- प्रतिभा कटियार
यूँ तो समूचा जीवन ही कविता है लेकिन जीवन में कविता कहाँ टकराएगी पता नहीं. यह कविताओं का तूफानी दौर मालूम होता है. पलक झपकते ही अनगिनत कविताएँ नज़रों से गुजरती हैं, लेकिन ठहरती कुछ ही कवितायेँ हैं. पिछले दिनों ऐसी कुछ कविताओं से वास्ता पड़ा जो ज़ेहन में ठहरी हुई हैं. ये कवितायेँ हैं श्रुति कुशवाहा की. श्रुति के संग्रह ‘कश्मकश’ से गुजरते हुए महसूस होता है कि कहीं अपने ही भीतर की किसी पगडंडी से गुजर रही हूँ. अपने ही सवालों को श्रुति की मार्फत दोबारा पढ़ रही हूँ और दुनियादारी के शोर में बचाकर रख रही हूँ थोड़ी सी उम्मीद.
यह श्रुति का पहला संग्रह है. कई मायने में यह संग्रह अपनी विशेषताओं की ओर ध्यान खींचता है. इस संग्रह में जिन्दगी की छुअन महसूस होती है. जिन्दगी के सारे रंग बिना किसी तरह के कॉस्मेटिक प्रभाव के यहाँ मिलते हैं, संवेदना की तमाम परतें स्वाभाविक ढंग से खुलती हैं. रिश्तों के प्रति जीवन के प्रति, समाज के प्रति कवि की संवेदना ने इस संग्रह को गढ़ा है. इन कविताओं में जहाँ समाज की तमाम विद्रूपताओं के प्रति एक सजग नजर और नाराजगी का भाव दीखता है वहीँ नकारात्मकता से लड़ने का माद्दा भी दीखता है. इन कविताओं में बदलाव की मध्धम-मध्धम आंच में पकती जिद दिखती है और दिखती है आने वाले कल को लेकर एक उम्मीद.
संग्रह की पहली कविता ‘सही वक़्त’ कवि के मिजाज़ को खोलती है जहाँ वो कहती है ‘दिखने में आदमी जैसा/जब नहीं रह जाता आदमी/जब चारों ओर मंडराता है संकट/ वही होता है/कविता लिखने का सबसे सही वक़्त.’
लिखने की भूख, से परे लिखने को जीवन की जरूरत में तब्दील होने के रूप में देखती श्रुति अपनी कविता ‘लिखना लाज़मी है’ लिखती हैं. दुनिया किस तरह कृत्रिम होती जा रही है और उस कृत्रिमता के शोर में किस तरह सच्चाई और सरलता पीछे छूटती जा रही है इसे ‘सब महफ़ूज हैं’ में देखा जा सकता है ‘ इधर भेडिये को सौंप दी गयी है चौकीदारी/अब डरने की कोई वजह नहीं/ सब महफूज हैं.’
इन कविताओं के स्वर कवि की चेतना और सजगता को इंगित करते हैं. वह जो एक पूर्वानुमान अक्सर बन जाता है किसी स्त्री के संग्रह को खोलते वक़्त कि स्त्री विषयक स्वर होगा ही मुख्य स्वर, वह टूटता है क्योंकि संग्रह की रेंज काफी ज्यादा है. ‘निर्ममता’ नामक कविता में ऐसे ही स्वर को इस तरह दर्ज किया है कवि ने, ‘अपनी कौम और देश/ खुद नहीं चुनते बच्चे/लेकिन/ कौम और देश के नाम पर/मारे जाते हैं वो’.
कविता में बहुत सारी पर्तें खुलती हैं समय की, भीतर की बेचैनी की और वो हमें खंगालती भी हैं, मुक्तिबोध की याद आती है कविता ‘सवाल’ पढ़ते हुए जहाँ वो लिखती है ‘ये दुनिया उतनी ही बुरी है/जितनी हमने सुनी है/ ये दुनिया उतनी ही भली है/जितनी हमने देखी है/ सवाल दुनिया का नहीं/ सवाल तो यह है/कि हम किस ओर खड़े हैं.’
