Monday, August 25, 2025

संवेदनात्मक दृष्टि का परिचायक है उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है'


- ममता सिंह 
इस किताब को पढ़ते हुए कई पन्नों पर दृष्टि रुक गई,उन्हें दुबारा,तिबारा पढ़ा..गले में जैसे कुछ अटक सा गया..क्या था वह?

वह थी समाज की सच्चाई जिसे बड़ी चालाकी से यह कहकर टाल दिया जाता है कि अजी यह सब पिछले ज़माने की बातें हैं,अब कहां है जाति पांति की ऊंच नीच..अब तो सब बराबर हैं..जबकि हक़ीक़त में आज भी कोई बड़े से बड़ा अधिकारी हो या छोटे से छोटा कर्मचारी उसके आते ही पहले उसकी जाति देखी जाती है,प्रेम भी इससे अछूता नहीं होता(अपवादों की बात छोड़ दें तो)

प्रतिभा जी का यह उपन्यास महज मनोरंजन का विषय न होकर उनकी उस संवेदनात्मक दृष्टि का परिचायक है जो सामाजिक,आर्थिक,पारिवारिक समस्याओं की न केवल पड़ताल करती है बल्कि उसे हमारे सामने नग्न रूप में प्रस्तुत भी करती है जिससे हमें समाज की समता,समानता को लेकर बरती जा रहीं चालाकियों और क्षुद्रता के बारे में पता चलता है..इनके बीच में मुहब्बत एक ऐसी तरल तरंग के रूप में आती है जो हमें सुखांत कल्पना की ओर मोड़ती है किंतु इसका अंत यथार्थ के कठोर किंतु आत्मसम्मान पूर्ण धरातल पर होता है..

किताब की कुछ झलकियां
"कमलेश जी की नौकरी लग तो गई लेकिन जैसे अब तक ज़िन्दगी गले में अटकी रही, वैसी ही नौकरी भी अटक गई। बड़े बाबू शंखधर तिवारी और चपरासी विनोद श्रीवास्तव दोनों उन्हें साँस तक लेते देखकर खार खाते हों जैसे। विनोद का बर्ताव कमलेश जी के साथ वैसा ही था जैसे शीरे में डुबोकर कोई सुई चुभोए। तरीके ऐसे कि शब्दों पर जाएँ तो उन्होंने कुछ गलत कहा ही नहीं, 'अरे आप लोगों का जमाना है अब। हम लोग क्या हैं कीड़े-मकोड़े। देखिए कोई गलती-उलती हो जाए तो माफ कर दीजिएगा कमलेश बाबू। आप लोगों की बड़ी सुनी जाती है आजकल ।' या कोई जाति विरोधी वाट्सप फॉरवर्ड वीडियो को तेज आवाज़ में सुनना और मुस्कुराना।
कमलेश जी को सब समझ में आता है लेकिन वो चुप्पी को अपना एकमात्र हथियार बनाकर जीना सीख लिए हैं। उन्होंने मान लिया है कि सम्मान है ही कहाँ उनका। उनका जन्म अपमान सहने के लिए ही हुआ है। हालाँकि वो चाहते थे कि जो उन्होंने झेला वो उनके बच्चों को न झेलना पड़े। दलित राजनीति का हश्र जो भी हुआ हो लेकिन अरसे से वंचित, इस देश के एक बड़े वर्ग की आँखों में छोटे-छोटे सपने तो बोए ही हैं। हालाँकि अगड़ों की राजनीति उन इबारतों को मिटा देने पर भी आमादा है जहाँ दलित और पिछड़े वर्ग को जरा-सी राहत है। समानता-समानता की रट लगाकर गरीब सवर्णों को भी आरक्षण मिलना चाहिए का शोर मचानेवालो ये समझने को तैयार ही नहीं कि समता भी एक चीज होती है। उसके बिना समानता भी एक फरेब ही बनकर रह जाएगी। एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति एक मध्यवर्गीय दलित से हमेशा ऊँची रहती है, यह बात वे जानते हैं लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहते।
इन्हीं उलझावों के बीच कमलेश जी ने शिक्षा के महत्त्व को बखूबी समझ लिया था। उन्होंने अपने तीनों बच्चों को स्कूल पढ़ने भेजा। हालाँकि वो जानते थे कि इन बच्चों का जन्म गलत घर में हो गया है और इन्हें जीवन-भर अपमान तो सहना ही पड़ेगा। वो चाहते तो थे कि बच्चों को जातिगत अपमान न सहने पढ़ें लेकिन हक़ीक़त से भी वो वाक़िफ़ थे ही, इसलिए उनकी कोशिश होती कि बच्चों को अपमान सहने की आदत पड़ जाए।"

