पिछले दिनों बातों बातों में देवदास का जिक्र चला तो बैशाख की किसी दोपहर से दौड़कर आया देवदास और साथ बैठकर कॉफी पीने की दिक करने लगा. मैंने कहा बिज़ी हूँ अभी, नहीं सुनने तुम्हारी उदासी के किस्से, वो माना ही नहीं, सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा. मैंने कहा क्यों दाढ़ी बढ़ाये घूम रहे हो मियां, सिगरेट शराब में डूबे हुए होना भर देवदास होना है क्या? वो बोला नहीं संसार में रहकर बैरागी होना सीख रहा हूँ... देवदास का चोला भर पहनना नहीं है देवदास होना उसकी मोहब्बत को शिद्दत को सहेजना, जीना सीख रहा हूँ. बैसाख कब का बीत गया, बसंत की गमक है आसपास और ये देवदास, कमबख्त चाय की धुन पे अटका ही हुआ है. चल, तेरे संग चाय पीते हैं फ़िलहाल, और कोई काम इस इतवार ये जनाब होने नहीं देंगे-
जब बात मोहब्बत की होगी तो मुस्कुराहटों का सैलाब उमड़ेगा। कुछ किस्से दर्ज होंगे, कुछ नग्मे गाये जायेंगे, कायनात मुस्कुरायेगी, ये धरती गुनगुनायेगी... लेकिन कुछ और भी होगा इस सबके साथ। कुछ जख्म भी उभरेंगे, कुछ स्मृतियां भी चहलकदमी करेंगी, कुछ टूटे दिल के टुकड़ों में भी स्पंदन होगा...देवदास की याद भी आयेगी। वही अपना देवदास जो बैसाख की कोई दोपहर में स्कूल से भाग जाया करता था, वही देव जो पत्तो यानी पारो की चोटी भी खींचता था और उसे कूटता भी था, वही देव जो जमाने से हमकदम होकर चलने मजबूर किया तो गया लेकिन ज्यादा दिन चल न सका...वही देव जिसने पारो के अभिमान पर चोट का टीका लगाकर विदा किया और उसकी मोहब्बत सीने में लिए जिंदगी भर सुलगता रहा...शरत बाबू का उपन्यास में भले ही मोहब्बत में जान दे बैठा हो लेकिन वो मरा नहीं। देवदास मरा नहीं...क्योंकि देवदास मरते नहीं...
आज भी जब कोई प्रेमिका अपने प्रेमी से रूठती है तो किसी रेल की पटरी के किनारे, किसी अंधी सड़क पर, शहर के सबसे वीरान कोने में कोई देवदास सुलग रहा होता है। आशिकी में दर्द सहने वाला हर आशिक देव है, पारो मिले या न मिले उसे अपने सीने में छुपाये दौड़ता फिरता हर प्रेमी देव है... दाढ़ी बढ़ाये, आंखों में रुका हुआ सा सैलाब लिए, भूख-प्यास से बेजार कहीं भटकता नज़र आता है। शरत बाबू की दुनिया से आज यूनिवर्सिटी कॉलेज, दफ्तरों तक पहुंचते-पहुंचते यह देव थोड़ा दुनियादार भी हुआ है। अब वो जानता है कि प्रेम माने मजबूत आर्थिक आधार। वो भुवन बाबू जैसे दोस्तों के साथ चंद बूंदें गटक लेने में बुराई नहीं मानता लेकिन उसे उठकर सुबह वक्त पर ऑफिस पहुंचने की पाबंदी याद रहती है। मोहब्बत के नशे में डूबा आज का देव अक्खड़ भी है, गर्वीला भी और मोहब्बत से सराबोर भी। देवदास इश्क में दर्द सह रहे आशिक का मिथक बन चुका है। आज हर इश्कज़दा लड़का इश्क में ज़रा सी खरोंच आते ही ष्देवदास हो गयाष् जैसे जुमलों से नवाजा जाता है। हर आशिक के पिता के भीतर नारायण मुखोपाध्याय संास ले रहा है... पारो तब भी निर्भीक थी, जमाने के कहे-सुने से बेपरवाह, आत्मसम्मान से भरपूर और सांस-सांस मोहब्बत करने वाली वो अब भी निडर है। प्रेम में समर्पण करने को दिलो-जान से आतुर भी, आत्मसम्मान बचाने को कटिबद्ध भी और मोहब्बत को इबादत बनाकर जीने का सलीका बना लेने वाली भी।
कभी जमाने के आगे, जाति-पाति, वर्ग भेद की दीवारों और अहंकार से चाहते हुए भी न भिड़ पाने वाले, जमाने के साथ चलने की कोशिश करने वाले लेकिन इश्क के जुनून में सब कुछ लुटा देने वाले देवदास को तो जमाने के साथ बदलना था। कुछ हैं जो बदल पा रहे हैं कुछ अब भी हार मान लेने को मजबूर हैं।
