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Tuesday, December 11, 2012

जीवन यात्रा को विराम कब मिलेगा?

10 नवंबर-
पूरा दिन जैसे सर्रर्रर्र से बीत गया हो. पूरे हफ्ते की मेहनत का रंग आज दिखा. एक सेमिनार होना था जो खूब अच्छा हो गया. कैम्पस में लोगों से बात करते हुए कितनी पर्तें खुलीं. यूं पहले भी पूरा मुंह आंचल में ढंके दौड़ती भागती औरतों ने मुझे पहले दिन से आकर्षित किया था. मैं अपने पत्रकार को आजकल सुला के रखती हूं. फिर भी वो बीच-बीच में आँखें खोलता ही रहता है. बच्चियां पूरे उत्साह से बात करती हैं. फौजिया, हिना, महताब, गुल...मैं उन्हें अपनी एक और दोस्त फौजिया के बारे में बताती हूं तो वे शिकायत करती हैं कि यानी आपको बस फौजिया ही याद रहेगी. लड़कियां भले ही पर्दे में हों लेकिन उनके जेहन में पर्दा हरगिज नहीं था. उन्हें सब पता है दुनियादारी. ओबामा को क्यों मीडिया इतना कवरेज देता है इरोम शर्मिला को क्यों नहीं....वो सवाल उछालती हैं. हम क्या नहीं जानते इन सवालों का जवाब. हमें सब पता है कि सियासत कब, कहां, कैसे इंसानियत का सीना छलनी करती है और कैसे बाजार खबरें बनाता है.

मैं मुस्कुराती हूं. सुन लो दुनियावालों, तहरीर चौक जल्द ही गली-गली में नजर आयेंगे. मन ही मन सोचती हूं.
ये आखिरी दिन था श्रीनगर में. इस दिन के हिस्से बड़े काम थे. बचे हुए श्रीनगर को घूमना भी, शापिंग भी और वापसी की तैयारी भी. जाने वक्त को पता चल गई हमारी मुश्किल कि प्रदीप जी की प्लानिंग काम आई दिन मानो फैलकर दोगुना हो गया. हालांकि इसमें हमारा लंच न करने का इरादा भी काम आया.

शालीमार गार्डन, मुगल गार्डन, चश्माशाही, निशात गार्डन, परी महल...जर्रर्रर्र से घूम लिये. मानो किसी ने पकड़कर गोल गोल घुमा दिया हो. हालांकि जिस जगह का जर्रा-जर्रा खुदा ने खुद संवारा हो वहां अलग से किसी गार्डन में जाना क्या और न जाना क्या...फिर भी... इन सारे गार्डन के लिए जाने के लिए हमें डल झील के किनारों पर ही दौड़ना था और ये बेहद खूबसूरत बात थी.

रात आई तो बाजारों का रुख किया गया. बाजारों को हमने अपनी जेबों में यथासंभव ठूंसा और लौटे अपने ठीहों पर. ये आखिरी रात थी. हम देर तक बैठे रहे. रनदीप का दिल आ गया था श्रीनगर पर. वो यहीं छूट जाना चाहती थी. उसकी आंखें छलक रही थीं. हमें वापस क्यों जाना है....क्योंकि वापस फिर आना है. और उसी रात ये तय हुआ कि हम फिर आयेंगे...
इसी वादे को सिरहाने रख हम सोने गये तो घर वापसी की स्वप्निल रजाई ने हमें ढांक लिया.
11 नवंबर-
आज आखिरी दिन था. मलिक साब मिलने आये थे. नाश्ता करते हुए उनकी और अनंत जी की बातचीत को सुनते हुए मैं पराठा कुतर रही थी. मलिक साब ने हमारी काफी मदद की थी. बड़े खुश मिजाज इंसान हैं वो. उनसे पहली मुलाकात देहरादून में ही हुई थी. उन्होंने एजूकेशन सेक्टर में काफी काम किया है. वो भी अलग ढंग का काम. शिक्षा के भारतीय दर्शन पर काम किया है. उनसे मिलकर अच्छा ही लगता है हमेशा.
एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच का लंबा सिलसिला था. एक खूबसूरत जगह जहां प्यार के फूल खिलते हों कैसे छावनी में तब्दील हो गया है. न जाने किसकी काली नजर लग गई? क्यों बंदूकों का सीना कांप नहीं गया, क्यों उनके सीने से गोलियों की जगह फूल नहीं बरस उठे...

