Friday, December 31, 2021

ओ नये बरस



ओ नये बरस
आहिस्ता आना
बिना हल्ला गुल्ला
बिना शोर किये
 
कि उदासियाँ अभी
आँखों से झरी नहीं
पांवों की बिंवाइयाँ
अभी तक दुखती हैं
उम्मीद की सांस मध्धम है

तुम्हारे कंधों पर
बड़ी जिम्मेदारी है
बीते बरस की
उदासियाँ बीनने की
हिम्मत और उम्मीद
सहेजने की

सिर्फ कैलेंडर न बदले
बदले जीवन भी तुम्हारे आने से...

Saturday, December 11, 2021

अठारह बरस की सहेलियाँ



अनाड़ीपन से भरपूर 18 बरस माँ बनने के
पहली बार पेट में तितली सी उड़ी
पता चला कि तुम आई हो

कुछ महीनों बाद तुमने 
पेट के भीतर से थप थप की
मेरी माँ ने हंसकर बताया 
मेरे माँ बनने के बारे में

पहली थप थप की स्मृति
अब तक तक रोयें खड़े करती है
दफ्तर में थी उस वक्त
किसी मीटिंग में शायद

कितनी ही देर तक रोई थी मैं
वाशरूम में जाकर 
कैसा सुकून था उस पहली थप थप में
कैसा आनन्द था उस रोने में

तुम समझ गयीं कि
पेट के भीतर से की जाने वाली 
तुम्हारी थप थप
पसंद है तुम्हारी माँ को 
तुम्हारी थप थप बढ़ने लगी

तुम्हारी थप थप में सुना पहली बार
जीवन का संगीत
पहली बार दुनिया इतनी खूबसूरत लगी
पहली बार खुद से प्रेम हुआ
पहली बार पंख उगते महसूस हुए

तुम आईं जब गोद में पहली बार 
लगा खुद को छुआ है पहली बार 

मैं बदल रही थी
मैं बेपरवाह हो रही थी
तुम और मैं
मैं और तुम
 
तुमने ही एक संकोची, दब्बू, सी लड़की को
निर्भीक स्त्री बनाया
तुमने ही तो जीवन के सही अर्थ समझाए

तुम्हारी नन्ही उँगलियों में 
अपनी उँगलियों को फंसाकर
बैठे रहना जैसे इबादत में बैठे रहना हो

तुम्हारी किलकारियां,
तुम्हारी जिद, तुम्हारा रुदन
तुम नहीं जानतीं कि 
तुम इस दुनिया में नहीं आई थीं
तुम खुद एक दुनिया बनकर आईं  
जिसमें तुम्हारी माँ को मिला खुला आसमान
ख़्वाहिशें, अरमान, उम्मीदें, सपने
तभी तुम्हारा नाम ख़्वाहिश हुआ
कि ख़्वाहिश के मानी पहली बार 
तुमसे ही तो जाने थे

तुम एक नया शब्दकोश लेकर आई 
एक पूरा नया संसार
कोई पूछता तुम्हारे नाम का अर्थ
तुम किलक कर कहती
'मैं अपनी मम्मा की ख़्वाहिश हूँ'
लेकिन तुम मम्मा की ख़्वाहिश भर नहीं थीं
मम्मा की ख़्वाहिशों के जागने की वजह थीं
तुम पर मम्मा की ख़्वाहिशों का बोझ नहीं
खुद अपनी ख़्वाहिशों को पहचानना 
उन्हें जीने की इच्छा से भरा होना था 

हम साथ जन्मे हैं
हम साथ बड़े हुए हैं
हम साथ में सीख रहे हैं माँ-बेटी होना
दोस्त होना

हम गलतियाँ करते हैं
मिलकर उन्हें सुधारते हैं
एक-दूसरे से शिकायत करते हैं
मिलकर उन्हें दूर भी करते हैं.

हम 18 बरस की सहेलियां हैं
कभी तुम माँ बनकर मुझे हिदायतें देती हो
समझाती हो ख़याल रखती हो
कभी मैं करती हूँ यही सब
कभी हम दोनों सहेलियां बन उछलती हैं, कूदती हैं

18 बरस की माँ की आँखों में नए सपने जाग रहे  हैं
कुछ नये डर सांस ले रहे हैं
अब अपनी उंगली 
उन नन्ही उंगलियों से निकालने का समय है 
पंखों को परवाज़ देने का समय है     

18 बरस की बेटी खुद को तैयार करती है
जीवन के नए सबक सीखने को
नये दोस्तों की दुनिया में जाने को
नए रास्ते तलाशने को   

तो मेरी 18 बरस की दोस्त
अब हमें नए सफर पर निकलना है
साथ-साथ भी दूर-दूर भी

तुम्हारे हॉस्टल के कमरे की तैयारी करते हुए
महसूस हो रहा है वैसा ही 
जैसा महसूस होता था 
तुम्हारे दुनिया में आने की तैयारी के समय
वही नन्हे मोज़े, नैपी, हाथ से बुने स्वेटर, हिदायतें
कि अब सामान बदला है बस   

आओ हाथ थाम लें जोर से कि 
इस नये सफर को भी हमें
मिलकर खुशगवार बनाना है
दूरी शब्द के अर्थ को बदल देना है अपने प्रेम से
और इस दुनिया को खूबसूरत बनाने को
चलना है एक नए सफर पर...

Saturday, November 20, 2021

इंतज़ार के गुलाब अब नहीं खिलते



मौसम गुलाबी था उन दिनों
जब तेरी याद के गुलाब खिलते थे
सर्दियों की आहट में
घुला होता था रंग   
सदियों पुराने तेरे इंतज़ार का

अब तू नहीं, तेरा इंतजार भी नहीं
अब नहीं खिलते तेरे इंतज़ार के गुलाब 
बस एक कतरा गुलाबी मौसम
लिपटकर बैठा है.

Friday, November 19, 2021

एक दिन


सोचा था एक दिन सोउंगी देर तक
जागने के बाद भी अलसाती रहूंगी
सिरहाने रखी चाय ठंडी होती रहेगी
और गुनगुनी चादर में पूरे होने दूँगी ख़्वाब

सोचा था एक दिन जल्दी जागूंगी
उगते सूरज से आँखें मिलाऊँगी
ओस भरे बागीचे में नंगे पाँव टहलती रहूंगी
अख़बार में तसल्ली से ढूँढूंगी
कोई अच्छी खबर

सोचा था एक दिन फुर्सत से लेटी रहूंगी धूप में
सीने पर पड़ी रहेगी प्रिय किताब और
सोचती रहूंगी तुम्हारे बारे में
कि तुम अगर बारे में सोचते होगे
तो कैसे लगते होगे

सोचा था एक रोज टूटी-फूटी इबारत में
लिखूंगी कच्चा-पक्का सा प्रेम पत्र
देर तक रोती रहूंगी उसे लिखकर
फिर बिना तुम्हें भेजे ही
लौट आऊंगी अपनी दुनिया में

सोचा था अधूरा पड़ा रियाज़ उठाऊंगी एक रोज
इत्मिनान से साधूंगी न लगने वाले सुर
धूनी लगाकर बैठ जाऊँगी
तुम्हारी याद के आगे कि जरा कम आये वो
यूँ हर वक़्त याद आना बुरी बात है

सोचा था एक रोज तुम्हारी पसंद के रंग पहनूंगी
इतराउंगी आईने के सामने
कुछ मन का बनाउंगी
कुछ रंग भरूंगी अधूरी कलाकृति में
पौधों को पानी देने के बहाने बतियाऊँगी उनसे

सोचा था एक रोज तसल्ली से दोस्तों से बतियाउंगी
अरसे से न देखे गए मैसेज के जवाब दूँगी
कोई पसंद की फिल्म देखूंगी
पड़ोसन से उसका हाल पूछूंगी
बिल्ली के बच्चे के संग खेलूंगी

और हुआ यूँ कि वो एक दिन मिला
तो घर की सफाई,
कपड़ों और सामान की धराई
बड़ी, पापड़ मसालों को धूप दिखाने
बाजार से राशन, सब्जी लाने उसे सहेजने
बल्ब बदलने
मेहमानों की मेजबानी में बीत गया
मीर का दीवान रखा मुस्कुराता रहा
और मैं अधूरे सपने से बाहर निकल
फिरकी सी नाचती रही दिन भर

हुआ यूँ कि छुट्टी का एक दिन
ढेर सारे अरमानों के साथ उगा और
ढेर सारे काम करते बीत गया.

Saturday, November 13, 2021

क्या नहीं है प्रेम


एक बार लेखक मित्र से पूछ बैठी थी 'क्या है प्रेम' जवाब में उसने कहा, ‘क्या नहीं है प्रेम.’ तबसे प्रेम को लेकर मेरा जो तंग नज़रिया था वो बदलने लगा. नफरत और हिंसा से इतर हर वक्त हमें जो घेरे हुए है वो प्रेम ही तो है. सुबहों से प्रेम, शामों से प्रेम. फूलों से, पत्तियों से, जड़ों से प्रेम. राह चलते अजनबी को मुस्कुराकर हेलो कहने में जो ख़ुशी महसूस होती है, बच्चों के सर पर हाथ फेरने की इच्छा, नन्ही उँगलियों में अपनी एक ऊँगली छुपा देने की कामना. नदी के किनारे बैठ लहरों को देखना, पेड़ से झरते पत्तों को देखना और देखना खाली शाखों पर फूटती कोंपलों को प्रेम ही तो है. प्रेमी के संग होने की इच्छा, संग ने होने का दुःख यह भी प्रेम है. वो जो कोई था कल तक कंधे से कन्धा टिकाये पास बैठा आज वो उठकर चला गया है बहुत दूर...उसके जाते क़दमों को देखना और उदास सिसकी को भीतर धकेल उसके होने को अपने भीतर किसी इत्र की तरह समेट लेना प्रेम है. हाँ, सब कुछ प्रेम ही है.

यह मेरी सुबह है. इसमें दाखिल होती सर्दियों की धूप है, दूर जाकर दिल के और करीब आ गए लोगों की याद है, परिंदों की चह चह है, चाय है...हां मैं प्रेम में हूँ इस समूची क़ायनात के, खुद के.

बाबुषा, आज हम भी कव्वाली सुनेंगे...तुम्हारे संग बैठकर.

Sunday, October 24, 2021

कथा नीलगढ़-सपनों को सहेजने की कथा



इतवार की सुबह जाने क्यों हमेशा जल्दी हो जाती है हालाँकि इच्छा में वो देर से होना चाहती है. कि इस दिन रोज की भागदौड़ जो नहीं होती. लेकिन इस दिन की सुबह को इत्मिनान से महसूस किये जाने की तलब बहुत होती है. आज भी सुबह जल्दी हो गयी. चाय की प्याली लिए जैसे ही बालकनी की खिड़की खोली जूही महारानी ने मुस्कुराते हुए ‘गुड मॉर्निंग’ बोला. पास खड़े हरसिंगार ने बस पलकें भर झपकायीं. इस बरस ऐसा है कि अक्टूबर का महीना जूही ने हरसिंगार से चुरा लिया है. हरसिंगार मध्धम सुर में खिल रहे हैं और जूही द्रुत गति से खिल रही है. जूही की मुस्कुराती हुई कलाई को हरसिंगार ने थाम रखा है.

ऐसी ही सुबह में एक नौजवान ने अपनी किस्सों की पोटली खोल ली है. वो कथा नीलगढ़ कहने बैठा है. और मैं उसके किस्सों में लगभग डूब चुकी हूँ. ये किस्से असल में सिर्फ भाषिक सौन्दर्य में लिपटी इबारत भर नहीं हैं ये किस्से हैं जिए हुए समय की हलचल. जैसे बीते समय की नब्ज थामे बैठी हूँ. सब कुछ सामने ही तो चल रहा है. मेरे आंगन की जूही और हरसिंगार नीलगढ़ के उन तमाम पेड़ों, पंछियों, रास्तों, नदियों, बादलों, बारिशों की बाबत सुनने को व्याकुल हैं. सबसे ज्यादा व्याकुल हैं वहां के लोगों के बारे में जानने को विकास के नक़्शे में जिनके अभाव, दर्ज नहीं.

अपने युवापन में समाज को बदलने का सपना होना कोई कमाल बात नहीं लेकिन उन सपनों की ड़ोर को पकड़कर निकल पड़ना एक ऐसे अनजाने सफर पर जहाँ न रहने का ठिकाना, न खाने का. न चमचमाते भविष्य का, करियर का कोई सपना ही. ऐसे ही नौजवान अनंत गंगोला के जीवन के किस्से हैं कथा नीलगढ़. किताब को पढ़ते हुए मालूम होता है कि हम पढ़ नहीं रहे बल्कि सुन रहे हैं वहीं उसी गाँव के चिकना पत्थर पर बैठकर. पास ही एक नदी की धुन कुछ गुनगुना रही है जिसमें नीलगढ़ और धुंधवानी गाँव के बच्चों की किल्लोल घुली हुई है.

