Friday, January 27, 2017

जब नहीं आए थे तुम...


- अली सरदार जाफरी

जब नहीं आए थे तुम, तब भी तो तुम आए थे
आँख में नूर की और दिल में लहू की सूरत
याद की तरह धड़कते हुए दिल की सूरत

तुम नहीं आए अभी, फिर भी तो तुम आए हो
रात के सीने में महताब के खंज़र की तरह
सुब्‍हो के हाथ में ख़ुर्शीद के सागर की तरह

तुम नहीं आओगे जब, ​फिर भी तो तुम आओगे
ज़ुल्‍फ़ दर ज़ुल्‍फ़ ​बिखर जाएगा, ​फिर रात का रंग
शब–ए–तन्‍हाई में भी लुत्‍फ़–ए–मुलाक़ात का रंग

आओ आने की करें बात, कि तुम आए हो
अब तुम आए हो तो मैं कौन सी शै नज़र करूँ
के मेरे पास सिवा मेहर–ओ–वफ़ा कुछ भी नहीं

एक दिल एक तमन्ना के सिवा कुछ भी नहीं


Thursday, January 26, 2017

कहानी 'सेल्फी'



- प्रतिभा कटियार 

बाहर शदीद बारिश हो रही थी लेकिन मिटटी की खुशबू गायब थी...कन्नू की नींद भी. कन्नू की नींद बड़ी पक्की सहेली थी उसकी. बिस्तर पर पड़ते ही पक्की गुइयाँ की तरह लिपट जाया करती थी. लेकिन इधर कुछ दिनों से उसकी पक्की सहेली से कुछ खटपट हो गयी है...जब नींद नहीं होती तो इंटरनेट होता है...बेवजह की नेट सर्फिंग...और नींद का इंतजार...

कुछ महीनों से यह सिलसिला शुरू हुआ. उस दिन से जब उसने एक रोज खामखयाली में शायद महीनों बाद फेसबुक पे लॉगिन किया था और लॉगइन करते ही उसे नोटिफिकेशन मिला ‘राजेश लाइक्स सुमिता बनर्जी’स पिक’. कन्नू की दिलचस्पी बढ़ी. सुमिता बनर्जी की वॉल लॉक थी लेकिन उसकी हर प्रोफाइल पिक और कवर फोटो पर राजेश के लाइक्स दर्ज थे. कहीं-कहीं कमेन्ट भी.

सुमिता का नाम कन्नू ने राजेश के मुह से कई बार सुना था. कुछ बरस पहले राजेश की बातों में सुमिता का जिक्र आया था. वो उसकी नयी बॉस नियुक्त होकर पूना से आई थी. जब जिक्र आया था तो भरपूर आया था. अक्सर ही राजेश बात-बात में सुमिता की तारीफ किया करता. कई बार कन्नू उसे छेडती भी, 'क्या बात है कोई चक्कर तो नहीं है सुमिता जी से?' जिसे राजेश हंसकर टाल देता, ये कहकर कि 'हाय, काश हो पाता'.

कन्नू को ये सब सुनने में मजा आ रहा था. वो राजेश को छेडती, ‘पहली बार अपने पति के मुह से किसी औरत का नाम सुन रही हूँ, कसम से मजा आ रहा है. मैं तो सोचती थी मेरी जिन्दगी में ये वाली फीलिंग मिसिंग ही रहेगी.’ उन दिनों सुमिता का जिक्र घर में काफी होने लगा था और उसको लेकर कन्नू राजेश को खूब छेडती थी.

कन्नू और राजेश दोनों ही हंस देते. दोनों के रिश्ते का खुलापन दोनों को एक-दूसरे के प्रति आश्वस्त रखता था. कन्नू हमेशा कहती, कभी भी कुछ गड़बड़ हुई न तो घबराना मत, लेकिन मुझे बता देना, पत्नी समझकर नहीं, दोस्त समझकर. राजेश भी कन्नू को यही कहता. दोनों की अंडरस्टैंडिंग मजे की थी. कहने को दोनों पति-पत्नी थे लेकिन दोस्तों की तरह ही रहते थे. लड़ते झगड़ते, प्यार करते...जिन्दगी साथ जीते, देश दुनिया के मसायल पे बात करते. राजेश कन्नू पे इस कदर फ़िदा रहता था कि कन्नू खुद को अभिमानिनी महसूस करने लगती. कभी लाड से डपट भी देती, ‘शादी के इत्ते बरस बाद भी कोई बेवकूफ ही अपनी बीवी का इस कदर दीवाना होता होगा.. जाओ यार, दुनिया में और भी औरतें है, थोडा फ्लर्ट श्लरट करो, मेरा ईगो भी सैटीस्फाईड होने दो....क्या हर वक़्त मेरे ही पीछे लगे रहते हो...’ राजेश ये सुनकर उसके और करीब आ जाता और कहता, ‘तुम्हारे सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता. ‘

मेहुल के पैदा होने के बाद राजेश कन्नू और मेहुल दोनों के प्यार और देखभाल में व्यस्त हो गया. जिन्दगी मजे में चल रही थी. इसी बीच कन्नू का ट्रांसफर दूसरी ब्रांच में हो गया....ये दूसरी ब्रांच घर से काफी दूर थी इसलिए जिन्दगी की गति और बढ़ गयी अब. कन्नू को और सुबह निकलना पड़ता, राजेश को मेहुल का टिफिन बनाना होता, घर के बाकी काम निपटाने पड़ते....

इस स्मार्टफोन के ज़माने में भी कन्नू के पास न मेल चेक करने की फुर्सत होती न फेसबुक देख पाने की. एक दिन स्कूल में स्टाफ रूम में फेसबुक अफेयर की गॉसिप के बीच उसने अपना फेसबुक लॉगइन किया. काफी दिनों बाद फेसबुक लॉगइन किया तो नोटिफिकेशन से उसे फिर से सुमिता याद आई. राजेश तो मुझे हर बात बताता है सोचते सोचते कन्नू घर पहुँच गयी.

घर आई, चाय चढ़ाकर नहाने चली गयी...लौटी तो चाय मुस्कुरा रही थी...दोपहर का यह वक़्त उसे बहुत दिनों बाद मिला था. चाय पीते-पीते सोचा कि कैसी हो जाती है जिन्दगी. सब कुछ है भी और कुछ नहीं भी है. और जो नहीं है उसे महसूस कर पाने का वक़्त भी नहीं. उसके मन में वो नोटिफिकेशन कहीं अटका हुआ था ‘राजेश लाइक्स सुमिता बनर्जी'स पिक.’ राजेश ने कभी बताया नहीं कि सुमिता से टच में है. फिर खुद पर ही हंसी आई. फेसबुक भी कोई संसार है, और ये भी कोई बताने वाली बात है कि फेसबुक पे कौन-कौन टच में है.

शाम को राजेश थोडी देर से आया था, मेहुल अपने दोस्त की बर्थडे पार्टी में गया था...कन्नू ने थोडा रोमेंटिक होते हुए बाहें बढा दीं, राजेश अचकचा गया...’अरे...’वो पीछे हट गया. ‘क्या हुआ’ कन्नू ने सहमकर पूछा. ‘कुछ नहीं यार, थका हूँ बहुत, नहाकर आता हूँ ‘

‘ठीक है नहा लो फिर थोडा घूम के आते हैं...कित्ते दिन हो गए न?’

राजेश बिना कुछ जवाब दिए नहाने चला गया. कन्नू तैयार होने लगी...चाय का पानी भी उसने चढ़ा दिया. राजेश नहाकर आया और लैपटॉप खोलकर कुछ काम करने लगा...कन्नू चाय लेकर आई तो उसे काम करते देख उदास हो गयी...’हम घूमने जाने वाले थे न? ‘

‘आज नहीं...बिलकुल मन नहीं....थका हूँ बहुत...’राजेश ने चाय लेते हुए कहा.

‘कित्ते दिन हो गए हमें कहीं गए. कैसे मशीन से जीते जा रहे है हम...चलो न राजेश....बस बाइक से एक चक्कर.’