श्रीनगर एयरपोर्ट पर मैं अपने साथियों से बिछड़ गई. मेरे हिस्से में आया था एयरपोर्ट पर इंतजार. करीब तीन घंटे अपने सामान से मुक्त होकर काॅफी पीते हुए, निर्मल को पढ़ते हुए अजनबी चेहरों को देखते हुए बिताना...जाने क्यों हमेशा से अच्छा लगता रहा है. इतने रिलेक्स होकर मैंने किसी को भी रेलवे स्टेशन पर इंतजार करते हुए नहीं देखा.
मैंने तीसरा काफी का प्याला लेते हुए खुद से वादा किया नो मोर काफी प्रतिभा...लेकिन दिल्ली पहुंचते-पहुंचते दो काफी और हो ही गई. कभी-कभी नियम तोड़ने में हर्ज ही क्या है.
दिल्ली पहुंचते ही दुनिया बदल गई. लदे हुए कपड़े हमें एलियन बना रहे थे. यहां सर्दी बस छू रही थी. मेरे पास वक्त भी नहीं, सुविधा भी नहीं कि दूसरी फ्लाइट का टाइम हो रहा था. लगभग भागते हुए मैंने अपनी फ्लाइट पकड़ी। फिर वही काफी, वही सैंडविच वही, निर्देश बस इस बार बदलाव इतना था कि मैं लखनऊ जा रही थी. चंद घंटों में बिटिया के पास....
अमौसी एयरपोर्ट पर उतरते ही किसी अपनेपन की खुशबू में भीग गई. धनतेरस की रात सजे हुए शहर को देखते हुए घर पहुंचना...मेरा लड्डू...(मेरी बिटिया) दरवाजे पर खड़ी मिली...
यात्रा को एक सुंदर विराम मिला...जीवन यात्रा को विराम कब मिलेगा?

Monday, December 10, 2012

डल झील- जैसे महबूब को जी भर के देखना


9 नवंबर

सूरज की हथेली पर मानो किसी ने बर्फ का ढेला रख दिया हो. ठंडी सी गर्माहट थी उसके आने में. हमारे यहां आने के मकसद को बस अंतिम अंजाम मिलना बाकी था. काम बेहतर हो जाए तो उस संतुष्टि के साथ महसूस करने की क्षमता बढ़ जाती है. नौ नवम्बर का दिन दस तारीख के कार्यक्रम की तैयारियों को अंजाम देने के लिए था. सारा दिन कालेज, यूनिवर्सिटी के चक्कर लगाने के बाद...हजरत बल और फिर...डल झील.

इतने दिन से हम डल झील के करीब थे लेकिन आज यहां जाना हुआ. सच ही है जो करीब होता है अक्सर उसी के पास हम सबसे देर में जा पाते हैं.

पानी से मुझे कितनी मोहब्बत है यह माधवी जानती है. नदी, पोखर, समंदर, झील देखते ही पहला ख्याल आता है कूद जाऊं? तैरना जानबूझकर नहीं सीखा। हाँ, पार जाना ज़रूर सीखा है. मेरे दोस्तों को अब पता है मेरा पागलपन सो पहले से हजार नसीहतें हाथ थामे थीं. कुछ पूरे समय हाथ थामे बैठी भी रहीं, कुछ फोन पे टिमटिमाती रहीं।मैंने झील के ठीक मध्य में कहवा पीने के बाद खुद को खुद से विलग किया. नजर की आखिरी हद तक पानी ही पानी और चारों ओर खूबसूरत पहाडि़यां. रास्ता रोकती पहाडि़यां नहीं, रास्ता देती हुई. हमारा नाविक हमें बता रहा था कि कहां किस फिल्म की शूटिंग हुई, कहां की क्या खासियत है. समूची डल किसी दुल्हन सी सजी थी. झील के बीच में कोई नाव आपकी नाव के करीब आ लगेगी और आपको शापिंग कराने ले जायेगी. चाय भी पिला देगी. ये पानी में तैरता एक शहर है. बाजार पानी में. खेत पानी में. जिंदगी में, पानी में. पांव रखने को जमीन तलाशने पर नाव ही मिलेगी...अरे हां, वही शिकारा...हाउसबोट कुछ भी कह लो यार. शापिंग में मेरी दिलचस्पी कभी रही ही नहीं लेकिन सामान बेचने वालों को गौर से देखती हूं. हमारा नाविक डल झील की खासियत बता रहा था...दूर कहीं सूरज झील के भीतर उतरने को बेताब था.