दिल्ली के संभ्रांत परिवार में लाड़ प्यार से पला एक नौजवान अपने लिए देखे गए उज्ज्वल भविष्य और करियर के सपनों को पीछे छोड़ किस तरह देश के विकास के नक़्शे में बहुत पीछे छूटे एक गाँव में वहां के बच्चों के भविष्य वहां के गांवों के लोगों में भरोसे के सहेजने के लिए निकल पड़ता है यह जानना जरूरी है. चार दिन तक भूख से बेहाल रहने के बाद गुड़ की डली का जादू कैसा होता है यह है महसूस करना है इस किताब से गुजरना. जिनके घरों में दो वक्त चूल्हा जलने की सहूलियत नहीं उनकी आँखों में बच्चों की शिक्षा का सपना आकार ले रहा है यह देखना है इन किस्सों में. और इस गाँव के बच्चों को शिक्षित करने की बीड़ा उठाने की उस युवा की हौसले भरी यात्रा है इन किस्सों में.

मैं अभी इन किस्सों के मध्य में हूँ. यह किताब जिया गया जीवन है इसे उसी तरह पढ़े जाने की जरूरत भी है. सर्रर्र से पढ़कर किताब खत्म की जा सकती है जीवन की आंच को तो धीमे-धीमे महसूस करना होता है. सो कर रही हूँ. यह किताब इन दिनों हर वक़्त साथ रहने लगी है...इन किस्सों से गुजरते हुए ज़ेहन में छाए असमंजस के बादल छंट रहे हैं...


Thursday, October 21, 2021

आप सबके साथ एक छोटी सी ख़ुशी साझा कर रही हूँ. मेरी कविता ‘ओ अच्छी लड़कियों’ को स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में दो अलग-अलग कोर्स में स्थान दिया गया है. यह सचमुच सम्मान की बात है. जिन कवियों और लेखकों को पढ़ते हुए बड़ी हुई हूँ (रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रान्दन पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, हरिवंश राय बच्चन, केदारनाथ सिंह, सोहनलाल द्विवेदी, गिरजाकुमार माथुर, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, नीरज, कुंवर नारायण, अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव और जय प्रकाश कर्दम) उनके साथ सूची में अपना नाम देखना संकोच और गर्व की मिली-जुली अनुभूति से भर रहा है.













Tuesday, October 19, 2021

सजदे में हूँ उधमसिंह के


यह फिल्म शुजित सरकार की नहीं है. यह फिल्म विकी कौशल की भी नहीं है. यह फिल्म है एक टुकड़ा इतिहास है. खून से लथपथ चीखते चिल्लाते इतिहास के उस पन्ने की जिस पर रखकर आज हम बर्गर पिज्जा खा रहे हैं. मेरी नसें तनी हुई हैं. आँखें गुस्से और दुःख से लाल हैं. मुझे नहीं लगता मैंने कोई फिल्म देखी है. असल में देखी भी नहीं. लगा कि जलियांवाला बाग़ के किसी कोने में खड़ी हूँ. मुझसे रोटी नहीं खाई गयी. सोया नहीं गया. रोया भी नहीं गया. ऐसी है उधमसिंह. फिल्म के एक दृश्य में जब अंग्रेजों की यातना (जिसे देखकर सिहरन होती है) को सहते हुए मुसुकुराते हुए उधमसिंह कहते हैं, 'अब दर्द नहीं होता' तो सिसकी बाहर आ जाती है. सच में दर्द के जैसे मंजर उधमसिंह ने देखे थे उसके क्या मौत का डर और क्या दर्द. लेकिन एक पल को भी प्यार से दूर नहीं हुआ यह नौजवान. दर्द के दरिया में डूबते हुए हर बार उसकी स्मृतियों में प्रेम ने उसे थाम लिया, मरहम सा प्रेम. अदालत में सत्य और निष्ठा की कसम खाने के लिए वो जिस किताब को चुनते हैं वो है 'हीर रांझा'. कैसी झुरझुरी होती है इस क्रन्तिकारी को देखते हुए. कौन होगा जो इश्क़ में लबरेज इस युवा के इश्क़ में न पड़ जायेगा?

इसे आप फोन पर बात करते हुए, किचन में सब्जी में कलछी घुमाते हुए, फेसबुक या वाट्सप पर निगाह रखते हुए मत देखिएगा. आप देख नहीं सकेंगे.

जब भी इतिहास के इन टुकड़ों के सामने जाकर खड़ी होती हूँ न जाने कितने सवाल मन में कौंधते हैं. यूँ वे सवाल रहते तो हमेशा ही हैं साथ. फिल्म में जो दिखाया गया, वो सच है. लेकिन फिर भी पूरा सच तो इस दिखाए गये से ज्यादा ही निर्मम रहा होगा. जिन दृश्यों को देखकर बेचैनी होती है वो दृश्य रचे नहीं गए जिए गए हैं, मरे गए हैं. उधमसिंह को देखते हुए हर पल सवाल उठते हैं कि हमने इतनी सारी कुर्बानियां देकर जो आज़ादी पाई है उसका हमने किया क्या.

बहुत मुश्किलों से हमने ये आज़ादी पायी है. बहुत दर्द सहा है लोगों ने इस आज़ादी के लिए, मौत को गले लगाया है. और हम क्या कर रहे हैं. क्रूर राजनीति के पहिये मासूमों को अब भी तो कुचल रहे हैं. धर्म के नाम पर एक-दूसरे से लड़ाकर तमाशा देखने वाली राजनीति, भोली, मासूम जनता को आईटी सेल में झोंककर तरक्की के नाम पर झूठे वादे. हत्या, बलात्कार, मॉब लिंचिंग, महंगाई, देश प्रेम के नाम पर नौजवानों को युध्ध में झोंकना यह है आज की आज़ादी. क्या इसी दिन के लिए क्रांतिकारियों ने जिन्दगी गंवाई थी. सवाल इत्ता सा है लेकिन इत्ता सा ही नहीं यह सवाल.

यह फिल्म मनोरंजन नहीं है लेकिन मेरी इल्तिजा है कि इतिहास के इस पन्ने के आगे एक बार सजदे में झुकना जरूरी है. खुद से पूछना जरूरी है कि इतनी जिंदगियों के मोल चुका कर जो आज़ादी मिली है कहीं हम उसका दुरूपयोग तो नहीं कर रहे...

सोचती हूँ विकी कौशल और शुजित सरकार इस फिल्म को करते हुए और करने के बाद कितनी रातों सो नहीं पाये होंगे. 
#उधमसिंह


Wednesday, October 13, 2021

दिल जीत लेती है ये MAID


- प्रतिभा कटियार 

स्त्रियों के हिस्से रिसते हुए रिश्तों के जख्म जब आते हैं तब जीवन कैसा होता है यह समझना हो तो नेटफ्लिक्स पर MAID देखनी चाहिए. देखनी ही चाहिए. मैं अपने आस-पास न जाने कितनी ही ऐसी स्त्रियों को जानती हूँ जो कम्प्रोमाइज़िंग रिलेशन में हैं. हर दिन घुट रही हैं. बाथरूम में तेज नल खोलकर रो चुकने के बाद अच्छे से ड्रेसअप होकर पार्टी में जाती हैं. जिस रिश्ते की बजबजाहट से सिहर उठती हैं उसी रिश्ते की मुस्कुराती तस्वीरें साझा करती हैं. ढेर सारे बहाने या बहानों के भेष में (अनजाने भय) हैं जिसके चलते वे कहती हैं कि ऐसा होता तो वैसा करती.

लेकिन MAID देखते हुए लगता है कि एक स्त्री अपने आत्मसम्मान और अपने बच्चे की भावनात्मक सुरक्षा के लिए दुनिया की हर अभेद्य दीवार से टकरा सकती है. MAID की नायिका एलेक्स एक रोज अपनी 3 साल की बेटी MADDY को साथ लेकर अपने आत्मविश्वास के साथ निकल पड़ती है. कोई पूछे उससे कि हुआ क्या उसके साथ ऐसा जो घर छोड़ना पड़ा तो इसका कोई ठीक-ठीक जवाब भी नहीं उसके पास. हाँ, ऐसे सवालों से उसकी आँखें किसी स्याह उदासी के भंवर में डूबने लगतीं और उसे कुछ समझ में नहीं आता कि वो क्या कहे. दो वक्त का खाना नहीं उसके पास, छत नहीं. वो डीवी सेंटर यानी डोमेस्टिक वायलेंस सेंटर जाती है. उससे पूछा जाता है क्या तुम्हारी पिटाई की तुम्हारे पति ने? वो कहती नहीं. क्योंकि पिटाई तो नहीं हुई. लेकिन जो हुआ वो क्या पिटाई से कम था. वो जो रोज होता है धीमे-धीमे. फिर उस होने की गति बढ़ती जाती है. कि आपको घर में सम्मान नहीं मिलता. चीखना चिल्लाना, शुरू हो जाता है जब-तब. आप घर में अनवांछित सामान की तरह रखे होते हैं और जब-तब आप पर मालिक की तिरस्कार भरी नजर पड़ती रहती है. इस पर भी घर के उससे सारे काम करवाना और सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह इस्तेमाल किया जाना जारी रहता है. बच्चों पर भी इसका असर पड़ता है. 

और फिर एक रोज बिना ज्यादा सोच-विचार किये अपने आत्मसम्मान की राह पर एलेक्स निकल ही पड़ती है. वो लोगों के घर में MAID का काम करती है और न जाने कैसे-कैसे अनुभवों से गुजरती है. हर मुश्किल से बड़ी मुश्किल उसके स्वागत के लिए हमेशा तैयार खड़ी होती है. एलेक्स जो पढ़ना चाहती थी, एलेक्स जिसकी आँखें सपनों से भरी थीं, एलेक्स जिसके भीतर एक लेखक था उसने लोगों के घरों के ट्वायलेट साफ़ करते हुए भी कभी सपने देखना बंद नहीं किया. हिम्मत नहीं हारी. एलेक्स की माँ पौला भी एक अब्यूजिव रिलेशन का शिकार रही है और अब एक खुली बिंदास ज़िंदगी जीने की कोशिश कर रही है. हालाँकि उसके भी अलग तरह के संघर्ष हैं. 

एलेक्स के पिता जो अपनी दूसरी पत्नी और दो बच्चियों के साथ अलग रहते हैं पूरे वक्त एलेक्स की चिंता करते नजर आते हैं लेकिन असल में उनका चेहरा कुछ और ही है. किस तरह पितृसत्ता के कुचक्र सारे शोषकों को एक सूत्र में जोड़ लेते हैं यह दिखाती है सीरीज. शोषक पिता और शोषक पति किस तरह एक साथ हैं यह देखना विस्मय से तो नहीं दुःख से भरता जरूर है. सचमुच शोषण का दुःख का पीड़ा का चेहरा पूरी दुनिया में एक सा ही तो है. मैंने इस सीरिज को देखते हुए कई बार खुद को सिसकते हुए पाया. कभी-कभी लगता है ऐसा कुछ सिलेबस में क्यों नहीं होना चाहिए. लड़कियों को क्यों नहीं बताया जाना चाहिए कि तुम्हारे सपनों और तुम्हारे आत्मसम्मान से बड़ा कुछ नहीं. अब्यूसिव रिलेशन में रहना जिन्दगी से बढकर नहीं हो सकता. नायिका का आत्मविश्वास, उसका संघर्ष, उसकी जिजीविषा और सबसे ज्यादा उसकी अपने आपको लेकर स्पष्टता मोह लेती है. कोई आपकी मदद करता है तो आप उससे प्यार करने लगें ऐसा नहीं होता. मदद मदद होती है प्यार प्यार होता है. यह समझ होना जरूरी है. अब्यूसिव रिलेशन में रहते हुए जो हर पल का टॉर्चर झेलना होता है उससे निकलने की हिम्मत क्यों नहीं कर पाते. बच्चों के लिए रिश्ते में बने रहने का आग्रह करने वाला समाज शायद यह नहीं जानता कि ऐसे रिश्तों को सबसे ज्यादा बच्चे ही झेलते हैं. 

हाँ, इस अमेरिकन सीरीज को देखते हुए वहां के शेल्टर होम, सरकारी योजनायें और उन योजनाओं से जुड़े संवेदनशील लोगों की बाबत भी पता चलता है. भारत में अगर कोई स्त्री घर छोडती है तो उसके पास कोई ठिकाना नहीं होता जहाँ उसे सुरक्षा और स्नेह एक साथ मिले. यह सीरिज स्त्रियों के आपसी रिश्तों की बाबत भी बात करती है. एक नौकरानी और मालकिन के बीच किस तरह प्रेमिल रिश्ते बन जाते हैं यह देखना सुखद है. किस तरह शेल्टर होम में सब स्त्रियाँ एक दूसरे को समझती हैं, साथ देती हैं यह भी किसी यूटोपिया सा लगता है. खासकर भारत के सन्दर्भ में. लेकिन ऐसे समय, सरकारी योजनाओं, संवेदनशील व्यवहार के बारे में सोचना, देखना अच्छा लगता है. एलेक्स पौला और मैडी के रिश्तों में जो एक धागा है वही इस सीरिज की मजबूत डोर है. इंसानी कमजोरियों, हताशाओं, सही-गलत निर्णयों, सपने देखने की जिजीविषा को बखूबी सम्भाला गया है सीरीज में. रिश्ते नहीं टूटने चाहिए यकीनन. लेकिन अगर रिश्तों में जिन्दगी टूटने लगे तो ज़िन्दगी बचायी जानी जरूरी है. 
MAID@NETFLIX

(https://indiagroundreport.com/maid-review-netflix-homelessness-drama/)

Sunday, October 10, 2021

मेरी आत्मा मुरझाती जा रही है- मारीना


- प्रतिभा कटियार

अपना देश छोड़ने के बाद मारीना घने अकेलेपन में घिरने लगी थी. उसके आसपास जिस तरह के हालत और लोग थे, उसे लगता था कि उसके लिखे को समझ पाने वाला कोई नहीं. वह अपनी नोटबुक और शब्दों के साथ लगातार गहरे एकांत में उतरती जा रही थी. कलम और नोटबुक उसके इकलौते संवाद के साथी रह गए थे. इन दिनों के बारे में उसकी बेटी आल्या यानी अरिदाना ने 1969 में अपने एक संस्मरण में लिखा, ‘मारीना ऐसे लोगों में से थी, जो लोगों से मिलने-जुलने, कहने-सुनने में, साझेदारी में यक़ीन करती थी. लेकिन यहाँ पेरिस में यह संभव होता नहीं दिख रहा था. मारीना को कोई अगर एक आवाज़ दे तो वह चलकर नहीं, भागकर वह पहुँचने वालों में से थी.’

