Monday, November 30, 2020

सत्रहवें जन्मदिन पर...


आसमान सरककर दो इंच और ऊंचा हो जाए
ताकि तुम्हारे डैने तैयार हों और ऊंची उड़ान को

समन्दर पुकारते हुए आये तुम्हारे पास 
तुम्हारा बोसा लेने को उचककर कांधों तक आये 
और तुम्हारे चुम्बन के मध्धम स्पर्श से 
शांत होकर देखने लगे तुम्हें टुकुर-टुकुर 

ईश्वर सिंहासन से उतरे 
और तुम्हारे संग खेलने को आतुर हो उठे 
तुमसे हारकर लूडो में 
वह महसूस करे जीत से मीठा स्वाद 

तुम्हारे सत्रहवें जन्मदिन पर 
ख़्वाबों का कोई सैलाब घेर ले तुम्हें 
और पंछियों का कोलाहल निबद्ध हो उठे 
राग भैरवी में 
फूलों पर मंडराते भंवरे, तितलियाँ 
तुमसे सुनना चाहें सितारों की कहानियां 

शरद मुस्कुराए, आये और रुक जाए 
तुम्हारी हथेलियों पर रख दे 
बेहतर दुनिया बनाने का हौसला  

सूर्य मजबूत बनाये तुम्हारे कंधे  
कि मनुष्यता को बचाए रखने उम्मीद 
को सहेज सको तुम 

पीले फूलों की कतारों से गूंजने लगे 
बधाई के गान 

तुम्हारी मुस्कुराहट ही हो कुदरत को 
तुम्हारा दिया रिटर्न गिफ्ट 

सत्रहवें जन्मदिन पर 
तुम ले सको अपने तमाम ख्वाबों की बागडोर 
खुद अपने हाथ में.

Sunday, November 29, 2020

जन्मना हर लम्हा...



जब पहली बार दुनिया में आँख खुली तब का कुछ पता नहीं लेकिन माँ बनने के बाद जब पहली बार आँख खुली तो एक नया जीवन सामने थे. एकदम सलोना जीवन. एक ऐसा जीवन जिसके बारे में देखा सुना पढ़ा खूब था लेकिन जिसे देखा नहीं था. और जब वह जीवन अपनी नन्ही नन्ही कोमल अँगुलियों में मेरी अंगुली को थाम रहा था तो मेरे भीतर एक विशाल झरना फूट पड़ा. यह सुख का झरना था. आँखें भरी हुई थीं. स्तन भी. यह पहली बार था जब रुदन का सुख पसरा हुआ था. यह आज ही के दिन की लेकिन सत्रह बरस पहले की बात है. 

माँ बनना सिर्फ जैविक प्रक्रिया नहीं है. यह एक सृष्टि को जन्म देने की प्रक्रिया है. कि समूचा जीवन किस तरह अपने भीतर साँस लेता है, किस तरह हाथ पाँव मारता है दिल ख़ुशी से झूम उठता है. 

जन्म देने से बड़ी बात है जन्म देने को महसूस करना. गर्भ धारण का सौन्दर्य अद्भुत है. इतना अद्भुत कि इसे महसूस करने को नौकरी चाकरी सब छोड़ दिन भर गर्भस्थ शिशु से बातें करती थी. आज यह गर्भस्थ शिशु मेरी बगल में सोया है. मेरे कद के बराबर हो चला है. लेकिन उसकी अँगुलियों में वही निश्छलता है. उसकी आँखों में वही जीवन. 

अब जब वह वयस्कता की पहली सीढ़ी चढने से सिर्फ एक पादान पहले है मुझे उसकी आँखों में सुंदर दुनिया बनाने का ख़्वाब दिखने लगा है. गलत के खिलाफ उसकी मुठ्ठियाँ भिंचने लगी हैं. Treat People with Kindness...उसका फेवरेट कोट है. मुझे लगता है उसके साथ ने मुझे बेहतर मनुष्य होना सिखाया. धडकनों को गौर से सुनना सिखाया. देर तक ढाई अक्षर के टूटे फूटे शब्दों में उचारे गए 'मम्मा....' में सातों सुरों को एक साथ सधते देखने का सुख दिया. 
उसके सवालों ने मुझे सवाल करना सिखाया, उसके होने ने सिखाया जीना और जीने के लिए संघर्ष करना. 