 ऐसी खूबसूरतें शामें जिंदगी में कम ही आती हैं. ये लम्हे चुपके से स्मतियों में दर्ज होते जा रहे थे. कैमरे की क्लिक में समेटते हुए झील के पानी को छूने का जी चाहा...'इसकी गहराई कितनी होगी?' अनायास पूछ बैठी थी. 'तुम्हारे मन से कम...' किसी ने हंस के कहा...तो फिर डूबने से क्या फायदा...डूबना कैंसिल...हम सब हंस दिये.
दो-ढाई घंटे का वो सफर कहने को बीत चुका था लेकिन सच तो यह है कि बीतता कुछ भी नहीं.
लैया चना खाते हुए झील को आंख भर देखना जैसे महबूब को जी भर के देखना...

Tuesday, December 4, 2012

खामोशी की संगत पर कुदरत का राग


8 नवंबर

अनंतनाग के रास्ते केसर के खेतों से होकर गुजरते थे. जिस समय केसर फूलती होगी यहां नीले रंग की फूलों की कैसी कतारें सजती होंगी हम बस सोच ही पा रहे थे. क्यारियों की तरह कटे हुए केसर के खेत. तो यहीं से उठती है वो खुशबू जो सारी दुनिया का चक्कर लगाते हुए राजस्थान के 'केसरिया बालम' पर जाकर ठहरती है. अखरोट, सेब के बागान और केसर के खेत देखते हुए डेढ़ घंटे का रास्ता मानो मिनटों में कट गया. आज के लिए विशेष संगीत चुना गया था. बीती रात हीर सुनते हुए हमारी आंखें भीगी थीं आज के लिए हमने अपने मन की उदासियों को हीर के बहाने रेशमा आपा की आवाज को सौंप दिया था. हालांकि अनंतनाग के रास्ते में नुसरत साब की आवाज के साये में बैठे रहे...रास्तों से खेलते रहे. कशमीर यूनिवर्सिटी का एक कैम्पस ये भी है...सुंदर, विशाल.
आनन-फानन हमारी ढेर सारे लोगों से मुलाकात हुई. बात हुई. काम के अच्छे ढंग से निपट जाने के उत्साह लबरेज हम वापस लौटे तो रास्ते और भी खिले-खिले से लगे. एक जगह ठहरे। पूरे अनंतनाग को एक दृश्य के रूप में आखों में समेटा और रुख किया पहलगाम की ओर.
पता नहीं पहलगाम को टूरिज्म के नक़्शे में किन चीजों के लिए दर्ज किया गया है लेकिन मुझे इन रास्तों पर चलते हुए जो महसूस हुआ उसे कह पाना, लिख पाना नितांत असंभव है. मेरी यात्राओं में कभी धार्मिक वजह शामिल नहीं होती वरना लोग यही कहते कि वो पहलगाम जहाँ से शिव जी ने पार्वती जी के साथ एकांतवास को अमरनाथ की गुफाओं में प्रस्थान करने से पहले अपने प्रिय नंदी का त्याग किया वहां जाना सुखद तो लगना ही था. मैंने किसी मंदिर का विचरण नहीं किया. अगर धर्म इतनी बड़ी वजह है शांति की तो सचमुच समूची कुदरत से बड़ा मंदिर कोई नहीं. रास्ते हमारी आत्मा की अशांति को खुरचते रहे. रास्ते भर झेलम कंधे सहलाती रही...सारे रास्ते हम अपने भीतर डूबते रहे, उतराते रहे...क्या ऐसे ही वक्त में सुनने के लिए रेशमा आपा ने अपनी आवाज में गाया होगा मेरे हमजोलियां कुछ यहां, कुछ वहां....
