Saturday, December 31, 2011

स्वाति...अंतिम किश्त

(अचानक स्वाति के मुंह का स्वाद कसैला हो उठा.
क्या हुआ मैम, कॉफी अच्छी नहीं बनी क्या?
वैभव ने पूछा तो स्वाति मुस्कुरा दी. अच्छी है. बहुत अच्छी.
आपको देखकर ऐसा नहीं लगता. वैभव ने फ्रैंकी को कुतरते पलकें नीचे किए हुए ही कहा.
स्वाति चुप रही.)


आगे...
मैम एक बात कहूं अगर आप बुरा न मानें तो?
वैभव ने संकोच के साथ कहा.
स्वाति चुप ही रही.
मैं छोटा हूं आपसे फिर भी कहता हूं मैम आप परेशान न रहा करिये. अच्छा नहीं लगता.
स्वाति ने पलकें उठायीं. वैभव उसी तरह फ्रैंकी को कांटे से काटने की झूठमूठ की कवायद कर रहा था.
क्या हुआ? स्वाति ने उसकी आंखों में देखना चाहा. मैं हूं. तुम्हें क्या हुआ?
स्वाति ने वैभव की आंखों में कुछ बादलों के टुकड़े तैरते देखे.
कुछ नहीं. वैभव ने खुद को छुपाना चाहा.
अरे...स्वाति को माजरा कुछ समझ नहीं आया.
मैं ठीक हूं वैभव. डोंट वरी. आई एम फाइन. तुम मेरी इतनी चिंता क्यों करते हो?
उसने प्यार से वैभव के बालों पर उंगलियां फिरा दीं.
एक बात बतायेंगी...?
वैभव ने सर झुकाये-झुकाये ही कहा.
क्या?
स्वाति अपनी आवाज को यथासंभव हल्का बनाने की कोशिश कर रही थी. असल में वो किसी इमोशनल क्राइसिस में अब नहीं पडऩा चाहती थी.
आपका डिवोर्स क्यों हुआ? आप जैसी स्त्री के साथ कैसे नहीं निभा पाया कोई...कहते-कहते वैभव की आवाज डूबने सी लगी.
हो सकता है मैं ही न निभा पाई हूं. और डिवोर्स इतनी बुरी चीज भी नहीं है कि उसके चार बरस बाद भी उसका मातम मनाया जाए.
बल्कि मेरे लिए तो यह जिंदगी जीने के दूसरे मौके जैसा है. मैं खुश हूं
लेकिन आपके आसपास उदासी की एक पर्त रहती है. मुझे लगता है आप दुनिया की सारी खुशियों की हकदार हैं. दुख आपको छूकर भी नहीं गुजरना चाहिए. कभी भी नहीं. इस बार वैभव की आवाज वाकई रुंध गई थी.
वैभव....आई एम फाइन.
स्वाति को अचानक तृप्ति की बात याद आ गई कि वैभव का क्रश है आप पर. अरे हां, यह बात तो वैभव की फियांसी शांभवी ने भी उससे कही थी. तो क्या सचमुच. स्वाति हैरत में थी. वैभव...जस्ट अ लिटिल किड...वो मन ही मन सोच रही थी.
बट आई एम नॉट फाइन. आप बताइये ना क्या हुआ था?
कहां क्या हुआ था?
आपका डिवोर्स क्यों हुआ?
जाने दो ना वैभव. वो बीता हुआ कल है. मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है. एक रिश्ता था जिसे प्यार से सींचा था. फिर वो जाने कैसे रिसने लगा. उस रिसने में हम भी रिसने लगे. और तब हम अलग हो गये. बस. रिश्ते जब जिंदगी पर भारी पडने लगें, तो उनसे आजाद होना जरूरी है. मुझे रवि से कोई शिकायत नहीं है. वाकई.
स्वाति खुद हैरत में थी कि वैभव को वो इस तरह क्यों कनविंस कर रही है. अचानक उसे महसूस हुआ कि वो वैभव को नहीं खुद को कनविंस कर रही है शायद.
जब हम दूसरों से बात करते हैं, तो खुद से भी तो बात करते ही हैं. स्वाति अपनी ही आवाज को बार-बार सुन रही थी.
अब मैं चलती हूं वैभव. काफी देर हो गई है. स्वाति ने सैंडल पहनते हुए कहा.
मैं आपको छोड़ दूं? वैभव ने पूछा.
अरे नहीं. मैं चली जाऊंगी.
रात के एक बज रहे हैं मैम. आपका अकेले जाना ठीक नहीं है.
इट्स ओके. मुझे कुछ नहीं होगा. वैसे भी अब मुझे अकेले ही चलने की आदत हो चली है.
उसने वैभव के गाल थपथपाये. मेरी चिंता मत किया करो बच्चे.
जी. वैभव ने अपनी न$जरें उसके चेहरे पर टिका दीं. अब भी उन आंखों में बादल तैर रहे थे.
स्वाति ने उसके चेहरे से अपनी न$जरें हटा लीं.
रास्ते भर उसके दिमाग में रवि, वैभव और आनंद गड्डमगड्ड होते रहे. उसकी आंखों में भी कई बादल तैरने को आतुर हो उठे.
तनहाई की ये कौन सी मं$िजल है र$कीबों.......कार के म्यूजिक सिस्टम पर यह ग$जल बाई डिफाल्ट बजे जा रही थी. स्वाति ने झटके से टर्न लिया तो ग$जल की तनहाई को मानो खरोंच आ गई.
ओ आनंद. व्हेयर आर यू...उसके मुंह से अनायास ही निकल गया. उसे आनंद बेतरह याद आ रहा था.
न चाहते हुए भी उसकी कार उस बिल्डिंग के सामने खड़ी थी. दुनिया जिसे उसका घर कहती थी. अपार्टमेंट की ऊंची दीवारें ऊंघ रही थीं. वॉचमैन के हिस्से की जिम्मेदारी चांद ने अपने सर ले रखी थी.
तेरस का चांद, स्वाति देखकर मुस्कुराई.........मुस्तैद पहरेदार. गाड़ी का हॉर्न सुनकर वॉचमैन ने दौड़कर गेट खोला.
बोझिल कदमों से वो कमरे की तरफ बढ़ी. कमरे का लॉक खोलने को हुई तो देखा आनंद ऑलरेडी कमरे में है. उसे हैरत भी हुई और खुशी भी. न जाने क्यों इस पल उसे आनंद का यूं कमरे में होना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत का होना लगा. आनंद की शायद आंख लग गई थी इंतजार करते-करते.
दरवाजा खुलने की आवाज से वो हड़बड़ा कर उठा. अरे, आ गईं तुम. उसने मुस्कुराकर स्वाति का वेलकम किया.
स्वाति बदले में सिर्फ मुस्कुराई.
कुछ खाओगी?
आनंद ने बिस्तर से उठने का उपक्रम करते हुए पूछा.
नहीं, रहने दो. स्वाति ने उसे रोका.
