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Thursday, April 27, 2023

कविता से दोस्ती और उसका कारवाँ


* सिद्धेश्वर सिंह

भाषा ने बहुत छिपाया है मनुष्य को
उसी को उघाड़ने बार-बार
कविता का द्वार खटखटाया है

संसार भर के आचार्यों ,अध्येताओं और कवियों के लिए 'कविता क्या है' एक असमाप्य शेषप्रश्न बना हुआ है और ऐसी उम्मीद है कि यह सवाल सनातन उपस्थित रहेगा।यह अलग बात है कि कविता के उत्स ,उद्गम और उसकी उपादेयता पर इतना अधिक लिखा - कहा गया है कि हर बार लगता है कि कहीं कुछ है जो कि अकथ है और 'कविता क्या है' के सवाल से आगे बढ़कर 'कविता क्यों है' पर बात चली जाती दिखाई देती है।एक समय था जब कविता 'करने' और 'बनाने' की चीज थी।कुछ लोगों के लिए वह 'प्रकट' होने और अनायास फूट पड़ने की चीज भी हुआ करती थी।जाहिर है कि मनुष्य की संगत में कविता का होना बहुत जरूरी था और इसीलिए तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद वह होती भी थी।सभ्यताएं अपनी सामूहिकता में उससे रोशनी पाती थीं और एक अकेला मनुष्य उसमें अपनी संवेदना का साहचर्य पाता था तथा शरण्य भी।

कविता केवल कवि(यों) का कार्यव्यापार नहीं है।वह केवल कला भी नहीं है और न ही विनोद का एक शाब्दिक उपादान ही।वह एक साथ अभिव्यक्ति और आस्वाद दोनों ही है।वह अपने भावक के माध्यम से अपना वृहत्तर विश्व रचती है और पाठक,श्रोता ,प्रेमी जैसी संज्ञाओं का सहारा पाकर व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होती है।हमारी भाषा में कवि सम्मेलन, मुशायरा ,कवि गोष्ठी ,कवि दरबार,नशिस्त, महफ़िल जैसी चीजें आम रही हैं लेकिन इन सबके बीच हाल के वर्षों में 'कविता कारवाँ' जैसी चीज का होना कुछ अलहदा और अलग है।तो फिर ,यह 'कविता कारवाँ' क्या है? सच पूछिए तो कुछ खास नहीं; यह कविताओं से प्रेम करने वाले मित्रों का का एक ऐसा समूह है जो किसी जगह ,किसी समय एकत्र होकर अपनी पसंदीदा कविताओं की पाठ - प्रस्तुति करते हैं।इसमें बस एक ही शर्त रहती है कि भले ही आप स्वयं कविताएं लिखते हैं लेकिन स्वरचित नहीं किंतु अनिवार्यतः स्वयं की पसंद की कविता की साझेदारी करनी है।साथ ही यह भी कि यदि किसी को कोई कविता सुनानी नहीं है तो भी केवल सुनने का सुख पाने के लिए भी आप इसमें शामिल हो सकते हैं।

निश्चित उगेगा संभावित सूर्य
उस सुबह में जिसके लिए
अँधेरी ज़िंदगी से मैं गया हूँ
रोशन कविता के पास

आज से कोई दसेक साल पहले 'कविता कारवाँ' का जो बीजवपन देहरादून में हुआ था वह अब देश - दुनिया की तमाम जगहों पर पुष्पित - पल्लवित हो रहा है और एक ऐसी बिरादरी का निर्माण हो चुका है जो आपस में एक दूसरे के 'कविता - मित्र' और उनका जो समवेत है उसका ही नाम है 'कविता कारवाँ'।जिस भाषा को हम अपने रोजमर्रा के जीवन में बरतते हैं; जो हमारी अपनी 'निज भाषा' है उसके विपुल साहित्य भंडार में समाहित कविता का जो अकूत कोष है उसमें से चयनित कविताओं के साथ क्रमिक तौर पर जुड़ने की जो सामूहिक चेतना है वही 'कविता कारवाँ' का सर्वप्रमुख दाय है। साथ ही हमारी अपनी भाषा के अतिरिक्त जो हमारी सहभाषाएँ है उनकी और दुनिया भर की तमाम भाषाओं से अनुवाद के माध्यम से कविता का जो इंद्रधनुष बनता है उसका साक्षात्कार होना एक अलग अनुभव है।खुशी की बात है कि 'कविता कारवाँ' के जरिये कविता - मित्रों का जुड़ाव दिनोंदिन विस्तार पा रहा है।

पिछले दिनों हमारे समकाल में 'कोरोना काल' जैसा एक शब्द उभर कर आया है जिसमें अयाचित - अनचाहे एकांत ने इंसान को सचमुच अकेला किया है और सामाजिकता की सक्रियता पर अदृश्य पहरा रहा है।ऐसे कठिन काल में 'कविता कारवाँ' की नियमित होने वाली बैठकों का सिलसिला टूटा था और ऑनलाइन माध्यम से इसके फेसबुक पेज पर हिंदी साहित्य के नामचीन हस्ताक्षरों ने अपनी पसंद की कविताओं को साझा किया।इस कड़ी में अशोक वाजपेयी ,ममता कालिया,अनामिका,नरेश सक्सेना, कृष्ण कल्पित,लाल्टू, बोधिसत्व, प्रियदर्शन,अनुज लुगुन ,प्रताप सोमवंशी,मोनिका कुमार आदि ने अपनी मनपसंद कविताओं का पाठ प्रस्तुत किया।हिंदी बिरादरी के लिए यह एक सर्वथा नया अनुभव था और लीक से हटकर भी।हिंदी की साहित्यिक बिरादरी के लिए यह जानना एक नई चीज थी कि जिनके लिखे को सब पढ़ते हैं आखिर वे किनके लिखे को पढ़ते और पसंद करते हैं।

