Thursday, May 20, 2021

ठहरना जरूरी है

बरस बरस के हांफ गये हैं बादल, जरा देर को ब्रेक लिया हो जैसे. और इस जरा से ब्रेक में ही परिंदों ने उड़ान भरी है. बरस के रुके हुए मौसम में एक अजब किस्म का ठहराव होता है. प्रकृति का समूचा हरा अपनी तिलस्मी स्निग्धता के संग मुस्कुराता नजर आता है. पत्तों पर अटकी हुई बूँदें किसी जादू से मालूम होती हैं. 

दोपहर के साढ़े बारह बजे हैं और मैं अभी तक सिर्फ एक कप चाय पीकर बारिश की संगत पर एकांत का सुर लगाने की कोशिश कर रही हूँ. यह सुर लग नहीं रहा अरसे से. कि जिस एकांत की कभी खोज रहा करती थी वही अब काटता क्यों है, भयभीत करता है. फिर यह भी है कि इसके खो जाने का भय भी है. अजीब  कश्मकश है. जो है उससे ऊब भी है, भय भी और उसी से मोह भी. जब कभी सुर लग जाता है तब एकांत महक उठता है और जब सुर नहीं लगता इसी एकांत को तोड़ देने के एक से एक नायाब तरीके जेहन में आते रहते हैं. 

असल मसला उस सवाल का है जो भीतर है और अरसे से अनुत्तरित है. हम जिन्दगी से क्या चाहते हैं? अगर इस सवाल का जवाब ठीक ठीक पता होता है तो वह मिलते ही हम संतुष्ट हो जाते हैं, खुश हो जाते हैं. लेकिन उस सवाल के उत्तर में अगर घालमेल है तो गडबड होती रहेगी.

मुझे हमेशा लगता है जवाब को छोड़ दें अगर हम पहले सही सवालों तक पहुँच जाएँ तो यह भी काफी है. शायद वहीँ से कोई राह खुले. 

खिली हुई जूही बारिश में भीग कर इतरा रही है. मौसम में सोंधेपन का इत्र है. भीतर की उदासी बाहर के मौसम से टकराकर टूट नहीं रही फिर भी टकराना अच्छा लग रहा है. 

एक परिंदा खिड़की पर आ बैठा. मेरी तरफ देखते हुए वो नहीं जानता कि अब वो इस पार इंट्री ले चुका है. सोचती हूँ एक बार चाय और पी जाए. कल शाम एक फिल्म की बाबत एक दोस्त ने बताया है, एक आधी पढ़ी किताब है इन्हें जमापूँजी सा सहेजे हूँ. फिल्म देख लूंगी, कितबा पूरी पढ़ लूंगी तो पूँजी खत्म हो जायेगी...इसलिए थोड़ा ठहरना जरूरी है.

Wednesday, May 19, 2021

वर्तमान में कोई ऐसी जगह नहीं...मारीना

- ममता सिंह 
(अगर आपको जीवनी पढ़ना पसन्द है तो रूस की महान कवयित्री मारीना त्सेवेतायेवा की जीवनी ज़रूर पढ़नी चाहिए...
उथल पुथल,संघर्ष,देश से निर्वासन,ग़रीबी, बीमारी,बच्चों की मृत्यु के बीच भी लिखती हुई मारिया का जीवनवृत्त न केवल साहस और लिखने की छटपटाहट का चरम बिंदु है बल्कि यह आज के अंधेरे और आशाहीन समय में एक सम्बल भी है।)

'अजीब बात है हर कोई अपनी-अपनी लड़ाई अकेले लड़ रहा होता है फिर भी किसी कंधे की तलाश होती है,जिसके सर पर ठीकरा फोड़ा जा सके,सुनने में अटपटा लग सकता है,लेकिन अक्सर हम ठीकरा फोड़ने के लिए अपने प्रिय कंधे ही तलाशते हैं।' पृष्ठ 56

