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Tuesday, September 22, 2020

तुम्हारी मुस्कुराहटों का स्वाद


कई रोज हुए कि कोई दिन उगा नहीं. कई रोज हुए कि रात देहरी से हटी ही नहीं. रात का हाथ पकडे पकड़े मैं सुबह की राह तकती रही. लेकिन कई रोज हुए कि सुबह हुई ही नहीं. तुम नाराज न होना कि कई रोज हुए मैंने तुम्हें खत नहीं लिखा. यूँ लिखा कई बार वहीं जहाँ लिखा जाता है सबसे निश्छल सच पहली बार. मन के कागज पर अनुभूतियों के शब्दों से. जानती हूँ वही लिखा सबसे असरकारक होता है, वो तो बेलिखा भी प्यारा होता है न? याद है तुमको एक रोज जब मैंने मन के कागज पर लिखा था बूँद और तुम्हारा शहर बारिश से तर-ब-तर हो गया था. हाँ, ऐसा ही तो है हमारे बीच संवाद का रिश्ता. जब तुमने उस बारिश की ओर अपनी हथेली बढ़ाई होगी ठीक उसी वक्त मेरी देह में सिहरन उतर आई थी.

शब्द कितने नाकाफी हैं उस सिहरन को लिख पाने में...जानते हो फिर भी खतों का इंतजार करते हो? यूँ इंतजार करना अच्छा है कि यह इंतजार कितना कुछ बचाए हुए है हमारे बीच. रिश्तों के बीच जो अबोला होता है न वो कीमती होता है मैंने उस अबोले को अपने आंगन में बो दिया था. आज जब कई रोज बाद बरसता हुआ दिन उगा है तो देखती हूँ उस अबोले में अंकुर फूटे हैं...अब वो पौधे बनेंगे, फिर पेड़...फिर खुशबू से तर-ब-तर हो जायेगा मेरा शहर. बारिशें उन अंकुरों पर फ़िदा हैं. रात ने जाते-जाते हथेली पर इस सुबह का तोहफा रख दिया है...चाय में अलग ही स्वाद है आज. तुम्हारी मुस्कुराहटों का स्वाद.

Tuesday, August 4, 2020

कोई दुःख की बात नहीं है


कोई है जो अभी-अभी उठकर चला गया है पास से. कौन है वो? जब तक वो पास था तब तक उसके पास होने के बारे में पता क्यों नहीं चला. ये कैसी बात है जो पास था के बारे में दूर जाने के बाद पता चलती है. हवा एकदम सर्द हो चुकी है मेरे शहर की. और मैं ऐसे शहर में हूँ जहाँ जर्रे जर्रे में रेत बसती है. ऐसे तो धरती पर प्रेम को बसना था. हाथ बढाती हूँ तो हथेलियों में हवा भर जाती है क्या इस हवा ने मेरे हाथों की लकीरों को छुआ होगा. क्या जब बारिशें हथेलियों में उतरती हैं तब वो मेरे हाथों की लकीरों को छूकर उनसे कुछ कहती होंगी. क्या कोई लकीर अपने साथ बहा ले गयी होंगी...मुझे लगता है मैं जीवन की बाबत कुछ भी नहीं जानती.

'मेरे हाथ में जो अख़बार था. उसमें एक खबर पर मेरी नजर गई. जो खबर थी वह भी बड़े होते जाने और कुछ न बन पाने के डर की दुःखद दास्तान से भरी थी. जिया खान नहीं रही. उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.मेरे मन में आया कि ये जरूर कोई बड़ी हस्ती की बात होगी जिसने समाज पर गहरा प्रभाव डाला होगा. वरना आजकल मौत इतनी मामूली चीज़ है कि लोगों ने इस पर ध्यान देना बंद कर दिया है. कोई दुनिया से गुजर जाता है और हमारी आँखों में नमी नहीं आती. हम पल भर के लिए भी इस बात पर विचार नहीं करते कि एक सुंदर और कीमती जान ने इस दुनिया को छोड़ दिया है.' (कालो थियु सै के 'शायद' से)

मेरे सामने भी अख़बार है. उसमें भी ऐसी ही खबर है. नाम बदला हुआ है. कल कोई और अख़बार था उसमें भी ऐसी ही खबर थी. मुझे अख़बार की इन खबरों में वो खबरें भी दिखाई देने लगती हैं जो अख़बार में नहीं हैं. किसान, मजदूर, गरीब, कीटनाशक पीते दम्पति, पीट-पीटकर मार दिए गये लोग, अपने ही दुपट्टों को आकाश तक लहराने का ख्वाब लिए पेड़ों या पंखों से लटक गयी लड़कियां. बिना किसी गुनाह के सालों से जेलों में सजा काटते लोग और सीना चौड़ा कर हवा में कट्टा लहराते लोग.

वो आँखें जिनमें असीम सपने भरे थे उनके बारे में सोचना सुख देता है. उन सपनों को बचाने का जी करता है. सपनों से भरी तमाम आँखों को बचाने का जी करता है.

हमारे सामने दृश्य हैं जो हमें निगलने को आतुर हैं. चमचमाते दृश्य बजबजाते दुःख को छुपा देते हैं. हमें दुःख को छुपाना नहीं था उससे सीखना था. उससे जीवन को बुहारना था, दुनिया को सुंदर बनाना था. कल सारा देश दीवाली मनायेगा. कोई रामजी से मेरी अर्जी लगा दे काश कि वो इस धरती पर हो रहे अनाचार को रोक लें...

इस मनस्थिति में किशोर चौधरी को पढ़ना रुचिकर लग रहा है. किशोर बड़े और पैने सवालों को थमाते हैं. कभी शांत करते हैं कभी बेचैनी भी देते हैं. लिखना क्या है सिवाय अपनी बेचैनियों के और पढ़ना क्या है अपनी बेचैनियों को सँवारने के. जवाब तो जाने कहाँ होंगे...कहीं होंगे शायद....

Friday, June 26, 2020

ये जो पढ़ना होता है न



जब कोई लिखने की बाबत बात करता है तो मुझे लगता है उसे पढ़ने की बाबत बात करनी चाहिए. मसलन, लिखने में मुश्किल होती है, कैसे शब्द, कैसे वाक्य, कैसी क्रमबध्दता समझ में नहीं आता और तब मैं अपने भीतर कहीं दुबक जाती हूँ. मुझे इन सवालों के जवाब नहीं मालूम. लेकिन मुझे लगता है कि अगर मुझे मेरे लेखकों से कुछ पूछना हो तो मैं यह पूछने की बजाय कि फला महान रचना आपने कैसे लिखी मैं यह महसूस करना चाहूँगी कि कितने जख्म, कितनी सलवटें, कितनी पीड़ा और कितने सुख से गुजरा होगा यह लेखक. कितना अप्रिय है अपने प्रिय लेखक के सामने खुद को अपने अधकचरे लिखे के साथ एक लेखक की तरह पटक देना और मुस्कुराकर देखना लेखक की प्रतिक्रिया.

इन दिनों पहले से पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ रही हूँ, पहले देखे सिनेमा को फिर से देख रही हूँ. और मुझे कुछ नया ही दिख रहा है, कुछ नया समझ पा रही हूँ. शायद कुछ बरस बाद कुछ और पढ़ सकूं उसी रचना में. यह लेखक की नहीं पाठक की यात्रा की बाबत है.

साहित्यिक गतिविधियों की जोर आजमाइश से बहुत दूर पाठक को अपनी यात्रा खुद तय करनी होती है. लिखे हुए को उलट-पुलट कर देखते हुए अपने सम को समाज और लेखक के सम से मिलाते हुए. या मिलते हुए देखते हुए. मैं गोता लगाते हुए पढ़ती हूँ, इस प्रकिया में कई बार डूब भी जाती हूँ, गुड्प की कोई आवाज नहीं आती. लेकिन हर रचना डुबो ही देगी यह जरूरी नहीं. कुछ रचनाएँ मैंने रचनाओं की दहलीज पर बैठकर ही पढ़ लीं, वो अच्छी रचनाएँ थीं, कुछ रचनाओं को उनमें पाँव डालकर बैठे हुए पढ़ा. उन्हें पढ़ने का सुख हुआ. उन्हें पढ़ते हुए कई बार ठंडी हवाओं ने माथा सहलाया. कुछ रचनाएं इतनी निर्मम थीं कि उन्होंने बुक शेल्फ में सज जाना तो मंजूर किया लेकिन हाथ लगाने की मनाही कर दी, इस उद्घोषणा के साथ कि 'तुम अभी योग्यता ग्रहण करो'. उनके कुछ पन्नों तक जाकर लौट आना पड़ा हर बार. कुछ रचनाएँ विनम्र थीं, खुद आयीं पास, हाथ थामा और किलकते हुए खींचकर ले गयीं ठीक बीच धार में...फिर जब उस धार में धंसे रहने का सुख आने लगा उन्होंने हमें छोड़ दिया...

एक पाठक के तौर पर इन सब अनुभवों से गुजरना खूब हुआ. ऐसे ही बीच धार में छूटे हुए लम्हों में खुद के बारे में सोचते हुए महसूस हुआ कि मुझे इन दिनों कहानियों में रुचि कम होने लगी है. या यूँ कहूँ कि उन कहानियों में जिनमें यथार्थ का खुरदुरापन कम हो और लेखकीय कौशल ज्यादा. यूँ मुझे हमेशा से डायरियां पढ़ना ज्यादा पसंद रहा. डायरी पढ़ते हुए यात्राओं को पढ़ना अच्छा लगने लगा. फिर संस्मरण और कवितायें. उपन्यास, कहानियां पढ़ना जाने क्यों कम होता जा रहा है.

कहानियों का जो कहानीपन है मुझे कम रुचता है. सोचे हुए कथ्य के साथ लेखकीय कारस्तानियों को जानने से ज्यादा रुचि मुझे लेखक की सहज अभिव्यक्ति में है. शायद इसीलिए ऐसे तमाम लेखक हैं जिनकी डायरियों को, यात्रा वृत्तों को पढ़ने में खूब मजाआया लेकिन उनकी कहानियों से रिश्ता बना नहीं. 

हालाँकि कल एक और खेप आई है किताबों की, जिनमें कुछ उपन्यास भी हैं और कहानियां भी.

Tuesday, June 23, 2020

नींद तुम ख्वाब मैं


भरे-भरे बादल कबसे टंगे हुए हैं...ये किसके इंतजार में हैं. बरसते क्यों नहीं. जाने कहाँ चला गया है चिड़ियों का झुण्ड कि चुपचाप झरती पत्तियों की आवाजों को फिर से गाड़ियों के शोर ने ढांक दिया है. फल सारे उतर चुके हैं पेड़ों से शाखें खाली हैं, उदास हैं. यह ठहरे हुए लम्हे सहन नहीं हो रहे. मैंने फूलों की डाल को जोर से हिलाया कि कुछ हरकत तो है, कि यह स्टिल दृश्य नहीं है.

फूलों से भरी डाल इतनी जोर से हिलाए जाने बाद भी एक भी फूल नहीं छोडती धरती पर गिरने के लिए. ऐसा कैसे हो सकता है. लेकिन यह हो रहा है. कल रात मेरी नींद में जो ख्वाब चला आया था वो मेरा ख्वाब नहीं था तो वो मेरी नींद में क्यों था. उसमें मैं क्यों थी. अगर उसमें मैं थी तो मेरी बात सुनी क्यों नहीं गयी. बहुत अजीब है ये सब. मैं ऐसे तमाम सपनों को तोड़ दूँगी जिसमें मुझे जबरन रख दिया गया होगा और जिनमें मेरी आवाज की कोई आवाज नहीं होगी.

