ये कौन चित्रकार है जिसने समूची धरती को हरे रंग में रंग दिया है। चारों तरफ हरा ही हरा। कम हरा, ज्यादा हरा...गाढ़ा हरा, हल्का हर. बस कि हरा ही हरा... हरे दरवाजे...हरी खिड़कियां... हरी दीवारें...हरे रास्ते...हरी मुस्कुराहटें...
दूर पहाड़ी पर बादलों का खेल जारी है। हम चुप्पियों को वादियों में उछालते हैं और वो संगीत बनकर हमारे पास लौटती हंै। सांसों के जरिये कोई संगीत भीतर उतरता है। उठती गिरती सांस...चुप्पियां और असीम हरा...शब्द कितने निरीह होते हैं चुप्पियों के आगे कि चुप्पियां जब अपना आकार लेती हैं तो दुनिया के सारे शब्दकोश, सारी भाषाएं सिमटने लगती हैं।
वादियों में बिखरा हरा और मौन का संगीत। धड़कन की ताल पर मौन के सुर...ये कौन सा राग है...? बादल का कोई टुकड़ा प्रश्न बनकर कंधे पर लुढ़क सा जाता है। उसके इस तरह कंधे से टिकने पर एक ख्याल जागता है कि अगर इन वादियों को बूंदों की ओढ़नी ओढ़ा दी जाए तो? मैं कंधे पर टिके बादल को हाथ लगाती हूं...वो एकदम ठंडा है...वो शायद ऊंघ रहा था। मेरी हरारत से वो चैंककर जाग उठता है। आंखें मलता है....मैं मुस्कुरा देती हूं। उसे थपकी देकर सुला देती हूं...बूंदों की ओढ़नी से वादियों को ढंकने की इच्छा को भी। हरे की संगत पर मौन राग आलाप लेता है... भीतर की वादियां भी हरी हैं...कुछ जख्म भी...मुस्कुराहटों के आसपास एक नमी का अहसास...
कुदरत के पास इतना हरा है फिर भी धरती के कुछ हिस्से कितने सूखे और ध्ूासर हैं। कुछ तो हम में ही कमी होगी कि हम कुदरत का दिया ले नहीं पाते...
कैलेंडर कहता है कि ये सावन का हरा है...मैं कहती हूं ये जीवन का हरा है। इस हरे की शिद्दत तो देखिए कि इंद्रधनुष से उतरकर एक-एक कर रंग हरे में ढलते जा रहे हैं... अंदर बाहर सब हरा ही हरा है...अप्रतिम हरा....
हाथ बेसाख्ता दुआ में उठते हैं कि काश! पूरी धरती पर प्रेम का हरा बरस जाए....सुकून का हरा...
नन्हे बच्चों का एक झुंड गुजरता है....उनके कोलाहल से वादियों में गूंजते मौन राग में नया ही सुर लगता मालूम होता है। मानो दो रागों को मिलाकर नये राग का जन्म हो रहा है...मौन राग में कोलाहल...
मैं एक टुकड़ा हरा बालों में टांकती हूं और एक टुकड़ा हरा हथेलियों पर रखती हूं। बादल का वो टुकड़ा मेरी हथेलियों को टुकुर-टुकुर देखता है...उसे कुछ समझ नही आता...लेकिन मेरी हथेलियों पर एक बूंद टपक जाती है। वादियों में बिखरे हरे को बूंदों की ओढ़नी से ढंक देने की ख्वाहिश अब मैं रोक नहीं पाती। बादलों की ओर हाथ बढ़ाती हूं और वो तो मानो बरसने को बेताब ही थे।
जाने क्या-क्या बरसा...बरसता रहा...जाने क्या-क्या भीगा...भीगता ही रहा...कुछ बारिशें उम्र भर को ठहर जाती हैं, कभी-कभी जीवन के सारे रंग हरे में ढलकर ही खुश होते हैं...