तां उम्र काबिज रहेंगी इस सफर की स्मतियां. वक्त कम ही सही लेकिन जिंदगी को मांजने को काफी था...झेलम तीरे घंटों बैठने का ख्वाब अब ख्वाब नहीं था....दूर तक पसरा गहन सन्नाटा, खामोश चिनार, बिना आवाज किये बहती जाती झेलम...हाथ बढाओ तो गले लगाने को आतुर. जाने क्या था यहां के जर्रे-जर्रे में कि कब से बंधी पड़ी मन की गिरहें अचानक खुलने को व्याकुल...मानो सब झेलम में बह जाना चाहती हों...चिनारों के साये से लिपट जाना चाहती हों. सचमुच यात्राओं से बड़ा कोई सुख नहीं, प्रकति से बड़ा कोई गुरू नहीं और संगीत से बडा कोई मरहम नहीं.
चिनारों के जंगलों पर चढते हुए सांस फूलने को हो आई. कायदा तो यही था कि मुझे भी रनदीप के साथ झेलम के किनारों पर निकल जाना चाहिए लेकिन मैंने जुबेर और प्रदीप जी का हाथ थामा और चढ़ाई पर पांव रख दिया. पहंुची तो लगा कि अच्छा किया. जैसे एक के बाद एक जादुई करिशमे छुपे हों यहां. पलक झपकते ही सीन चेंज और आप अवाक...ये तो पहले वाले से भी सुंदर...न...न...कोई कम्पैरिजन नहीं. सामने खड़ा हिमालय...बर्फ से ढंका हुआ. इतना करीब....दूर तक फैला बर्फ का मैदान और चमकते पहाड़. मंत्रमुग्ध करता दृश्य. खामोशी की संगत पर कुदरत का यह राग दिल के हर कोने में पसर गया था. हमें अपनी सुध ही नहीं थी. इतनी भी नहीं कि इन लम्हों को कैमरे में कैद भी करना है. इस सुंदर राग में खुद को पैबस्त करके तस्वीरें खिंचवाना या खींचना जैसे राग को तोड़ना हो...बस कि आंखों में भर लें सारे दश्य. आज वो सारे बोर्ड याद आये जो मंदिरों में लगे होते हैं कि तस्वीरें खींचना मना है. दरअसल, जब आप किसी दृश्य में विलीन होते हैं तो तस्वीर खींचने का ख्याल ही कहां होता है. यह विलीन होना ही तो महत्वपूर्ण है. फिर भी चलते-चलते कुछ तस्वीरें जुबेर ने खींची जरूर. हालांकि तस्वीर में उस खूबसूरत मंजर का एक प्रतिशत भी नहीं आ सकता. दुनिया का कोई फोटोग्राफर नहीं उतार सकता उन धड़कते हुए लम्हों को अपने कैमरे में...
न चाहते हुए भी आखिर लौटना ही था. लौटना ही होता है हर सफर से...ओह...यानी कोई कहीं नहीं जाता. जाना या आना सिर्फ वहम है...भ्रम है. क्योंकि लौट ही आता है हर कोई सफर से...जीवन के सफर से भी तो...डूबते हुए सूरज का पीछा करते हुए झेलम को निहारते हुए दिल इतना भारी था जैसे प्रेमी से आखिरी मुलाकात का मौका हो...
कशमीर यात्रा का यह ऐसा दिन था, ऐसा पड़ाव जिसका असर तां-उम्र रहेगा. सारी रात झेलम आंखों में लहराती रही. बाहर पेड़ो से चिनार के पत्ते झर रहे थे और भीतर मन...तो क्या ये कुछ नया उगने की आहट थी...इस सवाल का जवाब सिर्फ वक्त के पास है यही सोचकर लिहाफ में बची-खुची रात समेट दी.
जारी...
(जनसत्ता में प्रकाशित )

Monday, December 3, 2012

धूप का उबटन और भागते दिन...


