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Sunday, December 31, 2023

जग दर्शन का मेला


इस बरस की अंतिम सुबह चाय के साथ पहली लाइन पढ़ी, 'जब चाँद को पहली बार देखा तो लगा यही है वह, जिससे अपने मन की बात कह सकती हूँ।' एक सलोनी सी मुस्कान तैर गयी। पहली चाय के साथ जिस पंक्ति का हाथ थाम एक सफर पर निकली थी शाम की चाय तक उस सफर की खुमारी पर चढ़े रंग साथ हैं।

इस बरस....
उसने मुझसे पूछा, 'क्या चाहती हो?'
मैंने कहा, 'मौत सी बेपरवाह ज़िंदगी।' 
उसने वाक्य में से मौत हटा दिया और हथेली बेपरवाह ज़िंदगी की इबारत लिखने लगा। लकीरों से खाली मेरी हथेलियाँ उसे बेहद पसंद हैं कि इनमें नयी लकीरें उकेरना आसान जो है। 
एक रोज मैंने कहा 'आसमान' तो समूचा आसमान मेरी मुट्ठी में था, फिर एक रोज समंदर की ख़्वाहिश पर न जाने कितने समंदर उग आए कदमों तले। 
जाते बरस से हाथ छुड़ाते हुए मैंने उसकी आँखों में देखा, उसके जाने में आना दिखा। रह जाना दिखा। 
जाने में यह सौंदर्य उगा पाना आसान कहाँ। 

इस बरस ...
मैंने अधूरेपन को प्यार करना सीखा। ढेर सारे अधूरे काम अब मुझे दिक नहीं करते। आधी पढ़ी किताबें, आधी देखी फिल्में, अधूरी छूटी बात, मुलाक़ात। इस अधूरेपन में पूरे होने की जो संभावना है वह लुभाती है। सिरहाने आधी पढ़ी किताबों का ढेर मुस्कुरा रहा है। मैं जानती हूँ इनके पढे जाने का सुख बस लम्हा भर की दूरी पर है लेकिन मन के खाली कैनवास पर कुछ लिखने का मन नहीं। तो इस खाली कैनवास को देखती रहती हूँ। कितना सुंदर है यह खाली होना। 

इस बरस...
कुछ था जो अंगुल भर दूर था और दूर ही रहा, कुछ था जो सात समंदर पार था लेकिन पास ही था। कि इस बरस उलझी हुई स्मृति को सुलझाया, कड़वाहट दूर हुई और वह स्मृति मधुर हुई, महकने लगी। जिस लम्हे में हम जी रहे हैं वो आने वाले पल की स्मृति ही तो है। इस लम्हे को मिसरी सा मीठा बना लें या कसैला यह सोचना भी था और सीखना भी। 

इस बरस...
अपने में ही मगन होना सीखा कुछ, बेपरवाही को थामना और जीना सीखा कुछ, सपनों को थामना उन्हें गले लगाना सीखा। किया कुछ भी नहीं इस बरस, न पढ़ा, न लिखा ज्यादा न जाने कैसे फ़ितूर को ओढ़े बस इस शहर से उस शहर डोलती रही। खुश रही। 
खुश होने की बात कहते कहते आँखें नम हो आई हैं। तमाम उदासियाँ सर झुकाये आसपास चहलकदमी करती रहीं। दुनिया के किसी भी कोने में कोई उदास है तो वह खुश होने और खुश दिखने की उज्ज्वल इच्छा पर स्याह छींटा ही तो है। 

चलते चलते- 
वो जो जा रहा है अपना समस्त जिया हुआ हथेलियों पर रखकर उसके पस कृतज्ञ होना है और वो जो आ रहा है नन्हे कदमों से हौले-हौले उसके कंधों पर कोई बोझ नहीं रखना है बस कि जीना है हर लम्हा ज़िंदगी को रूई के फाहे सा हल्का बनाते हुए...वरना कौन नहीं जानता कि एक रोज उड़ जाएगा हंस अकेला...

Sunday, December 24, 2023

इस बरस की खर्ची


इस बरस को पलटकर देखने को पलकें मूँदती हूँ तो आँखों के किनारे कुछ बूंदें चली आती हैं। इन बूंदों में एक कहानी छुपी है। एक नन्ही सी भोली सी कहानी। पलकें खोलने का जी नहीं करता कि बंद पलकों के भीतर एक प्यारी सी बच्ची को छाती से लगाए हुए का एक दृश्य है। पलकें खुलते ही ज़िंदगी की तीखी धूप पसर जाती है। सर्दियों वाली धूप नहीं जेठ के महीने वाली धूप।

किस्सा एक स्कूल का है। एक बच्ची थी प्यारी सी। बहुत सारे बच्चों के बीच। हँसती, खिलखिलाती, मुसकुराती। मैंने सारे बच्चों से कुछ बातें कीं और उनके दोस्त के बारे में लिखने को कहा। बच्चे लिखने लगे। बच्चे छोटे थे, कक्षा 3 के। सरकारी स्कूल के बच्चे जिन्हें न ट्यूशन न किताबें ठीक से न कॉपियाँ। लेकिन हरगिज़ कम मत आंकिए इनकी प्रतिभा को। तो बच्चों ने लिखना शुरू किया। कुछ ने मुझे दिखाया अपना लिखा, कुछ ने सुनाया। फिर मैं चलने को हुई तो आँचल ने अपनी कॉपी बढ़ा दी। मैंने कहा अब मैडम को दिखा देना मैं निकलती हूँ। उसने कुछ कहा नहीं, लेकिन उसकी आँखें उदास हो गईं। मैं बैठ गयी। उदास आँखें छोड़कर कैसे जाती ये तो पाप होता न।

कॉपी ली और पढ़ने लगी। तीसरी पंक्ति में लिखा था 'मैं और मेरी दोस्त गौरी बहुत मजे करते थे।' मुझे लगा उसने गलती से 'थे' लिख दिया है। आगे पढ़ा तो उस 'थे' का विस्तार बढ़ता ही जा रहा था। उसे पपीता बहुत पसंद था। हम साथ में घूमने जाते थे। अंतिम वाक्य था 'मुझे उसकी बहुत याद आती है। अब मैं कभी पपीता नहीं खाती।'

अंतिम वाक्यों तक आते हुए मैं बिखर चुकी थी। 30 बच्चों की हल्ले गुल्ले वाली कक्षा के बीच उसे भींचकर गले लगाने की इच्छा को जाने किस संकोच ने रोक लिया लेकिन उसकी हथेलियाँ मैंने अपने हाथों में ले लीं। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में सागर से बड़े-बड़े आँसू टपक रहे थे लेकिन होंठ लगातार मुस्कुरा रहे थे।

मैंने धीमे से इतना ही पूछा, 'क्या हुआ था'
उसने कहा, 'पता नहीं। शाम को खेलकर गयी थी फिर उसके पापा ने उसे मारा था। सब कहते हैं वो बीमार थी।'
क्या दुनिया की किसी भी भाषा में कोई शब्द है जो ऐसे वक़्त में किसी को दिलासा दे सके। मुझे तो नहीं मिला अब तक सो मैंने उसकी हथेलियों को ज़ोर से भींच लिया।

