति का नाटक ओढा हुआ है सबने उसके भीतर झांककर देखिये कि उन्हीं कश्मीरी पंडितों के साथ हमने क्या किया है. हिन्दू होते हुए भी हमने इन कश्मीरी पंडितों को भी नफरत की नजर से ही देखा, उनके दर्द को समझा नहीं उनका साथ दिया नहीं लेकिन उनके हिस्से का बदला लेने को आतुर हैं.

कश्मीर से विस्थापित एक परिवार होशंगाबाद में अपनी जगह बनाने की कोशिश करता नजर आता है. बच्चे दोस्त तलाश रहे हैं, माँ बाप अपने डरों से निकलने की और लोगों पर भरोसा करने की कोशिश कर रहे हैं कि एक रोज जब दसवीं में पढ़ने वाला एक कश्मीरी विस्थापित लड़का शहर में एक फैशन शो कराना चाहता है तो पूरे शहर की दीवारों पर लिखा मिलता है 'कश्मीरियों, वापस जाओ.' ये कश्मीरी हमारी 'संस्कृति' और 'सभ्यता' को खत्म कर देना चाहते हैं. 'तुम तो कश्मीरी हो न, वहां से भगाए गए, अब यहाँ से भी भगाये जाओगे. जाओ अपने कश्मीर. इस शहर को क्यों गंदा कर रहे हो?'

ये सब कहने वाले हिन्दू थे, देशभक्त थे और यह सब सुनने वाले कश्मीरी पंडित. जिनकी चिंता में कश्मीर फ़ाइल सुलग रही है. कितनी असभ्य है वो सभ्यता जिसकी चिंता में इंसानियत ही शर्मसार हुई जा रही है. कितनी अश्लील है वो संस्कृति जो क्रूर और हिंसक होना सिखाती है.

इन दिनों सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, देशभक्ति जैसे शब्दों से डर लगने लगा है सचमुच.

मेरी आँखें नम हैं और गर्दन झुकी हुई.  

(जारी...)

Sunday, July 3, 2022

रूह


कल सारा दिन बारिश होती रही...मैं नीम हरारत में रूह को सिरहाने रखे बारिश देखती रही. किताब के कवर को देखती, पढ़ी हुई भूमिका को फिर-फिर पलट लेती लेकिन पहले ही वाक्य पर अटकी रही. 'यही वह किताब थी जिसे कभी लिखना न था...' यह एक वाक्य भर नहीं है. लम्बी यात्रा है. इसके भीतर कितनी उथल-पुथल, कितनी बेचैनी, कितनी तलाश, कितना अपनापन और एक ख़ोज शामिल है.

मैं अपने घर पर नहीं रहता हूँ
मैं उसे अपने साथ लिए फिरता हूँ...

कविता के साथ संवाद करते हुए घर शब्द के मायने ढूँढने लगती हूँ. पढ़ने की इच्छा को पढ़ने से ऊपर रखने का सुख अलग ही होता है. मैं इस सुख के साथ खेलती हूँ अक्सर. मानव को मैंने वैसे भी बहुत संभलकर पढ़ा है, कि थोड़ा पढ़ना बचाये रखूं कि कोई ऐसी जगह है जहाँ कभी भी जाया जा सकता है और वो जगह निराश नहीं करेगी.

इतवार की सुबह में भी हरारत बनी हुई है लेकिन बारिश थमी हुई है. मैं कश्मीर यात्रा पर निकल चुकी हूँ और किताब के दूसरे पन्ने पर ही मानव का देहरादून आना दर्ज पाकर खुश हो गयी हूँ. एक निजी सुख गुंथ गया है इस पाठकीय यात्रा में.

चेरापूंजी होते हुए कश्मीर पहुंचना, मिलना शब्बीर और बशीर से, मिलना गुल मोहम्मद से, मिलना उस नीले आसमान से, उस मंडराते चीलों से, नून चाय, कहवा, लवास की ख़ुशबू में डूबना चल ही रहा था कि सामने रूह आकर बैठ गयी है. मैं रूह से मुत्तास्सिर हूँ. ऐसी स्पष्टता, ऐसा आत्मविश्वास और ऐसी सहजता इसमें एक अलग सा आकर्षण है. 