मैं नींद से उठकर पूरे घर का चक्कर लगाती हूँ ताकि उस उस ख्वाब को पटखनी दे दूं. उस ख्वाब को तो मैंने तोड़ दिया जो मेरा नहीं था लेकिन मेरी नींद में पैबस्त कर दिया गया था लेकिन इस सुबह का मैं क्या करूँ?

सोचती हूँ उसकी नींद का ख्वाब बन जाऊं...उसे वैसे ही दिक् करूँ जैसे वो मुझे करता रहा है...ख्वाब का यह ख्याल भी कितना सुंदर है.

डाल पर मुस्कुराते हुए फूलों को देखती हूँ, यूँ किसी के कहने पर डाल से न झरना, झरना तब जब तुम्हारा मन हो,..ये आंधियों को मुंह चिढाने की प्रैक्टिस है. मैं भरे हुए बादलों को देख रही हूँ, वो मुझसे कह रहे हैं,' तुम खुद बरस क्यों नहीं जातीं? मैं कहती हूँ ऑफिस को देर हो रही है...

Monday, June 22, 2020

रिहा होना जरूरी है...

तस्वीर-गोवा के एक गाँव की 

मेरे भीतर जो शब्द भर गये थे, उन्हें उलीच रही हूँ कुछ दिन से. अब जब काफी शब्दों को उलीच के बाहर फेंक चुकी हूँ तो देख रही हूँ उन शब्दों ने 'बहुत कुछ' को ढंक रखा था. वो बहुत कुछ जो जाने कहाँ से आ गया होगा. उस बहुत कुछ में निराशा का हिस्सा ज्यादा है. निराशा जो उम्मीद से जन्म लेती है. निराशा जो ज्यादा होते जाने पर दुःख बन जाती है.

फिर मैंने बचे हुए शब्दों को भी निकाल फेंकना चाहा, मैं उस 'बहुत कुछ' के करीब जाना चाहती थी जो मुझमें है और मुझे लग रहा था वो नहीं है. यह तो बेईमानी हुई न. मेरे ही भीतर  'यह बहुत' कुछ चिपक कर रह रहा है और मुझे ही पता नहीं. लेकिन जब बचे हुए शब्दों को मैंने खींचकर अलग करना चाहा तो मुझे बहुत दर्द हुआ. चीख निकल गयी. ये शब्द मेरी आत्मा से चिपक गये थे. इन शब्दों में जैसे मेरा खून बहने लगा है. इन्हें अलग करना लहूलुहान होने के सिवा कुछ नहीं. फिर मैंने इन कुछ शब्दों को छोड़ दिया. यह मान लिया कि ये शब्द अब जड पकड़ चुके हैं.

मैंने उस 'बहुत कुछ' को निकालकर बाहर मेज पर लाकर पटक देना चाहा, लेकिन वह 'बहुत कुछ' मुस्कुरा दिया. वह बहुत कुछ मेरी कामनाओं, इच्छाओं से बना था. वो जो छोटे-छोटे दुःख थे असल में वो बड़े दुखों को ढंके हुए थे, वो जो छोटे-छोटे से सामान्य शब्द हैं वह बहुत बड़े दुःख के तिलिस्म को संदूक में बंद करके ताला लगाने की कोशिश हैं. लेकिन क्यों बड़े दुःख को संदूक में बंद करना, क्यों रिहा नहीं करना.

शायद इसलिए कि रिहा करने से पहले रिहा होना जरूरी होता है. यह जो ढेर सारे चमकीले शब्दों के नीचे तलहटी में धंसा हुआ है 'बहुत कुछ' होकर वो रिहा नहीं होने देता कुछ.अचानक छुपाकर रखा हुआ दुःख तलहटी पर उतर आया. तैरने लगा. मुझे बहुत घबराहट हुई. मैंने अपने भीतर से उलीच कर बाहर फेंके हुए शब्दों को फिर से अंदर भर लिया. कुछ नए चमकदार शब्दों को भी भर लिया.अब कुछ ठीक लग रहा है...लेकिन यह 'कुछ ठीक लग रहा है' असल में धोखा है. क्योंकि अब मैंने अपने भीतर के उस बहुत कुछ को देख लिया है अब शब्दों के जादू से उसे ढंक नहीं पाऊंगी.

सोच रही हूँ एक दिन मैं बिना शब्दों के काम चलाना सीख जाऊंगी. सिर्फ मुस्कुराकर या पलकें झपकाकर या सिर्फ उन शब्दों से जो मुझमें अब सांस लेने हैं. और तब यह बहुत कुछ मेरे भीतर नहीं रहेगा, दुःख भी नहीं रहेगा...फिर मैं उस खाली जगह का क्या करूंगी...

मैं अपनी काफ्काई हरारत से निकलकर चाय का पानी चढाते हुए सोच रही हूँ...बेवजह की चीज़ों की तरह बेवजह के शब्द भी खूब जमा कर लिए हैं हमने. करतब दिखाने वाले शब्दों से मुझे चिढ है. चाय की भाप के साथ अदरक इलायची की खुशबू भी मेरे चेहरे पर जमा हो रही है...सबसे सच्चा शब्द कौन सा है जीवन का...

Sunday, June 21, 2020

छूटी हुई चीजों की जड़ें निकल आती हैं...


और इस तरह मैंने जड़ें फूटने की आस में कुछ पन्ने छोड़ दिए पढ़ने से...क्योंकि सुना है छूटी हुई चीज़ों की जड़ें निकल आती हैं. अब तक पढ़े हुए को बार-बार पढने की इच्छा को मुठ्ठियों में जोर से भींचकर कल सारा दिन नीम हरारत में गुजारना अच्छा था. जड़ें फूटने की आस के बीज को बाहर रख दिया. बारिश में. अंकुर फूटेंगे यह सोचकर.

सब कुछ होना बचा रहेगा...को किसी मन्त्र की तरह बुदबुदाते हुए पहली बार विनोद कुमार शुक्ल जी से हुई छोटी सी बात को बार-बार याद करती रही.

अदरक नहीं थी घर में, मुझे बिना अदरक वाली चाय पसंद नहीं फिर भी कल मैंने दिन में कई बार चाय पी. और चाय मुझे बुरी नहीं लगी. फिर मैंने अकीरा कुरोसावा का सिनेमा देखा, मंगलेश डबराल जी की फेसबुक वॉल पर कुछ दिन पहले कविता और सिनेमा की बात देखी थी. पढ़ी नहीं थी, सिर्फ देखी थी. उस देखी हुई बात को कल ढूंढ निकाला. पढने के लिए नहीं, ठीक से देखने के लिए. कभी-कभी मुझे लगता है पढने को देखने जैसा होना चाहिए, जीने जैसा होना चाहिए. और देखने को छू लेने जैसा होना चाहिए. लिखने को फूलों के खिलने जैसा या फफक कर रो लेने जैसा होना चाहिए.

मैंने कुरोसावा को शायद बचाकर रखा था देह के ताप को मन की ठंडक से बदल लेने के लिए. कम्बल में दुबक कर VILLAGE OF WATERMILLS देखी.
https://vimeo.com/31359086?fbclid=IwAR34A2lNdXvkVrou6iH4AJGvq1yRpSfwCeEAenYLQndGh6xObGsm-ufXPwY

'विलेज ऑफ वाटरमिल्स' देखते हुए तीव्र इच्छा हुई मर जाने की. मैंने सोचा कि काश जब मैं मरुँ तब उत्सव हो. सब लोग खूब डांस कर रहे हों, अपनी पसंद का खा रहे हों, अच्छे कपडे चुन रहे हों उत्सव के लिए, फूल हों ढेर सारे और मुझे झरनों के आसपास कहीं देह से मुक्त किया जाय. जहाँ से बच्चों का गुजरना होता हो, मैं हमेशा फूलों, बच्चों की खिलखिलाहटों और झरनों की आवाजों के बीच सांस लेती रहूँ...वाह मरने के बाद भी सांस लेते रहने का ख्याल. कितना लालच है जीने का जो मृत्यु के बाद भी मुक्त नहीं हो रहा. फूलों से घिरे लकड़ी के उस पुल पर बैठकर झरनों की आवाजें सुनने की इच्छा के बीच क्रोएशिया जाने का सपना जाने कहाँ से आ गया. खुद को छूकर देखा तो हरारत मुस्कुराने लगी थी. ये हरारत जानी-पहचानी है. ये मन की दशा के संग चलती है. 

फिर संज्ञा  ने फ़ोन पर कहा, सो जाओ...उसे कैसे पता चला कि मुझे सोना है...फिर मैं सो गयी. लेकिन मैंने नींद में अपने भीतर एक हुडक एक हूक महसूस की. क्या ये नई जड़ों के फूटने की हूक थी? मैं हर नये दिन के प्रति जिज्ञासा से भरी हुई होती हूँ. कि दिन उगेगा, उसकी मुठ्ठी खुलेगी और उसमें होगा कुछ ऐसा जो एकदम नया होगा...वो क्या होगा पता नहीं. हो सकता है पुरानी किसी छूटी चीज में जड़ें फूट आयें और कल्ले फूटने लगें...

आज बारिश नहीं हो रही है...सोचती हूँ पास रखी किताब को उठा लूं तो शायद बारिश भी आ जाये...लेकिन नहीं उठाती. खुला हुआ आसमान धुला हुआ आसमान लग रहा है...



Saturday, June 20, 2020

सब कुछ होना बचा रहेगा


यह कैसा अनुभव है, कैसी सिहरन है ये, कैसी बेचैनी है. यह एकदम जाने पहचानी नहीं. कल की सुबह जिस सुख के एहसास से भरी हुई थी वो सुख शाम तक गुम होने लगा. उस सुख में सेंध लगाकर जाने कहाँ से एक उदासी भी आ गयी. कल दोपहर के बाद यह उदासी सुबह के सुख में शामिल हुई थी. जब बारिश की तेज़ झड़ी के बीच मैंने ऑफिस के कॉरिडोर में 'बहुत दूर कितना दूर होता है' के ढेर सारे पन्ने पढ़े...मैं रुकना चाहती थी...रुक जाना चाहती थी, रुकी ही रहना चाहती थी लेकिन रुक नहीं पा रही थी. पहली बार मुझे अपनी तेज पढ़ने की आदत पर गुस्सा आया. क्यों मैं धीरे नहीं पढ़ सकती, क्यों मैं एक पन्ने पर दिन भर अटकी नहीं रह सकती. हालाँकि पढ़ चुकने के बाद तो अटकी ही हुई हूँ...

मैंने इस बेचैनी के बारे में लिखने की सोची कि पेज 136-137 पर लिखी लाइनों पर गयीं- 'कैसे यह यात्रा इतनी जल्दी अपने अंत पर है...इसके बाद फिर वापस एक असीम रिक्तता. शायद पहले से ज्यादा ही. कितना याद रहेगा इन पन्नों से गुजरते हुए उन अंधेरी रातों में जंग-हे के साथ चलना, बेनुआ की हंसी, कैथरीन की आँखें. खुद से देर तक बोलने की तड़प में बातें करना. कैफे के वेटर्स...यहाँ वहां की मुस्कुराहटें, लम्बी वॉक, सुस्त दोपहरें, कॉफियां और वह सब जिनके नाम धुंधले होते जा रहे हैं. और जिनका नाम मैं लेना नहीं चाहता. सारा कुछ. दो और दिन हैं मेरे पास...इन दो दिनों में जीने की इच्छा है अपनी ही यात्रा वापिस पढने की. शुरू से पूरा का पूरा वापिस जीने की. पर अभी नहीं, अभी कुछ और बचा है...'