* * * *
"लड़ाई का सबका अपना तरीका होता है। मैं लड़ ही तो रही हूँ। मेरी पढ़ाई ही मेरी लड़ाई है। कुछ बन जाऊँगी तो बहुतों की आवाज बन पाऊँगी। वरना ऐसे ही गृह कलेश में जीवन बिताना पड़ेगा। तुझे एक बात बताऊँ, मुझे माँ-पापा किसी से शिकायत नहीं। उनसे क्या शिकायत करो, जो खुद विक्टिम हैं यार। मम्मी का बड़बड़ाना जिस दिन बन्द हो जाएगा न, माँ मर जाएगी। इसी बड़-बड़ में वो अपने भीतर की कड़वाहट को निकालती रहती है। मुझे तो लगता है ज्यादातर औरतों की बड़-बड़ में उनका फ्रस्टेशन ही निकल रहा होता है, जिसका लोग उपहास बनाते हैं।'
 
* * * *
"तुम अभी उस सवाल से तो नहीं जूझ रहे कहीं कि तुम्हारे प्रेम में सद्भाव ज़्यादा है?' कनिका ने अपने मोह के धागों को तोड़ते हुए तृप्ति और अनुभव पर फोकस किया।
'हरगिज नहीं। लेकिन देखो यह सवाल आया न तुम्हारे मन में। अगर मैं तुमसे प्यार करता तो भी क्या यह सवाल आता? नहीं न? बस यही लड़ाई है। बराबरी-बराबरी के शोर में ही कितनी गैर बराबरी है, यह हमें खुद ही नहीं पता चलता।' अनुभव एकदम स्पष्ट था। अपने भावों को लेकर भी और विचारों को लेकर भी।
'पता है कनिका ! जब मैं कॉलेज की डिबेट में इन मुद्दों पर बोलता था और जीतकर ट्रॉफी लेता था तो अन्दर से रुलाई फूटती थी। लोग हैं वो। हमने उन्हें, उनकी समस्याओं को मुद्दा बनाकर इस्तेमाल करना सीख लिया है, राजनीति में हो या कॉलेज की डिबेट में या एग्जाम में आनेवालो निबन्ध के विषय में क्या फर्क है।' आवाज़ बिखरने लगी थी अनुभव की और गला भर्राने लगा था।
'इतना भी मत परेशान हो यार, होगा एक दिन सब ठीक। हम मिलकर करेंगे न?' कनिका ने उसके कन्धे को धीरे से दबाते हुए आश्वस्ति देनी चाही।"

पुस्तक ...कबिरा सोई पीर है
लेखक ...प्रतिभा कटियार
प्रकाशक ...लोकभारती प्रकाशन
मूल्य ...299 रुपए

Sunday, August 10, 2025

पाठकों को बांधता है 'कबिरा सोई पीर है'


- केवल तिवारी 
जीवन रूपी रंगमंच में न जाने कितने किरदारों का हमें सामना करना पड़ता है। हम खुद भी तो अनेक तरह का नाटक करते हैं। लेकिन जब अच्छा होने का दंभ भरने वाला भी ‘नाटकबाज़’ निकले और सचमुच एक अच्छे इंसान को ग़लत साबित करने में दुनिया लग जाए, तो क्या हो? उपन्यास ‘कबिरा सोई पीर है’ में ऐसे ही ताने-बाने की बुनावट है। लेखिका हैं प्रतिभा कटियार। अलग-अलग शीर्षक से कहानीनुमा अंदाज़ में लिखा गया यह उपन्यास एक नया प्रयोग है। हर कहानी का पूर्व और बाद की कहानी से संबंध है। हर कहानी के बाद उसके कथानक से मेल खाती एक शायरी होती है— किसी मशहूर शायर की।

उपन्यास में दर्ज कहानी की नायिका तृप्ति की धीर-गंभीरता काबिल-ए-गौर है, लेकिन आखिरकार वह भी तो इंसान ही है। ऐसी लड़की, जिसे कदम-कदम पर दंश मिलता है— सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक। शायद इसीलिए वह ज़्यादा सोचने लगी है। उधर, अनुभव बहुत कोशिश करता तो है ‘हीरो’ बनने की, लेकिन इस ‘खतरनाक’ समाज में कहां संभव है यह सब। सीमा तो जैसे आदर्श लगती है। लेकिन उसके साथ रिश्ते में भाई लगने वाले ने क्या किया? सही रिपोर्ट तो होती है क्राइम ब्यूरो की, जिनका लब्बोलुआब होता है— ‘किस पर करें यक़ीन?’

