Friday, June 13, 2025

कुछ सवाल, कुछ बेचैनियों का संसार है ‘कबिरा सोई पीर है’



'कबिरा सोई पीर है' उपन्यास पर जगमोहन सिंह कठैत जी ने आत्मीय और मौजूं टिप्पणी लिखी है। जगमोहन जी लंबे समय से सामाजिक मुद्दों पर गहराई से काम कर रहे हैं। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन में कार्यरत हैं और मुख्य रूप से संवैधानिक मूल्यों को युवाओं के माध्यम से जन जन तक कैसे पहुंचाया जाय, किस तरह जीवन में उतारा जाय ताकि एक ऐसे समाज की संरचना हो सके हो जिसका ख़्वाब संविधान के पैरोकारों ने देखा था इस कार्य की केंद्रीय भूमिका में हैं । इस उपन्यास पर उनकी समृद्ध दृष्टि और विचार अतिरिक्त महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि यह उपन्यास इसी राह में हिचकोले खाते किरदारों की कथा है। प्रतिभा की दुनिया की तरफ से जगमोहन जी का आभार। 

- जगमोहन सिंह कठैत
“कबिरा सोई पीर है” को पढ़कर पूरा किये काफी दिन हो गए हैं लेकिन यह किताब दिमाग से उतर नहीं रही है। तो इसके बारे में लिखना जरूरी लगा। शुरू में ही इस बात को स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि यह किताब कबीर के बारे में नहीं है ताकि मेरी तरह कोई दूसरे पाठक भी पुस्तक के शीर्षक ये अपेक्षा न लगा लें कि पुस्तक कबीर के बारे में है। यह प्रतिभा कटियार का उपन्यास है। ऐसा उपन्यास जिसे एक बैठकी में पूरा पढ़ा तो जा सकता है लेकिन उपन्यास में आए पात्र, घटनाएँ दिमाग में चलते रहते हैं।

यह उपन्यास किस बारे में है इसके लिए तो उपन्यास पढ़ना होगा फिर भी इसे पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद जो प्रतिबिम्ब दिलोदिमाग पर बने उन्हें दर्ज करना जरूरी लग रहा है। कुछ हिस्से ऐसे थे जिन्होंने शांति को तोड़ा। कुछ जगह पात्रों की पीड़ाओं को महसूसने के बाद दिल बैठ गया तो कुछ पात्रों ने विपरीत परिस्थितियों मे भी न्यायोचित समाज के आस बँधाये रखी।

उपन्यास जाति से उपजे भेदभावों की पीड़ा को बखूबी उभारता है। न केवल जाति बल्कि जाति में भी महिलाओं की पीड़ाओं को और उनकी मनोदशाओं को किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के दिल के तारों मे झंकार पैदा करता है। एक तरफ वंचित तबके को मिलने वाली सुविधाएं और आरक्षण का उजला एहसास करवाता है तो दूसरी तरफ सफलता चाहे अपनी ही काबलियत से मिली हो लेकिन दलित और वंचित होने के तमगे से निकलने वाले ताने-बाने इतने निर्दयी होते हैं कि उनके घाव ऐसे रिसते हैं कि एक बार को इंसान होने पर ही शक होने लगे।

