Saturday, January 31, 2009

पहला वसंत


जब आँख खुली तो सिरहाने वसंत को पाया
उसकी खुशबु से पूरा कमरा
महक रहा था न जाने कब और कैसे
मेरे सिरहाने
कोई चुपके से वसंत सजा गया।
इतने वर्षों से तो मैंने
कभी पहचाना नहीं इसे
और आज जब देखती हूँ
तो लगता है सदियों पुरानी है
पहचान
महकती अम्राइयां, कूकती कोयलें
और खिलखिलाता बचपन
सबकुछ बेहद करीबी से
लगते हैं आज
क्या मेरे जीवन का
पहला वसंत है.....


Thursday, January 29, 2009

यार जुलाहे!

मुझको भी तरकीब सिखा
कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है की
ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़त्म हुआ
फ़िर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
एक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो एक बार ही बुना था
एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे......
- गुलजार

Tuesday, January 27, 2009

इंतजार


किसकी खातिर धूप के गजरे

इन शाखों ने पहने थे

जंगल जंगल मीरा रोई

कोई न आया रात हुई .....

Sunday, January 25, 2009

एक मुलाकात ख़ुद से



रोज सबेरे धरती के एक छोर से सूरज उगता है और रोज ही शाम को किसी नदी, पोखर, समंदर में गिरकर बुझ जाता है। रोज ही हवाएं चलती हैं, जिस्म को छूते हुए निकल जाती हैं. रोज हमारी जिंदगी में अनगिनत अजनबी चेहरे आते हैं, जिन पर हमारा ध्यान तक नहीं जाता. रोज ही बहुत कुछ होता है जो बेहद कॉमन सा होता है. हमारा बोलना, काम करना, सोचना, आगे बढ़ना और अगले दिन की तैयारी करते हुए आज के दिन को गुड बॉय कहना. अचानक इस कॉमन सी लाइफ का हर लम्हा महकने लगता है. अचानक एक दिन हमारा एनर्जी लेवल बढ़ जाता है. अचानक दिन सुनहरे हो उठते हैं. अचानक हम खुद को आम से खास होता हुआ महसूस करने लगते हैं. अचानक हवाओं को मुट्ठियों में भींच लेने का, सूरज को आंखों में कैद कर लेने का हौसला हमारे भीतर जन्म लेने लगता है. अचानक ढेरों फूल हमारे भीतर खिलने लगते हैं. कैसे होने लगता है यह सब? दरअसल, ये सारे चेंजेस होने लगते हैं हमारी खुद से मुलाकात होने के बाद. खुद से मुलाकात यानी अपने बारे में कुछ जानना, समझना और खुद पर बिलीव करना. दौड़भाग में हम खुद को ही इस कदर इग्नोर करने लगते हैं कि अपने ही लिए अजनबी हो जाते हैं. हमें ध्यान ही नहीं रहता कि हमारे अंदर कितनी संभावनायें हैं. द मोमेंट वी बिलीव इन अवरसेल्फ, वी बिकम लिटिल डिफरेंट. हमारा सोचना, हमारा काम करना, हमारी जिंदगी का पूरा ऩजरिया बदल जाता है. आम होने से खास होने तक का रास्ता इस बिलीव से होकर ही तो गुजरता है. पर हममें से बहुत कम लोग इस बात को जान या समझ पाते हैं. वक्त ही नहीं मिलता. हमसे, हमारी मुलाकात करवाने का क्रेडिट जिन चीजों के हिस्से जाता है, वे भी कम दिलचस्प नहीं हैं. कभी किसी की टूटती हुई उम्मीदों को सहेजते हुए हम चुपके से खुद की उम्मीदों को भी सहेज लेते हैं. किसी के आंसुओं को पोंछते हुए हम खुद अपना दर्द भी कम कर ही लेते हैं. दूसरों से बात करते समय हम खुद से भी बात करते हैं. यानी जो हमें लगता है हम दूसरों के लिए कर रहे हैं दरअसल, वह हम अपने लिए कर रहे होते हैं. अच्छा या बुरा, गलत या सही. यही है हमारी खुद से मुलाकात, बस इतना सा है जिंदगी का फलसफा. लेकिन यहीं, ठीक इसी जगह पर ़जरा सा ब्रेक लेने की जरूरत है. ये सेल्फ बिलीव कहीं ओवर कॉन्फिडेंस न बन जाये यह ध्यान रखना कम जरूरी नहीं है. ़जरा सी लापरवाही डेंजरस हो सकती है. हम सब जानते हैं कि जो पेड़ फलों से जितना लदा होता है, उतना ही झुकता चला जाता है. लता मंगेशकर हों, भीमसेन जोशी, पं. हरि प्रसाद चौरसिया या कोई और सेलिब्रिटी, ये सब अपनी हर परफॉर्मेस से पहले अब तक नर्वस होते हैं. उनका यह नर्वस होना उन्हें परफेक्ट होने के गुमान से बचाता है और हर पल कुछ नया करने को उकसाता है. अपने ऊपर विश्वास करने के साथ ही अपनी जिंदगी में अपने सपनों को भी जगह देना कम जरूरी नहीं है. सपने, जो आंख खुलने पर आंखों से गिरकर टूटते नहीं. सपने जो हमारी स्ट्रेंथ बन जाते हैं, सपने जो हर पल हमारे साथ चलते हैं. हमारे आम से काम को खास बनाते हैं. अपने सपनों की उंगली थामकर अपने सेल्फ बिलीव के साथ कदम बढ़ाते ही दुनिया सचमुच बदलने लगती है. चांद फिर आसमान में चमकने वाला दूर का राही नहीं, हमसफर सा लगने लगता है. हमारे और हमारे सपनों के बीच के फासले घटने लगते हैं. जिंदगी सचमुच खूबसूरत होने लगती है, महकने लगती है. रोजमर्रा की कॉमन सी जिंदगी ही दरअसल सबसे खास होती है. बस, हमें इसकी अहमियत को रिकॅग्नाइज करने की देर है. विश्व का बेस्ट लिटरेचर, ब्लॉक बस्टर फिल्में, ढेरों कैनवास आम जिंदगी की खुशबू से ही तो महक रहे हैं. आइये, इस आम जिंदगी की अहमियत को पहचानें और बना लें इसे सचमुच खास.

