मर्जी का सफर
लीजिये महिलाओं की मर्जी को उजागर करता एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण ताजा-ताजा हाजिर हुआ है. इस सर्वे के मुताबिक 20 फीसदी महिलाएं पति की पिटाई को प्यार मानती हैं. 58 फीसदी महिलाओं का मानना है कि गलती करने पर पिटाई करना पति का जन्मसिद्ध अधिकार है.
इस सर्वे का एक और खुलासा ध्यान देने लायक है कि पति द्वारा पत्नी की पिटाई के चार प्रमुख कारण सामने आए हैं-
पहला-यौन संबंध के लिए तैयार न होना
दूसरा-चरित्र पर संदेह होना
तीसरा-पति को बताए बगैर कहीं जाना
चौथा-पति के विचारों, फैसलों से असहमत होना.
जाहिर सी बात है कि चौथे कारण के चलते पत्नियों की पिटाई सबसे कम होती है. क्योंकि पत्नी का निजी विचार जैसा बहुत कम ही होता है और असहमति तो उससे भी कम और उस असहमति (अगर है) का प्रदर्शन तो लगभग न के बराबर होता है.
(हालांकि यह कहीं नहीं दर्ज है कि यही कारण पुरुषों पर लागू होने पर स्त्री के क्या अधिकार हैं.)
इस सर्वेक्षण में शहरी ग्रामीण महिलाओं और युवकों की भागीदारी थी. चिंताजनक बात यह है कि ये विचार नई पीढ़ी के युवकों और युवतियों के हैं. वो नई पीढ़ी जिसके कंधों पर आने वाले कल का दारोमदार है. जो जेनरेशन नेक्स्ट है.
जब कोई पिछली पीढ़ी का व्यक्ति ऐसा कुछ कहता या समझता है तो उतना दु:ख नहीं होता, जितना युवा पीढ़ी को रूढि़वादी सोच के साथ खड़े देखकर होता है.
पत्रकारिता के एक छात्र ने जिसकी उम्र-22-24 वर्ष रही होगी जब यह कहा कि औरत की तो समाज में कोई पहचान नहीं होती लेकिन हम मर्दों की तो इज्जत होती है. अगर कोई औरत ऐसा काम करे जो हमारी इज्जत के खिलाफ जाये तो हमें तो हमें तो कदम उठाना पड़ेगा ना? उन्हें काबू में रखना जरूरी है. यह सुनकर मुझे जो दु:ख हुआ उसे मैं बयान नहीं कर सकती. दोष पूरा उसका भी नहीं है. किस तरह छोटे-छोटे तालिबान हमारे भीतर धंसे हुए हैं जो मौके-बेमौके अपना रंग दिखाते हैं साफ न$जर आता है, स्त्री को आम इंसान समझने को लेकर भी अभी तक समाज में आम राय नहीं बन पाई है. इन्हीं माहौल में पलने वाली लड़कियां जब पूरे आत्मविश्वास से कहती हैं कि होती है औरत ही औरत की दुश्मन तो जटिलता साफ न$जर आती है. संवाद अधूरे हैं सभी. जेहन में जमी काई को साफ करना आसान भी नहीं.
समाज से होता साक्षात्कार हर पल तोड़ रहा है. सबसे ज्यादा तोड़ रही हैं ये अपनी मर्जियां. बड़े पदों पर बैठी पढ़ी-लिखी औरतों से लेकर गांव की कम पढ़ी-लिखी औरतों तक सोच एक ही है. जो दिखाया जा रहा है, उसे देखकर राय कायम की जा रही है. उसी पर फैसले हो रहे है. कहां है वो न$जर जो देख पाए तस्वीर के उस पार का सच...कि दरअसल दुश्मन वो नहीं जो सामने खड़ा है हथियार लिये. दुश्मन तो वो हैं जिसने हथियार कमाये हैं और तैयार किया है हमें ही हमारे खिलाफ खड़े होने को.
सिमोन, सात्र्र, दोस्तोवकी, काफ्का, कामू की क्या बात. यहां तो इन्हें अपनी ही बात समझने में कठिनाई हो रही है. बेवजह का लिखना पोस्ट की पहली कड़ी में रोहित ने कहा था कि ये हालात सिर्फ गांव के नहीं हैं. सही कहा था रोहित ने. ये हालात सिर्फ गांव के नहीं, शहरों के भी हैं. हमारे घरों के भी हैं.
अच्छा-अच्छा लिखा जा रहा है. लेकिन कई बार लगता है कि यह लेखन का जो ड्राइंगरूम करण हो रहा है, ये जड़ों तक पहुंच नहीं रहा. मित्र लोग ढांढस बंधाते हैं, होगा बदलाव. फर्क पड़ेगा एक दिन. जानती हूं कि फर्क पड़ेगा...पड़ रहा भी है...लेकिन दु:ख होता है अपनी जिम्मेदारियों से बेजार होते लोगों को देखकर. अपनी ही पीठ खुद ठोंककर खुश होने वालों को देख. थोड़ी सी वाह-वाह काफी नहीं. बुनियादी परिवर्तन के लिए बुनियादी लड़ाई जरूरी है. शुरुआत अपने ही घरों से होनी चाहिए. शायद मैं ज्यादा भावुक हो रही हूं लेकिन सचमुच बेवजह ही लग रहा है सब कुछ.