आँचल अब भी मिलती है। हम दोनों में एक अनकहा सा रिश्ता है जो उसकी आँखों में मुझे देखते ही खिल उठता है।
'मैं अब कभी पपीता नहीं खाती...का वाक्य गूँजता रहता है।'

हम इस बहस में ही उलझे हुए हैं कि बच्चों को कैसा साहित्य देना चाहिए, कैसी कहानियाँ। उनमें मृत्यु, दुख, दर्द होना चाहिए या नहीं। असल में हमें बच्चों को हम जैसा जीवन दे रहे हैं वैसा ही साहित्य देना होगा। अगर सिर्फ हँसता मुसकुराता साहित्य देना चाहते हैं तो हँसता मुसकुराता जीवन देने की कोशिश करनी होगी। कहानियाँ बदलने से कुछ नहीं होगा।


इस बरस के तमाम हिसाब-किताब के बीच आँचल से मेरा जो मेरा रिश्ता बना वही मेरा इस बरस का हासिल है कि उसकी आँखें मुझे भरोसे और प्यार से देखती हैं।

Wednesday, September 27, 2023

धरती को बहुत प्रेम चाहिए


न जाने कितनी सदियों पहले देखा होगा ये ख़्वाब कि सामने समंदर होगा एक रोज़ मन में होगी डूब जाने की ख़्वाहिश। प्रेम में डूब जाने की। समंदर खारा सही लेकिन खरा प्रेमी है। उदास नहीं करता। उसकी उदात्त लहरें जीवन की तमाम लालसाओं समेत, तमाम खर पतवार समेत समेट लेती हैं पूरा का पूरा वजूद। वो आपको आज़ाद करता है। मुक्ति की लालसा से भी। आप समंदर का किनारा पकड़िए वो आपको जीवन का मध्य पकड़ा देगा।

मैंने हमेशा समंदर के करीब जाकर जीवन को कुछ और जाना है। मैं पहाड़ में रहती हूँ और समंदर से प्यार करती हूँ। जंगलों में फिरना मेरा शगल है और आसमान पर हमेशा मेरी नज़र टिकी रहती है। माँ ने हमेशा सिखाया कि नज़र आसमान पर हो और पाँव धरती पर मजबूती से जमे हुए। यही जीवन का मंत्र है। लेकिन समंदर सारे मंत्र सारी योजना, सारे तरीके तोड़ देता है। वो प्रेमी है। उसका काम है सब छिन्न भिन्न करना। जब टूटेगा कुछ तभी तो नया उगेगा। समंदर उसी नए उगने की मुनादी है।

तो इस बार समंदर से मुलाक़ात अलग थी। उदासी जीने की अभिलाषा में बदली हुई थी। मैंने लहरों को छुआ और और लहरों ने मुझे सराबोर किया और खिलखिलाकर कहा, 'तुम्हें प्रेमी से किस तरह मिलते हैं ये सलीका भी नहीं आता'। मैं एक पल को लजा गयी।
 


हिचक टूटी और लहरों के आगोश में सिमटने की बेकरारी ने हाथ थामा। कुछ ही देर में समंदर मुझमें था और मैं समंदर में। सुख वहीं आसपास टहल रहा था, मुस्कुरा रहा था। मैंने सुख को देखा और हंस पड़ी। सुख से मेरी जान पहचान एकदम नयी है। मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन वो कमबख्त मेरे बारे में सब जानता है। मैंने सुख से कहा देखो सूरज। डूबते सूरज की लालिमा ने आसमान को सिंदूरी रंग में डुबो दिया था। आसमान के कैनवास पर बेहद खूबसूरत पेंटिंग बन रही थी। मैं मंत्रमुग्ध सी उसे देख रही थी और सुख मुझे। तभी एक बड़ी लहर ने हम दोनों को अपने भीतर समेट लिया। पाँव उखड़ गए और कुछ ही देर में मैं बीच धार में थी। आसमान और धरती के मिलन का समय था। समंदर में आसमान सूरज समेत उतरने को व्याकुल। मैंने सुख की ओर हाथ बढ़ाया उसने मुस्कुराकर कहा, जी क्यों नहीं लेती जी भरके। मैं फिर से पानी में गुड्प हो गयी। उसी समय सूरज डूबा, उसी समय दो पंछियों ने एक दूसरे की गर्दन सहलाई, उसी वक़्त धरती पल भर को थमी।

मैंने पाया कि सुख की चौड़ी हथेलियों ने मुझे थाम रखा है। वो एक लम्हा था जिसकी खुशबू पूरी धरती पर बिखरी हुई है। सदियों पहले देखा कोई ख़्वाब आसमान से उतरकर धरती के करीब खुद चलकर आया हो जैसे। धरती को बहुत प्रेम चाहिए। 


Sunday, June 4, 2023

काफ्काई मन



ये इतवार की सुबह है. एक उदास अख़बार दरवाजे के नीचे से झाँक रहा है. उसे उठाने की हिम्मत नहीं हो रही. लेकिन न देखने से चीजें होना बंद नहीं होतीं, दिखना बंद हो जाती हैं. लेकिन लगता है दिखना भी बंद नहीं होतीं.

कोई बेवजह सी उदासी है जो भीतर गलती रहती है. जैसे नमक की डली हो. वजह कुछ भी नहीं, या वजह न जाने कितनी ही हैं. हमेशा वजहों के नाम नहीं होते. लेकिन वो होती हैं. इतना मजबूत मन न हुआ है, न हो कभी कि आसपास के हालात का असर न हो.

कभी जब हम जिन चीज़ों पर बात नहीं करते वो चीज़ें और गहरे असर कर रही होती हैं. दुःख कितना छोटा शब्द है, सांत्वना कितना निरीह. घटना और खबर के पार एक पूरा संसार है जहाँ बहस मुबाहिसों के तमाम मुखौटे धराशाई पड़े हैं.

कल काफ्का की याद का दिन था. सारे दिन की भागमभाग के बीच काफ्का से संवाद चलता रहा. मैंने उससे पूछा, 'ऐसा क्यों हो रहा है इन दिनों?' उसने पूछा कैसा? मैंने कहा,'कोई बेवजह सी उदासी रहती है. किसी भी काम में मन नहीं लगता. पढ़ना दूर होता जा रहा है, लिखने की इच्छा नहीं होती. बात करने की इच्छा होती है लेकिन किससे बात करूँ समझ नहीं आता. अगर कोई बात करता है तो दिल करता है ये क्यों बोल रहा है. चुप क्यों नहीं हो जाता. सब लोग क्यों बोलते हैं इतना?' ये कहते हुए मैं फफक पड़ी. मैंने सुना कि मैं भी तो कितना बोल ही रही हूँ. किसी से न सही खुद से ही सही. चुप रहना न बोलना तो है नहीं. उफ्फ्फ, अजीब उलझन है.

काफ्का मुस्कुराये और बोले, 'चाय पी लो.'
मैं चाय बना रही हूँ. सामने लिली और जूही में खिलने की होड़ है. लीचियां पेड़ों से उतरने लगी हैं.

देह पर हल्की सी हरारत तैर रही है. काफ्काई हरारत.