'असल में प्रेम हमारे भीतर ही होता है,कोई होता है,जो हमारे भीतर के उस प्रेम तक हमें पहुंचा देता है,जाने-अनजाने,उसके बाद हम ज़िन्दगी भर उसी प्रेम में जीते रहते हैं,अलग अलग लोगों से,चीज़ों से घटनाओं से जुड़ते रहते हैं,लेकिन केंद्र में वही होता है प्रेम' पृष्ठ 86

'मेरे पास वर्तमान में कोई ऐसी जगह नहीं थी,जहां मैं ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकूं...न ही भविष्य की मुट्ठी में ऐसी कोई उम्मीद थी,इस इतनी बड़ी समूची दुनिया में मुझे मेरे लिए एक इंच जगह भी ऐसी नहीं नज़र आती थी,जहां मैं अपनी आत्मा को निर्विघ्न,बिना किसी डर के उन्मुक्त छोड़ सकूँ.मैं धरती के उस अंतिम टुकड़े पर हूं जिस पर मैं इसलिए खड़ी हूँ,क्योंकि मेरे होने से वह ख़त्म नहीं हो सका है.मैं इस छोटे से टुकड़े पर अपनी पूरी ताक़त से खड़ी हूँ.' पृष्ठ 213

किताब-मारीना
लेखक- प्रतिभा कटियार
प्रकाशक-संवाद प्रकाशन
पृष्ठ-259
मूल्य-300


Tuesday, May 18, 2021

स्मृति शेष- लाल बहादुर वर्मा


'है' से 'था' की दूरी तय करने में
सिर्फ समन्दर भर पानी नहीं लगता
आकाश भर सूनापन भी लगता है

सिर्फ जिए हुए लम्हों का इत्र ही नहीं लगता 
जीने से छूट गये लम्हों की हुड़क भी लगती है

सिर्फ धरती भर धीरज ही नहीं लगता  
स्मृतियों की सीढ़ी भी लगती है 
जो सितारा बने व्यक्ति तक पहुँचती है 

'है' से 'था' की दूरी तय करने को  
एक लम्बी हिचकी लगती है 
और ढेर सारा सूख चुका सुख लगता है. 

Sunday, May 16, 2021

मोगरे की खुशबू और उदास दिन रात


दिन हमेशा की तरह उदासी की सूरत लिए उगा और पीछे-पीछे घूमने लगा. उसे चकमा देने के लिए मैं बार बार जगह बदलती, काम बदलती लेकिन उसे पता चल जाता और वो अपनी बिसूरती सी सूरत लिए मेरे पीछे आ खड़ा होता. थककर मैं कमरे में लेट गयी और पंखे को देखने लगी. पंखा चल नहीं रहा था लेकिन दिमाग चल रहा था. कभी-कभी आपको पता नहीं होता कि आपके साथ क्या घट रहा है लेकिन वो जो घट रहा होता है उसके असर से बचना मुश्किल होता है. खासकर तब जब ऐसे उदास दिन पीछे पड़े हों.

दिन भर दिन के साथ आँख-मिचोली का खेल चलता रहा. फेसबुक वाट्स्प, न्यूज़ सबसे मुंह मोड़कर तमाम उदास खबरों से खुद को छुपाये फिरती हूँ लेकिन शाम होते-होते सब कोशिशें बेकार हो जाती हैं और दिन अपनी कारस्तानी दिखाकर कुछ उदास कुछ गुस्सा दिलाने वाली खबरों के हवाले करके अपनी उदासी शाम को टिकाकर मुंह चिढ़ाते हुए चला जाता है. 

ऐसे ही बीत रहा था आज का दिन भी. इतवार था तो कुछ ख़ास होना चाहिए और उस ख़ास में आँखों को छलक लेने को जरा स्पेस मिली. ढेर सारा रो लेने के बाद ढेर सारी प्यास लगती है यह मैंने पहली बार महसूस किया और लगातर तीन गिलास पानी पिया. सुबह से जो बेचैनी का गोला पेट में घूम रहा था वो अब पेट के पानी में गुडगुड करने लगा. मुझे इस गुडगुड वाली बात पर हंसी आ गयी. रोने के ठीक बाद वाली हंसी. फिर मुझे लगा इस समय ढेर सारे लोग हैं जो रो भी नहीं पा रहे अगर मैं उनके कुछ काम आ सकूँ और उनके हिस्से का रो लूं? लेकिन अगले ही पल यह बात काफी फ़ालतू लगी. अपनी ही पुरानी बात याद आ गयी कि दुःख आंसुओं से कहीं बड़ा होता है. 