‘प्लीज़ कन्नू....एकदम मन नहीं....तुम तो समझती हो न. तुम्हारा तो अक्सर ही मन नहीं होता था, थकी होती थी...तुमसे बेहतर कौन समझेगा.’ कन्नू खामोश हो गयी...टीवी चैनल पलटने लगी...इस तरह खाली बैठकर टीवी देखना भी उसे लक्सरी सा महसूस हुआ...टीवी पर वही हत्या, बलात्कार, राजनीति, हाहाकार....घरेलू चैनलों पर वही सास बहू, इसका चक्कर उससे, उसका चक्कर उससे या फूहड़ गानों पर अधखुले जिस्म. टीवी बंद कर उसने फिर से मोबाईल ऑन किया. फेसबुक नोटिफिकेशन में फिर वही ‘राजेश लाइक्स सुमिता बनर्जी'स पिक.’ उसने सोचा वही सुबह वाला बासी नोटिफिकेशन होग. आगे बढ़ गयी. तभी एक और नोटिफिकेशन आ गया, ‘राजेश लाइक्स सुमिता मुखर्जी'स स्टेटस.’

खाना खाते वक़्त कन्नू ने राजेश को छेड़ा, ‘आजकल सुमिता जी के क्या हाल हैं? कैसी हैं वो?’
राजेश ने कौर तोड़ते हुए जवाब दिया, ‘ठीक ही होंगी...क्यों?’
‘नहीं, ऐसे ही पूछा.’
‘तुमने कभी बताया नहीं कि वो दिखती भी स्मार्ट हैं? ‘
कन्नू ने बात जारी रखी
‘इतने ध्यान से देखा नहीं...’ राजेश ने जवाब दिया.
‘प्रोफाइल पिक ध्यान से देखे बिना ही लाइक कर देते हो?’
कन्नू अपने भीतर की अनजान उलझन को सहेज नहीं ही पायी

‘ओह ? तो तुम मेरी जासूसी कर रही हो?’ राजेश एकदम से भडक गया.
‘जासूसी? कैसी बात कर रहे हो....इसकी ज़रूरत क्यों होगी भला.’
‘वही तो?’ राजेश झल्लाया
‘आज यूँ ही स्कूल में बात हो रही थी फेसबुक की. प्रिंसिपल थी नहीं तो गपशप चल रही थी. तभी मैंने महीनो बाद लॉगइन किया. तुम जानते हो मैं नहीं जाती फेसबुक तेस्बुक पे. टाइम ही नहीं है यार. और करना भी क्या है वहां जाकर. जब दिन में लॉगिन किया तभी नोटिफिकेशन आया कि तुमने उनका स्टेटस लाइक किया है और अभी देखा तो पिक्चर लाइक की है.’ कन्नू ने साफ़-साफ़ बता दी सारी बात.

राजेश शांत होते हुए बोला, ‘वो दुनिया तुम्हारी जैसी भली औरतों के लिए है भी नहीं...मत जाया करो वहां...’
‘ये कैसी बात है राजेश? यानि जो औरतें फेसबुक पे हैं वो भली नहीं हैं? ‘
‘अरे यार, मुद्दा मत बनाओ...बात मुंह से निकली नहीं कि तुम मुददा बनाने के लिए लपक लेती हो बस. मैं तो बस कह रहा था...वो अजीब जंगल है...किसी का कुछ पता नहीं...किस तस्वीर के पीछे कौन है...किसके शब्द कितने नकली हैं. हम अपनी दुनिया में खुश हैं न? तुम इस सब झंझट से दूर ही रहो..’ .राजेश ने स्थिति को सँभालते हुए कहा.
‘तो उस जंगल में तुम क्या कर रहे हो?’
‘मैं तो स्त्री नहीं हूँ न? मुझे उस तरह के खतरे कम उठाने पड़ते हैं जैसे औरतों को उठाने पड़ते हैं. कितनी ही बराबरी की बात कर लें लेकिन हम मर्दों के भीतर स्त्री देह को लेकर जो लोलुपता है उसे नहीं बदल पाए हैं हम. पुरुषों की तस्वीरें क्या वो खुद ही खुले पड़े रहें किसी को फर्क नहीं पड़ता लेकिन औरतें...उनके पीछे लपक पड़ते हैं लोग... एक लड़की प्रोफाइल पिक बदले तो लाइक्स बरसने लगते हैं. ये सब अजीब सा लगता है मुझे तो. किसी औरत की तस्वीर क्यों सरे बाज़ार रखी हो, क्यों उसे कई सौ लोग लाइक करें...वाह वाह करें....ये मुझे पसंद नहीं...तुमको मैं वहां देख ही नहीं सकता.’ राजेश ने भी बिना लाग-लपेट के अपनी बात रख दी.
‘तुम मेरी जान हो....’ कहकर राजेश ने कन्नू का मूड बदलने की कोशिश की.
‘वो पता नहीं, लेकिन ये मामला महज़ फेसबुक का तो नहीं है. ये तो पूरी दुनिया का है. घर के भीतर तक औरतों के लिए सांस लेना आसान नहीं. मिसेज सक्सेना रोज़ बताती हैं कि किस तरह संयुक्त परिवार के नाम पर मर्दों से भरे घर में हर वक़्त पल्ला समेटने की मजबूरी में कितना कुछ झेलना पड़ता है. बराबर के जवान देवर, जेठ, ससुर....हर वक़्त स्कैन करती नजरे....इनसे मुक्ति कहाँ...फेसबुक का कंट्रोल तो फिर भी कुछ हद तक अपने हाथ में है...है न?’ कन्नू को राजेश की बात से वाकई दिक्कत हो रही थी.
‘पता नहीं...बस मुझे पसंद नहीं वो बाज़ार...’ राजेश झुंझला गया था.
‘अगर इतना ही बुरा लगता है तो तुम खुद क्यों लाइक करते फिरते हो औरतों की तस्वीरें....बोलो?’ कन्नू अब अड़ चुकी थी.
‘क्योंकि वो औरतें मेरे घर की नहीं हैं...वो चाहती हैं कि लोग उन्हें पसंद करें इसलिए करते हैं लोग. मैं भी करता हूँ.’
‘ये गलत है. ये तो मौकापरस्ती हुई.’
‘अच्छा बाबा, अब नही करूँगा. ओके ?’ राजेश ने समझैतापरक मुद्रा अख्तियार की.
‘अच्छा हो कि जो हम सोचते हैं, वो ही करते भी हों...’ कन्नू ने उलाहने में कहा और उठकर चल दी.

कन्नू के जेहन में सुमिता वाली बात अटकी हुई थी. जो आदमी सुमिता की इतनी बात करता था, वो अब उसका जिक्र तक नहीं करता. जबकि फेसबुक पर दोनों टच में हैं.

सुबह हुई और जिन्दगी की गाड़ी फिर झटपट दौड़ने लगी. अब कन्नू कभी-कभार फेसबुक के चक्कर मारने लगी थी हालाँकि अब उसको राजेश की कोई हलचल वहां नहीं मिलती. काफी दिन हो जाते तो सुमिता की वॉल भी देख आती. वहां भी कोई हलचल नहीं, कोई अपडेट नहीं मिलती. कन्नू सोचती, ये क्या हो गया है उसे, क्या वो ईर्ष्यालु और शक्की होती जा रही है. फिर इस ख्याल को झटक देती.

इधर फेसबुक से उसकी यारियां बढ़ने लगी थीं. चलते-फिरते लॉग इन करती और अल्लम-गल्लम सामने आने लगता. उसे खीझ भी होती कि किस तरह संवेदनशील मुद्दों का मखौल उड़ रहा है. सबको अपनी दिखाने की पड़ी है. हर कोई चीख रहा है कि मैं कितना बड़ा तुर्रम खां हूँ. एक रोज उसने सोनाली से हंसी-हंसी में कहा भी था, ‘ऐसा लगता है कोई चारागाह है फेसबुक. सब मेमने हैं, मैं मैं करते रहते हैं.’ ‘लेकिन ये मेमने मासूम नहीं शातिर हैं.’ सोनाली ने उसे दुरुस्त किया. ‘और इस शातिरपन में विनम्रता की एक तख्ती भी खुद ही अपने गले में टांग लेते हैं कि भाई, हमें तो कोई लेना-देना ही नहीं इस सबसे...हम तो निर्विकार हैं इन सबसे. लेकिन पांच मिनट तक अगर उनकी प्रोफाइल पिक पर एक भी लाइक न आये तो डिप्रेशन का अटैक पड जाये...और किसी के समाजवादी चिन्तन पर अगर विमर्श का ढेर न लग गया तो बंदा धमकी भरे अंदाज में कहता है कि ये दुनिया रहने लायक नहीं रह गयी...सो अलविदा....अब इस अलविदा वाले स्टेटस को कितने लाइक मिले कितने कमेंट ये देखे बिना छोड़ें कैसे, और उनके बिना भी ये दुनिया मस्त चल रही है ये सहें कैसे सो वापसी फिर से...कि हरी बत्तियों और भाषाई चाशनी में सारा समाज यहीं तो सुधर रहा है, सारे राजनैतिक प्रपंच यहीं, सारे चुनाव यही, सारी संवेदनाओं का बाज़ार यहीं...’ सोनाली ने फेसबुक का पूरा विश्लेष्ण कर डाला जिसे सुनते हुए कन्नू मुस्कुराती रही.

