Wednesday, August 27, 2008

Tuesday, August 26, 2008

लिखती हुई लड़कियां



लिखती हुई लड़कियां
बहुत खूबसूरत होती हैं

लिखती हुई लड़कियां
अपने भीतर रचती हैं ढेरों सवाल
अपने अन्दर लिखती हैं
मुस्कुराहटों का कसैलापन
जबकि कागजों पर वे बड़ी चतुराई से
कसैलापन मिटा देती हैं
कविता मीठी हो जाती है

वे लिखती हैं आसमान
पर कागजों पर आसमान जाने कैसे
सिर्फ़ छत भर होकर रह जाता है

वे लिखती हैं
सखा, साथी, प्रेम
कागजों पर वो हो जाता है
मालिक, परमेश्वर और समर्पण।

वे लिखती हैं दर्द, आंसू
वो बन जाती हैं मुस्कुराहटें

वे अपने भीतर रचती हैं संघर्ष
बनाना चाहती हैं नई दुनिया

वो बोना चाहती हैं प्रेम
महकाना चाहती हैं सारा जहाँ

लेकिन कागजों से उड़ जाता है संघर्ष
रह जाता है, शब्द भर बना प्रेम.

वे लिखना चाहती हैं आग
जाने कैसे कागजों तक
जाते-जाते आग हो जाती है पानी

लिखती हुई लड़कियां
नहीं लिख पाती पूरा सच
फ़िर भी सुंदर लगती है
लिखती हुई लड़कियां.

जो तुमसे चाहता है मन

तुम्हारे साथ हँसना
तुम्हारे साथ रोना
तुम्हारे साथ रहना
तुम्हारे साथ सोना....
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन

तुम्हीं से बात करना
तुम्हीं से रूठ जाना
तुम्हारे साथ जग से जूझना भी
तुम्हे दुनिया से लेकर भाग जाना 
सजल मासूम आँखे चूम लेना
तुम्हारी रात के सपने सजाना 
तुम्हें हर बात में आदेश देना
तुम्हारी चाह को माथे लगना
न जाने कितनी बातें है
जो तुमसे चाहता है मन

विकट अनजान राहों में
तुम्हारा हाथ पाना
तुम्हारे मान का सम्मान करना
अडिग विश्वास से नाता निभाना
तुम्हारे रूप गुन की दाद देना
तुम्हारे शील को साथी बनाना
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन

तुम्ही से ओज पाना
तुम्हारी धार को भी शान देना
तुम्हारे आसुओं के मोल बिकना
की अपनी आन पर भी जान देना
कभी चुपके, कभी खुल के
तुम्ही को चाह लेना
तुम्ही में डूब जाना
अटल गहराइयों की थाह लेना
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन।

- दिनेश कुशवाहा 

मोक्ष

इसी काया में मोक्ष

बहुत दिनों से में
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिचले कई जन्मो से।

एक ऐसा आदमी जिसे पाकर
यह देह रोज ही जन्मे रोज ही मरे
झरे हरसिंगार की तरह
जिसे पाकर मन
फूलकर कुप्पा हो जाए
बहुत दिनों से में
किसी ऐसी आदमी से मिलना
चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया
अपनी आँखों नही देखिये
तो भी यह जन्म व्यर्थ नही गया
बहुत दिनों से मैं
किसी को अपना कलेजा
निकलकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में
भर गया है अपर मर्म
मैं चाहता हूँ कोई
मेरे paas भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकल ले sare रतन
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से
मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही
भक्क से बार जाए आँखों में लौ
और लगे की
दिया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
की paa गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा नहाकर paate थे
बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की
सुन्दरता का मानसरोवर
चूना चाहता हूँ तन की
सुन्दरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई कोई ऐसा
जिससे मन हजार
बहारों से मिलना चाहे
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना
चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मो के पाप मिट गए
कट गए सरे बंधन
की मोक्ष मिल गया इसी काया में .....
ye कविता दिनेश कुशवाह की है ।

