Saturday, May 21, 2016

जादूगर अनि, जन्मदिन मुबारक!



'आप न तो मेरी नानी की बेटी हो, न मम्मा की बहन तो फिर मेरी मौसी कैसे हुई?' प्यारे से अनि से मेरी दोस्ती की शुरुआत उसके इसी सवाल के साथ हुई थी. मेरा पास कोई जवाब नहीं था, लेकिन वो अब अपने सवाल से खाली था. धीरे-धीरे दोस्ती गहराने लगी, पहले पहल वाली झिझक, संकोच अपनी गठरी बाँध के चलता बना. देवयानी को मैगी और ऑमलेट बनाने किचन की ओर भेजकर हम बिंदास मस्ती करते. चादर तानकर टेंट बनाने का मजा, आहा. बच्चा हुए बिना बचपन का आनंद ले पाना असंभव है, ये राज़  मैं जानती थी. मेरे भीतर का बच्चा मौका पाते ही उछलकर बाहर आने को बेताब रहता ही है. अनि का हाथ थामते ही वो बाहर आ गया.

मैं और अनि  खूब मस्ती करते. उस रोज छुट्टी का दिन था और हमने टेंट बनाने की योजना बनाई. ज़ाहिर है देवयानी के कमरे का हाल तो बुरा होने ही  वाला था लेकिन हम दोनों मूड में आ चुके थे. टेंट बनाने का सामान अनि ने  जुगाड़ना शुरू किया.

हमारा टेंट एक तरफ से बनता तो दूसरी तरफ से गिरने लगता. योजना यह थी कि नाश्ता टेंट में ही होगा. इतने में देवयानी की आवाज आती कि 'चलो उठो, नहाओ तुम दोनो, फिर चलना भी है...' हम दुबक जाते, सोचते कि कैसे न जाने का जुगाड़ बिठाया जाये ताकि सारा दिन खेला जा सके. अनि कहता ' मासी काश कहीं  से फोन  आ जाये कि जहाँ जाना था वहां का प्रोग्राम कैंसिल हो गया .' उसकी इस बात पे उसे खुद ही हंसी आ जाती और हम दोनों मुंह दबाकर हँसते. 

बहरहाल टेंट बनकर ही रहा और हमने नाश्ता टेंट में ही किया. इस दौरान अनि ने पूरे फौजी ढंग से टेंट बनाने में अपनी भूमिका निभाई. जैसे ही मैंने कहा, 'देखो, दुश्मन की फौजें आसपास तो नहीं, हम उनकी बैंड बजा देंगे.' तो वो झट से जवाब देता, ‘हाँ मासी, मैं अभी बैंडवाले को फोन करता हूँ.’ मैं उससे कहती 'हम दुश्मन को हराने की नयी रणनीति बनाएंगे', तो वो मुस्तैद जवाब देता, ‘वैसे मुझे मालूम नहीं है कि रणनीति होती क्या है, लेकिन हम बनायेंगे ज़रूर’ कितनी ही बार वो लम्हे याद करके मुस्कुराई हूँ.

तमाम कुर्सियों और चादर और बहुत सारी स्टिक्स की मदद से बने उस टेंट के अन्दर किये गये नाश्ते के स्वाद और अनि की शरारतों की खुशबू से अब तक सराबोर हूँ. उसकी हर अदा खूबसूरत है. विम्पीकिड की डायरी के लिए उसका दीवानापन, दीवारों पे टंगी उसकी पेंटिंग्स, उसकी तस्वीरों के पीछे की वो तमाम कहानियां जो उसने मुझे बताईं, साथ में मिट्टी के मटके बनाना सीखना, फिर उन्हें धूप में सुखाना, सुबह-सुबह ठंडी हवा में दुबक के खेलना ‘आई स्पाई....’ 

प्यारे अनि, तुम जादूगर हो, तुम्हारे जन्मदिन पर ढेर सारा प्यार तुमको, ढेर सारा दुलार, ढेर सारी मस्ती अभी भी उधार है...लव यू दोस्त...

