Thursday, August 30, 2018

खेल


यह एक खेल है इन दिनों
काफी लोकप्रिय होता खेल
हालाँकि नहीं हुई है अभी इस खेल की इंट्री
ओलम्पिक, एशियाड में

जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय का भेदभाव मिटाकर
सब इस खेल में शामिल हैं
न न, कैंडी क्रश या फॉर्म हाउस नहीं
इस खेल में इंटरनेट की दुनिया में
न शामिल लोग भी शामिल हैं
गरीब से गरीब भी
अमीर से अमीर भी

रोजगार नहीं?
कोई गम नहीं
घर में रोटी नहीं?
कोई बात नहीं
बच्चियों का बलात्कार?
ओह, दुःख हुआ
गाँव बह गये?
बुरा हुआ, कुदरत का कहर
केरल की बाढ़?
उफ्फ्फ...हम कर भी क्या सकते हैं
किसानों की आत्महत्या?
भई, इतना भी तूल मत दो इन घटनाओं को
कवियों और लेखकों की गिरफ्तारी?
उन्हह, वो इसी लायक हैं.

यही है वो खेल
एक हाथ का दर्द कम करने को
दूसरे हाथ में ज्यादा चोट देना
बुखार की शिकायत करने पर
कैंसर की बात छेड़ देना
एकता की बात करते करते
अलगाव के बीज बोना
धर्म और जातीय विभेद से लड़ने की तक़रीर पढ़ते-पढ़ते
और गहरी करते जाना खाई
संवेदना का जाप करते हुए
नफरत के हथियार पैने करते जाना
हिंसा और नफरत के इस खेल में
स्त्री, पुरुष, गरीब, अमीर, हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, शूद्र
शामिल करना सबको

यह सबको एक-दूसरे के प्रति नफरत से भर देने का खेल है

खिलाडियों की भीड़ है, भीड़ का उफान है
भीड़ का उत्साह देखिये इस खेल को खेलते वक्त
एक भी मौका चूक न जाए इसलिए वीडियो रिकॉर्डिंग मुस्तैदी से
फारवर्ड का अचूक अस्त्र और उत्साह बढ़ाता है खेल के प्रति

कुछ सड़क पर उतरकर खेल रहे हैं
कुछ न्यूज़ रूम में बैठकर
कुछ चौराहों पर,
कुछ चाय की गुमटियों पर
कुछ कौन बनेगा करोड़पति देखते हुए खेल रहे हैं
कुछ दांत भींचते हुए खेल रहे हैं स्मार्ट फोन के स्क्रीन पर
फेसबुक पर भी हैं बहुत से खिलाड़ी

जो इस खेल में शामिल नहीं हैं
उनकी चुप्पी शामिल है इसमें

जो मुखर होकर इस खेल के विरोध में हैं
वो या तो गायब हो जाते हैं अचानक जादू से
या 'अपनी मौत का जिम्मेदार खूद हूँ'
की चिट्ठी लिखकर झूल जाते हैं फंदे पर
या घर के भीतर कोई अदृश्य जादूगर आकर
कर जाता है उनकी हत्या
बिना कोई सुराग छोड़े

इस खेल के नियम ऐसे हैं कि हत्यारों के खिलाफ
नहीं मिलते कोई सुबूत
और लेखकों, कवियों, छात्रों,
और इस खेल में न शामिल हुए लोगों के खिलाफ
सुबूतों का ढेर मिल जाता है

कुछ भी हो हिंसा और नफरत के इस खेल ने
समूचे देश को एक सूत्र में बाँध रखा है.

Friday, August 24, 2018

साथ


जब मैं जीने की बात करती हूँ
तब असल में मैं
बात करती हूँ, अपने जीने की ही
मेरी जीने की बात करना
क्यों लगता है तुम्हें
मेरा तुम्हारे विरुद्ध होना

जब मैं हंसती हूँ खुलकर, खिलखिला कर
तब तुमसे कोई बैर नहीं होता मेरा
न मेरी हंसी होती है तुम्हें चुनौती देने के लिए
सदियों की उदासी से
मुक्त होने की ख्वाहिश भर है यह हंसी
मेरी यह हंसी क्यों लगती है तुम्हें
तुम्हारे विरोध में उठा कोई स्वर

जब मैं चलती हूँ तेज़ क़दमों से
तुमसे आगे निकलने की कोई होड़ नहीं होती
तुम्हारे साथ होने के सुख से
भरने की इच्छा होती है मन में
पीछे चलते हुए नहीं पाया मैंने साथ का सुख
शायद नहीं पाया तुमने भी

सांसों में 'जीवन' पाना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ ही, तुम्हारे बिना नहीं
मेरे जीने की इच्छा से तुम डर क्यों जाते हो भला ?