चलचित्र की तरह आगे बढ़ती कहानी पाठक को बांधे रखती है। पाठक की कल्पनाओं के घोड़े दौड़ते हैं, लेकिन कहानी की जिज्ञासा तब और बढ़ जाती है, जब उसकी धारा दूसरी दिशा में बह निकलती है। यह ताकीद करते हुए कि ‘अब कहां होता है ऐसा’, मत बोलिए। सिर्फ कहना आसान है कि ‘अब तो सब ठीक है।’ कहानी के पात्रों से यह भी तो साफ होता है कि हर कोई एक जैसा नहीं होता। गंगा की लहरों, रातरानी की सुगंध और फूल-पंछियों का मानवीकरण ग़ज़ब अंदाज़ में किया गया है।

एक बेहतरीन लेखक की यही पहचान है कि उसका पाठक रचना को पढ़ने पर भी तृप्त न हो। इस उपन्यास की कहानी भी खत्म होते-होते पाठक कुछ ढूंढ़ता है। सुखांत ढूंढ़ने की हमारी फ़ितरत यहां भी कुछ समझ नहीं आती—सिवा इसके कि तृप्ति फिर उठ खड़ी होगी और इस उपन्यास का दूसरा भाग भी आएगा।

पुस्तक : कबिरा सोई पीर है लेखिका : प्रतिभा कटियार प्रकाशक : लोकभारती पेपरबैक, प्रयागराज पृष्ठ : 168 मूल्य : रु. 299.

Friday, August 1, 2025

टूटन



टूटी हुई नींद
चिड़िया का टूटा पंख है
जिसके किनारे 
टूटन के दुःख से सने हैं.

- प्रतिभा कटियार 



कोई ताज़ा हवा चली है अभी ...


हँसती खिलखिलाती, इठलाती, शरारतें करती लड़की उस रोज गुमसुम हो गई जब वो सांझ के काँधे से लगकर झील में बस उतरने जा रहे सूरज को ताक रही थी और साँझ ने उसके माथे  पर पोशीदा सा एक लम्स रख दिया था। उस ठंडी शाम में लड़की के माथे पर रखा गुनगुना सा वो लम्स दहक उठा था। कदंब के पेड़ के नीचे मटरगश्ती करते मुर्गियों के झुंड ने मानो न कुछ देखा, न सुना।

सांझ ने मुस्कुराकर पूछा,'तुम खुश तो हो न?' 
लड़की की आँखें झरना हो चली थीं।
'ख़ुश' यह शब्द उसे उदास करता है इन दिनों।
'ख़ुश...' कितना अवसाद है इसके सीने में।

कोई ख़ुशी अकेले कभी नहीं आती। अपने साथ ढेर सारा अकेलापन, उदासी और पीड़ा लेकर आती है। ख़ुशी कल्पना में अच्छी लगती है। कल्पना में, कविताओं में, कहानियों में, रील में, फेसबुक में, इन्स्टा में उफनाती फिरती है। ये ख़ुशी उदास करने वाली ख़ुशी नहीं है। ये ख़ुशी किसी नशे सी है, जब तक है, तब तक है। कभी-कभी तब तक भी नहीं है।

जैसे चारों तरफ ख़ुशी का कोई सैलाब बिखरा पड़ा है। जल्दी जल्दी ख़ुशी परोसने वाला सैलाब। 
न सुख के भीतर सुख है, न दुख के भीतर दुख। बस एक शोर है।
लेकिन इस शोर के साथ डील करना आसान है। मुश्किल है एक गहरी लंबी चुप्पी के साथ डील करना।
 
साँझ ने साथ चलती एक मीठी सी लंबी चुप्पी के बाद लड़की के माथे पर ये लम्स जड़कर उसे न सिर्फ हैरत में डाल दिया बल्कि उसके खुश होने के भीतर समाये तमाम डर को आज़ाद भी कर दिया। 

अब झील के किनारे 4 जन थे। लड़की, साँझ, ख़ुशी से जन्मा डर और लगभग ठंडी हो चुकी चाय।

सूरज झील में डूबकर बुझ चुका था।
सांझ की आँखें उनींदी होने को थीं और लड़की अपने तमाम डर, बेचैनी को समेट वापस लौट रही थी।

साँझ का उसके साथ लौटना नामुमकिन था, यह  वो जानती थी।
और यह जानना ही सृष्टि का समूचा कष्ट है।

अब न लड़की साँझ के करीब जा पा रही, न खिलखिला कर हंस पा रही है।
वो नरम सा लम्स जिसके भीतर पूरी क़ायनात का सुख समाया था, न जाने कैसे उदास एहसास में बदल गया। सुख के साथ भरोसे का आना जरूरी है, कि वो रहेगा।
लेकिन अफसोस कोई सुख यह भरोसा लेकर नहीं आता। इसलिए हर सुख की आहट असल में उसके बीत जाने की आहट भी है। और यही उस सुख का दुख है।

लड़की ने चाय का पानी चढ़ाया, बालकनी में उचकती धूप को 'हैलो' कहा और गुलाम अली की गज़ल की आवाज़ तेज़ कर दी...कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी...आवाज़ सुबह में घुलने लगी।  

सुबह ने लड़की के माथे पर आई शिकन को चूम लिया था। धूप बिखरने लगी थी.
गुलाम अली की आवाज़ मुस्कुरा उठी थी, कोई ताज़ा हवा चली है अभी....