'कविता कारवाँ' का मंच एक खुला मंच है।इसकी बस एक ही शर्त है कि आपको कविता से प्रेम हो।कहा जाता है कि प्रेम बाँटने से प्रेम मिलता है वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि कविता की साझेदारी से कविता मिलती है और जब हम इस संगत से जुड़ते हैं तो लगता है कि यह एक ऐसी दुनिया है जो कि इसी दुनिया को और सुंदर तथा सहज बनाने के काम में लगी हुई है।तो,यह जो 'कविता कारवाँ' है न उसका सहचर बनिये।अपने स्थान पर ,अपने दायरे में ,अपनी सुविधा से अनौपचारिक तरीके से इसकी बैठकों के काम को आगे बढ़ाइए।कविता से दोस्ती करने वाली बिरादरी को बड़ा ,और बड़ा कीजिए।यकीन मानिए इससे कोई हानि नहीं होगी और लाभ यह होगा कि एक दिन आप स्वयं को अधिक उदार,अधिक संवेदनशील व अधिक समृद्ध पाएंगे। तो , हे कविता मित्र अपने समानधर्मा साथियों की संगत में आपका सहर्ष स्वागत है!

नहीं मिली मुझे कविता
किसी मित्र की तरह अनायास
मैं ही गया कविता के पास
अपने को तलाशता—अपने ख़िलाफ़
कविता जैसा अपने को पाने!
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( सभी कवितांश मानबहादुर सिंह की कविता कविता के बहाने' से लिये गए हैं )

Tuesday, April 18, 2023

यूँ ही साथ चलते-चलते- कविता कारवां



यूँ ही साथ चलते-चलते सात बरस हो गए. पता ही नहीं चला. हाँ, कविता कारवां के सफर को सात बरस होने को आये. जब शुरुआत की थी तब कहाँ पता था कि हम कब तक चलेंगे, कितने लोग साथ चलेंगे. बस इतना ही पता था कि हमें कहीं पहुंचना नहीं था बस साथ चलने का सुख लेना था. अगर विनोद जी कविता के बरक्स इस बात को कहूँ तो 'हम एक-दूसरे को नहीं जानते थे लेकिन साथ चलने को जानते थे.'

'कविता कारवां' यानी एक ऐसा परिवार जहाँ कविता प्रेमी जुड़ते हैं और अपनी प्रिय कविताओं को पढ़ते हैं, उनके बारे में बात करते हैं. इस प्यारे से सफर में जो सात बरस पहले शुरू भले ही देहरादून से हुआ था में देश भर से, दुनिया भर से लोग जुड़ते गए, जुड़ते जा रहे हैं.

अगर आप में से कोई भी अपने शहर में 'कविता कारवां' की बैठकें शुरू करनी हैं तो इनबॉक्स करें. शर्त बस इतनी सी है कि अपनी कविताओं का पाठ यहाँ नहीं होता सिर्फ अपनी प्रिय कविताओं को पढ़ना होता है वो हमें क्यों पसंद हैं इस बारे में बात करते हैं हम. असल में यह सफर कविताओं से प्यार का सफर है...इसे प्यार से ही आगे बढ़ाना है...तो बढ़ाइए हाथ और इस सफर में शामिल होकर इसे आगे बढ़ाइये...

सादर
कविता कारवां परिवार

Monday, June 27, 2022

कविता कारवां मार्ग पर स्वागत है...




‘कविता कारवां मार्ग...’ उस सड़क के किनारे लगे बोर्ड को देख आँखें ख़ुशी से छलक पड़ी थीं. जैसे किसी ख़्वाब के सामने खड़ी हूँ. उंहू...इत्ते बड़े तो ख़्वाब देखे भी न हमने बस एक शाम कविताओ के नाम हो. ईर्ष्या, द्वेष, प्रतियोगिता इन सबसे दूर, अपनी कविताओं की जय जयकार से दूर बस अपनी पसंद की कविताओं की संगत में बैठना दो घड़ी और बस ज़ेहन की गठरी में समेट लेना कुछ नया अनुभव, कोई नई कविता, कोई नया कवि.

इसी देहरादून में 6 बरस पहले इस ख़्वाब का अंकुर बोया था. सुभाष और लोकेश ओहरी जी के साथ मिलकर. उस कविताओं से प्रेम के अंकुर को पानी खाद दिया सारे कविता प्रेमियों ने. आज छह बरस बाद देहरादून में कविता कारवां मार्ग का उद्घाटन हुआ गीता गैरोला दी के हाथों और साक्षी बने सब कविता प्रेमी.

कविता कारवां का यह सफर बीच-बीच में किसी नदी किनारे, किसी पहाड़ी पर, किसी पेड़ के नीचे सुस्ता जरूर लेता है लेकिन इसका चलना लगातार जारी है...और इस सफ़र में वो सब शामिल हैं जिन्हें कविताओं से प्यार है. आज किसी भी शहर में किसी भी देश में हुई किसी भी बैठक में शामिल वो सारे लोग याद आ रहे हैं जो इस सफर में शामिल हैं. वो भी जो शामिल होने की इच्छा से भरे हैं. ऋषभ, तुम्हारी इस अवसर पर सबसे ज्यादा याद आई...तुम होते तो यकीनन तुम्हारी आँखें भी छलक रही होतीं जैसे मेरी छलक पड़ी थीं...दुनिया भर को एक परिवार के सूत्र में बाँधने वाले ‘कविता कारवां मार्ग’ पर आप सभी का स्वागत व इंतजार है...