शाम की वॉक करते-करते मैं उदासी दोनों से थकने लगे. रोज शाम की वॉक के वक़्त कुछ मोगरे अपने बालों में सजा लेती हूँ. वो रात भर महकते हैं और नींद न आने की सूरत में उनकी खुशबू मेरा साथ देती है. आज ढेर सारे मोगरे खिले मिले. अचानक मैंने महसूस किया कि एकदम से मेरा मन खिल गया है. ढेर सारी उदासी के बाद यह जरा सा खिलना देर से रियाज करते-करते किसी सुर के सही-सही लग जाने जैसा था. मैंने अपनी हथेलियों को मोगरे के फूलों से भर लिया. और मोगरे भरी उन हथेलियों से अपना पूरा चेहरा ढंक लिया. उस वक्त दिन और रात के मध्य का ऐसा समय था जब दिन और रात के संतरी ड्यूटी बदलते हैं और कुछ देर को सांझ की बेला दिन और रात के सिपाहियों से खाली होती है.

इसके पहले की रात अपनी उदास सूरत लिए नमूदार होती मैंने मोगरे के फूलों को धागे में पिरोकर बालों में पहन लिया. अब मैं उदास सूरत लिए पीछे घूमती रात से बचती फिर रही हूँ...
क्या तुम तक मोगरे की खुशबू पहुँचती है?

Saturday, May 15, 2021

उम्मीद के सुर और सूरजमुखी


जाने कौन देहरी पर उदास सुबहें छोड़ जाता है. जाने कौन है जो रातों की नींदों को दुनिया भर की चिंताओं से बदलकर चला गया है. जाने कौन है जिसने पूरे मौसम पर उदास चादर ओढ़ा दी है. यूँ कि दुनिया का कारोबार है चलना सो चल रहा है लेकिन जानती हूँ कुछ है जो एकदम ठहर गया है. किसी काम में मन नहीं लगता. उसी अनमने से मन के साथ घर भर में इधर से उधर, रसोई से बालकनी, एक किताब से दूसरी किताब, एक मीटिंग से दूसरी मीटिंग के बीच डोलती फिरती हूँ फिर देखती हूँ सूरज डूबने को हो आया है. तो एक और दिन बीता...यह ख्याल आने को होता ही है कि एक डर उस ख्याल को ओवरटेक करके सामने आ जाता है. नींद न आने का डर. करवटों में रात के गुजरने के इंतजार और फिर उदास सुबह के आने का डर. ये डर, ये उदासी कैसे जायेगी. कब जाएगी. जतन तो करती हूँ कि इस उदासी की बेड़ियों को काट सकूं, उदास सुबहों को जरा पीछे धकेल सकूं और एक नर्म नाज़ुक प्यारी मुस्कुराती सुबह के गले से लग जाऊं. लेकिन सब जतन अधूरे रह जाते हैं.

कल माँ ने पूछा,'लीचियां बड़ी हो गयी होंगी अब तो?' मैंने चौंककर कहा, 'नहीं, नहीं तो मैंने तो नहीं देखा.इस बार बौर भी आई थी क्या? लगता है इस बार बौर भी नहीं आई'. माँ ने प्यार से डपटते हुए कहा,' तुम्हारा ध्यान न गया होगा.बौर तो मेरे वहां रहते ही आ गयी थी.' मैं चुप रही. सचमुच मुझे कुछ याद नहीं. जैसे सब कुछ दिखना बंद हो गया है. इस बार कोयल की आवाज भी नहीं आती. सुबह की चाय भी किसी काम सी लगने लगी है.