यही एकदम यही तो चल रहा था मेरे मन में लेखक ने यह भी लिख दिया है. मुझे गुस्सा भी आया हंसी भी...लेकिन ज्यादा रोना आया. तभी बारिश की रफ्तार बढ़ गयी.

जब इस किताब को पढना शुरू किया था कितना उत्साह था. कितना सुख था हर पन्ने से गुजरने का. किताब का ज्यादा हिस्सा मैंने बारिश की आवाजों के बीच पढ़ा है. यह इत्तिफाक है कि यह किताब भीगते हुए ही घर पहुंची थी मानो अपने हिस्से की बारिशें लेकर आई हो और अब जबकि यह मुझे मेरे हिस्से की बारिशों के हवाले करके जाने वाली है, खत्म होने वाली है एक गहरी उदासी तारी हो गयी है. उदासी मेरी देह पर रेंग रही है. तो अब मैं क्या करूंगी...अब मेरी सुबहों में कौन होगा, कौन बीच दोपहर में कॉफ़ी पीने की इच्छा को आदेश में परिवर्तित करके सीधे रसोई में खड़ा कर देगा.

वापस फिर उस अंधी सुरंग में जाने का एकदम मन नहीं जहाँ सब व्यवस्थित और तयशुदा है, इस व्यवस्थित और तयशुदा होने में कितनी ऊब है, कितना विचलन. इन दिनों फैला हुआ घर बुरा नहीं लग रहा, बिखरा हुआ जीवन सुंदर लग रहा है...खुद को बेतरतीब शामों के हवाले करने में आनन्द आने लगा है. घर में टहलती चिड़िया से गप्पें लगाना रुचिकर लग रहा है. देहरादून की सड़कों पर भीगते हुए बारिश को महसूस करते हुए फ़्रांस की गलियों में भटकने का सुख लेने लगी हूँ...जैसे कोई जादू घट रहा हो.

लेकिन अब यह यात्रा समाप्ति की ओर है और मन घबराहट से घिर गया है. पढूं या न पढूं की बेचैनी के बीच Martine आ चुकी है. वही Martine जो 2012 में उत्तराखंड में मिली थी. सात बरसों के फासले में कितना कुछ बदल गया है. 'सेपरेट' होना सिर्फ एक शब्द नहीं है. एक जर्नी है...जिसकी एक-एक लकीर आपके चेहरे पर दर्ज होती है. दर्द आपकी मुस्कुराहटों में घुल जाता है.

'जब इस उम्र में आकर अचानक आप अकेले हो जाते हैं तो बहुत अजीब लगता है. पहले मुझे लगा था कि आज़ादी मिली है. लेकिन जल्दी ही मुझे लगने लगा कि इस आज़ादी का करना क्या है? मैं बहुत मेहनत करती हूँ खुश रहने के लिये. ख़ुशी आ जाती है पर ये आज़ादी असल में सिगरेट की तरह है...आप हमेशा से पीना चाहते थे पर जब आपके पास सिगरेट आई तो माचिस की सारी तीलियाँ खत्म हो चुकी थीं. ये आज़ादी इस वक़्त बिना माचिस की सिगरेट की तरह है...'

आज़ादी का बोझ...जो लेखक Martine के कंधे पर देख रहा है उसे मैं अपने कंधे पर महसूस कर रही हूँ. मैं Martine के गले लगकर खूब सारा रोना चाहती हूँ. मैं उसे बहुत प्यार करना चाहती हूँ, उसकी दोनों बेटियों के लिए अपने हाथों से कुछ पकाना चाहती हूँ अचानक मेरे भीतर से रुलाई का भभका फूट पड़ता है और हमेशा की तरह अचानक बिना जगह और आसपास का माहौल देखे फूटते इन रुलाई के भभकों को वाशरूम में पनाह मिली. तबियत बिगडती सी मालूम हुई तो घर जल्दी आना पड़ा.

देर तक लेटे हुए उदासी गाढ़ी होने लगी. किताब सिरहाने रखी रही...बार-बार उसके बचे हुए थोड़े से पन्नों को देखती और उदासी बढ़ जाती. क्या यह एक किताब के खत्म होने की उदासी है या कुछ और है. किताब के बहाने शायद मैं खुद की किसी यात्रा में चल पड़ी थी...और अब जबकि लेखक की यात्रा खत्म होने को है मेरे सामने कोई रास्ता नहीं वापस अपनी उसी सामान्य सी दुनिया में लौट आने के. मैं लौटना नहीं चाहती, मैं चाहती हूँ कैथरीन से बातें करना, जंग-हे के साथ घूमना...लेकिन नहीं यह चाहना बुरा रोग है. लेखक इन यात्राओं में आसक्तियों से बचना भी तो सिखा रहा है...कैथरीन की मिलने की इच्छा को यह कहकर टालना कि 'अभी तो मैं गिलहरियों के खेल को देखने में व्यस्त हूँ, अभी मैं कैसे आऊँ? ' इसमें एक सन्देश है. लेकिन वह सन्देश सुनने का मन नहीं.

ली-वान आकर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी है. ली-वान चाइना से है. ली-वान से मैंने कहा,' मैं तुमसे कल मिलूंगी. अभी मुझे Martine के साथ रहना है. मैं स्मृतियों के चेहरे आपस में मिलाना नहीं चाहती.

Martine के चेहरे पर जिए जा चुके जीवन की थकन तो है लेकिन आने वाले जीवन का उत्साह नहीं है. मुझे उसके चेहरे में मेरा चेहरा उगता नजर आता है....शायद Martine भी इस वक़्त रो रही होगी...शायद कैथरीन भी...शायद ली-वान भी. शायद लेखक भी.नहीं लेखक निर्विकार है तमाम दुखों से, मोह से तभी वो लेखक है...

मैंने जानबूझकर कुछ पन्ने बचाए हैं. लेकिन यह दुःख मुझे निगल रहा है कि मैं इन पन्नों को कब तक बचाए रहूंगी...उसके बाद क्या होगा...मुझे अचानक सलीम और जीवन की याद आने लगी है और मेरा मन कर रहा है कि जीवन से बंटी की शिकायत कर दूं फिर सलीम के साथ बैठकर देखूं बंटी की चेहरे की उड़ती हुई हवाइयां.

यह शरारत भरा ख्याल मेरे भीतर की टीस को कम नहीं कर पा रहा...बारिश तेज होती जा रही. 

दोस्त ने कहा, 'फ़िक्र न करो सब कुछ होना बचा रहेगा' और मैंने दोहराया,'हाँ सब कुछ होना बचा रहेगा.' 

Friday, June 19, 2020

मुक्कमल होना भी क्या होता है

photo- from google

'कुछ तार कभी टूटते नहीं हैं. कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें. उन्हें लाख आश्वासन भी क्यों न दें कि अभी तोड़ रहे हैं, पर बाद में गाँठ बांधकर फिर से जोड़ सकते हैं, पर वह मानते नहीं हैं. सारे तनाव, खिंचाव के साथ वह भीतर कहीं बहुत महीन त्रासदी के साथ जुड़े रहते हैं.'
- (बहुत दूर कितना दूर होता है से)

133-134 पेज पर जैसे अटक गयी हूँ. खूब-खूब रोना आ रहा है. इस रोने में दुःख नहीं है. स्मृतियाँ हैं जो अब दुःख से खाली हो चुकी हैं. इस रोने में वो लम्हे हैं जो मुकम्मल हो सकते थे लेकिन हुए नहीं...यूँ मुक्कमल होना भी क्या होता है सिवाय भ्रम के.

ऐसा लग रहा है जंग हे से मैं ही बिछड़ रही हूँ. जितना समझा है जीवन को बिछड़ना सबसे त्रासद शब्द है दुनिया का. भले ही इसमें फिर मिलने की क्षीण संभावना छुपी ही क्यों न हो फिर भी इसकी त्रासदी कम नहीं होती.

'मैंने कहा मैं चला जाऊँगा....लेकिन उसका यह कहना कि छोड़ने आती हूँ, बस स्टैंड के बाहर एक आखिरी कॉफ़ी साथ पी लेंगे.'

यह लालसा ही तो जीवन को कमजोर बनाती है, मोह में बांधती है. मोह में न बंधना शायद कुछ हद तक आसान होता हो लेकिन अगर कभी एक लम्हे को भी आप किसी से मोह में बंधे हैं फिर उस गाँठ को खोलना बहुत मुश्किल होता है.

मुझे विदा के तमाम पल याद आ गये, तुम्हारा तेज क़दमों से लौटना, पलटकर कभी न देखना. जैसे कुछ था जिससे हाथ छुड़ाकर जा रहे हो, हाँ वह मोह ही था शायद. या तुम उदासी बटोरकर जा रहे होते थे. या कोई हडबडी तुम्हें खींच रही होती थी. तुम्हारे जाने के बाद कई बार देर तक नहीं चली ट्रेन या लेट होती गयी फ्लाईट और वो वक्त जबकि हम कुछ और वक्त साथ बिता सकते थे यह सोचने में गया कि तुम्हें क्यों यह हड़बड़ी थी लौटने की. यह हड़बड़ी क्या कभी आने की भी थी?

अब सोचती हूँ तो हंसी आती है. आना होता क्या है, जाना क्या होता है आखिर. यह समझना ही जीवन है. जो आता है वो वापस नहीं लौटता कभी, लौटता कोई और है. और जो आया होता है वो जिन्दगी में अपनी पर्याप्त जगह घेर लेता है. वो जो देर तक हिलती रही थी टहनी तुम्हारे जाने के बाद मेरे साथ तुम्हारी पीठ देखते हुए उसने मुझसे क्यों नहीं कहा, कि ये ते कदम, ये उजली कमीज वाली पीठ उदास देह है, सुखी मन तुम्हारे पास ही छूट गया है इसका.

असल में जाना तभी हो जाता है जब हम जाने के बारे में सोच लेते हैं, उसके बाद जबरन रोके गए लम्हे साथ नहीं होते विदा की यातना होते हैं. हम उन लम्हों में साथ को नहीं विदा की यातना को याद करते रहते हैं और इस तरह उन बिना घटे यातना के लम्हों को कल्पना में इतना जी लेते हैं कि साथ की कोमल पंखुडियां उदास होने लगती हैं.

जंग हे को याद कर रही हूँ. जैसे वो इतने दिनों से मेरे साथ थीं, खाने पर, कंसर्ट में, सड़कों पर, कॉफ़ी, वाइन सब में साथ. कहना चाहती हूँ मत जाओ जंग हे लेकिन वो तो जा ही नहीं रही. जा तो कोई और रहा है और बिछड़ मैं रही हूँ. अजीब बात है न.

मैंने जंग हे को देखा नहीं है लेकिन ऐसा लगता है मैंने देखा है उन्हें, उनकी कोमल सफेद और मुलायम हथेलियों को हाथों में लिया है. ठीक इस वक्त मुझे निर्मल वर्मा की उन हथेलियों की याद हो आई जिन हथेलियों में एक रोज मेरी नन्ही हथेलियाँ थीं. यह कोरों से टपकता सुख आज बाहर की बारिश से ज्यादा मीठा हो गया है...