Wednesday, August 1, 2018

बाइक राइडर गजेन्द्र रौतेला के कुछ रोमांचक एहसास

गजेन्द्र रौतेला पेशे से शिक्षक हैं मन से विद्यार्थी. मैंने उन्हें एक बेहद क्रिएटिव ऊर्जा से लबरेज और संवेदनशील युवा के रूप में जाना है. कक्षा में वे बेहतरीन प्यारे दोस्त जैसे शिक्षक होते हैं, कैमरा उठा लेते हैं तो न सिर्फ खूबसूरत नजारों को कैद करते हैं कैमरे में बल्कि खबरों का, सामजिक सरोकारों का आईना बन जाते हैं. माउंटेनिंग, बाइकिंग, ट्रेकिंग, उनके पक्के दोस्त सरीखे हैं. केदारनाथ आपदा का समय हो या हाल ही में साम्प्रदायिकता की चपेट में अगस्त्यमुनि को झुलसने से बचाने की कवायद, गजेन्द्र सबसे पहले हाजिर होते हैं. उनकी जो बात इन सबसे परे उन्हें खास बनाती है वो है उनकी सादादिली. वो अपने किसी भी काम का जिक्र सुनकर गहरे संकोच में धंस जाते हैं. गजेन्द्र ने अपना एक यात्रा संस्मरण 'प्रतिभा की दुनिया' के लिए देकर 'प्रतिभा की दुनिया' का मान बढाया है.- प्रतिभा


पढ़ने लिखने की संस्कृति के बहाने बाईक राइड वाया अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग (9:45 AM)-गैरसैंण-भिकियासैंण-रामनगर-काशीपुर-APF संस्थान दिनेशपुर उधमसिंहनगर 7:30 PM

दिनांक: 21 जून 2018
कभी-कभी खुद से बातें करते हुए अपने आस-पास की चीजों को महसूस करते हुए बाइक राइड करना एक अलग एहसास देता है। गुजरते वक़्त हर जगह की सरसराती कहीं गर्म, कहीं ठंडी हवा उस जगह के एहसास को भीतर तक महसूस करा लेती है।लगभग दो दशक बाद फिर से अगस्त्यमुनि से दिनेशपुर(रुद्रपुर) तक बाइक से गुजरने का मौका मिला ।बहुत सी चीजों में बदलाव भी देखा तो राज्य बनने के बाद भी बहुत कुछ यथावत भी।लगभग 350 किमी की इस बाइक राइड में गैरसैंण को राजधानी बनने की आस लगाए भी देखा तो बंजर होते खेत और खंडहर होते घर भी। बहुत कुछ झकझोर भी गया तो कुछ उम्मीदें बढाते प्रयोग भी। रामगंगा के किनारे बसा गणाई चौखुटिया के आस पास के रुपाई होते सेरे (खेत) आज भी यही बता रहे हैं कि जहाँ स्वाभाविक रूप से संसाधन उपलब्ध हैं वहाँ लोगों ने इनका भरपूर उपयोग भी किया है। वहीं दूसरी तरफ देवभूमि कहे जाने वाले राज्य में प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर वृद्ध केदार भगवान भी वैसे ही उपेक्षित हैं जैसे हमारे समाज में भी वृद्धजन उपेक्षित हैं यह अद्भुत साम्य है जहाँ इंसान और भगवान में कोई फर्क नहीं दिखता।