तुम कब आये?
दो घंटे हो गये.
फोन कर देते.
मैंने सोचा क्यों डिस्टर्ब करूं. काम हो जायेगा तो आ ही जाओगी.
स्वाति आनंद की बाहों में गिरकर रो लेना चाहती थी. कितना दर्द देता है ये आदमी. इसे क्या सचमुच पता नहीं. दर्द की एक लकीर उसके चेहरे पर खिंच गई जो आनंद को न$जर आ गई शायद.
परेशान हो?
नहीं तो...स्वाति ने अपना चेहरा सख्त रखते हुए कहा.
काम कैसा रहा?
ठीक.
उन दोनों के भीतर क्या चल रहा था क्या नहीं लेकिन जो कुछ भी था वो संवादों में तो बिल्कुल नहीं था. स्वाति बाथरूम में चेंज करने गई तो आनंद ने सिगरेट सुलगा ली.
वो अनमनी सी रात थी. जो कहा जाना था वो कहीं मौन में रख छोड़ा था दोनों ने. संवादों में वे खुद को ढंक रहे थे.
स्वाति लौटी तो किचन में बेवजह चली गई.
बड़ी देर तक वहीं खड़ी रही. उसकी आंखें बार-बार भर आ रही थीं और वो आनंद को अपने आंसू नहीं दिखाना चाहती थी.
क्या कर रही हो? आनंद ने पूछा.
कुछ नहीं दवा ढूंढ रही हूं.
फिर से दर्द उठा है क्या?
हां.
तुम अच्छे फिजीशियन को दिखा लो यार. ये रोज-रोज का दर्द ठीक नहीं है.
स्वाति चुप रही. वो जानती है उसके दर्द का इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है.
आखिर आनंद ने किचन में जाकर स्वाति को उसके आंसुओं के साथ पकड़ ही लिया.
क्यों इतना परेशान रहती हो. मैं हूं ना?
आनंद ने उसका चेहरा अपनी ओर किया. आंसुओं से भरा चेहरा.
आनंद के इतना कहते ही स्वाति का अब तक संभाला, सहेजा सारा धीरज छूट गया. कल रात से बूंद-बूंद उसने खुद को सहेजा था. कल रात से ही क्यों न जाने कितने बरसों से. नहीं रोयेगी वो कभी किसी के सामने तय किया था उसने...लेकिन आज सब छूट गया.
आनंद की एक छुअन ने उसे उससे ही अजनबी कर दिया. उस रात स्वाति ने खुद को अपने आंसुओं से मांजा था और आनंद के प्यार से चमकाया था.
सुबह के चार बज रहे थे और खिड़की के शीशे के पार से चांद उन दोनों को देखने की जुगत में ताकाझांकी कर रहा था.
स्वाति की उंगलियां आनंद की पीठ पर अपना नाम लिख रही थीं. यह उसका प्रिय काम है. आनंद को इसकी आदत है. वो कई बार कुछ और लिखती है और आनंद से बूझने को कहती है बोलो क्या लिखा? आनंद अक्सर गलत ही बूझता था बस जब वो स्वाति लिखती तब वो झट से बूझ लेता था.
चलो मेरा नाम तो पढ़ लेते हो अपनी पीठ पर. स्वाति चुपके से उन अनलिखे अक्षरों पर एक चुंबन रख देती. ये सरकारी मुहर लग गई है आप पर हमारी. समझे.
समझ गया. आनंद हंस देता.
सुनो. आनंद ने उसे खींचकर अपनी बाहों में लिया.
बोलो. स्वाति ने उसकी नाक पकड़ते हुए कहा.
ध्यान से सुनो मेरी बात. ध्यान से.
मैं तुम्हारी बात ध्यान से ही सुनती हूं...बोलो. नाक पकड़े होने के कारण आनंद की आवाज काफी कॉमिक हो रही थीे और स्वाति का हंसते-हंसते पेट फूला जा रहा था.
मजाक बंद करो. ध्यान से सुनो मेरी बात. आनंद ने उसका चेहरा अपने चेहरे के एकदम करीब लाते हुए कहा.
मैं अमेरिका जा रहा हूं. एक साल के लिए.
मैंने जिस रिसर्च के लिए अप्लाई किया था उसमें मेरा सिलेक्शन हो गया है.
अचानक उस कमरे में बड़ा सा मौन दाखिल हो गया. स्वाति एकदम खामोश हो गई.
ये क्या है, खुशखबरी?
स्वाति ने हैरत से पूछा?
जो भी है तुम्हें जानने का हक है.
स्वाति चुप रही.
हक? सिर्फ जानने का?
स्वाति मन ही मन हंसी.
आरती भी जा रही है?
आनंद चुप रहा.
यानी जा रही है. स्वाति ने आनंद के मौन को बांचा.
तुम्हारी बच्चे वाली ख्वाहिश का मैं क्या करूं बोलो? स्वाति मेरी जान, उन सपनों में खुद को मत भटकाओ जिनके देखने से आंखें दुखने लगें. तुम्हारा काम तुम्हें ऊंचाइयां देगा. तुम्हें भरेगा. अंदर से, बाहर से. बच्चे वच्चे के बारे में सोचना बंद करो. मेरे बारे में भी. अपने बारे में सोचो. सिर्फ अपने बारे में. आनंद बोले जा रहा था, स्वाति उसे सुन नहीं पा रही थी. बस देख रही थी. बीच में एक नदी उफना रही थी, जिसे स्वाति पार करके आनंद के सीने से लग जाना चाहती थी. लेकिन नदी का प्रवाह इतना तेज था कि स्वाति को आनंद के करीब पहुंचने ही नहीं दे रहा था. रात के साथ न जाने क्या-क्या गुजर गया था उस रोज.
सुबह एकदम खाली हाथ आई थी. स्वाति ने कॉफी का पानी चढ़ाया. कॉफी की खुशबू फैल रही थी. उसी खुशबू के बीच उसने अभी-अभी जाग रहे शहर को देखा. एक औरत अपने बच्चे के साथ सड़क पार कर रही थी. एक बूढ़ा अखबार पलट रहा था. बच्चे स्कूल जा रहे थे. अचानक स्वाति को लगा कि सड़क पर बच्चे ही बच्चे हैं...छोटे-बड़े बच्चे ही बच्चे. लड़कियां लड़के. पूरा शहर बच्चों से भर गया है. बच्चों की खिलखिलाहटों से गूंज उठा है. उसे यह मंजर अपनी किसी फिल्म का दृश्य सा लगा. चाय की सिप लेते हुए उसने आइने में अपना चेहरा देखा, उसे वहां भी बच्चा न$जर आया. अचानक वो मुस्कुरा उठी.
कंट्रासेप्टिव पिल्स अब भी फ्रिज पर पड़ी थीं...
तभी मोबाइल पर वैभव का मैसेज चमका.
गुड मॉर्निंग मैम...