Friday, May 20, 2016

ब्लैक एंड व्हाइट एल्बम से ...



बाज़ार से रोस्टेड नमकीन खरीदते हुए हमेशा दादी की याद आती है. पचास रूपये के चमकते हुए पैकेट में मुठ्ठी भर बाजरा, मूंग या चना निकलता है. ठीक उसी वक़्त बचपन के वो दिन याद आते हैं, जब गर्मी की छुट्टियों में गांव जाया करती थी. और भी सब कजिन्स आया करते थे. घर का एक कमरा जिसमें दिन के वक़्त भी खासा अँधेरा रहता था उसमें अनाज रखा जाता था. उसे 'मढ़हा' कहा जाता था. 

हमारी छुट्टियों के होते ही वो 'मढ़हा' तरह-तरह के खाने के सामान से भर जाता था. दादी हमारा इंतजार किस शिद्दत से करती थीं ये हम इसी तरह जान पाते थे कि उन्हें बाँहों में भरकर प्यार करना आता नहीं था, वो बस चुपके चुपके ख्याल रखते हुए प्यार करना जानती थीं. हमारे इंतजार में वो तरह तरह के अनाज को भाड में भुंजवा के रखा करती थीं. ज्वार, बाजरा, चना, लाई, मूंग, गेंहू, जुंडी और न जाने क्या क्या...सारा दिन मुंह चलता रहता था. कभी फ्रॉक में भरकर, कभी टूकनिया यानि छोटी टोकरी में भरकर गांव भर में घूमा करते थे, खेला करते थे.

तब कौन जानता था कि दादी के मढ़हे के खजाने को बाज़ार इस तरह चुरा लेगा. कि मुठ्ठी भर नमकीन के पैकेट खरीदने होंगे रोस्टेड के नाम पर और उनमें भी वो सोंधापन नहीं होगा, वो स्वाद नहीं होगा...हाँ, बचपन की कुछ यादों को कुरेदने का सामान ज़रूर होगा, देखो न दादी, तुम्हारी याद किन किन तरहों से आती है, रहती है हमारे पास...

(ब्लैक एंड व्हाइट यादें और शाम की चाय)

Tuesday, May 17, 2016

जो वैष्‍णव नहीं होंगे शिकार हो जाएंगे ...

-अंशु मालवीय

वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
उनके एक हाथ में मोबाइल है
दूसरे में देशी कट्टा
तीसरे में बम
और चौथे में है दुश्‍मनों की लिस्‍ट.

वैष्‍णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वे अरण्‍य में अनुशासन लाएंगे
एक वर्दी में मार्च करते
एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां.

वैष्‍णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वैष्‍णव जन सांप के गद्दे पर लेटे हैं
लक्ष्‍मी पैर दबा रही हैं उनका
मौक़े पर आंख मूंद लेते हैं ब्रह्मा
कमल पर जो बैठे हैं.

वैष्‍णव जन
आखेट पर निकले हैं!
जो वैष्‍णव नहीं होंगे
शिकार हो जाएंगे ...
देखो क्षीरसागर की तलहटी में
नसरी की लाश सड़ रही है.

Sunday, May 15, 2016

सच्चा प्यार


- विस्साव शिम्बोर्स्का 

सच्चा प्यार !
क्या वह नॉर्मल है?
क्या  वह उपयोगी है?
क्या इसमें पर्याप्त गंभीरता है?

भला दुनिया के लिए वे दो व्यक्ति किस काम के
जो अपनी ही दुनिया में खोये हुए हों?
बिना किसी ख़ास वजह के

एक ही ज़मीन पर आ खड़े हुए हैं ये दोनों
किसी अद्रश्य हाथ ने लाखों करोड़ों की भीड़ से उठाकर
अगर इन्हें पास-पास रख दिया
तो यह महज़ एक अँधा इत्तिफाक था
लेकिन इन्हें भरोसा है कि इनके लिए यही नियत था
कोई पूछे कि किस पुन्य के फलस्वरूप?
नहीं, नहीं, न कोई पुन्य था, न कोई फल है

अगर प्यार एक रौशनी है
तो इन्हें ही क्यों मिली?
दूसरों को क्यों नहीं?
चाहे कुदरत की ही सही
क्या यह नाइंसाफी नहीं?
बिलकुल है.