Friday, January 23, 2009

लवलीन की याद में

दिल धक् से रह गया जब एक ब्लॉग की इस पोस्ट पर नजर पड़ी की लवलीन नहीं रहीं। न जाने क्या क्या आंखों में तैर गया। आंसुओं का अर्घ्य लवलीन जैसी जीवट महिला के लिए बहुत कम है। लवलीन उन स्त्रियों में
से हैं जिन्हें मेरी स्म्रतियों में ख़ास जगह मिली है। मैं उनसे बस एक बार ही मिली हूँ। धनबाद में। शायद १९९९ की बात है। संगमन था साहित्यकारों का। मै badi सहमी सहमी सी रहा करती थी, सारे सवाल अन्दर ही अन्दर बुनते हुए। लवलीन मेरी जिंदगी की पहली mahila थीं जिन्हें मैंने बिंदास सिगरेट और शराब पीते देखा था। मेरे घर में ya aas paas मैंने कभी किसी को पान tak खाते नहीं देखा था मेरे लिए बड़ा अजीब अनुभव था। लेकिन na jane kyon मुझे ख़राब बिल्कुल नहीं लगा। मैंने देखा मेरी ही तरह वे भी कुछ कुछ खामोश सी ही रहती हैं। मैं उन्हें ओब्सेर्वे
करती रही और उनकी कहनियों से उन्हें मिलाती रही। एक रात उन्होंने अपने कमरे में बुलाया। मै गई। सिगरेट के धुँए से मुझे परेशानी हो रही थी जिसे मै जाहिर नही होने देना चाहती थी। वे अपना ड्रिंक बना चुकी थीं। जाने क्या था की मैंने उनसे कोई सवाल नहीं किया। काफी देर तक खामोशी हमारे बीच डोलती रही फ़िर वे बोलीं, प्रतिभा इस दुनिया में जीने के लिए कठोर बनना। झुकना नहीं। मै खामोश रही। वे भी कम ही bolti thi पर बहुत कुछ कह रही हैं। उन्होंने आशीर्वाद दिया था न मानने का और लगातार लिखने का। रात के दो बजे तक हम बातें करते रहे। unhonne जयपुर aane की दावतk भी di। अगले दिन धनबाद घूमने निकले। कोयले की khanon ke andar jane ke लिए राजेंद्र यादव जी हों या संजीव, priyamvad hon ya देवेन्द्र सब के सब उत्सुक थे। हम सबने जाने कितनी सहितियिक चर्चाएँ की पर उस खामोश और सिगरेट की तलब की तलबगार लवलीन का चेहरा ज्यादातर खामोश ही था।
वापस आने के बाद उनका एक khat आया ढेरों आशीषों भरा। लिखने की राह में कोई रोड़ा न आए लिखते हुए उन्होंने अपनी कुछ कहानिया भी भेजी थीं जिनका मैंने आग्रह किया था। फ़िर हमारा khato किताबत का सिलसिला चला जो आगे जाकर रुक गया। अपने व्यस्तताओं पत्रकारिता के झमेले और हम पास होते हुए दूर हो गए। जब कभी उनका लिखा कुछ पढ़ती अपने अन्दर एक हौसला महसूस होता। आज उन्हें इस रूप में याद करना सचमुच बहुत बुरा लग रहा है। लवलीन ने संघर्ष का जीवन जिया और कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। लवलीन, आज अपने आपसे ये वादा दोहराती हूँ
की रहूंगी और बिना समझोतों के अपना रास्ता तय करूंगीआप हमेश याद आएँगी लवलीन.