Friday, December 30, 2011

स्वाति- अगला भाग

(कॉफी की तलब ज्यादा थी या मन का अनमनापन कहना मुश्किल था. लेकिन कॉफी की तलब का उसके पास इलाज था सो अपने जिस्म को उठाकर किचन तक ले जाना ही उसने मुनासिब समझा. )
आगे...
किचन से झांकने पर उसे शहर न$जर आता था. किचन में काम करते हुए शहर को हांफते हुए देखना उसके लिए बेस्ट टाइम पास था. लेकिन रात के दो बजे शहर हांफ नहीं, ऊंघ रहा था.
तभी उसकी न$जर फ्रिज के ऊपर रखे मेडिसिन बॉक्स पर पड़ी. वो मुस्कुरा उठी. कंट्रासेप्टिव पिल्स के रैपर उसमें से झांक रहे थे. उसे हर गोली में आनंद का चेहरा न$जर आने लगा.
बेड पर पड़ा मोबाइल शायद चीख-चीखकर थक गया था. रात के दो बजे भला कौन फोन करेगा उसने झुंझलाकर देखा. अरे आनंद की कॉल?
वो तो देर रात कभी फोन नहीं करता.
वो वैसे भी कम ही फोन करता है. क्या बात है? स्वाति को चिंता हुई. पलटकर फोन करने की हिम्मत नहीं हुई. आनंद ने साफ मना किया है कि वो उसे फोन और मैसेज न करे क्योंकि फोन कई बार उसकी पत्नी भी उठा लेती है. स्वाति का मन असमंजस में घिर गया. आरती के होते आनंद क्यों उसकी जिंदगी में आया. क्यों आने दिया उसने उसे. कितना युद्ध किया था स्वाति ने खुद से. लेकिन एक रोज आनंद ने उसके सारे युद्ध जीत लिये थे. वैसे भी स्वाति अपने समझदारियों का बोझ उठाये-उठाये थक चुकी थी. आनंद का उसके पास होना उसे जीवन का सबसे बड़ा सुख लगता था, वो सुख भी कितने बंधनों में बंधकर पहुंचा है उस तक. नैतिकताओं के तमाम पन्ने उसके जेहन में फडफ़ड़ा रहे थे. प्रेम के आगे सारे तर्क बौने पड़ जाते हैं. इसी उधेड़बुन में स्वाति को नींद ने धर दबोचा.
सुबह उस रोज जरा देर से आई थी. करीब दस बजे. कामवाली बाई के साथ.
दरवाजे पर किर्रर्रर्रर्र की आवाज के साथ एक कर्कश सुबह ने स्वाति को झिंझोड़कर उठाया.
क्या मैडम, इत्ती देर तक सोती हो? बीना ने आते ही उसे अखबार के साथ ताना टिकाया.
स्वाति ने अखबार को एक तरफ पटका और फिर से चादर तान ली.
लेकिन जल्द उसे उठना ही पड़ा. स्टूडियो से फोन आ चुका था. उसे वहां जल्दी पहुंचना था. उसकी डाक्यूमेंट्री की एडिटिंग का काम चल रहा है. जल्दी से एडिटिंग कंप्लीट नहीं हुई तो इस बार भी उसकी फिल्म जा नहीं पायेगी सिलेक्शन के लिए.
जल्दी-जल्दी नहा धोकर उसने सामान पैक किया. भूख के ख्याल को फ्रिज में पड़े सैंडविच के साथ वापस अंदर भेज दिया.
वैभव को फोन करके स्वाति ने फटाफट स्टूडियो आने को कहा और निकल पड़ी दिन के सीने पर बंदूक रखकर काम की धज्जियां उड़ाने. जितना समय शूटिंग में नहीं लगता, उससे ज्यादा तो एडिटिंग और बाकी कामों में लग जाता है. स्वाति सीढिय़ां उतरते-उतरते सोच रही थी. बीती रात का ख्याल दिमाग के बैकअप में लगातार जमा हुआ था, जिसे सामने आने की मनाही स्वाति ने खुद की थी.
मैम, आना को तेज बुखार है. आज नहीं आ पाऊंगी...ये तृप्ति का स्वर था.
स्वाति खामोश रह गई. आना का नाम आते ही उसके पास चुप लगा जाने के सिवा कोई चारा नहीं रहता. तीन बरस की मासूम आना का चेहरा उसकी आंखों के सामने घूम गया. आना तृप्ति के साथ कई बार स्टूडियो आती है. मां को काम करते हुए देखती है. स्टूडियो के सभी लोगों से उसकी जान-पहचान हो गई है. आना में स्वाति को अपने उदास बचपन की कोई तस्वीर न$जर आती है. पांच बरस की उम्र में स्कूल से अकेले आना. दरवाजे पर बड़ा सा ताला. पड़ोस वाली आंटी से ताला खुलवाकर घर के अंदर जाना. फिर दिन भर आवारगी. इसके-उसके घर झांकना. वो खाना खाये, न खाये कपड़े बदले, न बदले कोई कुछ कहने वाला नहीं था. मां सुबह ही काम पर निकल जाती थी और देर रात लौटती थी. पापा दूसरे शहर में रहते थे. मां कैसरोल में रखे पराठे और सब्जी के रूप में अपनी ड्यूटी पूरी कर जाती थी. मां को ऐसा करने में कितनी पीड़ा होती थी, यह उसके बचपन में कहीं दर्ज नहीं. शायद मां अच्छी अभिनेत्री थी. उसका चेहरा हमेशा सख्त रहता था. उसके गले से लिपट जाने का ख्याल जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ देता था.
तृप्ति तुम आना को पूरा वक्त दिया करो. स्वाति उससे अक्सर कहती.
मैं देती हूं मैम. क्वालिटी टाइम...तृप्ति के चेहरे पर तृप्ति के भाव उभरते. वो आना को भींच लेती अपनी बाहों में...आना अपनी मॉम के गाल पर मीठी सी किस जड़के उसकी बात का समर्थन करती.