कविताओं से ऐसा प्यार देखा है कहीं?



Wednesday, April 21, 2021

कविता कारवां के सभी लाइव कार्यक्रम स्थगित



साथियो,

जैसे-जैसे बाहर के हालात ख़राब होते जा रहे हैं मन का मौसम उजड़ता जा रहा है. जब कविता कारवां के पांचवी वर्षगाँठ के अवसर पर सबको साथ लेकर मिल बैठने की सोची थी तब क्या ख़बर थी कि ऐसे मंज़र सामने आयेंगे. इन हालात में कविता कारवां टीम लम्बे समय से उहापोह में थी और आज वह उहापोह ख़त्म हुई. हमने आज से शुरू होने वाले सभी लाइव कार्यक्रमों को फ़िलहाल स्थगित करने का निर्णय लिया है. शायद अभी इस समय हम सबकी भूमिका कहीं और ज़्यादा है. शायद किसी को ऑक्सीजन पहुँचाने, प्लाज़्मा के लिए संपर्क करने, किसी की हिम्मत बढ़ाने के लिए साथ खड़े होने या दो घड़ी उदास लोगों के साथ चुपचाप बैठ जाने की.


जिन भी साथियों ने इन पांच दिन के लाइव के लिए रजिस्ट्रेशन किये, सहमति दी उन सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उम्मीद करते हैं कि हालात सामान्य होने पर हम फिर से कार्यक्रमों के ज़रिये जुड़ रहे होंगे.

आप सब अपना बहुत सारा ख़्याल रखिये. कविता कारवां परिवार इस दुःख और त्रासदी के समय में आपके साथ है.

शुक्रिया!

Sunday, April 11, 2021

एक कारवां मोहब्बत का





- प्रतिभा कटियार
सोचती हूँ तो पुलक सी महसूस होती है कि पांच बरस हो गये एक ख़्वाब को हकीक़त में ढलते हुए देखते. पांच बरस हो गए उस छोटी सी शुरुआत को जिसने देहरादून में पहली बैठक के रूप में आकार लिया था और अब देश भर को अपनेपन की ख़ुशबू में समेट लिया है उस पहल ने. एक झुरझुरी सी महसूस होती है. आँखें स्नेह से पिघलने को व्याकुल हो उठती हैं. फिर दोस्त कहते हैं कि सपना नहीं है यह, सच है.

आँखें खुली हुई हैं और प्रेम चारों तरफ बिखरा हुआ है. कविताओं के प्रति प्रेम. पाठकीय यात्रा के रूप में शुरू हुआ यह सिलसिला असल में अपने मक़सद में कामयाब हुआ. मकसद क्या था सिवाय अपनी पसंद की कविताओं की साझेदारी के साथ एक-दूसरे की पसंद को अप्रिशियेट करने के. अपने जाने हुए को विस्तार देने के और लपक कर ढूँढने लग जाना उन कविताओं और कवियों को जिन्हें अब तक जाना नहीं था हमने.

शुरुआत हुई तो नाम था 'क से कविता'. फिर तकनीकी कारणों से नाम हो गया 'कविता कारवां'. जब तकनीकी कारणों से नाम में बदलाव करना पड़ा तो मन में एक कचोट तो हुई कि उस नाम से भी तो मोह हो ही गया था लेकिन यहीं जीवन का एक और पाठ पढ़ना था. मोह नाम से नहीं काम से रखने का.

अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं को एक-दूसरे से साझा करने की यह कोई नयी या अनोखी पहल नहीं थी. ऐसा पहले भी लोग करते रहे हैं अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने शहरों में साहित्यिक समूहों में. कविता कारवां की ही एक सालाना बैठक में नरेश सक्सेना जी ने कहा था कि बीस-पचीस साल पहले ऐसा सिलसिला शुरू किया था उन्होंने भी जिसमें कवि एक अपनी कविता पढ़ते थे और एक अपनी पसंद की. तो ‘कविता कारवां’ ने नया क्या किया. नया यह किया कि इस सिलसिले को निरन्तरता दी. बिना रुके ‘कविता कारवां’ की बैठकें चलती रहीं. उत्तराखंड में ही करीब 22 जगहों पर हर महीने कविता प्रेमी एक जगह मिलते और अपनी पसंद की कविता पढ़ते रहे. कुछ बैठकें मुम्बई में हुईं, कुछ लखनऊ में और दिल्ली में निशस्त दिल्ली के नाम से यह सिलसिला लगातार चल रहा है.

