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Monday, August 1, 2022

इठारना- बादलों का गांव और धुंध से उठती धुन



और एक बार फिर मैंने ब्लैंक स्क्रीन पर नज़रें टिकायीं...उसमें मुझे उगते बादल नज़र आने लगे...पहाड़ियां...हरियाली...रास्ता...एक धुन...एक धुंध...मैंने स्क्रीन ऑफ कर दिया. मैं इन सबके बारे में नहीं लिखना चाहती. मैं लिख सकती भी नहीं. हम दृश्यों के बारे में लिख सकते हैं लेकिन खुशबू को कोई कैसे लिख सकता है. जबसे लौटी हूँ दुनिया की हर चीज़ पर ध्यान टिकाने की कोशिश कर रही हूँ कि जो नशा तारी है मुझ पर वो जरा कम हो लेकिन नशे की यही तो तासीर है कि वो आपको किसी और का होने नहीं देगा, किसी और बारे में सोचने नहीं देगा.


कोई उदास सी उदासी थी-
कई दिन हुए कि कहीं मन नहीं लग रहा था. कई दिन हुए कि लग रहा था दिन हो ही नहीं रहे हों जैसे. सब ठहरा ठहरा सा. रुका-रुका सा. सुख और दुःख के बीच एक खाली स्पेस होता है जिसके बीच हम सरकते रहते हैं. कभी सुख के करीब, कभी दुःख के. असल में हम न सुख के एकदम करीब कभी पहुँच पाते हैं न दुःख के ही. बस उसके आसपास होने को ही अंतिम सत्य मानकर अपनी ताकत सुख की ओर भागने में लगा देते हैं. जबकि सुख और दुःख दोनों ही अपनी जगह पर बैठे एक साथ मुस्कुराते हैं. हम कठपुतली के तरह नाचते जाते हैं. मैं भी उनमें से ही हूँ नाचने वालों में से ही. लेकिन कभी-कभी थक जाती हूँ फिर दुःख और सुख दोनों के एकदम बीच में खुद को रखते हुए जब आसमान देखती हूँ तब एहसास होता है कि यह दौड़ किस कदर बेवजह है. ऐसे ही एक अनमने से दिन में यूँ ही अचानक बैगपैक कर इठारना का रुख कर लिया कि इस भागमभाग से कुछ ब्रेक चाहिए था.

 खुद से मिलना यूँ जैसे मिलना मोहब्बत से-
क़ुदरत हमेशा हमें अपने क़रीब ले जाने का काम करती है. अगर हमने सच में यात्रा करना सीखा है तो यात्राएं हमारी वो हमसफर बनती हैं कि जब ज़िन्दगी साथ छोड़ने लगे तब खुद को किसी यात्रा पर रख दीजिये, अपने तमाम ‘मैं’, ‘जोड़’, ‘हिसाब-किताब’ बिसराकर. यात्राएं आपको झाड़-पोंछकर, चमकाकर, निखारकर, प्यार से अपनेपन से सराबोर करके वापस भेजती हैं. जब घर से निकली थी तो मन में असंतोष, बेचैनी, उलझनें, असुरक्षा के भाव न जाने क्या-क्या साथ थे. थोड़ा गुस्सा भी था लेकिन जैसे-जैसे रास्तों पर आगे बढ़ते गए एक-एक कर ये सारे आवरण उतरते गए. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे कोई जादू सा खुल रहा था आँखों के सामने. इठारना की खूबसूरती के बारे में सुना खूब था लेकिन कह सकती हूँ कि जितना भी सुना था, सब बहुत कम था.