7 नवंबर

हथेलियों पर सूरज को उगाने का अपना मजा है. बीता दिन इतना दौड़ भाग भरा रहा कि सिरहाने ढेर सारी स्म्रतियों के साथ एक कुंटल थकान भी छोड़ गया. थकान के समंदर में गोता लगाते हुए यह सुकून भी था कि सूरज हथेलियों में है. जब हम चाहेंगे तब सुबह होगी. सारी रात मुट्ठियों में सूरज लिये हम सोते रहे और उठे तो माथे पर धूप का उबटन लगा था. गुनगुनी धूप हौले-हौले पलकों को सहला रही थी. सामने कबूतरों की मटरगशती चल रही थी. शहरों को जानने के लिए टूरिस्ट की तरह जाने की बजाय एक इनसाइडर की तरह जाना हमेशा से भला लगता रहा है. हम टूरिस्ट नहीं थे. हम यहां एक रिश्ता बनाने आये थे. लोगों से मिलने. कुछ लेने नहीं, देने भी नहीं बस कि एक जैसी सोच के लोगों का कारवां बनाने. आज कई कालेजों में लोगों से मुलाकात हुई, टीचर्स से, छात्रों से भी. सबसे ज्यादा हैरत उन्हें यह जानकर होती कि क्या कोई बिना किसी काम के सिर्फ एक काम का हिस्सा होने के नाते मिलने आ सकता है...इतनी दूर...

तहजीब, सलीका, मिठास बेहिसाब. लोग ऐसे मोहब्बत भरे कि गले लग के रो लीजिये जी भर के. हम भागते थे सारा दिन और दिन की हमसे होड़ होती थी. वो और तेजी से सरकता. जब हम थक हार के पांव पसार के बैठते...भूख को महसूस करते तब तक षाम कंधे से कंधा मिलाकर बैठ जाती...अरे...शाम कहां...शाम को छूकर निकलती हुई सी रात. दिन यहीं ठहरता था आकर. गहरी तनहाई और लंबी फुरसत.

यहां सिर्फ एक ही कमी खली अपने वेजिटेरियन होने की. हालांकि ये कमी हर जगह चुभती ही है. खासकर तब, जब बाकी लोग नान वैजेटिरयन हों. सारे दिन की भूख पर नानवेज की खुशबू काबिज होती और भूख आमतौर पर गायब ही हो जाती. दिन के कुछ फल, बिस्किट दाल और सब्जी के बीच भूख से दो-दो हाथ करना. हालांकि सारा दिन प्रदीप जी हमारे खाने का ख्याल रखते. इतना कि कभी-कभी हैरत भी होती और खुद पर गुस्सा भी आता. क्यों इतना साॅफेस्टिकेशन है खाने को लेकर. ये नहीं...वो नहीं...यहां नहीं...वहां नहीं...

आज जुबेर से मिली. जुबेर सोनमर्ग का रहने वाला है. उसने हमें ज्वाइन कर लिया है आफिशियली भी, पर्सनली भी. भोली सी सूरत वाला भला सा वो लड़का बता रहा था कि कल रात सोनमर्ग में बर्फ गिरी है...उसके कहने भर की देर थी हमने हथेलियों पर बर्फ झरती देखी...शीशे के पार का मौसम झांककर हमें देख रहा था. दोस्ती तो अब हो ही चली थी.
.......................
सारे दिन उत्साह हमारे सर पर नाचता रहता. शाम की थकान में वो भी अपना हिस्सा मांगता...रातें खिलखिलाते हुए आतीं और देर तक पास में बैठी रहतीं.
प्रदीप जी ने आज हीर सुनाई. मद्धिम रोशनी के बीच रेशमा आपा की आवाज घुल रही थी. हम कितने ज्यादा खामोश थे. कोई किसी के एकांत में दस्तक नहीं दे रहा था. साथ होते हुए भी तन्हा हुआ जा सकता है बशर्ते कि जिसके साथ आप हैं उसे तनहाई की हिफाजत करने का हुनर आता हो. आंखों का पता नहीं पर अंदर से हम सब भीगे से थे.
देर रात गये ख्याल आया कि कल सूरज हमारी मुट्ठियों में नहीं होगा...हमें उसके पीछे भागना है. सुबह अनंतनाग और पहलगाम के लिए निकलना जो था. बड़े बेमन से हमने अपने-अपने कमरों का रुख किया...हालांकि नींद ने ज्यादा नखरे नहीं दिखाये...

जारी...