लेखक को वाज़वान खाता छोड़कर मैं बालकनी में चक्कर काट रही हूँ.

मुझे राज्यपाल कुरैशी के दफ्तर के बाहर दो छोटे बच्चों के साथ बैठी रोती हुई औरत का चेहरा नज़र आता है. अपनी देह के उजले रंग को न नहाने से छुपाकर यहाँ के बच्चों में घुल जाने की तरकीब लगाते दो छोटे बच्चे दिखते हैं. एक चुप पिता हैं जो तमाम संवादों के ऊपर खिंची रेखा सरीखे हैं. एक डर है जिसे भीतर धकेलकर 'सब ठीक है' मन्त्र का जाप करते से मुस्कुराते लोग हैं. अनंतनाग, पहलगाम, श्रीनगर इन सब जगहों पर जा चुकी हूँ, वहां के लोगों से मिली हूँ कश्मीरी घरों में जाकर कहवा पिया है, कश्मीरी खाना खाया है, कुछ सवाल भी किये हैं कश्मीर की बाबत वहां के लोगों से और फिर पछताई हूँ सवाल करने पर कि उन सवालों के जवाब में मुस्कुराहटें पकड़ाई हैं लोगों ने.

लेखक की बेचैनी मुझे कम बेचैन करती है, ज्यादा बेचैन करती है कश्मीर को लेकर होने वाली वो तमाम राजनीति जिसने इस कदर लहूलुहान करके रख दिया है सब कुछ.

कश्मीर पर सूचनात्मक दस्तावेज तो खूब लिखे गये, पढ़े गये, चर्चा में आये लेकिन उन सूचनात्मक दस्तावेजों से इतर एक इनसाइडर स्टोरी के सामने खड़े होना आपको रुला देगा. वहां (कश्मीर में)एक बड़ा सा घर था से हम एक कमरे के छोटे से घर में रहने लगे तक को समझना. और इस समझने में कोई आक्रोश नहीं, हिंसा नहीं, किसी के प्रति कोई द्वेष नहीं. यह संभव कर पाना असल में इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है. यह उस माँ की बाबत है जिसने अपने बच्चों को ऐसी तरबियत दी कि कश्मीर से आ गये फिर भी कश्मीर से प्यार नहीं कम हुआ बच्चों में, संघर्ष किये, संघर्षों की आंच में तपे लेकिन राजनीति की चतुराई के झांसे में नहीं आये कभी मोहरा नहीं बने किसी खेमे का. क्योंकि माँ और पिता दोनों जानते थे कि असल में दोनों एक ही हैं...'जिगरा तुम मुसलमान हो जाओ मैं हिन्दू हो जाता हूँ फिर देखते हैं कौन आता है हमें यहाँ से निकालने...'

बस एक बार, सारे हिन्दू मुसलमान होकर देखें और सारे मुसलमान हिन्दू होकर. बस एक बार हम अपनी चस्पा कर दी गयी पहचानों के खोल से बाहर निकलकर उन पहचानों में ढलकर देखें जिनके प्रति मन में गुस्सा है, जिनसे सवाल हैं...एक बार बस...

पेज 71 पर बुकमार्क लगाकर मैं अब तक के पढ़े हुए को चुभला रही हूँ. माया आंटी बहुत याद आ रही हैं. कि इसमें लिखे न जाने कितने किस्से उनसे सुने थे, पढ़ते हुए लगा वो ही हैं अक्षरों के बीच बैठी हुई कहीं. 

इतने सारे शब्द उलीच चुकने के बाद शब्दहीनता की शरण की तलाश में हूँ. फिर मुझे मानव का लिखा एक वाक्य शरण देता है कि 'किसी भी वाक्य पर पहुँचने के मेरे सारे रास्ते ऊबड़-खाबड़ थे'.