मैं इठारना की बाबत क्या लिखूंगी कि वह इस कदर खूबसूरत है, इस कदर मोहक. कल्पनातीत सौन्दर्य. जैसे-जैसे हम रास्तों पर बढ़ रहे थे, शब्द पीछे छूटते जा रहे थे. एक मीठा मौन पूरे सफर में हमारी कलाई थामे बैठा था. बीच-बीच में मेरे होंठ बुदबुदा रहे थे...उफ्फ्फ मैं मर जाऊंगी...मेरी आँखें लगातार बह रही थीं. मेरे हाथ कार के बाहर मौसम को थाम लेने को बेताब थे जबकि मौसम कार के भीतर ही नहीं, हमारे भीतर आ चुका था. मेरे गालों को छूकर हवा के झोंकों ने मानो कहा हो, ‘प्रतिभा यह सब तुम्हारे ही लिए है. सिर्फ तुम्हारे लिए.’ हाँ मैंने यह आवाज़ सुनी, सच में. मैंने अपनी सिसकी की आवाज़ को सुना और आँखें बंद कर लीं. इतना मोहक सौन्दर्य, कुदरत की इतनी सारी नेमतें मेरे लिए? सिर्फ मेरे लिए? और क्या चाहिए मुझे जीवन में...मेरे भीतर की नदी का वेग बढ़ चुका था, मेरे भीतर का जंगल बाहर के जंगल से मिलने को बेताब था. मैंने अपनी सिसकी की आवाज़ को सुना और मुस्कुरा दी.

 जीवन वहीं कहीं था-
स्कॉटलैंड के पहाड़ों को देखते हुए जब मैंने उत्तराखंड के पहाड़ों को याद किया था तब यह नहीं सोचा था कि एक रोज उत्तराखंड के पहाड़ों से गुजरते हुए स्कॉटलैंड और गुलमर्ग को इतनी शिद्दत से याद करूंगी. मैं आध्यात्मिक नहीं हूँ. मेरे लिए कुदरत ही ईश्वर है और मानवता ही धर्म. लेकिन यह जानती हूँ कि जीवन में पहली बार दिव्यता के ऐसे एहसास से गुलमर्ग के रास्तों में सामना हुआ था. शायद इसे ही ईश्वर के दर्शन होना कहते होंगे धार्मिक लोग. कि सच में हम खुद से छूटने लगते हैं. हममें हमारा है ही क्या. इस जीवन का अर्थ क्या है आखिर...बेहद हरे जंगल, पहाड़ों पर बादलों की मटरगश्ती और वादियों में गूंजती एक खामोश धुन इन सबको जंगल की खुशबू में डुबोकर बस बूँद भर चख लीजिये ज़िन्दगी के तमाम मसायल हल हो जायेंगे. सच में.

हम जीवन को कहाँ-कहाँ ढूंढते फिरते हैं जबकि होता है वो वहीं, एकदम करीब आपकी बांह थामे मंद-मंद मुस्कुराते हुए. मैंने जीवन को देखा और झूठमूठ के गुस्से से भरकर कहा, ‘अब तक कहाँ थे’? उसने कनखियों से मुझे देखते हुए पहाड़ पर मंडराते बादलों पर नजरें टिकाते हुए कहा, ‘यहीं तुम्हारे एकदम करीब. तुमने देखा ही नहीं’. जीवन को आते हैं सब ढब. गुस्सा दिलाने के भी और गुस्सा दूर करने के भी. उसकी इन्हीं कारस्तानियों के चलते उसी से शिकायत भी बहुत है और उसी से मोहब्बत भी शदीद.


हमारे बीच कोई नहीं था-
इठारना...अब यह जगह नहीं एहसास का नाम है. मुझे हमेशा लगता रहा है कि पहाड़ों को बारिशों में देखना चाहिए. बादलों की ऐसी चपलता, इठलाना, शरारत करना हरे रंग के जादू में लिपटे सुफेद मखमली बादल उफ्फ्फ....मैं उस मंजर को कैद नहीं कर पा रही थी. यही वो समय होता है जब कुदरत कहती है तुम्हारे आईफोन, डीएसएलआर के बस का नहीं है मुझे कैद करना. अरे सबके बस का तो यहाँ आकर भी मुझसे मिलना नहीं है. कि आओ मेरे करीब अपने तमाम आवरण उतारकर...जैसे इबादत में होने से पहले उतारने होते हैं तमाम छल प्रपंच. मेरे मौन के भीतर शब्द की एक कंकड़ी भी जब तक बची रही मेरे और कुदरत के बीच तनिक दूरी बनी रही शायद. लेकिन कुदरत का मेरा रिश्ता जग जाहिर है. कुदरत मेरा साथ कभी नहीं छोड़ती, बारिशें हमेशा मेरे सर पर आशीष बरसाने को व्याकुल रहती हैं. यात्रा के ठीक बीच में बूंदों के सैलाब ने मुझे खींचकर कार के बाहर निकाल लिया और शब्द की आखिरी कंकड़ी भी उठाकर दूर कहीं वादी में उछाल दी. अब मेरे और कुदरत के बीच कोई नहीं था...कोई नहीं. प्रेम टुकुर-टुकुर मुझे देख रहा था. हम तीनों हंस रहे थे, हम तीनों एक दूसरे में इकसार हो चुके थे. कोई आवाज़ नहीं, कोई बात नहीं बस कुदरत की दिव्यता के आगे सजदे में झुका हमारा सर और झर झर झरती बूंदों की ओढ़नी.