क्या ये सभ्यता के आदर्शों को तहस-नहस नहीं कर देंगे?
अजी, कर ही रहे हैं.

देखो, किस तरह खुश हैं दोनों
कम से कम छिपा ही लें अपनी ख़ुशी को
हो सके तो थोड़ी सी उदासी ओढ़ लें
अपने दोस्तो की खातिर ही सही, जरा उनकी बातें तो सुनो
हमारे लिए अपमान और उपहास के सिवा क्या है!
और उनकी भाषा?
कितनी संदिग्ध स्पष्टता है उसमें!
जुर उनके उत्सव उनकी रस्में
सुबह से शाम तक फैली हुई उनकी दिनचर्या!
सब कुछ एक साजिश है पूरी मानवता के खिलाफ।

हम सोच भी नहीं सकते कि क्या  से क्या हो जाए
अगर सारी दुनिया इन्हीं की राह पर चल पड़े!
तब धर्म और कविता का क्या होगा!
क्या याद रहेगा, क्या छूट जाएगा
भला कौन अपनी मर्यादाओं में रहना चाहेगा!

सच्चा प्यार?
मैं पूछती हूँ क्या यह सचमुच इतना ज़रूरी है?
व्यावहारिकता और समझदारी तो इसी में है
कि ऐसे सवालों पर चुप्पी लगा ली जाए
जैसे ऊंचे तबकों के पाप-कर्मों पर खामोश रह जाते है हम.
प्यार के बिना भी स्वस्थ बच्चे पैदा हो सकते हैं.
और फिर यह है भी इतना दुर्लभ
कि इसके भरोसे बैठे रहे
तो यह दुनिया लाखों बरसों में भी आबाद न हो सके।

जिन्हें कभी सच्चा प्यार नहीं मिला
उन्हें कहने दो कि
दुनिया में ऐसी कोई चीज़ होती ही नहीं।
इस विश्वास के सहारे
कितना आसान हो जाएगा
उनका जीना और मरना।

(बीतती सदी में कविता संग्रह से, अनुवाद- विजय अहलूवालिया )

Friday, May 6, 2016

बाकी सब कुछ माया हो...



फ़र्ज़ करो हम अहल-इ-वफ़ा हों फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो यह दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपदा जी से ज़ोर सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें खुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो यह नैन तुम्हारे सुचमुच के मयखाने हों

फ़र्ज़ करो यह रोह है झूठा झूटी प्रीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस प्रीत के रोग में सांस भी हम पे भारी हो

फ़र्ज़ करो यह जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हकीकत बाकी सब कुछ माया हो

(इंशा जी का नाम लो बस इश्क सी सांसत होती है...आवाज़ छाया गांगुली की...शाम हमारी, याद तुम्हारी...सब कितना घुलमिल गया है, शाम मुकम्मल सी...जाते हुए रात के आगोश में आहिस्ता आहिस्ता...)