Wednesday, May 17, 2023

मन की मनमानियां


मन अब मनमानी करने लगा है. सुनता नहीं किसी की. मुझे उसकी यह आदत अच्छी लगती है. ऐसा लगता है अब मेरा मन, मेरा मन होने लगा है. थोड़ा दुष्ट, थोड़ा बेपरवाह. एक रोज मैंने मन से पूछा, 'तुम्हें यूँ अपने मन की करने में क्या मजा आता है?' वो मेरा चेहरा देखकर मुस्कुरा दिया. 'तुम नहीं समझोगी' कहकर वो पाँव पसार कर बालकनी में लुढ़क गया. मैंने उसे लाख समझाया, 'देख, बहुत काम हैं. बहुत ही ज्यादा काम हैं. अभी ये सब नहीं चलेगा. उठो तो जल्दी से.' उसकी मुस्कुराहट और फ़ैल गयी और टाँगे और ज्यादा ही पसर गयीं. फिर? फिर क्या, काम का काम तमाम और महाशय मन की मनमानी चली.
 
कभी-कभी लगता है चारों तरफ का खाली घेरा बढ़ता जा रहा है. अपनी ही सांस की आवाज़ से टकराती फिरती हूँ. लेकिन इस सबमें कोई उदासी नहीं है. बस कुछ नहीं है जैसा कुछ है शायद.

किसी से खूब सारी बातें करने को दिल करता है लेकिन देर तक सोचती रहती हूँ किसे कॉल करूँ? सारे नाम एक एक कर गुजरते हैं ज़ेहन से. फोन नहीं करती. कभी कर लेती हूँ अगर तो दूसरी तरफ घंटी जाते ही भूल जाती हूँ किसे कॉल किया था. स्क्रीन देखती हूँ कि याद आये. तीन चार घंटी जाती है तो सोचने लगती हूँ काश कि न उठाये कोई फोन, काश न उठाये. अगर नहीं उठता फोन तो चैन की सांस लेती हूँ. और अगर उठ जाता है तो फंस जाती हूँ ये सोचकर कि अब क्या बात करूँ? सामने वाले के पास बताने को इतना कुछ है कि ऊंघने लगती हूँ कुछ देर में लेकिन बात का प्रवाह ऐसा होता है कि बीच में रख नहीं पाती.

कोई मैसेज इनबॉक्स में दिपदिप करता है. उसे खोलती नहीं. दीवार घड़ी की सुइयों का खेल देखना ज्यादा भला लगता है.   

देर तक अकेले रह चुकने के बाद सोचती हूँ किसी से मिल लूं. मिलते ही खुद से अजनबी होने लगती हूँ. शब्द कानों से टकराते जाते हैं, सुनाई कुछ भी नहीं देता. अपनी आँखों में खुद को ढूंढती हूँ. वहां एक खिड़की नज़र आती है. खिड़की जिसके बाहर खुला आसमान है, लेकिन खिड़की बंद है. मैं खिड़की खोल भी सकती हूँ लेकिन चाहती हूँ कोई आये और खोल दे. और जैसे ही कोई आने को होता है घबरा जाती हूँ. नाराज होती हूँ, मना करती हूँ...मेरे जीवन की सारी खिड़कियाँ, सारे दरवाजे मैं खुद ही खोलूंगी...

मन मुझे देखता है, देखता जाता है. मुस्कुरा कर पूछता है, 'तुम चाहती क्या हो आखिर?'
मैं अपनी हथेलियों को देखते हुए कहती हूँ, एक कप चाय पीना चाहती हूँ, पिलाओगे.'
वो चादर ओढ़कर सो जाता है. मैं चाय की इच्छा लिए खिड़की के बाहर टंगे आसमान को देखने लगती हूँ.
आसमान खूब नीला है.

Sunday, April 16, 2023

एक पूरा दिन है और मैं हूँ



इतवार की शाख से अभी-अभी सुबह उतारी है. एकदम खिली-खिली सी सुबह है. बाद मुद्दत हथेलियों में फुर्सत के फूल रखे हैं. एक लम्बी व्यस्तता के बीच वायरल ने जब धप्पा दिया तो वायरल को शुक्रिया कहा कि यूँ ही दिन दिन भर सामने वाली दीवार को ताकते रहना और चाय पीने की इच्छा और बनाने के आलस से जूझते हुए घंटों बिता देना. इसका भी कोई सुख होता है. देह की हरारत की डोर में स्मृतियों की ख़ुशबू पिरोना.
 
माँ की चिंता कि 'अकेले कैसे करोगी सब?' को सहेज लेती हूँ और माँ को कहती हूँ 'माँ, अकेली कहाँ हूँ. अकेला होना घर में किसी के न होने से नहीं होता.' माँ कुछ समझती नहीं बस चिंता में घुली जाती हैं तो अब आवाज़ में ख़ुशी पिरोकर बात करना आदत बना ली है. हालांकि हूँ भी खुश लेकिन कभी खुश दिखना होने से ज्यादा जरूरी हो जाता है.

बहरहाल, इस सुबह में हरारत नहीं है. एक पूरा दिन है और मैं हूँ. मुस्कुराती हूँ. सोच रही हूँ क्या-क्या कर सकती हूँ. देर तक सो सकती हूँ, कहीं घूमने जा सकती हूँ, चुपचाप पड़े रह सकती हूँ.

कुछ पौधे हसरत से देखते हैं तो उनसे कहती हूँ, 'हाँ आज थोड़ा समय तुम्हारे लिए भी.' वो खुश हो जाते हैं. बालकनी में बैठे कबूतर गुटर गूं कर रहे हैं जैसे कह रहे हों, 'तुम दिन यूँ ही क्या करूँ सोचते हुए बिता दोगी देख लेना.' मैं हंसती हूँ. हाँ सच ऐसा ही तो होता है हमेशा.

इन दिनों चुप की ऐसी आदत हो चली है कि इसकी संगत में मन खिलता है. तो इतवार की इस सुबह में रेखा भारद्वाज गुनगुना रही हैं 'गिरता है गुलमोहर ख़्वाबों में रात भर....'

दोस्तोवस्की क़रीब रखे हैं और सिमोन की डायरी पढ़ने की इच्छा कुलबुला रही है. दिन के हाथों में तसल्ली का तोहफा है. सामने ढेर सारे सूरजमुखी खिले हैं.

हाँ, मैंने अरसा हुआ न्यूज़ नहीं देखी.


Wednesday, March 15, 2023

इच्छा के फूल


सामने वही पहाड़ी थी जिसे हम दोनों साथ बैठकर ताका करते थे. खामोशियाँ खिलती थीं और शब्द इन्हीं पहाड़ियों में फिसलपट्टी खेलने को निकल जाते थे. मुझे याद है वो तुम्हारी इच्छा भरी आँखें और नीले पंखों वाली चिड़िया की शरारत. तुम्हें पता है, तुम्हारी इच्छा के वो बीज इस कदर उग आये हैं कि धरती का कोना कोना फूलों की ओढ़नी पहनकर इतरा रहा है. उस पहाड़ी पर अब भी हमारी ख़ामोशी की आवाज़ गूंजती है. वो पहाड़ी लड़की जिसने पलटकर हमें देखा था और मुस्कुराई थी उसकी मुस्कान अब तक रास्तों में बिखरी हुई है.