शायद मारीना की उदासी की यही वजह रही होगी कि उसके आसपास लोग ही नहीं थे, उस माहौल में उस देश में मारीना के लेखन को संभवतः काफी लोग समझ नहीं पा रहे थे. इसी वजह से उसके लिखे की आलोचना भी खूब हो रही थी, लेकिन कुछ लोग थे जो उसे अपना दोस्त मानते थे, उसके लेखन को पसंद को पसंद करते थे और उसकी यथासंभव मदद भी करते थे.

इसी दौरान मारीना की दोस्ती येलेना अलेक्सेंद्रोवना से हुई. वह रूस के पूर्व विदेश मंत्री की बेटी थी. वह अनुवाद करके इन दिनों पैसे कमा रही थी. उसने मारीना को इसके पहले सिर्फ तस्वीरों में देखा था. उससे मिलने के बाद ही वे दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगीं.

वह मारीना के बारे में लिखती है-

‘मैं जिस मारीना से मिली वह मुझे कोई और ही लगी. मैंने, ’माइलस्टोन’ पढ़ते समय जिस मारीना की तस्वीर देखी थी, वह बेहद आकर्षक, गोल चेहरे वाली प्यारी सी मारीना थी, लेकिन जिससे मैं उस शाम मिली वह न तो खूबसूरत थी न ही आकर्षक. वह दुबली पतली, पीली पड़ी हुई निस्तेज सी स्त्री थी. उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो जीवन ने उसे बर्बाद किया है. उसका चेहरा मुरझाया हुआ था, उसके कटे हुए बाल बेजान से थे. उनमें सफेदी झलकने लगी थी. उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी. लेकिन फिर भी वह कुछ विशिष्टता को बरकरार रखे हुई थी. हमने उस शाम देखा कि वह एकदम मुरझाई हुई है. लेकिन बहुत जल्द उसने समय के मुताबिक खुद को बदला और शाम को होने वाली बातचीत में सक्रिय प्रतिभाग किया. वह लोगों से मिलने-जुलने की इच्छुक रहती थी. उनकी उपेक्षा नहीं करती थी. उसकी संवेदना हमेशा उसे लोगों से जोड़कर रखती थी. वह लोगों से जुड़कर रखने की हरसंभव कोशिश किया करती थी.

येलेना अपनी माँ के साथ मारीना के घर के पास ही रहती थी. मारीना उससे मिलने के लिए कभी-कभी उसके फ़्लैट में जाया करती थी. वो वहां उपस्थित लोगों की पसंद की मुताबिक कवितायेँ भी पढ़ा करती थी. येलेना मारीना के वहां आने और मारीना के घर जाने के बारे में लिखती हैं-

हम अक्सर मारीना के घर जाया करते थे. वहां, कविता, साहित्य, प्रकृति व कलाओं पर काफी बातचीत हुआ करती थी जिससे मारीना का उदास चेहरा खिल उठता था. मैं इस तरह की बुद्धिजीवी, तेज बुध्धि वाली सहज बातचीत करने वाली किसी शख्सियत से पहले कभी नहीं मिली थी. हम उसके घर जाते थे. वह हमें कभी चाय तो कभी वाइन पिलाया करती थी. हम कभी-कभी पास के सेंट जॉर्ज चर्च भी जाया करते थे. धर्म के बारे में मारीना के अलग विचार थे. लेकिन वह चर्च की गतिवधियों को बारीकी से देखा करती थी.

सबसे बड़ी दिक्कत मारीना के सामने यह थी कि उसे लिखने का वक़्त बिलकुल नहीं मिल रहा था. रात के खाने से पहले उसे घंटों घरेलू कार्यों को देने होते थे. पुत्र मूर की देखभाल करनी होती थी कभी-कभी दोस्त भी आ जाया करते थे. नतीजतन सब निपटाने के बाद उसका अपने विचारों से, लिखने की इच्छा से नाता टूट जाया करता था. उसने इसके बारे में तेस्कोवा को लिखा-

‘ऐसा लगता है कि सिर्फ मेरा दिमाग ही नहीं मेरी आत्मा भी लगातार मुरझाती जा रही है. कभी-कभी मैं इस तरह भी सोचती हूँ कि भावनाओं के लिए समय की जरूरत होती है, विचारों के लिए नहीं. विचार किसी बिजली की तरह कौंधते हैं जबकि भावनाएं उस रौशनी के नन्हे धागों से जुड़ी होती हैं जैसे दूर किसी तारे की रौशनी से...महसूस करने के लिए वक्त चाहिए...आप भय के, तनाव के साये में महसूस नहीं कर सकते. एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ, मेरे सामने फर्श पर ढेर सारी मछलियाँ पड़ी हैं मैं इसके बारे में सोच तो सकती हूँ लेकिन महसूस नहीं कर सकती. मछलियों से आने वाली महक महसूस करने से रोकती है. यानि भावनाओं को विचारों से ज्यादा वक़्त चाहिए. या तो सब कुछ या कुछ नहीं. मैं इन दिनों अपनी भावनाओं को समय नहीं दे पा रही हूँ. अपने महसूस करने को. मैं हर वक़्त लोगों से घिरी रहती हूँ. सुबह के 7 बजे से रात 10 बजे तक मैं घरेलू कार्यों और लोगों से मिलने-जुलने में उलझी रहती हूँ. बेहद थक जाती हूँ. फिर महसूस करने को कुछ नहीं बचता. महसूस करने के लिए वक़्त भी चाहिए और ऊर्जा भी.’

ये हालात, ये द्वंद्व उसकी कविता ‘माइलस्टोन’ में भी दिखते हैं. इन हालात के बारे में उसने लिखा-

‘मैंने जीवन से बहुत कम अपेक्षाएं रखी थीं फिर भी उसने मुझे भयंकर कष्ट दिए. यहाँ पेरिस में लोगों ने उपेक्षित किया, मुझसे नफरत की. वे लोग मेरे लिखे का कुछ भी अर्थ निकालकर उस पर अनाप-शनाप बकवास लिखा करते हैं. उनकी घृणा ने मुझे वहां के सामान्य जीवन से अलग कर दिया है. अख़बार अपने हिसाब से अपनी कहानियां लिख रहे हैं.’

इसके अलावा उसने आगे लिखा-

‘क्या आपने सुना है यूरेशियन द्वारा तंग की जाने वाली घटनाओं के बारे में. संक्षिप्त जानकारी है कि यूरेशियन्स को बोल्शेविकों द्वारा समन भेजे जा रहे हैं. जाहिर है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिलेंगे वह जो लेखक हैं और प्रवासी हैं वे इसे समझ सकते हैं. मैं इन सबसे बाहर हूँ लेकिन मेरी राजनैतिक शिथिलता पर भी असर पड़ रहा है. यह बिलकुल उसी तरह है जैसे मुझे भी बोलेशेविक समन मिल रहे हैं. सेर्गेई भी इस सबसे काफी परेशान है. वह सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक एक स्टूडियो में काम करता है, जिसके बदले उसे दिन के 40 फ्रेंक मिलते हैं. जिनमें से 5 फ्रेंक आने-जाने के किराये में खर्च हो जाते हैं. 7 फ्रेंक लंच में. सिर्फ 28 फ्रेंक ही बच पाते हैं.’

इस समय मारीना के परिवार में कोई सहयोग राशि नहीं आ रही थी. येलेना उनकी हालत के बारे में बताती हैं-

‘हम अपनी आँखों के सामने मारीना को लगातार गरीबी की ओर जाते, जूझते देख रहे थे... आह...मारीना...वह अपनी क्षमताओं से ज्यादा काम कर रही थी फिर भी कभी-कभी उन्हें भूखा रहने की भी नौबत आ जाती थी. पेरिस में रह रहे रूसी लोगों ने उसके जीवन की आपदाओं को महसूस किया. क्योंकि कविताओं और नाटकों को लिखकर जीवन के निर्वाह के लिए पैसे कमा पाना कितना मुश्किल है यह किसी से छिपा भी नहीं था, लेकिन वह इसके अलावा और कुछ कर भी नहीं सकती थी. ‘अ सोसायटी टू हेल्प फॉर मारीना त्स्वेतायेवा’ का गठन हुआ. जिसके जरिये मारीना के घर के किराये और राशन का इंतजाम किया जाने लगा. रूस से निर्वासितों को देखते हुए समझा जा सकता था कि वाकई में गरीबी होती क्या चीज़ है. मेयुडिन में पड़ोसियों ने मारीना की मुश्किलों को बांटने की कोशिश की. हम उसे यथसंभव मदद करते, लेकिन उसने हम सबको जो दिया उसके मुकाबले वह मदद कुछ भी नहीं...सचमुच कुछ भी नहीं.’

सितम्बर, 1927 में मारीना के घर मेहमान आ गए. ये मेहमान और कोई नहीं उसकी बहन अनस्तासिया थी, जो इटली से आई थी. इस समय वह मास्को के उसी फाइन आर्ट्स के संग्रहालय में काम कर रही थी, जो उसके पिता ने स्थापित किया था. वो मैक्सिम गोर्की पर एक किताब लिखने की योजना में थी. इस बारे में उसने गोर्की को लिखा भी. गोर्की ने उसे और मारीना को महीने भर के लिए इटली आमंत्रित किया. उन्होंने लिखा कि दोनों बहनें चाहें तो उनके घर आकर उनसे मिलें और कुछ दिन साथ रहें. अनस्तासिया ने इटली जाने की बजाय अपनी बहन मारीना के पास पेरिस आने का चुनाव किया.

उसने अपने पेरिस निवास के बारे में लिखा-

‘आल्या और मूर से लम्बे समय बाद मिलकर बहुत ख़ुशी हुई. उनका फ़्लैट भी काफी अच्छा था, लेकिन ऐसा लगा कि मारीना थक चुकी है और शिथिल पड़ने लगी है. उस पर उम्र का असर भी दिखने लगा है. उसने महसूस किया कि मारीना अपने बेटे मूर की परवरिश, आल्या की परवरिश से अलग कर रही है. इस बार परवरिश में वह ज्यादा संवेदनशील दिखी. मारीना की ऊर्जा मास्को से आने वाली खबरों के चलते लगातार कम हो रही थी.

एक शाम जब मारीना अपने छोटे से दीवान पर लेटी थी, जहाँ वह अक्सर लिखने-पढ़ने का काम भी किया करती थी और कभी-कभी सो भी जाया करती थी उसने आँखों में आंसू भरकर सिगरेट पीते हुए कहा, ‘क्या कोई समझ सकता है कि मैं इन हालत में कैसे लिख पाती हूँ. जब मुझे लिखने की इच्छा होती तब मुझे बाजार जाना होता है, अपने पास बचे हुए पैसों का हिसाब रखना होता है और बाज़ार में देखना होता है कि कैसे सस्ता खाना मिल जाए जो मेरे पास बचे हुए पैसों में आ सके. मैं अपने पर्स में हमेशा घर और घर से जुड़ी चिंताएं और काम लेकर चलती हूँ. इन सबके बाद मुझे घर की सफाई करनी पड़ती है, खाना बनाना होता है, आल्या और मूर का ख़यालरखना होता है, शारीरिक भी और भावनात्मक भी. जब यह सारे काम निपट जाते हैं तो मैं निढाल होकर इसी जगह लुढ़क जाती हूँ. देर रात...शरीर थका हुआ होता है और दिमाग खाली...एक शब्द भी लिख नहीं पाती. मैं अपनी पढ़ने की मेज़, अपने कमरे और लेखन के लिए थोड़े एकांत को तरस रही हूँ, और यह हर रोज का किस्सा हो चला है...’

