बहते झरने से पूछा, 'क्या कहते हो चलें क्या बादलों के देस' झरने की गति और तेज हो गई। गालों पर गड्ढे उतर आए। सुलगती रातों और न बुझे दिनों को सरकाकर किनारे किया। कुछ ही दिनों में बैक पैक के साथ मैं एयरपोर्ट पर थी। ख़्वाबिदा सी पाजेब अचानक विद्रोही मन में बदल गई। बोर्डिंग पास हाथ में हो तो दुनिया बदलने लगती है।
एयरपोर्ट से हम निकले पनशेट के लिए। शहर के ट्रैफिक को चकमा देते हुए हम जल्द ही शहर के बाहर खूबसूरत रास्तों की ओर निकल पड़े थे। न कोई ऐसा शहर है पुणे कि इसके बारे में कोई पढ़ना चाहे। सब जानते हैं इसे तो। लेकिन मेरे लिए यह यात्रा खास थी। किसी ने कहा था पुणे को इसके भरपूर रंग में देखना हो तो बारिशों में आओ। और मैं बारिशों में ही पहुंची। हमारा पहला पड़ाव था खड़गवासला डैम। नज़र की आखिरी हद तक पानी ही पानी। बादल भी बारिशें लेकर एयरपोर्ट से ही साथ थे। और मन तो था ही पानी पानी। तो पानी की दीवानी मस्त मगन हो चुकी थी। वड़ा पाव का स्वाद, गुड़वाली चाय और पानी के ये खेल...समझ आ गया था यह 5 दिन की यात्रा सुंदर होने वाली है।
खड़गवासला डैम के बारे में शायद कोर्स की किताबों में पढ़ा था कभी। क्या पढ़ा था यह याद नहीं, खड़गवासला नाम याद है। ऐसे न जाने कितने नाम हैं। चिकमंगलूर, कड़कड़डूमा, विशाखापट्टनम और भी बहुत से। ये नाम क्यों याद हैं इसका कोई पता नहीं। बहरहाल, खड़गवासला डैम से मेरी यह पहली मुलाक़ात थी। बारिश की बूंदों ने झालर तान दी थी। ठंडी हवा में पंक्षियों की उदुक फुदक जैसे कोई सुर लगाने की कोशिश कर रही थी। किनारों पर प्यार के जोड़े सिकुड़े, सिमटे हुए बैठे थे। जैसे कबूतर आँखें बंद कर लेता है वैसे ही। उनकी दुनिया में हम नहीं थे, हमारी दुनिया यक़ीनन उनके होने से रोशन थी।
पानी से पानी का मिलना कितना सुंदर होता है। मैं अपनी सजल आँखों के साथ दूर तक फैले पानी के विस्तार पर बरसती बूंदों को गिरते देख रही थी। सारी उथल पुथल ठहर गयी थी। सब शांत। हवा ने मेरे बालों और गालों को सहलाया तो मैंने चौंक के देखा, मेरी चाय आ चुकी थी।
कुदरत के पास कितने सबक हैं, हम सीखते क्यों नहीं। कि किन मसायल में उलझे रहते हैं। जबकि मसला कोई है ही नहीं, प्रकृति के पास भरपूर प्यार है, खाना है, जीवन है। और हम हैं कि जिस ठीहे पर अच्छा लगे वहीं अपने नाम की तख़्ती लगाने की फिराक में सारे सुख स्वाहा करते फिरते हैं। सुख छूटते जाते हैं, जीवन छूटता जाता है।
भूगोल की कच्ची इस लड़की को धरती के हर कोने से प्यार है, हर जीव से, सम्पूर्ण प्रकृति से। कभी कभी लगता है कि जानने ने किस कदर क्षरित किया हमारे सुखों को। फिलहाल मैं चाय के स्वाद में डुबकियाँ लगा रही थी, भीतर एक मीठी रुलाई फूट पड़ने को व्याकुल थी, मैंने अपनी कोरों को चुपके से पोंछते हुए माया आंटी को याद किया, इस बार जगमोहन जी को भी जो कहते हैं, इतना भी क्या सजल होना, हर बात पर। और माया आंटी इस बात को यूं कहती हैं, 'बड़ी-बड़ी आँखों में हमेशा मोटे मोटे आँसू बस टपक पड़ने की राह ताकते रहते हों जैसे।'
उस लम्हे में इन दोनों की याद ने मुस्कुराहट बिखेर दी। लेकिन आँखें कब किसी की सुनती हैं...आगे जाना था सो इस सम्मोहन से छूटना लाज़िम था। दृश्य से जैसे तैसे हाथ छुड़ाया और निकल गए पनशेट की ओर...
जारी....
(पुणे प्रवास)
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