भतरौजखान के आस-पास का इलाका राज्य बनने अट्ठारह वर्षों के बाद भी पानी के संकट से जूझ रहा है।महिलाएं और बच्चे अपनी दिनचर्या का एक बड़ा हिस्सा पानी की जद्दोजहद में लगा दे रहे हैं। पूरे रास्ते भर छोटे-बड़े डिब्बों के साथ बच्चे और महिलाएं पानी के लिए भटकते हुए दिख जाते हैं। जबकि भतरौजखान के आस-पास का पूरा इलाका गढ़वाल क्षेत्र के लगभग धनौल्टी जैसा ही है । यदि इसको भी एक टूरिस्ट प्लेस के रूप में विकसित किया जाता तो स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी विकसित होते। भतरौजखान और मोहान के बीच का क्षेत्र कुछ छिटपुट बदलाव के बावजूद आज भी वैसा ही दिखता है जैसा राज्य बनने से पहले था। हाँ, कुछेक निजी पर्यटन व्यवसायियों द्वारा स्थापित कुछ अभिनव प्रयोग जरूर दिखाई दे जाते हैं।लेकिन दूसरी तरफ कभी उत्पादक रहे खेत और खंडहर होते घर हमारी आधुनिक जीवनशैली तथा पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी को बयां करती है। कभी अन्न उत्पन्न कर रहे इन बंजर खेतों में आज डिजिटल इंडिया के मोबाइल टावर उग आए हैं।यह नए उभरते भारत की एक बानगी भर है।यह भी सोचनीय है कि उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य की जो सांस्कृतिक पहचान स्थापित होनी चाहिए थी अफसोस है उसमें आज भी हम बहुत पीछे हैं। अब देखना यह है कि इन खोखली हो चुकी जड़ों के सहारे ये दरख़्त कब तक बची -खुची मिट्टी के सहारे अपना अस्तित्व बचाये रख सकते हैं यह एक बड़ा प्रश्न है।


दिनांक : 26 जून 2018

स्थान : दिनेशपुर(रुद्रपुर) 5:30 AM-हल्द्वानी-भीमताल-भवाली-गरमपानी-भुजान-रिची-बिनसर महादेव(अल्मोड़ा)-भिकियासैंण-गैरसैंण-रुद्रप्रयाग-अगस्त्यमुनि (9PM)
दूरी लगभग 350 KM

अक्सर हम लोग किसी भी यात्रा की विशेष रूप से तैयारी और खास योजना बनाकर निकलते हैं । लेकिन कई बार इस तरह की योजनाबद्ध तरीके से की गई यात्रा से ज्यादा महत्वपूर्ण नए रास्तों की तलाश और नई जगहों को देखने की चाह में की गई आवारगी भरी यात्रा ज्यादा प्रभावी और यादगार हो जाती हैं।वैसे ही रही इस बार की मेरी 700 किमी की अकेले की बाइक राइड। एपीएफ के सौजन्य से 25 जून को सम्पन्न हुई 'पढ़ने लिखने की संस्कृति' के समागम के पश्चात 26 जून की सुबह 5:30 पर दिनेशपुर से वाया हल्द्वानी,भीमताल,भवाली पहुंचा तो डेढ़ दशक पुरानी यादें ताजा हो गई।