स्वाति की आंखें भर आतीं उनके इस लवी-डवी सीन को देखकर. उसकी स्मृतियों में क्यों ऐसा एक भी दृश्य नहीं है. शायद हमारे पैरेंट्स को अपने बच्चों को खुलकर प्यार करना नहीं आता था. अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने को ही वे प्यार समझते रहे.
क्या हुआ मैम...काम शुरू करें?
वैभव की आवाज से स्वाति की स्मृतियों की यात्रा को विराम मिला.
तृप्ति नहीं आ रही है. आना को बुखार है. स्वाति ने बिना किसी भाव के कहा.
अरे, तो काम कैसे होगा? वैभव ने झुंझलाकर कहा.
तुम्हें पूछना चाहिए कि आना को क्या हुआ? कैसी है वो?
स्वाति ने उसे घूरकर देखा.
वैभव झेंप गया. मैम...वो...मेरा ध्यान काम पर था.
अच्छा है काम पर ध्यान देना लेकिन जिंदगी से बढ़कर काम नहीं है ना?
मैम, बच्ची के पापा भी तो उसका ख्याल रख सकते हैं. काम भी तो जरूरी है ना. आफ्टर ऑल प्रोफेशनल वल्र्ड है. फिर क्यों बच्चों की बीमारी मां की जिम्मेदारी ही है. जमाना बराबरी का है ना? वैभव को मौका मिल गया.
याद रखना. तुम्हारी भी शादी होने वाली है. स्वाति ने चुटकी ली.
याद रखूंगा मैम. नहीं कर पाया अगर तो कह दूंगा शांभवी से कि घर बैठो. नौकरी और घर दोनों के साथ नाइंसाफी करने कोई जरूरत नहीं.
ओह...तो यह फैसला भी आप ही करेंगे. आप क्यों नहीं छोड़ेंगे नौकरी, शांभवी क्यों? उसका करियर, करियर नहीं है?
वैभव अब फंस चुका था.
अरे मैम, मैं निभा लूंगा.
तृप्ति भी तो निभा रही है ना?
आप तो उसी का साइड ले रही हैं. काम तो सफर कर रहा है ना? मुझे क्या मैं भी घर जा रहा हूं. वैभव तुनक गया.
नहीं, तृप्ति वाला काम भी हम दोनों ही करेंगे. न हो तो थोड़ी देर को शेखर को बुला लेते हैं. काम पूरा करना है. इंट्री सब्मिट करने की लास्ट डेट ओवर होने वाली है.
शेखर तो बाहर गया है मैम. फिर पिछला काम कहां तक हुआ है, कहां से शुरू करना है यह तो तृप्ति को ही पता है.
क्यों तुम्हें भी तो पता है ना. तुम थे उसके साथ. स्वाति ने डपटा.
काम पूरा करते हैं.
एक बार स्टूडियो में घुसे तो दिन रात का पता ही नहीं चलता जमुहाई लेते हुए वैभव ने कहा. मैम...फस्र्ट एडिटिंग तो कम्पलीट हो गई. फिल्म बढिय़ा आई है. खासकर वो जंगलों वाले सीन तो कमाल हैं. दैट्स व्हाई आई अडोर यू मैम. यू आर जस्ट ब्रिलिएंट...वैभव ने सर झुकाकर नाटकीय अंदाज में स्वाति से कहा. बस...बस...हो गया. स्वाति खिलखिला दी.
काम हो जाने के बाद हंसी में एक हल्कापन सा आ जाता है. वो रूई के फाहों की तरह उड़ती फिरती है. स्वाति की हंसी भी रुई की तरह उड़ती फिर रही थी स्टूडियो में.
मैम, अपना असिस्टेंट बना लीजिए प्लीज. वैभव ने मनुहार की.
सोचेंगे...स्वाति ने बड़ी अदा से बालों को पीछे झटककर कहा.
फिलहाल बहुत भूख लगी है. कुछ खाने का जुगाड़ किया जाए. काम अगर ठीक से हो जाए तो भूख भी खुलकर लगती है.
वैभव दो वेज फ्रेंकी पैक कराकर लौटा तब तक स्वाति टेबल पर सर रखकर झपकी ले चुकी थी.
वैभव, अब मैं निकलूंगी. घर जाकर खाऊंगी. बहुत नींद आ रही है.
अरे मैम, प्लीज खाकर जाइये ना. मैं अकेले कैसे खाऊंगा.
क्यों, अकेले नहीं खाते क्या कभी?
खाता हूं पर अभी मन नहीं है. और आप भी खायेंगी नहीं. जाकर फ्रिज में डंप कर देंगी.
वैभव अगर मैंने अभी खा लिया न तो मैं ड्राइव नहीं कर पाऊंगी. मुझे अब जाना होगा.
तो शंकर काका छोड़ आयेंगे ना? वैभव ने मनुहार की.
कहां उन्हें परेशान करेंगे. सोने दो बेचारे को. बारह बज रहे हैं रात के.
बारह...कहते-कहते स्वाति का चेहरा बुझ गया. कल रात के बाद एक बार भी आनंद का फोन नहीं आया. कोई मैसेज भी नहीं.
चलो, अच्छा खाते हैं. कॉफी बना सकते हो? स्वाति ने आनंद के ख्याल को झटकते हुए कहा.
जरूर. वैभव खुश हो गया.
खाते-खाते स्वाति का मन बेचैन हो उठा.
क्यों कोई फोन नहीं किया आनंद ने? वो हमेशा ऐसा क्यों करता है? खालीपन की एक टीस सी उठी उसके मन में. रात के सीने को चीर देने वाली चीख उसके गले में फंसी थी.
अचानक स्वाति के मुंह का स्वाद कसैला हो उठा.
क्या हुआ मैम, कॉफी अच्छी नहीं बनी क्या?
वैभव ने पूछा तो स्वाति मुस्कुरा दी. अच्छी है. बहुत अच्छी.
आपको देखकर ऐसा नहीं लगता. वैभव ने फ्रैंकी को कुतरते पलकें नीचे किए हुए ही कहा.
स्वाति चुप रही.
जारी... 