Thursday, June 18, 2020

अच्छा लगना कितना अच्छा होता है


मैंने उसे कहा कि मैं एक किताब पढ़ रही हूँ इन दिनों, 'बहुत दूर कितनी दूर होता है' बहुत अच्छा लग रहा है. उदासियों की चादर ओढ़े डूबी सी आवाज में उसने धीमे से कहा, 'अच्छा लगना कितना अच्छा होता है'. जाने क्यों मुझे सुनाई दिया 'अच्छा लगना कैसा होता है'. मैं उसे बताना चाहती हूँ कि अच्छा लगना बहुत अच्छा होता है. कभी-कभी वो हमसे खो जाता है. कभी-कभी ज्यादा दिन के लिए भी खो जाता है लेकिन असल में वो इतना अच्छा होता है कि हम उसे ढूंढ लेते हैं. और अगर कभी हम ढूंढ नहीं पाते तो वो हमें ढूंढ लेता है. बस हमें ध्यान इतना ही रखना होता है कि खेल से बाहर नहीं होना है. खेल में बना रहना जरूरी है. जीवन के खेल में.

मैं उसे बताना चाहती हूँ, खोया हुआ अच्छा लगना जब वापस मिलता है तो वह पहले से भी ज्यादा चमकदार होता है, ज्यादा निखरा हुआ.

लेकिन उदासी की चादर ओढ़ के सोये व्यक्ति से ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहिए, बस उसके सर के बालों को सहला देना भर काफी होता है, या जलते हुए तलवों पर ओस के कुछ फाहे रख देना या उसकी जागी आँखों पर स्नेहिल चुम्बन रख देना. इतना ही. बहुत हुआ तो कभी-कभार आलिंगन भी. लेकिन बिना किसी किस्म की जताहट के. ये बहुत छोटी सी लगने वाली चीज़ें अक्सर रह जाती हैं.

और जताहट वो काबिज हो जाती है. मैं तुम्हारी केयर करता हूँ या करती हूँ यह जताने की बात होती ही नहीं. केयर तो एहसास में घुली होती है न. लेकिन मेरे कंधे तो छिले हुए हैं एक समय में जताहटों के बोझ से. लेकिन जिन स्पर्शों ने जिन संवादों ने मुझे सहेजा वो बहुत नार्मल थे. यह नॉर्मल होना इतना मिसिंग क्यों हो जाता है. जबकि नार्मल होने की बात सब कहते हैं, कोशिश करते हैं लोग नार्मल होने की. मुझे हंसी आती है, अरे वो नार्मल होना है, वो कोशिश करने से नहीं आता है, वो कोशिश करना छोड़ देने से आता है. लेट इट बी नार्मल.

एक बार रंगमंच से जुड़े एक दोस्त से बात करते हुए मैंने कहा था, 'अजीब बात है न जीवन में वो लोग सफल होते हैं जो अच्छा अभिनय कर लेते हैं. और रंगमच में वो ऐसा अभिनय करें कि लगे ही न कि वो अभिनय है.' हम दोनों देर तक हँसे थे इस बात पर.

मैं इन दिनों जिस किताब में धंसी हुई हूँ वहां से निकलना नहीं चाहती. और उसे पढ़ते जाने का मोह भी नहीं छूट रहा. अजीब कशमकश है. कल दिन में ऑफिस में जब लंचटाइम में कानों बारिश पहनकर मैंने उस किताब को खोला तो उसके एक पन्ने पर कुछ पीला निशान दिखा. यह हल्दी का निशान था. मुझे इतनी जोर से हंसी आई कि आसपास के लोग मुझे देखने लगे और मैंने खुद को संयत किया. मुझे जो हंसी आई उसमें एक सुख था. सुख कि फिर से किताबें हर वक़्त साथ रहने लगी हैं. ये सुख मुझसे खो गया था. कॉलेज के जमाने में यह सुख मेरे जीवन का हिस्सा था. हर वक़्त साथ रहने से किताबों पर हमारे जिए जा रहे लम्हों के निशान भी दर्ज होते रहते हैं हमारी उन आँखों के साथ जो उसमें हर वक़्त धंसी रहती हैं. इस किताब पर हल्दी के निशान उस वक़्त आये होंगे जब मैंने इसे किचन में एक हाथ में पकड़े हुए सब्जी बनाते हुए पढ़ा होगा.

लेखक की पी गयी कॉफी और पाठक के द्वारा छौंकी गयी भिन्डी की सब्जी का स्वाद और निशान हमेशा के लिए उन पन्नों में दर्ज हो चुके हैं. मेरी तमाम किताबों में ऐसे निशान मिलेंगे. तरतीब से पढना नहीं आता. मेरी किताबें मैं किसी को नहीं देती क्योंकि उन किताबों में एक खुशबू दर्ज होती है, पढ़े जाने की पूरी यात्रा. बिलकुल, पाठक की भी एक यात्रा होती है.

बहरहाल, यह किताब खत्म न हो इसलिए मैं इसके पढ़े जा चुके पन्नों में से कुछ हिस्सों को पहले देर तक चुभलाती हूँ फिर उसमें कुछ नए बिना पढ़े गये पन्नों का स्वाद मिला लेती हूँ. लेकिन मैं ज्यादा दिन तक ऐसा नहीं कर सकूंगी. फिर मैं क्या करूंगी? क्या नयी किताब मुझे यह सुख यह सुकून देगी. इस बारे में अभी सोचना नहीं चाहती. लेकिन इतना जरूर है कि इस किताब ने एक बार फिर मेरे पढने के सिलसिले को शुरू किया है. मानव को पढकर पहले भी कई बार ऐसे रुके हुए सिलसिले चल पड़े हैं लेकिन वो ब्लौग का जमाना था जब मैं घोर उलझनों में 'मौन में बात' की कुछ बार बार पढ़ी पोस्ट को फिर से पढ़ने लगती थी. असल में इस पढ़े में खुद को पढने सरीखा एहसास होता है. यही बात लेखक और पाठक के बीच के रिश्ता कायम करती है.

'यहाँ से दस मिनट की दूरी पर एक ब्रिज है जिससे चलकर तुम जर्मनी से फ़्रांस जा सकते हो. Basel बार्डर है.' जंग हे लेखक को बता रही हैं और मैं उस पुल पर खुद को खड़ा पाती हूँ. मेरा दिल चाह रहा है मैं उस पुल पर ही खड़ी रही हूँ. और जर्मनी और और फ़्रांस दोनों को उलझन में डाले रहूँ कि मैं किधर जाने वाली हूँ. हा हा हा...कितना अच्छा है ऐसे सोचना. जंग हे ..को तो पता भी नहीं होगा कि एक लेखक के साथ यात्रा करते हुए वो कितने सारे पाठकों की दोस्त बन चुकी हैं. वो मुझे बहुत सुलझी हुई लगती हैं. उनके पास से शेक्सपियर की याद सी आती हुई मालूम होती है. शायद इसलिए कि मैंने शेक्सपियर के जन्म का वह ठीहा देखा है और मैं जंग हे से वहीं कहीं मिलना चाहती हूँ. लेकिन फिर उस पुल का क्या होगा जो फ़्रांस और जर्मनी के बीच है दोनों देशों को जोड़ता हुआ.

हम सबको ऐसे पुलों की जरूरत है. जिन पर खड़े होकर आश्वस्त हुआ जा सके कि बस दो कदम चलकर पहुंचा जा सकता है अपने मनचाहे गन्तव्य तक. इस तरह सोचना सुख देता है...हालाँकि हमने दिलों की दूरियां मिटाने वाले पुलों को खूब तहस-नहस किया है, दुनिया की दूरियां मिटाने वाले पुलों को भी. सरहदें कितनी उदास होती होंगी अपने सीने पर जवां खून के छींटे सहेजते हुए इस पार भी उस पार भी.

कोई क्यों नहीं समझता कि घर में आई छोटी चिड़िया से बात करना वैसा ही है जैसे किसी भी देश के व्यक्ति को प्रेम करना. भले ही हम उसकी भाषा न जानते हों, उसका नाम भी ठीक से उच्चारित न कर पाते हों. उदासी की चादर ओढ़े दोस्त से कहना चाहती हूँ, 'हाँ अच्छा लगना बहुत अच्छा होता है.' खिड़की खोलो जरा, वो वहीं बाहर खड़ा नजर आयेगा...

Wednesday, June 17, 2020

उदास दिनों में सफ़ेद पहाड़ों की बात


पूरे दस घंटे सोकर उठी हूँ. थोड़ा सुकून थोड़ा आलस भरा है शरीर में. रात भर बारिश हुई और बारिश की थपकियों के बीच कम्बल ओढ़कर सोना अलग ही सुख देता है. मुझे यह सुख चाहिए. यह मेरे ही हिस्से के सुख हैं. पहले इन छोटे-छोटे सुखों के बारे में पता नहीं था, बाद में जब पता चला तो ये सुख मुझसे खो गये. अब मुश्किल से मिले हैं तो मैं इन्हें जोर से पकड़े रहना चाहती हूँ.

जो किताब पढ़ रही हूँ न 'बहुत दूर कितना दूर होता है' वह मुझे दूसरी दुनिया में घुमाते हुए हर रोज मेरी ही दुनिया की दहलीज पर लाकर छोड़ रही है. मैं धीरे-धीरे पढ़ रही हूँ. जैसे स्वादिष्ट खाना देर तक चुभला-चुभला कर आराम से खाते हैं न वैसे ही. उस खाने के सुख में उसके खत्म हो जाने या पेट भर जाने का भय भी शामिल होता है. ऐसी किताबों को पढ़ते हुए पेट तो नहीं भरता वैसे और ये खत्म भी नहीं होतीं. ऐसी किताबों की बात करते हुए मुझे धुंध में उठती धुन, चीड़ों पर चांदनी, वॉन गॉग के खत, रिल्के खत याद आते हैं. ये कभी खत्म नहीं हुए. इन्हें कभी भी उठा लो, कोई भी पन्ना जो पहले भी बीसों बार पढ़ा जा चुका है फिर से पढना शुरू किया जा सकता है. पहले पढ़ा जा चुका इस नए पढने से अलग होता है इसलिए नए सिरे से पढने पर कुछ अलग सा ही महसूस होता है.  फिर भी इन्हीं ठहर के पढना सुखकर होता है.

एक रोज जब मैंने पहाड़ की बारिशों के बारे लिखकर पूर्णविराम लगाया और चाय बनाने उठी तो ऐसा लगा बारिशों की खुशबू घुली है पूरे घर में. फिर चाय पीते हुए 'जब बहुत दूर कितना दूर होता है' को बुकमार्क लगाकर रखी गयी जगह से खोला तो वहां पहाड़ की बारिशों का जिक्र था. फ़्रांस में घूमते हुए वहां के पहाड़ों के करीब जाते हुए उत्तराखंड के पहाड़ों की याद थी वहां. एकदम वैसा ही मह्सूस हुआ जैसे एडिनबरा की खूबसूरत बारिशों के बीच से गुजरते हुए हरे के विशाल समन्दर में प्रवेश करना और देखना वहां के पहाड़ों को. सच, कितने मोहक पल थे वो. जैसे कोई पेंटिंग थी सामने और हमें उसमें चुपके से इंट्री मिल गयी हो. आँखों में कोई नमी उतर आई थी वो नमी अभी इस पल उस पल की याद बनकर साथ है. तब मुझे भी अपने उत्तराखंड के पहाड़ याद आये थे. एक जुडाव और अपनापन है यहाँ के पहाड़ों में.

