दिमाग के कमरे में किताबों का एक ढेर है। बायोडाटा में न जाने कितनी डिग्रियां दर्ज हैं। जिंदगी कहां दर्ज है याद नहीं। कभी-कभी किन्हीं लम्हों में जिंदगी हमें छूकर गुजरती है। हम चौंककर खुद को टटोलते हैं। त्वचा पर कुछ रेंगता हुआ सा महसूस होता है। अहसास...कि अभी मरे नहीं, जिंदा हैं हम। इस अहसास का दिमाग के कमरे में दर्ज किताबों और ढेर सारे ज्ञान से कोई सरोकार नहीं होता। वो लम्हा हमें हमारे पास ले आता है। ऐसा ही कोई एक लम्हा था जब 14 फरवरी यानी बसंत पंचमी के ठीक एक दिन पहले एक शाम राजस्थान के मिरासी गायक मुख्तियार अली की उंगली थामे अजीम प्रेमजी फाउंडेशन देहरादून के आंगन में दाखिल हुई थी। उस शाम के आंचल में यमन, दुर्गा, भूप, तिलक कामोद, दरबारी जैसे न जाने कितने राग थे। मुख्तियार जी ने मुस्कुराकर शाम को देखा और सुर साधा हरि मौला...ऐसा सधा हुआ आलाप कि रगों में दौड़ता हुआ लहू भी ठहरकर सुनने लगा हो जैसा। आंखें भर-भर आ रही थीं। हवाओं ने, फिजाओं ने, लहलहाती सरसों ने कुदरत के हर रंग ने मानो दम साध लिया था।
हरि मौला, हरि मौला...हरि मौला...आलाप...आलाप...आलाप...जैसे-जैसे सुर बढ़ते, चढ़ते हम खुद से छूटते जाते। जिंदगी का आलाप सधता नहीं लेकिन ये आलाप जिंदगी को साधने को व्याकुल था।
किताबों में दर्ज अल्फाजों ने जिन बातों को कहने में न जाने कितनी सदियों का सफर तय किया, न जाने कितनी मशक्कत हुई उन अल्फाजों का तर्जुमान जिंदगी में उड़ेल देने की फिर भी पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले अक्सर मूढ़ ही साबित हुए। उन्हीं बातों को जब सुरों की संगत मिली और एक गंवई लोक गायक की प्यार में डूबी और सुरों में कसी हुई आवाज़ मिली तो लगा हां, यही है श्रेष्ठतम पैडागाजी।
पढ़-पढ़ आलम फाज़ल बन्या, कभी अपने आप नूं पढ्या ही नहीं...कबीर हों या बाबा बुल्लेशाह बात वही दुनिया की किताबें बाद में पढ़ना पहले अपने दिल के भीतर जाकर अपना आप तो पढ़ो। मुख्तियार भाई की झोली में कबीर ही कबीर थे। ये फकीर कबीर को गाता नहीं, जीता है। उन्हें सुनते हुए लगा कि जैसे हीर सुनने के लिए हीर होना पड़ता है वैसे ही शायद कबीर को सुनने के लिए, महसूस करने के लिए कबीर होना पड़ता है। मुख्तियार जी ने ज्ञान की डिग्रियों का मुंह नहीं देखा बस कबीर हो गये।
कबीर कबीर क्यों करे, सोचो आप शरीर
पांचों इंद्रिय वश करो, आपहु दास कबीर...
वो एक-एक दोहे से जैसे हमारे जेहन जमा तमाम विकारों को साफ कर रहे थे। माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय, इक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूंगी तोय...कितनी सदियों से ये दोहा हमारे साथ है...पीढ़ी दर पीढ़ी। लेकिन कितना समझ पाये हम इसके सत्व को।
जानना....समझना...महसूस करना और आत्मसात् करना....ये महज शब्द नहीं हैं। अगर हम अपने महसूस किये को आत्मसात कर पाते हैं तो समझने के अर्थ को सहारा मिलता है और जानने की लाज रह जाती है। लेकिन अक्सर हम जानने में ही अटके रह जाते हैं। शायद इसीलिए बहुत कुछ जानने के बाद भी दूर ही रह जाते हैं जिंदगी से।
रागी जो सुनाए राग, रोगी को मिले आराम....सचमुच आराम ही आराम। रूह के घायल पड़े न जाने कितने कोनों को सुकून बख्श रही थी वो आवाज। जैसे मन के सीलन भरे कमरे का दरवाजा खुल गया हो और उस पर किसी ने अंजुरियों से भर-भर के धूप उलीच दी हो।
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय...दुनिया न जाने किस प्रेम के उत्सव की बात करती है। बाजार जाने किसलिए बौराया फिरता है। जबकि आत्मा रूपी दुल्हन अपने परमात्मा रूपी प्रेमी से मिलने को गोरी कलाइयों में हरी-हरी चूडि़यां पहने इठलाती घूम रही है। यही तो है पे्रम का श्रेश्ठतम रूप, महामिलन। जिसके लिए जाने कितने संत, ज्ञानी वन-वन भटके।
जिस प्रीतम बावरे ने एक नज़र में छाप तिलक सब छीनी उसके उसे किस मंदिर, किस मस्जिद में तलाशूं भला। वो प्रीतम तो चारों पहर दिल में ही बसा है। जिस दिल में ऐसा घना प्रेम बसता हो वहां कैसे भला, ईर्ष्या, वासना, अहंकार, मोह आदि की जगह बचेगी।
किस खुदा, किस ईश्वर के लिए हम मंदिर मस्जिद के चक्कर लगाते फिरते हैं जबकि वो तो हमारे ही भीतर ही है।
कब मंदिर से मस्जिद लड़ती, कब गीता से कुरान
लोग रोटियां सेंक रहे लेकर इनका नाम...
कबीर को तो इन सबसे कोई सरोकार ही नहीं था। वो तो जिंदगी का हाथ थामता फिरता था। विचार जब सुरों में सहेज लिये जाते हैं तो उनकी तासीर कई गुना बढ़ जाती है। जाने कहां चली जाती है दुनियादारी कि औघड़ ही हो उठता है मन।
प्रेम की, ज्ञान की प्यास जगाने के बाद मुख्तियार जी ने प्रेमवटी का ऐसा मदवा पिलाया कि दुनिया झूम उठी...चौथ का चांद उनकी आवाज के सजदे में झुककर धरती के थोड़ा और करीब आ गया था।