न जाने किस से भाग रही हूँ. न जाने कहाँ जाने को व्याकुल हूँ. हंसने की कोशिश में न जाने क्यों आँखें छलक पड़ती हैं. बात करना चाहती हूँ लेकिन चुप हो जाती हूँ. मुश्किलें किसके जीवन में नहीं भला ये जानते हुए ख़ुद को खुशक़िस्मत महसूस करती हूँ फिर भी हवा का कोई झोंका गले से लगाकर कहता है “तुम रो क्यों नहीं लेती पगली” और मैं उसका मुँह ताकती हूँ कि मैं तो ठीक हूँ न. “ठीक होने में उदास होना, रो लेना शामिल नहीं ये किसने कहा” हवा के झोंके ने सर सहलाते हुए कहा और मैं ख़ामोश हो गई. मैंने सोचा, सपने में बार-बार ट्रेन छूट जाती है, नींद के भीतर ढेर सारी जाग भरी रहती है और जाग में नींद का दखल जारी रहता है ये सब किस से कहूँ इसलिए कह देती हूँ सब ठीक है. लेकिन जिन्हें पता है उन्हें सच में सब पता ही है कि ठीक के भीतर कितना पानी है फिर भी…
Friday, April 5, 2024
Wednesday, March 6, 2024
उम्मीद
एक रोज जरा सी लापरवाही से
उम्मीद के जो बीज
हथेलियों से छिटक कर
बिखर गए थे
सोचा न था
कि वो इस कदर उग आएंगे
और ठीक उस वक़्त थामेंगे हाथ
जब मन काआसमान
डूबा होगा घनघोर कुहासे में
डब डब करती आँखों के आगे
वादियाँ हथेलियाँ बिछा देंगी
और समेट लेंगी आँखों में भरे मोती सारे
स्मृतियों में ठहर गए गम को
कोई पंछी अपनी चोंच से
कुतरेगा धीरे-धीरे
जब कोई सिहरन वजूद को घेरेगी
मौसम अपने दोशाले में लपेटकर
माथा चूम लेगा
उगता हुआ सूरज
सोचा न था
कि वो इस कदर उग आएंगे
और ठीक उस वक़्त थामेंगे हाथ
जब मन काआसमान
डूबा होगा घनघोर कुहासे में
डब डब करती आँखों के आगे
वादियाँ हथेलियाँ बिछा देंगी
और समेट लेंगी आँखों में भरे मोती सारे
स्मृतियों में ठहर गए गम को
कोई पंछी अपनी चोंच से
कुतरेगा धीरे-धीरे
जब कोई सिहरन वजूद को घेरेगी
मौसम अपने दोशाले में लपेटकर
माथा चूम लेगा
उगता हुआ सूरज
मुश्किल वक़्त को मुस्कुराकर देख रहा है...
Friday, March 1, 2024
अपनेपन की रोशनी
सांत्वना और सहानुभूति के शब्दों की हथेलियाँ
खाली ही मिलीं हमेशा की तरह
उनके चेहरे पर अपनेपन का आवरण था
उनके दुख जताते शब्दों में
छुपा था एक मीठा सा सुख भी
अक्सर वे कंधे ही सबसे कमजोर मिले
जिन्होंने कंधा बनने की खूब प्रैक्टिस की थी
और जिन्हें अब तक नहीं मिला था मौका
अपनी प्रतिभा दिखाने का
'सब ठीक हो जायेगा' की अर्थहीनता
किर्रर्रर्रर्र की आवाज़ की तरह
कानों को चुभ रही थी
'मैं हूँ न, परेशान न हो' कहकर जो गए
वो कभी लौटे नहीं फिर
इन सबके बीच
कुछ निशब्द हथेलियाँ
हाथों को थामे चुपचाप बैठी रहीं
अंधेरा घना था लेकिन
अपनेपन की रोशनी भी कम नहीं थी।
Wednesday, February 7, 2024
साथ ही साहस है
क्या मैं उदास हूँ?
क्या मैं दुखी हूँ?
क्या मुझे सांत्वना की दरकार है?
इन सवालों से घिरी ही थी कि कुछ नए सवाल उग आए कि आखिर मैं कितनी उदास हूँ? दुख को परे रख रही हूँ कि दुख बहुत बड़ी चीज़ होता है और वो रोने और आंसुओं के दायरे में नहीं आता, उससे बहुत दूर निकल चुका होता है।
खैर, पिछले दिनों जीवन में घटी एक आपदा से जो चोट लगी मन पर, जीवन पर उसके बाद से इस असमंजस में हूँ कि क्या मैं उदास हूँ? उदासी की तेज लपटें मुझे झुलसा रही थीं लेकिन दोस्तों के प्रेम की बरसात शुरू हो गयी।
मुश्किल वक़्त में हमेशा यही जाना कि शब्द नहीं, 'साथ' (पास से या दूर से) ही मरहम है, प्रेम ही मरहम है।
साथ जो सहानुभूति नहीं साहस लेकर खड़ा होता है, जो हिम्मत और हौसला लेकर खड़ा होता है.
'साथ'...शब्द की ताक़त इन दिनों सांस बनी हुई है। इस बार नयी लड़ाई है...कोंपलें फिर फ़ूटेंगी...उम्मीदें फिर खिलेंगी...
Monday, January 8, 2024
आने से ज्यादा जरूरी है आने की इच्छा
ओ जानाँ,
तुम्हारा आकर जाना
तुम्हारा आकर जाना
मुझे प्रिय है
कि छूट जाती है एक ख़ुशबू तुम्हारे पीछे
जो डोलती-फिरती है मरे दायें बायें
तुम्हारे जाने के बाद,
जैसे तुम डोलते फिरते हो
आने के बाद.
तुम्हारे जाने में
वो जो फिर से आने की
आहट होती है न,
जैसे कोमल गंधर्व लगा हो मालकोश का
जाकर जोऔर क़रीब आ जाते हो तुम,
वो जो लगता है इंतज़ार का मद्धम सुर,
जो ख़्वाहिशों की पाज़ेब
छनकती रहती है हरदम,
वो जो जूही की डाल सी
महकती रहती है मुस्कुराहट
वही जीवन है
वही प्रेम है
हाँ, तुम्हारा आना ज़रूरी है
लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है
आने की इच्छा का होना.
मेरे लिये वो इच्छा प्रेम है.
अगर ज़िंदगी के रास्तों पर चलते हुए
कोई हाथ थामना चाहे तो
रोकना मत ख़ुद को.
बस जब बीते लम्हों का ज़िक्र आये
तो मुस्कुराना दिल से
मेरे लिये यही प्रेम है.
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