'कविता कारवां' के बारे में सोचती हूँ तो तीन बातें मुझे इसकी यूनीक लगती हैं जिसकी वजह से इसकी पहचान अलग रूप में बनी है. पहली है इसे पाठकों की साझेदारी के ठीहे के तौर पर देखना जिसमें कॉलेज के युवा छात्र, गृहिणी, स्कूल के बच्चे, डाक्टर, इंजीनियर बिजनेसमैन सब शामिल हुए कवि कथाकार पत्रकार भी शामिल हुए लेकिन पाठक के रूप में ही. कितने ही लोगों ने अपने भीतर अब तक छुपकर रह रहे कविता प्रेम को इन बैठकों में पहचाना और पहली बार यहाँ अपनी पसंद की कविता पढ़ी. दूसरी बात जो इसे विशेष बनाती है वो है बिना ताम-झाम और बिना औपचारिकता वाली बैठकों की निरन्तरता. कोई दीप प्रज्ज्वलन नहीं, कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं बल्कि सब मुख्य अतिथि, सब विशेष अतिथि. और तीसरी और अंतिम बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसके चलते पहली दोनों बातें भी हो सकीं वो यह कि ‘कविता कारवां’ की एक भी बैठक में शामिल व्यक्ति इसके आयोजक मंडल में स्वतः शामिल हो जाता है. ज्यादातर साथी जो किसी न किसी बैठक में शामिल हुए थे अब इसकी कमान संभाले हुए हैं पूरी जिम्मेदारी से.

इस सफर का हासिल है ढेर सारे नए कवियों और कविताओं से पहचान होना और एक-दूसरे को जानना. आज पूरे उत्तराखंड और दिल्ली लखनऊ व मुम्बई में कविता कारवां की टीम काम कर रही हैं. हम सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं. एक-दूसरे से मिले नहीं फिर भी पूरे हक से लड़ते हैं, झगड़ते हैं और मिलकर काम करते हैं. एक बड़ा सा परिवार है 'कविता कारवां' का जिसे स्नेह के सूत्र ने बाँध रखा है. वरना कौन निकालता है घर और दफ्तर के कामों, जीवन की आपाधापियों में से इतना समय. और क्यों भला जबकि अपनी पहचान और अपनी कविता को मंच मिलने का लालच तक न हो.

अक्सर लोग पूछते हैं कविता कारवां की टीम इसे करती कैसे है? कितने लोग हैं टीम में? खर्च कैसे निकलता है? तो हमारा एक ही जवाब होता है हमारी टीम में हजारों लोग हैं वो सब जो एक भी बैठक में शामिल हुए या इस विचार से प्यार करते हैं और हम इसे करते हैं दिल से. जब किसी काम में दिल लगने लग जाए फिर वो काम कहाँ रहता है. हम इसे काम की तरह नहीं करते, प्यार की तरह जीते हैं.

इस सफर में कई अवरोध आये, कुछ लोग नाराज भी हुए कुछ छोड़कर चले भी गए लेकिन 'कविता कारवां' उन सबसे अब भी जुड़ा है उन सबका शुक्रगुजार है कि उनसे भी हमने कितना कुछ सीखा है. हमें साथ चलना सीखना था, वही सीख रहे हैं. साथ चलने के सुख का नाम है 'कविता कारवां', कविताओं से प्रेम का नाम है 'कविता कारवां',

अपने 'मैं' से तनिक दूर खिसककर बैठने का नाम है 'कविता कारवां.'

हम पांचवी सालगिरह से बस कुछ कदम की दूरी पर हैं. उम्मीद है यह कारवां और बढ़ेगा...चलता रहेगा...नए साथी इसकी कमान सँभालते रहेंगे और दूसरे नए साथियों को थमाते रहेंगे... यह तमाम वर्गों में बंटी, तमाम तरह की असहिष्णुता से जूझ रही दुनिया को तनिक बेहतर तनिक ज्यादा मानवीय, संवेदनशील बनाने का सफर है जिसमें कविताओं की ऊर्जा हमारा ईंधन है

Sunday, May 17, 2020

कविता कारवां के बहाने कितने अफसाने

- शुभांकर शुक्ला 

कविता कारवां के इस खूबसूरत सफर के बारे में एक दिन लेखा जोखा कर रहा था तो पता चला कि देखते ही देखते कितनी सारी कविताओं की पूंजी जमा हो गयी पता ही नहीं चला। अब तो कभी कभी जब टीवी पर या आसपास किसी सामाजिक , राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दे पर लोगों को उलझते हुए देखता हूँ तो मन करता है कि उनको धीरे से पास बुलाऊँ और उनके कान में बोलूँ कि आप लोग बेकार की बहस में उलझे हो आपकी समस्या का निदान मैं अपनी पसंद की एक कविता से कर सकता हूँ ।

सच में ऐसा ही है । मैं मसखरी नहीं कर रहा। यहाँ ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं कविता कारवां के चार सालों के सफर में जिन जिन साथियों से मिला और उनकी पसंद की जिन जिन कविताओं को सुना उससे यह निष्कर्ष निकला कि आपकी हमारी बैचनियों को एक अदद कविता बहुत ही आसानी से शान्त कर सकती है। इसको अगर संक्षेप में कहूँ तो कुछ ऐसे कहा जायेगा-

आपकी बेचैनियों का ईलाज
एक अदद कविता
सत्ता की निरंकुशता का जवाब
एक अदद कविता
मजदूर की चुप्पी की आवाज
एक अदद कविता
प्रकृति की देयताओं का निसाब
एक अदद कविता
सभी पाखण्डों का जवाब
एक अदद कविता
आपके हजारों सवालों का जवाब
एक अदद कविता ।।

तो अगर कविता कारवां के चार साल के सफर में कविताओं के सम्बन्ध में मिले अनुभवों को अगर मैं समेटूंगा तो वो कुछ इसी तरह होगा। इसमें जब मैं देहरादून की पहली कविता कारवां की बैठक में पहुंचा तो मैंने गोपाल दास नीरज जी की कविता ‘‘छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने बालों कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है’’ सुना कर शुरूआत की थी । उसके बाद खटीमा की एक बैठक में मैने मुनीर नियाजी की कविता (शायरी) पढ़ी थी - ‘‘ हमेशा देर कर देता हूँ मैं , जरूरी बात कहनी हो , कोई वादा निभाना हो ’’। इसके बाद ये सिलसिला जारी रहा और मैंने निदा फाजली जी की कविता/शायरी ‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलों यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए’’ जैसी कविताओं का पाठ विभिन्न समयों में कविता कारवां की बैठक में किया।