कन्नू को कुछ ही दिनों में इस संसार का सारा सच समझ आ गया था लेकिन साथ ही यह भी कि उसे यहाँ कुछ अच्छे दोस्त भी मिलने लगे और कुछ पुराने बिछड़े हुए दोस्त भी. वैभव भी उसे कॉलेज टाइम के बाद १५ बरस बाद फेसबुक पे मिला. ‘कितना मुटा गया है तू....’ कन्नू ने छूटते ही उसे मैसेज भेजा था.

एक रोज एक कवि महोदय का इनबॉक्स मैसेज चमका, ‘आप बहत खूबसूरत हैं मैम.’ कन्नू का जी किया एक चमाट धरे कान के नीचे. सच ही कहता है राजेश कि ये दुनिया है ही नहीं भली औरतों की.

‘भली औरतें.’ ये शब्द हालाँकि अटका हुआ था कहीं. उसकी बहुत सी दोस्त हैं फेसबुक पे और वो जानती है कि वो कैसी हैं. ये भले बुरे की सीमायें भी खूब तय की हैं समाज ने. उसका मन कसैला हो उठा.

भला होना जो पहले से तय है, उसकी सलीब ढोते-ढोते बूढ़े होते जाना...खुद को लगातार इग्नोर करते हुए. गोल-गोल घूमते जाना. बेवजह.

उसके मन में तमाम बेचैनियाँ बढ़ने लगी थीं. अपने दायरों के बाहर जाने की उलझन थी. राजेश से बात करने का वक़्त ही नहीं होता था. अक्सर दोनों में घर गृहस्थी की बात के अलावा बात हुए महीनों बीत जाते. हालाँकि फेसबुक पर उसका जाना काफी बढ़ने लगा... बीच-बीच में वो सुमिता की प्रोफाइल देखना नहीं भूलती.

एक रोज़ डिनर के वक्त कन्नू ने मुसुकुराकर कहा, ‘सुनो मैं भी अब भली औरत नहीं रही. मुझे बधाई दो.’
‘मतलब?’
‘मतलब फेसबुक पे मजा आने लगा है...मुझे भी.’
‘हाँ, देख रहा हूँ.’ राजेश ने कहा.
‘मतलब देख रहे हैं आप चुप्पे चुप्पे. लेकिन आप तो हमको नहीं दीखते...’
‘मैं बिजी रहता हूँ यार, कभी-कभार गया तो देखता हूँ तुम्हारी सक्रियता.’
‘बहुत बुरा भी नहीं है वैसे, कितने सारे नए लोग मिलते हैं, और काफी कुछ नया देखने सुनने को भी...’
‘देख रहा हूँ तेज़ी से राय बदल रही है तुम्हारी.’ राजेश ने कहा
‘जीवन में जब कुछ न बदल रहा हो तो राय बदल लेने में भी कोई बुराई नहीं है न?’ कन्नू मुस्कुराई...
इधर उसकी वैभव से बातचीत बढ़ने लगी थी. एक रोज जब वैभव ने भावुकता में उसे प्यार जैसा कुछ कहा तो कन्नू सकपका गयी. लॉगाउट तो हो गयी लेकिन सिहरन सी होती रही कई दिनों तक. शादी के १४ बरस हो गए. इस तरह की सिहरन उसके भीतर अब भी बाकी है, उसे पता नहीं था. कॉलेज के ज़माने के वो कमसिन दिन याद आ गए जब कोई निगाह भर देख भी लेता था तो महीनों नींद नहीं आती थी.

वैभव के उस इज़हार की अजीब बात यह हुई कि कन्नू को बुरा नहीं लगा. वो असहज ज़रूर हुई लेकिन गुस्सा आया हो, चिढ हुई हो ऐसा भी नहीं था.
कुछ दिन वो फेसबुक पर जाने से बचती रही लेकिन जल्दी ही सिलसिला फिर शुरू हो गया.
कन्नू और वैभव में बातचीत भी होने लगी. उसे वैभव से बात करना अच्छा भी लगता था लेकिन साथ ही कन्नू के भीतर कोई अपराधबोध भी घिरने लगा. शायद उसी अपराधबोध के चलते अब वो राजेश को ज्यादा वक़्त देना चाहती. उसका ख्याल रखती, उसकी पसंद-नापसंद का और ज्यादा ख्याल रखने लगी. घर में होने वाली रोजमर्रा की तकरार में कमी आने लगी थी.

वो दिन में चार बार खुद को बताती कि बात ही तो कर रही है, और तो कुछ नहीं है. वैभव को भी बता दिया है उसने कि वो अपनी शादी से खूब खुश है इसलिए ज्यादा इधर-उधर की सोचने की ज़रूरत नहीं. अपने भीतर के असमंजस से लड़ने के लिए वो राजेश की और अपनी तस्वीर भी वॉल पे चिपका देती जिसे सबसे पहले लाइक करने वाला वैभव ही होता. वैभव भी अपनी पत्नी के साथ वाली तस्वीरें चिपकाता. दोनों एक-दुसरे की हैपी फैमली वाली तस्वीरें लाइक करते और घंटों चैट करते.

वजह का ठीक-ठीक पता नहीं था, फिर भी कन्नू जिन्दगी में कुछ तो बदलाव महसूस कर रही थी. उसके तैयार होने में थोड़ी और नफासत आने लगी थी, स्टाफ रूम में होने वाले हंसी-मजाक में उसकी भी मुस्कुराहटें शामिल होने लगी थीं. मेहुल को पड़ने वाली डांट में कुछ कमी आई थी.

एक रोज राजेश ने उसे बताया कि उसे हफ्ते भर के लिए बड़ोदा जाना है, मीटिंग के सिलसिले में. कन्नू ने फटाफट उसकी तैयारी कर दी.
राजेश चला गया. जाने क्यों इस बार राजेश का जाना कन्नू को बुरा नहीं लगा. काम निपटाकर इत्मीनान से लॉगइन हुई. वैभव का मैसेज उसका इंतजार कर रहा था.
‘कहाँ हो, कबसे इंतजार कर रहा हूँ.’ कनु मैसेज देखते ही मुस्कुरा दी.
‘क्यों कोई काम नहीं है क्या?’ कन्नू ने मैसेज टाइप किया.
स्माइली आ गयी तुरंत.
‘राजेश गया?’ वैभव ने पूछा.
‘हाँ.’ कन्नू ने जवाब दिया....
‘आज तो हम आपको नहीं छोड़ेंगे. आपकी सेवा में हाज़िर...’ वैभव शरारत के मूड में था.
‘अच्छा जी...’ कन्नू ने भी स्माइली भेज दी.
देर रात तक दोनों बातें करते रहे....बारिश होती रही...मिट्टी महकती रही.

सुबह कन्नू ने छुट्टी का मैसेज डाला और मेहुल को स्कूल भेजकर फिर से बिस्तर में सिमट गयी. दिन में उसने बड़े दिन बाद फरीदा खानम को सुना...’आज जाने की जिद न करो...’
इसी इसरार के साथ वैभव ने रात उसे छोड़ा था.
कोई नशा सा महसूस हो रहा था कन्नू को.
वो लगातार सोचती जा रही थी कि इतने बरसों में क्या था जो कम था उसकी जिन्दगी में. राजेश ने उसे कम प्यार तो नही किया. फिर ये क्या हो रहा है उसे. क्यों वैभव की बातें उसे बुरी नहीं लगतीं. क्यों अचानक बारिशें सिर्फ धरती पर नहीं बरस रहीं, उसके मन में यह भाव भी आता कि राजेश के प्रति गलत तो नहीं ये.

पर गलत क्यों होगा...? क्या पति-पत्नी होने का अर्थ एक दुसरे की भावनाओं पर कब्ज़ा करना है. अगर ऐसा है तो मेरे भीतर ये भाव आने ही नहीं चाहिए. इस तरह की भावनाएं सिर्फ राजेश के लिए ही होनी चाहिए. ये वैभव कहाँ से आ गया? क्यों वैभव की बातें उसके भीतर एक पुलक, एक थिरकन जगाती हैं.