बारिश बस ज़रा सी दूरी पर है, तुम आओ तो मिलकर हाथ बढ़ायें और बारिश को बुला लें…🌿

Sunday, March 5, 2023

झरती पत्तियों सी मैं


मौसम सुनहरा हो रहा है. सारे रास्ते सुनहरी पत्तियों से ढंके हुए हैं. काम करते-करते निगाह बाहर जाती है और मन शाखों से लहराकर उतरती पत्तियों के संग अटकने लगता है. भटकने लगता है. पत्तियों के गिरने में एक लय है. उनके धरती चूमने का अलग अंदाज है. मीठी सी आवाज है.

हवा चलती है तो जैसे कोई अल्हड़ युवती छन छन करती पायल पहनकर भागते हुए गुजरी हो.

रास्तों से गुजर रही होती हूँ कि हवा का एक बड़ा सा झोंका सुर्ख और पीले फूलों की पंखुड़ियों को उड़ाकर पूरे वजूद को ढंक देता है. मेरी पलकें भीग जाती हैं. जीवन कितना समृद्ध है, कितना खूबसूरत. प्रकृति के जितने करीब हम जाते हैं जीवन के रहस्य खुलते जाते हैं.

ये झरती हुई पत्तियां ये उगती हुई कोपलें इनसे बड़ा जीवन दर्शन क्या है भला. हर यात्रा का एक विराम होता है. उस विराम को कैसे और कितना सुंदर बना पाते हैं बस इतना ही तो रहस्य जानना है. और यह रहस्य हमारी हथेलियों पर रखा होता है हम देख नहीं पाते.

मैं पीले पत्तों को अपना पीला मन सौंपती हूँ. वे मुझे नयी उगती कोंपलों की बाबत बताते हैं.

मैं जीवन से कहना चाहती हूँ कि मुझे पीले पत्तों से और उगती कोंपलों से एक जैसा प्यार है. न कम, न ज्यादा.
वो जो झर रही हैं पत्तियां वो मैं हूँ, वो जो उग रही हैं कोपलें वो मेरे ख्वाब हैं...

Sunday, November 27, 2022

तेरी आँखों में मेरा चेहरा



सुबह के कान में धीरे से कहा, 'मन नहीं लग रहा यार'. सुबह ने पलकें झपकायीं, सर पर हाथ फेरा और अपनी बाहें फैला दीं. उन बाहों में समाती गयी और मन का लगना जाने कहाँ गुम हो गया. कासे के लहराते फूल, पानी की मीठी सी आवाज़, लाल पंख और सफ़ेद धारी वाली चिड़ियों की शरारतें, सिर्फ मोहब्बत के आगे झुकने वाले पहाड़ों पर गिरता सुबह की धूप का टुकड़ा. कुदरत का एक ऐसा कोलाज कि उदास रातों को इस कोलाज के आगे पनाह मिले.

एक बार एक दोस्त ने कहा था कि हर आने वाले लम्हे का उत्सुकता से इंतज़ार करता हूँ कि न जाने उसकी मुठ्ठी में क्या हो. अब मैं भी वही करती हूँ. आने वाले लम्हों की आहटों पर कान लगाये रहती हूँ, उम्मीद के काँधे पर सर टिकाये ज़िन्दगी के खेल देखती हूँ. वो ज़िन्दगी है, हैरान करने का हुनर उसे खूब आता है. कब कौन सा रास्ता बदल दे, कब कहाँ से उठाकर कहाँ पहुंचा दे कुछ कह नहीं सकते. बस कि खुद को ज़िन्दगी के हवाले करना होता है और उसके सारे रंगों से मोहब्बत हो ही जाती है.

मैं ज़िन्दगी की आँखों में झाँककर मुस्कुराती हूँ, वहां मेरी ही सूरत नज़र आती है.

Saturday, November 26, 2022

सुबह का बोसा


जंगल के पास जीवन के बड़े राज हैं. कभी उनके क़रीब जाना और चुपके से किसी दरख्त की पीठ से टिककर बैठ जाना. जंगल अपने राज यूँ ही नहीं खोलते, वो तुम्हें देख मुस्कुरा देंगे. जंगल की बात सुनने के लिए मौन की भाषा सीखनी होगी. दृश्य के भीतर जाने के लिए दृश्य के पार देखना सीखना होगा. अपना तमाम 'मैं' उतारकर उनके क़रीब जाना होगा और तब देखना कोई जादू घटेगा. अपने ही गालों पर कुछ सरकता सा महसूस होगा. वो सुख होगा. आँखों के रास्ते गालों तक पहुँचता सुख.
 
हरे रंग की यात्रा पूरी कर चुकी पत्तियां तुम्हारे आसपास कोई सुनहरा घेरा बना देंगी. उन पीली पत्तियों के पास जीवन के हर सवाल का जवाब मिलेगा. किसी भी पेड़ पर चढ़कर इतराती, खिलखिलाती लताओं में इकसार होकर निखरने का मन्त्र मिलेगा. अपनी हथेलियों में सूरज की किरनें सहेजे जंगल से पूछना कभी उम्मीद के उन जुगनुओं की बाबत जो कैसे भी गाढे अँधेरे में चमकते रहते हैं.

जंगल से गुजरना जंगल के क़रीब होना नहीं है ठीक वैसे ही जैसे किसी व्यक्ति के पास होना उसके क़रीब होना नहीं है. अपनी सुबहों में कुछ खुद को खो रही हूँ, कुछ खुद से मिल रही हूँ. 

सूरज की पहली किरन का बोसा मुझे लजा देता है. मेरे चलने की रफ्तार तनिक धीमी पड़ती है...फिर आसमान देखती हूँ और मुस्कुराकर रफ्तार थोड़ी सी बढ़ा लेती हूँ. चलने की नहीं, जीने की.   

Tuesday, November 22, 2022

अफ़ीमी है तेरा मेरा प्यार


जब हम देखना बंद करते हैं तब दिखना शुरू होता है. पिछले कुछ दिन जब मेडिकल रीज़न से दिखना बंद हुआ तब महसूस हुआ कि कितना कुछ देखने से छूटा हुआ था. दृश्यों की भीड़ में गुम हो गयीं स्मृतियाँ बंद आँखों में रोशन हो उठी थीं. हम डी-टौक्स करने के तरह तरह के तरीके अपनाते हैं, कभी हमें दृश्यों से, आवाजों से भी खुद को डी-टाक्स करने का ख्याल क्यों नहीं आता.

एक बात के ऊपर दूसरी-तीसरी बात जम्प करती रहती है. हम बातों और दृश्यों के ढेर में लगातार गुम होते जाते हैं. कुछ करने जाते हैं और कुछ और करने लगते हैं क्या करने आये थे भूल जाते हैं. क्या कहना था, ज़ेहन से निकल जाता है और न जाने क्या-क्या बोलते जाते हैं. हमसे कुछ हमारा ही खो सा गया है. कैसा सैलाब है ये. कुछ अच्छा नहीं लगता. फिर अचानक चलना शुरू कर देती हूँ. चलती जाती हूँ. कुछ सोचना नहीं चाहती, यह सोचते हुए न जाने क्या-क्या सोचती जाती हूँ.