Tuesday, November 27, 2012

जिंदगी की सलाखें बड़ी मजबूत हैं


5 नवंबर
दिन को पकड़ने को हाथ बढ़ाया तो शाम के आंचल का कोना ही हाथ लगा. वो भी जल्दी ही सरक गया...सर्द गहराती रातों को आने की बड़ी जल्दी रहती है... बड़े से विंडो ग्लास के बाहर मौसम कैसा ठहरा सा था. इत्मीनान से शाख पर रखे पत्ते मानो कोहरे की खुशबू में नहाने को बेताब हों...सिरहाने रखे चिनार के पत्तों पर नमी सी रखी है हालांकि कमरे में ओस का कोई कतरा भी नहीं.

6 नवंबर
जब हम जागे तो मुट्ठियों में सुबह छुपी हुई थी. बारामूला और गुलमर्ग...मुझे क्या याद रहा. रास्ते...रास्ते...रास्ते...पथिकों को रास्तों से प्यार न होगा तो किससे होगा. एक बार फिर खुद को रास्तों के हवाले करना. गुलमर्ग रास्ते भर पुकारता रहा 'आ जाओ... ' इतने खूबसूरत रास्ते कि इन्हीं रास्तों में रह जाने को दिल चाहे. न भूख न प्यास...ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते बर्फ से ढंकी पहाडि़यां और करीब आती जाती, खामोश जंगलों के बीच से गुजरते हुए हम सब कितने खामोश थे. हम सब...एक से धरातल पर. सबको पता है कि खामोशी के राग की तासीर कैसी होती है. मैं किसी ईश्वर को नहीं जानती लेकिन कुदरत के करीब जाते हुए महसूस कर पाती हूं उन आंसुओं की नमी को जो प्रार्थना या दुआ के वक्त ढुलक आते होंगे...' मुझे मुझसे मुक्त करो...' ऐसे ही बुदबुदा उठे थे होंठ...शायद यही मेरी प्रार्थना का ढंग है...गुलमर्ग की दिल लुभाने वाली खूबसूरती को देखते हुए अचानक सिहरन सी हुई. कोई आवाज कानों से टकराई...'अभी रिहाई का वक्त नहीं आया.' किसने कहे होंगे ये शब्द ...दूर-दूर तक तो कोई नहीं था. हां, सामने बर्फ से ढंकी चोटी के ठीक उपर चमकता सूरज पल भर को छुप गया था...सिर्फ पल भर को. जिंदगी की सलाखें बड़ी मजबूत हैं.
जारी...

Thursday, November 22, 2012

जिंदगी की शराब में अवसाद के टुकड़े


4 नवंबर 2012

हमने देखी है चिनारों से पिघलती हुई बर्फ
उनके शाने से ढलते हुए आंचल की तरह...

एक साथी ने ये पंक्तियां पकड़ा दी थीं निकलते वक्त. यहां तक हथेलियों में बंद ये पंक्तियां अब खुलकर घुल गई थीं फिजाओं में. चिनारों की खुशबू उसके रंग, रूप से पहले पहुंच रही थी. मन के मौसम का भी अजब हाल है कि कोई भी सुकून देने वाली बात, जगह, लोग मिलते ही बरसने को बेताब होने लगता है. भीतर न जाने कितना बड़ा कुंआ है, इसे न जाने कितना दुःख चाहिए न जाने कितना सुख न जाने कितना प्यार ये भरता ही नहीं...जब भी इसमें एक टुकड़ा सुख फेंको बदले में अवसाद की प्रतिध्वनि उभरती है..औटम ...क्यों कश्मीर ने मुझे इसी सीजन में पुकारा...बड़ा बेजा सवाल था. भला मेरे लिए इससे बेहतर और कौन सा सीजन हो सकता था...झरते हुए पत्तों के बीच से निकलते हुए महसूस करती हूं अपना झरना भी. दुःख से बड़ा रोमैंन्टिसिज्म कोई नहीं. ये हौले-हौले हमारी रगों में दाखिल होता है और नशे की तरह हम इसके आदी हो जाते हैं. जिंदगी की शराब में अवसाद के कुछ टुकड़े जिंदगी का स्वाद बढ़ा देते हैं.