तो इस वक्त स्कॉटलैंड, फ़्रांस और देहरादून सब साथ चलते रहते हैं. मेरी चाय में मानव की कॉफ़ी का स्वाद जाने कहाँ से आकर घुल जाता है. शायद यही वजह होगी कि इन दिनों कॉफ़ी पीने की इच्छा बढ़ने लगी है.

सारा दिन खबरों से भागती फिरती हूँ आजकल. खबरें मुझे उदास करती हैं, लेकिन हर कोई जानबूझकर न देखी गयी खबरों को कानों में ठेलता रहता है. कोई वाटसप  ज्ञान, कोई फेसबुक ज्ञान टीवी. मैं चीखकर कहना चाहती हूँ कृपया मुझे सूचनाओं से न भरें. मैं खुद को खुद के लिए बचा रही हूँ. ये खबरों से भागना मेरी कायरता हो सकती है, लेकिन इस समय मुझे कायर कहलाया जाना मंजूर है. मैंने बमुश्किल उदासियों से पीछा छुडाया है.

इस जजमेंटल होती दुनिया में खुद के लिए एक ऐसी जगह सहेजना जहाँ आप जैसे हैं वैसे ही सांस ले सकें कितना मुश्किल है. मुझे लगता है उदास होना आंतिरक क्रिया है लेकिन वह बाहरी अतिरेक होकर फैलने की हडबडी में तब्दील हो रही है. जब उदासी एक बाजार में तब्दील होने लगती है जिसमें हमारी भी भूमिका होती ही है भले ही उसे कोसते हुए ही सही तब हम वैसी ही अन्य उदास ख़बरों के लिए जगह बना रहे होते हैं.

मुझे इस बाजार से डर लगता है. भावनाओं के बाज़ार से सबसे ज्यादा. उफान से डर लगता है. मैं किसी व्यक्ति से बात करने की बजाय पेड़ों से बात करना, बादलों को देखना या नदी के किनारे बैठते हुए खाली आसमान को देखना पसंद करूंगी. मैं लोगों के जीवन में नदी, पेड़ या बादल होकर शामिल होना चाहूंगी.

सर थोड़ा भारी होने लगा है. बेहतर है मैं एलेक्स के साथ Alps की सफ़ेद पहाड़ियों का रुख करूँ. अरे हाँ, यह बताना तो मैं भूल ही गयी कि लीचियां पेड़ों से उतरकर घर आ गयी हैं...खाने से ज्यादा उन्हें देखने का सुख है.

Monday, June 15, 2020

जीने की इच्छा जैसे मैगी खाने की इच्छा


क्या कोई मेरी सुबहों को थोड़ा और लम्बा कर सकता है? नींद से समझौता किये बिना? कैसी तो बचकानी बात है, मैं खुद भी हंस रही हूँ यह लिखते हुए. असल में यह लालच है. हर प्यारी चीज को मुठ्ठी में बांधकर रखने का. मुझे शामें कम पसंद हैं लेकिन सुबहें बेइंतिहा पसंद हैं. सोचती हूँ कोई शामों का चहेता मिले तो उससे अदला-बदली कर लूं. छोड़ो जाने दो, बचपने की बाते हैं.

लेकिन दूसरे ही पल लगता है ये बचकानी बातें, ये ऊट-पटांग से ख्याल कितना जीवन है इनमें. इन्हें हम क्यों जाने दें भला? स्कूल के दिनों में जब दोस्त स्क्रैप बुक भरवाते थे तो उसमें दाल चावल खाने की इच्छा को जब लिखा था तो कैसा तो मजाक उड़ाया था सबने. लेकिन मुझे वही पसंद था तो मैं और कुछ क्यों लिखती भला. 

ये सब बातें अगड़म-बगड्म लग सकती हैं तुम्हें लेकिन ये बातें मुझे उन उदासियों को रिहा करने के काम आती हैं जो भीतर छुपी होती हैं और अचानक सामने आ खड़ी होती हैं. कल से सुशांत की खबर ने उदासी से भर दिया है. असल में उस खबर ने अपनी तमाम बेचैन दिनों को याद दिला दी है. कहने का पता नहीं लेकिन शायद उस मनस्थिति को कुछ हद तक समझ सकती हूँ. जब बहुत से लोग आसपास होते हुए भी कोई करीब नहीं लगता. ढेर सारे संवादों के ढेर में से एक वाक्य नहीं मिलता जो जीवन में रोक सके. उम्मीद का एक शब्द. 

अब समझ सकी हूँ कि बाहर से नहीं आती उम्मीद, खुद उगानी होती है. वो शब्द हमारे ही भीतर होता है, हमें अपने भीतर बार-बार छलांग लगानी होती है और उसे ढूंढना होता है. हाँ, इसमें जल्दबाजी काम नहीं आती. बरस के बरस बरस के चले जाते हैं. आज यह लिखते हुए उदास नहीं हूँ, जब उदास थी तब लिख नहीं पा रही थी. 
हम पीड़ा में छटपटाते हैं, कभी जोर-जोर से हंसते हैं, रोते हैं, गाते हैं, गिटार बजाते हैं. आवाज देते हैं, चुप हो जाते हैं. बस खुद को रिहा नहीं करा पाते. कोई जान नहीं पाता कभी कि अभी अभी जो साथ बैठा था, हंस रहा था जोर-जोर से, चुटकुले सुना रहा था वो भीतर से इतना टूटा था...वो जो गया है अभी-अभी उठकर वो मर रहा था. समाज के तौर पर अभी इतना नहीं सीख पाए हम. अरे हम तो कहे गये शब्दों के मानी नहीं समझ पाने लोग हैं, अनकहे को समझने की यात्रा तो बहुत लम्बी दिखती है. फिर भी कुछ कमीने दोस्तों का होना जिन्दगी को कुछ आराम तो देता है. 

जीकर यह जाना है कि साझेदारी आसान नहीं. साझेदारियां बहुत बार व्यर्थ ही जाती हैं या अजीब अजीब से ज्ञान भरे प्रवचनों के रूप में लौटती हैं. दम घुटता है प्रवचन सुनते हुए. जी चाहता है चिल्लाकर कहें, खुदा के लिए चुप हो जाइए, रहने दीजिये मुझे समझने का ड्रामा करने की कोशिश, आपसे न होगा, आपकी योग्यता नहीं. लेकिन सम्मान में हम ऐसा कहते नहीं, उस कहे हुए को सहते हैं. 

मुझे अजनबी चेहरे पसंद हैं, वो आपको जज नहीं करते. अजनबी, सड़कें, अजनबी लोग, चाय की टपरी, फूलों भरे बागीचे जहाँ से ट्रेन की आवाज सुनाई न देती हो. जहाँ आप रो सकें जी भर के. जीकर ही समझा है कि जीवन बहुत मामूली चीज़ों का नाम है, उन्हीं से बना है और उन्हीं मामूली चीज़ों से ही यह बचता भी है. जैसे बरसती बूंदों के आगे हथेलियाँ पसारना जैसे पंछियों के संग शरारत करना, कैसे वो सब गलतियाँ करने की इच्छा को पोसना जिसे करने से रोका गया हो अब तक. 

जैसे इस वक्त बिना किसी इच्छा के तुम्हें याद करना, चाय का पानी चढ़ाना और सोचना मैगी के बारे में कि वो खत्म हो गयी है घर में, आज लाना है.  

Sunday, June 14, 2020

तुम्हारे सपने में कौन आता है?


कल बारिश हुई. आज भी होने के आसार हैं. यूँ पहाड़ों का तो बारिशों से फूलों से और प्रेम से गहरा रिश्ता है ही. फिर भी हर बार जब बारिश होती है ऐसा लगता है पहली बार देख रही हूँ बारिश. ये मौसम बारिशों का है. फलों में मिठास उतरने का मौसम है ये. फलों के शाखों से उतरकर घरों में आने का मौसम है.

दुनिया को बारिशों को ठहरकर देखना चाहिए. पहाड़ की बारिशों को. ठहर ठहर कर कभी द्रुत गति से कभी मध्धम गति से आती बारिशों को. कभी आलस में भरी नयी दुल्हन सी भी लगती हैं बारिशें...बस चुपचाप गिरती जाती हैं...घूँघट के भीतर से जैसे मुस्कुराती हो धीमे-धीमे. और मुसुकुराहट उतारना भूल जाती हों. बरसती जाती हों. मैं बारिश होना चाहती हूँ. क्या तुम भीगना चाहते हो?

कल व्यस्तताओं का बड़ा सा पहाड़ था. मैं बारिशों को खिड़की से आँख उठाकर ठीक से देख भी नहीं सकी. उसकी आवाज सुनती रही और शीशे के उस पार उसके बुलावे को इग्नोर करती रही. दिन खत्म होने के साथ काम खत्म हुआ और बारिश भी. रूठकर जाती बारिशों के आगे हथेलियाँ बढ़ा दीं तो टप्प से एक बूँद टपक गयी. मानो जाते-जाते कहा हो बारिशों ने 'जाओ माफ़ किया.'

मैं हथेलियों में उस बूँद को सहेजे-सहेजे ही सो गयी. सुबह में उस बूँद की नमी शामिल है. प्रकृति के ये तोहफे जिन्दगी की खर्ची हैं. इन्हें सहेजना आना जरूरी है. मैं सीख रही हूँ सहेजना.

रात सपने में मैं वहीं भागती फिर रही थी जहाँ गुलमोहर की छाँव में नदी में पांव डाले हम घंटों बैठा करते थे. तुम कुछ गाया करते थे. कितना बेसुरा गाते थे तुम लेकिन एकदम डूबकर. मैं सोचती थी तुम क्यों गा रहे हो, मत गाओ न, नदी की आवाज सुनने दो न? और तुम्हारा गाना खत्म होते ही मैं नदी की बीच में धार में खड़ी हो गयी थी. बाहें पसारे. तुम डर गये थे कि मैं बह जाऊंगी, मैं खुश थी कि नीचे नदी ऊपर आसमान, किनारे गुलमोहर और तुम्हारे माथे पर चिंता के निशान सब एक साथ हैं. प्रेम का ऐसा कोलाज कमाल अमरोही के फ्रेम को भी पीछे छोड़ रहा हो जैसे. वो सपने का सच था या सच का सपना इस बात को जाने देते हैं.

एक रोज मैं नदी से मिलने गयी थी वहां तुम्हारे बेसुरे गाने की आवाजें अब भी आती हैं. जब मैं नहीं जा पाती नदी से मिलने नदी मेरे सपने में आती है. तुम्हारे सपने में कौन आता है?

मेरी हथेलियों में कल की बूँद के निशान बाकी हैं,..

Wednesday, June 10, 2020

खाली दीवार पर उग आये हैं सूरजमुखी

VINCENT VAN GOGH: SUNFLOWERS
जो हमें पसंद हो उसका हमारे जीवन में होना क्यों जरूरी है. यह एक किस्म की लालसा है. इसमें एक तरह के स्वार्थ की बू आती है. जो चीज़ें हमें पसंद हैं, हमारे पास हों, घर में हों यह पागलपन है. जो हमें पसंद है वो वहीं रहे जहाँ वो है तो क्या हमारी पसंद घट जाती है? शायद ज्यादा बची रहती है. और फिर अगर किसी रोज पसंद बदल जाए तो उस व्यक्ति का या सामान का क्या करें जिसे जीवन में या घर में इस कदर भर लिया था कि वो पूरा जीवन ही घेरकर बैठ गया था. अब या तो उस बदली हुई पसंद के साथ रहना होता है या उसके बगैर छूट गये  ढेर सारे खालीपन के साथ. 