दृश्यों से दूरी वाले दिनों में कुछ उजाला क़रीब आया हुआ महसूस हुआ. लेकिन अजीब सी फितरत है कि सुख को हाथ लगाते डर लगता है. ख़ुशी थोड़ी दूरी पर रखी हुई ही भली लगती है कि हम एक-दूसरे के देख मुस्कुरा सकें. लेकिन जब हम उठकर चल दें विपरीत दिशाओं में तो कुछ टूटे नहीं.

यह थोड़ा मुश्किल है लेकिन इन दिनों यही ठीक लग रहा है. ख़्वाब जब तक आँखों में थे सुंदर थे, जैसे ही वो हकीकत की हथेली पर उतरे उनके बिखरने का डर भी साथ चला आया. ऐसे ही एक रोज दोस्त से मजाक में कहा था, 'मुझे सुख से डर लगता है, वो क़रीब आता है तो सोचती हूँ अभी इसके पीछे-पीछे आता होगा दुःख भी.' फिर हम देर तक हंसे थे.

कोई फांस धंसी हुई हो जैसे. जीने की इच्छा और जी लेने के बीच. बावजूद इसके जीने की इच्छा को सबसे ऊपर रखती हूँ और खुद को ज़िन्दगी के हवाले कर देती हूँ.

सूरज इस कदर आँखों में कूदने को व्याकुल है कि आंखें चुंधिया जाती हैं. मैं हंस पड़ती हूँ. खुद से किये वादे को दोहराती हूँ कि ख़ुश रहूंगी. खुश रहना भी साधना है. खुश दिखने से यह अलग होता है. इसके रास्ते में तमाम उदासी के पहाड़, नदियाँ जंगल आते हैं उन्हें पार किये बिना यह संभव नहीं.

हथेलियाँ आगे करती हूँ तो जूही खिलखिला पड़ती है. कानों में एक गीत बज उठता है, 'अफीमी अफीमी अफीमी है ये प्यार...' हाँ ज़िन्दगी से प्यार अफ़ीमी ही तो है.

Monday, November 21, 2022

इस सुबह में मैं खिल उठी हूँ


हमेशा से जानती हूँ कि हर रात की हथेली पर एक सुबह का इंतज़ार है. यह भी कि सुबहों की मुठ्ठियों में कोई नामालूम सी उम्मीद खिलती है. फिर भी जब-तब अपनी सुबहें गुमा बैठती हूँ. फिर कोई दोस्त मुझे आलस और उदासी के मिले जुले प्रकोप से निकालता है और सुबहों को हथेलियों पर रख देता है. इन दिनों फिर सुबहों से यारी हो चली है. 

मैं सुबहों से कुछ कहती इसके पहले वो मुझसे पूछ बैठती हैं, 'नींद पूरी हो गयी?'मैं पलकें झपका देती हूँ. क्या सुबहों को मेरे और नींद के बिगड़े रिश्ते की बाबत मालूम होगा मन ही मन सोचती हूँ कि चिड़ियों का एक रेला गुजरता है सर के ऊपर से.

धरती पर रात खिली जूही और रातरानी बिखरी हुई है. जो फूल धरती पर हैं वो मुस्कुरा रहे हैं जो डालों पर अटके हैं वो ऊंघ रहे हैं. मैं इस सुबह में बिखर जाना चाहती हूँ. यह सोचते ही रुलाई का कोई भभका फूटने को होता है और मैं मुस्कुरा देती हूँ. सोचती हूँ सुबहों ने मेरे भीतर प्रवेश करना शुरू कर दिया है शायद कि रोना बढ़ गया है इन दिनों. अच्छा लगना भी बढ़ गया है और उदास होना भी.

कल एक दोस्त ने पूछा था जब सारा दिन अच्छा बीता तो शाम तक बिखर क्यों गयी तुम, कहाँ से लाती हो इतनी उदासी. मैं उसकी बात सुन मुस्कुरा दी. मन में सोचा जिन्दगी से.

उदासी को इतना बुरा क्यों समझते हैं लोग. वो भी जीवन का हिस्सा है. आंसू भी. उसका हमारे भीतर बचे रहना शुभ है. कौन है ऐसा जो हमेशा खुश रहता होगा. हमेशा खुश रहने का सपना कितना बोरिंग है.
फ़िलहाल खूब रो चुकने के बाद मैंने अपने चेहरे पर ढेर सारी धूप मल ली है. थोड़ी सी ओस पलकों पर रख ली है. थोड़ा सा आसमान आँखों में भर लिया है.

बहुत दिनों से पढ़ने का रुका हुआ सिलसिला फिर शुरू करने का मन है. सिरहाने रखी किताब 'सरे चाँद थे सरे आसमां' इस सुबह में मुस्कुरा रही है.

Saturday, November 5, 2022

उसका नाम ख़्वाब रखा मैंने



मैं आवाज़ को नहीं पहचानती, ख़ामोशी को पहचानती हूँ. चेहरे में मुझे सिर्फ आँखें दिखती हैं, आँखों में दिखता है वो पानी जिसमें असल पहचान होती है. चेहरे पर लाख चेहरे रख ले कोई आँख के पानी को बदल पाना अभी सीखा नहीं मनुष्य ने. मैंने हमेशा संवादों के बीच से खामोशियाँ चुनी हैं आहिस्ता, शाइस्ता ढंग से. जैसे मृत्यु के बाद चुनते हैं राख से अस्थियाँ. उँगलियों से जब टकराता है अस्थि का कोई टुकड़ा तो सिहरन होती है, कंपकपी. याद का भभका रुलाई बन फूटता है कि राख के भीतर छुपा अस्थि का यह टुकड़ा कभी गले में पड़ी बांह थी.

अल्फाज़ की लरजिश ने कभी भरमाया नहीं, ख़ामोशी की तासीर ने पुकारा हमेशा. जब सोचती हूँ किसी के बारे में तो उसका चेहरा नहीं, आँखें दिखती हैं. उन आँखों का पानी दिखता है. देखने का अंदाज नहीं देखने की जुम्बिश दिखती है. स्मृतियों में जो आँखें हैं उनकी जुम्बिश थामे रहती है. किसी सुख से भरती है. उदासी से भी.

सुख और उदासी क्या अलग शय हैं? प्रेम और विछोह क्या अलग शय हैं?

कल यूँ ही एक बच्चा करीब आकर लिपट गया. वो मुझे नहीं जानता था. मैं भी उसे नहीं जानती थी. जब यह लिख रही हूँ तो पास में बैठी हुई विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'हताशा में आदमी' मुस्कुरा रही है. मैंने कविता को देख पलकें झपकायीं और बच्चे को मुस्कुराकर देखा, बच्चे ने मुझे. मैंने कहा, 'कैसे हो', उसने हंसकर कहा, 'बहुत अच्छा हूँ.' मैंने उसकी आँखों में खुद को टिका दिया और पूछा, 'ये बहुत अच्छा कितना बड़ा होता है'. उसने अपने नन्हे हाथों को भरसक बड़ा करते हुए फैला दिया...'इतना'. हम दोनों हंस दिए. मैंने उसके गाल थपथपाए उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं. सच कहूँ, मेरी आँखें भीग गयीं. शायद अरसे से किसी के गले लगने की इच्छा को ठौर मिला था. मैंने उसे भींच लिया. वो पलकें झपकाकर चला गया. 
क्या वो बच्चा जीवन था या ख़्वाब?
वो खेल के मैदान में गेंद के पीछे भागने लगा था और मेरा मन उसकी आँखों में डूबा था.

