Tuesday, May 31, 2022

वह चिड़िया क्या गाती होगी...

'जो हमें पसंद हो उसका हमारे जीवन में होना क्यों जरूरी है। यह एक किस्म की लालसा है। इसमें एक तरह के स्वार्थ की बू आती है। जो चीजें हमें पसंद है, हमारे पास हो, घर में हों यह पागलपन है। जो हमें पसंद है वह वहीं रहे जहां वो है तो क्या हमारी पसंद घट जाती है ? शायद ज्यादा बची रहती है । और फिर अगर किसी रोज पसंद बदल जाए तो उस व्यक्ति का या उस सामान का क्या करें जिसे जीवन में या घर में इस कदर भर लिया था कि वो पूरा जीवन ही घेर कर बैठ गया था। अब या तो उस बदली हुई पसंद के साथ रहना होता है या उसके बगैर छूट गए ढेर सारे खाली-पन के साथ।'

via-Bikas Gupta

Friday, May 27, 2022

तेरी आँखों के सिवा...



'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...' पार्क की उस  कुछ भीगी, कुछ सूखी बेंच से उठते हुए लड़का बरबस गुनगुना उठा था. सांझ अपनी पायल की रुनझन को उतारकर आई थी उस रोज. बेआवाज़ सी किसी धुन में डूबी हुई शाम थी वो. लड़की के मध्धम गति में बढ़ते कदम रुक से गये थे. नदी भी मानो बहते-बहते पल भर को ठहर गयी हो. लड़की की आँखें भर आई थीं. वही आँखें जिन्हें देखने को बेताब रहा करता था लड़का. वही जो अब इन आँखों से बहुत दूर जा रहा था.

एकदम से फफक के रोने का जी हो आया लड़की का. कि छोड़ दे मान सम्मान की सारी बात और जाए लिपट जाए उसके सीने से, चीख-चीख के आसमान को घायल कर दे और रोक ले लड़के को. लेकिन...बड़ी मेहनत से कमाया हुआ जो थोड़ा सा गुरूर है उसे कैसे छोड़ दे आखिर कि यह गुरूर अपने होने का है. और यह भी कि रोकने से तो रुकती है सिर्फ देह जाने वाला तो तभी जा चुका होता है जब वो जाने के बारे में सोच लेता है.

अपनी सिसकियों को भीतर ही घोंटते हुए लड़की ने अपने ठहरे हुए कदम आगे बढ़ा दिए. लड़का जानता था कि बात खत्म हो चुकी है. और यही तो वो चाहता था. यही करने तो वो आया था. बात खत्म. इसीलिए तो एक आखिरी बार मिलने आया था. जब वही हो रहा था तो कैसी उदासी. लड़की ने तो अपनी सिसकियों को किसी और मौके के लिए संभाल लिया था लेकिन लड़का इतना मजबूत नहीं था. उसे नहीं मालूम वो क्या चाहता है लेकिन इस लम्हे में उसे लड़की पर बहुत गुस्सा आ रहा था. ये क्यों ऐसी है? क्या इसे कोई दुःख नहीं हो रहा. क्यों ये उसे रोक नहीं रही? क्यों इस तरह उठकर चली जा रही है. इतना भी क्या मगरूर होना.

लड़की के कदमों की रफ्तार में इंतज़ार था कि लड़के के कदम उस रफ्तार का साथ दें शायद. या वो आवाज़ जिस पर बौराई फिरती है इस बार रोक ले उसके कदमों को. कचनार के झरे हुए गुलाबी फूलों से भरा हुआ रास्ता जिस पर अभी बरस के रुके बादलों के निशान काबिज़ थे आज लड़की को उदास कर रहा था. पार्क के मुहाने पर पहुंची तो हवा के हल्के से झोंके ने पत्तों पर रुकी बूंदों को उस पर गिरा दिया. उदास मुस्कराहट के साथ उसने सर उठाकर पेड़ की तरफ देखा, मन ही मन कहा, ‘दोस्त तू समझता है सब हाल का मन का.’ तभी चंद बूँदें टप्प से उसकी नाक और गालों पर टपक गईं.

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...लिखते वक्त फैज़ ने क्या सोचा होगा कि उनके लिखे का कोई यूँ बेजा इस्तेमाल भी करेगा. अपनी बेवफाई को छुपाने के लिए.