Friday, December 23, 2011

स्वाति

- प्रतिभा कटियार 
(कल के लिए पत्रिका के दिसंबर अंक में छपी इस कहानी को ब्लॉग पर सहेज रही हूँ बस )

सड़कें किसी मुर्दा देह की तरह ठंडी और अकड़ी हुई पड़ी थीं. उन पर रेंगने वाले लोग और धमाचौकड़ी मचाती गाडियां मानो सीने पर प्रहार करके मुर्दे की सांसें लौटा लाने की कोशिश कर रहे हों. नाकाम कोशिश. 

दिसंबर की सर्द रात में शहर की एक ऐसी ही मुर्दा सड़क पर चलते हुए स्वाति ने आनंद को चूम लिया था. अचानक सड़कों की सांसें मानो लौट आई थीं. वे फटी आंखों से उन्हें देख रही थीं. चूंकि यह कार्रवाई महज कुछ सेकेंड्स में संपन्न हो गई थी इसलिए सिवाय उस कचहरी के पास वाले पीपल के पेड़ के, रामआसरे मिठाई वाले के बंद शटर और अभी-अभी अपनी मुर्दगी छोड़ लौटी सड़क के इस घटना की किसी को भनक भी न मिली.

आनंद के भीतर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ा कहना जरा मुश्किल है क्योंकि आनंद बाबू खुद को छुपाकर रखने वाले प्राणियों में से हैं. अपनी शख्सियत पर बड़ा सा ताला लटकाकर रखते हैं वो. उनके होठों के आसपास एक मुस्कुराहट को जरूर देखा गया.
दोनों के कदम एक लय में बढ़ रहे थे. स्वाति ने अपने शॉल को मजबूती से कसते हुए कानों को बांधा. ठंड खूब बढ़ गई है नईं?
स्वाति ने आनंद से पूछा.
अभी-अभी कम हुई है कुछ. 
आनंद ने शरारत से कहा. 
अच्छा? स्वाति हंस दी.
काफी दूर तक सन्नाटा उनके साथ चलता रहा.
आनंद...मुझे कुछ कहना है. 
स्वाति ने सन्नाटे को परे धकेलते हुए कहा.
आनंद को स्वाति की शरारतों की तो आदत थी, उसके खिलंदड़ेपन की, उसके धौल-धप्पों की भी लेकिन उसकी गंभीर आवाज से वो डर जाता था. 
बोलो? आनंद ने उसके चेहरे में वो तलाशना चाहा, जिसे कहने के लिए स्वाति शब्द तलाश रही थी. चेहरा एकदम निर्विकार था. वहां कोई भाव नहीं था. 
मैं मां बनना चाहती हूं. स्वाति ने एक झटके में अपना वाक्य पूरा किया और खुद को खामोशी की चादर में समेट लिया.
ओह...ये क्या हुआ, सोचते हुए सड़क वापस अपने आलस के खोल में मुर्दा होकर सोने चली गई. मानो उसे यकीन हो कि अब यहां कुछ भी ऐसा नहीं बचा जिसे देखने के लिए उसे अपनी नींद खराब करनी चाहिए. 
गहराती रात में स्वाति की ये ख्वाहिश मानो पूरी फिजा में तैर गई. सर्द लहर का एक झोंका दोनों की हड्डियों तक को कंपा गया. 
घर चलें? आनंद ने कहा. 
स्वाति की आंखें भर आईं जिसे उसने हमेशा की तरह समेट लिया.
ठीक है? 
उसने आनंद की ओर मुस्कुरा कर देखा. ये विदा की बेला के पल थे. आनंद से उसकी मुलाकातों का अंत अक्सर ऐसे ही होता है. अचानक जैसे कोई राग विखंडित हो गया हो. वो अचानक बातों को बीच में अधूरा छोड़कर चल देता है. फोन काट देता है. स्वाति पहले लड़ती थी उसकी इन हरकतों पर लेकिन अब उसे इसकी आदत हो गई है.
चलो तुम्हें छोड़ दूं?
नहीं, मैं चली जाऊंगी. तुम जाओ. स्वाति ने आनंद की आंखों में झांकते हुए कहा. 
ठीक है. मिलते हैं फिर. बाय. 
विदा की औपचारिकताएं अगर ढंग से न निभाई जाएं तो मिलन का सारा मजा जाता रहता है. एक किरकिराहट सी शामिल हो जाती है पूरी मुलाकात में. आनंद उस मुर्दा सी सड़क पर स्वाति की ख्वाहिश के साथ उसे अकेला छोड़कर चला गया. 
स्वाति अपने कमरे में लौट आई थी. कमरा जिसे लोग उसका घर कहते हैं. जिस पर उसके नाम की चिठ्ठियाँ  और पार्सल आते हैं. उसने कमरे की बाजुओं में खुद को सौंप दिया. बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई. 
सर्दी की रातों में कोहरे की चादर के बीच यूं सड़कों पर टहलना उसे बहुत पसंद है. वो कोहरे की खुशबू को अपने भीतर भर लेती है. उसी खुशबू में कॉफी की खुशबू मिक्स करना उसे काफी रोमैंटिक लगता है. लेटे-लेटे ही स्वाति ने सैंडल उतारकर फेंके और जीन्स की बटन खोलकर कमर को जरा राहत दी.