मैं आज सत्रह बरस की माँ हुई हूँ लगता है इतना ही जीवन है. इन नन्ही अँगुलियों में अगर दुनिया को थमा दें तो दुनिया कितनी मासूम हो जायेगी. इन नन्ही उँगलियों में बची रहे यही मासूमियत तो दुनिया कितनी सुंदर हो उठेगी. बच्चे हमें कितना सिखाते हैं और हम हैं कि इस दर्प से मुक्त ही नहीं होते कि हमने उन्हें पाला है, हमने उन्हें जन्म दिया है जबकि सच यह है कि उन्होंने हमें जन्म दिया है, उन्होंने हमें सिखाया है मनुष्य होना, 

जन्म देना भर जन्म देना नहीं होता...जन्मना होता है हर लम्हे में कुछ नयेपन के साथ, कुछ अनजाने एहसासों के साथ.

Friday, November 20, 2020

यूं मिलती हूँ मैं मारीना से- नीरा त्यागी

-नीरा त्यागी 
होली से एक दिन पहले, हिचकिचाती हुई पहली मंजिल के फ़्लैट में प्रवेश करती हूँ कमरे में किसी को न पाकर वापस दरवाजे पर लौटकर घंटी बजाती हूँ प्रतिभा किचन से निकलते हुए मेरा स्वागत करती है मैं आपके फोन का इंतज़ार कर रही थी. किचन से उड़ती खाने की महक भरे पेट में भूख जगा देती है. तभी हंसी के फव्वारों, होली के रंगो से सरोबर तूफ़ान (ख़्वाहिश और उसके दोस्त) ड्राइंगरूम पर कब्ज़ा कर लेते हैं. वो अपनी चहेती आंटी के साथ होली खेलते हैं फिर उन्हें दरी बिछा कर ज़मीन पर बैठाया जाता है ताकि उनके पेट उनकी फेवरेट आंटी के बनाये खाने पर धावा बोल सकें। बच्ची की छेड़छाड़, उनकी हंसी, खिखिलाहट, प्लेट में चम्मचों की खटपट और रसोई में चकला-बेलन की तालमेल ड्राइंगरूम में ही नहीं मेरे भीतर के सन्नाटों में भी संगीत भर देती है. खुश रहना तो सिर्फ बच्चों से ही सीखा जा सकता है. प्रतिभा दो चाय के प्याले लिए मेरे पास बैठी है और शुरू होता है हमारी बातों का सिलसिला. हम ड्राइंगरूम से शुरुआत करते हैं, फिर छत पर मसूरी के पहाड़ों की पहचान करते हुए, फागुन की गुनगुनी धूंप में नहाते हुए, अंगूर के दाने फांकते हुए, वापस ड्राइंगरूम में और फिर नीचे गलियारे में फ्लैटों का चक्कर लगाते हुए दोपहर से शाम के अँधेरे तक बात करते हैं। लौटने का समय आया और प्रतिभा ने कह कर टाल दिया कुछ घंटे और रात के अंधेरों में अकेले सफर करने से मुझे आज भी डर लगता है प्रतिभा का आग्रह और एक और प्याली साथ पीने का लालच मेरे डर को उलटे पाँव भगा देते हैं. बारी आती है मरीना को छूने की, हाथ में पकड़ने की, सूंघने की. दो प्रति थामे मैं भारी दिल से विदा लेती हूँ. घर लौट कर एक प्रति पापा को भेंट करती हुँ जिसे वह दो दिन में पढ़ कर समाप्त कर देते हैं वो ज्यादा शब्दों में कहने के आदी नहीं हैं वो सिर्फ इतना कहते हैं " बड़े रोचक और सुन्दर शब्दों से गढ़ी अलग किस्म की किताब है. इसे रचने में काफी मेहनत की गई है." मरीना की दूसरी प्रति मेरे साथ लम्बी यात्रा करती है.
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प्रतिभा की किताब मरीना कहने को जीवनी है पर पढ़कर ऐसा लगता है जैसे दो अलग-अलग युग में पैदा हुई औरतों की तपस्या की कहानी है. मरीना त्स्वेतायेवा जो एक संभ्रात परिवार में पैदा होकर, राजनैतिक उठापटक की वजह से कभी रूस के शहरों में, कभी बर्लिन, प्राग, पेरिस में भटकती है, तमाम उम्र अपने परिवार का पेट भरने और उनके लिए छत जुटाने के संघर्ष से झूझती रही. इस सब के बावजूद अपनी कलम के प्रति वफादार रही. दूसरी और इस युग की प्रतिभा है जिसकी तपस्या मरीना पर किताब लिखना था. लिखने के लिए पहले शोध, मरीना के बारे में मेटीरियल इकट्ठा करना, लोगों से मिलना, जेएनयू में रहना और फिर लिखना. यह एक साधना की तरह है जिसे प्रतिभा ने बखूबी निभाया है. प्रतिभा को मरीना की कविताओं की किताब अपने पिता के घर में बचपन में मिली और एक नन्ही बच्ची मरीना की तस्वीर और कविताओं पर मर मिटी. बरसों बाद प्रतिभा ने अपने पहले प्यार को इस किताब के रूप में अंजाम दिया. 

