इस बार जब वो छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच के लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू कर नहीं बहलाऊंगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं,
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा, उतरने दूँगा अन्दर
इस बार नहीं,
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
न ही उठाऊँगा रूई के फाहे
और न ही कहूँगा की तुम आँखें बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो, मैं दवा लगता हूँ
देखने दूँगा सबको खुले नंगे घाव
इस बार नहीं ....
इस बार जब उलझनें देखूँगा, छात्पताहत देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी दूर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म के हवाला देकर नहीं उठाऊँगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत,
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड में , टेढे मेधे रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं ....
बनने दूँगा उसे इतना लाचार की पान की पीक
और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं.....
इस बार घावों को देखना है गौर से थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी इस बार
यही तय किया है
... प्रसून जोशी