जमाने के एक सिरे पर खड़ी पारो देवदास से कहती है मैं अपनी यात्रा पूरी करने को तैयार हूं? क्या तुम हो? नये जमाने के देवदास के पास अब नारायाण मुखोपाध्याय यानी अपने पिता का मुंह देखने की फुरसत नहीं। उनके फरमान पर जबरन कलकत्ता चले जाने की बेचारगी नहीं। आज का देवदास दर-दर भटककर पारो के लिए बिसूरना नहीं चाहता। वो बिसूरने को, जुदाई को उठाकर परे रख आना चाहता है। वो पिता की संपत्ति चंद्रमुखी पर लुटाकर, अपनी जिंदगी को बीमारियों के हवाले करके मौत के हवाले करने को, अपनी पारो को किसी और के साथ जाते देखने को राजी नहीं।
यह सच है कि 1917 से 2016 तक देवदास की मिथकीय अवधारणाओं ने एक लंबी यात्रा तय की है लेकिन जो एक बात तब भी थी, अब भी है वो है मोहब्बत की शिद्दत। कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रेम को जाहिर किस तरह किया गया, बात तो सिर्फ इतनी है कि प्रेम है किस कदर गहन। गुलाब के फूल, टेडी बियर, चॉकलेट, सिनेमा, वॉट्सएप, फेसबुक ऐसा नहीं कि इनमें प्यार की खुशबू नहीं होती होगी लेकिन ये हैं महज इजहार के माध्यम ही। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने और बहुत सारे माध्यमों ने एक काम बुरा किया कि मोहब्बत के बीज को मन की, जेहन की धरती के अंदर ठीक से पनपने नहीं दिया। इससे पहले कि ठीक-ठीक महसूस हो सके कि हां, यही प्यार है...इसके पहले कि मोहब्बत रगों में दौड़े और आंखों में तकलीफ का समंदर उमड़ आये, इसके पहले कि खुद को समझ सकें भावनाएं अभिव्यक्त हो चुकी होती हैं। कच्चे अहसासों की कच्ची अभिव्यक्ति का सफर बीच में ही डगमगाने लगता है और इल्ज़ाम प्यार के माथे पर आता है।
जो बीच सफर से लौट रहे हैं वो नहीं जानते देव होने का असल अर्थ। कि देव होना इश्क के कभी न उतरने वाले नशे में उतरना है, जिसमें बीच से लौट जाने का या रास्ता बदल लेने का कोई चुनाव नहीं। उन्हें समझना भी है कि दाढ़ी बढ़ाकर घूमना, नशे में सराबोर होना और चंद दिन पारो की याद में बिताकर नई पारो या चंद्रमुखी की तलाश में निकल पड़ना नहीं है देव होना।
शरत बाबू के देवा ने आज के देव डी तक तमाम तमाम यात्राएं तय की हैं। देह की वर्जनाओं में उसे अब यकीन नहीं। मरने को वो तैयार नहीं जीने में यकीन करता है, पारो को किसी कीमत पर किसी भुवन बाबू के संग ब्याह दिये जाने को चुपचाप देखने को वो राजी नहीं। हालांकि प्रेम का अभीष्ट विवाह नहीं है फिर भी आज प्रेम विवाहों की संख्या बढ़ रही है। भले ही देवदास एक टूटे हुए आशिक का मिथक बन चुका हो लेकिन सच यह भी है कि देवदास होना आसान नहीं। मोहब्बत को, दर्द को, जुदाई को बूंद-बूंद पीना आसान नहीं। सामने प्राणप्रण से न्योछावर चंद्रमुखी हो तो भी पारो के प्रति एकनिष्ठता को गले लगाये रखना आसान नहीं। देवदास होना, अफेयर होने और ब्रेकअप होने जैसी शब्दावलियों से बहुत पार की चीज है। यह एक ब्रेकअप के चंद लम्हो या महीनो बाद ही इन अ रिलेशनशिप जैसे स्टेटस से बहुत दूर की बात है। देव या पारो होना इश्क के समंदर में बिना तैरना आये कूद जाने जैसा है...आज का देव तनिक हड़बड़ी में है...ऐसे में शरत बाबू का देवा मुस्कुराकर कहता है, तुम मत जाने देना पारो को...किसी के भी कहे सुने में आकर...नए जमाने के देव और पारो दोनों मुस्कुरा कर कहते हैं, फिकर नॉट...
( अगडम बगडम )