कश्मीर रेजिडेन्सी के कमरा नंबर 301 में सामान पटकने के बाद खिड़की के बाहर झरती शाम को देखना आईना देखना सा लगा. फिर लाल चौक की सनडे मार्केट का रुख किया. बाहर निकलते ही जो पहला चिनार का पेड़ मिला हम उसी से लिपट गये. प्रदीप जी आसपास घूमने वाली जगहों के बारे में कुछ पूछताछ करने गये, तब तक रनदीप ने चिनार के पत्तों पर धावा बोल दिया. उसकी याद कोई का तार चिनारों से जुड़ा था. मैंने उसे वादा किया कि उसकी ढेर सारी सुंदर तस्वीरें खींचूंगी चिनारों के साथ...
लाल चौक की सनडे मार्केट घूमते हुए न जाने कहां निकल गये हम. भटके हुए मुसाफिर की तरह सड़कों का आनंद उठाते हुए. छोटे-छोटे अलाव जल चुके थे. बाजारों में बहुत सी नई चीजें थीं जिनके बारे में जानने की दिलचस्पी थी. रनदीप का कैमरा चल रहा था और मेरा दिमाग... ये वही लाल चौक था जिसे कभी खौफ के साये में न्यूज़ चैंनलों ने दिखाया था।

कभी किसी ने कहा था कि भीतर की दुनिया के सवालों के जवाब बाहर की दुनिया में तलाशना एक गलत खोज है...सोचती हूं भीतर की दुनिया के सवाल गर्भ में तो न रोपे गये होंगे. फिर ये प्रक्रिया गलत कैसे हुई.

जबरन थमा दी गई मुस्कुराहटें हमेशा खाली नहीं जातीं. अपने साथियों को स्नेह से देखती हूं शुकराना नहीं कर पाती उनके होने का...उनके इतने अच्छे होने का.

कोहरे की खुशबू को जेबों में भरने के बाद हम अपने-अपने कमरों में लौट तो आये लेकिन ठहर नहीं पाये. ये समूह का सफर था तो साथ ही रहना भला लगा. प्रदीप जी के संगीत के खजाने में इतने अनमोल नगीने थे कि घड़ी के कांटों का ख्याल ही नहीं रहा...न खाने की सुध...न सोने की.

फिर भी सुबह सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी और कश्मीर यूनिवर्सिटी के लोगों से तय मुलाकात पर समय से पहुंचने की जिम्मेदारी लिए नींद की दरगाह पे सजदा किया...
जारी...

Tuesday, November 20, 2012

कुछ बदलियाँ हथेलियों पर


4 नवंबर 2012

कई बरस पुरानी अपनी ही बात रास्ते भर याद आती रही. हिल सिकनेस के चलते पहाड़ों पर कैसा गुस्सा फूटा था शिमला जाते वक्त. नहीं अच्छे लगते मुझे पहाड़.वो मुझे किसी अडि़यल, जिद्दी, अहंकारी पुरुष से लगते हैं. आप ही जाइये उनके पास हजार मुश्किलें उठाकर...खुद के नदी होने पर नाज़ था कि ठहरती नहीं एक जगह बहती फिरती हूं धरती पर. किसी सरहद में नहीं समाती. आज फिर से दोहराती हूं अपनी ही बात कि खुद के लिखे को काटना और रचना नया यही प्रक्रिया है जीवन की भी और लिखने की भी. मेरी नाराजगी मानो पहाड़ों तक जा पहुंची थी. जैसे सारे पहाड़ों ने मिलकर मुझे मनाने की ठान ली हो. उत्तराखंड के पहाड़ों ने हाथ पकड़कर अपनी पनाह में बिठा लिया. और अब कश्मीर से अचानक से आई यह पुकार. मैं इस दुनिया में अगर किसी चीज पर आस्था रखती हूं तो वो कुदरत है. उसकी बात को ध्यान से सुनती हूं और मानती हूं. कश्मीर की वादियों का रुख करती हूं यह सोचते हुए कि जितने गौर से कुदरत मुझे सुनती है, सहेजती है, संभालती है कोई और क्यों नहीं सुनता...

दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचते ही सबसे पहली इच्छा कॉफ़ी पीने की हुई. यहां आकर बड़ा अपनापन सा लगता है. न जाने कितना वक्त काटा है इस एयरपोर्ट पर. वो कोना देख मुस्कुराती हूं जिसके साथ छह घंटे फलाईट लेट होने पर वक्त साझा किया था. वो कॉफ़ी कार्नर, वो सिक्योरिटी चेक. अपना ही सामान कितना बोझ लगने लगता है न कभी-कभी. कि जिस सामान को चाव से बैग में रखा वही बैग कार्गो में देने के बाद कितनी राहत मिली. ऐसा ही तो है जीवन कि जिस देह से इतना लाड़ है उसी का बोझ ढोने में जिंदगी जा रही है. एक पल भी हम अपने होने के अहसास से मुक्त नहीं हो पाते. काश कि ये देह भी कार्गो में चली जाती तो हम प्लेन की सीट पर नहीं पंखों पर बैठ के जाते....