Friday, August 22, 2008

गोलबंद स्त्रियों की नज़्म


कुछ हंसती हैं आँचल से मुह ढंककर
तो कुछ मुंह खोलकर ठहाके लगाती है
गोलबंद होकर स्त्रियाँ
जाने क्या क्या बतियाती हैं

बात कुए से निकलकर
दरिया तक पहुचती है
और मौजों पर सवारी गांठ
समंदर तक चली जाती है

समंदर इतना गहरा
की हिमालय एक कंकड़ की तरह डूब जाए
ऊँची ऊँची उसकी लहरे
बादलों के आँचल पर
जलधार गिरती
वेदना की व्हेल
दुष्टता की सरक
छुपकर दबोचने वाले
रक्तपायी आक्टोपस
जाने और भी क्या क्या
उस समुद्र में

गम हो या खुशी
चुपचाप नही पचा पाती है स्त्रियाँ
मिलकर बतियाती है मिलकर, गाती है
इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती है
स्त्रियों ने रची है दुनिया की सभी लोककथाएं।
उन्हीं के कंठ से फूटे है अरे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए है
सितारों को उनके नाम

- दिनेश कुशवाह 

कुछ टुकड़े

भीड़ कभी गंभीर नहीं होती, एकांत गंभीर होता है
लिखना एकांत की और चिंतन की उपज है यह
जितना कुछ किसी की अपनी जरूरत बने वाही ठीक है।
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हम सबका सबसे बड़ा गुनाह सचमुच यही है की हम अपने ही भीतर
पड़ी संभावनाओ को नही जानते।
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सपने की हैरानी और खुमारी बताई नही जाती।
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लेखक अपने पाठको का आसमान बड़ा कर सकता है।
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कभी-कभी घोर उदासियाँ भी आंखों में जो पानी नही ला
पति किसी दोस्त की मोहब्बत उस पानी का बाँध तोड़ देती है।
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अपने पात्रों के साथ एक जान हो जाने का तजुर्बा
भी अजीब तजुर्बा होता है।
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सिर्फ़ मुश्किल वक़्त ही नाजुक नही होता। अचानक कहीं से
इतनी पहचान मिले, इतना प्यार मिले ऐसा वक़्त भी उतना ही
नाज़ुक होता है।
गीत मेरे कर दे
मेरे इश्क का क़र्ज़ अदा
की तेरी हर एक स्तर से
आए ज़माने की सदा।
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टेढी सिलाई उधडा हुआ बखिया
यह जीना भी क्या जीना है।
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जीवन में एक बार प्यार जरूर करना चाहिए।
इस्ससे जिन्दगी पूरी हो जाती है।
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मन की धरती पर पड़े हुए ख्यालों के बीच कितने फल पाते
हैं और कितने सूख जाते हैं नहीं जानती। लइन फ़िर भी इन
अशारों का शुक्रिया अदा करती हूँ जिन्होंने बहुत हद तक मेरे
अहसास का साथ दया है।
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Tuesday, August 19, 2008

allav

1८ अगस्त गुलज़ार साहब का जन्मदिन
आज उनकी ये नज़्म मेरे ब्लॉग पर

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखिएँ
काटी तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते
तोडे मैंने जेबों से निकली सभी सुखी नज्म
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोडे
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नमी सूख गयी थी ,
सो गिरा दिन रात भर जो भी मिला
उगते बदन पर हमको काट के दाल दिया
जलते अलावों मैं उसे रात भर फूंकों से
हर लौ को जगाये रखा और दो जिस्मों के इंधन को
जलाये रखा भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

Sunday, August 3, 2008

dream


jindagi ke naam

ये गम है मेरा, मेरी तन्हाई है....



न न, मत मांगो मुझसे
ये कोई जेवर नहीं
तुम्हारे बाज़ार में
कोई कीमत नहीं इसकी

ये गम है मेरा
मेरी तन्हाई है....