जिस सलडी में उस वक़्त गिने चुने कुछ ही कच्चे ढाबे थे वहां आज खूब सारे पक्के ढाबे दिखाई दे गए और चहल-पहल भी। भीमताल में कम होता पानी और चारों तरफ बड़े-बड़े होटलों की संख्या बढ़ते जाना मन में चिंता भी बढ़ा गई। भवाली का मेरा आशियाना जोशी जी की पीली कोठी भी कुछ उदास सी दिखी ज्यादातर बच्चे रोजगार के लिए बाहर ही हैं शायद इसलिए । कुछ देश में तो कुछ विदेशों में।यही हमारे पहाड़ की नियति है । चाहे वो गाँव हो या कोई कस्बा पलायन की मार सभी जगह है लेकिन इसका प्रभाव अलग-अलग दिखता है । जहां एक तरफ कस्बे वाले एक निश्चित अवधि में आते-जाते रहते हैं वहीं दूसरी तरफ सुदूर गाँव से गए वाशिंदे को अक्सर शहर निगल जाते हैं। भवाली के बाद गरमपानी में दुकानें तो बढ़ी हैं लेकिन जिस पानी के धारे के कारण गरमपानी को जाना जाता था वो धारा भी अब हमारी चेतना और संवेदनाओं की तरह लगभग नदारद ही है। जो धारा पहले सार्वजनिक था अब उसमें जितना भी पानी शेष बचा है पाइपों में कैद होकर व्यक्तिगत हो गया है।डर लगता है कि यह व्यक्तिगत होने का सुख किसी दिन खुद से बातें करने के लिए खुद की अनुमति ही न माँगने लगे ।भयावह होगा वह दिन तो।सोचिएगा जरूर।खैरना होते हुए रानीखेत का परम्परागत रास्ता चुनने के बजाय मैंने भुजान होते हुए भिकियासैंण पहुंचने का विकल्प चुना।अक्सर नए रास्ते आपको नए किस्म की चुनौती और एक नई दृष्टि भी देते हैं । भुजान से तीपोला सेरा,तुनाकोट सेरा,बगवान और विशालकोट गाँव होते हुए रिची पहुंचा।भुजान से कुजगड़ नाले के साथ-साथ चलते यह देखकर सुखद एहसास हुआ कि उस बीस -पच्चीस किलोमीटर के क्षेत्र में कुजगड़ के दोनों ओर सब्जी उत्पादन का शानदार काम हो रहा है। और उससे भी बड़ी बात यह कि वो भी सिर्फ स्थानीय लोगों के द्वारा।नेपाली मूल या अन्य कोई भी नहीं। मेरे लिए ये जानकारी किसी आश्चर्य से कम नहीं थी।अक्सर इस तरह की सब्जी उत्पादन का कार्य अधिकांशतः हमारे यहां नेपाली मूल के नागरिक ही करते हैं।तिपोला सेरा में सब्जी उत्पादक लाल सिंह जी से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि-"हमारे क्षेत्र में बाहरी मजदूर कोई मिलता ही नहीं है इसलिए सारा काम खुद ही करना पड़ता है। बीज-खाद आदि खैरना-गरमपानी से या फिर हल्द्वानी से ही लाते हैं और बेचते भी वहीं हैं।सरकार द्वारा न तो बेचने के लिए कोई सुविधा दी गई है और न ही खाद-बीज की ही।सब कुछ स्वयं ही व्यवस्था करनी पड़ती है । यहां तक कि नहरों की मरम्मत तक भी हमें ही करनी पड़ती है।सरकार की गिनती में ये कोई काम थोड़े ही न हुआ ।" लेकिन ये देखकर मैं भी हैरान था कि बिना पानी वाले उखड़ के खेतों में भी स्थानीय लोग उखड़ के अनुकूल सब्जी उत्पादन कर रहे थे। सलाम है ऐसी जीवट जिजीविषा के लोगों के लिए।मेरे लिए तो यह दृश्य एक तरह से आंखें खोलने वाला ही था।

उसके बाद विशालकोट के आस-पास किसी नवयुवक द्वारा लिफ्ट माँगे जाने पर कुछ दूरी के लिए एक नया साथी मिल गया।पूछने पर पता चला कि इस बार दसवीं पास कर ग्यारवहीँ में गया है और नाम है रोहित मिश्रा।वह राजकीय इंटर कॉलेज पन्तस्थली में है और अपने ममाकोट आया हुआ था और गाड़ी न मिलने के कारण परेशान था और जाना था बिनसर महादेव में चल रही पूजा और मेले में। रिची तक साथ आने के बाद मेरा भी मन हुआ कि क्यूँ न साथी का साथ पूरा निभाया जाए तो हम भी चल दिए साथ बिनसर महादेव के रास्ते पर अपने नौजवान दोस्त रोहित मिश्रा के साथ 8 किलोमीटर दूर बिनसर महादेव। बिनसर महादेव पहुंचते ही समझ आया कि वास्तव में यह कितना बड़ा मेला है।दो घण्टे मेले की रौनक देखने के बाद रिची में खाना खाने के बाद दस-बारह किलोमीटर चला हूँगा तो पिछली रात की अधूरी नींद जोर मारने लगी।सड़क किनारे दाहिने तरफ एक सुनसान सा वीरान पड़ा मंदिर एक सुकून भरी नींद के लिए सबसे बढ़िया विकल्प मिल गया तो वहीं एक-डेढ़ घण्टे की मीठी नींद सो लिए।ट्रक के तेज हॉर्न ने नींद में खलल डाली तो मन ही मन शब्दों से पवित्र कर दिया उसको भी । आखिर मंदिर का प्रभाव जो हुआ ठैरा।सुस्ताते हुए भिकियासैंण होते हुए गैरसैंण-कर्णप्रयाग-रुद्रप्रयाग होते हुए रात 9 बजे लगभग 350 किमी की बाइक राइड के बाद अगस्त्यमुनि घर पहुंचे।