लेखिका ने मरीना की ज़िंदगी में आये परिचितों, दोस्तों, प्रेमियों को उसके द्वारा लिखे खतों के जरिये जाना है, किताब के हर कोने से हर उस स्त्री की वेदना और विवशता की अनुगूँज है जिन्हें आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक परिस्थितियां कविता लिखने से दूर करती हैं किस प्रकार मरीना असंभव हालात में भी कविता लिखने की भूख का पोषण करती नज़र आती है. यह किताब उन सभी औरतों के लिए पथ प्रदर्शक है जो अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए छटपटाती रहती हैं क्योंकि माँ और पत्नी की जिम्मेदारियां, घर की सफाई, चौका-बर्तन, राशन जुटाने की जद्दोजहद, बच्चो की परवरिश में अपनी सारी ऊर्जा झोंकने के बाद अपनी कला के लिए ऊर्जा न जुटा पाने को अभिशप्त हैं. मरीना का चरित्र किताब में इस तरह उतर कर आता है कि वो बार- बार पाठक को याद दिलाता है किस प्रकार मरीना विपरीत परिस्थितियों में भी अपने कलात्मक रुझान के प्रति वफादार रही. मरीना ने जागते हुए लिखा, नींद में लिखा, दौड़ते-भागते लिखा, बग्घी में, ट्रेन में लिखा, कमरे में रखी मेज पर लिखा, रसोईघर में खाना बनाते हुए लिखा पीढ़े पर बैठ कर लिखा, उसने अपनी बेटी की मौत पर लिखा. मरीना ने कवितायें लिखी, लेख, संस्करण, डायरी और पत्र लिखे, उसने लोककाव्य, नाटक और बच्चो के लिए कहानियां लिखी. उसने प्रेम में और प्रेम की टूटन में लिखा. यह किताब मरीना के लिखने की ताकत का हर मुमकिन और नामुमकिन हालात में विजयी होने का जीता-जागता सबूत है.

अध्याय के बाद बुकमार्क है जिसमें लेखिका और मरीना के बीच छोटे-छोटे संवाद है यह संवाद देह और आत्मा के अंतर को समाप्त करता नज़र आता है वह दोनों मुखौटे उतार एक दूसरे के सामने होती हैं बात करती हैं प्रश्न पूछती हैं इकट्ठे चाय पीती हैं उन दोनों के बीच का संवाद पाठक को उस धरातल पर ले चलता है जहां मरीना कौन है और प्रतिभा कौन दोनों का अंतर समाप्त हो जाता है.