इतनी ख़ामोशी सुने जमाना हुआ था. इस ख़ामोशी के सुर में संगत थी नदी की कलकल और चिड़ियों की आवाज की. ऐसा संगीत, ऐसी भव्यता कि अपने कदमों की आवाज़ भी उसी सुर में ढलने लगे, धड़कनों की आवाज़ भी. मैंने ध्यान लगाकर सुना तो मेरी नब्ज़ भी उसी मध्धम सुर में ढलने लगी थी.

दुःख और उदासी के बीच एक रौशनी होती है-
जीवन सच में बेहद खूबसूरत है और ये हमारे बहुत करीब ही है. हमने दुनियादारी के शोर में इसे बिसरा दिया है. और इसे ही खोजते फिर रहे हैं. सुख और दुःख के बीच ही नहीं दुःख और उदासी के बीच भी एक रौशनी होती है. हम उस रौशनी को देख नहीं पाते. वो रौशनी हमारे अंतस को उजला करती है. हमें और परिष्कृत करती है, और बेहतर मनुष्य बनाती है. मैंने हर यात्रा के दौरान खुद के भीतर कुछ टूटता हुआ महसूस किया है. कुछ गिरता हुआ. और हर यात्रा से वापसी के दौरान खुद को थोड़ा और हल्का पाया है. यात्राओं के बाद ज्यादा प्रेम से भरकर लौटती हूँ. इस यात्रा के मध्य में ही यह सुर मुझे मिल गया था. अचानक. मैंने हैरत से खुद को देखा, ये मैं थी क्या? मैं ही थी क्या? चीज़ों के मोह में निब्ध्ध, उनके छूटने के दुःख से उदास....लेकिन यह क्या कि कोई मोह बचा ही नहीं, न कोई दुःख. सब एकदम से आसान होता गया. सिर्फ एक सुखद ख़ामोशी और जीवन के प्रति आश्वस्ति थी मेरे पास. रेखाओं से खाली हथेलियाँ बारिश की बूंदों से भर उठी थीं. मेरे पाँव थिरक उठे थे, कामनाओं का जादू उभार पर था और बारिश उसी थिरकन के साथ लहरा-लहरा के समूची वादी को भिगो रही थी. मैंने हमेशा जब भी बारिश चाही है, जिस भी शहर में, जिस भी मौसम में चाही है जाने कैसे हुआ ये अचरज कि वो मुझसे मिलने आई है. हर बार मैं इस इत्तिफाक पर मुस्कुराती हूँ, और नए इत्तिफाक के इंतज़ार पर निगाहें टिका देती हूँ. लेकिन बारिश मुझे कभी निराश नहीं करती. इस बार भी नहीं किया. वह ठीक उस वक्त आई जब हम पैदल घूमकर थक चुके थे और चाय की प्याली लिए सुस्ता रहे थे. बारिश अपने तमाम करिश्मे लिए आ गयी. हम चाय पीते पीते बारिश के करिश्मों से चमत्कृत होते रहे. मैंने अपनी सपनों से भरी आँखें और प्रेमिल हथेलियाँ बारिशों को सौंप दीं...मेरी देह ही नहीं इस बारिश में मेरी आत्मा भी भीग रही थी...