प्यारी मेज़

तेरह बरस हो गए, हमें एक-दूसरे के साथ
हमारे प्यार और एक-दूसरे के प्रति वफादारी के
तेरह बरस
मुझे तुम्हारे एक-एक कण के बारे में पता है
और तुम्हें मेरे.
क्या हुआ कि तुम कोई लेखक नहीं हो
एक के बाद एक जिज्ञासाओं को तुमने संभाला है
बताया है कि आने वाला कल कुछ नहीं होता
जो होता है आज होता है, अभी होता है.
मेज़, जिसने सहेजे पाठकों के पत्र और पैसे
डाकिए की लाई चीज़ें
काम ख़त्म करने की समय सीमाएं
और रोज़ लिखी जाने वाली एक-एक पंक्ति
मुझे मिलने वाली ज़िंदगी की चुनौतियाँ
न मिलने वाला सम्मान
हो सकता है कल जब मेरे अतीत को खंगाला जाए
तो कहा जाए बेचारी बेवकूफ़ ग़रीब औरत...
(डेविड मैकडफ के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)
अनुवाद- प्रतिभा

उसने अपनी डायरी में लिखा -

‘मेरे पास वर्तमान में कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकूं...न ही भविष्य की मुठ्ठी में ऐसी कोई उम्मीद थी. इस इतनी बड़ी समूची दुनिया में मुझे मेरे लिए एक इंच जगह भी ऐसी नहीं नजर आती थी, जहाँ मैं अपनी आत्मा को निर्विघ्न, बिना किसी डर के उन्मुक्त छोड़ सकूं. मैं धरती के उस अंतिम टुकड़े पर हूँ जिस पर मैं इसलिए खड़ी हूँ, क्योंकि मेरे होने से वह ख़त्म नहीं हो सका है. मैं इस छोटे से टुकड़े पर अपनी पूरी ताकत से खड़ी हूँ.

मैं ख़ुद भी किसी दूसरे की दुनिया में दख़ल न देती. किसी तकनीकी दुनिया में जिसका मुझसे कोई जुड़ाव ही न हो. मैं अकेली आत्मा हूँ...जिसे सांस लेने तक के लिए हवा नहीं मिल पा रही. और पास्तरनाक भी कोई नहीं, आंद्रेई ब्येली भी कोई नहीं...हम हैं, लेकिन हम अंतिम हैं. सिर्फ यह पूरा युग ही मेरे ख़िलाफ़ नहीं, सिर्फ लोग ही मेरे ख़िलाफ़ नहीं हैं, मैं भी इनके ख़िलाफ़ हूँ.’

तेस्कोवा को एक पत्र में उसने लिखा-

‘मैं नींद में बकबक करती हूँ. मैं बीस वर्ष के नौजवानों को देखती हूँ और ख़ुद को देखती हूँ, लेकिन कोई मुझे नहीं देखता. मेरे बाल सफ़ेद होने लेगे हैं, मैं सचमुच बूढ़ी होने लगी हूँ. एक स्त्री अपने छोटे से बच्चे के साथ लगातार बूढ़ी होते हुए. पर हो सकता है कि वह वाकई में मुझे देख ही न पा रहे हों. यह बड़ा कड़वा अनुभव है कि आप लोगों के लिए उपस्थित होकर भी न जैसे ही हों. कोई आप पर ध्यान ही न दे रहा हो.’

वेरा बूनिना को एक पत्र में मारीना ने लिखा-

‘पिछले कुछ बरसों में मैंने बहुत कम कविताएँ लिखी हैं. अब मुझसे मेरी कविताएँ कोई नहीं मांगता, न ही उन्हें स्वीकार करता है. उन्होंने मुझे गद्य लिखने के लिए कहा है. जब फ्रीडम ऑफ रशिया’ हुआ करता था तो मैं निश्चिंत होकर किसी भी तरह की कविताएँ लिखा करती थी, क्योंकि मैं जानती थी कि वह मेरी कविताओं को जगह देंगे. उन्होंने मेरी लिखी हर चीज को जगह दी, इसके लिए मैं उनकी दिल से आभारी रहूंगी लेकिन ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में जब से रोज़ोनोव आया और उसने लम्बी कविताओं पर एकदम से रोक लगा दी. उसने कहा कि उसे 12 पेजों के लिए 15 कवियों की जरूरत है.

मैं अपनी लंबी कविताओं को लेकर कहाँ जाऊं? मेरी कविता ’द स्वान’ भी लगभग बेकार गई, क्योंकि वह बहुत लम्बी थी. इन्हीं वजहों से और भी बहुत सी लम्बी कवितायेँ बेकार गयीं. इसी सबके चलते अब गद्य लेखन शुरू हो गया. ऐसा नहीं कि गद्य लिखना मुझसे पसंद नहीं है, मुझे पसंद है लेकिन सच तो यही है कि इस ओर मुझे धकेला गया है, और अब मैं गद्य लिखने के लिए अभिशप्त हूँ.

निःसंदेह कविताएँ मुझ तक खुद आती हैं. लेकिन यह भी सच है कि आप कविताओं को जबरन नहीं लिख सकते. हालाँकि इन दिनों मेरा थोड़ा सा भी खाली वक़्त गद्य लिखने में जाता है. कविताएँ छोटे-छोटे टुकड़ों में डायरी में उतरती रहती हैं. अब भी कभी 8 लाइन, कभी 4 लाइन, कभी 2 लाइन. कभी-कभी मैं उनका तेज़ प्रवाह भी अपने ऊपर महसूस करती हूँ लेकिन फिर मैं कुछ भी नहीं लिख पाती...बहुत सारे ब्लैंक्स दिमाग में आ जाते हैं...सब कुछ धुंधला-धुंधला सा होता है.’

(प्रजातंत्र अख़बार में आज 10 अक्टूबर 2021 को प्रकाशित)

Thursday, September 30, 2021

वैक्सीनेशन की प्रक्रिया में हमारी भूमिका


-प्रतिभा कटियार
अगर किसी व्यक्ति या चीज़ या काम के बारे में कोई राय बन गयी तो उस राय का बदलना आसान नहीं होता. जब हमने (अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन) एक टीम के तौर पर वैक्सीनेशन की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर उनका साथ देना शुरू किया तो उस दौरान ऐसी ही पूर्व निर्मित धारणाओं से सामना हुआ. जैसे कुछ सामाजिक मान्यताएं पहले से पकड़ बनाये हुए मिलीं. ‘फलाने लोग तो होते ही ऐसे हैं. उन लोगों से बात करने का कोई फायदा नहीं. फलां जाति के लोग वैक्सीन लगाने के लिए राजी ही नहीं होते. फलां समुदाय के लोग तो ऐसे ही हैं, उन्हें कितना भी समझा लो सुनते ही नहीं.’

भारतीय समाज में कुछ समुदायों, जातियों, लोगों के प्रति इस तरह की धारणाओं का होना कोई नयी बात नहीं है. इन्हीं धारणाओं के बीच हम पले-बढ़े हैं. जाने-अनजाने इन्हीं धारणाओं की गिरफ्त में जकड़े हुए भी हैं. यह भी सच है कि जब हम पूर्वनिर्मित किसी धारणा के साथ कोई काम करते हैं तब नतीजे ज्यादातर धारणाओं को पोषित करने वाले आ सकते हैं. क्योंकि वो फलां व्यक्ति या समुदाय भी जानता है कि उसके बारे में कौन क्या सोचता है और वो अपने बारे में बनी धारणाओं को लेकर बेपरवाह और कभी-कभी गुस्सैल भी होने लगता है.

लेकिन अगर सच में इन फलां समुदायों, जातियों, व्यक्तियों के बारे में जानना है तो सिर्फ दो काम करने की जरूरत है. सबसे पहले अपनी पूर्व निर्मित और जड़ जमाए हुई मान्यताओं को तोड़ना होगा. दूसरा उन लोगों, समुदायों, व्यक्तियों के साथ समय बिताना होगा जिनके बारे में मान्यताएं फैली हुई हैं. यक़ीन मानिए इसके अलावा तीसरा कोई तरीका है ही नहीं हक़ीकत तक पहुँचने का.

वैक्सीनेशन के दौरान जब हमने स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया तो ऐसी जड़ पकड़ी हुई मान्यताओं से टकराने का अवसर भी मिला. पहली दूसरी और तीसरी मुलाकातों में हमें यह यकीन दिला दिया गया था कि ये जो कुछ जातियां, समुदाय, लोग हैं ये बहुत पिछड़े हुए हैं, गुस्सैल हैं, और किसी भी तरह वैक्सीनेशन के लिए राजी नहीं हो रहे. हमने जब बिना किसी पूर्व धारणा या मान्यता पर ध्यान दिए उन फलां जातियों, समुदायों और व्यक्तियों से मिलना शुरू किया तो हक़ीकत को सामने आते जरा भी देर नहीं लगी. देहरादून की जिन बस्तियों, गांवों में हमने लोगों से मुलाकातें कीं उनमें शायद ही कोई ऐसा मिला हो जो वैक्सीन न लगवाना चाहता हो. जो लोग वैक्सीन लगवाने से हिचक रहे थे उनके कुछ कारण थे जो वैक्सीन को लेकर बनी भ्रांतियों के चलते थे जिस पर उनसे बात करने की जरूरत थी. हमने महसूस किया कि जब लोग आप पर भरोसा करते हैं तब वो आपकी बात मानने को भी तैयार हो जाते हैं.

इस दौरान कुछ एक ऐसी बस्तियों और गांवों में जाना हुआ जहाँ के बारे में सुना था कि पूरा गाँव ही वैक्सीन लगाने का विरोध करता है. और ये लोग काफी गुस्सैल हैं, मारपीट भी कर सकते हैं. वो लगातार गिरती बारिश वाला दिन था. हम जब उस गाँव में जा रहे थे. हमारे साथ पीएचसी के डाक्टर भी थे और आशा भी थीं. उन्होंने बताया कि एक बार यहाँ वैक्सीन लगाने के बाद एक व्यक्ति की तबियत ख़राब हो गयी थी इसलिए अब पूरी बस्ती वैक्सीन नहीं लगवाना चाहती.

हम सब तेज बारिश में अपने अपने छातों में खुद को बचाते हुए टपकते छप्पर के भीतर से झांकते एक बुजुर्ग से मिले. उन्होंने सच में वैक्सीन लगाने से मना कर दिया और कहा कि उनकी तबियत खराब है. उन्होंने दवाइयों का थैला दिखाते हुए कहा, ‘ये देखो ये दवाइयां खा रहा हूँ. ये हार्ट अटैक की दवाई है.’ फिर उनसे कुछ देर बात होती रही. घर परिवार की, सेहत की. उन्हें यक़ीन दिलाया कि यह वैक्सीन लगाने से कोरोना से बचाव होगा न कि तबियत खराब होगी. वो ना-नुकुर करते रहे लेकिन उनकी ‘न’ पिघल रही थी यह हमने महसूस किया. आखिर उन्होंने मुस्कुराकर कहा, ‘अच्छा लो, लगा लो.’ उनकी इस सहमति का असर यह हुआ कि उस समुदाय के अन्य लोगों ने भी धीरे-धीरे वैक्सीन को लेकर जो डर था उसे पीछे छोड़ा. निश्चित तौर पर इस सबमें हमारी आशा वर्कर्स की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है.

एक और अनुभव याद आता है जब एक समुदाय की महिला ने यह कहकर वैक्सीन लगाने से मना किया, ‘कि वो दूध पिलाती है’ हमारी साथी ने अपना उदाहरण देकर जब कहा ‘मैं भी तो पिलाती हूँ बच्चे को दूध और मैंने तो लगाया है वैक्सीन.’ तो उस महिला ने आश्चर्य और भरोसे वाली मिलीजुली नजर से उसे देखा और वैक्सीन लगाने को तैयार हो गयी. एक और बस्ती के बारे में हमें बताया गया था कि वहां के लोग एकदम तैयार नहीं वैक्सीन लगाने को लेकिन जब हमने वहां घर-घर में जाकर लोगों से बात की तो हक़ीकत कुछ और थी. या तो उन्हें पता नहीं चल पाता कि वैक्सीन कब लग रही है, कौन सी डोज़ लग रही है या वो काम पर गए हुए थे, या वैक्सीन लगने के समय वो बाहर गये थे लेकिन अब अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं.

जमीनी सच्चाई यह है कि वैक्सीन लगाने को लेकर लोगों के मन में नकारात्मकता नहीं है. अगर कहीं है बहुत छोटे हिस्से में तो उसके उनके पास कुछ कारण हैं. जो संवाद के जरिये दूर हो सकते हैं. हमारे सवास्थकर्मी बहुत मेहनत और प्रतिबद्धता के साथ वैक्सीनेशन के काम में जुटे हुए हैं. लेकिन कुछ काम हमारे हिस्से भी है. वैक्सीनेशन को लेकर सकारात्मक संवाद बनाने का काम. आसपास जो भी लोग हैं, खासकर छोटे कामगार लोग, घर में काम करने वाली हेल्पर हों, ड्राइवर हों, सब्जी बेचने वाले, दूध बेचने वाले, फेरीवाले उनसे जरूर पूछें कि वैक्सीन लगी या नहीं. और अगर उनके मन में कोई वहम है, कोई हिचक है तो उसे दूर करें, उन्हें मार्गदर्शन दें कि वो कब और कहाँ वैक्सीन लगा सकते हैं. और हाँ, अगर उन्हें एक दो दिन की छुट्टी लेनी पड़े बुखार आदि आने के कारण तो भी उनकी मदद करें.