‘शाम को साथ में काफी पियें?’ दो सवालों के बीच से निकलकर कनु का मन निकलकर कॉफ़ी टेबल पर खिलखिलाने लगा.
लगातार गृहस्थी में दौड़ते-भागते कन्नू के भीतर की नदी सूखने लगी थी...राजेश का निरंतर मिलता प्रेम भी उसकी नमी को लौटा नहीं पा रहा था...और अब बेवजह ये नदी कलकल बहे जा रही थी...

उस रोज जब कन्नू वैभव के साथ फिल्म देखकर निकल रही थी और अपने पोर-पोर में वैभव के शरारती स्पर्श की थिरकन को छुपाने की कोशिश कर रही थी कि उसकी नजर उसी हॉल के कोने में बैठे जोड़े पर पड़ी...राजेश और सुमिता...

राजेश के कंधे पर सुमिता का सर था और और सुमिता की पीठ पर राजेश का हाथ...वो चुपचाप घर आ गयी...चेंज करके किचन में गयी...तभी राजेश भी आ गया...यार कुछ अच्छा सा खिलाओ आज...बड़ी भूख़ लगी है...राजेश की आवाज़ में चहक थी...कन्नू की आंखें बरसना नहीं ही रोक पायीं और हमेशा की तरह वाशरूम की पनाह काम आई...

फेसबुक सामने खुला था...राजेश अच्छा सा खाकर सो चुका था...’थैंक्स फॉर सच अ स्वीट ईवनिंग डार्लिंग. लव यू’ वैभव का मैसेज पड़े-पड़े मुरझा चुका था...बाहर बारिश हो रही थी लेकिन मिटटी की खुशबू गायब थी...

(निकट के दिसम्बर १६ के अंक में प्रकाशित )

Thursday, January 12, 2017

सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है...


तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Sunday, January 1, 2017

अकेलेपन में खिलना और महकना...


नदी की बीच धार में उसने धीरे-धीरे अपनी मुठ्ठी खोल दी थी...मेहँदी के साथ-साथ उसने अपने हाथों की सारी लकीरें भी बहा दी थीं. मेहँदी का रंग नदी में घुलने लगा, नदी का पानी ललछौवां हो गया, हिनाई खुशबू नदी की धार के साथ बहने लगी. उसने अपनी पलकों को मूंदा और चेहरा आसमान की ओर किया. उसके भीतर की नदी बंद पलकों से छलकने लगी. उसने अपनी दोनों बाहें पसारीं...आसमान उसकी बाहों में सिमटने लगा...नदी की धार के ठीक बीच में उसने आसमान को गले लगाया...होंठ बुदबुदाये...सुख...

छप्प की आवाज़ आई...वो आँखें मूंदे-मूंदे ही मुस्कुराई...जानती थी सूरज ने नदी में छलांग लगाई है. वो दिन भर ड्यूटी करके थक गया जो गया था. पेड़ों पर बैठे परिंदे पंख फड़फड़ाकर उड़ गए...लड़की अपने अकेलेपन में डूबने उतराने लगी.

अकेलापन...एकांत नहीं अकेलापन. लड़की ने अकेलापन कमाया था. जिन्दगी के साथ जूझते हुए, बिना हारे, लड़ते हुए...कभी-कभी हारकर भी. अकेलापन उसे मिला नहीं था, उसकी झोली में आ नहीं गिरा था, उसने इसे खुद कमाया था...और आज वो इस अकेलपन के सुख में आकंठ डूबी है, तृप्त है.

कैसी अजीब सी बात है न, कि सारे ज़माने में लोग अकेलेपन से जूझ रहे हैं, रो रहे हैं, तड़प रहे हैं, अकेलेपन से लड़ने के तमाम उपाय कर रहे हैं ऐसे में कोई है जो इसी अकेलपन के सुख को जी रहा है, उसकी पूरी सम्पूर्णता के साथ. क्या यह संभव है, ये कैसे संभव है भला? यही प्रश्न मुश्किल है. हालाँकि इतना मुश्किल भी नहीं.

है क्या ये अकेलापन-
अकेलापन है क्या आखिर? कब और कैसे मालूम होता है कि अब अकेलापन आ चुका है जीवन में. आया है या हमने खुद उसे बुलाया है. जो भी है, जैसे भी आया है लेकिन हम शायद उसे ठीक-ठीक समझ नहीं पाए. उसके आने पर किस तरह उसके साथ मेलजोल बढ़ाना है, कितना बढ़ाना है, कैसे उसे अपनी जिन्दगी में बिसूरने की नहीं खुश होने की वजह बनाना है, कैसे अब तक के छूटे-बिखरे तमाम लम्हों को एक लड़ी में पिरोना है और उन्हें जी लेना है यह सब जानना बाकी ही है अभी. इस न जानने का नतीजा यह हुआ कि नकारत्मक अवधारणाएँ इसके बारे में प्रचलित हो गयीं और ज्यादातर लोग इसके आने से घबरा जाने लगे, दुःख में डूब जाने लगे, भागने की कोशिश में डूबने लगे, निराशा में जाने लगे.

और शायद इसलिए हम जान ही नहीं सके कि अकेलापन एक नेमत है, एक असाधारण सुख. इसी अकेलेपन की तलाश में ही तो पीर फकीर, साधू-सन्यासी जंगलों की खाक़ छानते फिरे...और उन्हें लम्बी साधना के बाद जो मिला वो ज्ञान क्या था...उनका अपने आप को समझ पाना, दुनिया के नीति नियमों से दूर अपने केंद्र पर अपना अख्तियार कर पाना. बुद्ध को उस वृक्ष के नीचे सुजाता के हाथ से खीर खाकर और कौन सा ज्ञान प्राप्त हुआ होगा भला...

जिन्दगी बेहद साधारण चीज़ों में होती है, मामूली लम्हों में लेकिन हम उन मामूली लम्हों को इग्नोर करके जाने किस खोज में भटकते फिरते हैं. इस भटकाव से कैसे बचना है, यह सीखना ही जिन्दगी की ओर कदम बढ़ाना है.

अकेलापन भी उन्हीं में से एक है. अकेलापन सुख है...इसका हाथ थामकर जिन्दगी ज्यादा समझ आने लगती है, मौसम ज्यादा करीब आ जाते हैं, हम खुद को ज्यादा प्यार करने लगते हैं...सुबह की चाय का स्वाद अपनी ही सोहबत में और बढ़ जाता है...

यह अकेलापन ही है, जो हमें हमसे मिलाता है, जो हमारे वजूद को टटोलकर हमें बताता है कि ये तुम हो, अब खुद को और निखारो और जियो...ये अकेलापन ही है जिसने दुनिया भर की रचनात्मकता को जन्म दिया...प्रेम के असीम लम्हों में जब देह से इच्छा का साथ छूट जाता है तब अपने व्यक्तित्व की पूर्णता का एहसास होता है...असीम अकेलेपन के उन लम्हों में वो जो पलकों से छलकता है वो सुख, अपने स्व को पूर्णता में महसूस करने का.

कई बार यूँ भी होते पाया है कि याद में कोई जितना करीब होता है, उसकी उपस्थिति उस करीबी को खरोंच देती है...वापस अपने एकांत में जाकर अपने अकेलेपन में गढ़ना उसकी खुशबू और जीना इश्क...

वो जो तन्हा है, वो तन्हा क्यों है-
सुना है कि आजकल लोगों में अकेलापन बढ़ता जा रहा है. पर कैसे? आजकल तो हर वक़्त हर कोई किसी न किसी के साथ ही होता है. सोशल मीडिया के सहारे या किसी और माध्यम से, हमारे चारों ओर लोगों का हुजूम है. घर से लेकर बाहर लोग ही लोग हैं...बातें ही बातें...हंसी मजाक, घूमना फिरना, शादी ब्याह के जलसे, पार्टियाँ, थिरकते कदम, खिलखिलाते मुस्कुराते चेहरे और एक रोज़ सब ठप्प...अचानक. पता चलता है कि कोई तन्हाई थी जो भीतर-भीतर ही पल रही थी और एक रोज़ वो बीमारी बन गयी.