सुबहों की कौन कहे-
कभी दूर से से देखते थे बादल और खुश होते थे लेकिन अगर वही बादल आये और आकर लिपट जाए तो. हम बादलों के बीच में थे. एकदम बीच में. वादी से उड़ता हुआ बादल आकर हमारे काँधे पर बैठा था कोई बादल चाय के प्याले को घेर रहा था कोई सर पर हाथ फिरा रहा था. जब हम टहलने लगे तो हमने पाया कि हम अकेले नहीं हैं, बादल भी है हमारे साथ. उस दूधिया बादल का हाथ थाम चलते जाने का सुख अद्भुत था. मैं बादल हो गयी थी मैंने बादल से कहा था, 'तुम भी प्रतिभा हो जाओ न.' वो मुस्कुरा दिया...हम एक ही थे...सारे रास्ते बादल साथ चलते रहे. सर पर हाथ फिराते हुए कहते रहे, 'सब कुछ होना बचा रहेगा, परेशान न हो.' और सच में मैं परेशान नहीं थी.

जब मैं जा रही थी तब कोई और थी और जब लौट रही थी तब कोई और हो चुकी थी. जिन उदासियों को काटने के लिए यह यात्रा चुनी थी यात्रा के मध्य में पाया कि वो उदासी तो थी ही नहीं. वो तो एक वहम थी. लौटते समय हमने  जानबूझकर अपने रास्ते खो दिए और बारिशों को गले से लगाये सड़कों पर पसरे रहे. लौटना सिर्फ एक वहम होता है हम वहीं कहीं छूट गये हैं. लौट आई देह के भीतर कितना कुछ नया उग आया है. देह के भीतर का जंगल और घना हुआ है, नदी थोड़ी और चंचल हुई है, मन तनिक और निर्मल हुआ है...

ओ इठारना, तुम जीवन में शामिल हो गये हो साँसों की तरह, प्रेम की तरह, उम्मीद की तरह...


published in the quint- https://hindi.thequint.com/lifestyle/itharna-village-of-clouds-dehradun-tourist-places-uttrakhand-tourism-blog#read-more

Thursday, January 3, 2019

एक लम्हे में अपना बना लेता है उदयपुर


दिन इतनी तेज़ी से भाग रहे थे कि भागते-भागते हांफने लगे थे. दो घड़ी ठहरकर सांस लेने लगते तो रफ्तार कम हो जाती और लगता कि कितना कुछ छूट गया है. कोई काम, कोई जिम्मेदारी मुंह बिसूरने लगती. ऐसे ही भागते दौड़ते दिनों में कानों से टकराया था उदयपुर का नाम. जैसे जेठ की चिलचिलाती धूप में ठंडी हवा का एक झोंका छूकर गुजरा हो. न किसी ने मुझे पहले से उदयपुर के किस्से सुनाये थे, न मैंने साहित्य के किसी टुकड़े को पढ़ते हुए इस शहर से राब्ता बनते महसूस किया था. इतिहास पढ़ते हुए शायद गुजरा था यह नाम बिना किसी एहसास के सिर्फ एक चैप्टर की तरह. फिर क्या था ऐसा उस रोज इस नाम में कि दिल की धडकनों को थोड़ा सुकून आया. हालाँकि यह कोई यात्रा नहीं थी, सिर्फ गुजरना भर था वहां से होकर लेकिन जाने क्या था कि दिल को राहत मिल रही थी. जैसे कोई अजनबी इंतजार में हो, जैसे किसी अनकहे में भरा हो जीवन भर का कहा, जैसे किसी के काँधे पर टिककर आ जाये एक टुकड़ा बेफिक्र नींद. एक बार एक दोस्त ने कहा था कि मैं हर आने वाले लम्हे का उत्सुकता से इंतजार करता हूँ कि न जाने उसमें मेरे लिए क्या हो. मुझे भी अब ऐसा ही लगने लगा है. उदयपुर की पुकार को सहेजा और निकल पड़ी सफर में.