मुझे अब यह समझ आने लगा है कि हासिल करने जैसा कुछ नहीं होता. पसंद और प्रेम का कोई रिश्ता नहीं होता. अहंकार अलबत्ता जरूर आते-जाते हैं. अधिकार आते-जाते हैं, अपेक्षाएं आती-जाती हैं. यह सब मिलकर उस पसंद के उस मूल तत्व को नष्ट कर देते हैं जहाँ होना सुख देता था. सुख की उस अनुभूति को, उस केंद्र को हम दुनियावी प्रवंचनाओं से नष्ट कर देते हैं. फिर उसे खोजते हुए आरोप गढ़ने के लिए कोई केंद्र ढूंढते हैं. कोई तो हो जिसे कहें कि तुमने मेरा जीवन नष्ट कर दिया. जबकि असल में ऐसा कुछ होता नहीं है. हम खुद ही अपना जीवन नष्ट करते हैं या सुंदर करते हैं. 

जीवन की नदी का जो मटमैलापन है इसे भी प्यार करना चाहिए. यह मटमैलापन हमें गढ़ता है. हम ईश्वर या खुदा नहीं हैं. गलतियों का भी सुख है, लड़ने झगड़ने का भी, प्यार करने का भी और प्यार के टूटकर बिखर जाने का भी. यह मटमैलापन अपने भीतर बहुत सारा उजाला छुपाये है. जैसे खूब गहरे उतरकर समझ आता है कि ऐसा कुछ नहीं जिसके बिना जिया नहीं जा सकता. हमें किस कदर लगता है कि इसके बिना कैसे चलेगा जीवन, लेकिन मजे में चलता है. दुःख प्रेम के टूटने का नहीं अहंकार के टूटने का होता है. क्योंकि प्रेम तो टूटता नहीं हाँ उसका हमारे जीवन में रहने का तरीका बदल जाता है. जैसे कमरे की सेटिंग चेंज कर दी हो, 

यह कितना अजीब है कि जब हम एक बड़ी, कठिन और लम्बी यात्रा कर चुके होते हैं और कहीं पहुँच चुके होते हैं या पहुँचने वाले होते हैं तब पता चलता है हम तो गलत दिशा में आ गए. यात्रा की सारी थकान बिखर जाती है...फ़ैल जाती है. जैसे सब हाथ से छूट गया हो. फिर किसी कोंपल के फूटने की आवाज सुनाई देती है. गलत दिशा में चलकर आई हुई जगहों पर अक्सर सही चीज़ें मिली हैं. सारा थका हुआ सुख में बदल जाता है. जीवन ऐसा ही है. 

कई बरसों से मुझे लगने लगा था कि मैं लिख नहीं पाऊंगी, फिर मैंने लिखने की कोशिश करना छोड़ दिया लेकिन ब्लैंक स्क्रीन के सामने घंटों बैठकर उसे देखते रहना नहीं छोड़ा. कई बरसों से मुझे लगने लगा था मैं पढ़ नहीं पाऊंगी फिर मैंने पढने की कोशिश करना छोड़ दिया लेकिन किताबों के आसपास रहना नहीं छोड़ा, कई बरसों तक मुझे लगता रहा मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी, फिर मैंने इस तरह सोचना छोड़ दिया लेकिन तुम्हारी स्मृतियों के आसपास रहना नहीं छोड़ा. या यूँ कह लो कि यह सब मुझसे छूटा नहीं. 

अब जब मेरे हाथ में हर वक़्त कोई किताब फिर से रहने लगी है तो लगता है जीवन वापस लौट रहा है पहले से बेहतर होकर. स्मृतियाँ अब दुःख नहीं हैं. ब्लैंक स्क्रीन से दोस्ती होने लगी है, लिखने का पता नहीं लेकिन कुछ शब्द उगने लगे हैं. लॉकडाउन में बहत कुछ अनलॉक हुआ है. खुद के भीतर खुद को फिर से देखा है इन दिनों. 

मेरे कमरे की नीली दीवार जो सिरहाने है उस पर पेड़ की डालियाँ हैं और चिड़िया हैं. सामने की दीवार खाली है. उस खाली दीवार पर सोचा था तुम्हारी परछाई सहेजूंगी. लेकिन इन दिनों उस दीवार पर सूरजमुखी उगते दिखने लगे हैं. खाली दीवार में कितना कुछ है उगने को. कभी सोचती हूँ इस दीवार पर गाढे नीले रंग की पेंटिंग लगाऊंगी जिसमें पानी होगा, कभी सोचती हूँ इस पर एक रोज अमलतास खिलेंगे, कभी यह दीवार कल्पना के सुफेद फूलों से भर उठती है. हालाँकि इन पर सूरजमुखी उगेंगे एक रोज यह मैंने सोचा नहीं था. लेकिन वो उगे हुए हैं. और अच्छे लग रहे हैं. जो हम सोचते हैं उससे इतर भी कितना कुछ है अच्छा हमारे जीवन में आने को. हम अपने जाने हुए से उस अनजाने की आमद का रास्ता रोककर खड़े हुए हैं. अजीब बात है न. हमें अपने जीवन में कुछ खाली जगहें रखनी चाहिए, घर में कुछ खाली दीवारें. 

जब  कभी दीवार पर अपनी ही छाया को देखती हूँ तो मुस्कुरा देती हूँ...

Tuesday, June 9, 2020

'जीवन के हाथों में बहुत सारा उलझा हुआ मांझा है...'- मानव कौल



कभी-कभी सोचती हूँ कि इन रोजानमचों का क्या हासिल? फिर सोचती हूँ इस जिन्दगी का भी क्या हासिल? फिर यह सोचती हूँ कि क्यों होना ही चाहिए हासिल, छोड़ो न. और अगले पल ही यह सोचते हुए पिछला सारा सोचा हुआ हंसी में उड़ा देती हूँ कि इतना सोचती क्यों हूँ?

तो कल की बारिश की बात है, टूटे हुए चश्मे को बनवाना जरूरी था और वक़्त पर घर पहुंचना भी, दफ्तर के सारे काम भी जरूरी थे तो बारिश में भीगते हुए चश्मा बनवाने जाना तय हुआ. इन दिनों पढने की इच्छा ने जैसे स्पीड पकड़ी हुई है ऐसे में चश्मे का टूटना बड़ा स्पीड ब्रेकर था. परसों रात जो किताब पढ़ी थी और उसके पहले वाली रात जो किताब पढ़ी थी उन दोनों अलग-अलग लेखकों की किताबों के किरदार परसों की रात मेरी नींद में गप्प लगा रहे थे.

इन दिनों हो यह रहा है कि एक साथ कई किताबें पढ़ी जा रही हैं. एक साथ. जिस किताब का जिक्र मैं छुपा रही हूँ उसका पढ़ना हूक से भर रहा है. वह किताब है 'बहुत दूर कितना दूर होता है.' मानव कौल की किताब. यह अनलॉक  की दूसरी सौगात थी. जैसे ही अनलॉक हुआ हमने खूब सारी किताबें ऑर्डर कर दी. किताबें आ रही हैं एक-एक कर. रोज घर पहुँचो तो कोई नया संसार कुछ नए किरदार इंतजार करते मिलते हैं और मन एकदम खुश हो जाता है.

सिलसिला शुरू हुआ किशोर चौधरी से...आगे बढ़ाया मानव कौल ने लेकिन बीच में सुजाता ने इंट्री ले ली और जिस चश्मे को बनवाते हुए मन में यह ख्याल था कि पेरिस पहुँचने के बाद बंटी का क्या हुआ निवेदिता, सिध्धांत, जगजीत, अबीर और मीना अपने साथ अलग यात्रा पर निकल गये. बहुत अरसे बाद एक ही बार में पूरा उपन्यास खत्म किया है. इसमें मनस्थितियों का भी बड़ा हाथ है.

इस सुबह में पेरिस पहुँचने की इच्छा है लेकिन कोई हडबडी नहीं है. बीती रात पढ़े 'एक बटा दो' का असर है लेकिन अब कोलाहल नहीं है. उधर वो बाड़मेर वाला अमित दूर से बैठा देख रहा है जैसे उसने इत्मिनान भरी आँखों से देखकर आश्वस्त किया हो कि मैं हूँ, यहीं. तुम आराम से घूम लो पेरिस फिर हम साथ चलेंगे.

ये किरदार कितने प्यारे होते हैं कि हम इनसे दिल लगा बैठते हैं.

तो बीती रात से पहले वाली रात का किस्सा सुनो, हुआ यूँ कि अमित के संग बाड़मेर घूमने के बाद सोयी थी और सुबह यानी इतवार की सुबह एक बहुत दूर, कितना दूर जानने निकल पड़ी. मानव तो फिर मानव है. अजीब जादुई असर में लाते हैं. मानव को पढना भीतर की यात्रा में ले जाता है, वो अपने आप को कुरेदना सिखाता है.

तो सलीम, बंटी और जीवन से दोस्ती होती है. कभी लगता है मैं बंटी हूँ, कभी लगता है सलीम हूँ लेकिन जीवन जीवन ही है. सारा दिन बिटिया कहती रही 'क्या मम्मा सारा दिन नापती रहती हो बहुत दूर कितना दूर होता है, लो मेरा स्केल ले लो और नाप लो. और मानव अंकल को भी दे दो वो भी नाप लेंगे.' हम दोनों हंस देती हैं.

मानव को गति से नहीं पढ़ा जा सकता, वह बाहर का पढना नहीं है. एक-एक लाइन वापस बुलाती है और डुबो लेती है भीतर.

'जीवन से झूठ बोलने पर आँखें खुद झुक जाती हैं.'
'जीवन के हाथों में बहुत सारा उलझा हुआ मांझा है...'
'जीवन ने बंटी को रोकने की कोशिश की बंटी ने जीवन का हाथ झिडक दिया.'
यह जीवन सलीम और बंटी का ही नहीं हम सबका जिया हुआ है, जिया जा रहा है. हम अपना तमाम जिया हुआ इसके आगे पसार के बैठे रहते हैं. हम भाग क्यों नहीं जाते. हमें अपने तमाम सवालों के जवाब अपनी ही धुरी पर क्यों चाहिए. हमें सच में निकलना चाहिए यह जानने कि बहुत दूर कितना दूर होता है. दूर होता भी है या नहीं...या बहुत दूर असल में बहुत पास होता है और बहुत पास होता है बहुत दूर.

दूर फ़्रांस में इस सवाल से उलझे बंटी की बात अचानक बाड़मेर वाले अमित से होने लगती है. फिर वो दोनों नापने लगते हैं 'बहुत दूर कितना दूर होता है' को. जबकि जीवन भेलीराम की थडी पर सलीम और अपनी चाय बनवा रहा है. क्योंकि बंटी तो बहुत दूर फ़्रांस में है. तभी बंटी कूदकर चाय लपक लेता है कहते हुए, 'अरे मैं यहीं हूँ बे...'

कैथरीन दूर कहीं बंटी के इंतजार में है...वान गौग, पिकासो, कामू और सात्र भी हैं.