यह मन की स्थिति है. किसी से कहने का कोई अर्थ नहीं. एक हजार नसीहतें मिल जाएँगी. लेकिन मेरा मन है मैं जानती हूँ. समय के माथे पर जो उदासी है उससे विलग कैसे रह सकता है कोई. सकारात्मक बातें भी जाने क्यों जबरन किया गया ऐसा प्रयास लगता है जिसे करने में घुटने, कोहनियाँ सब छिल जाते हैं. एक मुस्कुराहट की आस में लहूलुहान होने का सिलसिला जारी है.

दुनिया के तमाम शब्दकोषों को पलट रही हूँ. ढूंढ रही हूँ सद्भावना का वह एक शब्द जो फाहे की तरह रखा जा सके किसी के जख्मों पर. शब्द जिसके सीने से लगकर टूटती हिचकियों के संग जी भर के रोया जा सके. एक शब्द जिसे अपनों के चले जाने के दुःख में सूख चुकी आँखों के सामने रख दें तो गुम गया रुदन वापस लौट आये और कोई रो ही ले जी भर के. 

इन्सान पर जो दुःख टूटा है न उसके आगे दुनिया भर के शब्दकोष शर्मिंदा खड़े हैं. 'अपना ख्याल रखना' इन दिनों  बहुत अधूरा महसूस करता है बहुत निरीह. लेकिन सिवाय इसके चारा ही क्या है. यूँ तो इतरा कर कहा करते थे कभी कि, 'मैं क्यों रखूं अपना ख्याल, यह तो तुम्हारा काम है.अपना ख्याल भी खुद ही रखा तो क्या बात हुई. तुम रखना मेरा ख्याल, मैं तुम्हारा रखूंगी...' वो लड़कपन की बातें थीं. वक्त सयाना है. वक्त के आगे हम सब घुटने टेके बैठे हैं. उनके आगे भी जो वक्त की इस क्रूर मार से बचा सकते थे. वो क्या कभी आईना देखते होंगे? क्या उन्हें चैन से नींद आती होगी? क्या उन्हें किसी की कराहें, किसी का विलाप नींद से जगा न देता होगा? मेरे इस सवाल पर एक अट्टहास गूंजता सुनाई देता है. ये वही लोग हैं जिन्होंने रुदालियों की बुनियाद पर महलों की नींव रखी है.

ध्यान हटाने की कोशिश में तुम्हारा ख्याल आता है. सुना था प्रेम के पास हर मर्ज की दवा होती है. प्रेमी की एक बूँद आवाज मरहम होती है लेकिन दुख की इन बेड़ियों को काटने के लिए तुम्हें अभी और दरिया, और रेगिस्तान, और जंगल पार करने हैं शायद. 

मोहन ने बांसुरी का टुकड़ा भेजा है. बहुत मीठा बजाते हैं मोहन. मैं उदास सुबह को इन बेमतलब के शब्दों से खुरचने की कोशिश कर रही हूँ जिसमें मोहन की बांसुरी साथ दे रही है. ’बरसेगा सावन झूम झूम के...’ बांसुरी की मिठास चाय में घुलने लगी है...शायद सुबह में भी. कि आज ठीक से देख पा रही हूँ सामने खिले सूरजमुखी...छोटी लीचियां और मम्मी के लगाये करेले के नन्हे पौधे में (जो अब लम्बी चौड़ी बेल बन चुकी है) आये फूल...

उम्मीद के सुर से लगातार उँगलियाँ टकराती जाती हैं...

Sunday, May 9, 2021

जंग जारी है...