बेवफाई...हाँ, बेवफाई ही तो. बेवफाई किसी और के साथ जाना ही तो नहीं होती, जब और जहाँ आपको होना हो वहां न होना भी तो होती है. इश्क़ में होना और इश्क़ की आंच को सह न पाना भी बेवफाई ही तो हुई. लड़की को महसूस होने लगा था कि लड़का सच्चे प्यार की आंच सह नहीं पा रहा है. वो पिघल रहा है. साथ रहना तो चाहता है लेकिन डरता भी है. कमिटमेंट तो पहले ही कोई नहीं था दोनों के बीच. बस एक इच्छा थी साथ होने की जिसने दोनों को बाँध रखा था. फिर हुआ यूँ कि इश्क़ की खुशबू बिखरने लगी. और खुशबू की तो कोई सीमा होती नहीं. वो कब पाबन्द होती है कि कितना बिखरना है, कितना नहीं. कि सारा आलम उसकी गिरफ्त में आने लगा. चाँद, सितारे मगरूर होने लगे, दिन के पैरहन में टंके घुंघरुओं की छुन छुन बढ़ने लगी. रातरानी की खुशबू में कोई नशा घुलने लगा. रास्तों पर बिखरने लगी इंतज़ार की खुशबू.

लड़के ने इश्क़ के इत्र को न कभी छुआ था, न देखा था. हाँ, किस्से सुने थे, कहानियां पढ़ी जरूर थीं. वो नहीं जानता था नसों में घुलता ये जादू धीरे-धीरे वजूद का हिस्सा बनने लगता है और फिर एक रोज हम खुद से बेज़ार होने लगते हैं. लड़की का साथ उसे अच्छा लगता था लेकिन वो इस खुशबू क संभाल पाने में नाकामयाब होने लगा.

लड़की समझ रही थी कि लड़के के कंधे इश्क़ को सहेजने के लिए मजबूत नहीं हैं, एक रोज जब लड़की जुगनुओं को हथेली पर लिए उनसे लाड़ कर रही थी तो लड़के ने मिनमिनाती सी आवाज़ में कहा, ‘मैं तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ लेकिन...’ वो रुक गया था. लड़की ने सारे जुगनू हथेली से उड़ाते हुए उसके होंठो पर उंगली रखते हुए उसे चुप रहने का इशारा किया. वो जानती थी कि लड़के के मन में क्या है. वो जानती थी उन दोनों के बीच कोई नहीं है. है तो लड़के की खुद की कमजोरी. वो जानती थी कि जो इश्क़ मोहता बहुत है उसके करीब जाना, उसे आत्मसात करना उसे जीना आसान भी नहीं.

लड़का इश्क़ के मोह में आ तो गया था लेकिन अब उसके कंधे छोटे पड़ने लगे थे.

लड़का धीरे-धीरे चलते हुए लड़की के पास आ पहुंचा था. दोनों खामोश साथ चलते रहे. लड़का आया तो था लड़की को विदा कहने लेकिन चाहता था उसे रोक ले लड़की. और लड़की ने किसी को भी रोकना बहुत पहले छोड़ दिया है. बादल फिर घिर आये थे. हल्की बूँदें भी गिरने लगी थीं.

‘तुम रुको मैं कार यहीं लेकर आता हूँ, इतनी दूर पैदल जाओगी तो भीग जाओगी’ लड़के ने हाथ थामकर उसे रुक जाने को कहा.

'छोड़कर जाने वालों को इतनी फ़िक्र करने का हक़ नहीं होता...' कहकर लड़की मुस्कुरा दी.
‘इतना बुरा लग रहा है तो रोक क्यों नहीं लेती?’ लड़के ने कहा. लड़के की उदासी उसकी आवाज़ में बिखर गयी थी.
‘अरे, मैंने कहा था क्या आने को? खुद आये थे खुद ठहरे जब तक ठहरना था और अब खुद ही जा रहे हो. तो मैं क्यों रोकूँ?’ लड़की ने मन में सोचा लेकिन कहा कुछ भी नहीं.

बस वो रुकी नहीं, और बारिश में भीगते हुए कार की ओर बढ़ने लगी.

लड़का रुआंसा हो गया था. उसने पीछे से आवाज़ दी, ‘सुनो, तुम्हें कोई और मिल गया है न?’ यह सबसे सस्ता और अंतिम प्रहार था लड़के का कि लड़की का गुरूर कुछ टूटे तो सही.

