Sunday, January 30, 2022

पुकार लेना बारिश


कई बार चाहा अपना नाम बदल लूं, नदी रख लूं अपना नाम. कभी जी करता कोई बारिश कहकर पुकारे तो एक बार. बहुत दिल चाहता कोई गुलमोहर कहता कभी. कभी मौसम कहकर पुकारे जाने का दिल चाहता कभी गौरेया, कभी तितली, कभी धान, कभी सरसों कभी रहट. मैं अपने बहुत सारे नाम रखना चाहती थी, लेकिन मेरा एक नाम रखा जा चुका था लिहाजा उसी नाम की परवरिश करने लगी, धीरे-धीरे उसी नाम को प्यार भी करने लगी.
भाषा की दुनिया में मेरे नाम का अर्थ जो भी रहा हो मेरे लिए मेरे नाम का अर्थ अब भी वही है जो कुदरत के रंग हैं।

मैं जो अपने बारे में बताना चाहती थी, उसे सुनने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। लोग वही सुनना चाहते हैं जो वो सुनना चाहते हैं। इसलिए बचपन से हमें वही बोलने की प्रैक्टिस करवाई जाती है, जो लोग सुनना चाहते हैं। बहुत सारी जिंदगी जी चुकने के बाद हमें समझ में आता वो जो हम रहे हैं अब तक वो तो कोई और था, जो मुझमें जीकर चला गया।

मेरे भीतर कोई और जीकर न चला जाए इसकी पूरी कोशिश करती हूँ तुम भी देना मेरा साथ इस कोशिश में इसलिए जब पुकारना मेरा नाम तो पुकार लेना बारिश...

Monday, January 24, 2022

बारिश पंचम सुर में आलाप ले रही है



एक समय था जब मैं प्यार में मर जाना चाहती थी. एक वक़्त है जब मैं प्यार को पी जाना चाहती हूँ. एक वह वक़्त था जब बेज़ारी थी ज़िन्दगी से, एक ये वक़्त है जब यारी है ज़िन्दगी से. सुबहों को घंटों परिंदों से बातें करते हुए महसूस होता है मानो मेरे भी पंख उग आये हों. उनके साथ मैं भी उड़ती जाती हूँ. पंडित शिव कुमार शर्मा संतूर पर राग भैरवी बजा रहे हैं. पहाड़ियां उन मधुर लहरियों में डूबती जा रही हैं.

मुझे इन दिनों अपने आसपास कोई नजर नहीं आता, कोई महसूस नहीं होता. ज़रूरत भी नहीं महसूस होती. वह जो खाली केंद्र था न, वह अब अपनेपन की महक से भर गया है. बाहर कुछ भी नहीं, सब भीतर है. उस भीतर तक पहुँचने के लिए हम बाहर भटकते फिरते हैं. सेहरा, पहाड़, दरिया पार करते हैं, लेकिन मिलता है वो किसी पेड़ के नीचे ही, एक चम्मच खीर खाकर या किसी कुटिया में झूठे बेर खाकर.
हम सबको जूठे बेरों की तलाश है. कोई इतने प्यार से चखकर रखे तो. कोई इतने प्यार से खीर बनाकर लाये तो. वह खीर की चाह थी जिसने खीर को ज्ञान का माध्यम चुना, वो चाह जिसे दुनिया भूख कहती है. असल में हमें अपनी भूख तलाशनी है. जिन चीज़ों के पीछे भाग रहे हैं, जिनके लिए जान दे रहे हैं वह हमारी भूख हैं ही नहीं. जो भूख है वहां हम पहुंचे ही नहीं. वहां पहुँचने की यात्रा ही जीवन है. मुझे मेरी भूख मालूम है. मुझे बारिश चाहिए (बेमौसम नहीं), मुझे ढेर धूप चाहिए, अंजुरी भर सर्दी चाहिए, अमलतास चाहिए, मोगरे का गजरा चाहिए, सामने मुस्कुराती जूही और हरसिंगार की गमक चाहिए.

मुझे इंतज़ार चाहिए...यही मेरी चाह है. मेरी इस चाह को परिंदे समझते हैं. तुम भी तो परिंदे ही हो. उड़ते-उड़ते जा बैठे हो किसी और डाल पर. तुम कनखियों से देखते हो, मुस्कुराते हो. मैं पुकारती नहीं, तुम आते नहीं. दूर जाकर तुम ज़्यादा क़रीब जो आ गये हो. मेरी शामों में मेरी सुबहों में तुम घुले हुए हो. डाल कोई भी हो तुम्हारी, दिल मेरे ही पास है जानती हूँ. बारिश पंचम सुर में आलाप ले रही है, सुन रहे हो न तुम?

Sunday, January 23, 2022

कहानी- अरुणिमा


- प्रतिभा कटियार

हरसिंगार के फूल हथेलियों में भरकर अरुणिमा के ऊपर गिराने में तरुण को जितना सुख मिलता अरुणिमा को उससे ज्यादा सुख मिलता कभी ठंडा पानी, कभी बर्फ के टुकड़े तरुण पर उछालकर. जब तरुण उसे धप्पा देने के लिए उसके पीछे भागता तो आगे भागती खिलखिलाती अरुणिमा की आभा पूरे घर में बिखर जाती. दोनों की जान बसती है एक दूसरे में. बहुत प्यार करता है तरुण अरुणिमा को और अरुणिमा तरुण को. हालाँकि वो तरुण के मुकाबले थोड़ा कम प्यार करती है तरुण को ऐसा वह खुद मानती है क्योंकि उसे लगता है वह थोडा सा प्यार खुद से भी करती है यह इनके प्रेम का शुरूआती दौर नहीं है. क्योंकि शुरूआती दौर की प्रेम कहानियों में तो ऐसे ही छलकता है प्रेम यह सामान्य बात है. लेकिन तरुण और अरुणिमा की यह प्रेम कहानी है 32 बरस पुरानी. पुरानी मतलब बीत नहीं चुकी चल रही है 32 बरसों से.

पूरे दो बरस बाद अपरिमित वापस आने वाला है. हालाँकि जीवन में आये तो उसे 28 बरस हो चुके हैं. पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया गया था दो बरस बाद घर लौट रहा है. उसकी वापसी पर होना तो ख़ुशी का माहौल था लेकिन छाई उलझन, चिंता और बेचैनी है. हालाँकि यह सब तरुण की तरफ से ही है जिसे देख अरुणिमा को गुस्सा आ रहा है कि उसे कुछ बताया भी नहीं जा रहा और मुंह टेढ़ा है अलग. यूँ दोनों बाप बेटे हमेशा दोस्तों की तरह ही रहे हैं लेकिन अब जब आमने-सामने खड़े हैं तो दोस्त नहीं बाप और बेटे ही हैं. घर का माहौल हमेशा लोकतांत्रिक रहा. हमेशा सबके विचारों की इच्छाओं की स्पेस रही. तरुण खुद आज़ाद ख्याल था. कई बार तो वो अरुणिमा से इसलिए लड़ा कि वो अपने अधिकार के लिए चुप क्यों रही. या इसलिए कि इच्छा नहीं थी किसी काम की तो खुलकर मना क्यों नहीं किया. चाहे वो प्रेम के आंतरिक क्षण ही क्यों न हों. तरुण कहता, ‘किसी को बुरा न लग जाए इस ख्याल के साथ ही रिश्तों में समर्पण और त्याग की शुरुआत होती है और धीरे-धीरे ये किसी एक को निगल जाती है. इसीलिए बहुत कम रिश्ते बराबरी की बुनियाद पर खड़े होते हैं. हालाँकि दिखते जरूर हैं अब काफी रिश्ते बराबरी जैसे. यह भी एक ट्रेंड बन गया है फैशन, आधुनिक विचारों का चोला पहनना, लोकतान्त्रिक दिखना. लेकिन दिखने और सचमुच होने में अभी काफी दूरी है.’ अरुणिमा उसकी बात को लापरवाही से सुनते हुए आसमान में कुछ ढूँढने लगती. या खिड़की के बंद शीशे के बाहर हवा में लहराते झूमते पेड़ को देखने लगती. हालाँकि वह जानती थी कि तरुण कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहा है.

इसी तरह के समझ भरे माहौल में परवरिश हुई है अपरिमित की. अरुणिमा और तरुण दोनों अलग-अलग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर. अरुणिमा को इतिहास में दिलचस्पी थी तो वो बच्चों को इतिहास पढ़ाने लगी तरुण को राजनीतिशास्त्र में दिलचस्पी थी तो पढ़ाने लगा राजनीतिशास्त्र.

अपरिमित इन दोनों की संतान जरूर है लेकिन दोनों से अलग. उसकी आदतें अलग, ख्वाहिशें अलग और सपने अलग. उसे महंगे मोबाईल, बाइक की दरकार होने लगी. अरुणिमा ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अब ये घर, घर हुआ. अब यहाँ दुनिया की ख्वाहिशें आयीं, बाज़ार आया...तरुण हंस देता लेकिन वो अपरिमित की हर ख्वाहिश पूरी करने को मना भी करता. तरुण कहता मुझे इस पीढ़ी की यह बात बहुत अच्छी लगती है कि इन बच्चों में जेंडर को लेकर दुराव नहीं है. हमारे ज़माने में तो लड़कों का लड़कियों से बात करना बहुत बड़ी बात होती थी लेकिन ये सब कितने सहज हैं एक दूसरे से. अरुणिमा हंस देती. ‘सच कह रहे हैं यह पीढ़ी खुलेपन में बहुत आगे है लेकिन काश विचारों के खुलेपन में भी होती.’ अरुणिमा का ध्यान देश के हालात से हट नहीं पाता. ‘छात्रों को किस तरह बरगलाया है भगवा राजनीति ने उन्हें उनके ही खिलाफ करने की उनकी साजिश और वे समझ ही नहीं पा रहे.’

‘सब लोभ की राजनीति है. सब समझ पा रहे हैं. वो अपने और अपने परिवारों के भीतर पलती न जाने कितने पुरानी नफरत को साधने निकल पड़े हैं.’ तरुण को तस्वीर के पार देखना आता था.

‘लेकिन दौर कोई भी हो कोई नेता क्यों नहीं मरता?’ अरुणिमा कहती तो तरुण गांधी..सुभाष...नेहरु...लाल बहादुर शास्त्री....इंदिरा...राजीव...भगतसिंह के नाम गिनाकर उसके सवाल का मुंह बंद कर देता. अरुणिमा सोचती कि इन नामों में कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश, रोहित वेमुला और बहुत से नाम भी तो जुड़ने चाहिये. उसे अर्बन नक्सल के नाम पर जेल में ठूंस दिए गए तमाम चेहरे नजर आने लगे. और याद आ गया वो किस्सा जब तरुण की कक्षा में तरुण ने गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज आदि को एक्टिविस्ट कहा था तब कुछ छात्र उन्हें नक्सली कहकर उग्र हो गए थे. ‘वैसे सर, आपको इतना ही प्यार है उन लोगों से तो आपको भी उन्हीं के पास भिजवा देना चाहिए.’ कहते हुए शैलेश की आँखों में जो हिंसा उभरी थी वो अब तक सिहरन पैदा कर देती है. कितनी मुश्किल से उस दिन कक्षा संभली थी. तरुण को किसी तरह बचाकर स्टाफ रूम तक लाये थे कुछ छात्र छात्राएं लेकिन उस पर स्टाफ रूम में हमले शुरू हो गए थे. तमाम प्रोटेस्ट में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के कारण तरुण को यूँ भी साथी प्रोफेसर ज्यादा पसंद नहीं करते थे. अरुणिमा को भी काफी अपरोक्ष टिप्पणियाँ सुननी पड़ती थीं जिनका वह मजबूती से प्रतिवाद करती. लेकिन उस दिन की घटना के बाद से अरुणिमा भी डर गयी थी.

इधर ये दोनों देश के हालात से अपनी तरह से जूझ रहे थे उधर इन दोनों का लाडला देश की राजनीति पर लानतें भेजते हुए चला गया ऑस्ट्रेलिया. अपरिमित मेडिकल की आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया गया था. आर्थोपेडिक में एमएस करने. वहां उसे अनम मिली और अनम से उसकी दोरती बिना ज्यादा वक्त गंवाए लिवइन रिलेशनशिप में बदल गयी थी. यह बात भी अरुणिमा और तरुण से छुपी नहीं थी क्योंकि छुपाई भी नहीं थी अपरिमित ने. अपरिमित के शब्दों में अनम ब्यूटी विद ब्रेन एंड करेज है. बचपन में माँ बाप को खो चुकी अनम को उसकी मौसी ने पाला. कम ही उम्र में अनम पढाई के साथ काम करने लगी. खुद को खुद उठाया और खुद बनाया.

अरुणिमा ने अपरिमित की परवरिश में उसकी टीन एज में हुए पहले ब्रेकअप के वक्त एक ही बात कही थी, ‘जो भी रिश्ते बनाना तब बनाना जब उन्हें संभाल पाने की कूवत हो जाय. उन रिश्तों को जैसे भी जीना, उनमें कितना गहरे उतरना कितना नहीं यह सब तुम खुद तय करना लेकिन याद रहे कभी किसी कंधे की तलाश नहीं करना. यानी अपने दुःख उठाने की ताकत खुद पैदा करना. और ध्यान रखना कि किसी के दुःख की वजह तुम न बनो. एक सत्रह साल के लड़के के लिए जिसका अभी-अभी पहला ब्रेकअप हुआ हो ये सब बातें बहुत अजीब थीं. उसे ज्यादा कुछ समझ तो नहीं आया सिवाय इसके कि मम्मी पापा को उसके अफेयर से कोई प्रॉब्लम नहीं है.