कॉफी की तलब ज्यादा थी या मन का अनमनापन कहना मुश्किल था. लेकिन कॉफी की तलब का उसके पास इलाज था सो अपने जिस्म को उठाकर किचन तक ले जाना ही उसने मुनासिब समझा. 
जारी...

Monday, December 19, 2011

दर्द तो होता रहता है, दर्द के दिन ही प्यारे हैं

जब चाहा इकरार किया, जब चाहा इनकार किया
देखो, हमने खुद ही से, कैसा अनोखा प्यार किया.

ऐसा अनोखा, ऐसा तीखा, जिसको कोई सह न सके
हम समझे पत्ती पत्ती को, हमने ही सरशार किया

रूप अनोखे मेरे हैं और रूप ये तूने देखे हैं
मैंने चाहा, कर भी दिखाया, जंगल को गुलज़ार किया

दर्द तो होता रहता है, दर्द के दिन ही प्यारे हैं
जैसे तेज़ छुरी को हमने रह रहकर फिर धार किया

काले चेहरे, काली खुशबू, सबको हमने देखा है
अपनी आँखों से इन सबको, शर्मिंदा हर बार किया

रोते दिल हँसते चेहरों को कोई भी न देख सका
आंसू पी लेने का वादा, हाँ, सबने हर बार किया

कहने जैसी बात नहीं है, बात तो बिलकुल सादा है
दिल ही पर कुर्बान हुए, और दिल ही को बीमार किया

शीशे टूटे या दिल टूटे, खुश्क लबों पर मौत लिए
जो कोई भी कर न सका वह हमने आख़िरकार किया

'नाज़' तेरे जख्मी हाथों ने जो भी किया अच्छा ही किया
तूने सब की मांग सजाई, हर एक का सिंगार किया.

- मीना कुमारी

Thursday, December 15, 2011

तेरे होने से 'होना' जाना



वो बारिशों के गांव में रहती थी. बारिश की बूंदों पर पांव रखते हुए उसने बचपन की दहलीज को लांघा था. वो बारिश की बूंदों को हथेलियों में और आसमान से गिरती ओस को पलकों पर सहेजना सीख गयी थी. अपने दुपट्टे के किनारों में वो सुनहरी धूप के कुछ वक्फे बांधकर रखती थी. उसके इस हुनर से कुदरत भी नावाकिफ थी. वो जंगल के रास्ते होकर बारिश के गांव से पार जाती थी. गांव के उस पार जहां दूसरी दुनिया रहती थी. वो दुनिया जिसमें उसकी चाहतों का सूरज उगता था. वो दुनिया जहां पहुंचकर उसके चंपई गालों पर चमक पैदा हो जाती थी और उसे अपनी मुस्कुराहटों को काबू करने में खासी मशक्कत करनी पड़ती थी.

लड़के की एक झलक पाने के लिए वो रास्तों को अपने सर पर रखकर भागती फिरती थी. अपनी अंजुरियों में बारिश को समेटे वो उसके सामने अचानक जा खड़ी होती. अपने कंधे पर पड़ी बूंदों से भीगकर वो बिना न$जर उठाये मुस्कुरा देता था. उसकी कूची से जितने भी रंग बिखरे होते थे, लड़की की खिलखिलाती आवाज का जादू अपनी अंजुरी में समेटी बारिश से सब बहा देता. फिजाओं में खिलखिलाहटें तैरतीं और कैनवास पर बारिश. रंग पानी से झगड़ा करते लेकिन हार जाते और गहरे लाल रंग की लकीर कैनवास पर बिखर जाती. बाकी के सारे रंग उसके आसपास चुपचाप बैठ जाते. कैनवास के इस खेल से वो दोनों बेखबर थे.