इस दौरान यह समझ भी आया कि चाहे कुमाऊं हो या गढ़वाल क्षेत्र महिलाओं की घास-लकड़ी-पानी की दिक्कतें एक सी ही हैं।राज्य को बनाने में जिस मातृ शक्ति ने सबसे ज्यादा संघर्ष और यातना झेली राज्य बनने के 18 वर्षों बाद भी उन की मूलभूत समस्याएं जस की तस हैं।आदिबद्री के आस-पास किसी नवयुवती को घास की कंडी पीठ पर लादे बारिश की रुमझुम में सरपट स्कूटी में भागते देखा तो लगा कि आधुनिक सुविधाओं का इस्तेमाल ऐसे भी हो सकता है।लेकिन जिनके पास सीमित साधन हैं या फिर उम्रदराज ईजा-आमा हैं उनका क्या ? तो खयाल आया कि क्या 108 जैसी इमरजेंसी सेवा की तरह ही कोई घसियारी एक्सप्रेस जैसी कॉल 10.......जैसी सेवा शुरू नहीं की जा सकती ? अक्सर देखा जाता है कि सड़कों पर हमारी माँ-बहनें जंगल से घास-लकड़ी लाने के बाद थकी -हारी सड़कों पर किसी ट्रक-गाड़ी का इंतज़ार करते हुए घण्टों भूखे-प्यासे गुजार देती हैं।उसके बाद भी यदि कोई रहमदिल ड्राइवर हो तो गाड़ी रोक लेता है अन्यथा फिर सड़क की दूरी भी फिर पैदल ही नापना शुरू।ज्यादा नहीं तो कम से कम पहाड़ की रीढ़ कही जाने वाली इन माँ-बहनों के लिए सरकार का महिला एवं बाल कल्याण विभाग या फिर बहुत सारी निष्क्रिय पड़ी सहकारी समितियों के द्वारा इनके कार्यबोझ को कम करने की कोई कोशिश तो की ही जा सकती है।और यह काम कोई असम्भव जैसा भी नहीं क्योंकि अक्सर महिलाएं वक़्त चाहे कोई भी हो समूह में ही जाती हैं घास-लकड़ी लेने के लिए जंगल।जब इनके द्वारा लाये गए घास से पल रहे जानवरों के दूध के कलेक्शन और बिक्री के लिए दुग्ध समितियां और गाड़ी हो सकती हैं तो इनके कार्यबोझ को कम करने के लिए 'घसियारी गाड़ी' क्यों नहीं हो सकती।सरकार बहादुर थोड़ा गौर जरूर कीजिए।और अगर आपके बस की बात न हो तो नाक पर हाथ रखकर जनता पर सेस लगाइए हमें खुशी होगी इसके लिए सेस देने पर।लेकिन करिये जरूर।
मेरा नई पीढ़ी के आवारा-घुमक्कड़ों से भी आग्रह है कि जहाँ तक सम्भव हो वे भी निकलें कभी कभार यूँ ही पहाड़ी रास्तों से अपने राज्य को जानने समझने और महसूस करने के लिए।पहाड़ के कठिन रास्ते होने के पूर्वाग्रहों से बाहर निकलिए और खोजिए-बनाइये अपने राज्य के नव निर्माण के नए रास्ते।तोड़ डालिए उन अवरोधों को जो आपके रास्ते की अड़चन बनें।तभी उत्तराखंड बनने की यात्रा भी सफल होगी ।अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ी माफ नहीं करेगी कि आखिर हमने अपनी जिम्मेदारी क्यों कर नहीं निभाई।