अपरिमित आकर तरुण के पाँव छूने झुका तो तरुण ने उसे हमेशा की तरह लपक कर सीने से लगाने की बजाय रूखा सा ‘खुश रहो’ भर कहा. अरुणिमा ने सीने से लगा लिया अप्पू को पीठ पर हाथ फेरते हुए बिना यह जाने कि गड़बड़ क्या है उसके कान में फुसफुसाकर कहा, ‘सब ठीक हो जाएगा.’ एक अबोला घर में डोलने लगा हालाँकि सब आपस में बात कर रहे थे फिर भी. जब तक कोई बात जो केंद्र में हो उस पर बात नहीं होती सारी बातें फिलर जैसी ही लगती हैं.

अरुणिमा जानती है कि फिलर्स कई बार बहुत कीमती होते हैं. तरुण और अरुणिमा जब शुरूआती दिनों में मिला करते थे, दुनिया भर की बातें किया करते थे सिवाय प्रेम के. राजनीति, समाज, धर्म, खबरें जाने क्या क्या. और घंटों बातें करने के बाद भी प्यासे ही लौट जाते थे. एक रोज अरुणिमा ने ही खिसियाकर कहा, ‘मुझे नहीं करनी ये सब बातें’ और वो रुआंसी हो आई थी. तरुण समझ तो गया था लेकिन अनजान बनते हुए बोला, ‘तो तुम बताओ कौन सी बात करनी है...’ अरुणिमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें तरुण की आँखों में धंसा दीं. ‘तुम्हें नहीं पता?’ वो बोली. तरुण ने ढीठ बनते हुए मुस्कुराकर कहा, ‘नहीं’. अरुणिमा गुस्सा होकर चल दी, ‘तो ठीक है फिर मैं जा रही हूँ.’ तरुण ने उसे रोक लिया था, रुको एक कविता सुनाता हूँ उसके बाद जाना..’

क्या जीवन की इस ऊबड़-खाबड़ डगर पर
घनी धूप में मेरे साथ चलोगी
क्या तुम धारधार बारिश में
जीवन भर मेरे साथ भीगोगी
क्या तुम सर्द रातों में
जीवन के अलाव की आंच बढ़ाने को
अपने साँसों का ईंधन खर्च करोगी
मैं तुम्हारे जूड़े में अमलतास लगाना चाहता हूँ
तुम पर हरसिंगार बरसाना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ गुलमोहर का एक पौधा रोपना चाहता हूँ
जो तब भी खिले जब हम न रहे...
बोलो क्या तुम मेरे साथ वो पौधा लगाओगी?


वो कविता नहीं थी अरुणिमा की जिन्दगी थी. उसकी आँखें डबडबा आई थीं. उस कविता का असर यह हुआ कि गुलमोहर का पौधा घर के बाहर खिलखिला रहा है और अपरिमित प्यार जीवन में लहक रहा है.

लेकिन अभी अरुणिमा को यह जानना था कि साहबजादे ने ऐसा क्या कर दिया कि तरुण इस कदर गुस्से में है. ‘तुम्हें पता है अनम प्रेग्नेंट है ?’ गुस्से में उफनते हुए तरुण ने कहा. 28 साल का मैच्योर लड़का ऐसी फूहड़ गलती कैसे कर सकता है’ तरुण ने दांत भींचते हुए कहा.

अरुणिमा को अब जाकर मामला समझ में आया.
उधर अपरिमित सोच रहा था कि कैसे बताये पापा को कि प्रिकाशन लिया था उसने, फेल हो गया. साले कंडोम कम्पनी वालों पर केस करना चाहिए. इनके चक्कर में न जाने कितनी फटे हुए कंडोम की औलादें जन्म ले रही हैं.

‘ह्म्म्म तो यह बात है, अब इस समस्या का समाधान एक ही हो सकता है शादी.’ अरुणिमा ने अपनी ख़ुशी को जज्ब करते हुए कहा. हालाँकि अरुणिमा को शादी को हल के रूप में देखना खुद भी अजीब लग रहा था. शादी न भी हो तो भी क्या लिव इन लीगल है भाई. बस क्लियर हो जाओ और रहो साथ. लेकिन रहना साथ. यह जरूरी है. लिव इन को लाइटली लेकर निकल मत लेना बीच से.

अनम बच्चा अबौर्ट करने को राजी नहीं है. अपरिमित ने कहा.
‘हाँ तो क्यों अबौर्ट करना है?’ अरुणिमा को इस बात का कोई तुक ही समझ में नहीं आया.
‘यानी वो तुम पर शादी का दबाव बना रही है? क्यों? समाज के डर से ही न? वो सिर्फ तुम्हें धमका रही है. ब्लैकमेल कर रही है.’ तरुण ने अपना तमाम अनुभव विश्लेष्ण में पिरो दिया.
‘नहीं पापा, अनम शादी की बात इसलिये नहीं कह रही है कि सोसायटी से डरती है वो. वो बहुत हिम्मती है. वो शादी करना चाहती है क्योंकि वो मुझसे सच में प्यार करती है, और मुझसे ज्यादा तो उसे मेरा फैमली पसंद है. खासकर मम्मा. शी वांट्स अ फैमली’ कहते हुए अपरिमित के भीतर की तरलता उसकी आवाज में घुल गयी.
अरुणिमा इतनी खुश हुई यह सुनकर, ‘अनम मुझे बहुत पसंद है अगर वह बहू बनती है तो इससे अच्छा क्या होगा भला.’ उसने कहा.
तरुण ने गुस्से में कहा,’ तुम बिना कुछ जाने रिश्ते मत बनाने लगो.’
‘तो बताओ मुझे कि असल समस्या क्या है?’

‘अप्पू को आये चार दिन हो गए आप लोग कोई बात ही नहीं कर रहे. सस्पेंस खत्म करो और बताओ मुझे कि क्या चल रहा है तुम दोनों के दिमाग में जो मैं नहीं जानती.’ अरुणिमा ने चाय टेबल पर रखते हुए कहा. बाहर गुलमोहर अपनी रंगत पर इतरा रहा था. भीतर तनाव पसरा हुआ था.
‘क्या बताऊँ? ऐसा फंसा दिया है साहबजादे ने?’ तरुण ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखा और चाय उठाई.
‘पापा मैं भी तो फंस गया हूँ मैं क्या करूँ. हो गयी गलती.’
‘तो मैं बता रही हूँ, अप्पू और अनम की शादी करा दो बस बात खत्म’ मैं दादी बनने वाली हूँ इस बात की कोई ख़ुशी भी नहीं मनाने दे रहा.’ अरुणिमा ने हंसते हुए माहौल को सहज करते हुए कहा.
‘यार वो लड़की मुसलमान है, पाकिस्तान से है कैसे होगी शादी?’ तरुण ने शब्दों को चबा चबाकर कहा. अरुणिमा को झटका लगा तरुण के मुंह से यह सुनकर. हालाँकि अनम मुसलमान है पाकिस्तानी है यह बात नहीं पता थी अरुणिमा को लेकिन तरुण ‘इस बात’ से परेशान है इस बात का झटका लगा अरुणिमा को.
‘क्या? इस बात से परेशान हो तुम? तुम तरुण?’ अरुणिमा ने बेहद हैरत से कहा. उसे लगा वो इस तरुण को जानती ही नहीं है. तरुण ने अपनी निगाहें खिड़की के बाहर टिका दीं.
‘तुम जरूर मजाक कर रहे हो यह वजह नहीं हो सकती तुम्हारी चिंता की. सच बात बताओ.’ अरुणिमा की नायकीनी बढ़ती ही जा रही थी.
‘मैं कोई मजाक नहीं कर रहा.’ तरुण ने खिड़की के बाहर नजर टिकाये हुए ही कहा.
‘तुम तो हमेशा ऐसी बातों की खिलाफत करते रहे. सारी जिन्दगी प्रोटेस्ट किया, हिन्दू मुस्लिम एकता की बातें की. हिंदुस्तान पाकिस्तान के बीच दोस्ताना संबंधों की बात करते रहे, छात्रों को एकता के पाठ पढ़ाते रहे. आज जब घर में प्यारी सी बहू और पोता या पोती आने को है तुम यह कह रहे हो? यह बात?‘ अरुणिमा ‘यह बात’ पर केन्द्रित थी. यह ‘यह बात’ यूँ तो कॉमन है समाज में खासकर इन हालात में लेकिन तरुण ऐसी बात कहेगा यह अरुणिमा के लिए आश्चर्यजनक और असहनीय हो रहा था.

‘एक तो तुम पहले ये बहू और पोता पोती की बात करना बंद करो मम्मी.’ यह अपरिमित का स्वर था. एकदम चिढ़ा हुआ. अब अरुणिमा हैरत से बेटे को देख रही थी.

‘पापा, मुझे धोखा दिया है उस लड़की ने. मैं आपसे कह रहा हूँ आप सुनते क्यों नहीं मेरी बात?’
अरुणिमा को लग रहा था वो अजनबी लोगों के बीच है.