लेकिन मेरी नींद में सलीम जीवन अमित और बंटी की गप्प चलती रही...बीती रात उन सबकी जगह सिध्धांत, जगजीत,अबीर ने ले ली. यह सोचते हुए सो गयी कि सब के सब अलग-अलग तरह से कितने कमजोर पुरुष थे...

आज नया दिन है और मुझे पेरिस की यात्रा पर निकलना है, शाम तक दिन कौन सी करवट लेगा पता नहीं. कि कुछ किताबें अभी रास्ते में हैं...

Saturday, June 6, 2020

कि तुम यहीं कहीं हो...


बहुत बरस पहले की बात है, शायद बहुत बार बता भी चुकी हूँ फिर से बताना चाहती हूँ कि बहुत बरस पहले जब ख्वाब देखने सीखे भी नहीं थे एक रोज आधी जागी आधी सोयी सी किसी रात में एक ख्वाब देखा था कि पहाड़ के किसी गाँव में हूँ. शीशे की दीवारों वाला कोई कमरा है, उसमें मेरे साथ तुम भी हो. सारी रात बारिश होती रही और हम सारी रात चाय पीते रहे बूंदों का खेल देखते रहे. सुबह जब बारिश रुकी तो चाय के कप तो दो थे लेकिन तुम कहीं नहीं थे. ख्वाब का स्वाद तबसे जबान पर लगा रहा. गया नहीं.

अब जब मैं पहाड़ के एक छोटे से हिस्से में बस गयी हूँ या यूँ कहूं कि मैंने खुद को बो दिया है यहाँ और धीरे-धीरे उगने लगी हूँ यहीं. वो ख्वाब जिसका स्वाद जबान पर अटक गया था अक्सर करीब से गुजरता है. कभी वो काँधे से कांधा मिलाकर बैठता है. कभी खिड़की के बाहर बरसता रहता है और शीशे की दीवारों पर अपने निशान छोड़ते हुए मुस्कुराता है, कभी मुंह पर बौछार बन गिरता है और मध्धम मुस्कुराहटों को भीगी खिलखिलाहटों में बदल देता है. चेहरे पर पड़ी बूंदों को पोछती नहीं हूँ, फिसलने देती हूँ, जैसे वो तुम्हारी उँगलियाँ हों. वो ख्वाब अब ढीठ हो गया है. घर में रहने लगा है. साथ चाय बनाता है, लड़ता है मुझसे और हाथ पकड़कर खींच ले जाता है शीशे की दीवारों के उस पार भी. 

कल सारी रात बारिश हुई. जैसे कोई ख्वाबरात बीती हो. जैसे सिरहाने कोई बैठा रहा हो रात भर. जैसे बूंदों के राग में तुम्हारी बातों की खुशबू घुली हो. सुबह उठी तो वो ख्वाब धूप बनकर चमक रहा था. 

कल सारा दिन फूलों और तितलियों के बीच भागती फिरी थी शायद उसी का असर होगा कि नींद में कोई जादू घुल गया होगा. मुझे पता नहीं था सचमुच कि कल कोई पर्यावरण दिवस था कि मेरे लिए हर दिन फूलों, का पंछियों का, चाँद का, कविताओं का और याद का दिन होता है....इन सबसे मिलकर जो संगीत बनता है उसका दिन होता है. लेकिन कल यह ख्वाब दिन ख्वाब रात में भी बदल गया. सारी रात सपने में फूलों की शाखें खिलखिलाती रहीं. 


क्या ये फूल बहुत से लोगों के दिलों के जख्मों को भर पायेंगे...? क्या इनका सौन्दर्य किसी के जीवन में रोटी की कमी को पूरा कर सकेगा, या रोजगार, पुलिसिया मार और अपमान के जख्म को तनिक भर में कम कर पायेगा?

नहीं, यह फूलों का काम नहीं, फूलों का काम है धरती को मानवीय होने के सबक देना, हम सबको बिना भेदभाव के प्रेम करना सिखाना, हमारे भीतर की हिंसा को, क्रोध को प्रेम में बदल देना. अगर हम यह समझ सकेंगे तो फूलों से रोटियों की उम्मीद किये बिना गेहूं की बालियों के इश्क में पड़ जायेंगे, उन बालियों को हमारी थालियों तक लाने वालों के इश्क में पड़ जायेंगे. फिर शायद कुछ हिंसा कम होगी बाहर की. 


कुदरत हमारे भीतर की हिंसा, क्रोध, ईर्ष्या को प्रेम में बदलने की ताकत रखती है बस कि हम फूलों और फलों से लदी और झुकी हुई डालियों को ठीक से देखना सीख तो लें, बारिशों को अपने ऊपर आने तो दें, हथेलियों पर धूप को फिसलते हुए देखते हुए जो फूटता है हरियाली का अंकुर भीतर उसे पाल पोस तो लें. दुनिया सच में बदलने लगेगी. कितनी तो मोहब्बत है दुनिया में और लोग मोहब्बत की कमी से मरे जा रहे हैं...हाँ सचमुच लोग भूख से या अपमान से नहीं दुनिया में कम होती जा रही मोहब्बत की कमी से मर रहे हैं. कि जो प्यार से भरे हैं वो अपने आस पास के लोगों को भूख प्यास से मरने तो नहीं देंगे. गौर से देखना उन सब लोगों के चेहरे जिन्होंने इस विषम समय में कुछ लोगों के जीवन में उम्मीद बचाई है, कुछ जिंदगियों को छांव दी है, वो सब इश्क में डूबे हुए लोग हैं.

आज ठंड बढ़ गयी है यहाँ, सुबह की धूप देख अच्छा लग रहा है, गुनगुनी सी धूप. कल कुछ किताबें मिलीं हैं. पढूंगी दिन भर. उस ख्वाब के बारे में ज्यादा मत सोचना कोई सिरा जोड़ नहीं पाओगे तुम क्योंकि जब पहली बार देखा था वो ख्वाब तुम तब भी नहीं थे कहीं, और अब जब दिन रात जीती हूँ न यह ख्वाब तुम अब भी नहीं हो. हालाँकि लगता यही है कि तुम हो, यहीं कहीं हो...

कल की कुछ तस्वीरें भेज रही हूँ....

Friday, June 5, 2020

इतना भी मत याद किया करो


क्या तुमने अभी, ठीक इसी पल कोई आवाज सुनी? टप्प से टपकने की? ढूंढना मत, वो आवाज तुम्हें नहीं मिलेगी. वो मेरी पलकों से झरे फूलों की आवाज है. आज बादलों का दिन था. रात भर बरस के थक चुके बादलों ने पूरे शहर को ढंका हुआ तो है लेकिन वो बरसेंगे नहीं यह उन बादलों की थकान बता रही है. मेरा मन किया उन बादलों को चिढ़ा दूं...बेचारे बादल.

मन आज बादलों से ऊपर है मेरा....सातवें आसमान पर. फूलों ने पुकार लिया हो मुझे जैसे. मैं बेवजह खिंची चली  गयी उस ओर जहाँ से आवाज आ रही थी. फूलों का शहर तो खैर है ही यह मोहब्बत का शहर भी है. फूलों से मोहब्बत ऐसे बरसती रहती है मानो कह रही हो धरती से कि उदास न हो, हम मिलकर संवारेंगे फिर से...

चलती हुए गयी थी गयी उन रास्तों पर और उड़ते हुए लौटी हूँ. असल में उड़ते हुए भी कहाँ लौटी हूँ वहीँ कहीं तितलियों संग उड़ ही रही हूँ अब तक.

मैंने कोई फूल डाली से अलग नहीं किया, किसी फल को इस नजर से नहीं देखा कि वो कितना स्वादिष्ट होगा. मेरे लिए जिन्दगी की आस हैं. मुझे उनके स्वाद से कोई निस्बत नहीं मैं बस फूलों और फलों से लदी डालियों को देखकर छक रही हूँ.

जब मैं पीले फूलों के नीचे से होकर गुजर रही थी गुलाबी फूल मुझे देख रहे थे और मैं सुर्ख फूलों में तुम्हें ढूंढ रही थी. अचानक मुझे महसूस हुआ कि किसी ने मेरे कंधे को छू लिया हो जैसे.

मैंने पलटकर देखा, कोई नहीं था वहां. मैं हंस दी. तुम हमेशा ऐसे ही तो होते हो, अपने न होने में बेइंतिहा होकर. मैंने अपने कंधे पर बैठे बैंगनी फूल को देखा, उसे उतारकर हथेलियों पर रखा, वो हंस दिया, मैं भी. जानती हूँ तुम भी. तुम जो वहां नहीं थे, लेकिन कितने ज्यादा थे वहीं कहीं.

गुलमोहर बहुत खुश थे, मैं उनसे ज्यादा खुश थी. पूरी धरती जैसी किसी मादक खुशबू में डूबी जा रही हो. मैं उस खुशबू में तर-ब-तर लौटी हूँ. मेरी आँखें छलक रही हैं. सुख से. सिर्फ कुदरत ही है जो मुझे इस कदर समझ पाती है, मुझे उदासी से खींचकर ले जाती है, थमा देती है मुस्कुराहटें, रो लेने की आज़ादी देती है और हंसने की वजहें. इश्क शहर मोहब्बत की गमक में डूबा हुआ था. एक पागल सी लड़की अब इस शहर का हिस्सा है, यह शहर अब उसके जीवन का प्यारा किस्सा है.

जब भी मैं तुम्हें याद करती हूँ तुम्हारे शहर में बारिश होती है, मैं जानती हूँ जब तुम मुझे याद करते हो मेरे शहर में फूल खिलते हैं. इसलिए मेरे शहर में फूल ज्यादा खिलते हैं और तुम्हारे शहर में बारिशें ज्यादा होती हैं. हम कुदरत की संतानें हमें ऐसे ही बारिशों में, हवाओं और फूलों की खुशबू के रास्तों से गुजरकर मिलना था...

मेरे कलेजे में हूक उठी और मैंने फूलों से भरी हथेलियों को चूम लिया. वो फूल जिन्हें मैंने शाखों से तोडकर अलग नहीं किया था. जो फूल जमीन चूमने को शाखों से नीचे उतर आये थे उन्हें मैंने हथेलियों में भरा और महसूस किया कि तुमने मेरा हाथ थामा है.

सारे फूल मैंने अपने बालों में टांक लिए हैं. जैसे तुम्हारी निगाहों ने मुझे आज़ाद किया हो समन्दर किनारे दौड़ते जाने को...फूलों की खुशबू में डूबते जाने को.

आज चाय मैं नहीं बनाऊँगी, तुम बनाओ, और चीनी एकदम मत डालना. प्यार की मिठास काफी है. 

Thursday, June 4, 2020

पीले रंग के बादल और तुम



लगता है शर्मसार होने के दिन हैं. हर दिन न जाने कितनी ही घटनाएँ गुजरती हैं पास से जो शर्मिंदगी से भर देती हैं. टूटा हुआ दिल और टूट जाता है. हर रोज महसूस होता है कि समाज के तौर पर हम मनुष्य होने की काबिलियत से थोड़ा और ख़ारिज हुए हैं.

