Wednesday, October 15, 2025

मल्हार- कक्षा 8


ऑफिस के लंच ब्रेक में इन दिनों नई पाठ्य पुस्तकों से गुजरना हो रहा है। कल कक्षा 7 की मल्हार पढ़ते हुए रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता 'फूलों का स्कूल' पढ़ी थी और देर तक उसका असर रहा था। 

आज कक्षा 8 की मल्हार में भीष्म साहनी की कहानी 'दो गौरैया' पढ़ी। कैसा निर्मल पानी सा गद्य। कैसी सुंदर कहानी। मीठी कविता सी यह कहानी कितना सुंदर वितान समेटे है। 

एक हिस्सा देखिये- 
एक चूहा अंगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है। उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गर्मी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झांक जाती है। मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही ‘’फिर आऊँगी’ कहकर चली जाती है। शाम पड़ते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार पर फैलाए कसरत करने लगते हैं। घर में कबूतर भी हैं। दिन-भर ‘गुटर-गूँ गुटर-गूँ’ का संगीत सुनाई देता रहता है। इतने पर ही बस नहीं, घर में छिपकलियाँ भी हैं और बर्रे भी हैं और चीटियों की जैसे फौज ही छावनी डाले हुए हैं। अब एक दिन दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे उड़-उड़कर मकान देखने लगीं। पिताजी कहने लगे कि मकान का निरीक्षण कर रही हैं कि उनके रहने योग्य है या नहीं।
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किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए...’ इसी कहानी में यह वाक्य आया और एक सिहरन सी तारी हो गई। 

कहानी का अंत सुंदर है। एक मासूम सी प्यारी सी कहानी जो अपने भीतर जमाने भर के सवालों के जवाब भी समेटे हुए है।  

पढ़ना जारी है...

Monday, October 13, 2025

विसंगतियों को रूपायित करता उपन्यास


जितेन ठाकुर जी की टिप्पणी राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुई है। आभार!
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प्रतिभा कटियार का सद्य प्रकाशित उपन्यास जातीय दंश से अभिशप्त एक ऐसी युवती की कथा है जिसमें सामाजिक संरचना के विकृत स्वरूप को नकारने और छोटा साबित कर पाने के नैसर्गिक गुण मौजूद हैं। विषम पारिवारिक परिस्थितियों, अपमानित और तिरस्कृत करने वाली सामाजिक वर्जनाओं और हतोत्साहित कर देने वाले परिवेश में भी उसकी अदम्य इच्छाशक्ति सारे अवरोधों और बाधाओं पर भरी पड़ती है। नकारात्मकता को नकार देने वाला उसका मानसतंत्र सकारात्मकता का एक ऐसा सुदृढ़ कवच गढ़ लेता है जो विषमताओं और विसंगतियों को सहज ही ध्वस्त करता चला जाता है। पर नियति के कुचक्र का शिकार होकर वह उसी कारा में कैद रह जाती है, जिसमें युगों से सम्भावनाएं दम तोड़ती आई हैं।
 
अपनी इस यात्रा में मिले अनेक पात्र उसे जीवन मूल्य समझाते और आगे बढ्ने का हौसला देते हुए भी दिखलाई देते हैं। पर सामाजिक संरचना में लुके छुपे अनेक ऐसे कारण भी समय-समय पर प्रकट होते हैं जो समाज में फैले जातीय गरल की विभीषिका को स्पष्ट करते हैं। ये कारण हमारी नागरिक चेतना को आहत भी करते हैं और लांछित भी। टूट जाने की संभावनाओं के बावजूद विद्रूप का यह पाश पूर्ववत ही जकड़ा रह जाता है और आकाश में टिमटिमाने की कामना लिए हुए एक सितारा अनजान, अपरिचित खला में खो जाता है। यहीं पर उम्मीद के टूट जाने का दंश पाठक को भी त्रस्त करता है।

लेखिका ने बहुत ही सरल, सहज शैली में काव्यात्मक स्पर्श देते हुए इस उपन्यास को रचा है। उपन्यास में यथार्थवाद नहीं केवल यथार्थ है, इसलिए यह उपन्यास एक बदली हुई रचनाशीलता का एहसास देता है। इस उपन्यास में अमानवीय मानसतंत्र के कुछ ऐसे त्रासद विवरण मौजूद हैं जो परिवर्तनकामी घोषणाओं का शंखनाद करके गाल बजाने वाले समाज को मुंह चिढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। उपन्यास अपने समय की विसंगतियों को रूपायित भी करता है और त्रासदी को रेखांकित भी करता है। कहा जा सकता है कि यह उपन्यास अपने समय को विश्लेषित करने वाले एक विचारशील रचनकर का ऐसा रचनाकर्म है जो समाज की तमाम भयावहता और बेचैनियों को वहन करते हुए पाठक को अपने समय को समझाने की दृष्टि देता है।