Wednesday, May 4, 2016

सड़क, चाँद और मैं...तन्हा कोई नहीं



पूरा जोर लगाने पर भी वो पत्थर टस से मस नहीं होता. रत्ती भर भी नहीं. और ताक़त, और ताक़त, और ताक़त समेटने का उपक्रम दरअसल खुद को दिया जा रहा धोखा है. जबकि मालूम है कि सारी ताक़त झोंकने के बाद बचता ही क्या है. जिन्दा लम्हों में बड़ी ताक़त होती है, अम्मा की कही बात याद आती है तो समझ में आता है कि उदासियों के ये बड़े बड़े पत्थर जिन्हें हिला पाना दुश्वार होता है एक धडकते लम्हे से लुढक जाता है. उसके नीचे दबी जिन्दगी की तमाम ख्वाहिशों को सिर्फ और सिर्फ चंद जिन्दा लम्हों से आज़ाद कराया जा सकता है. कितनी ही दराजें खंगाल लो, कितनी ही तजवीजें कर लो जिन्दा लम्हे जो बोये होते तो उगते न? सो खाली मुठ्ठियाँ, सूनी आँखें और उदासी का विशाल पत्थर. जो लगातार बढ़ता ही जाता है.

कभी गुलमोहर की छांव उस पर उछाल देने को जी चाहता कभी लीचियों की झुक आई डालों पर लटकते पंछियों की शरारतें. लेकिन जिन्दगी के ये जिन्दा लम्हे सबके लिए होते नहीं. वो दीखते तो हैं लेकिन हाथ बढाओ तो गुम हो जाते हैं. रोज सवेरे उठना और एक बार पूरी ताक़त से उस विशालकाय पत्थर को धकेलने का जैसे नियम हो चला है, ये जानते हुए कि होना कुछ नहीं है. कभी-कभी भ्रम होता है कि हिला है जरा सा, मन में हिलोर सी उठती है लेकिन जल्द समझ में आता है कि भ्रम ही था.

खिड़की के सामने से दिखती सड़क से जितना अपनापन महसूस होता है उतना किसी से नहीं. मानो वो सब जानती है. उस पत्थर की हेठी के बारे में भी और मेरी कंगाली के बारे में कि एक जिन्दा लम्हा नहीं बोया मैंने अपनी जिन्दगी में...हथेलियों की सारी लकीरें कबकी झर चुकी हैं...

खिड़की के बाहर चाँद है, सड़क है...राहगीर कोई नहीं. बिना राहगीर वाली सड़कें भली नहीं लगतीं, कोई तो चलती हुई छाया हो...कुछ तो चहलकदमी...जिन्दगी से बेजार होने के लिए कोई भारी-भरकम वजह का होना ज़रूरी नहीं...सो सड़क, चाँद और मैं...अपनी अपनी तनहाइयों के साथ एक दुसरे का हाथ थामे हुए हैं. तन्हा कोई नहीं, साथ भी कोई नहीं....

उत्तराखंड धधक रहा है, किसकी आह लगी होगी इस धरती को, बादलों का इंतजार है, बादलों के नाम जो लिखे थे ख़त वो एक परिंदा लेकर उड़ गया था, वो शायद पहुंचा नहीं बादलों तक, शायद आंच उसे भी सता रही हो....जो भी हो हम सबको उस पत्थर को हिलाना है, वो जो अपनी नाकामियों, जिद, अहंकार, उदासियों से हमने बढा लिया है...इतना बढ़ा लिया कि अब जिन्दगी बेमानी लगने लगी है...

बादलों की आहट है आसमान में...आओ कुछ ख्वाब बोयें...कुछ धडकते लम्हे...जिन्दगी महज अंधी भाग तो नहीं, सुकून के दो पल, एक सच्ची वाली मुस्कराहट और बस...देखो न नाक पर अभी अभी एक बूँद गिरी है पानी की. सुना तुमने...कुछ बूँदें पलकों के आसपास भी सिमटी हैं, धरती राह तकते तकते थक चुकी है मेरी तरह, लेकिन देखो अभी, बिलकुल अभी वो पत्थर हिला है जरा सा....

बारिशें हमारे जगलों की आग बुझायें और हम अपनी तृष्णा की....अहंकार की....जिद की...लगातार अंधी दौड़ की...मैं फिर से उदासियों के पत्थर को धकेलती हूँ...बिटिया भी मेरा साथ देती है...उदासियों का पहाड़....अब मुस्कुराहटों का हरा भरा जंगल बनने को व्याकुल है....देखा न तुमने ?