शीशे के उस पार दिखता आसमान अब ललचा नहीं रहा था। हालाँकि टेक ऑफ करते समय हमेशा यही ख्याल आस पास होता है ऊंचा होने के लिए सीढियां चढ़ना नहीं नींव में उतरना ज़रूरी होता है। फिर भी हम सीढियां ही क्यों तलाशते हैं।

यूं दिल्ली से श्रीनगर तक रास्ता मात्र डेढ घंटे का ही है लेकिन जाने क्यों मुझे यह बीच का छोटा सा वक्त भी बहुत बड़ा ही लगता है. तेज धूप में चमकते आसमान को निहारने के बाद आंखें परिचारिकाओं पर टिकानी चाहीं तभी लोगों की सीत्कारियां कानों में पड़ीं. मेरे दाहिनी तरफ खिड़की के पास लोग जुटे हुए थे. मैंने अपनी खिड़की से बाहर देखा तो आसमान ही दिखा. मंडराते बादल. कुछ चमकती चोटियां भी. लेकिन उस पार क्या था. आखिर उठना ही पड़ा देखने के लिए. उठी तो स्तब्ध रह गई. ऐसा खूबसूरत मंजर मैंने आज तक नहीं देखा था. नजर की आखिरी हद तक बर्फ की चादर ओढ़े खड़ी वो पहाडि़यां किसी नवयौवना सी दिलकश लग रही थीं. हम कश्मीर में दाखिल हो चुके थे और स्वागत के लिए ये पहाडि़यां चमकती दमकती खड़ी थीं. नहीं, किसी अहंकारी पुरुष से नहीं होते पहाड़, किसी नाज़नीन से नाजुक और मासूम भी होते हैं. बाहर की कोई बदली टकरायी नहीं थी आखों से फिर भी कुछ मोती थे हथेलियों पर...श्रीनगर आ चुका था. 

जारी....

Monday, November 19, 2012

फिर-फिर प्यार तुम्हीं से....


4 नवंबर 2012

उदासियों की चादर ताने मौन के तकिये पर सर टिकाये एक टुकड़ा नींद की अभिलाषा लिए न जाने कितने युग बीत चले थे. कभी करवटें बदलते-बदलते पीठ अकड़ जाती या आसमान टोहते-टोहते ऊब सी घिर आती तो किन्ही अनचीन्हे रास्तों को पांव में बांधकर चल पड़ती. बिना किसी मंजिल की तलाश के रास्तों पर चलने का सुख कोई-कोई ही जान सकता है. उस रोज भी एक बदली सिरहाने बैठी रही रात भर हाथ थामे, तभी रास्तों ने आवाज दी '...आ जाओ.' मैंने करवट बदलते हुए कहा '...उंहूहूं...मेरा मन नहीं.' रास्तों से मेरा नाता पुराना है. वो मेरे मन का सब हाल जानते हैं. कितने ही अनजाने रास्ते क्यों न हों....दुनिया में शायद इतने लाड़ से किसी ने मुझे न मनाया होगा जितने लाड़ से मुझे रास्ते पुकारते हैं. मेरा इनकार कब उसे स्वीकार था. उसने सिरहाने बैठी बदली को चाय बनाने भेजा और मेरे सर पर हाथ फिराते हुए कहा, चलो. कोई सम्मोहन ही था शायद कि आनन-फानन में पैकिंग हो गई. 4 नवंबर को सुबह चार बजे करीब 50 किलोमीटर का सफर तय कर चुकने के बाद जब एक जगह चाय पीने को रुके तो एहसास हुआ कि जिस रास्ते ने मुझे मनाया था वो कश्मीर का रास्ता था. कोहरे की चादर ओढ़े किशोरी अमोनकर को सुनते हुए उस रोज एक बार फिर रास्तों पर बहुत प्यार आया...