अपने भ्रमों को टटोलती है कवि की नज़र और ‘आज़ादी’ कविता में ढलती है कुछ इस तरह ‘ आज़ादी का जश्न मनाने का सोचती हूँ/कि याद आ जाती है मणिपुर की ईरोम चानू शर्मिला/अरुणा शानबाग, सोनी सोरी, थान्गजाम मनोरमा/ निलोफर, आसिया जान, निर्भया, प्ररेति राठी/कानों में गूंजते हैं ढेरों नाम/शिकारी घूम रहा है खुलेआम’ इसी कविता में वो आगे लिखती है, ‘ सावधान! आवाज उठाना सख्त मना है/आवाज़ उठाने की एवज में होंगे बलात्कार’. एक और कविता ‘क्या तुम जानते हो’ का जिक्र इसी संदर्भ में ज़रूरी है जहाँ कविता सवाल करती है, ‘क्या तुम जानते हो डाऊआला की जूली की कहानी/सोलह की उम्र में/मर्दों की गन्दी नज़र से बचाने के लिए/जिसके वक्षों को गर्म पत्थर से दागा गया था/कैमरून में अरसे से हो रही है ब्रेस्ट आयरनिंग’ यह कविता अपने समय और समाज में स्त्रियों के प्रति आई क्रूरता की कलई खोलते हुए सवाल करती है. इसकी रेन्ज में पूरी दुनिया की स्त्रियाँ हैं, उनके दर्द हैं, उनकी तकलीफें हैं और इन सबको जोडती है दुनिया की हर एक स्त्री की पीड़ा से, उसके प्रति की गयी उपेक्षा से और अंत में कविता कुछ यूँ कहती है, ‘चलो ये सब छोड़ो/बताओ क्या तुम जानते हो/ सालों से अपने घर के भीतर रहने वाली/अपनी पत्नी के बारे में/जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद/हर सुबह उठती है तुमसे पहले/क्या उसने नींद पर विजय पा ली है?’
इन कविताओं को स्त्री विमर्श के खांचे में डालकर देखा जाना कविताओं को कम करके आंकना है. क्योंकि स्त्री भी कवि की कविताओं में उसी तरह आती है जिस तरह अन्य विषय आते हैं और उन सबका आना एक ही बात का सूचक है कि कवि की चिंता में यह समूची दुनिया है जिसे वो हंसी से, ख़ुशी से, मोहब्बत से भर देना चाहती है. इसके लिए वो तमाम वर्जनाओं को तोड़ने से भी गुरेज नहीं करती.
‘और हंसो लड़की’ ‘बुरी औरत’ ‘लाल रंग की लड़की’ ‘स्कूल जाती लड़की’ ‘लड़कियां’ आदि कवितायेँ इस समूची धरती को सुंदर बनाने की कामना की कवितायेँ हैं, स्त्रियों को भी इन्सान समझे जाने की बात कहती कवितायेँ हैं. इन कविताओं के ज़रिये स्त्रियों के लिए भी इस दुनिया और समाज में जगह बनाने की, उनकी अस्मिता को सहेजने की बात तो है लेकिन यह किसी किस्म के आरोप, प्रत्यारोप, और पुरुषों से किसी किस्म के भेद या उनके प्रति औफेंसिव कवितायेँ नहीं हैं.
श्रुति की कवितायेँ शोर नहीं मचातीं, वो चुपचाप असर करती हैं. सोशल मीडिया पर इन कविताओं का कोई शोर नहीं, न ही सर पर कविताओं को लेकर घूमने की कोई हड़बड़ी. कवि के संजीदा और संकोची मिजाज़ की मुनादी सी हैं ये कवितायेँ कि भोपाल शहर से एक आत्मीय रिश्ता भी खुलता है संग्रह की एक कविता में जहाँ भोपाल शहर के नाम एक खत आता है. प्रेम कवितायेँ हौले से सटकर आ बैठती हैं बिना किसी लाग लपेट के और आसपास प्रेम महकने लगता है.
भाषाई चमत्कार से कतई दूर इन कविताओं की सरलता और सहजता इनका मूल तत्व है जिसके चलते इन कविताओं से रिश्ता जल्दी ही कायम हो जाता है.
चूंकि यह पहला संग्रह है तो जाहिर है छुटपुट जगह बिखरा हुआ सा अनगढ़पन भी दिख जाता है. वह अनगढ़पन दीखता है कविताओं के चयन में. कुछ कविताओं को इस संग्रह में शामिल करने से बचा जा सकता था हालाँकि ऐसी कवितायेँ कम ही हैं. अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित यह संग्रह प्रोड्क्शन के लिहाज से भी काफी अच्छा है.
मेरे लिए आजकल के ‘मेरी कविता तेरी कविता’ के शोर के बीच एक सजग, संवेदनशील, संकोची मिजाज़ की कवि की समय से मुठभेड़ करती, सवाल उठाती और नए रास्ते बनाने में यकीन करती कविताओं से रू-ब-रू होना सुखद अनुभव है. ये कवितायेँ पेज पलटते ही पलट नहीं जातीं बल्कि जेहन में रह जाती हैं. कविताओं के सैलाब के बीच ऐसी कविताओं का होना उम्मीद का होना है.
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