यह राष्ट्रव्यापी काम है जिसमें सबके सहयोग की जरूरत है. बस अपने हिस्से की भूमिका तलाशने भर की देर है.

Wednesday, September 29, 2021

बिना संवेदना की शिक्षा के क्या अर्थ


- प्रतिभा कटियार

पिछले दिनों मैंने एक फिल्म देखी ‘इन्सेप्शन’. फिल्म लगातार मेरे ज़ेहन में चल रही है. कैसे किसी के अवचेतन में चुपके से इंट्री लेकर कोई विचार रोपा जा सकता है. फिर वह व्यक्ति वही करेगा वही सोचेगा जो उसके अवचेतन में रोप दिया गया है. और उस करने और सोचने को लेकर जिद भी करेगा, उसके लिए लड़ेगा भी. क्योंकि चेतन में वो यही समझता है कि यह उसका ही विचार है, उसका ही व्यवहार.

फिल्म के निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने क्या कमाल की फिल्म बनाई. जो बात मुझे हमेशा से लगती है कि हम नहीं जानते कि ‘हम नहीं जानते’ यह स्थिति सबसे मुश्किल होती है. क्योंकि इसमें बेहतर होने की, खुद को पलटकर देखने की संभावना कम से कमतर होती है. और जहाँ खुद को देखने की संभावना नहीं होती वहां बेहतर होने की, ग्रो करने की समझ को विकसित करने की संभावना भी कम ही होती है.

समाज की जो संरचना है उसमें इसके मजबूत तार हैं. फलां समुदाय ऐसा ही होता है. फलां वर्ग को ऐसा ही करना चाहिए. अच्छे बच्चे ऐसे होते हैं. अच्छे लोग वैसे होते हैं. नैतिकता, संस्कार, परम्पराएँ, मान्यताएं ये सब सदियों से हमारे अवचेतन में सेंध लगाकर हमारे व्यवहार को नियंत्रित कर रहे हैं. और हम ख़ुशी-ख़ुशी हो भी रहे हैं. क्योंकि हम जानते ही नहीं कि जिसे अपनी बात समझकर हम लड़ने-भिड़ने, हिंसक तक होने को व्याकुल हो उठ रहे हैं वो असल में हमारा है ही नहीं.

शिक्षा का यह काम होना था कि उसे इन बेवजह के लबादों से मुक्त होना सिखाना था. अपने खुद को खोजना शुरू करना सिखाना था. बने बनाये रास्तों पर चलना सिखाने की बजाय सिखाना था नए रास्ते खोजना. बताई हुई, सिखाई हुई बातों को सीधे-सीधे मान लेने की बजाय उन्हें खुद परखकर देखना सिखाना था. लेकिन हम हिंदी अंग्रेजी गणित सिखाने और सीखने की रेस में दौड़ पड़े. यह इसी रेस का नतीजा है शायद कि वाट्स्प यूनिवर्सिटी ने अच्छी-अच्छी यूनिवर्सिटी से अच्छे नम्बर लेकर पढ़े लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. कैसे पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ किसी निहत्थे, कमजोर व्यक्ति को घेरकर क्रूरता से मार देती है. फिर बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग उस घटना को देखते हुए सुनते हुए उसे ठीक भी ठहराते हैं. यह हमारे दिमाग में घुसकर किसी खास वर्ग, समुदाय के प्रति रोपी गयी नफरत का नतीजा है. हमारे जन्म से पहले ही हमारा व्यवहार, हमारी प्रतिक्रियाएं, ख़ुशी, गुस्सा, नफरत तय करने वाला समाज हमें कठपुतली की तरह नचाता है, नचा रहा है और हम नाच रहे हैं.

कोई जज जब किसी खास वर्ग के प्रति अटपटे फैसले सुनाता है, कोई नेता जब बेहूदा हिंसक बयान देते हैं तब मूल सवाल शिक्षा पर उठता है. क्योंकि हैं तो ये सब शिक्षित ही. यानी शिक्षा ने वो किया ही नहीं जो उसका मूल उद्देश्य था. बेहतर संवेदनशील मनुष्य बनाना.

तो क्या शिक्षक समुदाय इस बात को समझ पाए? क्या वो खुद को तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त कर पाए? क्या वो खुद यह देख या समझ भी पाए कि उनके भी पूर्वाग्रह हैं कुछ. और अगर वो उन पूर्वाग्रहों के साथ कक्षा में जा रहे हैं, बच्चों से संवाद कर रहे हैं तो यकीनन वो सारे पूर्वाग्रह, मान्यताएं, व्यवहार बच्चों को सौंप रहे हैं. नतीजतन पीढ़ी दर पीढ़ी सामजिक विभेद, हिंसा, नफरत अवचेतन में ट्रांसफर हो रहे हैं. कक्षा में बच्चे गणित के सवाल ठीक से लगाना तो सीख ले रहे हैं लेकिन उनके मन में अपने गुरु जी को देखकर किसी खास समुदाय, वर्ग के प्रति उफनाती नफरत भी जगह बना रही है. यह घर में भी हो रहा है लेकिन स्कूल में ऐसा होना ज्यादा खतरनाक है. क्योंकि स्कूल वह जगह है जहाँ इन तमाम मान्यताओं की दीवार को ढह जाना होता है. समाज की हर समस्या की जड़ में शिक्षा ही नजर आती है. वह शिक्षा जो हमें एक-दूसरे के व्यवहार से मिलती है. अगर हम खुद संवेदनशील नहीं हैं तो अपने आसपास के तमाम लोगों को वैसा ही बनाने में किसी न किसी रूप में कोई न कोई भूमिका निभा ही रहे हैं.

शिक्षा के दस्तावेज (चाहे एनसीएफ़ 2005 हो या नयी शिक्षा नीति) तो मानवीय सरोकारों की पैरोकारी कर रहे हैं लेकिन उसे अभी स्कूलों में ठीक तरह से आना बाकी है. और सिर्फ प्रारम्भिक शिक्षा ही क्यों उच्च शिक्षा में भी इसका शामिल होना जरूरी है. लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है व्यक्ति के तौर पर हमें शिक्षा के इस मूल मूल्य को समझना कि इसके बिना सब अधूरा ही है, अधूरा ही रहेगा. क्या होगा उन 100 में से 100 नम्बरों का जिसके सीने में अपने पड़ोसी की मुश्किल में आँख न नम हो, मदद को दौड़ पड़ने की व्याकुलता न हो. किसी भी समाज का मुख्य संस्कार है संवेदना. इन्सान को इन्सान समझना. वही नहीं तो क्या होगा डिग्रियों के ढेर से. अच्छी नौकरी तो मिल जाएगी. ऐशो आराम के साधन भी जुटा लेंगे लेकिन वो जो हर वक़्त डर-डर के जीना है, अपने बच्चों की सुरक्षा का सवाल है, बेटियों के वक़्त पर घर न लौटने पर बढ़ती हुई धड़कनें हैं, चारों तरफ से आती चीखो-पुकार है उसका क्या? अगर हमें एक शांत, खूबसूरत, सुरक्षित समाज चाहिए तो संवेदना के सूत्र को किसी मन्त्र की तरह आत्मसात करना होगा.

ये जो हमारे अवचेतन पर कब्जा करके हमारे सपनों को, हमारे व्यवहार तक को हाइजैक कर लिया गया है सदियों सदियों से उस चक्र से अब बाहर तो निकलना ही होगा. 

Tuesday, September 28, 2021

कमला भसीन : स्‍मृति शेष


भारतीय विकास नारीवादी कार्यकर्ता, कवयित्री, लेखिका और सामाजिक विज्ञानी कमला भसीन का 25 सितम्बर की सुबह निधन हो गया। वे 75 वर्ष की थीं। वे कैंसर से पीड़ित थीं । कमला भसीन ने महिलाओं के हक़ की लड़ाई के लिए लगभग 1970 से ही काम शुरू कर दिया था। उन्होंने लिंग भेदभाव, शिक्षा, मानव विकास, महिला सम्मान आदि चीजों पर खुलकर समाज के सामने लड़ाई लड़ी थी। उन्होंने ‘जागो री मूवमेंट’ के माध्यम से महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज से बाहर निकलने के लिए कई अथक प्रयास जारी रखें थे। भसीन ने नारीवाद और पितृसत्ता को समझने पर कई किताबें लिखी हैं, जिनमें से कई का 30 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया।
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सुबह आँख खुली तो एक उदास ख़बर सामने खड़ी थी। कमला भसीन नहीं रहीं। फेसुबक पर उदासी बिखरी हुई थी। मैं इधर-उधर के कामों को समेटते हुए लगातार कमला दी के बारे में सोच रही थी। इस ख़बर पर यक़ीन करने का मन ही नहीं कर रहा था। हालाँकि यह अचानक हुई दुर्घटना नहीं है। उनके स्वास्थ्य के बारे में लगातार जानकारी मिल रही थी। वो लम्बे समय से कैंसर से लड़ रही थीं। लगातार उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था लेकिन उनकी जिजीविषा वैसी ही थी। खुश रहने की उनकी फितरत, दूसरों को खुश रखने की चाह और किसी भी हाल में हौसला न टूटने की प्रतिबद्धता।

कमला दी का जाना भारत में स्त्री आन्दोलन की पैरोकार का जाना है। उस आवाज़ का जाना है जो किसी भी हाल में समझौतापरस्ती का विरोध करती थीं और स्त्री के हक़ के लिए लड़ना जानती थी। कमला दी की जानिब से नारीवाद को देखना एक खूबसूरत दुनिया का सपना देखना था। उनका नारीवाद स्त्रियों के हक़ में तो था लेकिन पुरुषों के विरोध में नहीं था। असल में नारीवाद यही तो है स्त्री समानता की बात न कि पुरुषों के विरोध की बात।

वो कहती थीं कि नारीवाद का सिर्फ एक अर्थ है समानता। वो सदियों से पितृसत्ता की गाड़ी में बैल की तरह जुती स्त्री के मन की दशा भी समझती थीं और यह भी कि वो कौन से कारण हैं जो एक स्त्री को दूसरी स्त्री के खिलाफ खड़ा करते हैं। वो किसी व्यक्ति के नहीं विचार के खिलाफ थीं। सत्ता के विचार के, पितृसत्ता के विचार के। उन्होंने कहा कि, ‘मैं ऐसी बहुत सी स्त्रियों को जानती हूँ जो पितृसत्ता की पैरोकार हैं, जो स्त्री होकर भी स्त्री विरोधी हैं। लेकिन मैं ऐसे पुरुषों को भी जानती हूँ जो महिला अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। फेमिनिज्म बयोलौजिकल मामला नहीं है यह आडियोलौजिकल मामला है।’

वो कहती थीं, ‘मैं चाहती हूँ नारीवादी महिलाएं ही न हों, नारीवादी पुरुष भी हों।’ ‘नारीवाद से हमारा मतलब है समानता सिर्फ समानता’। नारीवाद को पुरुषों के विरोध में उठे किसी स्वर के तौर पर नहीं देखना है बल्कि शोषण की उस बुनियाद को हिलाना है जहाँ किसी एक को मनुष्य के रूप में मिलने वाले अधिकारों से ही वंचित किया जा रहा हो। और जाहिर है ‘वह एक’ स्त्री ही तो है। लेकिन जब भी नारीवाद की बात होती है कुछ पुरुष कुछ उदाहरणों के साथ आ खड़े होते हैं कि महिलाएं भी तो जीना दूभर करती हैं, देखिये उसके साथ ऐसा हुआ, इसके साथ वैसा हुआ। कमला दी के उनकी पास हर बात का जवाब होता था। उनकी बात समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर डालने की जरूरत नहीं थी।

विचारों से मजबूत कमला दी भावनात्मक रूप से खूब नरम थीं। वे जल्दी से दोस्ती कर लेतीं, दिल लगा बैठतीं। दोस्ती में भी वो बराबरी के भाव को अहमियत दिया करती थीं। इसलिए उनके दोस्तों में ढेर सारे युवा और बच्चे भी शामिल हैं जिनमें से एक मैं भी हूँ।

जल्दबाजी में हुई एक छोटी सी मुलाकात और फोन पर हुई कुछ बातचीत भर से मेरा उनसे आत्मीयता का जो तार जुड़ा वो ज़िन्दगी भर जुड़ा रहेगा। उनसे बात करते हुए इतनी हिम्मत मिलती थी और इतनी उम्मीद जगती थी कि ‘अब सब ठीक हो जायेगा’ के भाव से मैं भर उठती थी। कई बार फेसबुक से पता चलता कि जब वो मेरी समस्याओं को सुलझा रही थीं तब वो मेरी समस्या से कहीं बड़ी समस्या से जूझ रही थीं।

व्यक्ति असल में विचार ही तो होता है। और इस लिहाज से कमला दी कहाँ गयीं, उनके विचार हैं हमारे पास। उनके विचार सदियों तक हमें रास्ता दिखायेंगे। ये जानते हुए भी इस ख़बर के बाद से तारी उदासी जा ही नहीं रही। कमला दी, आपसे एक बार तसल्ली से मिलना, देर तक गले लगना रह गया। मिस यू कमला दी।

प्रतिभा कटियार
लखनऊ में पली-बढ़ी प्रतिभा कटियार ने राजनीति शास्त्र में एमए किया, एलएलबी के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा किया. पत्रकारिता करना तय किया, 'स्वतंत्र भारत', ‘पायनियर’ 'हिंदुस्तान' 'जनसत्ता एक्सप्रेस' और 'दैनिक जागरण' जैसे हिंदी के महत्वपूर्ण अख़बारों में काम किया. इसके बाद अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के साथ जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में काम करना चुना. इन दिनों देहरादून में कार्यरत हैं.