रौशनी


बहुत प्यार से
बाद मुद्दत के
जबसे किसी शख्श ने
चाँद कहकर बुलाया है
तब से
अंधेरों की आदी निगाहों को
हर रोशनी अच्छी लगने लगी है

Tuesday, January 20, 2009


पता नहीं

वह उस जगह को याद भी करती हो

या...नहीं

जहाँ बैठ हम दोनों ने

प्रेम की ऊष्मा से

घास की हरियाली पर

सपनों का बुना था कुंकुनापन

हाथों में थाम हाथ

आत्मा को जागते हुए

कहा था एक दूजे के लिए

छुओ....

जागो....

और, भीग जाओ.....

वे सुख के पल

क्या उसे अभी भी

याद हैं?

यह मैं नहीं जनता

यद्यपि आज भी आती पड़ी हैं

मेरी कवितायें

उन भीगे पलों से

संचित करने जिनको

मैं जगा हूँ

न जाने कितनी रातें।

krishn कान्त निलोसे की कविता

Sunday, January 18, 2009

बेमकसद कुछ भी नहीं

कभी -कभी अचानक, यूं ही कुछ बहुत स्पेशल हो जाता है हमारी लाइफ में, जिसका हमें अंदाजा तक नहीं होता। जैसे कुछ खास लोगों से मुलाकात हो जाना, एक रांग नंबर पर किसी राइट पर्सन से गुफ्तगू हो जाना, रास्ता भटकने पर एक नया और ज्यादा माकूल रास्ता खोज लेना॥और भी बहुत कुछ है जो हमारी लाइफ में बस यूं ही हो जाता है. लेकिन इस यूं ही के घट जाने के बाद आप इसकी इंपॉर्टेस समझ पाते हैं. ब्लॉग सर्फिंग का यह सिलसिला जब शुरू हुआ तो अंदाजा नहीं था कि यह कितने क्रिएटिव व‌र्ल्ड से, लोगों से, उनके थॉट्स से रू-ब-रू होने का सिलसिला शुरू होने जा रहा है. इस बार ऩजर पड़ी अजय गर्ग के ब्लॉग http://bema,1,1sad.blogspot.com पर. चंडीगढ़ के अजय की तबियत और तरबियत दोनों ही उन्हें टिपिकल जर्नलिस्ट होने से अलग करती है. देर तक रजाई में सोने का मजा लेने वाले अजय जब देश, दुनिया और समाज को लेकर कांशस होते हैं तो कई सवाल छोड़ते हैं. फोटोग्राफी में अगर आपको इंट्रेस्ट नहीं है तो इस ब्लॉग पर आकर यह इंट्रेस्ट डेवलप हो सकता है. तस्वीर सिर्फ वो नहीं होती जो दिखती है, तस्वीर को अगर हम गौर से देखें तो यह डिफरेंट डायमेंशन्स को शो करती है. अजय अपने ब्लॉग पर वह आंख देते हैं, जिससे हम उन डायमेंशन्स को समझ सकते हैं. अजय के ही शब्दों में धूप भी वही है, परछाइयां भी वही हैं, फर्क सिर्फ उस ऩजर का है जो इसे देखती है और धूप-छांह के बीच बुने रंगों की एक तस्वीर के