लड़की मुस्कुराई. उसने कहा ‘हाँ’.
जानता लड़का भी था कि उसने क्या किया है, जानती लड़की भी थी लड़के ने ऐसा क्यों कहा है लेकिन दोनों खामोश रहे. बाहर बारिश तेज़ हो आई थी भीतर का तूफ़ान थमने लगा था. दोनों कार तक पहुंचे तो एकदम भीग चुके थे.

‘मुझे रोक लो, मैं तुम्हारे पास रुकना चाहता हूँ. लड़के ने कहना चाहा पर वो चुप रहा.’
कार चल पड़ी...फैज़ की गज़ल बज उठी, 'अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे...' लड़की ने मुस्कुराकर अपनी हथेलियाँ बरसती बूंदों के आगे कर दीं...

Thursday, May 26, 2022

मोहब्बत की पुकार, दिल बेकरार- इंदौर यात्रा



मुझे मोहब्बत की पुकार को अनसुना करना नहीं आता. इस पुकार पर दुनिया के किसी भी कोने में दौड़ी चली जाती हूं. कि बड़े भाग से आपके कानों में ऐसी पुकार आती है. मैं चाहती हूँ दुनिया में किसी को भी कोई प्यार से पुकारे तो उसकी पुकार कभी अनसुनी न हो...

दिसम्बर 21 में जब इंदौर गयी थी तब अमर जी का स्नेहिल आमन्त्रण उन्होंने चलते हुए मेरी हथेली पर रख दिया था. इस आमन्त्रण में माया आंटी से मिलने की चमक भी शामिल थी. फिर माया आंटी ने इसे विनोद जी से मिलने के ख़्वाब से भी भर दिया. तो इस तरह मैं इंदौर पहुंची.


'प्रवासी साहित्य, मुख्य धारा साहित्य और मैत्री पुल...' यह विषय दिया गया. सोचती रही देर तक कि इस विषय पर क्या है मेरी समझ, क्या ही कह पाऊंगी मैं. मुझे नीरा दी का ख्याल आया, उनके ब्लॉग 'काहे को ब्याहे बिदेस' का ख्याल आया, मुझे अनुराधा बेनीवाल की 'आज़ादी मेरा ब्रांड' का ख्याल आया. फिर मुझे ख्याल आया उन अप्रवासी दोस्तों को जिन्हें दूर से भारत चमकता हुआ दिखता है. या जिनके लिए देश से प्रेम का अर्थ देश के त्योहारों को ठीक से मना लेना भर है. सच कहूँ याद तो हाउडी मोदी के लिए पगलाए अप्रवासियों का भी ख्याल आया और सोचने लगी कि दूर जाकर पास आना ऐसा तो नहीं होता होगा शायद कि असल समस्याएं दिखनी बंद हो जाएँ.
दूर आखिर कितना दूर होता है, पास कितना पास...कौन है अप्रवासी, कौन नहीं है अप्रवासी. मारीना की उस पंक्ति के साथ मैंने अपनी बात को बुनना शुरू किया कि कवि का कोई देश नहीं होता...


जब मैं मंच पर बोलने पहुंची तो आश्वस्त थी कि मेरी भूमिका बस कुछ सवाल भर रख आने की है क्योंकि जवाब तो मेरे पास हैं नहीं. ज्यादा जिम्मेदारी शार्दूला दी की होगी. तो मैंने यही किया. कुछ ऊबड़-खाबड़, टूटे-फूटे विचारों को जमा किया और अपनी बात रखी. यह इंदौर के लोगों का प्यार है कि उन्होंने मेरी बातों को दिल में जगह दी और खूब प्यार दिया.

मनीषा और कंचन दी सामने बैठे थे, माया आंटी अपनी सहेलियों के साथ सबसे पीछे और उनके चेहरे देख मुझे हौसला मिलता रहा. मनीषा से लम्बे समय बाद सुकून वाली मुलाकात हुई, बात हुई, कंचन दी से लाड़ किया.
शार्दूला दी से पहली बार मिलना इस यात्रा का हासिल रहा.