(https://www.spsmedia.in/celebrity/passing-of-kamala-bhasin-the-advocate-of-womens-movement-in-india/)

Saturday, September 18, 2021

एक व्यक्ति की नहीं पूरे समाज की जीवनी है मारीना- वीरेंद्र यादव


‘मारीना’ को पढ़ते हुए पाठक सिर्फ मारीना की जीवन यात्रा में ही शामिल नहीं होते बल्कि वो लेखिका प्रतिभा की विकास यात्रा को भी देख पाते हैं. सचमुच यह किताब हिंदी के पाठकों के लिए प्रतिभा का बड़ा योगदान है. इस काम की खासियत यह है कि यह पूरी तरह से मौलिक काम है. यह किताब एक व्यक्ति का जीवन भर नहीं है, यह एक सामाजिक जीवनी है. पहले और दूसरे विश्व युद्ध का वह समय और उस वक्त का समाज सब इस किताब में खुलता नजर आता है. वह पूरा दौर, बहुत सी अनकही और अनससुलझी बातें जो हमारी सोच, हमारी चेतना का हिस्सा नहीं थीं वो इस जीवनी के माध्यम से सामने आई हैं.

मारीना जिस समय के उथल-पुथल के दौर की उपज थी वह रूसी क्रांति से पहले का समय था. जारशाही के समय उसके शासन के दौरान जो आन्दोलन चल रहे थे मारीना बचपन से ही उन आंदोलनों, उन हलचलों के बीच रही. यह एक बड़ी बात है कि कोई किताब जो जीवनी के रूप में आ तो गयी साथ ही ढेर सारी उलझन भी लायी. अगर आप विचार पध्धति से जुड़े हैं तो कोई किताब आपको झकझोर दे, आपको सोचने पर मजबूर करे तो यह मामूली बात नहीं है.


इस किताब में लेखिका की झिझक भी दिखती है. एक तरीका यह हो सकता था कि बहुत निर्णायक तरह से उस दौर को उकेरते हुए उस समूचे दौर को सवालों के घेरे में रखने का प्रयास किया जाता. लेकिन इस किताब में प्रतिभा स्वयं एक असमंजस से गुजरती हुई मालूम होती हैं. वो असमंजस प्रतिभा का असमंजस नहीं है वो असल में मारीना का असमंजस है. मारीना का पति अगर व्हाइट आर्मी के साथ जुड़ा हुआ है तो उससे निर्विकार कैसे रह सकती थी मारीना. मारीना खुद जार के समय था उसके शासन की पक्षधर नहीं है. इस बात को समझने के लिए पाठक खुद उस समय में खुद को ढाल पायें उस समय से खुद को जोड़कर देख पायें तो बात समझ में आती है कि परिवर्तन का, क्रांति का दौर ऐसा गुजर रहा है जो कि बहुत साफ़ नहीं है. उस दौर को उस दौर का बुध्धिजीवी फैसलाकुन तरह से समझ नहीं सकता है. जबकि एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है. ये लोग देश छोड़कर जा रहे हैं. चाहे चेकोस्लोवाकिया में हो, जर्मनी में हो, फ़्रांस में हो बड़ी संख्या में पलायन हो रहा है. तो एक ऐसा दौर मारीना की निर्मिति का दौर है. मारीना का वह निर्माण काल सिर्फ मारीना का ही नहीं है इसके बहाने उस पूरे दौर के असमंजस को, उहापोह को समझा जा सकता है. अच्छी बात यह है कि निर्णायक स्वर न देते हुए भी उस दौर की जो जटिलतायें हैं उन जटिलताओं को किताब में उजागर किया गया है. मुझे लगता है कि अब बेबाकी के साथ हमें सवालों से टकराना चाहिए. इस तरह की जो किताबें होती हैं वो हमसे ईमानदार आत्मावलोकन की मांग करती हैं. मुझे लगता है इस किताब के साथ उस आत्मावलोकन की शुरुआत हो सकती है. बहुत मुखर न हो, मौन ही हो लेकिन शुरुआत तो हो.
 
मारीना के प्रेम को लेकर भी बात होती है कि न जाने कितने लोग उसके जीवन में आये और उसने मुक्त प्रेम की युक्ति अपनाई. यह युक्ति एक व्यक्तित्व की निर्मिति थी और इस संदर्भ में प्रतिभा ने परिशिष्ट में जो लिखा है, ’मेरी समस्या यह है कि मैं ऐसे हर मिलने वाले के जीवन में अविलम्ब प्रवेश कर जाती हूँ जो किसी कारण मुझे अच्छा लगता है, मेरा मन उसकी सहायता करने को कहता है. मुझे उस पर दया आती है कि वह डर रहा है कि मैं उससे प्रेम करती हूँ या वह मुझसे प्रेम करने लगेगा और उसका पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जाएगा. यह बात कही नहीं जाती पर मैं यह चीखकर कहना चाहती हूँ कि महोदय, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए, आप जा सकते हैं, फिर आ सकते हैं, फिर जा सकते हैं, फिर कभी नहीं भी लौट सकते हैं. मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं समझ, सहजता और स्वछन्दता चाहती हूँ. किसी को पकड़कर नहीं रखना चाहती और न ही कोई मुझे पकड़कर रखे.'

मारीना प्रेम में पज़ेसिव नहीं है कि वो अपने प्रेमी को प्रेम में जकड़कर रखे. प्रेम का जो सूत्र उसके पास है उसे उसके इस कहे से समझा जा सकता है कि ‘मैं समझ, स्वतन्त्रता और स्वछंदता चाहती हूँ’ यह उसके प्रेम का सूत्र है. प्रेम की जो एक पारम्परिक तरह की अवधारणा है या प्लेटोनिक प्रेम की जो अवधारणा है मुझे लगता है प्रेम की उन अवधारणाओं से अलग यह एक नया आयाम है. मारीना को समझने के लिए जो हमारे बने-बनाये ढाँचे हैं उन्हें तोड़ना होगा. उन ढांचों को भारतीय परिस्थितियों को समझना आसान नहीं है. उस समय का जो यूरोपीय समाज है उसके मद्देनजर देखना होगा.

यह देखिये कि उसका जीवन कितना त्रासद है. उसकी त्रासदी उसके जीवन की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है वो उस दौर के सामाजिक, राजनैतिक जीवन की उपज है. सवाल यह है कि अगर इतनी बड़ी बौध्धिक स्त्री, कवयित्री अगर एक जोड़ी जूते मांग रही है, कि वो उन जूतों के अभाव में कहीं जा नहीं पा रही है तो यह राजनीति से परे बात नहीं है. भले ही वह खुद को अराजनैतिक कहती है लेकिन वो है नहीं अराजनैतिक. कोई हो भी नहीं सकता है. बुकमार्क में लेखिका ने इस बात को बहुत अच्छे ढंग से उठाया है. असल में मारीना राजनीति का शिकार है. कितना त्रासद है यह सब. इस किताब को पढ़ते हुए हम अवसादग्रस्त होते जाते हैं. उसका पति जासूसी के आरोप में फंसता है, वो भी जेल जाता है, बेटी भी जेल जाती है. बेटा भी उत्पीड़ित है. यह सब उस दौर की राजनीति के कारण ही तो हो रहा है.

यह किताब उस दौर की राजनीति के बारे में निस्पृहता से विचार करने के लिए हमें प्रेरणा देती है. वो दौर उथल-पुथल का दौर था. स्टालिन ने 1935 में पेरिस में होने वाली कांफ्रेस में भाग लेने के लिए पास्तेरनाक को भेजा. जिस पास्तेरनाक को एंटी फासिस्ट कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए भेजा यानी पास्तेरनाक पर उसे भरोसा था वही पास्तेरनाक बाद में उसी राजनीति के विक्टिम बने.

गोर्की बड़े नायक थे. उस समय की राजनीति की जो संरचना थी उसके अंतर्गत गोर्की भी मारीना की सहायता उस तरह से नहीं करते हैं. त्रासदी मरीना के हिस्से ज्यादा ही आई. तो सवाल यह है कि क्या नजरिया अपनाया जाय कि जो उस दौर में बहुत से साम्राज्यवाद के समर्थन का नजरिया अपना रहे थे या पूरी वैचारिक राजनीति में उथल-पुथल थी. एक कवियित्री की जीवनी के माध्यम से कितने रग-रेशे खुल रहे हैं. इसका दायित्व के साथ निर्वहन करना आसान नहीं था. यह काम बहुत परिपक्वता की मांग करता है और प्रतिभा ने उस परिपक्वता का परिचय दिया.

कितनी बड़ी त्रासदी है की मारीना ने आत्महत्या की लेकिन आत्महत्या के बाद उसे कहाँ दफन किया गया यह कोई नहीं जानता. उसकी कब्र कहाँ है आज तक किसी को नहीं पता. लोग ढूँढने गये लेकिन किसी को कोई ख़बर नहीं मिली. उस समय के लोग परिवार, लेखक समाज किसी ने उसे चिन्हित नहीं किया. किसी को नहीं पता वो कहाँ दफन है. कोई बताने वाला नहीं. इससे भी आप देखेंगे कि हालात कैसे थे और वो किस कदर उपेक्षित थी. मरीना का बेटा जो अपनी माँ की आत्महत्या को सही ठहराता है वो कहता है जिन हालात में माँ थी उन हालात में उसके पास कोई चारा नहीं था आत्महत्या के सिवा. वो कहता है ‘मेरी माँ ने सही किया.’ वो गवाह है उन स्थितियों का. वो सब देख रहा था. वो कहता है कि माँ ने जो किया यही उचित था किया जाना. कितनी बड़ी त्रासदी है कि बेटा माँ की आत्महत्या में ही उसकी मुक्ति देख रहा है. इन सारी परिस्थितियों का जो ताना-बाना बहुत उलझा हुआ है और उसमें उलझा है मारीना का जीवन.

रिल्के, पास्तेरनाक, अन्ना अख्मातोवा आदि के नाम हैं उस दौर में लेकिन मैं ईमानदारी से कहूँगा की मारीना मेरी स्मृति में नहीं थी. मैंने उस समय के कुछ सोवियत कलेक्शन निकाले उसमें मारीना को ढूँढा. वर्ल्ड सोशलिस्ट पोयट्री का एक बहुत अच्छा पोयट्री कलेक्शन है और वो करीब 30 साल पहले का है पेंग्विन ने उसे प्रकाशित किया था जिसमें दुनिया भर के कवि हैं जिसमें पाब्लो नेरुदा भी हैं उसमें भी मारीना कहीं नहीं मिली. एक सोवियत पोयट्री का बहुत अच्छा कलेक्शन है उसमें भी मरीना को तलाशा मैंने उसमें स्टालिनवाद के समय के सब लोग हैं उसमें येसेनिन भी हैं मायकोवस्की भी हैं लेकिन यह नाम वहां भी नहीं है. प्रतिभा ने उस लिहाज से मारीना को उपस्थित भी किया है. हिंदी के पाठको के लिए तो यह है ही कि क्योंकि किताब हिंदी में है लेकिन इसके माध्यम से चर्चा आगे भी जा सकती है क्योंकि यह एक जीवनी भर नहीं है, एक खोज है. प्रतिभा ने इसको खोजा, इसको इस रूप में प्रस्तुत किया. यह आगे जाने वाला काम है. टिकने वाला काम है. जब भी इस तरह की कोई चर्चा होगी तब मारीना को खोजा जाएगा. इस काम को दूर तक जाना चाहिए.
 (जनवरी 2021 में लखनऊ में हुए एक कार्य्रकम में दिया गया वक्तव्य)
 पुस्तक- मारीना (जीवनी)
लेखिका- प्रतिभा कटियार 
मूल्य- 300 रूपये
प्रकाशक- संवाद प्रकाशन, 
पुस्तक अमेजन पर भी उपलब्ध है. अमेजन का लिंक- https://www.amazon.in/-/hi/Pratibha-Katiyar/dp/8194436206/ref=sr_1_1?dchild=1&keywords=pratibha+katiyar&qid=1631940830&sr=8-1

Thursday, September 2, 2021

मौन में बात


सुनना
कोलाहल के समन्दर के बीच
अपनी धड़कनों की
कलियों के चटखने की
पत्तियों के गिरने की
मोगरे की खुशबू की
दिल के टूटने की
उदास आँखों में उगती उम्मीद की
आवाज़ को सुनना
सुनने का अभ्यास है,


एकांत
अकेले रहना नहीं होता
एकांत में होना
भीड़ में, कोलाहल में भी
बुना जा सकता है
अपने लिए एकांत का सुंदर बाना
जैसे ढेर सारे शब्दों और वाक्यों के बीच
बचाया जा सकता है
मौन का नन्हा सा बीज
जिसे सींचा जा सकता है
आत्मा के पानी से
जिसकी छांव में हम
सुस्ता सकें एक रोज
दुनियादारी की भागमभाग से थककर.