Saturday, July 26, 2025

एक कोना धूप एक बूंद बारिश- पूरन जोशी


कविता पढ़ते हुए लोग मुझे बेहद पसंद हैं। कविताओं के बारे में ऐसा है कि उन्हें पढ़ने के बाद एक लंबी चुप्पी में उतरा जा सकता है। कविताओं के बारे में बात करना ऐसा ही है जैसा ख़ुशबू के बारे में बात करना, स्वाद के बारे में बात करना, मौसम के बारे में बात करना। हर बात वो कितने ही सलीके से की जाए असल में पूरी बात नहीं हो सकती। भीगना भीग कर ही महसूस किया जा सकता है। फिर भी साहित्य में वो ताक़त है कि आप पढ़ते हुए भीगने का सुख कुछ हद तक ले सकते हैं, कॉफी के बारे में पढ़ते हुए कॉफी की तलब महसूस कर सकते हैं और पढ़ने के बाद बारिश की ओर कदम बढ़ा सकते हैं, कॉफी बनाने के लिए उठ सकते हैं।  

शब्द...शब्द...शब्द...अच्छे, प्यारे शब्द, मीठे शब्द, ढंग से जमाये गए शब्द, शिल्प में सजे शब्द तब तक अधूरे हैं जब तक उनमें अपने समय की उलझन नहीं, बेचैनी नहीं, अधूरी रातों की जाग नहीं, अन्याय के खिलाफ़ प्रतिकार नहीं, कुछ न कर पाने की पीड़ा नहीं और सबसे इतर समय और काल को परख पाने की समझ नहीं। 

पूरन जोशी के पहले कविता संग्रह 'एक कोना धूप एक बूंद बारिश' को पढ़ते हुए मुझे यह सुख मिला। यक़ीन मानिए यह एक बड़ा सुख है। और मुझे हमेशा से यक़ीन था कि पूरन के यहाँ यह सुख मिलेगा। उसके लिखे से पहले से परिचय है। लेकिन उस परिचय से बड़ा परिचय है पूरन की शख्सियत का। बेहद सुलझी हुई संपन्न दृष्टि, उदार मन, विनम्र व्यवहार। जहां वो एक ही पल में किसी को भी अपना बना लेता है वहीं गलत के खिलाफ़ मुखर भी होता है। उसकी कविताओं में यह झलकता है। 
मैं बहुत सारी कविताओं पर बात कर सकती हूँ। लेकिन मैं फिलहाल उसकी कविता हे राम आपके साथ साझा कर रही हूँ- 
 
हे राम! 

तुम उस रोज मेरे देश आए थे बुद्ध 
तब तुम्हारे भेस में अचानक ही 
मैंने मोहम्मद को देख लिया था 

ये उसी दिन की बात है 
जब मैं जामा मस्जिद की उन ऊंची-ऊंची सीढ़ियों पर 
चढ़ते-चढ़ते ठिठक गया था एकाएक 

तभी तुम खुद सीढ़ियों पर आ गए 
और मेरे हाथ अपने समझदार हाथों में 
धरकर तुमने जिक्र किया था 
रामेश्वर के उस सात साला बेटे का 
जो कल के दंगों में खूनमखून हुआ 

फिर तुमने अपने साथ घटी 
उस घटना को भी बताया 
जब सच कहने की वजह से 
टांगा था सूली पर तुमको 
और फिर ईसा बनकर 
इस पूरी दुनिया के 
तारणहार बन गए थे तुम 

तभी लगभग दो हजार साल बाद 
कैसे एक सरफिरे हत्यारे ने 
तुम पर गोली चलाई थी 
और तुमने कहा था 
हे राम!  

पूरन की कवितायें उम्मीद की कवितायें हैं, प्रकृति की कवितायें हैं, अपनेपन की कवितायें हैं। इसमें एक कोना धूप है सदियों से सीले मन लिए लोगों का और एक बूंद बारिश है हालात के सूखे से बंजर होते सपनों  के लिए। आइये, इस संग्रह का स्वागत करें। किताब न्यू वर्ड पब्लिकेशन से आई है। अमेज़न पर उपलब्ध है।