मुझे एक ऑक्सीजन सिलेंडर चाहिए?
है तो लेकिन वो सिर्फ परिवारी जन के लिए है. क्या पेशेंट आपके परिवार के हैं?
मैंने जोर से सर हिलाकर कहा 'हाँ, एकदम' जबकि सर हिलाना फोन पर नहीं दिखा होगा.
कौन हैं?
मैंने कहा वो मेरे पिता जैसे हैं?
मैडम 'जैसे' का कोई रिश्ता नहीं होता.
फोन कट

मुझे एक ऑक्सीजन सिलेंडर चाहिए?
अच्छा. मिल जाएगा. एक घंटे में इसी नम्बर पर फोन करियेगा.
आपने कहा था एक घंटे बाद फोन करने को. मुझे ऑक्सीजन सिलेंडर चाहिए.
हाँ, तो पता और पेशेंट के डिटेल्स भेजिए
....हॉस्पिटल.
सौरी मैडम हम हॉस्पिटल में सिलेंडर नहीं भेजते. उन्हें भेजते हैं जिन्हें हॉस्पीटल नही मिले.
फोन कट

मुझे एक ऑक्सीजन सिलेंडर चाहिए...
ओह, आपने थोड़ा पहले फोन किया होता. आज
आज संडे न होता
नम्बर नम्बर नम्बर...फोरवर्ड ....फोन स्विच ऑफ या बिजी

जब तक उतरो न मैदान में जंग की सिर्फ खबरें लहूलुहान करती हैं जब उतरो मैदान में तब खबरों की तो दूर शरीर के जख्मों की भी सुध नहीं रहती. इस समय किसी की जान बचाना भी एक जंग है...

फ़िक्र से भरी बेटियां माँ जैसी हो जाती हैं


गोलियों वाली नींद मुझे अच्छी नहीं लगती. लगता है उधार की नींद है. गोलियों वाली नींद से डर भी लगता है. गोलियों की आदत जो लग जाती है फिर इससे निकलना आसान जो नहीं होता. यूँ किसी भी आदत से निकलना कहाँ आसान होता है. तुम्हारी याद की आदत...वो भी तो कहाँ छूट पायी है अब तक. 

खैर, इन दिनों फिर से गोलियों वाली नींद का सिलसिला चल पड़ा है. ऐसा नहीं कि मैंने बिना गोलियों वाली नींद के लिए कोशिश नहीं की. और मुझे नींद आ भी जाती है लेकिन फिर वो बीच में रात के बीच सफर में टूट जाती है और उसके बाद दुनिया भर के ख्याल मेरे पीछे पड़ जाते हैं. मैं घबरा जाती हूँ.  बार-बार पानी पीती हूँ, करवट लेती हूँ लेकिन नींद नहीं आती.

ऐसा ही कल रात भी हुआ. मैंने नींद की गोली नहीं खायी और खूब व्यायाम किया. पैदल चली. खुद को खूब थकाया और एक एनिमेशन फिल्म देखते हुए आराम से सो भी गयी लेकिन वही रात के आधे सफर में टक से खुल गयी नींद. और फिर सारे दुःख सिमटकर घेरकर बैठ गए. दुःख से डूबे चेहरे, लाचार लोग, मृत्यु, अवसाद, गले लगकर रो तक न पाने की पीड़ा...जब पौ फटी तो दिल को सुकून हुआ कि रात कटी तो सही. ये रात तो कट गयी लेकिन ये जो विशाल जीवन एक उदास रात में बदल गया है ये कैसे बदलेगा. पता नहीं.

तुम्हें जो बात बतानी थी वो ये कि जब मेरी नींद टूटती है तब बेटी की नींद भी टूटती है. वो सिरहाने चिंता में बैठी रहती है कि माँ क्यों बेचैन है. मैं चाहकर भी सोने का नाटक देर तक नहीं कर पाती. और फिर हम दोनों जागती रहती हैं. वो मेरी नींद की रखवाली करती है बरसों से. उसे ऐसा करते देखना दुःख से भरता है. जब उसे बेफिक्र होना चाहिए था तब वो फ़िक्र से भरी हुई है. फ़िक्र से भरी बेटियां माँ जैसी हो जाती हैं.