देखना
दृश्य जो झिलमिलाते हैं
वो दिखते हैं लेकिन दिखते नहीं
दृश्य जो कचोटते हैं
वो उस कचोट की यात्रा नहीं दिखाते
दृश्यों में डूबते-उतराते अक्सर
छूट जाता है हमसे देखना
क्योंकि देखना दृश्य भर नहीं होता.


बोलना
जब चुप थी
तब कितना शोर था भीतर
कितनी बातें

स्मृतियां कितना शोर करती हैं

चुप में रहकर जाना
कि बात के भीतर थी एक और बात थी
स्मृति के भीतर थी एक और स्मृति

सामने दिखती दीवार पर
शब्दों और वाक्यों का ढेर था
जबकि बागीचे में खिला था एक फूल
और उस पर मंडराने के बाद
पीली धूप पहनने वाली तितली ने कहा,
'जरा चुप भी हो जाओ
कि बारिश आने को है.'

बोलना
जब हम शब्दों में बोलते हैं
तब बचा रहता है थोड़ा सा मौन
थोड़ी सी चुप बची रहती है

जब हम बोलना बंद करते हैं
बहुत शोर करती है चुप्पी

मौन धीमे से मुस्कुराता है
हाँ, मौन और चुप दो अलग बाते हैं.

बंद आँखों से देखना
जब आँखें बंद होती हैं
तो खुलता है एक बड़ा सा संसार

बंद आँखों की दुनिया में
जंगल, नदियाँ पहाड़ सब होते हैं

बंद आँखों की दुनिया खुलती है
स्वप्न और स्मृति के संसार में
वहां ढेर सारे रंग खुलते हैं

बंद आँखों की खिड़की पर
बारिश की आवाज लिए बैठा होता है पंछी

प्रार्थना के लिए आँखें बंद करने पर
ईश्वर के सिवा सब दिखता है
और आँखें खोलने पर दिखती है
ईश्वर की मूर्ति

बंद आँखों से देखना एक अभ्यास है
यह आँखें बंद करने से नहीं आता.


सवाल
जवाब सवालों के नहीं होते
सवालों में होते हैं
सवाल होने पर परेशान होने से बेहतर है
सवालों से घिरे रहना
जवाब की खोज में भटकने से बेहतर है
बेहतर सवालों की खोज में निकल पड़ना.

शाख
खाली शाख
स्मृतियों से भरी होती है
ढेर सारे दृश्य टंगे होते हैं
खाली शाखों पर
हरियाली की खुशबू से तर-ब-तर
पंछियो के कलरव से झूमती
जुगनुओं से झिलमिलाती
खाली शाखों को देखने के लिए
ख़ास नजर चाहिए
खाली शाख सा दिखे कोई व्यक्ति
तो खाली मत समझना उसे
उसके भीतर छुपी हरियाली
से तनिक हरा चुन लेना.

Sunday, August 29, 2021

डुबकियाँ



एक रोज खेल-खेल में फेसबुक अकाउंट डीएक्टिवेट किया था सोचा था कुछ घंटों में वापस लौट आऊंगी और कई महीनों तक वापस लौटने का मन ही नहीं किया. यह कई बरस पुरानी बात है. फिर एक बार बिना डी एक्टिवेट किये ही कुछ दिन फेसबुक से दूर रहने का मन बनाया और ये कुछ दिन लम्बे होते गए. सुख हुआ. फिर ऐसा अक्सर होने लगा. लम्बे समय से सोशल मीडिया पर आमद सिमट रही थी. फिर एक रोज आँख में दर्द की शिकायत हुई और एकदम से स्क्रीन से मुंह मोड़ लिया. सच कहती हूँ हर बार सुख हुआ. कि एक क्लिक की दूरी पर था एक संसार बस इच्छा की देर थी. जैसे जेब में ओपन टिकट हो लेकिन मन रम जाए वादियों में कि टिकट इच्छा की राह ताकते-ताकते मुरझा जाए.
इस दौरान मैंने न पढ़ा, न लिखा कुछ. न देखा ही कुछ. न बातें की किसी से. न वाट्स्प, न फेसबुक. इस दौरान सुनना खूब हुआ. चुप की आवाज़ें, फूलों के खिलने की आवाज़ें, पत्तियों के झरने की आवाज़ें, अपने भीतर की आवाजें तो हर वक़्त साथ रहीं. बाहर के कोलाहल में घिरे-घिरे भीतर के कोलाहल का पता ही न चला था. इस दौरान स्मृतियों की आंधियां भी खूब चलीं. सोचना बढ़ा और उसने नम किया. भीतर की नदी में खूब डुबकियाँ लगायीं.
ऐसे समय बिताने के बारे में कभी सोचा नहीं था. लेकिन ये अनजाना सुख रहा. यह किसी पाबंदी से करना पड़ता तो तड़प ही पड़ती शायद लेकिन यह मैंने खुद चुना और सुख हुआ. यह समय सिर्फ बाहरी आवाजों से दूर रहने का नहीं बाहरी दृश्यों से दूर रहने का भी था. सारे फूल भीतर खिल रहे थे, सारी बारिशें भीतर थीं, सारे पंछी भीतर कलरव कर रहे थे.
ऐसा नहीं, कि बाहरी दुनिया की खबर नहीं थी. खबरों ने उदास भी किया कभी सुख भी दिया. उदासी और सुख को जज्ब करना बढ़ा. इन दिनों दोस्त साथ है. वो भी मेरे चुप के करीब बैठ जाती है.
संवाद स्थगित हों तो असल संवाद शुरू होता है
दृश्य स्थगित हों तो कितना कुछ दिखना शुरू होता है.

Sunday, July 25, 2021

औरतें सपने देख रही हैं


खेतों की कटाई में, धान की रुपाई में
रिश्तों की तुरपाई में लगी औरतें सपने देख रही हैं

बच्चों को सुलाते हुए, उनका होमवर्क कराते हुए 
गोल-गोल रोटी फुलाते हुए 
औरतें सपने देख रही हैं 

ऑफिस की भागमभाग में, प्रोजेक्ट बनाते हुए 
बच्चों को पढ़ाते हुए, मीटिंगें निपटाते हुए 
औरतें सपने देख रही हैं 

घर के काम निपटाते हुए, पड़ोसन से बतियाते हुए 
टिफिन पैक करते हुए 
आटा लगे हाथ से आंचल को कमर में कोंचते हुए 
औरतें सपने देख रही हैं 

बेमेल ब्याह को निभाते हुए 
शादी, मुंडन जनेऊ में शामिल होते 
हैपी फैमिली की सेल्फी खिंचवाते हुए 
आँखें मूंदकर सम्भोग के दर्द को सहते हुए
सुखी होने का नाटक करते हुए 
औरतें गीली आँखों के भीतर सपने देख रही हैं 

कि एक दिन वो अपने हिस्से के सपनों को जी लेंगी 
एक दिन वो अपने लिए चाय बनाएंगी 
अपने साथ बतियायेंगी 
खुद के साथ निकल जायेंगी बहुत दूर 
जहाँ उनके आंसू और मुस्कान दोनों पर
नहीं होगी कोई जवाबदेही 
बहुत आहिस्ता से जाना उनके करीब 
चुपचाप बैठ जाना वहीं, बिना कुछ कहे 
या ले लेना उनके हाथ का काम ताकि 
औरतें सपने देखती रह सकें 
और उनके सपनों की खुशबू से महक उठे यह संसार.

Saturday, July 24, 2021

चेहरा


काम पर जाती हुई औरतें
घर पर रहकर काम करने वाली औरतों से अलग नहीं होतीं

दोनों ही संभालती हैं घर और बाहर की दुनिया
दोनों ही जूझती हैं भीतर बाहर की लड़ाइयों से
दोनों के ही जीवन में है काम का भंडार
और उस पर से मिलने वाले ताने अपार

दोनों को निपटाने होते हैं समय रहते सारे काम
बुलट ट्रेन की स्पीड फिट होती है उनके हाथों में
दोनों के पास नहीं होता अपने लिए वक़्त

काम पर जाती औरतें ऑफिस में निपटाती हैं फाइलें
घर पर रहते हुए काम करती औरते कसती हैं गृहस्थी के नट बोल्ट
काम पर जाती औरतें कुछ रोज ब्रेक लेकर घर पर रहना चाहती हैं
घर पर काम करती औरतें कुछ दिन बाहर जाकर
काम करने का सपना आँखों में पालती हैं

दोनों एक-दूसरे को हसरत से देखती हैं
दोनों को ही नहीं देखता कोई
दोनों से कोई खुश नहीं रहता

काम पर जाती औरतें ही घर पर काम करती औरतें हैं
घर पर रहकर काम करती औरतें ही काम पर जाती औरतें हैं
दोनों के चेहरे आपस में गड्डमगड्ड हैं

ये एक-दूसरे के साथ बैठकर चाय पीने के इंतज़ार में 
रसोई से लेकर ट्राम तक ये भागती जा रही हैं

ऑफिस में फ़ाइल निपटानी हो, घर की रसोई समेटनी हो
या करना हो मेम साब के घर का झाड़ू, बर्तन, पोछा या मजदूरी 
ये सारी औरतें एक ही हैं

फेसबुक विमर्श से दूर अपनी ही डबडबाई आँखों में
उतराते अपने कच्चे सपनों को देखती हैं

एक रोज निकालकर तनिक सी फुरसत
छोड़कर कुछ जरूरी काम
जब ये एक-दूसरे के गले लगकर हिलगकर रो लेंगी
तब सूख जायेंगे इन्हें बांटने के इरादे से बोये जाने वाले तमाम बीज

जब तक ये निपटा रही हैं अपने काम
तब तक ही चल पायेगा इन्हें बांटने का कारोबार.

Friday, July 23, 2021

शुक्रिया !



जब भी मन भावों से छलकने को हुआ है शब्दों को अक्सर हताश पाया है. बीच रात में नींद खुली और अपनी कोरों के पास एक नदी बहती मिली. यह आप सबके स्नेह की नदी थी. जन्म कोई कमाल बात भी नहीं तब तक, जब तक वो किसी के अपनेपन से, स्नेहिल संग साथ से भरपूर न हो. जब हमें कोई निश्छल प्रेम से सिंचित करता है तो लगता है कुछ जी लिए हैं.

यह जन्मदिन ख़ास था कि अरसे बाद देहरादून में परिवार के सब जन इकठ्ठे हुए. यह जन्मदिन ख़ास था कि उदास दिनों की जद में उलझे मन को ऐसी स्नेहिल बारिशों की बेहिसाब प्यास थी. आपके स्नेह ने मुझे गढ़ा है. मेरी हजारों कमियों समेत आप सबने मुझे बहुत प्रेम दिया है, भरोसा किया है. घर तोहफों से, मन स्नेह से भरा है, आँखें डब डब करते हुए मुस्कुरा रही हैं और मन आभार वाले फूलों का गुलदस्ता लिए आप सबके स्नेह को गले से लगाये सुख से भरा है. 

आप सबके स्नेह की ये बारिशें यूँ ही मुझे भिगोती रहें...यही दुआ है अपने लिए इस जन्मदिन.  

Thursday, July 15, 2021

अलग सा एहसास है मारीना को पढ़ना



इस नायाब किताब को मैने कई दिन लगाकर पढ़ा, लगभग हर पन्ना भावनाओं का सैलाब लाता है। मारीना का जन्म सन् 1892 में एक महान कला मर्मज्ञ और इतिहासकार, ईवान व्लादिमिरोविच के घर में हुआ था। लेकिन, नियती ही थी कि, चांदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुई मारीना के कुल जमा 49 साल के जीवन का अधिकांश हिस्सा अभावों से जूझते हुए बीता, अभाव प्रेम और सहयोग का! पैसों का! और सबसे अधिक समय का अभाव, जिसकी गूंज किताब में कदम-दर-कदम मिलती है!