उपन्यास की चेतना, कथा के स्तर पर जिस प्रकार हमें दंशित करती है और हमारी संवेदनाओं को विगलित करती है, उसके लिए प्रतिभा कटियार बधाई की पात्र हैं परंतु अपेक्षा के अनुरूप कारायी साँचा न टूट पाने की पीड़ा पाठक को आहात करती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले प्रयास में लेखिका इस साँचे को तोड़ पाने का यत्न करती हुई पुनः दिखलाई देंगी।

पुस्तक का नाम- कबिरा सोई पीर है (उपन्यास)
लेखिका- प्रतिभा कटियार
प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन
मूल्य- 300 रुपए

Monday, October 6, 2025

बेहद ज़रूरी रचना है कबिरा सोई पीर है- हृषिकेश सुलभ




ऋषिकेश सुलभ जी की स्नेह भरी यह चिट्ठी मिली है। जिनको पढ़ते हुए लिखना सीखा उनसे अपने लिखे पर यह पढ़ना विनम्र सुख और संकोच से भर देता है। बहुत शुक्रिया हृषिकेश जी।
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प्रतिभा,
आपका पहला उपन्यास “कबिरा सोई पीर है” कुछ ही दिनों पहले पढ़ा! अपने कथ्य को लेकर यह उपन्यास एक बेहद ज़रूरी रचना है। इसका कथ्य समय-सापेक्ष है और अपने गर्भ से अग्नि की ज्वाला को जन्म देता है। यथार्थ की ऐसी अनुभूति जिसे भूलना कठिन है, इस उपन्यास में अभिव्यक्त है। जाति व्यवस्था से पैदा हुए दंश की पीड़ा के अकथनीय मर्म को आपने रचा है! आपकी भाषा में सहज प्रवाह और अभिव्यक्ति की क्षमता है। उपन्यास के कहन में भी सहजता है, जिससे कई दुर्लभ मार्मिक क्षण रचे जा सके हैं।

हृषीकेश सुलभ

Saturday, September 27, 2025

'कबिरा सोई पीर है' की संरचना खास है- संगीता जोशी


प्रतिभा कटियार मैम का पहला उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है' का पढ़ा जाना बहुत दिनों से पेंडिंग था ,किताबें पढ़ना पसंद है विशेष कर हिंदी की वह भी व्यस्तताओं के कारण आजकल धरा का धरा रह गया कुछ अच्छी किताबें का पता चला और उन्हें पढ़ा तो आपके साथ साझा कर रही हूं। 

बहुत दिनों बाद ऐसा कुछ पढ़ रही हूं जिसका तिलिस्म खींच रहा लगातार और बार-बार ऐसा जादू बरकरार रहा कि एक ही बैठकी में पूरी किताब 'कबिरा सोई पीर है' पढ़ डाली। काबिलेगौर है कि लेखिका स्त्रीवादी, साहित्य आलोचना के साथ-साथ शानदार पत्रिका 'पाठशाला भीतर और बाहर' का संपादन भी कर रही हैं। स्त्री अध्ययन पर इनका गंभीर लेखन इस बात को विशेष रूप से रेखांकित करता है कि स्त्रीवाद, साहित्य और विचार को लेकर इनके पास व्यापक अनुभव है।समृद्ध बुद्धि से सज्जित प्रतिभा कटियार के पास वे तमाम औजार और दृष्टि संपन्नता मौजूद है जिससे किसी कृति की मीमांसा या आलोचकीय विश्लेषण किया जाता है।

'कबिरा सोई पीर है' समाज और संवेदना का आईना है इस उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार लगा जैसे में ऋषिकेश की वादियों में चल रही हूं, गंगा की लहरें , त्रिवेणी घाट की आहट,, मरीन ड्राइव की हलचल और पहाड़ों की हरियाली, लेखिका ने इन्हें आत्मीय और गहन ढंग से पिरोया है कि पूरा वातावरण सजीव हो पड़ता है। कहानी का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि इसमें समाज की जातिगत जटिलताओं और स्त्री के साथ होने वाले अन्यायों को बहुत सच्चाई से दिखाया गया है। वे छोटी सी लगने वाली घटनाएं जिन्हें अक्सर मामूली समझ कर अनदेखा कर देते हैं यहां पूरी मार्मिकता के साथ सामने आती हैं और यह एहसास कराती हैं कि जिनके साथ यह हो रहा होता है वह जीवन बदल देने वाले क्षण होते हैं। 