इस किताब को पढ़ने में जो सबसे ज्यादा आँखों में अटकते है वो हैं रूसी नाम, उस नाम से जुड़े चरित्र को याद रखना और चरित्र का मरीना से रिश्ते को याद रखना कठिन हो जाता है लेकिन फिर भी बहुत से परिचित नाम भी हैं जो मरीना की ज़िंदगी में आये, मरीना का रिल्के और गोर्की, से उसका पत्राचार रहा. मरीना पर लिखी किताब जीवनी होते हुए भी जीवनी नहीं है और अनुवाद होते हुए भी अनुवाद नहीं है यह जीवनी और अनुवाद दोनों से कुछ हटकर और कुछ बढ़कर है. लेखिका मरीना की ज़िंदगी की टोह उसके द्वारा लिखे गए खतों से लेती हैं जो मरीना ने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को लिखे. मरीना अपनी आर्थिक समस्याओं और मुश्किल हालात के प्रति काफी पारदर्शी थी यह उनके खतों से जाहिर है. मरीना के संघर्ष, उनकी गरीबी, बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा की कवायद, बेहरत जीवन और सुरक्षित छत की तलाश में एक देश से दूसरे देश में भटकने को प्रतिभा ने मरीना के खतों के मार्फ़त इस किताब में लिखा है. इसके अलावा लिखने के प्रति मरीना की जिजीविषा और तड़पन को प्रतिभा ने खुद जिया है तभी तो वह इस तड़प की नब्ज़ को पाठकों की अँगुलियों पर रख देती है.

Thursday, November 19, 2020

बेहतर विद्यार्थी होना सीख रही हूँ...


अजीब सी उलझनों वाले दिन थे वो. हर वक्त उलझन रहती थी, सोने ही नहीं देती थी. बेचैनी रहा करती थी. जिस प्रोफेशन को बहुत मोहब्बत से खुद के लिए चुना था, जिसे प्रोफेशन की तरह नहीं पैशन की तरह जिया हरदम वही अब तकलीफ दे रहा था. यूँ लगता था कि पत्रकारिता में इतने हाथ पैर बांधकर भला कैसे सांस ली जा सकती है. जिस कलम को समाज के आखिरी व्यक्ति के कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े होना था, जिस कलम को बीन लेने थे राहगीरों की राह के कांटे, किसानों के साथ खड़ी धूप में खड़ा होना था वो कैसे पेज थ्री कॉलम, सेलिब्रिटी खबरों और कुछ ख़ास ख़बरों को सजाने, अच्छी हेडिंग लगाने में जाया होने लगी. न्यूज़रूम में रोज लड़ती थी, भीतर उससे ज्यादा लड़ा करती थी. एक टर्म हुआ करता था ‘डाउनमार्केट’. कोई समझ सकता है क्या कि इस टर्म का इस्तेमाल न्यूजरूम में होता हो और खूब होता हो तो कैसा लगता है. ये खबर डाउनमार्केट है, ये तस्वीर डाउनमार्केट है...इसे अंदर के पन्नों पर फेंको, इसमें ग्लैमर है इसे थोडा और बड़ा करो...पेज वन पर लाओ.

हम पत्रकारिता में नौकरी करने नहीं गये थे, हम तो पत्रकारिता को समझे थे मजलूमों के हक में खड़े होने वालों की जमात. शुरूआती दिनों में यह था भी. कि हमने अच्छी वाली पत्रकारिता के जाते हुए दिनों की पीठ भर देखी है. फिर पत्रकार को प्रोडक्ट की तरह देखा, सुना और पढ़ा जाने लगा. जाहिर है पैशन ब्रेक होना था, कब तक अड़े कोई कितना लड़े कोई. एक रोज तय कर लिया अब और नहीं...हालाँकि लड़ाई छोडकर चल देना मुझे अब भी ठीक नहीं लगता. हर इन्सान जो जहाँ है अपने हिस्से का बदलाव करने के लिए जूझता रहे तो भी कुछ न कुछ हो ही सकता है. लेकिन मैं अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते लड़ते थकने लगी थी...सैचुरेशन की इंतिहा हो गयी थी, नकारात्मकता घेरे रहती थी. और एक रोज रिश्ता तोड़ लिया अख़बारों की दुनिया से, नहीं शायद यह कहना ठीक होगा कि अख़बारों की नौकरी करने से रिश्ता तोड़ा.