शुक्रिया इंदौर. शुक्रिया वामा परिवार!
बातचीत का सम्पादित अंश इस लिंक पर सुना जा सकता है-
https://www.youtube.com/watch?v=ZqIRilghCmg&feature=youtu.be

Wednesday, May 25, 2022

ख़ामोशी की संगत पर शब्द और रंग


-प्रतिभा कटियार 

रंग में जो आवाज़ होती है वो बहुत मध्धम सुर में बात करती है. कभी रंगों के क़रीब जाना तो सारा शोर उतार के जाना. शब्दों में जो रंग, जो मौसम, जो नमी होती है वो पंचम सुर के भीतर रहती है. वही पंचम जो प्यार से बनता है. शब्दों के भीतर रखे उस मौसम की डाल उठानी हो तो बहुत आहिस्ता जाना, शब्दों के कांधे से सटकर बैठ जाना. अर्थ के जंगल में मत भटकना बस पंचम के सुर में गोते लगाना और फिर एक नया संसार खुलेगा, एक नयी खुशबू घेरने लगेगी. ऐसे ही जादुई एहसासों से गुजरना हुआ इंदौर में उस शाम 14 मई को जब हम पहुंचे रवीन्द्र व्यास जी की शब्द चित्र प्रदर्शनी देखने.

रवीन्द्र जी से उनके काम के जरिये परिचय बहुत पुराना है. ब्लॉग के ज़माने से. उनका हरे रंग के प्रति प्रेम मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है. उनके चित्रों के करीब कुछ देर ठहरने का जी चाहता है. लेकिन वो सब महसूस किया हुआ अनकहा ही रहा. शायद इस कहन को अब इस प्रदर्शनी के जरिये आना था.

प्रदर्शनी में कुल 26 चित्र हैं और 17 कविताएँ. ये सभी चित्र और कविताएँ मानवीयता का ऐसा इन्द्रधनुष रचते हैं कि आप इनके असर में आये बगैर नहीं रह सकते. ऐसी कोमल अभिव्यक्तियाँ जैसे रंग जाकर शब्दों में जा बैठे हों और शब्दों ने धारण कर लिया हो रंगों का बाना.

एक अनाम तारा
करवट लेती स्त्री को
देखता रहता है अपलक

एक दिन
वह तारा टूट कर गिरता है
और कवि की आंख में
ठहर जाता है

कवि जानता है
करवट लेती स्त्री का दु:ख
और कह नहीं पाता...
(कविता अंश )

सबसे पहले मैं जिस चित्र के सामने खड़ी हुई मैंने अपनी त्वचा पर कुछ पनीला सा रेंगता महसूस किया. जैसे पानी ने छू लिया हो वो पानी जो हरे के भीतर समाया है. उस छुअन के बारे में लिख पाना मुमकिन नहीं. बस कि कोई शब्द हीन सा जादू था साथ. यह जो हरा है न यह धरती की वो ओढ़नी है जिसने हम सबके भीतर की नमी को बचा रखा है. इन चित्रों की उंगली थाम आप किसी जंगल की यात्रा पर निकल सकते हैं. झप्प से गिरता हराआँखों पर सुकून के फाहे रखता है. हरे रंग की सीढ़ियों पर चढ़कर आप हरे आसमान तक पहुँच सकते हैं, एक तिनका हरा थाम आप हरे समन्दर में गोते लगाने को निकल सकते हैं.

एक रंग के अंदर होते हैं न जाने कितने रंग बस कि उनकी संगत में जरा गुम हो जाने भर की देर है. मैं सच कहती हूँ रवीन्द्र जी की कलाकृतियों ने मेरे भीतर की गुम गयी ख़ामोशी को ढूंढकर मुझे थमा दिया था. मैं इन चित्रों के साथ घंटों रह सकती थी. बल्कि सच यह है कि चित्रों की उपस्थिति जरा देर को भी गुम नहीं हुई जेहन से अब तक. इन रंगों के साथ जो कवितायें रवीन्द्र जी ने प्रदर्शनी में सजाई थीं वो कैनवास पर उभरे रंगों को और मीठा बना रहे थीं.