‘धोखा दिया है?’ ये क्या बात कर रहे हो? क्या हुआ है बताओगे मुझे भी. मैं भी रहती हूँ न इसी घर में. कोई मुझे कुछ बतायेगा.’ अरुणिमा लगभग चीख पड़ी थी.
‘मम्मा उसने मुझे बताया ही नहीं कि वो मुसलमान है. लिव इन में आने के साल भर बाद मुझे पता चला जब उसकी मासी आईं उससे मिलने. उसे देखकर कोई कह ही नहीं सकता वो मुसलमान है.’
‘क्या....क्या बात कर रहा है ये लड़का. कोई बताता है क्या कि वो मुसलमान है? क्या कोई लड़की किसी लड़के से मिलने से पहले मैं मुसलमान हूँ का टैग लगाकर जायेगी. उसे देखकर लगता नहीं का क्या मतलब है. पता चला का क्या मतलब है और अगर है तो फर्क क्या पड़ता है.’ अरुणिमा बौखला गयी थी एकदम. तरुण की बात अप्प्पू की बात. एक पति है, दूसरा बेटा है.
जिन्दगी भर सेकुलर दिखने वाला पति कह रहा है वो मुसलमान है, पाकिस्तान से है कैसे होगी शादी?’ और मुक्त लोकतान्त्रिक परिवेश में पले बढ़े साहबजादे कह रहे हैं, ‘उसने मुझे धोखा दिया यह न बताकर कि वो मुसलमान है.’
‘फर्क पड़ता है...’ अप्पू और तरुण दोनों ही एक साथ बोले.
‘तुम उसे बोल दो कि तुम्हारे पैरेंट्स नहीं मान रहे?’ तरुण ने अप्पू को समझाते हुए कहा.
‘पापा आप समझ नहीं रहे हैं. मैं खुद उससे शादी नहीं करना चाहता. मैं एक पाकिस्तानी से शादी कैसे कर सकता हूँ. लिबरल होने का यह अर्थ तो नहीं कि मैं मुसलमान बच्चे पैदा करूँ’. अपरिमित ने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया.
‘अरे वाह, फिर तो मामला क्लियर है’ तरुण के चेहरे पर ख़ुशी के भाव आ गए.
‘नहीं है क्लियर मामला क्योंकि वो अबार्शन के लिए राजी नहीं है.’ अप्पू ने कहा. और अगर उसने बच्चे को जन्म दिया जो वो देगी ही क्योंकि वो बहुत जिद्दी है और खुद मुख़्तार भी तो जीवन भर दिल में फांस रहेगी कि मेरा एक बच्चा है जिसकी माँ मुसलमान है. लिव इन से हुए बच्चे भी लीगल राईट रखते हैं न अब तो.’
अपरिमित बोले जा रहा था. अरुणिमा को चक्कर से आने लगे थे. उफ्फफ कितना कुछ सोच चुका है वो. इतनी घृणा उससे जिससे प्रेम किया जिसकी कोख में इसका बच्चा है? और घृणा का कारण देश और धर्म. तरुण जो हमेशा कहता था ‘बच्चे हिन्दू मुसलमान पैदा नहीं होते’ वो इस बात पर इतना खुश कि अप्पू शादी नहीं करना चाहता उससे.
‘मैं तो यह सोचकर आया था कि मम्मा शायद अनम से बात करें तो वो मान जाए. मम्मा को बहुत पसंद करती है वो. उन्हें बहुत एप्रीशिएट भी करती है...’ अप्पू ने रुक रुक कर कहा.
‘क्या?’ अरुणिमा के चौंकने का सिलसिला लगातार चले ही जा रहा था. शाम अब रात का रूप धरकर घर के भीतर घुस आई थी. अरुणिमा को लगा घर के भीतर ही नहीं जीवन के भीतर भी घुस आई है रात.
‘मुझे लगा था मुझे तेरे पापा को मनाना है तेरी शादी के लिए लेकिन मुझे तो अनम को मनाना है एबार्शन के लिए..?’ अरुणिमा लगभग रो पड़ी थी कहते-कहते.
‘तो इसमें प्रॉब्लम क्या है. कुछ बातें प्रैक्टिकल होकर सोचनी ही पड़ती हैं.’ तरुण ने अरुणिमा की ओर देखते हुए कहा.
अरुणिमा को अनम का चहकता हुआ चेहरा याद आने लगा. ‘प्रॉब्लम’ कहाँ है समझ ही तो नहीं पायी मैं तरुण’. कोई दुःख चीरता हुए नसों में उतर गया अरुणिमा के.
‘धोखा अनम ने तुम्हें नहीं दिया बेटा धोखा तो मुझे मिला है.’ अरुणिमा ने कहा तो तरुण ने मानो सुना ही नहीं.
टेबल पर रखा अपरिमित का फोन बज उठा. अनम का फोन था. अरुणिमा ने कहा ‘उठा ले अप्पू तू चाहता था न मैं उससे बात करूँ ला मैं करती हूँ बात.’ अरुणिमा के यह कहते ही तरुण और अपरिमित दोनों के चेहरे पर राहत सी आ गयी. अप्पू ने फोन उठाकर अरुणिमा को दे दिया,
‘हैलो आंटी..’ अनम ने बोला तो सुनते ही अरुणिमा की आँखें छलछला आयीं. वो भीगी हुई आँखों से अनम को देखती रही. स्त्री जब गर्भ से होती है तो एक अलग ही आभा दिपदिपाती है उसके चेहरे पर. वही आभा थी अनम के चेहरे पर जिसमें अपरिमित की बोई अवसाद की लकीरें भी शामिल थीं.
‘अनम, कैसी हो तुम? अपना ख्याल तो रख रही हो न?’
‘जी आंटी. आप कैसी हैं?’ अरुणिमा सोचने लगी कि वो कैसी है और गीली सी हंसी चेहरे पर बिखेर कर उसने कहा’ अच्छी हूँ. बहुत अच्छी हूँ.’ उधर तरुण और अपरिमित इस प्रेमिल वार्तालाप को ध्यान से सुन रहे थे कि उन्हें इस वार्तालाप में से आती उम्मीद की धुन सुनाई दे रही थी.
‘अनम, तुम अपना और बच्चे का ख्याल रखना. चिंता एकदम न करना.’ ‘अनम का चेहरा खिल उठा उसे लगा उसकी शादी फैमिली से और अपरिमित से अप्रूव हो गयी है हालाँकि वो क्यों इस अप्रूवल का इंतजार कर रही थी उसे भी पता नहीं. वो अपरिमित से अक्सर कहा करती थी ‘मैंने अपनी माँ को नहीं देखा लेकिन आंटी को देखकर मुझे लगता है काश वो मेरी माँ होतीं.’ जब वो यह कहा करती थी तब शादी और प्रेगनेंसी की बात दूर-दूर तक नहीं थी.
‘मैं जानती थी आंटी अपरिमित को आप जरूर समझा सकेंगी. वो मान गया न?’ अरुणिमा ने मोबाईल के स्क्रीन से नजर उठाकर अपरिमित के सपाट चेहरे की ओर देखा. ‘सॉरी अनम, मैं किसी को कुछ नहीं समझा सकी. खुद ही समझ गयी हूँ कुछ बातें.’ यह कहते हुए अरुणिमा ने बारी-बारी से तरुण और अप्पू को उदास गुस्से के साथ देखा.
अनम की आँखें डबडबा आई थीं. अरुणिमा की आँखों में भी कोई धार फूट पड़ने को थी. और ये बरसने को व्याकुल आंसू कमजोरी की निशानी हरगिज़ नहीं थे.
‘अनम मेरा एक काम करोगी प्लीज़?’ अरुणिमा ने मानो मन ही मन कोई फैसला कर लिया हो.
‘जी आंटी बताइए न’ अनम के कहने में अपनापन छलक रहा था.
‘मेरा एक एयर टिकट करा दो अपने पास आने का. मैं जल्दी से तुम्हें गले लगाना चाहती हूँ.’ यह कहते हुए रुकी हुई धार अरुणिमा की आँखों से बह चली.
‘हाँ, जरूर’ कहते ही अनम का दुःख का रोना सुख के रोने में बदलकर मोबाईल स्क्रीन पर मोतियों की तरह बिखरने लगा.
तरुण और अपरिमित किसी पराजित सैनिक की तरह सर झुकाए बैठे थे.

Thursday, January 20, 2022

कौन जात हो भाई?



दलित पीड़ा और विक्षोभ को स्वर देने वाली कविता किस तरह दबाई जाती है, प्रियदर्शन जी की एक टिप्पणी जो  ndtv.in पर प्रकाशित हुई है. 

इसलिए ज़रूरी है इस कविता पर पाबंदी!
 
कौन जात हो भाई?
“दलित हैं साब!”
नहीं मतलब किसमें आते हो? /
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
 
जब कोई जान जाता है कि वह हमारी गाली, नाली और अलग की हुई थाली में आता है और इसे बड़ी सहजता से कह देता है तो क्या होता है? हमारे भीतर हमारी सोई हुई शर्म कुछ देर के लिए जाग जाती है। अपने-आप से आंख मिलाते हुए कुछ देर के लिए असुविधा होती है। एक दलित पीड़ा जैसे सवर्ण अहंकार या विनम्रता दोनों से अपना हिसाब मांगने लगती है, दोनों को कठघरे में खड़ा कर डालती है। लेकिन जिन पंक्तियों से यह टिप्पणी शुरू हुई है, उनका इस चुनावी दौर में एक राजनीतिक आशय भी निकल आता है- कि हिंदू हितों की बात करने वाले लोग दलितों को तभी हिंदू मानते हैं जब चुनाव आते हैं।
 
यहीं से यह सच ख़तरनाक हो उठता है। इस पर कुछ लोगों को पाबंदी ज़रूरी लगती है। इस कविता को रोकने का काम शुरू हो जाता है। दरअसल इस कविता का उल्लेख करने की ज़रूरत इसलिए है कि इसे इंस्टाग्राम पेज पर डाला गया था और फिर आधे घंटे के भीतर इसे हटा लिया गया। किसी ने इसकी शिकायत कर डाली। यह जानकारी देते हुए हमारे प्रबुद्ध मित्र महेश मिश्र ने यह पूरी कविता भेजी।

ये पंक्तियां एक नामालूम से युवा दलित कवि बच्चा लाल 'उन्मेष' की हैं। पूरी कविता का नाम है 'छिछले प्रश्न गहरे उत्तर'। बच्चा लाल 'उन्मेष' इतने नामालूम हैं कि पहले यह जानने की ज़रूरत महसूस हुई कि यह कवि है कौन। इसके लिए मैंने बाक़ायदा अनिता भारती और रजनी अनुरागी जैसी सुख्यात लेखिकाओं से संपर्क किया।
कविता निस्संदेह हमें छीलती है। समाज में जिस अमानवाीय अन्याय का हम सदियों से पोषण कर रहे हैं, उसे यह कविता बिल्कुल सामने ला देती है। कविता की अगली पंक्तियां हैं-

क्या खाते हो भाई?
“जो एक दलित खाता है साब!”
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूँ
कर्ज़ का भार खाता हूँ
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब!
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।

यह सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है। कविता शब्दों का खेल होती भी नहीं। इसमें सदियों की हूक है, उपेक्षा का अनुभव है, शोषण की स्मृति है और कमाल यह है कि यह सब कुछ इस तरह कहा गया है जैसे कवि इस पूरी पीड़ा से निकल कर एक आईना खोज लाया है जिसमें हमारी सभ्यता का बेडौल-विरूप चेहरा दिखाई पड़ रहा है। यह वर्चस्ववाद के ख़िलाफ़ एक कार्रवाई है और इस लिहाज से जुर्म है। इसे निषिद्ध किया जाना है। यह लोकतंत्र के उस चुनावी खेल पर भी चोट करती है जिसमें दमन के सामाजिक यथार्थ पर प्रलोभन का राजनीतिक लेप चढ़ाया जाता है। कविता आगे कहती है-

क्या पीते हो भाई?
“जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आँखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।

असल पेच यहां खुलता है। नंगी आंखें अब भरम देखने में सक्षम हैं। होने-खाने-पीने के बेहद मामूली लगते सवालों के ये गैरमामूली लगते जवाब फिर से हमारा और हमारी तथाकथित सभ्यता का मज़ाक उड़ाते हैं- हमारे राजनीतिक पाखंड का भी। कविता चुनाव पर भी चोट करती है। फिर इस पर रोक तो लगेगी ही। अब आगे देखिए- कविता के 

अगले सवाल-जवाब-
क्या मिला है भाई
“जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।

यहां से हमला तीखा होता जाता है। उनकी जिल्लत भरी ज़िंदगी में हमारे हिस्से की गंदगी भी शामिल है और हमारी परजीविता भी। चाहें तो आप इसे एक समाजशास्त्रीय सच्चाई की तरह पढ़ सकते हैं। याद कर सकते हैं कि इस देश के जो सबसे ज़रूरी काम हैं- बिल्कुल बुनियादी स्तर के- हर तरह की साफ-सफ़ाई के- वे अब तक उनके भरोसे चल रहे हैं। और उनके सामने ये हक़ीक़त खुली हुई है। कविता का अंतिम हिस्सा इसी काम पर है-

क्या किया है भाई?
“जो दलित करता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार..।

फिर पूछने की इच्छा होती है कि क्या इस कविता पर पाबंदी लगनी चाहिए? और यह जानने की ज़रूरत महसूस होती है कि इस कविता की शिकायत किन लोगों ने की होगी? क्या सोशल मीडिया की भी कथित लोकतांत्रिकता पर उन्हीं वर्चस्ववादी ताक़तों ने क़ब्ज़ा कर लिया है जिनकी ठकुरसुहाती को कभी हर शाम सलाम चाहिए होता था?
यह वह राजनीतिक समय है जब हर कोई अंबेडकर का नाम लेता है- वे भाजपाई भी जिन्हें पता नहीं है कि अंबेडकर ने हिंदुओं को बहुत सख़्ती से बीमार समुदाय की संज्ञा दी थी और कहा था कि उनकी बीमारी देश के दूसरे समुदायों की भी सेहत और खुशहाली पर असर डाल रही है। यह वह सामाजिक समय है जो सदियों के पाखंड को अब भी ढोता है। इस समय में अपनी राजनीतिक मजबूरियों का मारा कोई रविकिशन दलितों के घर खाना खाने जाता है और बाद में उनके पसीने को याद कर भन्नाता है। इसका भी वीडियो इन्हीं दिनों वायरल है।
बच्चालाल 'उन्मेष' की कविता पर पाबंदी ज़रूरी है। यह हमारे शिष्ट आस्वाद पर चोट करती है। यह उस लोकतांत्रिक सहमति को ख़ारिज करती है जिसके नाम पर पिछड़ों और दलितों की राजनीति की जाती है। और सबसे ख़तरनाक बात- यह दलितों को याद दिलाती है कि उन्होंने क्या-क्या झेला है और किनके हाथों झेला है। जिस समय इस देश की अदालत सुझाव देती है कि दलित शब्द का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए, उस समय यह दलित संज्ञा एक चुनौती की तरह हमारे सामने आती है। सोशल मीडिया ऐसी चुनौतियों से निबटने का तरीक़ा जानता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पाबंदियां रचनाओं को अतिरिक्त शोहरत दे देती हैं, कि सच्चाइयां फिर भी बाहर निकलने का रास्ता तलाश लेती हैं।

Sunday, January 16, 2022

नागरिक समाज- बसंत त्रिपाठी का कविता संग्रह



इस इतवार की तैयारी कल शाम ही हो गयी थी. तीन नयी किताबें सिरहाने रखकर सोई जो थी. इन्हें पढ़ने का मोह इस कदर था कि सुबह नींद जल्दी खुल गयी. पहली चाय के साथ अख़बार को पांच मिनट में उलट-पुलट कर रखकर सैर पर चली गयी. लेकिन कुछ था घर में जो पुकार रहा था. सैर से लौटते ही एक चाय और चढ़ाई और ‘नागरिक समाज’ उठा ली. सच कहती हूँ, अरसे बाद लगा कि कुछ मन का पढ़ा है. कुछ ऐसा जो मुझे झकझोर रहा है. कविताओं के सैलाब से गुजरते हुए शायद खो गया था ये स्वाद. मित्र कवि बसंत त्रिपाठी का यह संग्रह ज़ेहन की भूख मिटाता भी है और बढ़ाता भी है. ये कवितायें आईना हैं देश का, समाज का और हमारा. मुझे मालूम नहीं कि जैसा मैं महसूस कर रही हूँ उसे कैसे लिखूं, शायद नहीं लिख पाऊंगी, अभी सीखना बाकी है जस का तस अभिव्यक्त कर पाना.