एक-दूसरे की पीठ से पीठ टिकाये वो जाते हुए लम्हों पर अपने दस्तखत करते जाते. दिन के बीतने की आहट लड़की के जाने का संदेशा होती थी. वो दिन को समेटकर चल पड़ती फिर जंगल के रास्ते बारिश के गांव. लड़का उसे हंसकर विदा देता और नया कैनवास उठा लेता. उस रोज उसने देखा कि लड़की की आंखों का काजल वहीं गिर गया है. उसने कैनवास पर उस काजल से काली रात रचनी चाही लेकिन जाने कैसे कैनवास पर दो सूनी आंखें चमकने लगी. लड़का घबरा गया. उसने अपनी आंखें बंद कर लीं. सारी रात वो बरसती बूंदों को अपनी पलकों पर समेटता रहा. सुबह का इंतजार करता रहा. लड़की रोज की तरह अंजुरी में बारिश लेकर आई लेकिन लड़के के तमतमाते चेहरे को देख उसने बारिश को सुभीते से दरवाजे पर रख दिया. दुपट्टे से हाथ पोछे और लड़के के माथे को छुआ. तपता हुआ माथा. लड़की की छुअन से लड़के ने आंख खोली. वो बेहद घबराया हुआ था. उसने लड़की कसकर भींच लिया.
'सुनो, मैं अब तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा. किसी की नहीं सुनूंगा...समझीं तुम. तुम्हारी भी नहीं...'
लड़की हंस दी.
'तो मैं कहां जहां रही हूं तुम्हें छोड़कर.'
'कल तुम्हारी आंखों का काजल यहां गिरा था. मैंने सोचा उससे रात रचता हूं. मुझे यह ख्याल ही नहीं रहा कि इसके बगैर तुम्हारी आंखें कितनी सूनी हो जाएंगी.'
'बस, इतनी सी बात. पगले, मेरी आंखों की चमक तुम्हारे होने से है किसी काजल से नहीं.'
'फिर मुझे डर क्यों लगा?'
'ये डर तुम्हारी कमजोरी है कि तुम मुझे खो दोगे.'
'तुम नहीं डरतीं?'
'नहीं. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हें कभी नहीं खोने वाली.'
'क्यों नहीं डरतीं तुम?'
'क्योंकि मैं यह जानती हूं कि यह कायनात मुझसे है, मैं इस कायनात से नहीं. जानते हो मुझमें यह भरोसा कहां से आया?'
'कहां से? ' लड़का उसके दुपट्टे में लिपटा बैठा था.
'मेरे बाबा ने एक बार कहा था कि जो इंसान प्यार में होता है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. जिस दिन मैं तुमसे मिली मेरे सारे डर जाते रहे.' लड़की ने उसकी नाक खींचते हुए कहा.
'तुम्हें ठंड लग रही है ना?'
लड़के ने 'हां' में सर हिलाया.
'जिस दुपट्टे में छुपे बैठे हो उसके कोने में धूप के टुकड़े बंधे हैं. एक टुकड़ा खोल कर पहन लो. एकदम ठीक हो जाओगे.'
'धूप पहन लूं?'
'हां. जैसे मैं बारिश पहनती हूं.'
'तुम मुझे अपनी पनाह में ले लो ना?' लड़के ने अब समर्पण कर दिया.
'चलो ले लिया.' लड़की हंस दी.
दूर कहीं अंगीठी जल रही थी. लड़की उस आग की ओर चल दी.
'कहां जा रही हो?'
'तुम्हारे लिए आग लेने?'
थोड़ी ही देर में वहां आग जलने लगी. लड़के की नाक में कहवे की खुशबू घुलने लगी. उसने कैनवास की ओर विरक्ति से देखा और लड़की की ओर आसक्ति से.
'अब हम साथ-साथ रहेंगे. हमेशा.' लड़के ने घोषणा की. लड़की मुस्कुराई. उसी पल उन दोनों ने उस जलती आग को साक्षी मानकर वक्त के उस लम्हे पर अपने प्यार के हस्ताक्षर किये.

यह बारिश और धूप के बीच का संबंध था. छाया और धूप के बीच का. दिन और रात के बीच का, कहे और अनकहे के बीच का. वक्त के वो सारे लम्हे जिन पर उन दोनों अपने प्यार की मुहर लगायी थी, सदियों के लिए सुरक्षित हो गये. वो लम्हे अब भी वहीं ठहरे हुए हैं. उनकी खुशबू अब भी फिजाओं में तैर रही है. मौसम के हर रंग में उन दोनों का प्यार मुस्कुराता है.
दूर कहीं गांव से कोई औरत लालटेन लिए आ रही थी. ये वही लड़की है जो हर प्यार करने वाले को राह दिखाती है सदियों से.

Wednesday, December 7, 2011

मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूं शिकायत हो...




इन दिनों नाराज हूँ. किससे, पता नहीं. क्यों, पता नहीं. नाराजगी के मौसम में अक्सर साहिर को याद करती हूँ. शायद मैं उनसे भी नाराज ही हूँ और वो दुनिया से नाराज रहे. साहिर मेरे महबूब शायर हैं. अमृता आपा की जानिब से मैं उनसे झगडती भी हूँ और मोहब्बत भी करती हूँ. समंदर के इन्ही किनारों पर टहलते हुए उस रोज शिद्दत से अमृता आपा की याद आई थी. साहिर की भी...(तस्वीर- माधवी गुलेरी )

तुम्हें उदास सा पाता हूँ मैं कई दिन से
ना जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम
वो शोख़ियाँ, वो तबस्सुम, वो कहकहे न रहे
हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम
छुपा छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी
ख़ुद अपने राज़ की ताशीर बन गई हो तुम


मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो
उम्मीद क्या है बस एक पास-ओ-पेश है कुछ भी नहीं
मेरी हयात की ग़मग़ीनीओं का ग़म न करो
ग़म हयात-ए-ग़म यक नक़्स है कुछ भी नहीं
तुम अपने हुस्न की रानाईओं पर रहम करो
वफ़ा फ़रेब तुल हवस है कुछ भी नहीं


मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूं शिकायत हो
मेरी फ़ना मीर एहसास का तक़ाज़ा है
मैं जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुम को
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है
शिकस्त साज़ की आवाज़ में रू नग़्मा है


मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
ये तुम ने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूँ
मगर मुझे बता दो कि क्यूँ उदास हो तुम
हफ़ा न हो मेरी जुर्रत-ए-तख़्तब पर
तुम्हें ख़बर है मेरी ज़िंदगी की आस हो तुम


मेरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा
मगर ख़ुदा के लिये तुम असीर-ए-ग़म न रहो
हुआ ही क्या जो ज़माने ने तुम को छीन लिया
यहाँ पर कौन हुआ है किसी का सोचो तो
मुझे क़सम है मेरी दुख भरी जवानी की
मैं ख़ुश हूँ मेरी मोहब्बत के फूल ठुकरा दो


मैं अपनी रूह की हर एक ख़ुशी मिटा लूँगा
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता
मैं ख़ूद को मौत के हाथों में सौंप सकता हूँ
मगर ये बर-ए-मुसाइब उठा नहीं सकता
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
निजात जिन से मैं एक लहज़ पा नहीं सकता


ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के बताना या कहना
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिस में
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा


