Saturday, November 20, 2021

इंतज़ार के गुलाब अब नहीं खिलते



मौसम गुलाबी था उन दिनों
जब तेरी याद के गुलाब खिलते थे
सर्दियों की आहट में
घुला होता था रंग   
सदियों पुराने तेरे इंतज़ार का

अब तू नहीं, तेरा इंतजार भी नहीं
अब नहीं खिलते तेरे इंतज़ार के गुलाब 
बस एक कतरा गुलाबी मौसम
लिपटकर बैठा है.

Friday, November 19, 2021

एक दिन


सोचा था एक दिन सोउंगी देर तक
जागने के बाद भी अलसाती रहूंगी
सिरहाने रखी चाय ठंडी होती रहेगी
और गुनगुनी चादर में पूरे होने दूँगी ख़्वाब

सोचा था एक दिन जल्दी जागूंगी
उगते सूरज से आँखें मिलाऊँगी
ओस भरे बागीचे में नंगे पाँव टहलती रहूंगी
अख़बार में तसल्ली से ढूँढूंगी
कोई अच्छी खबर

सोचा था एक दिन फुर्सत से लेटी रहूंगी धूप में
सीने पर पड़ी रहेगी प्रिय किताब और
सोचती रहूंगी तुम्हारे बारे में
कि तुम अगर बारे में सोचते होगे
तो कैसे लगते होगे

सोचा था एक रोज टूटी-फूटी इबारत में
लिखूंगी कच्चा-पक्का सा प्रेम पत्र
देर तक रोती रहूंगी उसे लिखकर
फिर बिना तुम्हें भेजे ही
लौट आऊंगी अपनी दुनिया में

सोचा था अधूरा पड़ा रियाज़ उठाऊंगी एक रोज
इत्मिनान से साधूंगी न लगने वाले सुर
धूनी लगाकर बैठ जाऊँगी
तुम्हारी याद के आगे कि जरा कम आये वो
यूँ हर वक़्त याद आना बुरी बात है

सोचा था एक रोज तुम्हारी पसंद के रंग पहनूंगी
इतराउंगी आईने के सामने
कुछ मन का बनाउंगी
कुछ रंग भरूंगी अधूरी कलाकृति में
पौधों को पानी देने के बहाने बतियाऊँगी उनसे

सोचा था एक रोज तसल्ली से दोस्तों से बतियाउंगी
अरसे से न देखे गए मैसेज के जवाब दूँगी
कोई पसंद की फिल्म देखूंगी
पड़ोसन से उसका हाल पूछूंगी
बिल्ली के बच्चे के संग खेलूंगी

और हुआ यूँ कि वो एक दिन मिला
तो घर की सफाई,
कपड़ों और सामान की धराई
बड़ी, पापड़ मसालों को धूप दिखाने
बाजार से राशन, सब्जी लाने उसे सहेजने
बल्ब बदलने
मेहमानों की मेजबानी में बीत गया
मीर का दीवान रखा मुस्कुराता रहा
और मैं अधूरे सपने से बाहर निकल
फिरकी सी नाचती रही दिन भर

हुआ यूँ कि छुट्टी का एक दिन
ढेर सारे अरमानों के साथ उगा और
ढेर सारे काम करते बीत गया.

Saturday, November 13, 2021

क्या नहीं है प्रेम


एक बार लेखक मित्र से पूछ बैठी थी 'क्या है प्रेम' जवाब में उसने कहा, ‘क्या नहीं है प्रेम.’ तबसे प्रेम को लेकर मेरा जो तंग नज़रिया था वो बदलने लगा. नफरत और हिंसा से इतर हर वक्त हमें जो घेरे हुए है वो प्रेम ही तो है. सुबहों से प्रेम, शामों से प्रेम. फूलों से, पत्तियों से, जड़ों से प्रेम. राह चलते अजनबी को मुस्कुराकर हेलो कहने में जो ख़ुशी महसूस होती है, बच्चों के सर पर हाथ फेरने की इच्छा, नन्ही उँगलियों में अपनी एक ऊँगली छुपा देने की कामना. नदी के किनारे बैठ लहरों को देखना, पेड़ से झरते पत्तों को देखना और देखना खाली शाखों पर फूटती कोंपलों को प्रेम ही तो है. प्रेमी के संग होने की इच्छा, संग ने होने का दुःख यह भी प्रेम है. वो जो कोई था कल तक कंधे से कन्धा टिकाये पास बैठा आज वो उठकर चला गया है बहुत दूर...उसके जाते क़दमों को देखना और उदास सिसकी को भीतर धकेल उसके होने को अपने भीतर किसी इत्र की तरह समेट लेना प्रेम है. हाँ, सब कुछ प्रेम ही है.

यह मेरी सुबह है. इसमें दाखिल होती सर्दियों की धूप है, दूर जाकर दिल के और करीब आ गए लोगों की याद है, परिंदों की चह चह है, चाय है...हां मैं प्रेम में हूँ इस समूची क़ायनात के, खुद के.

बाबुषा, आज हम भी कव्वाली सुनेंगे...तुम्हारे संग बैठकर.