आजाद होकर वैसा ही लग रहा था जैसा आज़ाद होकर लगता है. सुकून और बेचैनी का कॉकटेल हो रखा था जेहन में. सुकून कि अब मैं आजाद थी, बेचैनी कि आगे क्या?

लिखने के सिवा तो कुछ आया ही नहीं, हालाँकि लिखना भी कितना आया यह भी पता नहीं. फिर कुछ अख़बारों और पत्रिकाओं से आये नयी नौकरियों के प्रस्ताव पर्स में डालकर चली गयी गोवा घूमने. सोचा कुछ दिन कोई नौकरी नहीं. वहीँ गोवा में एक मित्र का फोन आया कि अपना सीवी भेजो, मैंने दोस्तों से कभी पलटकर क्यों, क्या आदि पूछा नहीं. खुद पर ज्यादा भरोसा करने से ज्यादा भरोसा करने लायक दोस्तों का जिन्दगी में होना शायद इसका कारण होगा. तो गोवा से चला वो एक पेज का सीवी आ पहुंचा अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन जहाँ मैं पिछले 8 बरसों से हूँ. एक पेज के सीवी की कहानी भी अजीब है कि बचपन में पोलिश कवियत्री विस्साव शिम्बोर्स्का की कविता पढ़ ली थी बायोडाटा जिसमें वो लिखती हैं कि जीवन कितना भी बड़ा हो/बायोडाटा छोटा ही होना चाहिए. वैसे मेरा तो जीवन भी छोटा ही था. क्या लिखती मैं. और बायोडाटा बनाया भी पहली बार ही था कि इसके पहले बायोडाटा बनाने की जरूरत पड़ी नहीं थी. तो वो एक पेज का पुर्जा जिस पर बायोडाटा लिखा था भेज दिया गया.

मैंने बस नाम भर सुना था अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन का और यह भी कि एजुकेशन में काम करता है. क्या काम, कैसे काम करता है कुछ पता नहीं था. सच में कुछ भी नहीं. और जब इंटरवियु के लिए कॉल आई तो कुछ लोगों ने वेबसाईट की लिंक भेज दी कि पढ़ लो, जान लो संस्था के बारे में. मैंने सोचा पढकर जाना तो क्या जाना, जायेंगे, मिलकर जानेंगे. शिक्षा के बारे में मेरी समझ उतनी ही थी जो मेरे स्कूल कॉलेज के अनुभव थे और अख़बारों में काम करने के दौरान आने वाली ख़बरें. जाहिर है यह बेहद नाकाफी था. हाँ, मुझे यह जरूर पता था कि यह जो सिस्टम है न शिक्षा का बहुत बुरा है. ये सीखने के मौके कम देता है, न जानने वालों को अपमानित करने के तरीके ज्यादा जानता है.

सरकारी स्कूलों में पढने से लेकर शहर के बेहतरीन कॉलेज, यूनिवर्सिटी तक में पढ़ने के अलग-अलग अनुभवों में यह बात एक सी ही थी कि कुछ बेस्ट स्टूडेंटस ही शिक्षा व्यस्व्स्था के परचम को लहराते हैं. चाहे वो अख़बारों में टापर्स की तस्वीरों का छपना हो या खुलेआम कुछ बच्चों को कम जानने पर अपमानित किया जाना.

मेरे सामने एक ऐसी संस्था थी जो मुझसे पूछ रही थी कि इस शिक्षा व्यवस्था को लेकर मेरी राय क्या है. सच कहूँ मेरा मन कसैला ही था. कक्षा 1 और 2 में पढ़ाने वाले गोपी सर के अलावा कोई शिक्षक याद नहीं जिसने मेरी शिक्षा को बेहतर बनाया हो. गोपी सर भी पढ़ाने के लिए कहाँ याद हैं, वो याद हैं कि वो मेरी चुप्पी को समझते थे और सर पर हाथ रखते हुए हौसला देते थे.