ये शरहों पे रंगीन साड़ीओं की झलक
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशें
ये माल रोअद पे करों की रैल पैल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई


ये ज़ंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानून और ज़ब्ते की गिरफ़्त
ये ज़ीस्क़ ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म हैं बहुत मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज़ न दो...
- साहिर लुधियानवी

Saturday, December 3, 2011

अंतिम शरण्य



ये लहरों के समन्दर में जन्म लेने से पहले की कथा है. ये धरती पर पहली फसल उगने से पहले की कथा है. यह पहाड़ों पर गिरने वाली पहली बर्फ से भी पहले की बात है. ये किसी स्त्री की आँख में उगने वाले पहले आंसू से पहले की कथा है. ये कथा है इस दुनिया में कोई भी प्रेम कहानी शुरू होने और लिखे जाने से पहले की. असल में ये कोई कथा है ही नहीं. ये सिर्फ बात है. दो स्त्रियों की बात. शरद की रात में आसमान से झांकता चाँद उस रोज अलसाया सा बस आसमान में रखा हुआ था. वो रखे हुए ही लुभा रहा था. दुःख से भरी उस स्त्री को भी वो चाँद लुभा रहा था.

नंगे पैरों से विदेशी घास को रौंदते हुए इस दुनिया की हर चीज़ के प्रति उसका मन बेजार हुआ जाता था. उसे न जाने क्यों न जाने कहाँ ला खड़ा किया गया था. वो बस किसी यंत्र की तरह चलती जाती थी. इस बीच न जाने कितने ज्ञानी आये, कितने पाठ पढाये, कितने उपचार हुए लेकिन मन की बेजारी न ख़त्म होनी थी, न हुई. चाँद उसे देखकर मुस्कुरा दिया, 'तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता' उसने संकेत में कहा. लड़की ने भी सहमति में सर हिलाया.

तभी सफ़ेद वस्त्रों में एक भव्य स्त्री उसके सामने आई. लोग उनके पैरों में झुकने लगे. वो उन्हें आशीर्वाद देने लगी. अजीब द्रश्य था. लड़की ने उस स्त्री को हाथ जोड़कर प्रणाम किया. उस स्त्री ने नेह भरी नज़र डाली और सबको विदा होने का संकेत दिया. लड़की का हाथ किसी सखी की तरह हाथ में लेकर पूछा, क्यों परेशान हो? उस छुअन ने लड़की के मन को मुक्त किया...उसने बस इतना कहा, जीवन में होने का जी नहीं करता...

इसके बाद देर तक ख़ामोशी की चहलकदमी कमरे में होती रही. देर तक दोनों स्त्रियाँ रोती रहीं. उस रुदन में चीखना भी शामिल था, मारना भी, खुद को नोचना भी.

हम दुःख से भागना क्यों चाहते हैं. क्यों पीछा छुड़ाना चाहते हैं. क्या दुःख जीवन का हिस्सा नहीं. क्यों जी भर के रोने की इज़ाज़त नहीं. क्यों सुख से दुःख को हमेशा रिप्लेस करने को कहा जाता है. क्यों दुःख का जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए. वो दुःख जो किसी अपने से होकर आया है. वो दुःख जिसे भाग्य ने हमारे लिए चुना है. दोनों स्त्रियाँ खामोश थीं और ये सवाल हवा में तैर रहे थे.

तुम क्या करना चाहती हो? बूढी स्त्री ने पूछा.
मै जीवन की इस नदी के उस पार जाना चाहती हूँ?
क्यों? कौन है वहां?
कोई नहीं?
फिर?
पता नहीं. लेकिन जीवन में जी नहीं लगता.
तो मत लगाओ जी.
छोड़ दूं इस काया को?
हाँ, लाओ मुझे दे दो. तुम्हारी काया. पर एक बात कहूं. अपना मन मत देना किसी को. तुम्हारा मन अनमोल है. ऐसा निर्मल मन मैंने पहले नहीं देखा.
क्या करूँ इस निर्मल मन का?
जियो इसे.
मन को जीना आसान नहीं होता.
तो मुश्किल जियो.
इसके लिए देह में होना ज़रूरी है क्या?
नहीं, देह में होना नहीं अपने मन में होना. अपने मन को समझना है. अपनी देह से पार जाकर खुद को देखना है जीवन. तुम देह का त्याग करके भी जीवन से दूर नहीं जा सकोगी.
ये कैसी बात है?
हाँ, कुछ आत्माएं अभिशप्त होती हैं हमेशा जीवन में होने को. तुम उनमें से एक हो.
मेरा गुनाह?
तुम्हारा विशिस्ट होना.
इससे मुक्ति?
सेवा...अपने होने से दूसरों को सुख दो.
और मेरी मुक्ति? मेरा सुख?

ज्ञान की सारी परिभाषाएं चुक चुकी थीं. वो स्त्री भी रो रही थी. वो खुद मुक्ति की तलाश में थी. और अब उस चाँद रात के साये में एक नहीं दो आत्माएं मुक्ति की तलाश में छटपटा रही थीं. धम्मम शरणम् गच्छामि...की आवाज सुनाई दी थी तभी...सुना है अभी-अभी बुध्द गुजरे हैं यहीं से....जहाँ कोई दुःख से लड़ रहा है बुध्द वहीँ हैं...सचमुच...

Thursday, December 1, 2011

कोई प्यार काफी नहीं होता उम्र भर के लिए



'बीत जाएगी दुःख की रात
दर्द कम हो ही जाता है सबका
एक न एक दिन,
धीरे-धीरे कम होती जाएगी याद.
खामोश काली रातों में
नहीं चमकेंगी किसी की आँखें,
एक दिन आ जायेगा जीना
मेरे बिन,
यकीन मानो कोई प्यार
काफी नहीं होता उम्र भर के लिए'
इतना कहके उसने पीठ घुमाई थी
उसकी पीठ अब तक
आँखों से ओझल नहीं हुई
क्या उसको भी
अपनी पीठ पर कुछ नमी लगती होगी?