वो जो भीतर पल रहा था, वो क्या था? क्या हमने कभी उससे बात की थी? वो क्यों था? अगर वो था तो उससे उदासी ही क्यों रिस रही थी? अकेलापन मन की स्थिति है...यह तो समझना ही होगा लेकिन इसके लिए समझना होगा मन भी. मन क्या होता है, कहाँ रहता है आखिर?

आओ मिलकर इस अकेलेपन की कदर करना सीखते हैं, इससे प्यार करना सीखते हैं.

उदासी से क्या रिश्ता है अकेलेपन का-
जाने कब कैसे अकेलेपन को निराशा और उदासी से जोड़ दिया गया होगा. या शायद हो भी कोई रिश्ता. कि अकेलेपन के चलते लोगों को डॉक्टरों के चक्कर क्यों काटने पड़ते भला. कल तक जो साथ था, अब वो दूर-दूर तक नहीं है, सबके साथ कोई न कोई है हमारे ही साथ कोई नहीं है, या वो नहीं जिसका तस्सवुर किया रात दिन...और अब ये रात दिन का अकेलापन...काटता है...ऐसे न जाने कितने लोग आसपास हैं, कितने किस्से. हम सब कभी न कभी अकेलेपन से जूझे ज़रूर हैं, उससे भागते फिरे हैं...न जाने कितने उपाय करते फिरे..लेकिन हाथ क्या आया?

किसी का साथ होना भर अगर अकेलापन दूर करने की वजह होता तो आज क्यों बढ़ रहा होता इतना अकेलापन? हर किसी के पास कोई न कोई तो है ही...किसी न किसी रूप में. अगर यह अकेलापन व्यक्ति से जनित है तो क्यों उसी व्यक्ति के होते, हुए उसी के साथ रहते हुए जिसके साथ की तमन्ना हमेशा की थी अकेलापन आ जाता है जीवन में. अगर यह जीवन में आये दुखों से, असफलताओं से जनित है तो क्यों सुख के, ख़ुशी के पलों में भी अचानक एक हूक सी उठती है कलेजे में और दुनिया के तमाम शोर से उठकर दूर कहीं भाग जाने को जी चाहता है.

कनेर की डाल पर मुस्कुराते पीले फूल-
जीवन कनेर की डाल सा मालूम होता है. जिस पर लहलहाते पीले फूल लुभाते हैं, लेकिन उन्हें तोड़ने को हाथ नहीं बढ़ते कि बचपन में किसी ने बता दिया था ये फूल भगवान को नहीं चढ़ाये जाते. इतने प्यारे फूल....भगवान को क्यों नहीं चढाए जाते, सफ़ेद चांदनी, मदार और न जाने कितने जंगली फूल जिन्हें न कभी जुड़े में किसी ने सजाया न मंदिर में चढ़े, न ड्राइंगरूम की शोभा बने...क्यों इसका जवाब किसी के पास नहीं...क्योंकि पूछना मना है...बस सदियों से जो कहा जा रहा है उसे फॉलो करना है...एक रोज़ उसने अपने जूड़े में कनेर का फूल लगाया और इतराकर आईना देखा, आईना मुस्कुरा उठा. उसे लगा ये सारे फूल उसी के लिए छोड़ दिए गए हैं...ये सारे फूल सिर्फ उसके हैं...कोई भगवान नहीं, कोई शादी ब्याह नहीं, कोई बाज़ार नहीं...उसके जीवन में अब रंग-बिरंगे फूलों की भरमार है...सब उसके हैं...वो उन सबकी है...

अकेलापन भी ऐसा ही कनेर का फूल सा हो चला है...किसी को नहीं चाहिए...पूजा में वर्जित फूल...क्यों, यह पूछना मना है...लेकिन जिसने जमाने से बेपरवाह होकर इससे दोस्ती कर ली, उसे सुख हुआ...कि जिंदगी ज्यादा करीब महसूस होने लगी और अपने आपसे प्यार हो चला. अपने सुख की वजह जिसे बाहर ढूंढते फिरते रहे...वो अपने ही भीतर मिली...बस हथेलियाँ फैलायीं और टप्प से एक बड़ी सी बूँद गिरी हथेली पर...भीतर का सारा सूखा हरे में तब्दील होने लगा...

चाँद तनहा है, आसमां तन्हा-
ज़िन्दगी की राहों पर चलते-चलते एक रोज़ मुसाफिर थक के बैठा तो उसे अपनी छाया दिखाई दी...उसने रास्तों की ओर देखा, रास्ते की कोई छाया नहीं थी, ज़मीं अकेली थी, आसमान अकेला था...नदी चुपचाप बहती जा रही थी, किसी धुन सी गुनगुनाती, बलखाती अकेली, मगन अपने आप में...चाँद तनहा, तारों से भरे आसमान में हर तारा तनहा, तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लिए मेरा मन तनहा...तुम्हारे साथ तुम्हारी कामना और तुम्हारे बिना तुम्हारे होने का सुख खुद से मिलकर ही तो जाना है. अपना हाथ थामे बिना किसी और का हाथ कोई कैसे थाम सकता है भला, और अपना हाथ थामने के लिए ज़रूरी है थोडा सा अकेलापन, थोड़ी सी गुफ्तगू खुद से, थोडा सा रूमान जिन्दगी के साथ...तभी तो चाँद तारों से दोस्ती होगी जिसकी छाँव तले तुम्हारा होना महसूस हो सकेगा...वरना तो दुनियादारी ही निभती रहेगी रिश्तों में भी...

अकेलेपन की हाथ बढ़ाना, पाना खुद को-
कभी यूँ भी महसूस हुआ है कि बिना जाने ही चीज़ों को अपना लेने या ठुकरा देने का जो चलन है, उसने शायद हमारे साथ काफी ज्यादती की है. खामोशी की लम्बी लकीर के उस पार चाँद कितनी मोहब्बत से हथेलियों पर उतर आता है कभी जाना ही नहीं...भीड़ भरे जीवन में कभी फुरसत ही नहीं थी चाँद से घंटों बतिया पाने की, आसमान से उसके हाल पूछने की या अपना मन उनके आगे उड़ेल देने की...जब जरा अकेलेपन की ओर हाथ बढाया तो मालूम हुआ कि असल में अपनी ओर हाथ बढाया है. जिन सुखों की वजह कस्तूरी बनकर बाहर, दूसरों में ढूंढते फिर रहे थे वो अपने ही भीतर थी...बेवजह अपने सुखों की चाबी किसी और को देकर असल में अपने लिए दुःख जमा कर रहे थे...वो जो किसी के साथ होने का एहसास है वो हमारा उससे जुड़ने से जन्मा है और उसे ख़त्म कर पाना या कम कर पाना किसी और के हाथ में कैसे हो सकता है भला.

एहसास कभी जुदा नहीं होते, लोग जुदा होते हैं... अकेलापन उस एहसास में शिद्द्द्त से पैबस्त होना सिखाता है. मोहब्बत असल में अपने करीब आना ही है, बस कि शुक्रगुज़ार उस साथी का होना होता है जो हमारा हाथ पकड़कर हमें हमारे करीब ले आता है...फिर वो रहे न रहे...जिन्दगी तो महकती ही रहती है...खिलती ही रहती है...

तेरे न होने में होना तेरा-
वो जिसे इबादत कहती है दुनिया, पूजा कहती है, ईश्वर के सजदे में होना कहती है वो अकेलेपन की वही यात्रा तो है...ऐसी स्थिति में होना जहाँ आसपास की तमाम चीज़ों से डिस्कनेक्ट होकर अपने केंद्र पर पहुंचना, केंद्र जो हमारे ही भीतर है...बाहर की आपाधापी में जिससे लगातार हाथ छूटता गया....वापस वहीँ पहुँचने की कोशिश...यही तो है अध्यात्म...यही तो है पूजा.

अध्यात्म की वो स्थिति जहाँ पवित्र रूदन भी है और सघन मुस्कुराहटें भी. बाहर कोई नहीं, सब अंदर है. अकेलापन मन की सुन्दरतम स्थिति है बस कि हमें मालूम नहीं कि इसके साथ पेश किस तरह आयें, हम इससे भागते रहते हैं या इसे खरोंचते रहते हैं. इस कोशिश में लगातार खुद से दूर जाते रहते हैं. बिना खुद के पास आये, बिना खुद को मोहब्बत किये हम किसी को भी क्या प्यार कर पायेंगे, किसी के क्या करीब जा पायेंगे. इसीलिए देह के तूफ़ान उठते हैं, गुज़र जाते हैं...ठहरता कुछ भी नहीं...व्यक्ति जो देह के, आवेग के उस पार है, वहां पहुँचने की योग्यता हासिल करनी होती है...न न कोई साधू सन्यासी होने की बात नहीं है यह, बस अपनी प्याली की चाय के हर घूँट को ठीक से महसूस करने जैसा सरल और आसान है...चलो फिर उठाओ अपनी चाय का प्याला...अभी..