रूप में रचना कर डालती है. ब्राजीलिया के स्टीफन हरबर्ट की तस्वीरों के जरिये अजय अपनी बात को प्रमाणित करते हैं. लाइफ के डिफरेंट शेड्स को उनकी प्योर फील के साथ अपने ब्लॉग पर सजाया है ब्लॉगर ने. चाहे वो क्रिकेट के मैदान पर बनते इतिहास को देखने का लम्हा हो या हंगरी की फिल्म फेटलेस पर उनकी राय सबकुछ बेहद तरतीब से परोसा गया है. अगर किसी को घूमने का शौक है, तो उसके लिए कई खूबसूरत सजेशन्स इस ब्लॉग पर हैं कि जिंदगी में एक बार कहां जरूर जाएं. कहीं पढ़ा था कि हर क्रिएटिव व्यक्ति में कहीं न कहीं कवि जरूर छिपा होता है. कोई डायरी के पन्नों में छुपा संकोची कवि होता है तो कोई मंच पर जमा कवि. कविता के कीटाणुओं ने अजय को भी बख्शा नहीं है. इस ब्लॉगर के डिफरेंट डायमेंशन्स को जानने के लिए जब उनके दूसरे ब्लॉग http://indiancafeteria.blogspot.com का रुख़्ा किया तो कई सुंदर और काम की चीजें हाथ लगीं. मसलन इंडियन वुमन को समझने की समझ बड़ी साफ सी दिखती है. लिव इन रिलेशनशिप के बहाने सोसायटी का असल चेहरा सामने लाते हैं ब्लॉगर. इस ब्लॉग की ऑलमोस्ट हर पोस्ट अपने पास रोकती है. कंटेट खत्म होने के बाद खत्म नहीं होता, वो हमारे भीतर और डेवलेप होता जाता है. लिखना इसी का नाम है. बेमकसद शुरू हुआ अजय का यह सिलसिला असल में अब बामकसद हो चुका है. इस संडे क्यों न इस बेमकसद को ही मकसद बनाकर देखा जाए.

आज आई नेक्स्ट में प्रकाशित ब्लॉग कॉलम

Saturday, January 17, 2009

महका मन


आजकल खूब पढ़ रही हूँ, खूब म्यूजिक सुन रही हूँ,

थोड़ा बहुत लिख भी रही हूँ सचमुच लगता है की जी

रही हूँ। मुझे पता है काम करना मेरी कितनी बड़ी

जरूरत है। अगर सिरहाने किताबों का ढेर न हो,

म्यूजिक न हो, तो लगता है जिंदगी रुक गई है।

लेकिन इन दो दोस्तों के अलावा भी जिंदगी में कुछ

चीजें बड़ी जरूरी होती है। दोस्त जिनसे आप अपनी

फीलिंग्स को शेयर का सकें। वो कमी हमेशा से

मेरी डायरी ने पूरी की। बड़े दिनों बाद ये रुका

हुआ सिलसिला फ़िर शुरू हुआ है। सचमुच इतना अच्छा

लग रहा है की शायद पहली बार अपने ब्लॉग पर अपने

बारे में लिख रही हूँ।

Thursday, January 15, 2009

कामना

हमको राहों में यूँ ही मिलती रहें खुशियाँ....