जारी...

Saturday, July 2, 2022

प्यार ही बचायेगा दुनिया को


इन दिनों ज़िन्दगी जिस मोड़ पर ले आई है...वहां से पीछे छूट गये को देखना साफ़ हो गया है और आगत को लेकर बेसब्री कम हो गयी है. सवाल अब भी साथ रहते हैं लेकिन अब वो चुभते नहीं. उन्हीं सवालों के भीतर छुपे उनके जवाब दिखने लगे हैं. जैसे हिंसा जब सवाल के रूप में सामने आती है तो प्रेम उसके भीतर छुपे जवाब के तौर पर स्पष्ट दिखता है. जैसे उदासी के सवाल के भीतर नज़र आती है भीतर की वह यात्रा जो हमें लगातार मांज रही है. नज़र का चश्मा तनिक साफ़ हो गया लगता है. अब गुस्सा कम आता है सहानुभूति ज्यादा होती है.

किसी भी घटना के लिए व्यक्ति को दोषी के तौर पर देख पाना कम हुआ है दोषी व्यक्ति के निर्माण की प्रकिया को बेहतर कर पाने का दायित्वबोध बढ़ा है. एक चुप के भीतर छुपकर रहना सुकून देता है. जाने क्यों दुनिया के हर मसायल का एक ही हल नज़र आता है, वो है प्रेम. कि सारी दुनिया अगर प्रेम में डूब जाए तो सब कुछ कितना आसान हो जायेगा. फिर चारों तरफ होने वाले ज़हरीले संवादों के बाण बेधते हैं तो सोचती हूँ इस दुनिया में कितने सारे लोग प्रेम विहीन हैं देखो न...कि इनके भीतर हिंसक होने की जगह इस कदर बची हुई थी. जो होता प्रेम तो ये आरोप प्रत्यारोप के बजाय निरंकुश अट्टहास के बजाय हर दुखी उदास व्यक्ति को आगे बढ़कर गले से लगा लेते बिना पूछे जाति, धर्म देश. क्योंकि प्रेम तो ऐसा ही होता है. एक बार दिल प्रेम से भर उठे तो आप जीवन में कभी किसी से नफरत कर ही नहीं सकेंगे. अगर भीतर किसी भी किस्म की हिंसा, क्रोध, द्वेष शेष है तो यक़ीनन प्रेम दूर है आपके जीवन से. वो जिसे प्रेम समझे बैठे रहे अब तक वो कुछ भी था सिवाय प्रेम के.

ये कोई ख़्वाब नहीं था...



आज एक नदी मुझसे मिलने आई मेरे घर
फिर आया एक पूरा जंगल
आया जंगल तो आये परिंदे भी
फिर मैंने देखा खिड़की से झाँक रहा था बादल
लिए ढेर सारी बारिश
खोली खिड़की तो आ गया बादल भी बारिश समेत 

अलसाता इठलाता समन्दर आया कुछ देर बाद
राग मल्हार आया तो साथ आया मारवा भी
मीर आये बाद में पहले फैज़ और ग़ालिब आये
पीले लिबास में सजी मुस्कुराहटें आयीं आहिस्ता आहिस्ता
रजनीगन्धा आये तमाम साथ अपने लाये सूरजमुखी
तुम आये तो आज इस घर में देखो न
चला आया कुदरत का समूचा कारोबार

इस धरती को खूबसूरत बनाने का ख़्वाब जो रहता था इस घर में
ये सब आये उस ख़्वाब को बचाने की ख़ातिर
तुम आये तो आई उम्मीद, शान्ति, प्यार
तुम आये तो आई बहार
 
जब देख रही थी मैं इन सबको अपने घर में
आँखें खुली हुई थीं कि ये कोई ख्वाब नहीं था
कि मेरी हथेलियाँ जब हों तुम्हारे हाथों में
ख़्वाब कोई नामुमकिन कहाँ रह जाता है...