यह काला समय बीतेगा तब शायद हम वापस अपनी नींदों में लौटेंगे जो बचे रहेंगे. यह समय किसी दुस्वप्न सा है.  बचपन से एक सपना मुझे डराता था कि चारों तरफ लाशें ही लाशें...मैं उस सपने के डर से सोने से डरती रही. वो सपना अब हकीकत बन चुका है. न नींद में चैन लेने देता है न जाग में. हम सब आने भीतर गहन उदासी समेटे जीवन को सामान्य करने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन कर नहीं पा रहे. फोन उठाते डर लगता है, मैसेज चेक करते डर लगता है. जागते डर लगता है, सोते डर लगता है.


सुबह उठी हूँ तो हैपी मदर्स डे का कार्ड रखा मिला है सिरहाने...यही सुख जियाये हैं.
तुम अपना ख्याल रखना.

Friday, May 7, 2021

The Disciple- ज़िन्दगी का रियाज़



The Disciple देखते समय पूरे वक़्त रोयें खड़े रहे, आँखें टप टप करती रहीं. कहने को तो यह फिल्म है लेकिन असल में यह जीवन का सत्व है. जिसे निचोड़कर इस फिल्म में रख दिया गया है. यह फिल्म उस रियाज़ की बात करती है जो जिन्दगी को साधने से सधता है. महीनों सालों रियाज़ करके हम सुर को ठीक से लगाना तो सीख सकते हैं लेकिन उस सुर के भीतर जो शुद्धता है, मर्म है, भाव है वह आत्मा की शुध्धता के रियाज़ से ही आता है.

मैं एक दर्शक के तौर पर इस फिल्म से अभिभूत हूँ और अभिभूत व्यक्ति ठीक व्यक्ति नहीं होता समीक्षा जैसी चीज़ों के लिए और वो मुझे करना आता भी नहीं. इसलिए इस फिल्म को लेकर मेरे कुछ भाव ही व्यक्त्त कर रही हूँ. फिल्म शास्त्रीय संगीत की दुनिया की कहानी है. किस तरह कोई पूरी ज़िन्दगी लगाकर सुर साधना करता है और कैसे कोई थोड़ा सा ही सीखकर शोहरत की बुलंदियों पर पहुँच जाता है.

लेकिन मेरे लिए यह फिल्म उस यात्रा की है जो हमारे भीतर चलती है, जहाँ अपनी प्यास का कुआँ हम खुद खोदते हैं और उस कुँए के मीठे पानी से खुद की प्यास बुझाते हैं. जहाँ एक सुर सही लग जाने पर मन नाच उठता है और ठीक से न लग पाने पर तालियों की गडगडाहट के शोर में भी उदास हो जाता है.

इस फिल्म को देखते हुए मुझे किशोर वय के वे दिन भी याद आये जब मैं सितार सीखा करती थी और पड़ोस के कमरे में वोकल की क्लास चलती थी. हमें फ़िल्मी गीत गाने या बजाने पर एकदम प्रतिबन्ध था. और वो कुछ इस तरह हमारे गुरु जी ने हमें बताया था मानो अगर हमने फ़िल्मी गीत बजा दिया तो कोई पाप हो जायेगा. हमें तब ज्यादा समझ तो नहीं आया था लेकिन हमसे कोई पाप न हो इसलिए हमने फ़िल्मी गीत बजाने की कभी नहीं सोची. इसलिए जब कोई मेहमान या रिश्तेदार कहते ‘बेटा जरा हमें भी बजाकर सुनाओ’ तो मैं अपना प्रिय राग मालकोश या भीमपलासी बजाने बैठ जाती. सुनने वालों को लगता वो फंस गए हैं. वो बीच में ही कहते ‘बेटा कुछ गाना वाना नहीं बजाती हो?’ तो हम शान से कहते हमारे गुरु जी ने गाना बजाने को मना किया है. क्यों मना किया गाना बजाने को, क्यों एक ही राग को महीनों बजाने के बाद भी गुरु जी को कुछ कम ही लगता था उसमें इन सवालों का जवाब इस फिल्म में है.