इन कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कवि होना कितनी पीड़ा, कितनी बेचैनी में होना है. और यह पीड़ा यह बेचैनी उस समय और समाज को लेकर है जिससे असल में निज की निर्मिति होती है. बिना सतर्क नज़र और साफ़ नज़रिये के आप कुछ भी हो सकते हैं कवि नहीं. इन कविताओं को पढ़ते हुए अपने उस निज की पड़ताल होती है जो सुविधाभोगी घेरे में मतलब भर की वैचारिकी (जिसमें जोखिम न हो) के साथ बहस, आन्दोलन कर लेता है. ये कवितायेँ आपका हाथ पकड़कर समाज के उन स्याह कोनों, वहां के लोगों के जीवन तक ले जाती हैं जिनकी बात किये बगैर नहीं है अर्थ किसी बात का. ये कवितायेँ बार-बार पढ़े जाने वाली कवितायेँ हैं. सेतु प्रकाशन से प्रकाशित यह कविता संग्रह बसंत त्रिपाठी का चौथा कविता संग्रह है.

इन्हें पढ़ते हुए आपको सुख नहीं होगा, बल्कि आपके कम्फर्ट में खलल पड़ेगा फिर भी मैं कहूँगी कि इन कविताओं को पढ़ा जाना जरूरी है. इसी संग्रह की अलग-अलग कविताओं से कुछ पंक्तियाँ-

केवल विकास दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं
अपहरण बलात्कार और आत्महत्याओं के तरीकों से भी
यह सदी दर्ज हो रही है इतिहास में
इतिहास के अंत के भाष्यकारों से नहीं
इतिहास में शामिल होने
और उसे बदल डालने की इच्छा से भी
आप जान सकते हैं इस सदी को....

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लड़ना तो दूर
कहीं जगह ही नहीं थी मेरी
क्यों न खुद को खत्म कर लूं
बस इस ख्याल का आना था
कि यमदूतों ने अपने भालों की नोक चुभोयी-
‘तुम्हारा समय अभी नहीं आया है मि बसंत
तुम्हें इस देश में अपने हिस्से की जिल्लत
पूरी-पूरी झेलनी है.’

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बोलना जरूरी है
कभी-कभी चीखना और झुंझलाना भी
लेकिन सिर्फ बोलने और चीखने और झुंझलाने से
ईमानदार नहीं हो जाता हर कोई
ढोल संगत देने के लिये ही नहीं
अपनी पोल छुपाने के लिए भी
बजता है कई बार
ढडंग... ढडंग...

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देशभक्त आजकल देश से गिरकर
भक्त पर अटके हुए हैं
और बाबाओं की तो अब रहने दें
वे जब तब धर्म की गंधाती व्यापारिक नाली में
गिरते ही रहते हैं
अब तो क्रांतिकारिता भी फेसबुक पर लाइक की आस में
हर सुबह गिर पड़ती है
गिरने का कारोबार उठान पर है अब
जो जितना गिरता है
उसकी आभा उतनी ही निखरती है.

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मुख्यमंत्री के चरित्र के गिरने का ग्राफ
प्रधानमंत्री जैसा नहीं होता
न उनके सचिव एक जैसे गिरते हैं
और मंत्रियों का तो कहना ही क्या
उनका चेहरा क़दमों पर इतना गिरा होता
कि मंत्रित्व काल में
कभी ठीक से दिखाई नहीं पड़ता पूरा...

Friday, January 14, 2022

कहानी- छुट्टी


- प्रतिभा कटियार
‘मम्मा, आज ऑफिस न जाओ. प्लीज़ मम्मा.’ बिस्तर में कुनमुनाते हुए विशु ने मंदिरा का हाथ पकड़ लिया. तेज़ी से घर के काम निपटाती मंदिरा एक पल को भरभरा के गिरने हुई जैसे. यार अब ये लास्ट मूमेंट इमोशनल क्राईसिस कैसे मैनेज करेगी वो. अभी और भी काम पड़े हैं घर के. विशु के लिए फ्रूट्स काटकर रखने हैं, अपना नाश्ता पैक करना है और हाँ बाल भी बनाने हैं अभी तो. उसने मन ही मन सोचा बालों को लपेटकर जूड़ा बना लेगी फिर ऑफिस के वाशरूम में ठीक से बना लेगी. नाश्ता भी चलो पैक कर लेगी टी ब्रेक में खा लेगी लेकिन अब विशु का वो क्या करे. अपनी तमाम अधीरता को समेटते हुए, ढेर सारा लाड़ आवाज़ में घोलते हुए उसने विशु के माथे को चूमना चाहा तो उसे उसका माथा तपता हुआ लगा. छूकर देखा तो उसे बुखार था.

मंदिरा वहीँ बैठ गयी. सब कुछ संभालने की जद्दोजहद ऐसे मौकों पर एकदम से ढह जाती है. ऑफिस की मीटिंग, उसका प्रेजेंटेशन सब फ्रीज़ हो गया एकदम से. नौ बरस के बच्चे को बुखार में छोड़कर कैसे जा सकती है वो. लेकिन एन वक्त पर ऑफिस से छुट्टी भी कैसे ले सकती है. दोनों ‘कैसे’ के बीच घड़ी की सुई मुंह चिढ़ाते हुए टिक टिक कर रही थी.

महेश को फोन मिलाया हालाँकि वो जानती है कि उसे फोन मिलाने से कोई फायदा नहीं होगा फिर भी उसने महेश का नम्बर डायल कर दिया. पहली कॉल महेश ने उठायी नहीं, दूसरी कॉल पर वो झल्ला पड़ा ‘यार सुबह से ही तुम क्यों परेशान करने लगती हो अभी ऑफिस पहुंचा हूँ, काम शुरू हुआ है. बाद में कॉल करना.’ कहकर महेश ने फोन काट दिया.

मंदिरा को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन अभी गुस्से का समय नहीं था क्राइसिस मैनेजमेंट का समय था. उसने फिर से फोन मिलाया, ‘विशु को बुखार है महेश उसे बुखार में मेड के सहारे छोड़कर नहीं जा सकती. तुम आज छुट्टी ले लो प्लीज़’ इस बार मंदिरा ने महेश को बोलने का कोई भी मौका दिए बिना अपनी बात कह दी.

‘अरे तो तुम छुट्टी ले लो न, मुझे क्यों कह रही हो’ महेश अब भी उसी चिढ़ी हुई आवाज़ में बात कर रहा था. ‘अगर ले सकती तो तुम्हें फोन नहीं करती. नहीं ले सकती छुट्टी मैं आज. मीटिंग है ऑफिस में. मेरा प्रेजेंटेशन है.’

‘तुम कहना क्या चाहती हो, तुम्हारी मीटिंग, तुम्हारा ऑफिस इम्पोर्टेंट है और मेरा नहीं.’ महेश की आवाज़ की तेजी और रूखापन बढ़ता जा रहा था.

‘मैंने ऐसा नहीं कहा, आज मेरे ऑफिस में ऐसी स्थिति नहीं है कि मैं छुट्टी ले सकूं. मेरा होना जरूरी है वहां. हमेशा तो लेती ही हूँ.’ मंदिरा ने घर के बचे हुए कामों को तेज़ी से समेटते हुए कहा.

‘ओह हमेशा तुम छुट्टी लेती हो? यानी तुम ही सब करती हो. मैं कुछ नहीं करता? यार तुमको न ये हीरोइन बनने का कुछ ज्यादा ही शौक नहीं है. देखो मैं छुट्टी नहीं ले सकता. तुम मैनेज करो. और अब फोन मत करना.’ महेश ने फोन काट दिया लेकिन मंदिरा के पास महेश की बातों का बुरा मानने का वक्त ही नहीं था. उसने ऑफिस के ग्रुप में मैसेज किया कि बच्चे की तबियत ठीक नहीं थोड़ी देर से पहुंचेगी.

मुखर्जी आंटी को फोन लगाया, ‘आंटी आज मैं विशु को आपके यहाँ छोड़ सकती हूँ क्या? असल में उसे थोड़ा बुखार है और मैं छुट्टी नहीं ले सकती आज.’

मुखर्जी आंटी पापा के ऑफिस में काम करती थीं. अब रिटायर हो गयी हैं और अकेली रहती हैं. इस तरह के हालात में पहले भी कई बार वो काम आ चुकी हैं. मुखर्जी आंटी को उस रोज कहीं जाना था लेकिन उन्होंने मंदिरा की इमरजेंसी को देखते हुए अपना जाना स्थगित किया.

मंदिरा ने विशु को जल्दी से कपड़े बदलवाए, सामान के साथ विशु और मीना को गाड़ी में बिठाया और मुखर्जी आंटी के घर की ओर चल पड़ी. विशु को मुखर्जी आंटी के घर जाना पसंद नहीं है जानती है मंदिरा लेकिन अभी उसके पास कोई दूसरा ऑप्शन नहीं था. उधर विशु लगातार रोये जा रहा था, शिकायत किये जा रहा था, ‘मम्मा आप बहुत गंदी हो. मैंने आपको बोला आप घर पर ही रुक जाओ और आप मुझे ही घर से बाहर लेकर जा रहे हो. मैं आपसे कभी बात नहीं करूंगा.’

मंदिरा के पास विशु की बात का बुरा मानने या उसे समझाने का न समय था, न ताकत.

मुखर्जी आंटी गेट पर ही मिल गयीं. सामान की तरह मंदिरा ने विशु का हाथ मुखर्जी आंटी के हाथ में थमाया और मीना से बोला आंटी को परेशान न करना. ध्यान रखना बेबी का. विशु आंटी को तंग नहीं करना. कहकर मंदिरा ने गाड़ी मोड़ी ऑफिस की तरफ.

पूरे एक घंटे देर से पहुंची वो ऑफिस. सबकी नजरों में उसे एक अजीब सा तंज़ दिखा जिसे उसने इग्नोर किया. ‘क्या हुआ विशु को’ भावना ने फुसफुसा कर पूछा. ‘बुखार है’ मंदिरा ने भी फुसफुसा कर ही जवाब दिया और प्रेजेंटेशन के लिए लैपटॉप खोलने लगी.

व्यस्तताओं के तूफ़ान में घिरी मंदिरा को पहली फुर्सत तब मिली जब उसे वाशरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. वाशरूम में पहुँचते ही उसे जोर से रोना आया. आईने में उसने अपनी शक्ल देखी तो याद आया कि उसने तो ठीक से बाल भी नहीं बनाये थे जूड़ा कसा था कि ऑफिस में ठीक से बनाएगी. तभी पेट में ऐंठन महसूस हुई. उसे ध्यान आया कि उसने ब्रेकफास्ट भी नहीं किया है. फोन देखा तो विशु के ढेर सारे कॉल पड़े थे. मुखर्जी आंटी के कॉल भी थे. उसने मुखर्जी आंटी को उसने फोन किया तो उन्होंने गुस्से में कहा, ‘बहुत लापरवाह हो मंदिरा तुम. तुमने विशु को खाली पेट ही दवा खिला दी थी. उसे उल्टियाँ हो रही हैं. कितना रो रहा है वो. और तुम फोन भी नहीं उठा रही.’ उन्होंने गुस्से में फोन काट दिया.

मंदिरा को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे संभाले सब कुछ. काश महेश छुट्टी ले लेता आज सोचते हुए उसे रोना आ गया. जब वो बच्चा प्लान कर रहे थे तो महेश हमेशा यही कहता था, ‘तुम चिंता मत करो एकदम. मैं पालूंगा बच्चे को. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. देखना कैसे सब सम्भाल लूँगा.’

मीटिंग का लंच ब्रेक होने को था उसने सोचा बोल देगी बॉस को कि बेटा बीमार है आज हाफ डे लेगी वो. हाफ डे का सोचते ही उसे जैसे सांस आई. सांस आते ही विशु के चेहरा घूम गया आँखों के सामने, ‘मम्मा आज ऑफिस मत जाओ’ की उसकी गुहार कानों में तैर गयी. उसकी गिल्ट गहरी होने लगी.

‘सर, मैं लंच के बाद मीटिंग में नहीं रह पाऊंगी. बेटे की तबियत ठीक नहीं जाना होगा मुझे.’ मंदिरा ने अश्विनी को बोला तो अश्विनी की त्योरियां चढ़ गयीं. ‘मंदिरा ऐसे कैसे चलेगा. तुम्हारे प्रेजेंटेशन पर बात होगी लंच के बाद और तुम ही नहीं होगी. बी प्रोफेशनल.’ अश्विनी का स्वर एकदम सख्त था.

सर, जाना पड़ेगा.’ मंदिरा ने दो टूक कहा और निकल गयी. रास्ते से ही उसने मुखर्जी आंटी को फोन किया तो उन्होंने बताया कि उलटी होने के बाद थोड़ा हल्का महसूस कर रहा है विशु. अभी नाश्ता कराकर सुला दिया है उसे. मंदिरा सोचने लगी, जब विशु ने कहा, मम्मा आज ऑफिस मत जाओ तो उसके पास महसूस करने का वक़्त भी नहीं था. बुखार के कारण उपजी चिंताओं पर ध्यान ज्यादा था बुखार पर सबसे कम. कैसी हो गयी है वो. विशु करवट भी बदलता था तो भागकर पहुँचती थी वो उसके पास. क्या उसे नौकरी छोड़ देनी चाहिए? क्या वो एक करियर वुमन हो गयी है और लापरवाह माँ? उसके भीतर अपराधबोध बढ़ता जा रहा था तभी फोन घनघनाया. मीनल का फोन था.

