Thursday, March 23, 2023

जाऊँगा कहाँ, रहूँगा यहीं


वो दुःख है
जायेगा कहाँ,
रहेगा यहीं
कभी मुस्कान में छुपकर
कभी खिलखिलाहट में
कभी 'सब ठीक है' के भीतर
तानकर सो जाएगा लम्बी नींद
उसकी नींद के दौरान हम
तनिक खुश होंगे
और तनिक सतर्क
कि कहीं लौट न आये फिर से
और एक रोज जब
आईना देख रहे होंगे
हमारी आँखों के नीचे आये
काले घेरों के बीच से
वो झांकेगा
और मुस्कुरा कर कहेगा
मैं कोई सुख नहीं हूँ 
कि चला जाऊँगा   
मैं तुम्हारा दुःख हूँ
जाऊँगा कहाँ
रहूँगा यहीं, तुम्हारे पास. 

Tuesday, March 21, 2023

कैद कबूतर


देर तक अपनी आँखें आसमान में टिकाये रहने के बाद थककर एक कप चाय पीना और उसके बाद खाली दीवार में आँखें धंसा देना अजीब से सुख से भरता है. कोई फोन बजता है तो देखती रहती हूँ देर तक फिर फोन के कटने से ठीक पहले ऑटो मैसेज सेंड करती हूँ,’आई एम बिजी राईट नाव, आई विल कॉल यू लेटर.’ उसके बाद फिर उस कबूतर के बारे में सोचने लगती हूँ जो कल गलती से बालकनी में बंद रह गया था. जब मैं दो घंटे बाद घर लौटी तो उसे बालकनी के बंद शीशे से टकराते देखा. मैं दर्द से कराह उठी थी. ओह...यह कैसे हो गया. ये महाशय कहीं छुप के बैठे होंगे. जाने से पहले आदतन मैंने सारी खिड़कियाँ बंद कर दी थीं. पारदर्शी कांच से आसमान एकदम साफ़ दिख रहा था, बाहर के पेड़ भी, पंछी भी. कबूतर को बार-बार लगता आसमान उसका है वो उस तरफ जाने की कोशिश करता और कांच से टकरा जाता. बालकनी का सारा सामान गिरा पड़ा था. मैंने जैसे ही उसे देखा सीधे बालकनी में गयी और खिड़कियाँ खोल दीं. वो इस कदर डर चुका था कि खुली खिडकियों के बावजूद बाहर नहीं निकल पा रहा था. मैं जो उसे निकालना चाह रही थी, वो मुझसे भी डर रहा था.

मैं चुपचाप अंदर चली आई कि शायद मुझसे डरना कम करे तो शायद सहज हो और निकल सके. मेरी आँखें ये सोचकर नम थीं कि इन दो घंटों में उसे कैसा महसूस हुआ होगा. यह सोचते हुए चाय का पानी चढाया था और एक सिसकी सुनी थी अपनी ही. हम सब कबूतर ही तो हैं. कैद कबूतर. बेचारे कबूतर.

जाने भीतर क्या होगा, शायद कुछ मजेदार होगा की जिज्ञासा लिए एक ऐसे जाल में उलझे हुए जिससे निकलने की राह ही नहीं मिलती. आसमान दिखता तो इतने करीब है जैसे हाथ बढ़ाएंगे और छू लेंगे लेकिन जैसे ही आसमान की तरफ बढ़ते हैं न दिखने वाले मजबूत अवरोध से टकराकर गिर जाते हैं. फिर उठते हैं, फिर टकराते हैं. चोट खाते रहते हैं, कोशिश करते रहते हैं. फिर कोशिश करते-करते थक जाते हैं. एक रोज कोई खिड़कियाँ खोलने आता है तो उससे ही डरने लगते हैं और कोशिश करना छोड़ चुके होने के कारण खुली खिड़की के बावजूद आसमान तक पहुँच नहीं पाते.

कबूतर के टूटे हुए पंख मुझे मेरे ही पंख लगे.

Monday, March 20, 2023

स्त्री कविता और राजनीति


जब किसान
अपने हक़ के लिए 
उतरे होते हैं सड़कों पर
स्त्री लिखती है 
रोटी पर कविता

जब राजनीति 
बो रही होती है 
वैमनस्व के, हिंसा के बीज
स्त्री चूम लेती है
प्रेमी का माथा
और लिखती है प्रेम कविता
 
जब दुनिया भर में 
सरहदों की ख़ातिर
छिड़ रहा होता है युद्ध
स्त्री सात समंदर पार बैठी दोस्त को
झप्पी भेजती है

जब दुनिया भर के लोग
सेंसेक्स पर निगाहें गड़ाये
दिल की धड़कनों को 
समेट रहे होते हैं
स्त्री नन्हे की गुल्लक में
उम्मीद के सिक्के डालती है

तुम्हें लगता है 
स्त्रियों को दुनिया की
राजनीति की समझ नहीं है 
असल में स्त्री के 
राजनैतिक दखल को
समझ पाने की 
तुम्हारे पास नज़र ही नहीं.