इसी के साथ-साथ विनोद कुमार शुक्ल जी की मेरी पसंदीदा कविता ‘‘हताशा से एक आदमी बैठ गया था, मैं व्यक्ति को नहीं जानता था, हताशा को जानता था। ’’ के बारे में भी कविता कारवां की एक बैठक के दौरान पता चला। महिलाओं को उनकी शक्ति का परिचय कराती मराठी भाषा की नागराज मंजुले की कविता ‘‘ तुम क्यों खिल नहीं जाती गुलमोहर की तरह धूप की साजिश के खिलाफ’’ को मैंने कविता कारवां की बैठकों में अपनी पसंदीदा कविता के तौर पर कविता कारवां की बैठक में अन्य साथियों के साथ पढ़ा। आज की जाति व्यवस्था पर मुखरता के साथ चोट करती अदम गोंडवी के कई कवितायें जैसे - ‘‘आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को , मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको ’’ मेरी पसंद की सूची में रही हैं। अदम गोंडवी से परिचय पहले से था लेकिन अदम इस कदर धारदार और आम जनमानस को समझ में आने वाली धार के साथ लिखते हैं, यह बात कविता कारवां में मिलने वाले साथियों से पता चली। क्योंकि कई बार ऐसा भी हुआ है जैसे हम किसी कवि को पढ कऱ जैसे ही एक राय बनाते हैं तभी कविता कारवां की बैठक में कोई साथी उसी कवि की अपनी पसंद की कविता लेकर आता था जिससे हमें उस कवि के एक नये पहलू के बारे में पता चलता था। इस तरह की राय मैंने ‘रामधारी सिंह दिनकर’ जी को पढ़कर बना ली थी। रामधारी सिंह दिनकर जी की कवितायें मैं बचपन से पढ़ता आ रहा था क्योंकि मेरे दादा जी के प्रिय कवि हैं रामधारी सिंह दिनकर । घर में रेणुका और रश्मिरथी पहले से मौजूद थी। स्कूल में बचपन से मैं रामधारी सिंह दिनकर जी की ओजपूर्ण कविताओं का पाठ करता आ रहा हूँ। ओजपूर्ण शैली मुझे बहुत लाउड लगती है लेकिन कविता कारवां की एक बैठक के दौरान एक कविता रामधारी सिंह दिनकर जी की हाथ लग गयी जो इस प्रकार है कि -‘‘ तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतालाके, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके’’ क्ष़ित्रय वही भरी हुई हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वहीं ब्राह्मण है , हो जिसमें तप त्याग ’’। इस पूरी कविता को जब आप पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि दिनकर ने पूरी जातीय,गोत्रीय खोखली अस्मिता की धज्जियां उड़ा दी हैं।

नागार्जुन की एक कविता जो मुझे बेहद पसंद है -‘‘ तीनों बंदर बापू के - गांधी के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के ’’ नागार्जुन ने ये कविता जिस सन्दर्भ में लिखी है वह बड़ा मजेदार है। इसको कविता कारवां की एक बैठक में नूतन गैराला जी ने सुनाई थी। नागार्जुन की दूसरी कविता जो मुझे पसंद वह है- ‘‘ बहुत दिनों के बाद’’ । इसी क्रम में परिचय हुआ मुक्तिबोध से ,जब खटीमा (उधमसिंहनगर) में साथी सिद्धेश्वर जी ने मुक्तिबोध की कविता ‘‘बेचैन चील’’ का पाठ किया । मुक्तिबोध की शैली मेरे लिए बिल्कुल अलग थी उसके बाद जब मैंने छान बीन शुरू की तो मुक्तिबोध की दूसरी कविता जो हाथ लगी वो थी-‘‘अंधेरे में’’ इस कविता के बारें में कहना चाहूंगा कि जैसे हम अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी पीते रहते हैं और एक दिन घनघोर प्यास के बीच आपको अचानक से कोई शिकंजी पकड़ा दे तो बिल्कुल मुक्तिबोध की इस (अंधेरे में) वाली कविता ने कुछ उसी तरह की संतुष्टि दिलायी थी । मुक्तिबोध को पढ़ने के दोैरान उनके जीवन के बारे में पढ़ने को मिला और उन्हीं को समझते समझते परिचय हुआ केदारनाथ सिंह से।