किताब में मारीना की कुछ बेहतरीन अनूदित कविताएं पढ़ने को मिली, ‘एक सुबह’, ‘ऑन द रेड हाॅर्स’, ‘फ़ासले’, ‘कवि’, ‘प्यारी मेज़’ और भी कई, जिनका अनुवाद भी इतना मीठा है कि, मुझ जैसे सामान्य पाठक की ज़बान पर भी मारीना की कविताओं का स्वाद चढ़ गया। एक कविता में मारीना कहती हैं- “.... मेरी कविताएं संभाल कर रखी गई सुरा की तरह हैं मैं जानती हूं कि इनका भी वक़्त आएगा...”! कविता का ये अंश समय से कहीं आगे की बात कहता लगता है, जो सच हुआ। किताब में जब मारीना के जीवन को प्रभावित करने वाले अहम किरदारों के तौर पर पुश्किन, रिल्के, पास्तरनाक, जैसे महान कवियों के ज़िक्र आये, तो लगा, इन्हें भी तो रूक कर, थम कर पढ़ा जाना ज़रूरी है, फिर, उन्हें जानने की ख़्वाहिश में इण्टरनेट भी खूब खंगाला।

दरअसल मेरी नज़र में यह किताब मारीना की जीवनी नहीं, बल्कि कई-कई मुलाकातें हैं, मुलाकातें सिर्फ मारीना के साथ ही नहीं बल्कि दुनिया के उस दौर के दूसरे बेहतरीन कवियों के साथ भी। मारीना के जीवन में घटे अधिकांश घटनाक्रम सन्दर्भों के साथ लिखे गये हैं और जहां घटनाओं के सन्दर्भ नहीं हैं, वहां सम्भावनाओं के सन्दर्भ अंकित हैं, जिससे इस किताब में लिखे हर शब्द के प्रति विश्वास बढ़ जाता है। हम महसूस कर पाते हैं कि, बेरहम सत्ता और निरंकुश राजनीति कैसे कला और साहित्य जगत पर अपना शिकंजा कसती है, ये हर कालखण्ड की त्रासदी रही है। मारीना के इर्द-गिर्द लिखी घटनाओं से, प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच के राजनीतिक उठापटक के उस दौर में साहित्य जगत पर पड़ने वाले प्रभावों की झलक भी मिलती है।

पाॅल गोगां हों, वाॅन गाॅग हों या मारीना! ये मुफलिसी न होती तो ये महान रचनाकार दुनिया को और भी न जाने क्या क्या दे जाते, मगर समय रहते हमें किसी की भी क़द्र ही कहां होती है? एक जगह किताब में मारीना कहती हैं, चिकित्सक इंसान के लिए ज़रूरी होते हैं, लेकिन कवि समाज़ के लिए...। वाकई! लेकिन, ये सर्जक जो समाज की ऑक्सीजन होते हैं, हम इन्हें वो सम्मान जीतेजी देते ही कब हैं? मारीना जिस विरासत को पोषित करती थी, उसे आज भी पूरी दुनिया आह भरकर देखती है। मारीना के पिता, मां, पति, पुत्री, बहिन और मित्र, सभी एक से बढ़कर एक रहे, जो खुद इतिहास और साहित्य जगत की सुनहरी इबारतें लिख गये हैं, ज़रूर उन सबके भी अपने अपने कष्ट थे, लेकिन मारीना ने जिन दुश्वारियों को झेला वो असहनीय थीं। आर्थिक तंगी की पराकाष्ठा, लेखन न कर पाने का मलाल, एक-एक कर अपने परिजन, अपने प्रियजनों का विदा हो जाना, अपने पति और बेटी का जेल में होना........... ऊफ्फ! इतनी पीड़ा से निबटना आसान भी तो नहीं था।

आखि़र में हम जो पाते हैं- अपनी ख़्वाहिशों को तीन चिट्ठियों में समेट कर इस दुनिया से विदा होती मारीना!

अपनी मां की मौत के बाद मरीना का बेटा मूर, जिसका हाथ मारीना कभी नहीं छोड़ती थी, अपने दोस्त को लिखता है कि, वह उस बारे में सिर्फ एक ही बात कह सकता है कि 'मम्मा ने जो किया, अच्छा किया, उनके पास खुद को ख़त्म कर देने की पर्याप्त वजहें थीं।' जब एक बेटे को अपनी मां की आत्महत्या इस रूप में स्वीकार करनी पड़े, तो इससे ज़्यादा दयनीय क्या हो सकता है?

मारीना सिखाती है कि, विपरीत परिस्थितियों में भी जीवनपर्यन्त ईमानदार बना रहा जा सकता है, जो अपने लेखन के प्रति, अपने पारिवारिक दायित्वों के प्रति, अपने पति, अपने प्रियजनों के साथ ही अपने आलोचकों के प्रति भी ताउम्र ईमानदार रही!

ये किताब मारीना के बचपन, युवावस्था, निर्वासन, माॅस्को वापसी जैसे जीवन के विशेष पड़ावों के आधार पर, अलग-अलग खण्डों में बंटी हैं। किताब में दिये कुछ विशेष घटनाक्रमों के आखिर में लेखिका ने बुकमार्क के तौर पर मारीना के साथ अपने संवादों की जो कल्पना की है, वो अप्रतिम है, यहां भावों की गगरिया छलछलाने लगती है। शायद बुकमार्क के इस तजवीज़ का भी असर है, कि मुझे ये किताब जीवनी से बढ़कर मुलाकात लगती है। वो दौर ख़त-ओ-किताब़त का दौर था, मारीना में उद्धृत ख़तों को पढ़कर नीली अन्तर्देशियां, पीले लिफाफे, पोस्टकार्ड भी खूब याद आये।

समझा जा सकता है कि, एक दूसरे देश की कवयित्री (जबकि मारीना खुद को रूस की कवि कहलाना पसंद नहीं करती थीं, वो खुद को सिर्फ कवि मानती थीं) की जीवनी को कागज़ में उतारने के लिए लेखिका ने कितनी मेहनत, कितना संयम, कितना समय और कितना धन विनियोजित किया होगा। किताब की शुरूआत में लेखिका के अपने उद्गार पढ़कर ही त्याग के इस ताप की आंच महसूस की जा सकती है।
एक बार इसी किताब पर परिचर्चा के दौरान एक समारोह में मैने प्रतिभा जी को सुना था। वो जब मारीना की छोटी बेटी के भूख से मर जाने की घटना के बारे में अपनी भावनाएं बांट रही थीं, मेरी आंखें डबडबाने लगी थीं। सच है, जब एक लेखक कोई जीवनी लिखता है तो उसकी ज़िम्मेदारी बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है। प्रतिभा जी ने मारीना लिखकर हम पाठकों पर एहसान किया है, जिसे हम सिर्फ उन्हें बधाई देकर या धन्यवाद कहकर तो नहीं चुका सकते, लेकिन एक पाठक के तौर पर मैं उन्हे हमेशा इतना ज़रूर कहती हूँ कि, आपके दौर का पाठक होकर गर्व सा होता है।

प्रतिभा जी को एक बार फिर से हार्दिक बधाई और धन्यवाद

मारीना (जीवनी)रूस की महान कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा का युग और जीवन
लेखिका- प्रतिभा कटियार
मूल्य- 300 रूपये 
प्रकाशन: संवाद प्रकाशन, मेरठ

Tuesday, June 29, 2021

कामकाजी औरतें



कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं रोज सुबह घर से
आधे रास्ते में याद आता है सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं
उलझन में पड़ जाता है दिमाग
कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया
जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर

कितनी ही जल्दी उठें और तेजी से निपटायें काम
ऑफिस पहुँचने में देर हो ही जाती है
खिसियाई हंसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर
बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं
सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर
नाखूनों में फंसे आटे को निकालते हुए
अटेंड करती हैं मीटिंग
काम करती हैं पूरी लगन से

पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल
सास की दवाई के बारे में
उनके पास नहीं होता वक्त पान, सिगरेट या चाय के लिए
बाहर जाने का
उस वक्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम
ताकि समय से काम खत्म करके घर के लिए निकल सकें.
दिमाग में चल रही होती सामान की लिस्ट
जो लेते हुए जाना है घर
दवाइयां, दूध, फल, राशन

ऑफिस से निकलने को होती ही हैं कि
तय हो जाती है कोई मीटिंग
जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा
बच्चे की मनुहार जल्दी आने की
रुलाई बन फूटती है वाशरूम में
मुंह धोकर, लेकर गहरी सांस
शामिल होती है मीटिंग में
नजर लगातार होती है घड़ी पर
और ज़ेहन में होती है बच्चे की गुस्से वाली सूरत
साइलेंट मोड में पड़े फोन पर आती रहती हैं ढेर सारी कॉल्स
दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में

घर पहुंचती सामान से लदी-फंदी
देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ
शिकायतों का अम्बार खड़ा मिलता है घर पर
जल्दी-जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए
सबकी जरूरत का सामान देते हुए
करती हैं डैमेज कंट्रोल

मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बतायेंगी घर पर
टूर पर जाने की बात
कैसे मनाएगी सबको
कैसे मैनेज होगा उनके बिना घर

ऑफिस में सोचती हैं कैसे मना करेगी कि नहीं जा सकेंगी इस बार
कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात

कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से
कि शाम को आराम मिलेगा
रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले
कि सुबह हड़बड़ी न हो

ऑफिस में तेजी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुंचें 
घर पर तेजी से काम करती हैं कि ऑफिस समय से पहुंचें

हर जगह सिर्फ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में
एक रोज मुस्कुरा देती हैं आईने में झांकते सफ़ेद बालों को देख

किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से
कहीं कोई खुश नहीं न घर में, न दफ्तर में न मोहल्ले में
वो खुद भी खुश नहीं होतीं खुद से

'मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता के अपराध बोध से भरी कामकाजी औरतें
भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज़
और तब उनके साथी कहते हैं
'ऐसा भी क्या खास करती हो जो इतना ड्रामा कर रही हो.'

मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें
एक रोज तमाम तोहमतों से बेज़ार होकर
जीना शुरूकर देती हैं
थोड़ा सा अपने लिए भी
और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम
सामाजिक समीकरण.

Friday, June 25, 2021

ख़्वाब जो बरस रहा है



कुछ रुकी हुई रुलाइयां हैं, कुछ भिंची हुई मुठ्ठियाँ हैं, कुछ रातों की जाग है कुछ बारिशों की भागमभाग है. कुछ ख़्वाब हैं अनदेखे से कोई खुशबू है बतियाती सी. कविताओं का पता नहीं लेकिन मन की कुछ गिरहें हैं जिन्हें कागज पर उतारकर जीना तनिक आसान करने की कोशिश भर है. ये 'ख़वाब जो बरस रहा है' ये आपको भी मोहब्बत से भिगो दे यही नन्ही सी इच्छा है.

दोस्तों और पाठकों का प्यार था जिसने हौसला दिया एक जगह सहेज देने का. मन एकदम भरा हुआ है. पलकें नम हैं. प्यार ऐसे ही तो भिगोता है.


Sunday, June 20, 2021

फादरहुड


किसी पुरुष के बच्चे छोटे हैं और उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाए तो सारे परिवारजन और रिश्तेदार मिलकर पत्नी की चिता की आग ठंडी होने से पहले ही पुरुष के पुनर्विवाह के बारे में सोचने लगते हैं. क्योंकि बच्चे छोटे हैं, कैसे पाल पायेगा वो अकेले. बच्चों की खातिर पुरुष भी विवाह के लिए तैयार हो जाते हैं. यह बच्चों की खातिर पुनर्विवाह की सुविधा स्त्री के लिए नहीं है. उससे कहा जाता है, 'बच्चों का मुंह देखकर जी लो.; इस तरह के व्यवहार को खूब होते देखा है. नतीजा आपको एकल पैरेंटिंग में जितनी महिलाएं मिलेंगी उतने पुरुष नहीं. इसमें पुरुषों का दोष नहीं है. उस सोशल कंसट्रकशन का दोष है जो यह माने बैठा है कि बच्चे पालने का बड़ा हिस्सा माँ के हिस्से आता है. ऐसे बहुत से पिताओं को जानती हूँ जिन्हें पता ही नहीं उनके बच्चे कब बड़े हो गए. एक ही घर में रहते हुए जान नहीं पाए कि कब पत्नी बीमार होकर खुद ही ठीक हो गयी और कब बच्चे बड़े हो गये. उनकी भूमिका बस होने की थी सो वो हुए. इससे ज्यादा न हो पाये.

मुझे हमेशा से लगता है कि पैरेंटिंग को लेकर भारतीय समाज में अभी बहुत जागरूकता आनी बाकी है. पुरुषों और स्त्रियों दोनों को यह समझने की जरूरत है कि गर्भधारण, प्रसव और स्तनपान के अतिरिक्त कोई ऐसा काम नहीं जो स्त्री कर सकती है पुरुष नहीं. तो अपने परम आदर्श पतियों को पैरेंटिंग के लिए प्रोत्साहित कीजिये. और अगर वो डायपर चेंज करते हैं, बच्चे का फीड तैयार करते हैं, मालिश करते हैं (कभी-कभार नहीं, नियमित) तो उन्हें यह सुख लेने दीजिये. और इसे किसी एहसान या महान गुण की तरह न देखकर सामान्य तौर पर देखना शुरू करिए. माँ की महानता के गुणगान के पीछे पिता के कर्तव्य आराम करने चले गए हैं. उन्हें बाहर निकालना जरूरी है. बच्चे पालने का सुख दोनों को लेना है न आखिर. और अगर किसी कारण कोई भी एक सिंगल पैरेंटिंग के लिए बचता है तो वो उसे निभा सकता है. अकेले. स्त्री भी, पुरुष भी.

कल नेटफ्लिक्स पर 'Fatherhood' देखी. प्यारी फिल्म है. बच्ची की माँ की मृत्यु बच्ची के जन्म के समय हो जाती है और तब हमेशा से लापरवाह समझे जाना वाला शख्स पिता बनकर उभरता है. न आया की मदद, न नानी दादी की न बच्ची का वास्ता देकर दूसरी शादी. नौकरी और बच्ची को संभालता पिता. फिल्म प्यारी है.