मैंने एक बात जानी है अपने जीने से कि ईमानदारी और सच्चाई के लिए आपको कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती. आप जैसे हैं वैसे ही खुद को रख दीजिये...बस. यही मैंने हमेशा किया. यह संस्था अजीब ही थी/है. यह आपसे सवाल नहीं करती आपके सवालों को रिसीव करती है. मैंने सिर्फ इतना कहा था कि मुझे खुद से सिर्फ लिखना ही आता है थोड़ा बहुत, अगर शिक्षा में बदलाव के इस बड़े काम में मेरा यह काम किसी तरह कोई भूमिका निभा सके तो मुझे ख़ुशी होगी.

ऐसी संस्थाएं या ऐसे लोग मैंने नहीं देखे जो आपको आपके जानने से जायदा आपकी मंशा को परखते हैं. मुझे काफी समय लगा संस्था को समझने में, शिक्षा के मुद्दों को समझने में, दिक्कत कहाँ है, कैसे दूर हो सकती है. मेरे लिए हर दिन कुछ नया सीखने का दिन था. हर दिन एक नयी चुनौती से टकराने का. जैसे कक्षा 1 में फिर से दाखिला लिया हो. उजबक की तरह सबको सुनती थी, समझती थी, हाँ लिखने पढने को लेकर मेरी पिछली भूमिकाओं को देखते हुए संसथान ने मुझे प्रकाशन जिम्मेदारी जरूर दे दी थी. मैंने शिक्षकों की कहानियों को करीब से जाकर देखा, सुना महसूस किया. यह मेरे भीतर के पत्रकार को भरपेट मिलने वाली खुराक जैसा था. इन कहानियों को देश भर के अख़बारों में पत्रिकाओं में प्रकाशित होने भेजना शुरू किया. अपने अनुभवों को लिखना शुरू किया. और शुरू किया एक नया सफर न जाने हुए को जानने का. दूर-दराज के शिक्षकों से मिलती उनकी जर्नी को समझती, बच्चों से मिलती सब कुछ बदल रहा था. मैं बदल रही थी. हर दिन मेरा विद्यार्थी होना निखर रहा था.

अब समझ में आना लगा था कि असल में शिक्षा ही है बदलाव का असल टूल. और शिक्षा को डिग्री समझना बड़ी भूल है. शिक्षा में वो क्या और क्यों मिसिंग है जो एकेडमिक ग्रोथ की तरह धकेलते हुए ह्यूमन होने से दूर कर देता है. वो क्या है जो काम्पटीशन और होड़ बनाकर रख देता है शिक्षा को. समाज में यह जो असमानता, भेदभाव है क्या इसका कारण अशिक्षा है या ठीक शिक्षा का न होना है? दिमाग में हलचल होने लगी थी. मैं शिक्षा के उन डाक्यूमेंट्स को पढ़ रही थी जिनके नाम सुनकर शुरू शुरू में डर लगता था. उन शिक्षाविदों को पढ़ रही थी जिनके भारी भरकम नाम डराया करते थे.

मैं उन चिंतकों और फिलॉसफर्स को अब नए पर्सपेक्टिव से पढ़ रही थी जिन्हें पॉलटिकल साइंस की स्टूडेंट होने के नाते और अपनी इच्छा के चलते भी अलग पर्सपेक्तिव से पढ़ा था. पढ़ना मुझे हमेशा से पसंद था. राजनीति और साहित्य मेरे प्रिय विषय रहे. अब मैं नए जानर में प्रवेश कर रही थी. गिजुभाई, फ्रेरे को एक साथ पढ़ने के अनुभव थे. वाय्गोसकी, को दोस्तोवस्की को साथ में पढ़ रही थी. कृष्ण चंदर और कृष्ण कुमार को पढ़ रही थी. मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था एक अवेयर लर्नर होना. जिस पर कोई प्रेशर नहीं था कुछ पढने का इम्तिहान देने का, कहीं खुद को साबित करने का. लेकिन अगर आप चाहें तो पूरे मौके थे पढने के समझने के. अनुभव करने के लिए स्कूलों की, गांवों की यात्राएँ थीं और उन सब कामों को फील्ड के साथियों के अनुभवों को सहेजने के लिए हमारे पास दो पत्रिकाएं थीं, उम्मीद जगाते शिक्षक और प्रवाह.