ज़िन्दगी किस कदर रहस्यों से भरी है, हम नहीं जानते. मैं देर रात तक उन नन्हे हाथों के बारे में सोचती रही जिसने बताया था कि बहुत अच्छा होना कितना बड़ा होता है. यही सोचते हुए सोने की कोशिश की तो आँखों में एक मुस्कान खिल गयी.

सुबह उठी तो जूही की डाल फूलों से भरी हुई थी.

मुझे उस बच्चे का नाम ख़्वाब रखना का जी चाहा. ख़्वाब जो जियाये रहते हैं...थामे रहते हैं.

Monday, September 19, 2022

हाँ, तुमसे मोहब्बत है...



सोचा था खामोश रहूंगी. कुछ न कहूँगी. और सच खामोश ही हूँ अरसे से. ज़िन्दगी अपने तमाम रंग और मौसम लिए मुझ पर उतर रही है. अचानक बैठे-बैठे कोई मुस्कुराहट गालों से सटकर बैठ जाती है. फिर अचानक महसूस करती हूँ कि आँखों से होते हुए गालों पर कोई नदी उतर रही है. सुख में सुख की और उदासी में उदास होने की वजह को ढूंढना कब का छोड़ दिया है. भीतर जाने कितना कुछ जमा है, जाने किस मौसम की आहट पाकर क्या-क्या पिघलने लगता है. उस पिघलन में अपनी तमाम जकड़न से आज़ाद होना चाहती हूँ. कभी हो पाती हूँ, कभी नहीं.

एक बार एक दोस्त ने कहा था, 'भावुक होना सबसे बुरा होता है, भावुकता से बाहर निकलो' मैंने यह बात सुनी थी और भावुक हो गयी थी. जो भाव स्व है उसी का नाम तो स्वभाव है. उससे कोई बाहर कैसे निकले भला. तो उसके खामियाजे भी भुगतने की तैयारी रखनी होती है. कभी-कभी वो तैयारी कम पड़ जाती है.

मुझे भावुक होने से कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. मुझे कभी किसी ने दुःख नहीं दिया. धोखा नहीं दिया. धोखा जैसा कुछ नहीं होता. कोई किसी को दुःख कैसे दे सकता है जब तक हमने उसे इसकी इजाज़त न दी हो.

हाँ, यूँ हुआ जरूर कि भावुकता ने मुझे कुदरत के बहुत क़रीब पहुँचाया. प्यारे लोगों से मिलाया और जी भर के रोने का शऊर सिखाया. खुलकर खिलखिलाने का हौसला दिया. ज़िन्दगी की हर बूँद को घूँट-घूँट पीना सिखाया.

जबसे ख़ुद के इश्क़ में हूँ ज़िन्दगी सरककर और क़रीब आ गयी है...मुझे ज़िन्दगी के हर रंग से मोहब्बत है चाहे वो उजला हो या स्याह...

Saturday, July 2, 2022

प्यार ही बचायेगा दुनिया को


इन दिनों ज़िन्दगी जिस मोड़ पर ले आई है...वहां से पीछे छूट गये को देखना साफ़ हो गया है और आगत को लेकर बेसब्री कम हो गयी है. सवाल अब भी साथ रहते हैं लेकिन अब वो चुभते नहीं. उन्हीं सवालों के भीतर छुपे उनके जवाब दिखने लगे हैं. जैसे हिंसा जब सवाल के रूप में सामने आती है तो प्रेम उसके भीतर छुपे जवाब के तौर पर स्पष्ट दिखता है. जैसे उदासी के सवाल के भीतर नज़र आती है भीतर की वह यात्रा जो हमें लगातार मांज रही है. नज़र का चश्मा तनिक साफ़ हो गया लगता है. अब गुस्सा कम आता है सहानुभूति ज्यादा होती है.

किसी भी घटना के लिए व्यक्ति को दोषी के तौर पर देख पाना कम हुआ है दोषी व्यक्ति के निर्माण की प्रकिया को बेहतर कर पाने का दायित्वबोध बढ़ा है. एक चुप के भीतर छुपकर रहना सुकून देता है. जाने क्यों दुनिया के हर मसायल का एक ही हल नज़र आता है, वो है प्रेम. कि सारी दुनिया अगर प्रेम में डूब जाए तो सब कुछ कितना आसान हो जायेगा. फिर चारों तरफ होने वाले ज़हरीले संवादों के बाण बेधते हैं तो सोचती हूँ इस दुनिया में कितने सारे लोग प्रेम विहीन हैं देखो न...कि इनके भीतर हिंसक होने की जगह इस कदर बची हुई थी. जो होता प्रेम तो ये आरोप प्रत्यारोप के बजाय निरंकुश अट्टहास के बजाय हर दुखी उदास व्यक्ति को आगे बढ़कर गले से लगा लेते बिना पूछे जाति, धर्म देश. क्योंकि प्रेम तो ऐसा ही होता है. एक बार दिल प्रेम से भर उठे तो आप जीवन में कभी किसी से नफरत कर ही नहीं सकेंगे. अगर भीतर किसी भी किस्म की हिंसा, क्रोध, द्वेष शेष है तो यक़ीनन प्रेम दूर है आपके जीवन से. वो जिसे प्रेम समझे बैठे रहे अब तक वो कुछ भी था सिवाय प्रेम के.

Tuesday, June 14, 2022

घर, बुलडोजर और राष्ट्र

मैं आठवीं में पढ़ती थी जब हमारा घर बन रहा था. मैं महमूदाबाद में माँ और भाई के साथ रहती थी. पापा लखनऊ में घर बनवा रहे थे. हम बीच-बीच में जाते थे घर बनते देखने. जब हम लखनऊ में नहीं होते थे तब वो घर हमारे सपनों में बन रहा होता था. मेरा छोटा भाई मिट्टी के घर बनाया करता था. मैं भाई के मिट्टी के घर और पापा के द्वारा बनाये जा रहे घर के बीच कहीं रहा करती थी. माँ की आँखों में घर उगता देखती थी. एक-एक कोना उनकी आँखों में सांस लेता था. पापा की आवाज में चमक थी, आज नींव पूरी हो गयी, आज डीपीसी हो गयी, आज खिड़कियाँ लग गईं, अब छत पड़ने वाली है...

और एक दिन सब बिखर गया. पापा दफ्तर में थे, हम सब महमूदाबाद में. मजदूर काम कर रहे थे कि एक बुलडोजर आया और उसने हमारा समूचा घर ढहा दिया...कुछ देर पहले जहाँ छत पड़नी थी वहां अब मलबे का ढेर था. बुलडोजर क्यों चला, अचानक कैसे चला, क्यों पापा के आने का इंतजार नहीं किया. वहां इतने सारे घर थे सिर्फ हमारे ही घर पर क्यों चला, ये सब सवाल बेमानी हो गये थे,

मुझे याद है पापा उस खंडहर में बैठकर रात को रोया करते थे, माँ उन्हें सँभालने की कोशिश में खुद रो भी नहीं पाती थीं. बुलडोजर ने सिर्फ दीवारें नहीं तोड़ी थीं, हम सबकी जिन्दगी तोड़ दी थी.