एक प्यारे से एहसास अकेलेपन को यानि अपने खुद के करीब होने को दुनियादारी के तमाम आवरणों से ढांककर मैला कर दिया गया..इसे उदासी का, निराशा का कारण बना लिया है...बीमारी की वजह बना लिया है...बीमारी की वजह अकेलेपन का होना नहीं है, अकेलेपन को ठीक से समझ न पाना है, उसकी मुठ्ठी में हमारे लिए बहुत कुछ है, लेकिन हम उससे डरकर छुप जाते हैं, घबराकर कहीं दूर भाग जाना चाहते हैं, रुदन में सिमट जाते हैं, बीमार होने लगते हैं...भीतर ही भीतर टूटने बिखरने लगते हैं...लेकिन अकेलेपन की मुठ्ठी को खोलते नहीं. नहीं देखते कि उसमें हमारे लिए कुछ चमकते हुए लम्हे हैं, खुद पर विश्वास करना है, जिन्दगी को ठीक से महसूस करने का सुख है, बारिशें हैं, चाँद राते हैं...हम इन सबसे मुंह मोड़कर बैठे रहते हैं अकेलेपन से घबराकर भागते फिरते हैं....

कभी जब इस नए दोस्त से दोस्ती हो जाएगी तो सिनेमाहॉल में एक टिकट लेकर एक कप कॉफ़ी ऑर्डर करके सिनेमा देखने का सुख महसूस होगा. अपनी सोहबत में अपने साथ मीलों पैदल का सफ़र तय करने का लुत्फ़ होगा. अपनी ही मुस्कुराहटों पर खुद निसार होकर तमाम बारिशों को, पंछियों के कोलाहल के बीच खुद को छोड़ देने का आनंद होगा. तब अकेलापन बीमारी नहीं जिन्दगी का उत्सव सा नजर आएगा...सच्ची.

अगर आप धार्मिक हैं तो अध्यात्म की उच्चतम स्थिति है अकेलापन और अगर आप यायावर हैं तो आप जानते ही हैं कि यायावरी अकेलेपन की वह उच्चतम स्थिति है जहाँ महसूसने की तमाम हदें टूट जाती हैं...किसी समन्दर के सामने धूनी लगाकर घटों एकटक ताकते हुए कोई मिले अगर आपको तो आप उसे अकेला या उदास समझकर तरस मत खाइएगा, उसके सुख़ में होने से ईर्ष्या ज़रूर कर सकते हैं.

अकेले रहना अकेलेपन की ज़रूरत नहीं-
अकेलेपन को अकसर लोगों के अकेले रहने से जोड़कर देखने का रिवाज़ सा है. अजीब बात है न? अकेलापन तो परिवार के साथ होते हुए, दोस्तों के साथ होते, भीड़ भड़क्के में, दुनियादारी के शोर के बीच भी खूब मिलता है...वो निदा फ़ाज़ली साहब की लाइन है न ‘ हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी, फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी...’ यानि अकेलापन और अकेले रहना दो अलग-अलग बातें हैं. हाँ, यह ज़रूर है कि कुछ लोगों ने अपने अकेलेपन को बचाए रखने के लिए खुद को दुनियादरी से दूर कर लिया धीरे धीरे और अकेले रहना भी चुन ही लिया. लेकिन वो दूसरी बात है, यह कोई ज़रूरी शर्त नहीं. बस एक ही दिक्कत है कि समाज, परिवेश, हम सब अभी इसे संभालना इसके साथ किस तरह पेश आना है ये समझ नहीं पाए हैं.

‘वो बहुत अजीब इन्सान है, न किसी से बोलता है, न चालता है, न कहीं आना न जाना...जाने क्या करता है अकेले. सामान्य नहीं है वो...’ अपने अकेलेपन में अपने काम को जीते, अपने जीवन को महसूस करते हुए इस तरह के लोग जब हमारे आसपास होते हैं तो उनको हम नॉर्मल नहीं होने की कैटेगरी में डाल देते हैं. दरअसल, ये हमारा उन्हें न समझ पाना है. ये न समझ पाना कि वो शायद खुद को समझ चुके हैं...और उन्होने अपनी जिन्दगी से बेवजह के सामान को कम कर दिया है. कुछ लोग भीड़ में रहते हुए भी अपने इस अकेलपन को बचा लेते हैं और अपनी सुबहों, अपनी शामों को अपनी मुताबिक जीने की कोशिश करते रहते हैं...कुछ लोग अपने अकेलेपन को एकांत में उठाकर ले जाते हैं...लेकिन यह तो तय है कि अकेलापन अकेले रहने की दरकार नहीं करता. जो अकेले रहते हैं वो अकेलापन नहीं भी जी रहे होते हैं और जो भीड़ में रह रहे हैं वो अकेलेपन को जी रहे भी हो सकते हैं.

ओ डॉक्टर बाबू, सुनो तो-
अगर किसी के जीवन में कोई है तो उसका होना उसके भीतर का भराव कितना है यह समझना होगा. ज्यादातर जो बीमारियाँ हैं, डिप्रेशन हैं जिनकी वजह अकेलापन माना जाता है वो बाहरी अकेलेपन की बात है. किसी का साथी बिछड़ गया, कोई लगातार असफल होता रहा, किसी को लगता है कि उसकी किसी को फ़िक्र नहीं...ये बाहरी स्थितियां हैं जो अंदर तक नकारात्मकता भर रही होती हैं और व्यक्ति डॉक्टर के चक्कर काटने लगता है, या कभी चुपचाप उदासी में सिमट जाता है. जबकि बाहर की हर स्थिति से आसानी से या मुश्किल से लड़ा जा सकता है. कभी कभी लगता है, न लड़ पाना, लड़ने की हिम्मत छोड़ देना भी अकेलापन का कारण बनता है, उदासी का, निराशा का कारण. अकेलापन नहीं, कुछ और हैं कारण उदासी के, समझना होगा, अकेलेपन के कंधे पर अपनी नाकामियों का बोझ डालना ठीक नहीं. जीवन में सब कुछ व्यवस्थित करने के लिए कमर कसिये, बाहर की दुनिया को दुरुस्त करिए और तब अपने साथ अकेले में बैठकर बात करिए...सुख मिलेगा...

वो जो दिखती है तन्हाई सी...
वो जो दूसरों को नज़र आती तन्हाई आपकी, वो पूरा सच है क्या? नज़र आने वाली तन्हाई में आसपास लोगों की भीड़ का कम होना होता है, जीवनसाथी या प्रेमी का न होना, परिवार या दोस्तों का न होना. जिन्हें ये नज़र आती है वो शुभचिंतक इस तन्हाई को लेकर एक अवसाद का तानाबाना बुनने लगते हैं...वो अपने साथ या साथी के होने के सुख से भरपूर होने के वहम का सुख अकेले व्यक्ति के कन्धों पर इस तरह उड़ेलते हैं कि उसे अपनी तन्हाई को छोड़कर उसके जैसा होने का जी चाहता है. वो भी किसी ‘और’ के ‘साथ’ की कल्पना में उदास होने लगता है, और धीरे-धीरे अकेलापन अवसाद में तब्दील होने लगता है...लेकिन हम ये कभी नहीं जान पाते कि जिनके जैसे न होने के दुःख में अकेलापन चुभ रहा है वो खुद भी बहुत अकेले हैं. वो जो अपने दोस्तों को तन्हाई से आज़ाद कराने के तमाम उपक्रम कर रहे हैं, वो खुद अपने भीड़ भरे घेरे में तन्हा ही हैं...बस न वो खुद को देख पा रहे हैं, न कोई और उन्हें देख पा रहा है.