न कोई वहां इंतजार में था, न कोई जल्दी थी कहीं पहुँचने की. पूरे इत्मिनान के साथ सफर कटता रहा. रास्ते में मानव कौल के कहानी संग्रह ‘प्रेम कबूतर’ से दो कहानियां पढ़ीं. किस कहानी को कहाँ पढ़ा जाना है यह भी वो कहानी खुद तय करके रखती हो शायद. इतने दिनों से सिरहाने रखे रहने के बाद महीनों बैग में घूमने के बाद आखिर इन कहानियों ने चुना हवा में उड़ते हुए पढ़ा जाना. कहानियां अपने साथ उड़ा ले जाने में कामयाब थीं. इति और उदय, प्रेम कबूतर दोनों कहानियां. प्रेम कबूतर का असर लिए उदयपुर पहुंचना हुआ.

जब कहीं कोई इंतजार नहीं कर रहा होता तो अक्सर हम वक़्त पर या वक़्त से पहले पहुँच जाते हैं. उदयपुर भी वक़्त से थोड़ा पहले ही पहुँच गयी. सलीम भाई कैब के ड्राइवर थे. उनसे बात करते हुए राजस्थान की खुशबू ने घेर लिया. शहर को मैं हसरत से देख रही थी, इस उम्मीद से कि जाने वो मुझसे दोस्ती करेगा या नहीं. हवा में हल्कापन था, हालाँकि देहरादून से जिस्म पर लदकर गयी जैकेट बेचारी बड़ा अजीब महसूस कर रही थी कि यहाँ तो ठीक ठाक गर्म था मौसम. शहर की हवा आपको बता देती है कि उसका आपको लेकर इरादा क्या है और मुझे इस शहर की हवाओं का मिज़ाज़ आशिकाना लगा. एयरपोर्ट से होटल पहुँचने के बीच मैं रास्तों से बातें करती रही, खुद को उदयपुर की हवाओं के हवाले करती रही. इस बीच सलीम भाई बात करते रहे. वो उदयपुर के दीवाने लगे मुझे. सारे रस्ते जिस मोहब्बत से वो उदयपुर के बारे में बताते रहे सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था. यह जानकर कि मैं यहाँ पहली बार आई हूँ शायद उन्होंने इस बात की जिम्मेदारी ले ली थी कि वो मेरी दोस्ती उदयपुर से करवा ही दें. उन्होंने बताया कि यह शहर बनास नदी के किनारे बसा है. यहाँ बहुत सारी झीलें हैं, बहुत सारे महल. उन्होंने महाराज उदय सिंह के किस्से भी सुनाये जिन्होंने इस शहर को बसाया था. सलीम भाई की गाड़ी मानो सडक पर नहीं झील में नाव की तरह चल रही हो और उनकी बातें लहरों सी. कि यह शहर जादू करता है, जो यहाँ आ जाता है यहीं का हो जाता है. कि यहाँ के लोगों को किसी बात की हड़बड़ी नहीं, सब तसल्ली से जीते हैं. कि यहाँ भीड़ नहीं है, जनसंख्या भी तो बस 30 लाख ही है. सब पता है सलीम भाई को. वो चाहते हैं कि मैं पूरा उदयपुर देखूं, खूब दिन यहाँ रुकूँ और यहाँ का खाना खाऊं. होटल पहुँचने तक मैं सलीम भाई की जुबानी जिस उदयपुर से मिल चुकी थी, उसे अपनी नजर से देखने की इच्छा बढती जा रही थी. खाना खाने में वक़्त जाया न हो कि मेरे पास वक़्त ही बहुत कम है इसलिए खाने की इच्छा और भूख दोनों को इग्नोर किया और चल पड़ी अकेले फ़तेह सागर झील से मिलने. सलीम भाई जाते-जाते बता गये थे कि किस तरह सुखाडिया सर्कल जहाँ हम रुके थे से सिर्फ दस रूपये में मैं फतेह सागर पहुँच सकती हूँ. चलते समय कुछ दोस्तों ने फतेह सागर झील के लिए संदेशे भेजे थे उन संदेशों को साथ लिया और चल पड़ी. सुखाड़िया सर्कल से महज दस रूपये देकर विक्रम में बैठकर तेज़ आवाज में राजस्थानी संगीत सुनते हुए फतेह सागर झील के किनारे जा पहुंची. थोड़ा रास्ता पैदल का था जो अतिरिक्त सुख था. यह पैदल चलना मेरा खुद का चुनाव था. यह सुख लेना मैंने लन्दन की सड़कों पर घूमते हुए सीखा है. किसी भी शहर से दोस्ती करनी हो तो पहले उस शहर की सड़कों को दोस्त बनाना होता है. पैदल चलते हुए शहर जितना करीब आता है, कैब में बैठकर नहीं आता.