कोई भी काम आपको कितना ही अच्छा लगता हो और आप उसे कितने ही बेहतर ढंग से करते हों एक दिन आप उससे ऊब ही जाते हैं. लेकिन इस संस्था में आपको लगातार खुद को एक्सप्लोर करने का, नया सीखने का अवसर मिलता रहता है. मैंने यहाँ भाषा में काम करना शुरू किया. पढ़ना कैसे बेहतर होता है और पढ़ाना कैसे बेहतर होता है इसको लेकर समझ को विकसित करना और जुड़ना स्कूलों से. हर दिन कोई नयी ऊर्जा लिए घर लौटना होता था. कई बार मेरी आँखें पनीली हो जाती थीं, जब कोई शिक्षक यह कहता वो जो आपने बताया था न मैंने वैसे किया और बच्चों को बहुत अच्छा लगा. इतना सुख होता है जब स्कूल में आया देख बच्चे ख़ुशी से चहक उठते.

ये नयी दुनिया मेरी दुनिया बदलने लगी. जब कोई आप पर भरोसा करता है न तब वह उस भरोसे के लायक बनने की जिम्मेदारी भी थमा देता है. भाषा में को-डेव की प्रक्रिया ने बहुत सिखाया. सब मुझसे ज्यादा जानते थे, जानते ही हैं मैं सबसे सीख रही थी. मेरे पास वो सवाल थे जो बच्चों को सीखने के बीच खड़े थे, वो सवाल थे जो शिक्षकों के सिखाने के बीच खड़े थे. अपने से मेरे तईं हमेशा सवाल ही रहे हैं मैं उन सवालों को लेकर घूमती, जो मिलता उससे पूछती, किताबें पलटती रही. यह यात्रा अभी चल रही है. भाषा में काम करने के दौरान डायरी और यात्रा विधा पर काम करना बहुत समृद्ध करने वाला अनुभव रहा. डायरियां पढ़ी खूब थीं, यात्राएँ करने का शौक रहा है लेकिन इनका पढने-लिखने से जुडाव देख पाना और उस जुडाव को कक्षा में करके देख पाना एक अलग ही अनुभव था. बच्चे जब स्कूल में डायरी लिखने लगे, पत्र लिखने लगे और फिर वो जब बताते उन्हें कैसा लगा तो लगता कि लिखने को लेकर जो गांठें हैं खुल रही हैं. यही शिक्षकों के संग भी हुआ. बहुत सारे शिक्षक साथियों ने डायरियां लिखनी शुरू की, पढने-लिखने की संस्कृति के तहत ढेर सारे शिक्षक साथियों ने अपने अनुभव साझा किये कि किस तरह पढ़ना व्यक्ति के तौर पर समृद्ध करता है और जाहिर है शिक्षक के तौर पर भी और जिसका सीधा जुड़ाव कक्षा शिक्षण से होता ही है.

रेखा चमोली की डायरी इसका एक बड़ा प्रमाण बन चुकी है. शिक्षक साथियों और अपने फाउन्डेशन के साथियों में भी लिखने को लेकर जो संकोच था उसे तोड़ने की कोशिश की. इसलिए नहीं कि किसी को लेखक बनाना उद्देश्य था, या सबको लेखक ही बन जाना चाहिए. नहीं, बल्कि इसलिए कि अनुभवों को सहेजा जाना जरूरी है. शिक्षकों का अपने शिक्षकीय अनुभवों को लिखना वैसा ही है जैसे किसान का लिखना अपने खेत की मिट्टी और फसल के बारे में लिखना. मुझे पुश्किन हमेशा ऐसे मौकों पर याद आते हैं, जब वो कहते हैं, ‘अच्छा शास्त्रीय और सधा हुआ लिखना आसान है, ऊबड़ खाबड़ और सच्चा लिखना कठिन.’ मैं सबको सच्चे और ऊबड़-खाबड़ की ओर जाने को कहती. मैं भी तो उसी राह पर हूँ अच्छे लिखे की किताबों से तो दुनिया भर के पुस्तकालय भरे ही हैं. शिक्षक साथियों की हिचक टूटने लगी, फाउन्डेशन के साथियों की भी. उनके सच्चे सरल अनुभवों से शिक्षा जगत में सकारात्मकता की रौशनी जल उठी है.