यह उपन्यास इंसान के भीतर छिपे दोहरेपन उसकी कमजोरी उसके लालच और एडियलपन के साथ-साथ उसकी जीवटता और मानसिक संघर्षों को भी बारीकी से उजागर करता है। अलग-अलग कथाओं के माध्यम से समाज का असली चेहरा खुल कर सामने आता है और पाठक हर दृश्य का साक्षी सा बन जाता है। यह उपन्यास संवेदनाओं, संघर्षों और प्रेम के अनूठे संयोजन के रूप में सामने आता है इसमें व्यक्तिगत रिश्तो के साथ-साथ सामाजिक संदर्भ भी उतनी ही गहराई से उभरते हैं यही इसे एक प्रभावशाली और शानदार रचना बनता है। 

उपन्यास की संरचना भी बहुत खास है। हर खंड किसी शेर से शुरू होता है और अंत उसी शेर की पूर्णता के साथ। इस तरह पूरा उपन्यास कई हिस्सों में बंटकर भी एक सुंदर और गहरी कड़ी के रूप में पाठक से जुड़ती है। खोखले आदर्शों में कैसे पूरा मध्यवर्ग जीवन गर्व के साथ गुजरता है यह उपन्यास इसका एक रोचक दस्तावेज है, बहुत कुछ लिखा जा सकता है इस पर लेकिन इसके आगे के लिए आपको खुद ही पढ़ना पड़ेगा।

प्रतिभा मैम बहुत-बहुत शुभकामनाएं आपने अपनी कलम से दिल उतार दिए पन्नों पर कमाल का लेखन है,,बहुत बधाई व शुभकामनाएं!

Monday, September 22, 2025

मन प्यार में डूबा रहा


कहीं भी जाती हूँ लौटकर आना चाहती हूँ, वहाँ जहां मेरे इंतज़ार में होता है मेरी खिड़की में टंका आसमान। मुस्कुराता हुआ हरसिंगार, सिरहाने रखी बिना पढ़ी गयी किताबों की ख़ुशबू और देर तक छाया रहने वाला सन्नाटा। इस बार लौटी हूँ तो हरसिंगार मुस्कुराकर नहीं खिलखिलाकर मिले। देर तक उसकी छाया में खड़ी रही। ख़ुशबू महसूस करती रही। दो बित्ते के थे जनाब जब इन्हें 4 बरस पहले घर लाई थी। माशाअल्लाह, बाँके जवान हो गए हैं जनाब। पहले मैं इनका ख़याल रखती थी अब ये मेरा रखने लगे हैं। ख़ुशबू साँझ से दुलराने लगती है। रात के बढ़ते ही जैसे सितारे उतर आए हों...देखती हूँ तो देखती ही जाती हूँ।
 
सितारों की ओढ़नी लेकर सो जाती हूँ और सुबह उनींदी आँखों से देखती हूँ, वो मुस्कुराकर कहता है, 'गुड मॉर्निंग'। मैं अलसाई हंसी उसे सौंपकर चाय का पानी चढ़ाती हूँ कि तभी कानों में जैसे कोई कोमल सुर घुलता है। चौंकती हूँ, कहीं कोई नहीं, कोई भी तो नहीं...ये कैसी आवाज़। जैसे किसी की सांस की आवाज़ हो।

ओह भ्रम होगा, माथे पर अपना ही हाथ मारते हुए हंस देती हूँ लेकिन वह आवाज़ फिर सुनाई देती है। इस बार सिहरन सी दौड़ जाती है। चाय लेकर बालकनी में आती हूँ, वह आवाज़ वहम नहीं थी, वो हरसिंगार के झरने की आवाज़ थी। कैसे हौले से शाखों से उतरकर झूमते हुए धीरे धीरे ज़मीन पर बिछ रहे हैं। कभी किसी दूसरी शाख पर अटक जाते हैं जैसे कुछ कहना रह गया हो, कहकर फिर झर जाते हैं। जहां झरते हैं उस जगह को सुफेद और नारंगी रंग की ओढ़नी सा सजा रहे हैं।

कश्मीर यूनिवर्सिटी की वो दोपहर याद हो उठी जब ऐसे ही झरते देखे थे चिनार के पत्ते। जैसे झरने का सुर लगा हो कोई। मध्धम, कोमल सुर।

जीवन जब सूचनाओं का अम्बार हो चुका हो, सूचनाओं पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का सैलाब बहा ले जाने को आतुर हो तब ऐसी सुर लगी सुबहों के प्रति मन कृतज्ञ हो उठती हूँ। तमाम ख़बरों के बीच ज़ुबिन गर्ग के लिए आसाम के लोगों के प्यार ने कल दिन भर थामे रखा। इस सुबह की मखमली छुअन मैं ज़ुबिन की याद के हवाले करना चाहती हूँ, उन सबके हवाले जो किसी न किसी रूप में दुनिया में प्रेम सहेज रहे हैं।

चाय के कप के करीब रखी कुँवर नारायण की कविता मुस्कुरा रही है-

इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने-झगड़ने को

पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा

और जीवन बीत गया...