‘यार, सिंगल पैरेंटिंग बहुत मुश्किल काम है. आज रिया के स्कूल में एक्सिबिशन थी और मैं वहां जा ही नहीं पायी. बड़ा बुरा लग रहा है.’ मीनल ने छूटते ही कहा. मंदिरा ने कहना चाहा कि सिंगल पैरेंटिंग से भी बुरे हालात हैं उसके. सिंगल हो तो कम से कम पता होता है कि सब आपको ही करना है कोई आपको तानों की बौछार से भिगोता नहीं है. लेकिन मंदिरा चुप रही. मीनल और मंदिरा बचपन के दोस्त हैं हर सुख दुःख के साथी. उसने मीनल से इतना ही कहा, ‘हो सके तो टाइम निकालकर हो लेना एग्जिबिशन में वरना गिल्ट से मर जाओगी.’

‘हाँ यार हर वक्त गिल्ट ही तो रहती है साथ. कभी यह भी लगता है कि शुभम से अलग न होती तो ठीक होता शायद.’ मंदिरा ने धीमे से बस इतना कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है.’

गाड़ी मुखर्जी आंटी के घर के सामने आ गयी थी उसने मीनल से कहा, ‘यार बाद में बात करती हूँ’

विशु का बुखार उतर चुका था. वो सो रहा था. मंदिरा ने उसके माथे पर हाथ फेरा तो उसने आँखें खोल दीं, ‘मम्मा, अब आप नहीं जाओगी न?’ मंदिरा ने कहा ‘हाँ बेटा अब मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी. तुम आराम से सो जाओ, मम्मा यहीं है. थोड़ी देर में हम घर चलेंगे फिर.’ दवा का असर माँ के स्पर्श के साथ मिलकर अच्छी नींद में बदल गया और विशु फिर से सो गया लेकिन इस बार उसकी नन्ही हथेलियों ने माँ की हथेलियों को थामा हुआ था.

मुखर्जी आंटी ने मंदिरा को उसे इशारे से बुलाया और कॉफ़ी दी.

शाम के तीन बजे दिन की पहली कॉफ़ी पीते हुए मंदिरा का शरीर बिखरने को हुआ हो जैसे. आंटी कुछ खाने को दीजिये साथ में सुबह से कुछ खाया नहीं है. शायद मीना ने सुन लिया था मंदिरा को कहते हुए वो टिफिन में रखे पराठे गर्म करके ले आई थी.

‘सोच रही हूँ नौकरी छोड़ दूं?’ पराठे का पहला टुकड़ा मुंह में धकेलते हुए मंदिरा ने कहा.

‘नहीं, ऐसा हरगिज मत करना’ मुखर्जी आंटी ने उसे कहा तो मीना भी बोल पड़ी, ‘दीदी आप मुझे समझाती हो कि औरतों को काम जरूर करना चाहिए और खुद ऐसी बात कर ही हो.’ कभी कभी होता है न ऐसा तो, मैं और आंटी जी संभाल लेंगे. लेकिन आप नौकरी मत छोड़ना वरना बड़े होकर यही बच्चे कहेंगे कि तुमने कुछ किया क्यों नहीं.’ मुखर्जी आंटी मीना को प्रशंसा भरी नज़रों से देख रही थीं.

‘लेकिन आंटी बहुत गिल्ट होता है, बच्चे के पास होना चाहिए था मुझे और मैं कहाँ थी.’

‘बच्चे के पास तो महेश को भी होना चाहिए था, वो कहाँ है. उसे गिल्ट है क्या?’ मुखर्जी आंटी ने कहा तो मंदिरा चुप हो गयी.

घर आकर मंदिरा ने अगले दिन की भी छुट्टी लगाईं और विशु के बगल में आकर लेट गयी.
‘मम्मा, आप जॉब मत छोड़ना. मैं आपको परेशान नहीं करूँगा’ विशु ने मंदिरा के सीने में दुबकते हुए कहा तो दिन भर के भरे हुए उदास बादल मंदिरा की आँखों से छलक पड़े.

(14 जनवरी को नवजीवन में प्रकाशित)

Thursday, January 13, 2022

ज़िन्दगी के सुरों का रियाज़


- प्रतिभा कटियार

सरगम का ‘स’ साधने जैसा ही होता है जीवन साधना. जीवन में मिठास को सहेजने के लिए जो सिर्फ एक ‘स’ भर ही ठीक से लग जाये एक जीवन में तो वह भी कम नहीं. सारा जीवन बस उस एक सुर के ठीक से लग जाने का रियाज़ ही तो है. ये पत्र जिंदगी का वही रियाज़ हैं. कभी छलकी कभी, रुकी हुई उदासी, कभी कोई मीठा लम्हा जो कसैली ज़िंदगी की हथेली पर आ गिरा हो, कभी कोई गुनगुनाती धुन कभी कोई सुबह गुमसुम.

मार्च 2020 को हुई कुछ घोषणाओं के साथ पूरी दुनिया विषाद में घिर गयी. पूरी दुनिया घरबंदी में घेर दी गयी. कोरोना नामक वायरस जाने कैसा था कि इसने एक-दूसरे से मिलने पर ही रोक लगा दी. इस दौरान उन सबको याद किया जिनकी याद व्यस्तता की आड़ से छुपकर फुर्सत मिलने की इंतजार तक रही थी. अब तमाम यादें, बातें, स्मृतियां बाकायदा पाँव पसारे बैठी थीं. एक तरफ भीतर की दुनिया खुल रही थी. दूसरी तरफ बाहर की दुनिया जूझ रही थी.

एक वायरस जिसने खांचों में लड़ी जा रही तमाम लड़ाइयों को एक कर दिया था जीवन जीने की जीवन को बचाने की लड़ाई. यह वायरस हिन्दू मुलसमान, अमीर गरीब, स्त्री पुरुष का भेद नहीं कर रहा था. एक डर जिसने समूचे विश्व को एक सूत्र में बाँधा. अवसर था ज्यादा मनुष्य होने का. लेकिन क्या हम हो पाए?

शुक्रगुजार हूँ कुदरत की कि इस मुश्किल वक्त में यह राह खुली. जब बाहर की यात्राएँ बंद हुईं तब भीतर की यात्रा की टिकट हाथ में थमाकर मानो प्रकृति ने कहा हो, ‘जाओ घूम आओ कुछ दिन.’ यह लिखते हुए मेरी आँखे नम हैं कि इन बुरे दिनों ने मुझे बहुत मांजा है भीतर से. मन-जेहन की जमीन पर उग आये खर-पतवार बीनने का समय मिला कुछ.

इस दौरान खिले फूलों की खुशबू है इन खतों में, पंछियों का गान है, उनसे की गयी बाते हैं, देश के बड़े वर्ग के पाँव की बिवाईयों का दर्द है. इंतजार के आगे सजदा किये रहने की चाहत है, देखी हुई फिल्मों, पढ़ी गयी किताबों की बाबत कुछ बातें हैं जो प्रेम पत्र में ढलकर अपने गंतव्य तक पहुँचने की इच्छा रखती हैं. ये पत्र लेटर बौक्स में पोस्ट ही नहीं किये गये तो जिसके लिए लिखे गये उसके द्वारा पढ़ी कैसे जाते. और जो किसी एक के न हुए वो सबके हुए. आप सबके. जिसके भी हाथ में यह पुस्तक है उसके ही लिए लिखे गए हैं ये खत. माया मृग जी ने इन खतों को एक जगह समेटकर तरतीब दी और अब ये बुरे समय के प्रेम पत्र आपके हवाले हैं. प्रेम पत्रों को बुकशेल्फ में सजाये जाने की नहीं दिल में रखे जाने की चाह होती है, उम्मीद है ये आपके दिल में थोड़ी सी जगह बनायेंगे.

किताब मंगवाने का लिंक- https://www.amazon.in/gp/product/B09PJB1PR2/ref=ox_sc_act_title_1?smid=A1GRCEHOR5E0TF&psc=1

Tuesday, January 11, 2022

जीवन बहुत कीमती है

देवयानी भारद्वाज ने बहुत प्रेम से यह ख़त पढ़ा है- 

अरसे बाद सुबहों को सुन पा रही हूँ. शामों में जो एक धुन होती है न शांत सी, मीठी सी उसे गुनगुना पा रही हूँ. चाय की मिठास में पंछियों की चहचहाहट घुल रही है. वक़्त के पीछे भागते-भागते शायद हम वक्त को जीना भूलने लगे थे. आज वक्त मिला है खुद को समझने का. अपने आप से बात करने का. सोचने का कि मशीन की तरह यह जो हम भागते जा रहे थे, उसके मानी क्या थे आखिर.

जीवन बहुत कीमती है. इसे प्यार करना, लम्हों को युगों की तरह जीना, लोगों को अपने होने से बेहतर महसूस करवा सकना और क्या? यह मुश्किल वक़्त हमसे कुछ कहने आया है. इतना विनाशकारी वायरस भी हमें कुछ सिखा रहा है कि वो हमें सिर्फ मनुष्य के तौर पर पहचानता है. उसके लिए इस बात के कोई मायने नहीं कि आप किस देश के, किस राज्य के, धर्म के, जाति हैं. कौन से ओहदे पर हैं और क्या सामाजिक, आर्थिक हैसियत है आपकी? उसके लिए हमारा मनुष्य होना ही काफी है. और हम न जाने कितने खांचों में बंटे हैं. एक पिघलन सी महसूस हो रही है भीतर. जी चाहता है अपने सब जानने वालों से जोर-जोर से बोलूं कि उनसे प्यार है. सबसे माफी मांगूं कि कभी दिल दुखाया हो शायद मैंने. कहूँ कि देखो न आज गले भी नहीं मिल सकते और गले मिलने के वो सारे लम्हे जब पास थे, हमने उन लम्हों को झगड़ों में गँवा दिया.

यह वक़्त हमें वो सिखाने आया है जो सीखने को लोग न जाने कितने पुस्तकालयों की ख़ाक छानते रहे, कितने वृक्षों के नीचे धूनी जमाने को भटकते रहे. मनुष्यता का पाठ. अभी कुछ ही दिन पहले हमने दंगों की आग देखी है, बर्बर हिंसा देखी है. हिंसा बाहर बाद में आती है पहले वो भीतर जन्म लेती है. वो किसी भी बहाने बाहर फूट पड़ने को व्याकुल होती है. यह समय अपने भीतर की उस हिंसा को समझने का है, उसे खत्म करने का है. यह वक़्त गुज़र जाएगा. यक़ीनन हम वापस अपनी ज़िन्दगियों में लौट आयेंगे. सब पहले जैसा हो जायेगा. लेकिन क्या हमें सब पहले जैसा ही चाहिए? क्या हमें पहले से बेहतर दुनिया नहीं चाहिए. बाबुषा कहती है आपदा का यह समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाएँ, और हम एक बदले हुए मनुष्य न हों तो मरना बेहतर है. सच ही तो कहती है वह. यह वक़्त अपने भीतर नमी को सहेज लेने का है, उन सबके प्रति प्रेम से भर उठने का जिनके प्रति कभी भी जरा भी रोष रहा हो. क्या होगा इस हिसाब-किताब का कि किसने क्या कहा, किसने क्या किया. अपने भीतर के विनम्रता के पौधे को, मनुष्यता के पौधे को खूब खाद पानी देने का समय है. जी भर कर रो लेने का, प्यार से भर उठने का समय है. यक़ीनन इस बार हम पहले से बेहतर मनुष्य होकर मिलेंगे. है न?

धागा है प्रेम का



- संज्ञा उपाध्याय 

दिन कैसे भी हों, हर हाल में दोस्तों का हाल पूछना प्रतिभा कभी नहीं भूलती। टिंग की आवाज़ और मेरे इनबॉक्स में उसका लिखा चमकता है—“सुनो!” फिर हम अपने सुख-दुख-सपने सब कह देते हैं।
2020 में जब हम तरह-तरह की क़ैद में जा रहे थे, उन दिनों में उसने दोस्तों की ही नहीं, सबकी ख़ैरियत पूछने का एक नायाब ढंग निकाला। वह ख़त लिखने लगी। फ़ेसबुक पर। और फिर एक दिन इनबॉक्स में बताया कि ये ख़त इकट्ठे होकर किताब के रूप में आ रहे हैं, तुम एक टिप्पणी लिख दो इनके लिए।
आज वह किताब आयी। आज यहाँ कई दिन की बरसात के बाद धूप खिली है।
मैंने जो लिखा था, वह किताब में तो है ही, यहाँ भी साझा कर रही हूँ :

ऐसा समय, जब सामने दिखते दोस्त से उमगकर गले नहीं मिल सकते। हुलसकर हाथ बढ़ा देने वाली पड़ोस की बच्ची को गोद में नहीं उठा सकते। घर पहुँचने की उम्मीद में सड़कों पर सैकड़ों मील पैदल चले जा रहे मजदूरों को कोई दिलासा नहीं दे सकते। अघटित घट जाने के ख़याल को चले आने से चाहकर भी रोक नहीं सकते...