इधर शिक्षक साथी कलम से दोस्ती करने लगे हैं उधर मेरा सीखने की इच्छा से रिश्ता लगातार गाढ़ा हो रहा है. इसमें लगातार कुछ नयापन जुड़ रहा है. इन दिनों गणित की दुनिया के दरवाजे खुले हैं. जिन नम्बरों को देखकर डर लगा करता था अब उनसे दोस्ती होने लगी है. किसी भी सीखने की शुरुआत की पहली सीढ़ी उस अजाने से दोस्ती होना ही तो है.

सीखने का यह सफर चल रहा है. हम सब को-लर्नर के तौर पर एक साथ जुड़े हैं और हाथ थामकर चल रहे हैं. इस हाथ थामने की खूबी यह है कि किसी को कुछ ज्यादा आता होगा किसी को कुछ कम लेकिन को-लर्नर होते ही वो जानना और कम जानना सबका साझा होने लगता है. जानने का कोई अहंकार नहीं होता, न जानने की कोई गिल्ट नहीं होती यह सफर हर किसी को समृद्ध करता रहता है...

मैं एक बेहतर विद्यार्थी होना सीख रही हूँ.



Sunday, November 8, 2020

जब मिलेंगे तो खिलेंगे



जब सुबह आयेगी
तब नहीं आयेगी सुबह
वो आयेगी जब
तुम्हारे शहर से होकर आयेगी
जब बारिश आयेगी
तब कहाँ आयेगी बारिश
वो तो तब आयेगी
जब साथ बिताये पलों की स्मृतियों से
तर ब-ब-तर हो उठोगे तुम
धूप ठिठकी रहेगी देहरी पर
बस कहने को जरा सी बात
कि तुम्हें छूकर नहीं आ सकी आज
तुम सोये रहे देर तक
और काम पर निकलना था
धूप को
उदास थी वह
उदास दिनों की
उदास कलियो ने
कान में फुसफुसा कर कहा
जब सब बिछड़े लोग मिलेंगे अपनों से
तब हम खिलेंगे संग-संग

Saturday, November 7, 2020

कहाँ जाते होंगे वो ख्वाब ...



वो नदी क्या सोचती होगी
जिसमें लहराती मिली थी धानी चुनर
उस किशोरी की
जिसने 15 की उम्र में किया था प्रेम

वो पेड़ कैसा महसूस करता होगा
जिसकी फलों और फूलों से लदी शाख पर
झूल गयी थी वो लड़की
जिसकी नाजुक कलाइयों में
गुलाबी चूड़ियाँ पहनाई थीं
इसी पेड़ के नीचे एक रोज
उसने जिसने प्रेम का नाम लेकर
निचोड़ लिया था उसकी देह को

उस पंखे को कैसा लगता होगा
जिसे ठंडी हवा देने के लिए टांगा गया था
और जिस पर झूल गयी
हरदम मुस्कुराने वाली गृहिणी
जो चौथी बार गर्भ से थी
और नहीं तैयार थी गर्भपात को

वो रेल कैसा महसूस करती होगी
मुसाफिरों को उनके ठीहे पर पहुंचाते हुए
उसके सामने फेंक दिया गया था
एक प्रेमी जोड़ा

नींद की उन गोलियों का क्या
जिन्हें सिर्फ कुछ घंटों को सोने की रियायत
थाम रखी थी अपने भीतर
और ढेर सारी गोलियां निगल कर
हमेशा के लिए सो गयी थी
बेटे के इंतजार से थक गयी बूढी माँ

क्या बातें करते होंगे पेड़, नदी, रेल,
नींद की गोलियां जब मिलते होंगे
कहाँ जाते होंगे वो ख्वाब
जो देखे जाने से पहले रौंद दिए जाते हैं.