Wednesday, March 15, 2023

इच्छा के फूल


सामने वही पहाड़ी थी जिसे हम दोनों साथ बैठकर ताका करते थे. खामोशियाँ खिलती थीं और शब्द इन्हीं पहाड़ियों में फिसलपट्टी खेलने को निकल जाते थे. मुझे याद है वो तुम्हारी इच्छा भरी आँखें और नीले पंखों वाली चिड़िया की शरारत. तुम्हें पता है, तुम्हारी इच्छा के वो बीज इस कदर उग आये हैं कि धरती का कोना कोना फूलों की ओढ़नी पहनकर इतरा रहा है. उस पहाड़ी पर अब भी हमारी ख़ामोशी की आवाज़ गूंजती है. वो पहाड़ी लड़की जिसने पलटकर हमें देखा था और मुस्कुराई थी उसकी मुस्कान अब तक रास्तों में बिखरी हुई है.

बारिश बस ज़रा सी दूरी पर है, तुम आओ तो मिलकर हाथ बढ़ायें और बारिश को बुला लें…🌿

Tuesday, March 14, 2023

सच माइनस झूठ- कहानी पर फिल्म

बातें कितनी ही बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन हकीकत यही है कि स्त्रियों को अब भी अपने स्पेस के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है. सुकून से बैठकर एक कप चाय पीना भी जैसे किसी ख़्वाब सा हो. कई बरस पहले ऐसी ही एक कहानी लिखी थी जिसमें एक स्त्री घड़ी भर की फुर्सत के लिए, अपने स्पेस के लिए जूझ रही है और पितृसत्ता की महीन किरचें बीनते हुए लहूलुहान हो रही है. कहानी का शीर्षक था 'सच माइनस झूठ बराबर रत्ती भर जिन्दगी.' कहानी लोगों को पसंद आई. फिर इस पर फिल्म बनना शुरू हुई. फिर कोविड आ गया. पोस्ट प्रोड्क्शन का काम अटक गया. आखिर अब फिल्म बनकर तैयार हुई है और कल 15 मार्च को लखनऊ में इसकी स्क्रीनिंग हो रही है.

मेरी तो सिर्फ कहानी है, सारी मेहनत है फिल्म निर्माण यूनिट की. निर्माता, निर्देशक, अभिनय से जुड़े सभी लोगों को दिल से मेरी बधाई. 

Monday, March 13, 2023

दुनियादारी


जिन्होंने डराया
उन्होंने कहा, 'मुझसे डरो मत'
और मुस्कुराये
 
जिन्होंने रचे प्रपंच
उन्होंने शदीद दुःख जताया
प्रपंच रचने वालों पर

जिन्होंने रची झूठ की इबारतें 
उन्होंने कहा झूठ बोलने से ज्यादा जरूरी हैं
बहुत सारे काम 

जिन्होंने शोर बोया 
उन्होंने शन्ति की तलाश पर 
लिखी कविता 

जिन्होंने काटे वृक्ष 
उन्होंने आंसू बहाए 
हरियाली के कम होने पर

जिन्होंने आज़ादी पर लगाये ताले 
उन्होंने दिए सुंदर भाषण आज़ादी पर 

जिन्होंने हड़प ली दूसरों की रोटी 
उन्होंने भूख को एजेंडा बनाया 
और जीते चुनाव 

और इस तरह जीवन में 
सब 'ठीक ठाक' चलता रहा
सूरज रोज की तरह उगा पहाड़ी पर 
और मुस्कुराया इस खेल तमाशे पर.

Sunday, March 5, 2023

झरती पत्तियों सी मैं


मौसम सुनहरा हो रहा है. सारे रास्ते सुनहरी पत्तियों से ढंके हुए हैं. काम करते-करते निगाह बाहर जाती है और मन शाखों से लहराकर उतरती पत्तियों के संग अटकने लगता है. भटकने लगता है. पत्तियों के गिरने में एक लय है. उनके धरती चूमने का अलग अंदाज है. मीठी सी आवाज है.

हवा चलती है तो जैसे कोई अल्हड़ युवती छन छन करती पायल पहनकर भागते हुए गुजरी हो.

रास्तों से गुजर रही होती हूँ कि हवा का एक बड़ा सा झोंका सुर्ख और पीले फूलों की पंखुड़ियों को उड़ाकर पूरे वजूद को ढंक देता है. मेरी पलकें भीग जाती हैं. जीवन कितना समृद्ध है, कितना खूबसूरत. प्रकृति के जितने करीब हम जाते हैं जीवन के रहस्य खुलते जाते हैं.

ये झरती हुई पत्तियां ये उगती हुई कोपलें इनसे बड़ा जीवन दर्शन क्या है भला. हर यात्रा का एक विराम होता है. उस विराम को कैसे और कितना सुंदर बना पाते हैं बस इतना ही तो रहस्य जानना है. और यह रहस्य हमारी हथेलियों पर रखा होता है हम देख नहीं पाते.

मैं पीले पत्तों को अपना पीला मन सौंपती हूँ. वे मुझे नयी उगती कोंपलों की बाबत बताते हैं.

मैं जीवन से कहना चाहती हूँ कि मुझे पीले पत्तों से और उगती कोंपलों से एक जैसा प्यार है. न कम, न ज्यादा.
वो जो झर रही हैं पत्तियां वो मैं हूँ, वो जो उग रही हैं कोपलें वो मेरे ख्वाब हैं...