झील के किनारे पहुंचकर सबसे पहली अनुभूति हुई सुकून की, ठहराव की. मैंने झील को आदाब कहा उसने पलके झपकाकर, मुस्कुराकर करीब बिठा लिया. हम दोनों के बीच लम्बा मौन रहा. इस सुकून की मुझे कबसे तलाश थी. यह ठहराव, कबसे चाहिए था. भागते-भागते पाँव में छाले पड़ चुके थे लेकिन उन्हें देखने की फुर्सत तक नहीं थी. झील की ठंडी हवाओं ने उन तमाम जख्मों को सहलाया तो मेरी पलकें नम हो उठीं. जैसे बाद मुद्दत मायके लौटी बेटी को माँ की गोद मिली हो. जैसे प्रेमी ने माथा चूमते हुए और सर पर हाथ रखकर कहा हो ‘मैं हूँ न’. मैं अपलक उस शांति में थी. घूँट घूँट उस शांति को पीते हुए. इस पार से उस पार झील के किनारे धीर-धीरे चलते हुए मैंने खुद को पूरी तरह समर्पण की स्थिति में पाया.

अब तक निशांत आ पहुंचा था. निशांत हमारा देहरादून का साथी है. ‘क’ से कविता का साथी. वो उदयपुर में गांधी फेलोशिप कर रहा है. उससे मिलने के बाद मुझे लगा कि उदयपुर पहुँचने के बाद से अब तक जो मेरे साथ हो रहा है, निशांत भी उसी गिरफ्त में है. एकदम इश्कियाना. निशांत पूरे वक़्त उदयपुर की तारीफ में था. उसने पुराने उदयपुर से लेकर नए तक सब घुमाया. यहाँ के लोग, यहाँ की संस्कृति, मौसम, मिजाज़, खाना, चाय, सुबह, शाम, पंछी, ऊँट, झीलें, महल सबके सब निशांत की बातों में बनारस के पान की तरह घुले थे. मैं उस पान का स्वाद ले रही थी, मुस्कुरा रही थी. ‘मैम यहाँ की शाम बहुत अच्छी होती है, यहाँ शांति बहुत है. बहुत सुकून है यहाँ. यहाँ के लोगों को कोई जल्दी नहीं होती किसी बात की. कोई हड़बड़ी नहीं. लोग इत्मीनान से जीते हैं यहाँ. यहाँ लोगों ने अपनी संस्कृतियों को खूब सहेजा हुआ है. रोज शाम को कुछ न कुछ तो जरूर हो रहा होता है. यहाँ का खाना बहुत अच्छा होता है, थोड़ा तीखा होता है लेकिन स्वादिष्ट भी. यहाँ के जैसी चाय तो मैंने कहीं पी ही नहीं. यहाँ रह जाने का जी करता है...’ वो लगातार उदयपुर की तारीफ में था. सच कहूँ तो उसकी बाइक पर बैठकर उदयपुर घूमते हुए मुझे एक पल को भी नहीं लगा कि वो कुछ रत्ती भर भी ज्यादा तारीफ कर रहा है. उसकी बातों में जो उदयपुर था और मेरे सामने जो उदयपुर था दोनों ने मिलकर मुझे अपने इश्क की गिरफ्त में ले लिया था. निशांत मुझे सिटी पैलेस और पिछोला झील देखने के लिए छोड़कर चला गया शाम को फिर मिलने आने के लिए.