अरसे से मैंने टीवी चैनलों से दूरी बना ली है कि खुद को छुपा लेने की कोशिश कर रही हूँ जैसे. लेकिन यह भ्रम कब तक आखिर. कल रात एनडीटीवी प्राइम टाइम पर जब इलाहाबाद में एक घर पर बुलडोजर कार्रवाई होते देख रही थी तो मेरे आंसू रुक ही नहीं रहे थे, गुस्सा थम ही नहीं रहा था.

ऐसी कार्रवाई के पहले की कार्रवाई कहाँ है? किसकी जेब में है समूची व्यवस्था, प्रक्रिया?

सचमुच जिन्हें लगता है कि ये 'उनका' घर टूटा है और जो टूटते घर को देखते हुए डिनर कर रहे थे, चैनल बदलकर गाने सुन रहे थे उनसे कुछ भी कहना बेकार है. क्योंकि उन्होंने ही इस व्यवस्था को पोषित किया है. जो खुश हैं और जिन्हें लगता है कि बिलकुल सही हुआ है जो हुआ है, वो यह नहीं जानते कि एक रोज वो खुद 'उन' लोगों में तब्दील हो सकते हैं. बस बुलडोजर रूपी राक्षस को दिशा ही बदलनी है अपनी.

इतनी नफरत भी मत फैलाओ साथियों कि अपनी ही फैलाई नफरत की आंच एक रोज तुम्हें जला के मार दे. सत्ता किसी की नहीं होती इस बात का तो इतिहास गवाह है. 

(तस्वीर लगाने की मेरी हिम्मत नहीं है)

Sunday, June 5, 2022

कब तक दिल की खैर मनाएं...


जीवन अक्सर अल्फाज़ों के पार जाकर बैठ जाता है. टुकुर-टुकुर देखता है. मुस्कुराता है. हम उसकी मुस्कुराहट के आकर्षण में खिंचते चले जाते हैं और डरते, सहमते, हिचकते हुए जीवन की ओर हाथ बढ़ा देते हैं. और वो आगे बढ़ जाता है. हमारे खाली हाथ उदास आँखें जीवन को फिर भी उम्मीद से देखते हैं.

उम्मीद है कि टूटती नहीं. शायद इसीलिए उसका नाम उम्मीद है. उम्मीद एक नशा है, हम बेख्याली में भी इस नशे की ज़द से निकलना नहीं चाहते. ये नशा मुश्किल से मुश्किल दौर में हाथ थामे रहता है. उसी नशे की ज़द में एक रोज फिर से जीवन की ओर हाथ बढ़ा बैठी...और इस बार वो उठकर चल नहीं दिया. रुका रहा. उसके कंधे को छुआ तो मेरे भीतर कोई झरना फूट पड़ा...तर-ब-तर हो उठी. 

'जीवन और मैं' हम दोनों दोस्त हैं. लेकिन हमारी अक्सर बनती नहीं. जीवन अपनी मस्ती में रहता है, उसकी अपनी चाल है, अपना ढब. और मैंने अब अपना ढब अख्तियार कर लिया है. मैं उसकी चाल के साथ अपनी चाल नहीं मिलाती. वो मगरूर है तो कम तो मैं भी नहीं. हम नदी के दो किनारों की तरह साथ चलते हैं. जीने की इच्छा का पानी हम दोनों को जोड़े रहता है.

उस रोज जीवन का कंधा छुआ तो वो सरककर करीब आ गया. मेरी आँखों में ख़ुशी से ज्यादा हैरत थी. 'तुम हो? सचमुच क्या तुम ही हो?' जीवन ने पलकें झपकाईं और बोला, 'मैं कब नहीं था' अब रूठने की बारी मेरी थी. 'तुम थे तो अब तक कहाँ थे, 'यहीं तुम्हारे भीतर. पर तुमने मुझे पुकारा ही नहीं.' जीवन ने यह कहते हुए कशिश की सिगरेट सुलगा ली थी.

'क्यों पुकारूँ, तुम जीवन हो तो मैं भी जीने की इच्छा से भरी लड़की हूँ. मुझे तुम्हारी चाह है तो तुम्हें भी तो चाह होगी न मेरी?' मगरूर आँखों में शरारत खिलने लगी थी. जीवन ने पीठ पर हौले से धप्पा दिया और बोला, 'तभी तो हूँ तुम्हारे पास.' हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा और ठठाकर हंस दिए. इतनी तेज़ कि हंसी के बगूलों में धरती डूबने लगी. बादल हंसी के बगूलों में डूबती धरती को देखने चले आये.  बरसने वाले बादल. हम हंसते रहे, बादल बरसते रहे, हम भीगते रहे.

उस रोज जीवन और मैं एक साथ एक ही कप से आइसक्रीम खा रहे थे और साथ घर लौट रहे थे...अली सेठी रिपीट में फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल गाये जा रहे थे...कब तक दिल की खैर मनाएं...

पीले अमलतास सर पर झर रहे थे झर झर झर...

Wednesday, May 11, 2022

पंडित शिव कुमार शर्मा- पानी की आवाज़ का नाम


वो मेरा 20वां जन्मदिन था. उन दिनों जन्मदिन पर मिलने वाले तोहफों में पहले नम्बर पर किताबें होती थीं और दूसरे नम्बर पर कैसेट. ये नम्बर आपस में अदला बदला भी करते थे. सबको पता था कि किताबें और संगीत में मेरी जान बसती है. तो बीसवें जन्मदिन पर एक तोहफा मिला म्युज़िक टुडे की चार एल्बम का एक सेट. पंडित शिवकुमार शर्मा का 'वाटर', पंडित हरी प्रसाद चौरसिया का 'रिवर', जाकिर हुसैन का डेजर्ट और वनराज भाटिया का 'अर्थ'. देने वाले को यह पता था कि पानी मेरी कमजोरी है. बारिश की एक बूँद मुझे बावरी बना देती है. लेकिन उसे यह नहीं पता था कि वो मेरी ज़िन्दगी में एक नयी राह खोल रहा है.

बिलकुल संकोच नहीं यह कहने में कि फिलिप्स के उस टेप रिकॉर्डर में जिन कैसेट्स की रील सबसे ज्यादा घिसीं, फंसी उनमें से एक थी पंडित शिव कुमार शर्मा के 'वाटर' और हरि प्रसाद चौरसिया के 'रिवर' की. जीवन में पानी की आवाजों ने जगह इस कदर बना ली कि भीतर की नदी खूब खिलखिलाने लगी. उसने भीतर के जंगल को भी खूब हरा रखा. मैं जो थोड़ी सी जंगली, थोड़ी सी नदी सी बची रह गयी हूँ उनमें 20 वें जन्मदिन में मिले तोहफे में शिव कुमार शर्मा और हरि प्रसाद चौरसिया का बड़ा योगदान है.