रात के तीसरे पहर में
एक स्त्री की नींद टूटती है
और वह हड़बड़ाकर बैठ जाती है
जिस दिवाल से वह
पीठ टिकाकर बैठती है
उस पर मकड़ी अपना जाला बुनती रहती है
आधी रात को
वह स्त्री अपने खुले बालों को झटकती है
और जूड़ा बांध लेती है.
(कविता अंश)

मैं जब भी घर से निकलता हूं
मां मुझे ऐसे देखती है
कि अब मैं कभी लौटूंगा नहीं

दहलीज़ पार करते ही
मैं अपनी पीठ के पीछे
मां के धम्म से
बैठने की आवाज़ सुनता हूं...
(कविता अंश)

रंग और शब्दों की इस दुनिया से गुजरना एक खूबसूरत एहसास था जिसका असर अब तक बना हुआ है. 

Saturday, May 21, 2022

सारा सबकुछ, कुछ नहीं बचा इतना



सुबह वैसी ही थी जैसी उसे होना था. महकती हुई, खुशगवार. सुबह की हथेलियों पर रात की बारिशों के बोसे रखे हुए थे. भीगी हुई सुबह ने जब गाल छुए तो लगा शहर ने लाड़ किया हो जैसे. पैर जैसे थिरक रहे थे और मन उससे भी ज्यादा. मैं और माया आंटी देर रात जागते रहे, गप्प लगाते रहे, हंसी ठिठोली करते रहे. इसमें श्रुति ने भी इंट्री ली बीच में. माया आंटी के भीतर की ऊर्जा चौंकाती है बहुत. तो उस हंसी ठिठोली के बीच मैं ही पहले सो गयी. सुबह आँख खुली तो माया आंटी नहा धोकर वॉक करके आ चुकी थीं. अब बारी मेरी थी समय पर तैयार होने की.

हमने सोचा था कि एक घंटे के करीब विनोद जी के पास बैठेगे फिर देखेंगे क्या करना है. आखिर एक बुजुर्ग व्यक्ति को कितना परेशान कर सकते थे. हम वक़्त पर पहुंचना चाहते थे इसलिए वक़्त से निकल पड़े लेकिन शहर में राजनैतिक उबाल आया हुआ था. जगह-जगह सरकार के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे थे. रास्ते बंद थे. बमुश्किल हम ढेर सारे रास्ते बदलने के बाद विनोद जी के घर पहुंचे. घर जो अब हमारा भी हो गया है. घर जिसका पता मुठ्ठियों में लिए ऐसा महसूस हो रहा था कि सुंदर मौसम का पता हो हाथों में. गली का आखिरी मकान जिसके एक तरफ मौलश्री के दो पेड़ हैं और दूसरी तरह एक आम का पेड़. घर जिसके सामने लगे पेड़ों पर बैठे पंछी बाट जोहते हैं खुशदिल लोगों की आमद की.

घर के करीब पहुँचते ही शाश्वत बाहर खड़े दिख गये. विनोद जी और सुधा जी भी बरामदे में इंतजार करते मिले. किसी को इंतजार में देखना सुखद होता है. मैं जानती थी यह इंतजार मेरा नहीं माया आंटी का था. लेकिन मैं कब माया आंटी से अलग थी. तो मैं उस इंतजार से अभिभूत थी. अभी हम अंदर जाकर बैठे ही थे कि माया आंटी को याद आया कि वो कुछ भूल आई हैं. मैं तुंरत उठी और वापस सैनिक गेस्ट हाउस का रुख किया. तब तक माया आंटी और विनोद जी बात करते रहे और मैं शहर के धरने प्रदर्शन के बीच चक्कर काटती रही. मुझे जाकर वापस आने में 40 मिनट लग गये. मैंने सोचा अभी भी 20 मिनट तो हैं मेरे पास. कुछ देर तो साथ बैठ ही पाऊँगी. उनके हस्ताक्षर लेने के लिए उन्हीं की किताब 'सबकुछ होना बचा रहेगा' मेरे पर्स में थी. और उम्मीद थी कि एक तस्वीर स्मृति के लिए तो मिल ही जायेगी. मेरी कामनाओं की लिस्ट हमेशा बहुत छोटी ही रही है. मेरे लिए इतना पर्याप्त से भी ज्यादा ही था. मैं खुश थी कि उनके साथ 20 मिनट रहूंगी.