Tuesday, January 13, 2009

अपने अपने इमरोज़

मिले किसी से ऩजर तो समझो ग़जल हुई॥रहे न अपनी खबर तो समझो ग़जल हुई..अपने हेडफोन से उभरती ग़जल की इन लाइनों में सर से पांव तक डूबा वह और कोई नहीं एक बाइस बरस का लड़का था। नाम था..छोड़िये नाम में क्या रखा है. मैंने महसूस किया कि उसके जिस्म के सारे रोएं खड़े थे. मानो ग़जलकार के स़जदे में खड़े हों. उससे बात हुई, तो मालूम हुआ कि उसके जिस्म के सारे रोएं उसकी उस प्रेमिका के सजदे में खड़े थे, जो अब उसे छोड़कर जा चुकी थी. उसकी पलकें नम थीं. उसने उन्हीं नम आंखों से पूछा, क्या ऐसी होती है मोहब्बत? नमी में नाराजगी भी शामिल हो चुकी थी. ऐसी माने..? मैंने पूछा.. वो मुझे छोड़कर चली गई..वो फफक उठा। मैंने उससे पूछा इमरोज का नाम सुना है? उसने पूछा कौन इमरोज॥? फिर ़जरा ठहरकर बोला अमृता वाले इमरोज. हां वही, मैं हंस दी. हां सुना है, वो बोला. मोहब्बत क्या है इसे जानने के लिए कभी इमरोज की गलियों से जरूर गुजरना चाहिए. इमरोज़ या अमृता..? वह अमृता पर कायम था. इमरोज़..मैं इमरोज पर अड़ी थी. इमरोज के करीब जाकर मोहब्बत करने का सलीका समझ में आता है. प्यार के लिए यह हरगिज जरूरी नहीं है कि प्यार हासिल भी किया जाए. यह तो एक इबादत है. सामने वाले का प्यार भी आपके हिस्से में आ जाए तो आपकी तकदीर, वरना इबादत जारी रखिये. इबादत का सुकून भला कौन छीन सकता है आपसे. अमृता सारी उम्र साहिर के नाम की माला जपती रहीं और इमरोज इस बात से बेफिकर अमृता के ख्याल में, उनकी परवाह में और आखिरी दिनों में उनकी परवरिश में डूबे रहे. आज हम एक बेमिसाल कलाकार को अमृता वाले इमरोज के रूप में ही तो जानते हैं. यह होता है प्रेम. अमृता के मरने के बाद भी इमरोज उनके प्यार की एक-एक बूंद को जी रहे हैं. यह होता है प्यार और हम चंद मुलाकातों के सिलसिलों के टूटने को मोहब्बत का टूटना समझ लेते हैं. आओ एक पता देती हूं ऐसी दुनिया का, जहां मोहब्बत के नये तर्जुमान खुलते ऩजर आयेंगे. http://amritapritamhindi.blogspot.com यहां जाकर हम सब मोहब्बत को समझने का, उसे निभाने का सलीका सीख सकते हैं. यह ब्लॉग बेहद प्यार से बनाया गया है. ब्लॉगर रंजू भाटिया बेहद क्रिएटिव हाउस वाइफ हैं. उनके क्रिएशन ने उनके ढेरों फैन्स बनाये हैं. यहां जिंदगी बेहद खुलेपन से संवरती है. अनगिनत सवालों के जवाब बहते ऩजर आते हैं. अमृता की फैन रंजू अपने हुनर से लोगों को न सिर्फ अमृता से जोड़ती हैं, बल्कि जिन्दगी को देखने की नयी ऩजर देती हैं. शब्द कब भावनाओं के हवाले होकर शब्द नहीं रह जाते, दस्तावेज हो जाते हैं, इस ब्लॉग पर बखूबी समझा जा सकता है. आइये, मोहब्बत का नाम लेकर चलें रंजू भाटिया के साथ अमृता प्रीतम की दुनिया में और ढूंढ लायें अपने-अपने इमरोज.
आईनेक्स्ट में प्रकाशित ब्लॉग पर एक टुकडा...

Monday, January 12, 2009

मैं...वो...और...समय...


प्रतीचा के अनन्त में

मैं...वो.... और समय

बतियाना चाहते हैं

देर तक

इन दिनों...

वह है कहाँ?

कौन है उसके साथ?

