आधी रात को न जाने किसने दरवाजा खटकाया था. नींद से लड़की का कोई पुराना बैर था, सो पहली ही आहट में आवाज सुन ली थी. दरवाजा खोला तो हंसी ही आ गई उसे.
'मुझे पता था.' उसने हंसते हुए कहा.
वो हैरत से देख रहा था.
'क्या पता था तुम्हें?' उसने पूछा.
'यही कि तुम आओगे. लेकिन इस तरह आधी रात...इतना भी सब्र नहीं हुआ तुमसे कि सुबह तक रुक जाओ. अब आ गये हो तो बैठ भी जाओ.' हंसी रुक ही नहीं रही थी लड़की की. 'अच्छा....बाबा सॉरी.' लड़की ने कान पकड़ते हुए कहा लेकिन उसकी हंसी अब भी तारी थी. खिली-खिली सी हंसी. मानो आसमान के सारे तारे उसकी खिलखिलाहट में गुंथ गये थे.
'तुम्हें हैरत किस बात की है? मेरे आने की या इस तरह आधी रात को आने की?' उसने अचकचा कर पूछा.
'दोनों में से किसी बात की नहीं. क्योंकि ये दोनों बातें मुझे पहले से ही पता थीं.' लड़की मुस्कुराई. अब उसकी मुस्कुराहट में ठहराव आ गया था. जो उसकी सादा मुस्कुराहट को और भी मोहक बना रहा था.
'फिर...?' उसने पूछा.
'देखो, दिन...रात...का हिसाब तो मैंने कब का बिगाड़ रखा है. तो इससे कोई फर्क ही नहीं कि वक्त क्या है. यूं भी मौसमों के आने-जाने का कोई वक्त होता भी कहां है. कब गाढ़ी काली रात बरसने लगे और कब बरसती रात के आंचल में चांद खिल उठे कौन जाने. इसीलिए मैंने दिन रात समेटकर एक ही पोटली में बांधकर रख दिये हैं. सब आपस में उलझ गये हैं. मुझे पता था तुम आओगे. और जल्दी आओगे.
सारा दिन मैंने तुम्हें देखकर भी नहीं देखा. तुमसे नजरें चुराईं. तुम्हें बुरा लगा ना?'
उसने गर्दन झुका ली.
'मैं तुम्हारे ही लिये तो आता हूं. पूरे ग्यारह महीने के इंतजार के बाद बस कुछ दिनों का साथ.'
'जानती हूं. मैं भी तो पूरे ग्यारह महीने इंतजार करती हूं. लेकिन इस बार तुम मेरे पीछे से क्यों आये? इसीलिए नाराज हूं तुमसे. मैं शहर से बाहर थी कुछ दिन. तो मैंने जिंदगी की शतरंज समेटकर रख दी थी. हाथी घोड़ों को अलग-अलग बांध दिया था. शह को मात से टिकाकर रख दिया था कि लौटूंगी तब तक कहीं सब आपस में उलझ न पड़ें. लेकिन...' लड़की कहते-कहते अचानक उदास हो गई.
'क्या हुआ?'
'कुछ नहीं.'
'अरे, बोलो भी?'
'जब मैं थी ही नहीं तो तुम किसके लिए आये थे बोलो तो? लौटती हूं तो सारा शहर पलाशों से भरा हुआ है. दरख्त की हार डाल पर तुम मुस्कुरा रहे हो. तुमने मुझसे छल किया. तुम मेरे लिए नहीं आये हो.'
लड़की नाराज हो गई.
'अच्छा इसीलिए सारा दिन मुझसे बात नहीं की.'
'हां.'
'मैं तो तुम्हारे लिये ही आया हूं. यहां कौन है जिसे मेरी फिक्र है. कौन है जो मेरी एक झलक भर से खिल उठता है. कौन है जो ग्यारह महीने हसरत से मेरी शाखों पर कुछ टटोलता है.'
'पर अब मुझे तुम्हारे आने से क्या? मैं अब मौसमों से पार निकल आई हूं. दिन-रात, सुख-दुख, अवसाद, शह-मात इन सबको पार कर रही हूं.'
'कहां जाओगी सबको पार करके?' उसने पलकें झपकाकर पूछा.
'अपने केंद्र में. कितने दिन हुए खुद से पीछा छुड़ाये. कितने दिन हुए दिये की ढिबरी की तरह अपनी ही लौ को बढ़ाये. कितने दिन हुए अपनी ही आंख में खुद को देखे. कितनी सदियों से खुद से भागती फिरती हूं. अब लौटना चाहती हूं. अपने केंद्र पर. अपना राग खुद बनना चाहती हूं. आरोह अवरोह की सीढिय़ों से मुक्त राग.'
लड़की की आंखों में शांति थी. अथाह शांति.
'तो मैं अब कहां जाऊं...' वो बोला. उसका स्वर उदास था.
लड़की उसकी मासूम सी ख्वाहिश पर फिदा थी.
'तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं.' उसने पलाश की उस शाख से एक फूल उतारा. दहकता हुआ सुर्ख फूल. उसे अपनी लंबी सी चोटी में अटका लिया. उसका चेहरा पलाश के फूलों की तरह खिल उठा.
'अब खुश?' वो चिहुंकी.
'हां...' पलाश मुस्कुराया.
'तो मैं सो जाऊं अब?' लड़की ने पूछा.
'हां, लेकिन मैं यहीं तुम्हारे सिरहाने बैठा रहूंगा. इजाजत दो.'
'चलो दी इजाजत.' लड़की खिलखिलाई.
उसने तनहाई की चादर को खींचकर खुद को उसमें छुपा लिया...