ऐसे बुरे समय को काटने के क्या तरीके हो सकते हैं? बीते दिनों की सुंदर यादों में खोये आहें भरते रहें। या आने वाले बेहतर समय के उम्मीद भरे ख़्वाब सँजोयें। याद और ख़्वाब दोनों के ही सिलसिले आज के उस बुरे वक़्त से शुरू होते हैं। अब आप इधर चले जायें या उधर।

लेकिन रचनात्मक मन कुछ और करता है। प्रतिभा ने वक़्त की इस कटाई में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों की महीन कताई से ख़त बुने हैं। और धागा है प्रेम का।

ज़िंदगी हरदम तालों की चाबी खोजती है। नहीं मिलती, तो बना लेती है। बंद घर की एक खिड़की खुली हो, तो आसमान दिखता है। आसमान, जो हमेशा खुला ही होता है। तालेबंदी वाले दिनों में ये प्रेमपत्र लिखती प्रतिभा ने अपनी उसी खिड़की पर बैठ चाय पीते हुए बिलकुल नज़दीक खिड़की के पल्ले पर बैठी धूप सेंकती तितली को, उससे ज़रा आगे पंछी को डाल पर झुलाते पेड़ को, उससे कुछ आगे पहाड़ में खो जाती सर्पिल नदी को, और उससे बहुत आगे धरती के कान में गुनगुनाते आसमान को देखा है। इस देखने में ही ख़ुद से होकर कहीं दूर किसी सड़क पर अपने बच्चे को बगल में उठाये, सिर पर पोटली धरे चली जाती एक अजनबी उदास स्त्री तक की यात्रा तय की है. बरसे तो सुख सबके आँगन बरसे की दुआ पढ़ी है।

प्रतिभा की दुनिया प्रेम की दुनिया है। मनुष्य, परिंदे, चरिंदे, पेड़, हवा, फूल, नदी, बारिश, संगीत, किताब, फिल्म, चाय...सबसे प्रेम की दुनिया। लेकिन सिर्फ सुख-सपनों में डूबे प्रेम की नहीं। इसमें दुख है। उदासी है। करुणा है। रुदन है। प्रतीक्षा है। शिकायत है। तकलीफ है। साहस है। विचार है। यह प्रेम उलाहने का बाना छोड़ निजता की पगडंडी से होता राजमार्गों की अनगिन भीड़ के बीच सवाल बन व्यवस्था के सामने जा पहुँचता है।

ये प्रेम पत्र किसे लिखे गये हैं? एक पत्र पढ़ते हुए लगेगा—हमें ही! और अगला पत्र पढ़ते ही लगेगा कि अरे, यह पत्र तो हम लिख रहे हैं! अपने उसी प्रिय को, जिससे हम बेझिझक मैगी खाने की अपनी इच्छा जैसी दिनचर्या की हर सामान्य बात से लेकर अपने ही देश के नागरिकों के विरुद्ध जंग छेड़ देने जैसी अमानुषिकता तक किसी भी मसले पर संवाद कर सकते हैं।

इन खुले ख़तों को पढ़ते-पढ़ते हमारे भीतर के न जाने कितने-कितने बंद खुल जाते हैं।
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प्यारी प्रतिभा, इन ख़तों को इस सुंदर लिफ़ाफ़े में हम तक पहुँचाने का शुक्रिया

Monday, January 10, 2022

कहानी- बकरियां जात नहीं पूछतीं




-प्रतिभा कटियार

‘हुर्र...हुर्र....हट हट...हिटो रे हिटो....गुडबुड गुडबुड गुडबुड गुडबुड गप्प...आरे..आरे...’ शशांक ने अपनी लिरिक्स बनाई थीं जिन्हें वो अपनी ही बनाई धुन पर दिन भर गाता था. न उसने रैप सीखा न कोई और संगीत लेकिन उसकी इस ‘गुडबुड गुडबुड गप्प....हिटो रे हिटो’ को कोई सुन ले तो थिरकने जरूर लगे. शशांक भी दिन भर अपनी इस धुन के संग थिरकता फिरता था. और उसके संग थिरकती थीं उसकी बकरियां. खूब धमाल मचाते जंगलों में शशांक और उसकी बकरियां. आजकल उसकी बकरियों के रेवड़ में नयी बकरियां भी आ गयी हैं. मोहन की बकरियां.

मोहन जबसे स्कूल जाने लगा है उसकी बकरियां शशांक चराने ले जाने लगा है. मोहन ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि एक दिन वो स्कूल जाए और एक दिन मोहन. और जिस दिन जो स्कूल न जाए उस दिन वो दोनों की बकरियां चराए. प्रस्ताव अच्छा था. वैसे भी इस्कूल इस्कूल बहुत हो रा आजकल जिसको देखो पढो-पढो करते रहते हैं. जाने पढ़े-लिखे लोगों ने क्या ही कर लिया अब तक. शशांक के छोटे से मन में यह बात आई. उसने इतना सोचा कि चलो इस्कूल चलकर देख लिया जाय.

टीवी पर जबसे उसने छात्रों को पुलिस से पिटने वाली तस्वीरों को देखा है, तबसे उसे कुछ समझ नहीं आता. पढ़ने की वजह से पिटाई हो रही या इनके नम्बर कम आये इसलिए पिटाई हो रही. इस्कूल में टीचर पिटाई करे और ज्यादा पढ़ के कॉलेज चले जाओ तो टीचर जी पुलिस को बुला लें पिटाई करने को. बड़ा बुरा हो रा ये सब तो. कमबख्त पढाई न ही करो तो ठीक या फिर पुलिस बन जाओ बड़े होकर और दे दनादन दे दनादन...सोचकर ही शशांक को बड़ा मजा आता. वो सोचता अगर कहीं वो पुलिस बन गया तो सबसे पहले उस ठेकेदार को दे दनादन दे दनादन करेगा जो पापा को परेशान करता है.

उस दारू बेचने वाले की दुकान तोड़ेगा दे लाठी दे लाठी...जहाँ से दारू लाकर पापा रोज रात टुन्न होकर गाली बकते हैं, माँ को पीटते हैं. उन लड़कों को तो बहुत ही दे दनादन लाठी भंजेगा जो हमेशा उसे ‘भंगी भंगी’ या फिर ‘तेरी जात क्या है बे...’ कहकर चिढ़ाते हैं. उसका मन करता है मुंह नोच ले उन लड़कों का. क्या ऊँचे जात वाली लड़कियां भी ऐसा करती होंगी? उसे पता नहीं क्योंकि अभी तक किसी लड़की ने तो उससे पूछा नहीं कि ‘तेरी जात क्या है बे....’. उलटे बड़ी कोठी वाली सुमन को जब वो देखता है तो वो मुस्कुराती भी है. उसकी मुस्कान के बारे में सोचते ही शशांक के चेहरे पर भी मुस्कान खिल गयी. उसे लगा लड़कियां और बकरियां एक जैसी होती हैं. वो जात नहीं पूछतीं.

मोहन ने जब एक दिन छोडकर स्कूल जाने का प्रस्ताव रखा तो उसने सुमन के बारे में सोचकर प्रस्ताव उसे स्वीकार कर लिया कि वो भी इस्कूल जाती थी. इस तरह शशांक अपने कुल खानदान का पहला चिराग बना जिसने स्कूल का मुंह देखा. सरकार बोले है जिसे फर्स्ट जनरेशन लर्नर. शशांक को सरकार क्या बोले है इससे कोई लेना-देना न है.

उसने मोहन के हवाले बकरियां करते हुए कहा, ‘सुन ख्याल रखना. किसी को कुछ होना नहीं चाइये.’ मोहन ने उसे आश्वस्त किया.

मोहन असल में पढ़ना चाहता था और चूंकि उसके माँ-बाप दोनों मजदूरी करने जाते थे तो बकरियां उसके हवाले थीं और और छोटा भाई उसकी बहन कविता के हवाले. कविता जो मोहन से बस एक साल छोटी थी घर पर रहकर घर के काम संभालती और छोटे भाई गुल्लक को भी संभालती. गुल्लक नाम मोहन ने ही रखा था उसका. इसके पास बहुत पैसे आयेंगे...फिर हम जब चाहे निकाल लेंगे कहते हुए मोहन ने ठठाकर हंसते हुए कहा ‘मैं तो इसे गुल्लक ही बुलाऊंगा.’ ‘लेकिन तू इसे तोड़ेगा तो नहीं न? कविता ने उसे छेड़ा.’ ‘अरे ये टीन वाली गुल्ल्ल्क है, इसे तोड़ना नहीं खोलना पडेगा बस. उसने मेले में देखी हुई ताले वाली गुल्लक की याद करते हुए कहा. गुल्लक...कहकर मोहन ने गुल्लक को पहली बार गोद में उठाया. किसको कैसा लगा यह नाम पता नहीं लेकिन धीरे-धीरे सबकी जबान पर गुल्लक ही चढ़ गया. कुछ ही दिनों में गुल्ल्ल्क पुकारने पर वह अपनी चिमधी आँखों से पुकारने वाले की तरफ देखने लगता. मोहन को बड़ा मजा आता वो कभी उसे दायीं तरफ जाकर पुकारता गुल्लक...तो गुल्लक दायीं ओर आँखें घुमाता फिर मोहन झट से बायीं तरफ जाकर पुकारता गुल्लक तो वो बायीं ओर टपर-टपर देखने लगता. गुल्लक और मोहन काफी हिलमिल गए थे. हालाँकि कविता को गुल्लक से ख़ास लगाव नहीं था. उसके सर इतना काम बढ़ गया था उसके आने से कि वो गुल्लक से चिढ़ने लगी थी. सारे दिन सू-सू पौटी साफ़ करो, बोतल का दूध बनाओ पिलाओ जब सो जाए तो घर के काम करो.

मोहन को कविता से बहुत प्यार था उसका मन करता था कि बड़ा होकर वो मजदूरी नहीं करेगा पढ़ा-लिखा साहब बनेगा. कविता को खूब आराम देगा. उसकी खूब बड़े साहब जैसे लड़के से शादी करेगा जो उसकी बहन को खूब खुश रखे. मम्मी पापा को भी आराम देगा. गुल्लक भी पैसे कमाएगा. तो दोनों भाई मिलकर सबको खूब खुश रखेंगे.

कुछ दिन पहले जब उसने गाँव की लड़कियों को सुबह-सुबह तैयार होकर लाल रंग का रिबन बालों में लगाकर और स्कूल की ड्रेस पहनकर स्कूल जाते देखा तो उसका मन किया काश कि उसकी बहन कविता को भी स्कूल जाने का मौका मिलता. उसे स्कूल जाने वाले और स्कूल से लौटते बच्चे बहुत अच्छे लगते.

उसने सुना था सारे बच्चों को स्कूल जाने का मौका सरकार देती है. सरकार कैसे देती है यह मौका यह उसे पता नहीं. एक दिन जब स्कूल की मैडम उसके पापा से बात करने आयीं तो पापा तो घर पर थे नहीं तो वो उससे ही कहने लगीं ‘तू स्कूल क्यों नहीं आता?’ मोहन का मन स्कूल आने के नाम पर खिल गया. ‘मैडम जी क्या हम स्कूल आ सके हैं? पैसे न हैं मेरे पापा के पास.’ अरे बुध्धू सरकार ने सब बच्चों की पढाई का इंतजाम किया है. स्कूल में दोपहर का खाना भी मिलता है और स्कूल की ड्रेस भी, किताबें भी. मोहन की आँखें चमक उठीं. मैडम जी तो घर के हालात न जाने थीं ज्ञान देकर चली गयीं लेकिन घर में टेंशन बढ़ गयी उस दिन से.

‘पापा मैं बकरियां चराने न जाऊंगा कल से’ मोहन ने रात को पापा को बोला. पापा दिन भर की थकान और दारू के नशे में थे. बोले, ‘अच्छा? तो कहाँ जाएगा भाई तू?’ ‘पापा मैं कल से स्कूल जाऊँगा. मैडम जी आई थीं आज स्कूल वाली. उन्होंने बताया कि सरकार खाना भी देवे दोपहर का और किताबें भी, ड्रेस भी. पापा मुझे स्कूल जाना है. मुझे पढ़ने का बहुत मन है.’

‘दिमाग ख़राब हो गया क्या तेरा, तू स्कूल जायेगा? तू? हमारी जात के लोग स्कूल न जाते बेटे मजूरी पे जाते हैं. यई क्या कम है कि अब मैला ढोने की बजाय बोझा ढोना पड़ता है.’ जात की बात सुनकर मोहन चुप हो गया. उसे मालूम है स्कूल जाने वाले लड़के लड़कियां उससे ठीक से बात नहीं करते, दूर रहते हैं. उसकी जात का कोई स्कूल नहीं जाता. शशांक भी उनमें से ही है.

मोहन उस दिन तो चुप हो गया लेकिन उसका मन उदास हो गया. गुल्लक मम्मी के सीने से चिपका हुआ पेट भर रहा था, कविता के बर्तन मांजने की आवाज और पापा के खर्राटों की आवाज के बीच उसे किताबें दिखाई दे रही थीं. किताबों और स्कूल के बारे में सोचते-सोचते मोहन सो गया. लेकिन स्कूल जाने की बात उसके मन से निकल न रही थी.