मैं नहीं जानता

मैंने देखा भी नहीं है

उसे बरसों से

मैं निढाल

प्रतीचा की ढलती उदासी में

व्योम के वातायन से

तलाशता रहता हूँ

उसका नाम

ब्रहमांड के विस्तार में

आख़िर praticha के अनंत का

कभी तो मिलेगा ओर-छोर

तब....मैं....वो और समय

बतियाएंगे साथ-साथ

काल का अतिक्रमण करते हुए

खामोशी में एक नई रचना रचाते हुए

जैसे बसंत रचता है

पलाश के साथ

अपनी वासंती भाषा में...





Sunday, January 11, 2009

लौकेट


मुझको

इतने से काम पे रख लो

जब भी सीने पे झूलता लौकेट

उल्टा हो जाए...तो

मैं हाथों से सीधा करता रहूँ उसको.....

गुलजार साहब भी क्या क्या लिखते हैं...

इसे विशाल भरद्वाज के म्यूजिक और सुरेश वाडेकर

की आवाज मे सुनना एक जादुई अहसास से गुजरना है...

बहुत दिनों बाद आज सुना और सुनती ही रही...


Sunday, January 4, 2009

आँख


आंख सिर्फ़ वो नहीं होती जो दिखाती है,

असल आँख तो वो होती है जो दीखते

हुए को ठीक ठीक समझ पाने की कैपेसिटी

पैदा करती है। एक नजर.....


मौसम-बेहद सुहावना

आसमान- साफ़ , हल्का नीला

द्रश्य- एक पहाड़ी का

साउंड-चिडियों की चहचाहट


लॉन्ग शॉट -

एक व्यक्ति सफ़ेद कपडों में अलसाया हुआ

पहाड़ी पर लेटा हुआ। आसपास लहलहाते हुए

ढेर सारेसफ़ेद फूल हवा के चलने की तस्दीक़ करते

हुएखुशगवार मौसम का लुत्फ़ लेते उस व्यक्ति

को देखना एक सुखद अनुभूति.


मिड शॉट- व्यक्ति बड़ी लापरवाही से लेटा हुआ, बल्कि

सोया हुआ है। चिडियों की आवाज ज्यादा साफ़ और तेज

होती हुई। फूल और खूबसूरत लगते और तेजी से लहराते

हुए। सुखद अनुभूति और विस्तृत होती हुई।


क्लोज शॉट- दरअसल वो व्यक्ति सोया हुआ नहीं है

मारा हुआ है। उसका किसी ने सर कुचल दिया है।

उसके सर से खून की धार बह रही है। पहाड़ी से खून की

बूँदें टाप टाप टाप टपक रही हैं।

फूल अब भी लहलहा रहे हैं, चिडियां अब भी चहचहा रही

है, आसमान अब भी साफ़ है। लेकिन अब सुखद अनुभूति

कहीं नहीं है दूर-दूर तक।

जिंदगी क्या ऐसी ही नही है.....?


पिछले दिनों लखनऊ में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को सुनने के बाद.......




Saturday, January 3, 2009

शुभ होने की कामना


एक परिंदा धरती के छोर से उडा तो उड़ता ही गया।

रुका ही नहीं। जिंदगी की तरह चलता ही गया।

रस्ते में उसे कई मनोरम द्रश्यों ने

रोका। कई समंदर, कई बगीचे, कई लुभावने मंजर आए

लेकिन वो रुका नही, उड़ता गया। भूख, प्यास भी उसका

रास्ता रोक नहीं पाई। वो बढ़ता गया और एक दिन

उसने आसमान छु लिया। कुछ लोगों ने बताया की ये

वही परिंदा है कुछ दिनों पहले घायल होकर पड़ा था।

जिसे पंख कुछ जालिमों ने कतर डाले थे। पर इसकी हिम्मत

तो चकित करने वाली है। यह परिंदा धरती से आसमान की तरफ़

से इस उम्मीद से उड़ता गया ताकि ढूंढ सके खुशियों

की वो सौगात जिसे ईश्वर ने कहीं छुपा रखा है हमारा ही लिए

क्योंकि पिछले बरस के घाव बड़े गहरे हैं हम सबके

सीने पर। इस बरस हमें ज्यादा हिम्मत, ज्यादा सपनो और

ज्यादा खुशियों की तलाश है। तभी तो कह पाएंगे

हम एक दूसरे को nayaa saal mubaarak ho....