जीवन को देखना नई नजर से-
जीवन हमें वैसा दिखता है, जैसा हम उसे देखते हैं. हम जीवन को वैसे ही देखते हैं जैसे उसे देखने के हम अभ्यस्त होते हैं या कराये जाते हैं. संभवतः समाज ने शुरू से ही अकेलेपन को नकारत्म्कता के साथ देखा और सारे नियम अकेलेपन को तोड़ने के बनाये. इसीलिए जीवन में अकेले हो गए या कर दिए गए लोगों के प्रति तरस का, सहानुभूति का या उपहास का भाव रखा. उन लोगों को तो खैर समाज कभी समझ ही नहीं पाया जिन्होंने खुद स्वेच्छा से अकेलापन चुना. समूची दुनिया ने उन्हें पागलों की श्रेणी में ही डाल दिया.
‘अजीब पागल जैसा शख्स था, घंटो अकेले बैठा दूर आसमान को ताकता रहता था...’
‘उम्र हो गयी, ब्याह कर दो ताकि इसका अकेलापन दूर हो जाये’...
’बेचारे का जीवनसाथी बीच सफ़र में बिछड़ गया, इससे बड़ा कहर कोई हो ही नहीं सकता’
‘ हाय बेचारा जीवन के सफ़र में अकेला रह गया’ इस तरह के जुमले अकेलेपन को हिकारत से, घबराहट से देखने के आदी बनाती है. अगर इस पहले से तयशुदा फ्रेम से अलग अकेलेपन को देखना, समझना आ जाए तो संभवतः इसका रचनात्मक उपयोग हो सके. और तब इसे लेकर बिसूरना बंद हो, सुकून संग हो...

मुग्धा होना जीना, मुस्कुराना-
उसे यह बात काफी पहले ही समझ में आ गयी थी कि ज़माने से बेपरवाह होकर ही जिया जा सकता है. वरना तो जिंदगी ज़माने के नीति नियमों पर चलते ही बीत जायेगी. मुग्धा मुस्कुराकर बताती है कि दरअसल बाहर का कोई व्यक्ति कभी जान ही नहीं सकता कि आपका अकेलापन कब है आपके साथ, और वो आपके साथ किस तरह से पेश आ रहा है. लेकिन बाहरी दबावों के चलते हम खुद को ही समझ नहीं पाते. सोचो तो, हमारा महसूस करना भी हमारा नहीं है, अजीब बात है न? जिन दिनों मैं दुनिया की नज़रों में खुश, कामयाब और ‘साथ’ से भरपूर थी असल में उसी वक़्त मैं सबसे ज्यादा तन्हा थी...लेकिन तब वो तन्हाई मुझे उदास करती थी. जीवनसाथी के साथ होते हुए, प्रेम से भरपूर होते हुए, दोस्तों के बीच हंसते हुए मैं अपने भीतर कोई खालीपन रेंगता महसूस करती थी...मुझे मालूम नहीं था कि मेरे भीतर क्या चल रहा था...बस कि सब छोडकर कहीं दूर भाग जाने को जी चाहता था. धीरे-धीरे मैंने भीड़ में होते हुए भी, लोगों के बीच होते हुए भी खुद को अलग करना सीख लिया...यह मेरे सुख की शुरुआत थी...अब लोगों के बीच होकर भी मैं अपने अकेलेपन को जीने लगी थी. संवाद मेरे इर्द-गिर्द से गुज़र जाते थे, लोग मेरे आसपास से गुजरते रहते थे...लेकिन मैं अपने अकेलेपन में सुरक्षित थी, खुश थी. धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि इस झूठ-मूठ के घेरों की ज़रूरत क्या है...क्यों न मैं अपने साथ रहूँ...और मैंने खुद का साथ चुन लिया...बस उसी दिन से मैं लोगों की आँखों की किरकिरी बन गयी. लेकिन मैं इसके लिए उन्हें दोष नहीं देती क्योंकि जिन्होंने गुड का स्वाद चखा ही नहीं, वो कैसे जानेंगे उसे...मेरे लिए तो मेरा अकेलापन एक नेमत है.

शादी का अकेलेपन से क्या रिश्ता है-
आकाश में टंगा ध्रुवतारा गवाही देता है कि इस धरती पर दो लोग अब एक हो जायेंगे और उन दोनों के जीवन में एक दूजे का साथ गुंथ जायेगा. लेकिन शादी का अकेलेपन से क्या रिश्ता है आखिर? क्या दो लोगों का एक साथ रहना, देह के रिश्ते से जुड़ना, जिम्मेदारियों के रिश्ते से जुड़ना अकेलपन से मुक्ति का रास्ता है...अगर ऐसा है तो कोई भी शादीशुदा व्यक्ति तन्हा होता ही नहीं. जाने क्यों अकेलेपन को दूर करने के उपाय के तौर पर शादी को देखा जाता है और दो अकेले लोगों को एक-दूसरे की उपस्थिति में अकेले रहने की ओर धकेला जाता है. अकेलापन भीतर की स्थिति है, जिसे किसी बाहरी की उपस्थिति से कम या ज्यादा तो किया जा सकता है, दूर नहीं किया जा सकता.

एक तो औरत, वो भी अकेली, फिर भी खुश ?

एक रोज़ जिंदगी के करीब बैठकर जब वो चाय का आखिरी घूँट गटक रही थी, उसे महसूस हुआ कि जिंदगी भी उसके करीब आने को उतनी ही उत्सुक थी जितनी वो उसके करीब जाने को. लेकिन वक़्त जिस तरह ज़र्ररररर से निकला जा रहा था, उसे यही लगता रहा कि जिंदगी उससे भागती फिर रही है...कभी गुस्से में उसने भी कहा ‘ओये जिन्दगी, जा मैं तुझे छोड़ दूँगी...’ लेकिन ठीक उसी वक़्त जिन्दगी ने उसके सर पर हाथ रख दिया था. दोनों फफक के रो पड़ीं...जिन्दगी ने कहा, ‘मैं तो तुझे छोड़कर कभी नहीं गयी...बस तेरे मेरे बीच लोगों का, काम-काज का, रस्मो-रिवाज का सैलाब आ गया था. और हम दोनों एक दूसरे से दूर होते गए...’

बस उस रोज़ दोनों में दोस्ती हो गयी...उसने दोनों के बीच आये सैलाब को कम करना शुरू किया, रस्मो-रिवाज के तौर पर किये जाने वाले तमाम काम बंद किये, वो करना शुरू किया जो उसका दिल चाहता था...उसने लोगों की भीड़ से खुद को अलग किया और उनका साथ चुना जिनका होना या न होना उसके भीतर की दुनिया में भी दखल रखता था. नाममात्र के जो रिश्ते नाते थे साथ होकर भी जिनके साथ को कभी महसूस नही किया था, उसने उन सबसे किनारा कर लिया और इस तरह उसकी जिंदगी से दोस्ती मजबूत होती गयी लेकिन एक और ही लेबल चस्पा हुआ फिर उसके माथे पर...अकेली औरत.

वो मुस्कुराई, अकेली होना अकेलेपन में होना नहीं है. अकेलेपन में होना उदासी में होना नहीं है...अकेली जब थी तब किसी को लगी ही नहीं, उदास जब थी, तबकी तमाम तस्वीरों में मुस्कुराहटें तारी हैं ही लेकिन अब जबकि जिंदगी जीने का मज़ा आने लगा है, अपने अकेलेपन का स्वाद महसूस होना शुरू हुआ है तब सारे ज़माने को तन्हाई नज़र आती है...तन्हाई में भी एक बेचारगी...लेकिन भला ये कैसी बात हुई कि ज़माना आंसू पोछने को रूमाल लिए खड़ा था, कन्धा बनकर सांत्वना देने को आतुर था और वो मुस्कुराकर अपने जूते के फीते कस रही थी...कि जिन्दगी के सफ़र पे उसे बहुत दूर जाना था जहाँ उसे उसका वजूद पुकार रहा था...उसका अपना होना, अपनी ख़ुशी, अपने दुःख...जंगल की खुशबू बाहें पसारे उसके इंतजार में थी और समन्दर की लहरें टुकुर-टुकुर उसकी बाट जोह रही थीं...वो हंस रही थी, मुस्कुरा रही थी, खिलखिला रही थी, गुनगुना रही थी...