अब मोहन के सामने दो समस्याएं थीं जब वो स्कूल जायेगा तो उसकी बकरियां कौन चरायेगा दूसरी उसकी जात के कारण उसे स्कूल में जाने को मिलेगा या नहीं. उसने मन ही मन यह भी सोच लिया था कि अगर उसे मैडम स्कूल आने देगी तो वो अपना टाट लेकर जाएगा और अलग कोने में चुपचाप बैठा रहेगा. वैसे इसकी तो उसे आदत थी ही. मम्मी पापा को भी उसने बडी कोठी के लोगों के यहाँ कोने में अलग बैठते और अलग बर्तन में खाते देखा ही है. तो यह उसके लिए सामान्य बात थी. मान-अपमान की समझ के बीज अभी उसके जेहन में अंकुरित नहीं हुए थे.

उधर शशांक जो उम्र में तो सिर्फ एक ही साल बड़ा था मोहन से उसके जेहन में मान-अपमान वाले बीज अंकुरित ही नहीं हुए थे बड़े भी होने लगे थे. उसे यह बहुत बुरा लगता जब उसे जात के कारण बच्चे चिढ़ाते या बड़े उसको या उसके परिवार को बेचारा कहकर पुकारते. या त्योहारों पर उतरन के कपडे और बचा हुआ खाना देकर जाते. उसने कभी बड़ी कोठी से आये बचे-खुचे मालपुए नहीं खाए. शशांक के पापा भी मोहन के पापा के साथ ही मजदूरी करते थे हाँ, उसकी माँ मजदूरी पर नहीं जाती थी क्योंकि वो बहुत बीमार रहती थी. पापा हमेशा यही कहते ‘आधी कमाई तो तेरी दवाई में लग जाती है क्या खिलाऊँ बच्चों को और क्या पहनाऊँ.’ मम्मी सिसकते हुए बस इतना कहती ‘मैं क्या जानबूझकर बीमार हुई हूँ...’ और रोते-रोते माँ खांसने लगती. शशांक की बड़ी बहन थी, वही घर संभाले थी. गरिमा दीदी शशांक को सीने से लगा लेती और मम्मी को चुप रहने को कहती. पापा बुरे नहीं थे हालात बुरे थे फिर पापा दारू पी लेते और रोते रहते. नशे में वो अपने बीवी से, बच्चों से माफ़ी मांगते ‘मैं कुछ न कर सका तुम लोगों के लिए मुझे माफ़ कर दो.’ मम्मी के पाँव में लोट जाते वो और मम्मी तब और ज्यादा रोने लगतीं. शशांक देखता कि दीदी भी रो रही है फिर वो भी रोने लगता. और इस तरह अक्सर इस घर में रोते-रोते सब सो जाते और सुबह को लगता कुछ हुआ ही नहीं. रात की रोटी खाकर शशांक बकरियां लेकर जंगल की तरफ गुडबड गुडबड हिटो हिटो का गाना गाते हुए निकल जाता.

शशांक की अपनी बकरियों से अच्छी दोस्ती थी. उसे बकरियां इसलिए भी अच्छी लगती थीं क्योंकि वो उससे उसकी जात नहीं पूछती थीं. वो उसके पास आती थीं, प्यार जताती थीं. उसे गरिमा दीदी की याद आ जाती. जब गरिमा दीदी उसे सीने से लगाकर प्यार करती हैं तो उसे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन उसे नहीं पता कि गरिमा दीदी हमेशा उदास क्यों रहती हैं. शायद बीमार माँ की सेवा करते-करते वो थक गयी हैं. कभी-कभी शशांक को लगता अगर माँ मर जाए तो कितना अच्छा हो. सब कुछ ठीक हो जाए तब. गरिमा दीदी भी हँसे तब शायद. मम्मी की दवाईयों का पैसा भी बचेगा तो नए कपड़े और अच्छा खाना भी आने लगेगा. ऐसा सोचते-सोचते शशांक की आँखों में आंसू आ गए. माँ को खोने का दर्द उसकी आँखों में उतर आया. शशांक को खुद पर बहुत गुस्सा आया और उससे ज्यादा रोना आया. मुझे नहीं चाहिए अच्छे कपडे, अच्छा खाना मुझे मम्मी चाहिए. वो रोता हुआ घर की ओर भागा और मम्मी के गले से चिपक गया जाकर. मम्मी ने सर पर हाथ फेरते हुए लाड किया और बोली ‘क्या हुआ मेरे भैया को.’ मम्मी उसको भैया ही बोलती थीं. शशांक ने रोते-रोते कहा, ‘तुम कहीं मत जाना हमें छोडकर कभी मत जाना.’ वो देर तक मम्मी की छाती से चिपका रहा मम्मी लाड से उसकी पीठ पर हाथ फेरती रही.

अगले दिन जब मोहन ने उसे स्कूल जाने वाली बात फिर से कही तो पहली बार उसका मन हुआ कि वो स्कूल जाये, पढ़-लिखकर कुछ बन जाए और मम्मी का इलाज करा सके. नन्ही आखों में खूब बड़े-बड़े से सपने तैरने लगे.

पहले दिन मोहन स्कूल गया और उसकी बकरियां शशांक ने चराई दूसरे दिन शशांक को स्कूल जाना था. थोड़ा उत्साह, थोड़ा संकोच लिए स्कूल गया तो मैडम जी ने नाम तो लिख लिया उसका लेकिन उनके बोलने के ढंग में कड़वाहट महसूस हुई उसे. फिर वो कक्षा 2 में बिठाया गया. जैसे ही वो कक्षा में गया उसने देखा सुमन भी उसी कक्षा में है. वो थोड़ा खुश हो गया. वो जाकर सामने वाली बेंच पर बैठ गया. तो पास में बैठा मोहित मुंह बनाकर उठा और अलग जाकर बैठ गया. रवि ने जाकर मैडम को बताया कि शशांक सबके साथ बैठ रहा है. मैडम कक्षा में आयीं और झूठी मिठास घोलते हुए शशांक से कहा, ‘बेटा आप नए हो न तो उधर बैठो किनारे. वहां’ उन्होंने कोने में लगी एक डेस्क की तरफ इशारा किया. वहीँ पर रजनी भी बैठी थी. शशांक को ज्यादा कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन उसे अच्छा नहीं लगा. वो चुपचाप जाकर कोने में बैठ गया. उसके पास न किताबें थीं न ड्रेस. एक झोले में वो सिर्फ थाली लेकर आया था. क्योंकि मोहन ने कहा था कि खाने के लिए अपनी थाली लेकर जाना. किताबें और ड्रेस तो स्कूल से मिलेंगे.

मैडम ने कुछ कवितायेँ करवाई बच्चों से, ‘एक मोटा हाथी झूम के चला, मकड़ी के जाले में जाके फंसा...’ कित्ता बड़ा हाथी....मैडम पूछती और बच्चे दोनों हाथ फैलाकर फिर हाथों से सूंड बनाकर मैडम को बताते खूब बड़ा हाथी...फिर सब खिलखिलाकर हंस देते. यह दुनिया तो बड़ी अच्छी है. शशांक को स्कूल अच्छा लगा. वो भी खूब हंसा ‘इत्ता बड़ा हाथी’ कहते हुए.

इंटरवल में सब बच्चे लाइन से लगकर खाना ले रहे थे तो वो भी अपनी थाली लेकर लाइन में लग गया. बच्चे बिदक गए...’ तू इस लाइन में नहीं लग सकता, दूर जा. हट यहाँ से.’ ‘लेकिन क्यों नहीं लग सकता’ शशांक ने गुस्से और अपमान से भरकर पूछा. ‘क्योंकि तू नीची जात का है, तू भंगी है.’ वैभव ने उसके मुंह पर हँसते हुए कहा. शशांक की आँखों में आंसू आ गए. वो भंगी है इसमें उसकी क्या गलती है सोचते-सोचते शशांक की भूख ही मर गयी. रजनी भी उसी की जात की थी वो कोने में खड़ी थी. भोजन माता ने उसे दूर से खाना दिया. शशांक को भी बुलाया देने को लेकिन शशांक गया नहीं.

उसे अब छुट्टी की घंटी बजने का इंतजार था.

शशांक को स्कूल जाकर अच्छा नहीं लगा. सुमन ने भी बाकियों की तरह उससे दोस्ती नहीं की. लेकिन मोहन को स्कूल जाना अच्छा लग रहा था. वो कोने में बैठकर ही पढ़ाई करने में भी खुश था. शशांक ने मोहन ने कहा, देख तू स्कूल जा मैं तेरी बकरियां चरा लिया करूँगा. फिर जब तू साहब बन जायेगा तो अपनी बकरियां चराने के लिए मुझे ही रख लेना. तब तो तेरे पास बहुत सी बकरियां होंगी. शशांक और मोहन देर तक इस बात पर हँसते रहे. हँसते हुए शशांक का नया-नया निकलता दांत ज्यादा ही चमक उठता. गरिमा दीदी कहती तू खरगोश लगता है एकदम. स्कूल में मिलने वाले खाने और और हाथी वाली कविता की याद में कभी-कभी शशांक का मन होता कि स्कूल जाए लेकिन फिर बच्चों, टीचर जी और भोजन माता सबकी झिड़क याद आ जाती और वो बकरियों के रेवड़ में ही खुश रहना मंजूर करता.

इधर जबसे शशांक मोहन की बकरियां चराने लगा है मोहन शशांक की खूब सेवा करने लगा है. दोनों में पहले से ज्यादा दोस्ती हो गयी है. घर में कुछ अच्छा बनता तो वो शशांक के लिए ले आता. सुबह की रोटी वो शशांक के लिए ले आता यह सोचकर कि उसे तो स्कूल में खाना मिल ही जायेगा. शशांक की अब मोहन की बकरियों से भी दोस्ती होने लगी थी. उसका रेवड़ बड़ा हो गया था. मोहन स्कूल के बाद शशांक की बकरियां भी चरा लेता. कभी-कभी दोनों दोस्त बकरियों के रेवड़ के बीच बैठकर गप्पें लगाते. उनकी बातों में स्कूल ज्यादा होता. स्कूल की बातें सुनते हुए शशांक का मन तो करता स्कूल जाने का लेकिन फिर बुझ भी जाता.

इसी बीच मोहन ने उसे बताया कि स्कूल में नयी टीचर जी आई हैं. वो बहुत अच्छी हैं. उन्होंने उसे आगे वाली डेस्क पर बिठाया है. वो सब बच्चों को मेरे साथ खेलने को भी समझाती हैं. वो बहूऊऊऊऊऊऊत् अच्छी हैं...कहते हुए मोहन की आवाज में ‘बहुत’ ख़ुशी बनकर खिल उठा.

‘अच्छा?’ शशांक खुश हो गया. उसने ऐसी बहुत अच्छी किसी मैडम को देखा नहीं. शायद किसी को भी नहीं. वो अब तक मिले तमाम लोगों के बारे में सोचने लगा लेकिन सबकी आँखों में या उसके लिए हिकारत या बेचारगी ही दिखी थी. तो ये बहुत अच्छी मैडम कैसी होंगी जिनके बारे में मोहन बताता है उसकी जानने की इच्छा हुई. उसने मोहन से कहा ‘एक दिन के लिए स्कूल जाऊं मैं मैडम को देख आऊँगा.’ मोहन खुश हो गया. ‘हाँ हाँ...तू जा न. मैं बकरियाँ चरा लूँगा उस दिन.’

अगले दिन शशांक ने सुबह उठकर नहा लिया और सबसे साफ़ वाली बुशर्ट पहनी. उसके मन में बहुत अच्छी मैडम की तस्वीरें बादल में बनने वाली आकृतियों की तरह बन बिगड़ रही थीं. उसका नाम अब भी स्कूल की रजिस्टर में दर्ज था. उसे स्कूल में आया देखकर ही बड़ी मैडम ने ताना मारा, ‘आ गए लाट साहब? एक दिन स्कूल आकर रजिस्टर में नाम लिखकर गायब हो जाते हैं ये लोग. इनका पढने-लिखने से कोई मतलब नहीं पता है मुझे. सरकार को जाने क्यों लगे है कि सब पढकर कलक्टर बन जायेंगे. हुंह...सब पता है मुझे खाने और कपड़े के चक्कर में स्कूल आ जाते हैं ये लोग. हमारा काम बढ़ जाता है अलग से. अब इनका हिसाब रखो, क्यों नहीं आ रहे, क्यों नहीं पढ़ रहे.’ बड़ी मैडम ने सब भड़ास निकाल ली. शशांक का मन किया कि अभी भाग जाए स्कूल से तभी उसे सामने से नयी मैडम आती दिखीं. अरे ये तो उसकी गरिमा दीदी की तरह लगती हैं. इतनी साधारण लगीं नयी मैडम शशांक को कि उसका दिल ही टूट गया जैसे. ऊपर से बड़ी मैडम के तानों से स्वागत हुआ था वह अपमान भी था ही. पापा ने उसे लाख समझाया कि बेटा मान-सम्मान के रायते बड़े लोगो के होते हैं. हमें तो जो दो बखत की रोटी और तन ढंकने को कपड़े दे दे वही हमारा भगवान है. लेकिन शशांक इस बात को अपना नहीं पाया था इसलिए उसकी सबसे खूब लड़ाई भी होती थी और वो अक्सर नाराज भी रहता था.

नई मैडम ने उसे निराश किया और बड़ी मैडम ने उसे अपमानित. उसने मन ही मन तय कर लिया कि कल से वो और उसकी बकरियां फिर से ऐश करेंगे. भाड़ में जाय तुम लोगों का स्कूल फिस्कूल.