फिल्म के कुछ टुकड़े आपसे साझा करती हूँ,

‘एक अस्थिर मन के साथ कोई भी व्यक्ति गहराई और सच्च्चाई से ख्याल नहीं गा सकता. प्रत्येक स्वर की, प्रत्येक श्रुति की पूजा करने के लिए मन का पवित्र और निष्काम होना जरूरी है. ख्याल का अर्थ क्या है? ख्याल उस समय विशेष, उस पल में कलाकार की मन की अवस्था को कहते हैं. कलाकार अपने मन की अवस्था को ख्याल के माध्यम से प्रस्तुत करता है. गाते समय आपको खुद पता नहीं होता कि राग का कौन सा नया पहलू आप उजागर करेंगे. अगर आप चाहते हैं कि राग का सत्य स्वयं सामने आये तो आपको मन से असत्य, लोभ और अपवित्रता को मिटाना होगा.’

‘बारीकियों में फंसना छोड़ो, तुम साल दर साल रियाज़ करके बारीकियों पर काबू पा सकते हो. पर वह तुम्हें सत्य की ओर नहीं ले जाएगा. शैली अपने अंदरूनी जीवन को व्यक्त करने का केवल एक माध्यम है, शैली सिखाई जा सकती है सत्य सिखाया नहीं जा सकता, उसके लिए निर्भीक सच्चाई के साथ अपने अंदर झाँकने की ताकत होनी चाहिए यह बहुत कठिन है यह जीवन भर की तलाश है...’

‘प्रतिभावान कलाकारों की संगत में रहने से और उनके बारे में किताबें छापने से आप खुद प्रतिभावान नहीं बन जाते.’

मैं इस फिल्म को जीवन के हर पहलू से जोड़कर देख पा रही हूँ फिर भी लगता है शायद अपनी सीमित समझ के चलते कम ही देख पा रही हूँ. जहाँ माई (संगीत गुरु) ख्याल की संगीत की बारीकियां बता रही हैं मुझे सुनते हुए लगा हाँ, ऐसा ही तो लिखने के बारे में भी है. बहुत सारा पढ़कर, सुनकर लोगों से मिलकर लेखन की बारीकियां जाना लेना कौन सा मुश्किल है, लेकिन शब्द वो क्या सिर्फ शब्द होते हैं. उनके भीतर भाव का जो संसार होता है उस तक पहुंचना, उन शब्दों को अपनी निश्छल आत्मा के ताप में पकाना और तब लिखना. बिना यह सोचे कि इस पर कितनी वाहवाह मिलेगी बल्कि उस अनुभव को प्राप्त करने को जब कुछ ऐसा लिख जाय हमसे कि आत्मा का कोलाहल कुछ शांत हो और आँखों से निर्मल नीर की नदी छलक उठे.

ऐसी फ़िल्में तकनीक से नहीं रूहानी जुड़ाव से बनती हैं. फिल्म धैर्य मांगती है देखने के लिए, एकांत मांगती है बिलकुल वैसे ही जैसे रियाज़ मांगता है...लेखक निर्देशक चैतन्य तम्हाणे ने इसे आत्मा से बनाया है और वैसे ही आत्मा के संगीत से इसे सींचा है अनीश प्रधान ने. आप सबके प्रति आभार से झुकी हूँ.

फिल्म नेटफ्लिक्स पर है.