लेकिन जब तक मैं लौटी माया आंटी ने माहौल ही बदल दिया था. मैं पहुंची, बैठी तो विनोद जी मुझे लाड़ से देख रहे थे. माया आंटी ने बताया कि मैंने इतनी देर में बता दिया है कि ‘तुम बहुत अच्छा लिखती हो, तुम्हारी किताबें आई हैं.’ जब वो ऐसा कह रही थीं विनोद जी की स्नेहिल दृष्टि मेरे चेहरे पर थी और मेरी ऑंखें एकदम पनीली. मैंने लगभग रुआंसी होकर कहा, 'आपने ऐसा क्यों किया आंटी.' मैं संकोच में इस कदर धंस गयी थी कि समझ में नहीं आ रहा था कहाँ जाऊं. अपने प्रिय लेखक के सम्मुख खुद को लेखक के तौर पर पटका जाना सहज नहीं था. इस लम्हे की तो मेरी तैयारी ही नहीं थी. मैं अपनी ख़ामोशी और संकोच में सिमट गयी थी कि तभी शाश्वत ने कहा, 'आपने फोन पर बात की थी न एक बार मुक्तिबोध के बारे में' मैंने हाँ, में सर हिलाया.

विनोद जी मेरा संकोच समझ गये थे शायद. उन्होंने पास आने को कहा, पास बैठने को. मैं उनके करीब तो बैठना चाहती थी लेकिन उनके बराबर नहीं सो उनके पास फर्श पर मैंने अपने बैठने की सही जगह ढूंढ ली. विनोद जी ने कहा, 'अपनी किताबें लायी हो?'


मैंने नहीं में सर हिलाया और लगभग रो पड़ी. बस इतना ही कह पायी कि ‘अपने प्रिय और इतने वरिष्ठ लेखक के सम्मुख खुद को लेखक के तौर पर लाने की तो मेरी हिम्मत ही नहीं. मैं तो एक विद्यार्थी की तरह आई हूँ. पास बैठूंगी कुछ देर तो यकीनन बहुत कुछ सीखूंगी आपसे.’ यह कहते हुए मेरा स्वर इतना भीगा हुआ था कि शब्द शायद साफ़ नहीं निकल रहे थे. उधर माया आंटी अपने पर्स में मेरी किताब ढूंढ रही थीं और मैं सोच रही थी कि काश न मिले. और वो नहीं मिली. शाश्वत भी समझ गये थे मेरा संकोच. उन्होंने कहा, 'अरे ऐसा क्यों कह रही हैं. यहाँ तो कितने लोग आते हैं किताबें लेकर. देकर जाते हैं.' मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था बस एक चुप थी.

भावुकता बुरी शय है यह सब बहा ले जाती है. लेकिन अगर भावुकता को सहेजने वाला करीब हो तो यह बहुत खूबसूरत हो उठती है, इसके साए में लम्हे महकने लगते हैं. विनोद जी की कोमलता का सुर मेरे संकोच और झिझक के सुर के संग लग गया था. वो मुझे सहज करने का प्रयास करने लगे. ऐसा करते हुए वो लगातार मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने पास बिठाकर कहा, ‘पूछो क्या पूछना है, क्या बात करनी है.’ शाश्वत से उन्होंने ही कहा, रिकॉर्ड करने को. उधर

माया आंटी भी कैमरा तैयार कर चुकी थीं उस बातचीत को रिकॉर्ड करने की जिसकी न मेरे पास कोई योजना थी न तैयारी. मेरे पास कोई सवाल नहीं थे तो मैंने उनसे मुक्तिबोध के बारे में पूछा कि विनोद जी मुक्तिबोध से पहली बार कब मिले थे कैसी थी वो मुलाकात. (वह बातचीत रिकॉर्डेड है जिसे इत्मिनान से पाठकों के सम्मुख लाया जाएगा.)

मैंने उनसे पूछा था अपने मन की दुविधा के बारे में कि जब आप अपने प्रिय लेखक से मिलते थे तो आप उनसे क्या पूछते थे, आपको कैसा लगता था? उन्होंने कहा, बिलकुल वैसा ही जैसा अभी तुम्हें लग रहा है. मैं उनसे एक प्रश्नचिन्ह की तरह मिलता था बिना प्रश्न के.

मैंने इस बात को इस तरह समझा कि जानने की ढेर उत्सुकता लेकिन बिना किसी सवाल के.