और फिर ज़माने की त्योरियां चढ़ीं...ऐसी कोई लड़की होती है क्या...पति से अलग होकर अकेली रहती है और फिर भी खुश रहती है...शादी न करके भी खुश रहती है, ज़रूर कुछ गड़बड़ है...लो जी, तैयार हो गया उसका नया कैरेक्टर सर्टिफिकेट...लेकिन जिसने जीना सीख लिया हो उसने लड़ना भी सीख ही लिया होगा. जिसने लड़ना सीख लिया होगा उसने जमाने के दिए तमाम अच्छे बुरे सर्टिफिकेट भी उठाकर फेंक ही दिए होंगे...और जिसने ये सब कर लिया होगा वो अकेले रहती हो या भीड़ में अपना हाथ मजबूती से थाम ही चुकी होगी...ज़ाहिर है ज़माने की आँख की वो किरिकिरी मुस्कुराकर देखती है ज़माने को, उसकी नादान सोच को, पीठ दिखाकर चल देती है आगे और पलटकर कहती है जिसे तुम अकेलापन समझते थे वो दरअसल अपना होना था, जिससे अब तक भागते फिरती थी वहीँ पनाह थी...समझे तुम...?

ज़माना सुन तो रहा है उसकी बात लेकिन समझ नहीं पा रहा कि जिसके कंधे पर अकेले छूट जाने का, अकेलेपन का इतना बड़ा बोझ हो वो इस कदर खुश कैसे हो सकती है...एक तो औरत, वो भी अकेली, फिर भी खुश...? वो आँखे मिचमिचाते समाज के इस असमंजस पे हंसती है...

तुम गए तो गये कहाँ –
कोई रोके उसे और ये कह दे कोई अपनी निशानी देता जा
गर ये भी तुझे मंजूर नहीं तू याद भी अपनी लेता जा...

अमीरनबाई की आवाज़ घर में गूँज रही थी और जाने वाले की याद जीवन में. वो जिसके जाते ही घुप्प अँधेरा घिर आया था जीवन में, रौशनी से रिश्ता टूट गया था, जिन्दगी से मोह ख़त्म हो गया था...दिन रात अतीत के पन्ने सेल्युलाइड के परदे की तरह जेहन में घूमते रहते...सवाल घुमते रहते, वो कहाँ होगा, किसके साथ होगा, वो खुश होगा शायद...ये सोचकर उसकी शामें, उसकी सुबहें उसके दिन और रात सब उदास हो चले थे...

जीवन में विकट अकेलापन घिर आया था, कितने उपाय किये, कितनी तरकीबे लगायीं लेकिन कोई काम न आई...अकेलापन अवसाद बनने लगा, दुःख जीवन. उसे अपने अकेलपन में ही सुख मिलने लगा. धीरे-धीरे दोनों को एक दूसरे की आदत हो गयी...बहुत वक़्त लगा लेकिन एक दिन दोनों में दोस्ती हो ही गयी.

जिन्दगी ने पूछा, ‘उदास क्यों हो, जिसके लिए उदास हो वो कौन था...उसके प्रति प्रेम तुम्हारे भीतर था या बाहर था. अगर वो भीतर था, तो वो बाहर से कैसे जा सकता है...’ वो ध्यान से सुनती रही...एक रोज उसी अकेलेपन का हाथ पकड़कर वो बाहर आ गयी...अब आंसुओं की जगह मुस्कान थी...जेहन में उसकी याद थी, लेकिन दुःख नहीं.

उसने महसूस किया इस दौरान उसने खुद के स्त्री होने को कितना कोसा था. ‘क्यों कोसा होगा अपने स्त्री होने को मैंने,’ उसने खुद से पूछा क्योंकि हर दुःख स्त्री के जीवन से जुड़ते ही दोगुना बना देता है समाज और सुख आधा. दुःख में लिपटी स्त्री को तो देखने की आदत है सबको लेकिन दुःख से, अवसाद से, अकेलेपन से लड़कर जीतकर बाहर निकलकर हंसती, मुस्कुराती स्त्री को देखने की आदत नहीं है. इसीलिए उसे स्त्री होने के नाते अपने दुःख से लड़ने की बजाय उसे नियति मान लेना सिखाया गया. जहाँ पुरुषों को उनके अकेलेपन से लड़ने के लिए तुरंत समाज उसके लिए जल्दी से नया जीवनसाथी, काम, बदला हुआ माहौल जमा करने लगता है, दूसरी और स्त्री को धीरज रखने, सहने की ताक़त जमा करने, बच्चों का मुह देखकर उनके लिए जीने के नाम के हौसले दिए जाने लगते हैं. अकेलापन वो महसूस न करें, इसके लिए उनकी दुनिया को घर परिवार पति की जिम्मेदारियों को ठीक से निभाने की तरफ ही मोड़ा जाता है. लेकिन बहुत कम स्त्रियाँ जान पाती हैं इस सबके बीच ही वो कितना अकेलापन जी रही हैं. वो अकेलापन, जिसे ठीक ठीक पहचानना ही नहीं आया उनको, उसे सकारत्मक दिशा देने की तो बात ही अलग है.

कोई स्त्री या कोई पुरुष या समाज यह कभी नहीं जान पाता की लिपस्टिक की आड़ से मुस्कराती, घर परिवार और अब नौकरी संभालती हुई स्त्री लगातार कब और कैसे एक चिडचिडी स्त्री में तब्दील होती जा रही है. क्यों और कब वो पुरुषों के दुनिया में फूहड़ चुटकुलों का मसाला हो चुकी है जिस पर वो खुद भी हँसना सीख चुकी है...ये भीड में रहते हुए भी हमारे साथ जो अकेलापन चलता रहता है, जिसकी ओर हम आँख भर देख भी नहीं पाते, उसे महसूस भी नहीं कर पाते वो किस तरह अन्दर ही अन्दर खोखला और निरर्थक कर देता है. खासकर तब जब आप स्त्री हों.

तुम्हारा तो घर है फिर भी-
भला बताओ जिसका अच्छा भला पैसे वाला, रुतबे वाला प्यार करने वाला पति हो, प्यारा सा बेटा हो, दोस्तों में अच्छी साख हो, सोसायटी में कभी कभार चीफ गेस्ट बनने के मौके मिलते हों, फेसबुक पर लाइक्स और कमेंट्स की भरमार हो, ट्विटर पर फौलोअर्स की बाढ़ हो फिर भी वो एक रोज बिना किसी को वजह बताये घर से अलग रहने का फैसला कर ले अजीब बात है न? वो घर छोड़ना नहीं था, अपने आपसे खुद को जोड़ना था...अब एक कमरे के छोटे से फ़्लैट में रहती है, छोटी सी नौकरी करती है, घुमक्कड़ी करती है और खुश रहती है, अब वो अकेली रहती है और अकेले रहने को और अकेलापन दोनों को भरपूर जीती है...पहले वो सबके बीच अकेली रहती थी लेकिन अकेलेपन की उदासियों से भीतर ही भीतर गलती जा रही थी...

फिल्म ‘पिंक’ में जब वकील लड़की से पूछता है कि ‘तुम्हारा तो घर है इसी शहर में फिर तुम अकेले क्यों रहती हो’ तो कितने गिजगिज़ाते हुए सवाल शामिल थे इसके भीतर जिसका सिर्फ एक ही जवाब है हर लड़की के पास, ‘क्योंकि वो अपना होना जीना चाहती थी.’ तो क्या जो लोग परिवार में रह रहे हैं, समाज के नियमों पे चल रहे हैं वो अपना होना नहीं जी रहे हैं? या उन सबको घर छोड़ देने चाहिए? यही है न अगला सवाल?

अकेलापन तो भीड़ में भी है ही सबके भीतर, लेकिन कुछ को इसके होने के खबर है, कुछ को पता ही नहीं चलता और वो दूसरी ही बाहरी वजहों पर चीखकर, चिल्लाकर खुद को खत्म करते रहते हैं...हाँ लेकिन अकेलेपन को जीना कम ही लोगों को आता है...ज्यादातर उसमें मर ही रहे होते हैं...दुःख और अवसाद उगा लेते हैं इससे. स्त्रियों के मामले में यह और ज्यादा होता है...सुखी औरत से हाय बेचारी अकेली औरत के बीच वो कब कहाँ कितनी तनहा है ये न वो खुद समझ पाती है और न ही कोई और...लेकिन जिस दिन समझ जाती है न उस दिन दुनिया उसे नहीं समझ पाती, दुनिया उसे हैरत से देखती है और वो मुस्कुराकर कहती है ‘अपने पास हूँ मैं, किसी और की ज़रूरत नहीं, समूचा आसमान है मेरे पास समूची धरती....और समूचा जीवन, तुम जिसे कहते थे अकेलापन...वो असल में मेरा होना था...’

('अहा जिन्दगी' के दिसम्बर अंक में प्रकाशित )