मैं अब सिटी पैलेस में थी. महलों की भव्यता में एक किस्म का गर्वीलापन शामिल रहता है. बड़े-बड़े किले, महल मुझे ज्यादा रास नहीं आते, उनकी बजाय मुझे नदियों, तालाबों के किनारे बैठना और ठेली पर चाय पीना ज्यादा पसंद है. लेकिन सिटी पैलेस की भव्यता में एक किस्म की सादगी भी दिखी मुझे. यह भव्यता आपको आक्रांत नहीं करती, आपसे दोस्ती करती है. मैं महल में घूमती फिर रही थी. यहाँ के दरो-दीवार से मुखातिब. कोई जल्दी नहीं थी. किसी के मूड का ख्याल नहीं रखना था. कहीं भी बैठ जाती थी, देर तक बैठी रहती फिर चल पड़ती. मैं असल में हवा को महसूस कर रही थी. अरसे से इस सुकून की तलाश में थी.

फिर पिछोला झील का किनारा मिला. शान्ति का चरम था यह. न कोई भीड़, न कोई हल्ला. सामने लहराती खूबसूरत झील और किनारे असीम शान्ति. देर तक उसे निहारती रही. फिर वहीँ बैठ गयी पहले कुर्सी पर फिर जमीन पर. ठंडी हवा के झोंके मन की थकन भी मिटा रहे थे. जो कभी नहीं हुआ वो पिछोला झील ने कर दिखाया कि थपकी देकर अपने काँधे पर सर रखकर सुला लिया. दिन में यूँ बाहर अकेले अनजाने लोगों के बीच अनजानी जगह मैं सो भी सकती हूँ कभी सोचा नहीं था. कब नींद आई पता ही नहीं चला. जब नींद खुली तो खुद को थकन से आज़ाद पाया. मैं पिछोला को देख मुस्कुराई, तुम्हें पता था न मुझे क्या चाहिए था. पिछोला के पानी ने छोटी सी उछाल ली और कहा, खुश रहो.

वहां से लौट रही थी बिलकुल ताज़ा और तनाव मुक्त होकर. शाम निशांत के इश्क के किस्सों के नाम और उदयपुर की स्पेशल चाय के नाम रही. आलू के पराठों के नाम भी. निशांत फिर से उदयपुर के किस्से सुना रहा था. यहाँ ये बहुत अच्छा है, यहाँ वो बहुत अच्छा है. आप रुकतीं तो वहां ले जाता आपको, वहां ले जाता. वो जहाँ ले जाना चाहता था उन जगहों के विवरण और उनसे उसका लगाव मुझे वहां ले जा चुका था, यह वो नहीं जानता था. जैसे कोई आशिक अपनी महबूबा के बारे में हर वक़्त बात करना चाहता है और बात करते हुए उसके चेहरे पर जो ख़ुशी होती है वैसी ही खुशी थी निशांत के चेहरे पर. उत्तराखंड के अगस्त्यमुनि की सुंदर वादियों में पला बढा, देहरादून में अपनी वैचारिकी निखारता यह लड़का आखिर उदयपुर के इश्क़ में यूँ ही तो नहीं पड़ा होगा. ‘मैम रात में उदयपुर बहुत खूबसूरत लगता है.’ वो बोल रहा था और मैं उदयपुर के इश्क में गिरफ्तार हुई जा रही थी.

यात्राओं में अक्सर अच्छी चाय न मिलना बेहद अखरता है. ज्यादातर अच्छी चाय के नाम पर ढेर सारा दूध, और शकर वाली चाय मिल जाती है लेकिन यहाँ कुल्हड़ में जो मिली स्वादिष्ट चाय तो दिल खुश हो गया. एक के बाद एक 3 चाय पी हमने. खूबसूरत रात, हल्की झरती ठंड जिसके लिए सिर्फ गुलाबी शाल काफी था के साये में पैदल घूमना...दिन बीत गया था. सुबह अल्लसुबह हमें सिरोही के लिए निकलना था. लेकिन सच यह है कि मैं अब भी उदयपुर में ही हूँ. उन्हीं गलियों में कहीं, वहीँ फतेह सागर झील के किनारे बैठी हुई, सिटी पैलेस में टेक लगाये हुए, पिछोला झील के किनारे सोई हुई या चाय की गुमटी पर चाय पीती हुई...

(फेमिना जनवरी 2019 अंक में प्रकाशित)