उपन्यास में यह बात बहुत खूबसूरती से उभरी है कि सत्ता में जो व्यक्ति होते हैं, ये सत्ता चाहे किसी पद की, जाति की, जेंडर या वर्ग किसी भी प्रकार की हो वो आसानी से अपने से नीचे ग्रुप/तबके की प्रगति को अपने से आगे होने की स्थिति को पचा नहीं पाते। यह बात अनुभव और तृप्ति के संवाद मे साफ तरीके से उभर कर आती है जब तृप्ति (दलित लड़की) प्रशासनिक सेवा की मुख्य परीक्षा तो पास कर लेती है लेकिन अनुभव नहीं कर पाता है। परीक्षा की तैयारी दोनों साथ ही करते हैं और लोगों का अनुमान था कि अनुभव तो पास कर ही लेगा लेकिन परिणाम ऐसे नहीं आए। लोगों को लगता है कि तृप्ति दलित होने के कारण परीक्षा पास कर पायी। एक लड़की की प्रगति एक संवेदनशील लड़का जो कि घनिष्ठ दोस्त है कैसे देखता है और क्या महसूस करता है, अनुभव के मन की उथल-पुथल से हम सहज महसूस कर सकते है। 'मैं खुद के भीतर चल रही इस उलझन को समझ नहीं पा रहा हूँ तृप्ति। मुझे लगता था मैं काफी लिबरल हूँ, लेकिन इस एक घटना ने मेरी अब तक अपने बारे में बनाई गई राय को खंडित कर दिया। मुझे महसूस हुआ कि मेरे भीतर काफी पाखंड भरा है, लिबरल होने का पाखंड। मैं आम आदमी ही हूँ, आम पुरुष, बल्कि उनसे भी बुरा। क्योंकि मैंने अपने भीतर लिबरल होने का झूठ पाल रखा है।‘’ अपने मन के भावों को पढ़ पाने के लिए भी तो इंसान को संवेदनशील ही होना पड़ता है नहीं तो ये भाव भी कब लोग पढ़ पाते हैं। लेखिका ने इस भाव को बखूबी उभरा है। और यह वाक्य कि 'देख, है तो वो आदमी ही न और ऊपर से सवर्ण। जाते-जाते जाएगा जो भीतर भरा हुआ ईगो है सुपीरियटी का। यही सब तो दिख नहीं पाता सामान्य दिनों में’ भी एक समझदार व्यक्ति ही महसूस ही समझ सकता है उस व्यक्ति के बारे में जो बदलाव की ईमानदार कोशिश कर रहा है नहीं तो किसी की ईमानदार कोशिश भी धुल सकती है। यह बात तो कोई संवेदनशील लेखक ही उभार कर ला सकता है। एक बात और लेखिका यह लिखकर ‘इंसान का व्यक्तित्व उसके मज़ाक में सबसे ज्यादा खुलता है’ ने मुझे मेरे मज़ाक के अंदाज़ के प्रति मुझे सजग और संवेदनशील कर दिया। कई बार लगा कि बहुत सारे पात्र मेरे आसपास और मेरे घर में ही उपलब्ध हैं।

ईमानदारी एक बड़ा मूल्य है। अकसर तो लोग रुपये पैसे के लेन-देन की ईमानदारी को ही ईमानदारी मानते है लेकिन जो थोड़े समझदार लोग होते हैं वे पॉलिटिकल करेक्टनेस के साथ आचार-व्यवहार को ही ईमानदारी मान लेते हैं। सही मायने में तो ईमानदारी दिल की ईमानदारी होती है और वो भी अपने साथ। अपने विचारों को देख पाने की कि मेरा दिल क्या कह रहा है और दिमाग क्या कह रहा है और अंततः दिल की आवाज़ के साथ का रास्ता चुन लेते हैं। यदि कभी व्यावहारिक रूप से दिल की आवाज़ का रास्ता नहीं भी चुन पाते हैं तो वे दिल और दिमाग की इस बात के प्रति सजग और सवेदनशील होते हैं। इस ईमानदारी की ख़ुशबू आप इस उपन्यास में विभिन्न पात्रों के जरिए महसूस कर पाएंगे।



ऐसा नहीं है कि ये मूल्य लेखिका ने केवल अपनी बौद्धिक कौशलता से पिरो दिये हों बल्कि जो लेखिका को जानते हैं वे उनकी इस संवेदनशीलता की समृद्धि को समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। ऐसा नहीं होता है कि लेखन में लेखक के मजबूत पक्ष ही दिखते हैं और ये संभव भी कैसे हो सकता है, ईमानदार लेखन में तो लेखक का पूरा व्यक्तित्व उघड़ आता है। यहाँ भी आप जब उपन्यास से गुजरेंगे तो बहुत जगह पाएंगे कि लेखिका ने बहुत बार पात्रों के नेत्रों को ‘सजल’ किया है। कई जगह ऐसा भी लगता है कि नेत्रों की सजलता या आँखों से दो बूंदों का लुढ़कना कुछ ज्यादा तो नहीं हो गया। इस शब्द की आधिक्यता कभी पात्रों की कमजोरी की तरफ इशारा करती है तो कुछ जगह पठन के वेग को भी हिचकोले लगा देते हैं लेकिन अंततः पढ़ने में आनंद की अनुभूति ही देती है।

अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि जो भी साथी विचार के साथ नहीं भाव के साथ यात्रा करना चाहते हैं, जो साथी दिमाग नहीं दिल की आवाज़ के सहयात्री बनने की यात्रा में हैं यह उपन्यास उन्हें निखारने और सँवारने की यात्रा में सहयोगी रूप में काम करेगी।

(यह टिप्पणी आज जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित हुई है। सुभाष राय जी का शुक्रिया। )

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