चौरसिया जी से तो खैर एक दो मुलाकातें भी हासिल हुईं लेकिन शिव कुमार जी से मुलाकात संभव न हो सकी. लेकिन सच कहूँ जिस कदर उनका 'वाटर', 'माउन्टेन', 'वाकिंग इन द रेन' साथ रहता है ऐसा कभी लगा ही नहीं कि उनसे मिली नहीं हूँ. वैसे ज़ाकिर हुसैन साहब का डेजर्ट भी कमाल है. लेकिन आज बात शर्मा जी की.

वाटर सुनने के बाद यूँ हुआ कि संगीत की किताब का पहला पन्ना खुल गया हो जैसे. इसके बाद उन्हें ढूँढकर सुना, खूब सुना. मन खुश हुआ तब सुना, परेशान हुआ तब सुना. दोस्तों की महफिल में सुना, तन्हाई में सुना. पानी की आवाज़ का दूसरा नाम हैं शिव कुमार शर्मा जी.

शायद यही वजह रही कि शिव हरि की जोड़ी ने जितना संगीत रचा फिल्मों में भी वो मेरा फेवरेट हुआ. जिसमें सबसे पहले याद आता है 'सिलसिला', 'चांदनी' और 'लम्हे' का संगीत.

आज जब उनके जाने की ख़बरें नज़रों से गुजर रही हैं जाने क्यों एक नायकीनी सी बनी हुई है. मेरे लिए वो हमेशा से हैं और रहेंगे. वो जा नहीं सकते. सुबह से पानी की आवाज़ कान में पहने घूम रही हूँ. उनका होना हमेशा बना रहेगा. जीवन को सबसे मुश्किल दिनों में भी नमी को बचाए रखेगा. 

Tuesday, May 10, 2022

वो मुझमें रहती है मैं बनकर


आना सिर्फ एक शहर से दूसरे शहर आना नहीं होता. आना होता है सांस लेने में जिन्दगी बनकर. हमें खुद न पता हो हमारी प्यास का और कोई दरिया बहता चला आये प्यास बुझाने ऐसा भी होता है कभी. ऐसे ही दिन थे, छलके-छलके से अटके भटके से. न किसी से बात करे न मिलने का. बस कि अपनी चुप की नदी में चुपचाप पड़े रहने को दिल करे. ऐसे वक्त में किसी दोस्त का आना और अपनी पलकों से छूकर लम्हों को परों से हल्का बना देना क्या तो सुख है. सुख जिसका नाम है श्रुति.

यह श्रुति की भोपाल से देहरादून की यात्रा नहीं थी. यह एक एकल आत्मा की दूसरी एकल आत्मा तक की यात्रा थी. एकांत का सुंदर सुर लगा रहा इसमें. इस सुर में हम डूबते-उतराते रहे. कोई हड़बड़ी नहीं बस कि साथ का एहसास. उसे किसी टूरिस्ट स्पॉट देखने में कोई रुचि नहीं उसे सिर्फ मेरे पास रहना था.

जैसे कितने बरसों से ऐसे किसी साथ की तलाश थी. साथ जो घुल जाए वजूद में. घर में. शहर में. वो मुझे दूसरी नहीं लगती मेरा ही एक हिस्सा लगती. मुझसे बेहतर होकर जो मुझे मिला हो.

लम्बे अरसे से अकेले रहते हुए कुछ ऐसा हो गया है मन कि अब किसी का भी होना असहज करने लगा है. ऐसे में खुद को थोड़ा समेट लेती हूँ और किसी के साथ के बीतने का इंतजार करने लगती हूँ. लेकिन श्रुति तुम्हारे साथ होकर समझ में आया कि इकसार होना कैसा होता है. इसका कैसा तो सुख होता है. और सबसे सुंदर बात यह कि यह सब इतना एफर्टलेस है. जैसे एक ही वक़्त पर चाय की तलब लगना, एक ही वक़्त पर नज़रें उठाकर देखना एक-दूसरे को, एक ही वक़्त पर पलकें झपकाना और हथेलियों को थाम लेना. इकसार होना ऐसा ही होना चाहिए.

तुम्हारे साथ बैठकर खुद की जकड़नों को करीब से देखा है उनसे आज़ाद होने की तरफ पहला कदम बढ़ाया है. तुम्हारे साथ रहकर जाना है कि साथ होने के असल मानी कैसे होते हैं जब किसी के साथ होकर हम पहले से ज्यादा तरल और सरल होने लगते हैं, हमारे माथे की लकीरें चमक उठती हैं.

अब जबकि तुम चली गयी हो वापस तो देखो तो किस कदर छूट गई हो यहीं. बिखरी पड़ी हो घर के कोने-कोने में, शहर के हर हिस्से में, मेरी मुस्कुराहटों में.

Tuesday, May 3, 2022

प्रीतम का कुछ दोष नहीं है...



ये ईद की सुबह है. सुबह में मोहब्बत के रंग घुले हैं. अलसाई आँखों ने बड़े बेमन से नींद से दामन छुड़ाया है. सुबह की चाय में आज अलग ही बात है. एक शांति है. सुकून है. देर तक देखती हूँ फलों से लदी डालियों को. कोई हलचल नहीं वहां. सामने सूरजमुखी के बागीचे में भंवरों की टोली डोल रही है. रात भर खिलखिलाती जूही भंवरों की मटरगश्ती देख मुस्कुरा रही है.

मैं अपनी हथेलियों को देखती हूँ. खाली हथेलियाँ. जीवन की नदी में एक-एक कर सब लकीरें गुमा आयीं हथेलियाँ. बिना लकीरों वाली हथेलियाँ खूबसूरत लग रही हैं. ये खाली हथेलियाँ अब नयी लकीरों की मुंतज़िर नहीं. ये लम्हों पर ऐतबार करना नहीं चाहतीं बस उन्हें दूर से देखना चाहती हैं. लम्हों की आवक-जावक जारी है. कोई लम्हा टूटकर गिरता है एकदम करीब जैसे कई बरस गिरा था पलाश का फूल. सिहरन महसूस होती है. दूर से बैठकर लम्हों को आते-जाते देखना सुख है. उनसे मुत्तासिर न होना अभ्यास है. यह ज़िन्दगी के रियाज़ से आता है.

सोचती हूँ लम्हों के कंधों पर उम्मीदों का बोझ न डालना भी तो सुख है. यह बेज़ारी तो नहीं. तो क्या यह निर्विकार होना है. सुख में होना और उससे मुब्तिला न होना. यह आसान नहीं. ज़िन्दगी का रियाज़ आसान नहीं. लेकिन क्या ज़िन्दगी आसान है?

एक दोस्त ने सुबह-सुबह नुसरत साहब की आवाज़ भेजी है. मैं उसे कहती हूँ नुसरत साहब तो असाध्य रोग हैं...लग जाए तो छूटता नहीं. वो हंस देता है. उसे मेरी बातें जरा कम समझ में आती हैं. वैसे मुझे ही कौन से अपनी बातें समझ आती हैं. सच कहूँ तो इस समझने ने बड़ा नुकसान किया है. तो जरा नासमझ होकर देखते हैं ज़िन्दगी के खेल...नुसरत साहब कह रहे हैं प्रीतम का कुछ दोष नहीं है...

जीवन ही तो प्रीतम है...और वो तो है निर्दोष...