मैंने ज़िन्दगी से जो सीखा या जाना है वो यह कि सवाल पूछकर हमें तयशुदा जवाब मिल जाते हैं लेकिन सवाल न पूछकर, संवाद करके हमें उन सवालों के पार जानने का अवसर मिलता है. इसलिए मैं सवाल करने से बचती हूँ, बात करने को उत्सुक होती हूँ. और अभी तक की यात्रा में इसने मेरा काफी साथ दिया है.
उनके साथ हुई बातचीत में जिक्र आया मानव कौल का. उनकी और मानव की उस आत्मीय तस्वीर का. रिल्के और मारीना का. डा वरयाम सिंह जी का, नरेश सक्सेना जी का, नामवर सिंह जी का. यह बातचीत बहुत आत्मीय हो चली थी.

मैं उन्हें बार-बार कह रही थी कि आप थक गए होंगे आराम कर लीजिये लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें बात करना अच्छा लग रहा है. मुझे शिवानी जी से हुई वह मुलाकात याद आई जब बमुश्किल उनसे मिलने का थोड़ा सा वक़्त मिला था क्योंकि वो लम्बे समय से बीमार चल रही थीं लेकिन जब उनसे मुलाकात हुई तो घंटों बात हुई. मुझे ही उन्हें बार-बार रोकना पड़ा था कि आप थक जायेंगी और वो कहतीं 'बड़े दिन बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा है.' इस मुलाकात में उस मुलाकात की स्मृति घुल गयी थी. घुल गयी थी वरयाम जी की वो मीठी डांट जिसमें मेरे लिए फ़िक्र हुआ करती थी.
सोचती हूँ तो रोयें खड़े हो जाते हैं, आखें भीग जाती हैं ऐसा क्या है मुझमें आखिर, कितना लाड़ मिला मुझे इन सबका. शहरयार, निदा फाजली, नीरज, गुलज़ार, जगजीत सिंह...कितने नाम...कितना स्नेह. ये सब लोग मेरे लिए लोग नहीं स्नेह का दरिया हैं. शायद इसी स्नेह ने मुझे संवारा है. मुझमें जो कुछ अच्छा है (अगर है तो) उसमें इन सबका योगदान है. यकीनन.

मेरे हिस्से के 20 मिनट कबके फुर्रर हो चुके थे. मैं रसोई पर काबिज हो चुकी थी. पहले चाय फिर खाने की तैयारी में. विनोद जी खुश थे. उन्होंने सर पर हाथ फेरकर कहा, 'माया जी के आने की ख़बर से लग रहा था कि कोई उत्सव आ रहा है घर में, कोई त्योहार. लेकिन यह नहीं जानता था कि उनके साथ एक प्यारी सी ख़ुशी भी आ रही है जिसका नाम प्रतिभा है. तुम घर की बिटिया हो गयी हो.' मेरी आँखें फिर डबडब करने लगीं.

सारा दिन मेरी आँखें डबडब करती रहीं. यकीन नहीं आ रहा था कि मैं विनोद जी की रसोई सम्भाल रही थी, उनके लिए रोटी बनाना, थाली लगाना, उन्हें परोसकर खाना खिलाना यह सब मेरे हिस्से के सुख थे. मेरे हिस्से के बचे हुए 20 मिनट मुंह बनाये खड़े थे और विनोद जी के साथ बिताया जा रहा एक पूरा दिन उन बीस मिनट को मुंह चिढ़ा रहा था.

मैं भूल ही नहीं पा रही कि किस तरह वो सारे सुख मेरे नाम कर देना चाहते थे. कि सब कुछ मैं खा लूं, सब कुछ ले लूं उनसे. जितनी देर में मैं रोटियां बना रही थी वो अपनी किताब पर मेरे लिए स्नेह की बारिश कर रहे थे,

आत्मीय प्रतिभा कटियार
जो इस घर की बेटी है
को सारा सब कुछ
कुछ नहीं बचा इतना
आशीर्वाद...

फिर उन्होंने इस लिखे को रिकॉर्ड भी किया मेरे लिए. तस्वीर खींचते समय उन्होंने कहा, देखो सब लोग मुस्कुरा रहे हों...

इस पूरी मुलाकात में सुधा जी का जिक्र बेहद जरूरी है कि उनकी प्रेमिल हथेलियों की गर्माहट साथ लिए आई हूँ, शाश्वत की सादगी और सरलता की छवि कभी नहीं बिसरेगी मन से. 





Friday, May 20, 2022

थोड़ी बारिश थोड़ा मौसम और क्या ले जाते...