उसी दौरान किसी इंटरव्यू या लेख में मैंने पढ़ा कि मुक्तिबोध के साहित्य से दुनिया का परिचय कराने वाले केदारनाथ सिंह जी ही थे। जब भी मैं केदारनाथ के बारे में पढ़ता था उनके साथ एक बात जरूर जुड़ जाती थी वह बिम्ब से जुड़ी हुई बात थी। इसी बहाने यह भी पता चला कि केदारनाथ जी बिम्बों के इस्तेमाल करने में महारथी समझे जाते हैं। एक गैर साहित्यिक क्षेत्र से आने की वहज से मुझे साहित्य की बारीकियों की समझ नहीं है लेकिन केदारनाथ जी से परिचय के साथ ही अचानक से साहित्य के छात्र जैसी जिज्ञासा जगी जब यह पता चला कि केदारनाथ जी ने ‘‘बिम्ब विधान’’ नाम से एक किताब की भी रचना की है। इन सब चीजों पर अभी भी समझने का काम चल रहा है लेकिन अगर बारीकियों की समझ हो तो चीजें और गहराई से समझ में आती हैं। उनकी दो कवितायें जो मुझे पसंद हैं वो हैं-‘‘हाथ’’ दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए । और दूसरी है - ‘‘जाऊँगा कहाँ’’ ऐसा लगता है मानो एक कवि अपने चिरकालिकक अस्तित्व के सम्बन्ध में इशारा कर गया हो। केदारनाथ जी को पढ़ते पढ़ते एक दिन यों ही साथी सुभाष जी से किसी बैठक में कुँँवर नारायण जी के बारे में भी पता लगा। उनकी कवितायें जो मुझे पसंद है वह है जैसे -‘‘अबकी बार लौटा तो वृहत्तर लौटूँगा’’ इसको सुभाष जी ने एक कविता कारवां की बैठक में सुनाया था। दूसरी कविता थी उनकी ‘‘दुनिया में कितना कुछ था लड़ने झगड़ने को , पर ऐसा मन मिला कि जरा से प्यार में डूबा और जीवन बीत गया’’ तीसरी कविता थी ‘‘कविता वक्तव्य नहीं गवाह है’’ कुँवर नारायण की कविताओं में जो मासूमियत भरी ईमानदारी की एक झलक मिलती है वो बरबस ही आपको खींच लेगी।

और इसी के साथ एक बैठक में देहरादून के साथी रमन नौटियाल जी ने परिचय कराया अज्ञेय की कविता ‘‘सांप’’ से । अज्ञेय से भी मेरा परिचय एक उपन्यासकार के रूप में पहले से ही था लेकिन यह बहुत हास्यास्पद भी है कि मैं उस दौरान पहली बार जान पाया कि अज्ञेय कविता भी लिख चुके हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि क्योंकि अज्ञेय के उपन्यासों का मेरे उपर इतना जबरदस्त प्रभाव था कि मुझे दूसरी तरफ देखने का मौका ही नहीं मिला । कभी कोई साथी अगर अज्ञेय पर बात करने के लिए मिला तो यह संयोग ही था कि हमेशा अज्ञेय के उपन्यासों पर ही बात हुई । कभी अज्ञेय के उपन्यासों के सुरूर से मैं निकल ही नहीं पाया लेकिन जब मैंने लगभग तीन साल पहले अज्ञेय की पहली कविता कविता कारवां की बैठक में सुनी तो फिर खोजबीन का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें एक से एक बेहतरीन कविताओं से परिचय हुआ। अज्ञेय की कविताओं में जो कविता मुझे सबसे पसन्द है वह है - ‘‘ जो पुल बनायेंगे वो अनिवार्यतः पीछे रह जायेंगें ’’ दूसरी है ‘‘चीनी चाय पीते हुए’’ और इसके अलावा भी हैं लेकिन यहाँ जो कवितायें जुबान पर चढ़ी हुई है उनको मैं प्राथमिकता दे रहा हूँ ।

बीच में कविता कारवां की बैठकों मे हम लोगों ने यह तय किया था कि कुछ बैठकों में हम इन्हीं सब कविताओं के बीच से गुजरते हुए हर कविता कारवां की बैठक में एक थीम चुनेंगे और उस थीम को ध्यान में रखकर लोग अपनी पसंद की कवितायें चुनकर लायेंगे और फिर कावता कारवां की बैठक मे उसी थीम के इर्द गिर्द घूमती कविताओं का वाचन होगा। इसी दौरान ‘प्रतिरोध की कविता ’ की थीम का एक बार चयन हुआ जिसमें हमारी देहरादून की साथी प्रतिभा जी ने कुछ ऐसे कवियों की कविताओं से परिचय कराया जिन्होंने प्रतिरोध की शानदार कवितायें लिखी थीं जैसे गौहर रजा जी , राजेश जोशी जी उनमें से एक हैं। हमारे देश मे लिंचिंग आदि के बहाने हिंसा फैलाने एवं असहमतियों को दबाने की कोशिश की जा रही थी उस समय राजनीतिक हलकों में बैठे असंवेदनहीन लोंगो को आईना दिखाती गौहरा रजा की दो कवितायें बहुत पसंद हैं पहली है- ‘‘खामोशी’’- ‘‘लो मैंने कलम को धो डाला लो मेरी जुँबा पे ताला है’’ और दूसरी है - ’’धरम में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचायेगी , मसली कलियां , झुलसा गुलशन जर्द खिंजाँ दिखलायेगी’’ । तीसरे कवि हैं रघुवीर सहाय जिनकी कविता ‘‘दो अर्थों का भय’’ का वाचन अभी कविता कारवां के फेसबुक पेज से नरेश सक्सेना जी ने किया जिसके बारे में मुझे उसी दिन पता चला।

देहरादून की एक बैठक में प्रतिभा जी ने राजेश जोशी जी की कविता पढ़ी वह ऐसे है कि - ‘‘बर्बर सिर्फ बर्बर थे, उनके पास किसी धर्म की ध्वजा नहीं थी ,उनके पास भाषा का कोई छल नहीं था ’’यह कविता समकालीन राजनीतिक , सामाजिक सन्दर्भ में अपनी हर एक लाइन में इतने गहरे अर्थ लिए हुए कि जिसका कोई मुकाबला नहीं । दूसरी मेरी पसंद की कविता है जो राजेश जोशी जी ने लिखी है - ‘‘ जो सच सच बोलेंगे वो मारे जायेंगे’’ ।