उसने भड़ास निकालने के लिए राहुल की कॉपी फाड़ दी. जिसके बदले में हुई पिटाई का उसे बुरा नहीं लगा. उसने सोचा आज छुट्टी होने तक कुछ बच्चों की कॉपियां और फाड़ दूंगा. कल से मुझे कौन सा आना है स्कूल. कॉपी फाड़ने की सजा में उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया जिससे उसे अच्छा ही लगा. अब वो स्कूल में इधर-उधर घूमने लगा. इंटरवल हुआ उसने खाना नहीं खाया. नयी मैडम ने देखा कि शशांक सुबह से अलग-थलग है, कुछ गुस्सा है और अब खाना भी नहीं खा रहा. वो उसके पास आयीं और उसके सर पर लाड से हाथ फेरते हुए कहा, ‘क्या हाल हैं आपके? अपना नाम नहीं बताएँगे? नई मैडम ने जाने कौन सी नस छू ली शशांक की सर पर हाथ फेरकर कि उसकी आँखें भर आयीं. उसे लगा ये तो गरिमा दीदी से भी ज्यादा प्यार करना जानती हैं. ‘चलो खाना खा लो फिर अगली क्लास में मजे करेंगे.’ कहकर उसके बालों में उँगलियाँ फिरते हुए नई मैडम भोजन माता की तरफ चली गयीं. ‘सबको प्यार से खाना परोसना शांति, और सबका पेट भरे इसका ध्यान रहे. बच्चे भूखे नहीं रहने चाहिए. कहते हुए राजमा परोसने का चमचा मैडम ने खुद अपने हाथ में ले लिया और शांति अम्मा चावल परोसने लगीं. शशांक दूर खड़ा सोचता रहा खाना खाए न खाए. उसके झोले में पड़ी थाली और पेट में कुलबुलाती भूख बड़ी मैडम के ताने और नई मैडम के दुलार के बीच कहीं फंसी हुई थी. यूँ भी अगर वो खाना चाहेगा भी तो उसे तो आखिरी में अलग से दूर से ही खाना दिया जायेगा. वह अभी यह सब सोच हो रहा था कि नई मैडम ने पुकारा ‘अरे तुम वहां क्यों खड़े हो आओ, देखो आज राजमा मैंने खुद बनाया है, बताओ खाकर कैसा बना है.’ नई मैडम ने उसे देखते हुए मुस्कुराकर कहा. अब शशांक को समझ में आया मोहन के उस ‘बहुत अच्छी’ का मर्म. भूख ने मैडम के प्यार की पुकार से दोस्ती करते हुए बड़ी मैडम के ताने से हाथ छुडा ही लिया. वो झोले से थाली निकालकर किनारे खड़ा हो गया. नई मैडम ने उसे पास बुलाया और सबके साथ ही उसकी थाली में भी खूब प्यार से खाना परोसते हुए कहा ‘अच्छे से खाना भरपेट. फिर क्लास में मस्ती करेंगे.’ शशांक का पेट मैडम के प्यार से ही भर गया था. उसे इतने प्यार से कभी किसी ने खाना नहीं परोसा. गरिमा दीदी ने भी नहीं. वो इतनी उदास रहती है कि खाने में भी उदासी ही परोसती हो जैसे. शशांक ने पहला कौर खाया ही था कि उसे लगा यह स्वाद तो अद्भुत है. शशांक ने भरपेट खाना खाया और वो पूरे वक्त नई मैडम को देखता रहा. उसने सोचा काश कि वो रोज स्कूल आ सकता. लेकिन फिर मोहन का क्या होगा. एक दिन छोडकर आने वाला प्रोग्राम फिर से शुरू करना होगा. यह सब सोच-विचार चल ही रहा था कि घंटी बज गयी और सब बच्चे क्लास में चले गए. शशांक बाहर ही खड़ा रहा. बड़ी मैडम उसे बीच-बीच में घूर रही थीं. नई मैडम जब क्लास में आयीं तो उन्होंने शशांक को भी क्लास में बुलाया.

राहुल ने उसे देखते हुए चिढ़कर कहा, ‘मैडम इसने मेरी कॉपी फाड़ी थी इसलिए इसे दिन भर क्लास से बाहर रहने की सजा मिली है.’

नई मैडम ने मुस्कुराकर कहा, ‘अच्छा? कॉपी फाड़ना तो बुरी बात है. मैं इसकी सजा बदल देती हूँ. आज से इसे सबसे आगे बैठना होगा. ठीक है?’ राहुल और शशांक दोनों को समझ में नहीं आया कि यह कैसी सजा है. शशांक अपनी थाली वाला झोला लिए हिचकते हुए आगे की ओर बढ़ा कि सुमन ने सूचनार्थ नई मैडम को बताया कि, ‘मैडम ये भंगी है. बड़ी मैडम इसे अलग बिठाती हैं. आप इसे सबके साथ मत बिठाइए.’ शशांक ने अपमान से सर झुका लिया और जहाँ था वहीँ रुक गया. नई मैडम आगे बढ़कर हाथ पकडकर शशांक को आगे ले आई और अपनी मेज के ठीक सामने वाली डेस्क पर उसका झोला रख दिया. ‘अब तुम यहाँ बैठोगे रोज.’ शशांक के फूले गालों में जो उदासी भरी थी उसे प्यार से सहलाकर नई मैडम ने दूर कर दिया. लेकिन सुमन पर शशांक का गुस्सा बरकरार था. उसने मन ही मन सोचा नहीं लडकियाँ और बकरियां एक सी नहीं होतीं. लडकियाँ भी जात पूछती हैं सिर्फ बकरियां जात नहीं पूछतीं. उसे अपनी बकरियों पर प्यार आने लगा. नई मैडम ने एक कहानी सुनाई और उस कहानी पर बच्चों से बातें की. शशांक बड़ी बड़ी आँखों से नई मैडम को देखता रहा. उसे कहानी से ज्यादा अच्छा लग रहा था मैडम का कहानी सुनाने का तरीका. सुनाई गयी कहानी से अलग एक कहानी उसके मन में भी बनने लगी थी.

छुट्टी की घंटी बज चुकी थी. बच्चे खुश होकर बस्ता बाँधने लगे थे. शशांक आज स्कूल आकर एकदम खुश था. उसने मन ही मन सोच लिया था अब वो और मोहन एक दिन छोड़कर स्कूल आने और बकरियां चराने का कार्यक्रम जारी रखेंगे.

वो कई दिन तक सर पर नई मैडम के हाथ फिराने के सुखद एहसास में झूमता रहा.

Thursday, January 6, 2022

एक नर्म खुशबू के घेरे में हूँ





दिल की धड़कनें इतनी तेज हैं कि लगता है अभी दिल उछल कर बाहर आ जायेगा. नब्ज़ थमी सी है. आँखें नम हैं. सारी रात नींद नहीं आई. भूख भी गुल है. पेट में चक्का सा घूम रहा है. क्या किताब आने पर ऐसा होता है?

कैसा मीठा सा अनुभव है जो संभल नहीं रहा. बिटिया हाथ थामे बैठी है. बिटिया की प्रति आ गयी है. मेरी लेखकीय प्रति अभी रास्ते में है. मैं उसे देर तक देखने के बाद हौले से छूती हूँ तो रुकी हुई रुलाई और रुकने से इंकार कर देती है.

किताबें दोस्तों तक पहुँचने लगी हैं. दोस्तों का कहना है किताब को देखते ही जाने को जी करता है इतनी सुंदर है यह. मैं सब सुनकर कहीं छुप जाना चाहती हूँ. छलक पड़ती हूँ.

जब लिखे जा रहे थे ये खत तब क्या पता था कि इस तरह सहेज लिए जायेंगे. जब लिख रही थी तब इसलिए लिख रही थी कि लिखना सांस लेने के लिए जरूरी था. अब जब ये संकलित होकर सामने रखे मुस्कुरा रहे हैं तब दिल की धड़कनें बेकाबू हो रही हैं. ऐसी हरारत, ऐसी बेचैनी तो महबूब से मिलने के वक़्त भी न हुई...
प्रकाशक ने कठिन दिनों के प्रेम पत्रों को प्रेम से ही सहेजा है और यह भी उनकी खूबी है कि किताबें अपने चाहने वालों के घर के पते की ओर तुरंत निकल पड़ी हैं...

मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा कि सहमे हाथों से छूती हूँ किताब को, टटोलती हूँ लिखे गए पत्रों को जैसे बाद मुद्दत अपना ही चेहरा टटोल रही हूँ...यह एहसास कितना अद्भुत है...किताब की ख़ुशबू में तर-ब-तर दिल की धड़कनों को समेट लूं जरा, तब तक आप अपनी प्रतियों का इंतज़ार करिए. पहुँचती होंगी...

Wednesday, January 5, 2022

नई किताब-वह चिड़िया क्या गाती होगी


नई किताब
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क़रीब 100 बरस पहले वर्जीनिया वुल्फ़ ने लिखा था, "Look within and life it seems is far from being like this." भीतर देखो और पाओगे कि जीवन उससे काफ़ी अलग है जो दिखता है।
जब बाहर सब कुछ बंद था, तब प्रतिभा कटियार ने अपने भीतर देखने के अपने प्रिय काम को कुछ और समय दिया। उसका नतीजा है- बिना किसी को संबोधित किए लिखी गईं ये चिटि्ठयां - कुछ डायरी, जैसी, लेकिन ज़्यादा ख़तों जैसी। इन चिटि्ठयों को पढ़ते हुए लेखिका के भीतर का कोमल संसार तो खुलता ही है, बाहर पसरी दुनिया को भी एक नई-तरल आंख से देखने की इच्छा पैदा होती है। 'मारीना' जैसी किताब लिखने के बाद प्रतिभा ने फिर साबित किया है कि वे भाषा की उंगली पकड़ कर मन के बीहड़ कोनों में घूमना जानती हैं और कभी अपनी पीड़ा से, कभी अपने प्रेम से, कभी अपनी स्मृति से, कभी अपने अकेलेपन से और कभी पूरे पर्यावरण के संग विहंसती हुई सामूहिकता से जीवन के उन कोनों को प्रकाशित कर डालती हैं जो शायद हम सबके भीतर होते हैं लेकिन जिन्हें देखना-पढऩा-खोजना हम भूल जाते हैं- भूल चुके हैं। यह किताब सुंदर गद्य से नहीं, उजली मनुष्यता से बनी है।- प्रियदर्शन
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https://www.amazon.in/dp/B09PJB1PR2?ref=myi_title_dp


Sunday, January 2, 2022

शगुन की धूप


नए साल की पहली रात थी. जाने कितनी एंग्जायटी में बीती. धुक धुक धुक करता रहा कलेजा. किस बात पर पता नहीं. जब बहुत प्रेम मिलता है तब भी ऐसी ही धुकधुकी होती है, जब तिनका भर सुख मिलता है तब भी आँखें छलक पड़ती हैं और धुकधुकी शुरू हो जाती है. कभी समझ नहीं पायी कि सुख के साथ उदासी की रेख क्यों चलती है. क्यों अचानक कहीं छुप जाने का मन करता है. छुपकर रोने का मन करता है.
इंदौर और भोपाल की यात्राओं में मिला प्रेम घर में जीवन में इस कदर बिखरा पड़ा है कि लगता है वहीं रह गयी हूँ, जो वापस आया है ये तो कोई और है. क्या सचमुच यह प्रेम मेरे ही हिस्से का है जो मुझे मिला, मिल रहा है. सचमुच? फिर वही धुकधुकी.
मैं तो जीवन की तलहटी में पड़ा एक कंकर भर हूँ मुझ तक जिनकी नज़र जा पा रही है, जो मुझे प्रेम कर रहे हैं विशेष तो वो लोग हैं. और देखो फिर से आँखें छलक पड़ी हैं.
कल मध्य प्रदेश दूरदर्शन पर प्रसारित बातचीत को सुनने के बाद एक दोस्त ने कहा, 'तुम कितने संकोच में रहती हो, कैमरे से नज़र नहीं मिलाती?' मैं चुप रही, सोचती रही हाँ, संकोच तो रहता ही है हमेशा. कैसे नज़र मिलाऊं. दूर से देखती हूँ खुद को तो वो कोई और ही नज़र आती है और मैं किसी कोने में छुपी हुई चुपके से उसे देखती हूँ. माँ कहती हैं, 'संकोच स्वाभाविक है. और जो स्वाभाविक है उसे वैसा ही रहने देना, बदलने की कोशिश मत करना.' मैं माँ को हमेशा ध्यान से सुनती हूँ. वो जीवन के बारे में कितना जानती हैं.
माँ से जब मैंने आज सुबह बताया कि माँ रात अच्छी नींद नहीं आई, धुकधुक होती रही. तो माँ ने मुस्कुराकर सर पर हाथ फेर दिया और कहा, 'कुछ अच्छा होगा. यह शगुन है.' उनके यह कहते ही धूप का एक टुकड़ा मेरे सर पर आ गिरा.
मैं निसंकोच सिर्फ प्रकृति के सम्मुख होती हूँ, धूप के टुकड़े को हथेलियों में उतार लेती हूँ उसे कहती हूँ...तुम हो तो सब शगुन ही है.