नदी ने अपने भीतर कितनी पीड़ा, कितनी चीखों और कितने ताप को सहेजा. नदी भी रोई होगी न? रोना दुःख का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है. बेहद मामूली. क्योंकि दुःख तो आंसुओं से बहुत बड़ा होता है. वो आंसुओं में कहाँ समाता है. कल किशोर को सुना/पढ़ा. सच ही कहते हैं वो कुछ भी कहाँ लिखा जा सकता है, न दुःख न सुख न सपना कोई...लिखना खुद को बहलाने का एक भरम है, कुछ देर को राहत पाने का भरम...जैसे चाय पीना, सिगरेट फूंकना. हालाँकि किसी से कुछ नहीं होता.

लेकिन जाने क्यों लगता है लिखना  बिना मेकअप के आईने के सामने बैठना है. खुद को जस का तस सामने रख देना और अपनी कमियों को ठीक ठीक देख पाना. 

यूँ भी लगता है कभी कि कैसे कोई दूर बहुत दूर किसी देश में बैठकर अपने देश के मौसम की नमी का जिक्र करता है और वो नमी पढने वाले की आँखों में उतर आती है. शायद उसने लिखा नहीं होगा, सोचा होगा सिर्फ. शायद सोचा भी नहीं होगा सिर्फ महसूस किया होगा. सिहरन सी होती है यह सोचकर कि प्रेम हो तो इस कदर भी जुड़ा जा सकता है कि संवाद निरर्थक ही हो जाएँ सब और न हो तो तमाम मौजूदगी भी बेमानी ही हो.

जाने क्यों लग रहा है तुम्हें याद करते हुए इस वक्त मेरी आँखों की नमी ने तुम्हारे शहर के मौसम को छुआ होगा. देखना तो कहीं बादल तो नहीं हैं वहां.

ऐसा कैसे होता है कि मैं सपने में पीले रंग के बादल देखती हूँ और इनबॉक्स में अमलतास के गुच्छे मुस्कुरा रहे होते हैं. मैं अपने सपनो में बहुत ताकत पिरो देना चाहती हूँ इतनी ताकत कि एक रोज पूरा अख़बार सुख की ख़बरों से भरा हो, इतनी ताकत कि एक रोज मैं जब घर लौटूं तो मेरे साथ लौटें दिन भर मिले लोगों की सच्ची मुस्कुराहटों की स्मृतियाँ. कि एक रोज मैं जागूं और मेरे सामने तुम खड़े हो...

किशोर को बार-बार पढ़ रही हूँ कल से. लगता है उन्होंने मेरे मन की हर बात लिख दी है. तुम भी उसे जरूर पढ़ना. 

Wednesday, June 3, 2020

तेरी याद संग लिली खिली है


देश चल पड़ा है, दुनिया चल पड़ी है तो मन में जाने कैसे-कैसे ख्याल आ रहे हैं. हम चल पड़े हैं क्योंकि चलना जरूरी था. जरूरत क्या है इसे कौन तय करता है? जब मजदूर चल पड़े थे तब सबको उन पर गुस्सा आया, सबसे ज्यादा गुस्सा आया सरकारों को उन पर, सरकार के भक्तों को आया. उन्होंने कहा कि जब कहा था कि रुको तो रुक जाना था न, क्यों चले जा रहे हैं. अब जब वो बात नहीं मानेंगे तो भुगतेंगे ही न? सीमायें सील हुईं, ट्रेनों पर जगह मिलीं नहीं मिली पटरियों तक पर, न बसों में न ट्रकों में सड़कों में न घर बचा था उनके पास न राशन. फिर भी समझ न पाया कोई कि वो न चलते तो क्या करते आखिर. गुनहगार भी वही साबित हुए जिन्होंने जान गंवाई. और अब देश खुल गया. दुकानें, दफ्तर, मॉल, मंदिर सब खुल गया. अब सबको चलना है. ऐसा कहा गया है. सबको काम पर पहुंचना है. दिखाना है कि इकोनोमी को कैसे दुरुस्त करेंगे हम. कैसे जान पर खेलकर दुनिया को बताएँगे कि हम डरे नहीं थे. हम डर तो रहे हैं लेकिन डरने की बात करना मना है.

ये क्या चल रहा, कैसा खेल चल रहा है जिसके सारे नियम सरकार के हैं, पासा भी हर बार वही फेंक रही है. जाहिर है जीतना भी उसी को है. हर बार. जब डर नहीं रहे थे तो डराया जा रहा था. जब सच में डर लगने लगा है तो कहा जा रहा है डरो मत. जब बाहर जाना चाहते थे तो पुलिस डंडे लेकर दौडाती थी अब घर में रहकर काम करना चाहते हैं तो रोजगार खोने का भय बाहर निकलने को मजबूर कर रहा है.

एक व्यक्ति एक समय पर टीवी पर आता है कहता है स्टेचू और पूरा देश स्टेचू हो जाता है, फिर वो कहता है 'दिए' तो देश जगमगा उठता है, फिर वो कहता है 'ताली' तो पूरे देश में नगाड़े बजने लगते हैं, फिर वो कहता है 'आत्मनिर्भर' और सब जान हथेली पर लेकर निकल पड़ते हैं. ये कैसा खेल है भाई. जब केस कम थे तो हम घरों में कैद थे जब केस ज्यादा हैं तो हम सड़कों पर हैं.

जिन्दगी आंकड़ा भर नहीं होती, आंकड़ों के हेर-फेर में आप माहिर लोग हैं लेकिन यह जो जान है न यह हमारी है, हमारी जान से सरकार को फर्क नहीं पड़ता जानते हैं. हम मर गये तो आप आंकड़ों से भी बाहर कर दोगे, या शामिल हुई भी हमारी मौत आंकड़ों में तो क्या होगा सिवाय मरने वालों की संख्या बढ़ने के. लेकिन साहब एक जिन्दगी एक जिन्दगी होती है. उस जिन्दगी का उसके परिवार के लिए महत्व होता है, जहाँ वो पूरी दुनिया होती है संख्या नहीं. देश खोल तो दिया है लेकिन इंतजाम अब भी जीरो ही हैं. ऐसे में आत्मनिर्भर वाला मन्त्र कितना और कब तक काम आएगा पता नहीं. लोग डरे हुए मिलते हैं. सबके भीतर एक डर है, ऐसा कभी नहीं देखा कि किसी से महीनों बाद मिले हों और कोई बात ही न हो. यह जो इकतरफा खेल है न यह अच्छा नहीं है, इसमें हमारी इच्छा की कोई जगह नहीं. हम जिन्दा लोग हैं लूडो की गोटियाँ नहीं हैं. इस बात को समझने वाला कोई नहीं है.

हमारे दफ्तर में तो खूब सैन्टाईज किया गया है सबकुछ, मास्क वास्क भी मिले हैं, तुम्हारे यहाँ ये सब नहीं होगा शायद. तो खूब ध्यान से रहना, कहीं से भी कुछ भी उठाकर मत खा लेना. तुम लापरवाह बहुत हो. मैं नहीं हूँ वहां इसलिए खुद ही ख्याल रखना होगा तुमको. 

मन उदास है. इस उदासी में तुम्हारी याद के संग लिली खिली है. 

Monday, June 1, 2020

खिलना तो है ही.


सुबह खिड़की से झाँककर देखा तो जूही मुस्कुरा रही थी. नन्हा सा पौधा अब बड़ी सी बेल बनकर इतराने लगा है. हवा चलती है तो फूल खूब झूमते हैं. नन्हे मियां हरसिंगार भी घुटनों चलते हुए अब पाँव-पाँव चलने लगे हैं. हरे पत्ते खूब आ गए हैं. शायद अबके मौसम उसमें भी फूल आये. पूरा अहाता फूलों से, खुशबुओं से भरा हुआ है. मैं ज्यादा समय बालकनी में ही लटकी रहती हूँ. जब बारिश आती है तो ऐसा जी करता है कि कूद ही जाऊं हवा के झोंकों के संग और लीची, आम के पेड़ों पर अटकी बूंदों के करीब जाकर बैठ जाऊं. देखूं बूँद बनकर देर तक टहनियों पर अटके रहना कैसा लगता है.

कल बारिश हुई थी. ज्यादा नहीं थोड़ी सी, लेकिन ठंडी हवा दिन भर चलती रही. मन का मौसम भी मध्धम सुर में मालकोश की बंदिश गुनगुनाता रहा दिन भर.

जब मैंने अपने शहर के मौसम से तुम्हारे शहर के मौसम के बारे में पूछा तो वो चुप हो गया. बोला नहीं कुछ. क्या तुम उदास थे. उदास कौन नहीं है, कब नहीं है. सच कहूँ हर बात निरर्थकता का बोध कराती है, हर काम सिवाय इन फूलों के.

जब तेज़ धूप में जबर्दस्त खिले और मुस्कुराते फूलों को देखती हूँ तो लगता है क्या इन्हें धूप नहीं लगती होगी, लगती तो होगी, फिर भी कैसे गमक के खिले हुए हैं. काली अंधियारी रात में जब सफ़ेद फूलों से जगमगा उठता है बागीचा और खुशबू से नहा उठता है पूरा कैम्पस तो सोचती हूँ क्या इन नन्हे सफेद फूलों को अँधेरे ने कभी डराया नहीं होगा. प्रकृति पवित्र है और जीवन का पूरा सन्देश. मौसम कैसा भी हो, हालात कितने भी विपरीत हों खिलना तो है ही और अंतिम सांस तक जीना है महकना है. हमारे होने की सार्थकता इतनी भर हो सके अगर कि कोई दो घड़ी हमारे करीब बी बैठे तो उम्मीद से भर उठे और हम किसी के करीब से गुजरें तो वो मोहब्बत से भर उठे...

मैंने आज फिर दो कप चाय पी है...जूही मुस्कुराकर मुझे देख रही है.

Thursday, May 28, 2020

रंग गुलाबी था दिन का


बहुत तेज आंधी आई थी आज. देर तक उस आंधी में बाहें पसार कर खड़ी रही. बहुत सारे फल टूटे पेड़ों से, पत्ते टूटे. तेज़ हवा एक जगह के सामान को उठाकर दूसरी जगह रख आई. सोचा था, इस तरह खड़ी रहूंगी तो ये तेज़ आंधी स्मृतियों के अंधड़ को भी उड़ा ले जायेगी. मेरे शहर का मौसम तुम्हारे शहर के मौसम से जब हाथ मिलाएगा तो मेरा संदेशा भी देगा. संदेशा याद का, प्यार का. तुम्हारे दिल की धडकनों को थोड़ा तेज करेगा. शायद तुम्हारे भीतर भी स्मृतियों की हलचल उठे और एक पुकार उठे उस शहर से इस शहर के नाम.

बार-बार बाहर जाती हूँ, हवाओं को टटोलती हूँ. कोई संदेशा तो नहीं इन हवाओं में टटोलती हूँ. नहीं मिलता कोई संदेशा. लौट आती हूँ. समय यूँ भी कम उदास नहीं, उस पर स्मृतियों का यह बवंडर.

बात करने से कुछ नहीं होता फिर भी जाने क्यों बात करने की इच्छा मरती ही नहीं.

गिरे हुए हर पत्ते को उठाकर देखती हूँ
कोई सन्देश तो नहीं
तितलियों से पूछती हूँ उसने कुछ कहा तो नहीं
नम सुबहों से पूछती हूँ
तुम्हारे शहर के मौसम का हाल
अख़बार के पन्ने पलटते हुए सोचती हूँ
क्या तुम भी पढ़ते होगे
मेरे शहर की ख़बरें
और पूछते होगे मौसमों से मेरा हाल
कि रंग गुलाबी था आज दिन का
तुम्हारी भेजी ओढ़नी
रही सर पर दिन भर....