इसी के साथ इन चार पाँच सालों में जैसे जैसे हमारे देश ,समाज और राजनीति में परिवर्तन होता रहा उसी हिसाब से हमारी जीवन शैली में, कविताओं के स्वाद में भी अलग अलग फ्लेवर का आनंद कविता कारवां के साथियों के साथ मैं लेता रहा। प्रतिरोध की कविता के खयालों के बीच पिछले चार-पाँच सालों में जेएनयू जैसे संस्थानों की खबरों में रूचि बढ़ने के साथ-साथ दो अन्य कवियों से परिचय हुआ जिसमें पहले थे रमाशंकर विद्राही और दूसरे थे गोरख पाण्डेय । जिसमें रमाशंकर विद्रोही की कविता ‘‘मैं किसान हूँ आसमान में धान बो रहा हूँ ’’ बेहद पसंद है। गोरखनाथ पाण्डे की एक कविता है -‘‘ तुम्हें डर है’’ । इसी सीरीज में जब कोरोना काल में हमने कविता कारवां के पेज से अपने देश के प्रतिष्ठित कवियों को लाइव कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया तो उसमें भी कई नई कतिताओं और लेखक के बारे में पता चला जिनमें से अभी तक बस कात्यायनी जी को पढ़ पाया हूँ । आगे कतार में कई नाम हैं इस दौर के नए कवियों की लिस्ट है। धीरे-धीरे सबको पढ़ा जायेगा। फिर किसी एक हिस्से में ‘प्रेम और कविता’ पर लिखा जायेगा। अभी जो नाम छूट जा रहें हैं उनमें शमशेर सिंह हैं जिनकी ‘‘टूटी हुई बिखरी हुई’’ मेरी पसंदीदा कविताओं में से है। कात्यायनी जी की एक कविता जो ’’स्त्रियों कीे दशा को बहुत व्यापकता के साथ चित्रित करती है वह है-‘‘रात के संतरी की कविता’’ इसको अभी कविता कारवां के पेज से लाइव के दौरान जब नरेश सक्सेना जी अपने पसंद के कवियों की कवितायें सुना रहे थे उस दौरान इस कविता का उन्होंने जिक्र किया। तो इस तरह अभी बहुत सारे कवियों को छोड़ना पड़ रहा है । अगली कड़ी में अन्य को जोड़ा जायेगा। 

अभी बहुत बात बाकी है। अभी बहुत कुछ दर्ज होना बाकी है।

(शुभांकर शुक्ला  कविता कारवां के सहयात्री हैं )

Saturday, May 16, 2020

साझेदारी का सुख और मंगलेश डबराल


कविता कारवां पढ़े हुए को दूसरों से साझा करने, जाने हुए से ज्यादा जानने का आत्मीय प्रयोग था. कभी मध्धम कभी तेज़ कदमों से चलते हुए इस प्रयोग में साथी बढ़ते गए. हर बैठक के बाद मैंने महसूस किया कि थोड़ा और समृद्ध हुई हूँ, लगभग हर बैठक के बाद महसूस हुआ कि कितना कम जानती हूँ, कितना कम पढ़ा है. हर बार कुछ नयी कवितायेँ, नयी बातें, मुलाकातें और अपनापन झोली में आ गिरता.
आत्मीयता और सामूहिकता इस कार्यक्रम की बुनियाद रही जो बहुत मजबूत थी कि कैसे-कैसे मुकाम आये, आंधी तूफ़ान आये लेकिन आत्मीयता की मीठी नदी कल कल बहती रही, लोग जुड़ते रहे. हम सचमुच परिवार हो गये. हम एक-दूसरे से हक से मिलते हैं, लड़ते हैं झगड़ते हैं, जिम्मेदारियां उठाते हैं लेकिन साथ नहीं छोड़ते एक दूसरे का. यह व्यक्ति का नहीं समूह का कार्यक्रम बना और इसमें शामिल होते गये देश भर के लोग. कोई एक चेहरा, एक नाम है ही नहीं इस कार्यक्रम का, जो सबका था वो सबका ही होना था.

इस सफर में हमने जिन्दगी के हर रंग साथ में देखे हैं. दुःख के भीषण पलों में हमने एक-दूसरे का हाथ थामा और उम्मीद की कवितायेँ पढ़ीं. त्यौहार मनाये साथ, विपदाओं में साथ रहे, सुख दुःख बांटे, कविताओं की छाँव में जिन्दगी की धूप रख आये...राहत मिली, सुकून मिला. दोस्त मिले. नाराजगियां भी मिलीं जिन्हें भी हमने पलकों पर उठाया लेकिन रुके नहीं...चलते रहे.

यह अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं का ठीहा है, इसे हमने सादा, सरल बनाने की कोशिशें की. कोशिश की कि आमजन की भागीदारी हो यहाँ, प्रेम हो, साथ हो. ग्लैमर नहीं चाहिए था, शोहरत की दरकार नहीं थी, कोई होड़ नहीं थी, बस साथ का सुख था जिसे बचाए रखना था. सहेजते चलना था.

कोविड-19 के इस विषम समय में जब देह की दूरियां बढीं हम और करीब आये. अवसाद के इस समय का हमने हिम्मत की, उजास की, प्रेम की, प्रतिरोध की कविताओं का हाथ थामकर सामना किया. कर रहे हैं. इसी कारवां में कितनी आत्मीयता से कुछ लोग जुड़ते गए इन दिनों. उन्ही लोगों में से एक मंगलेश डबराल जी हैं.