Saturday, May 1, 2021

मदद करना उपकार नहीं


मदद और उपकार में बड़ा फर्क होता है. इस समय तमाम मदद इमदाद जरूरतमंदों तक पहुँचाने में लगे हैं लोग. कुछ बच रहे हैं कुछ नहीं. कहीं मदद पहुँच पा रही है कहीं नहीं. लेकिन शायद सबके भीतर एक जज्बा जरूर है कि किसी तरह बीमार तक मदद पहुंचा सकें, किसी की साँसों की डोर को थाम सकें. यह मदद का जज्बा है. इसमें उपकार नहीं है. जरा भी नहीं. और यही इस बुरे वक्त की जरा सी सही लेकिन अच्छी बात है. इसके दो कारण हो सकते हैं एक कि यह वक्त इस कदर निर्मम है कि कुछ सोचने का मौका ही नहीं दे रहा और दूसरी कि अगर हम मनुष्यों पर सामाजिक दुराग्रहों की परतें न चढ़ी होतीं तो मूलतः हम भले ही हैं. कुछ लोगों की परतें इस दौर में उतरीं और वे बेहतर मनुष्य हुए कुछ की परतें मजबूत थीं या उनकी उन परतों को उतारने की कोशिशें कमजोर थीं और वे अब तक दुराग्रहों के दलदल में फंसे रहे. 
यह वक्त क्या कह रहा है. इसने हमें बताया कि जिया हुआ लम्हा ही जीवन है बाकी सब हिसाब-किताब है. यह लम्हा कह रहा है कि वो जो छोटी-छोटी सी बातें थीं न स्पर्श, गले लगाना, हथेलियाँ कसकर हथेलियों में भींच लेना, काँधे से सटकर बैठना जो हमसे छूट गया था जीवन की आपाधापी में, कभी लापरवाही में भी वो कितना जरूरी था. वो जो पुकारना था प्रिय को उसके नाम से और जताना था उसे कि 'तुम हो तो जीवन खुश रंग लगता है,' वह अब कभी नहीं कहा जा सकेगा. उनसे जो जा चुके हैं जीवन से. जो छोड़ गए हैं स्मृतियाँ और एक अधूरापन कि इस तरह जाने की सोची तो नहीं थी. 

लेकिन वो जो दूर कमरे में आइसोलेशन में हैं उनका भी एक मन है जो टूट रहा है. उन्होंने भी किसी अपने को खोया है. उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वो अपने प्रिय के जाने से ज्यादा दुखी हैं या अपनी सांसों की डोर को सहेजने को ज्यादा परेशान है. आइसोलेशन भौतिक है लेकिन तोड़ रहा है भावनात्मक दुनिया को. 

कितने दिन हुए किसी के गले नहीं लगे, कितने दिन हुए किसी की बहती आँखों को पोछ नहीं पाए. कुछ दुःख इतने भारी होते हैं कि उनको उठाने में पूरी जिन्दगी खर्च हो जाती है. उन बच्चों की आँखें पल भर को भी जेहन से हटती  नहीं जिन्होंने अपने माँ-बाप दोनों को खो दिया. बेटियों का दर्द इतना ही है कि मम्मी पापा को आखिरी बार देख भी न पाए. जो माँ पूछकर पसंद की चीज़ें बनाकर खिलाती थी फिर भी खाने में होती थी न-नुकुर वो मदद में आने वाले खाने के पैकेट का इंतजार करती हैं और चुपचाप खा लेती हैं उसमें होता है जो भी खाना, जैसा भी.
 
अच्छा है लोग मदद कर रहे हैं, उपकार नहीं. वरना तो बची-खुची जिन्दगी और भारी हो जाती. सोचती हूँ कि काश किसी के काम आ सकती, कुछ तो कर पाती. उन बच्चियों को छाती से लगा पाती कह पाती मैं हूँ तुम्हारी माँ, मैं बनाऊँगी तुम्हारी पसंद का खाना, तुम पहले की तरह नखरे करना. लेकिन शब्द हलक में अटक जाते हैं. कुछ कह नहीं पाती. 

यह मैं क्यों लिख रही हूँ, जब कुछ करना चाहिए जीवन के लिए तब लिखना क्या है आखिर सिवाय लग्जरी के. पता नहीं. मैं शायद रो रही हूँ. यह लिखना नहीं रोना है, बिलखना है, यह इच्छा है उदास दोस्त को कलेजे से लगा लेने की शायद...कुछ पता नहीं बस किसी मन्त्र की तरह बुदबुदाती हूँ सब ठीक हो....

ठीक शब्द के ढेर सारे बीज बो देना चाहती हूँ, पूरी धरती पर उगाना चाहती हूँ 'सब ठीक है' के नन्हे-नन्हे वाक्य. हालाँकि जानती हूँ 'सब ठीक है...' एक भ्रम है. कुछ है जो कभी ठीक नहीं होता...बस कि उस न ठीक के साथ जीने की आदत डालनी होती है.