यह आखिरी दिन था, यह वापिसी का दिन था. हम आसपास का चप्पा-चप्पा छान लेने में लगे थे. जंगल ही था आसपास. यहाँ के लोगों से बातें करना, चर्च देखना, जाने से पहले एक बार फिर से समन्दर से मिलने जाना और वापसी. कारमोना से एयरपोर्ट की दूरी कम से कम चार घंटे की होगी. हमारे पास वक़्त काफी था सो हमने कुछ रास्ता पैदल तय किया फिर एक जगह रुककर लंच किया. आज लंच में हमने गोवा की ट्रेडिशनल सब्जी गोअन चीज़ शाकुती खाई. इसे गोवन मसालों और नारियल के तेल में बनाया जाता है और सादा चावल के साथ खाते हैं. यह काफी मसालेदार होती है. गोवा में लिकर काफी सस्ती है इसलिए लोग यहाँ से ले जाना भूलते नहीं. हम जिस दुकान में पहुचे वह अच्छी सी दुकान थी. काफी करीने से सजी. ब्रांड्स का मुझे पता नहीं लेकिन लौटते समय अजय जी ने बताया कि यहाँ लगभग सभी अच्छे ब्रांड्स थे. मुझे यहाँ इस शॉप में जो बात अच्छी लगी वो माँ बेटी की जोड़ी. दोनों माँ बेटी जिस मुस्तैदी से हर ब्रांड के बारे में डिटेल से रही थीं, सजेस्ट कर रही थीं कि कौन सी वाइन अच्छी होगी या कौन सी ब्रांडी वह मुझे आकर्षित कर रहा था. हम अपने यहाँ मतलब उत्तर भारत में ऐसे दृश्यों की कल्पना नहीं कर सकते. मैं उन दोनों से देर तक बातें करती रही. जब उन्हें पता चला कि मेरी भी बेटी है और मैं उसके लिए कोई गिफ्ट ले जाना चाहती हूँ तो उन्होंने इसमें मेरी मदद की.
गोवा में यह ख़ास बात है कि यहाँ कोई आपको जज नहीं करता. आप किसके साथ हैं, उसका आपके साथ क्या रिश्ता है आदि. न ही लोग बेवजह के अंदाजे लगाते हैं आपके बारे में, न कोई खुसुर-फुसुर. दोस्त शब्द को पूरा अस्तित्व मिलता नजर आता है. उन्हीं माँ बेटी ने हमें बताया कि सामने अगर थोड़ी देर इंतजार करें तो हमें मलाड स्टेशन तक की बस मिल जाएगी. हम उनके बताये के मुताबिक बस का इंतजार करने लगे लेकिन बस से पहले ही हमें ऑटो मिल गया. हम स्टेशन ट्रेन के आने से काफी पहले पहुँच गये थे. 30 रूपये की टिकट ली और चाय पीते हुए आराम से और उतरते सूरज को देखने लगे. छोटा सा साफ़ स्टेशन था यह. आखिरी दिन का सनसेट प्वाइंट था स्टेशन का पुल. यह गोवा से विदाई का सूरज था. ट्रेन आ चुकी थी. वापसी का सफर काफी अलग होता है. न सिर्फ जाने की दिशा बदलती है बल्कि भीतर भी काफी कुछ बदल चुका होता है. वो यात्रा यात्रा ही नहीं जो हमें भीतर से और परिपक्व और संवेदनशील और स्पष्ट न बनाये. ट्रेन चल रही थी और मैं सोच रही थी कि जब गोवा से पुकार आई थी तब कितना मुश्किल था निकल पाना लेकिन अब वापस जाते समय महसूस हो रहा है कि उसी समय तो सबसे ज्यादा जरूरी था निकलना. हम जब अपने बारे में ठीक निर्णय नहीं ले पाते तब कुदरत यह काम करती है. कम से कम मेरा तो यही अनुभव है.
हम स्टेशन पहुँच गये. एयरपोर्ट स्टेशन के एकदम पास था. जिस एयरपोर्ट पहुँचने के लिए 4000 रूपये लगने थे वहां हम महज 160 रूपये में पहुँच चुके थे. यह मेरे लिए इतनी एक्साइटिंग बात थी कि इसे मैंने माँ को फोन करके तुरंत बताया. मैं हमेशा सोचती थी कि कुछ लोग इतनी विदेश यात्राएँ किस तरह कर लेते हैं. इतना पैसा कहाँ से लाते हैं तो अजय जी हमेशा कहते थे बहुत पैसा नहीं चाहिये होता है बस घूमने की इच्छा चाहिए होती है. आज मेरे सामने कुछ उदाहरण थे. घुमंतू को लग्जरी के पीछे भागने वाला नहीं होना चाहिए. मेहनती, कम से कम में काम चला लेने वाला होना चाहिए. महंगे होटलों में रुककर, बड़ी गाड़ियों में बैठकर साल में एक ट्रिप की जा सकती है घुमंतू नहीं हुआ जा सकता. मुझे उनकी बात ठीक लगी, तभी तो ज्यादातर सैलानी पीठ पर बड़ा सा पिठ्ठू बैग लादे पैदल चलते नजर आते हैं. मुझे अभी सैलानी बनना सीखना बाकी है मैंने खुद से कहा.
हम वापस लौट रहे थे...सुख और शांति से भरे हुए. समन्दर किसी को खाली हाथ नहीं भेजता.
समाप्त.