आज मंगलेश जी का जन्मदिन है. मंगलेश जी ने जब अपनी पसंद की कवितायेँ पढ़ीं तो लोगों को लगा अरे, मंगलेश जी की कवितायें तो सुनी ही नहीं लेकिन उनकी इच्छा पूरी हुई जब अशोक वाजपेयी जी ने और नरेश सक्स्सेना जी ने उनकी कवितायें पढ़ीं. और मुझे मिला एक नायब तोहफा. कि मैंने अशोक जी द्वारा पढ़ी गयी मंगलेश जी की कविता को ढूंढना शुरू किया, वो कविता रात दिन मेरे संग हो ली.'जो हमें डराता है वो कहता है, डरने की कोई बात नहीं है...' कविता नहीं मिली तो मंगलेश जी को फोन कर लिया और उन्होंने बहुत सहज और आत्अमीय भाव से अपना नया कविता संग्रह ' स्मृति एक दूसरा समय है' मुझे भेज दिया. हमें इनसे ये सहजता और विनम्रता भी तो सीखनी है. सोचती हूँ कोई नया-नया प्करसिद्विध हुआ कहाँ बात करता है इतनी आत्मीयता और सहजता से. यह व्यवहार भी तो एक कविता ही है.

मंगलेश जी के इस संग्रह की एक-एक कविता को पढ़ते हुए महसूस होता है यही तो पढ़ना चाहती थी. बस यही. समय के सीने को चीरती हुई कवितायें. धधकती हुई कवितायें, झिन्झोडती कवितायें, मौजूदा समय की आँखों में आँखे डालकर देखती और जवाब मांगती कवितायें.

सेतु प्रकाशन से आया यह संग्रह हम सबको जरूर पढना चाहिए और जन्मदिन की बधाई देनी चाहिए प्रिय कवि मंगलेश जी को. शुक्रगुजार हूँ कविता कारवां की जिसने जिन्दगी को कुछ मानी दिए और इतने सारे प्यारे लोगों से मिलवाया, उनके स्नेह का हकदार बनाया.
जन्मदिन मुबारक मंगलेश जी...

Monday, July 29, 2019

'कविता कारवां'- गुलज़ार


कुछ खो दिया है पाई के
कुछ पा लिया गँवाई के...

बारिश की चुनरी ओढ़े सावन की कोई शाम गुलज़ार साहब के पहलू में सिमटकर बैठी हो तो दिल के हाल क्या कहें. बिलकुल ऐसा ही दिलफरेब मौसम बना कविता कारवां की देहरादून की बैठक में. जिस्म सौ बार जले फिर वही मिट्टी का ढेला है, रूह देखी है कभी रूह को महसूस किया है...गुलज़ार साहब की नज्म को उन्हीं की आवाज में सुनने से शाम का आगाज़ हुआ और यह आगाज़ उनकी तमाम नज्मों, गीतों, त्रिवेणियों के जरिये परवान चढ़ता गया. बाहर धुला धुला सा मौसम इतना हरा था मानो किसी रेगिस्तान की लड़की की दुआ क़ुबूल हो गयी हो. और गुलज़ार साहब की शोख मखमली आवाज में उनकी ही नज्मों का जादू.

कविताई में डूबी इस पहाड़ी शाम में 'बूढ़े पहाड़ों पर' का जिक्र कैसे न होता भला. विशाल भारद्वाज, सुरेश वाडकर और गुलज़ार साहब की त्रयी 'बूढ़े पहाड़ों पर' को सुनना किस कदर रूमानी था इसे बयान करना मुश्किल है. इसके बाद एक-एक कर 'अबके बरस भेज भैया को बाबुल', 'किताबें करती हैं बातें', 'बारिश आती है तो पानी को भी लग जाते हैं पाँव', 'प्यार कभी इकतरफा नहीं होता', 'अभी न पर्दा उठाओ', 'आँखों को वीजा नहीं लगता', 'यार जुलाहे', 'मुझको इतने से काम पर रख लो', 'मोरा गोरा अंग लई ले' सहित रचनाओं के साथ शाम गुलज़ार हुई.

गुलज़ार साहब से मुलाकातों के किस्से छिडे, उनकी फिल्मों का जिक्र हुआ, उनकी कविता के अलावा उनके प्रोज उनकी कहानियों पर भी बात हुई. बात हुई कि किस तरह बंटवारे की खराशें उनके लिखे में तारी हैं. गुलज़ार पोयट्री के साथ पोलिटिकल जस्टिस और पोलिटिकल बेचैनी को पोयटिक बनाने में माहिर हैं यह उनकी फिल्म आंधी, हू तू तू आदि में अच्छे से दिखता है. शाम थामे नहीं थम रही थी. गुलज़ार यूँ ही तो गुलज़ार नहीं हुए होंगे कि उनका जिक्र होगा तो जिक्र अमृता आपा का भी होगा और मीना कुमारी का भी और किस तरह उनका नाम गुलज़ार पड़ा इसका भी जिक्र होगा ही, सो हुआ. शाम बीत गयी लेकिन हम सब बैठक से गुलज़ारियत लिए लौटे हैं.

18 अगस्त को उनका जन्मदिन है देहरादून में उनके दीवानों ने उनका जन्मदिन एडवांस में मना लिया...मौसम ने इस शाम में खूब रंग भरे...