जब रायपुर जाने की योजना बनी तब हर तरफ से एक ही बात सुनने को मिली, कैसी पागल लड़की है. जब सारी दुनिया गर्मी से राहत पाने को पहाड़ों की तरफ भाग रही है ये पहाड़ छोड़कर रायपुर जा रही है. इतनी गर्मी में. मैं हर सवाल पर मुस्कुरा देती कि यह सिर्फ मैं जानती हूँ कि अपने जिस प्रिय लेखक से मुलाकात का सपना बरसों से मन में छुपा हुआ है उनसे मुलाकात से जो सुकून की ठंडक मुझे मिलने वाली है उसके आगे इस मौसमी ताप की बिसात ही क्या.

मेरे मन में विनोद जी से मिलने की इच्छा में एक संकोच, एक झिझक थी जबकि मेरी प्यारी माया आंटी के मन उत्साह का तूफ़ान था. उन्होंने खुद आनन-फानन में टिकट करायीं और साफ़ कहा, कोई ना-नुकुर नहीं, चलना है तो बस चलना है. मैं तो खुद ही जाना चाहती थी बस मुझे फ़िक्र थी उनकी कि उनके उत्साह का मेल उनकी सेहत से बना रहना भी जरूरी है. मैंने उन्हें समझाया हम फिर चल सकते हैं कभी अच्छे मौसम में. उन्होंने डपट दिया, कोई न-नुकुर नहीं, बस हम जा रहे हैं. और मैं मन में बुदबुदाई हाँ, हम जा रहे हैं.

इंदौर प्रवास के दो दिनों में खूब सारे दोस्तों से मिलना हुआ लेकिन एक मध्धम सुर लगा रहा विनोद जी पास जाने का. सबके कुछ प्लान थे, सबके पास योजनायें थीं. क्या देखना है, कहाँ जाना है, क्या खाना है, क्या खरीदना है. मेरे पास था सिर्फ इंतज़ार कि मुझे विनोद जी से मिलना है.

हालाँकि हर वक़्त वो झिझक साथ ही थी कि क्या कहूँगी मिलकर उनसे. क्या कोई सवाल करुँगी? सवाल तो कोई है नहीं मेरे पास. उन्हें अपने बारे में क्या बताउंगी. विनोद जी माया आंटी को जानते हैं. कई बरसों से. माया आंटी से मैंने कहा,'मुझसे पूछेंगे कि मैं कौन हूँ तो मैं कह दूँगी कि मैं आपका सामान उठाने आई हूँ, आपकी अस्सिटेंट.' वो हंस देतीं इस बात पर. लेकिन मैंने सच में उनसे कहा, 'आप बातें करना मैं चुपचाप सुनूंगी. मैं बस कुछ देर उनके करीब बैठना चाहती हूँ.'

ऐसी ही उहापोह के बीच हम रायपुर पहुंचे. बारिश की बौछारों ने ठंडे मौसम ने हमारा स्वागत किया. सैनिक गेस्ट हाउस की तरह भागती टैक्सी के भीतर दो प्रेमिल छवियाँ एकदम चुप थीं. विनोद जी की तमाम कवितायें साथ चल रही थीं. लेकिन उस वक़्त सबसे करीब थी उनकी कविता की ये पंक्तियाँ- 

'मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा।
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।'

('जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे' कविता से)

हाँ, हम एक बेहद बेहद जरूरी काम नहीं, इच्छा की तरह उनसे मिलने जा रहे थे. उनके लिए तोहफे में क्या ले जाते तो थोड़ी सी बारिश थोड़ा सा ठंडा मौसम मंगा लिया था...

Thursday, May 19, 2022

नैहर छूटो जाय



इन दिनों आँखें नम रहती हैं...सबसे इनकी नमी छुपाती हूँ, गर्दन घुमाती हूँ, बातें बदलती हूँ कि कोई सिसकी कलाई थाम लेती है. फिर तन्हाई चुराती हूँ थोड़ी सी...आँखों के बाँध में फंसी नदी को खुला छोड़ती हूँ...फिर रोती हूँ...फिर और रोना आता है. जाने कैसी उदासी है...जाने कैसा मौसम मन का. कुछ समझ नहीं आता कि बस इस उदासी के सजदे में झुक जाती हूँ. ये सुख की उदासी है. सुख जब भी आते हैं अपने साथ उदास नदियाँ लेकर आते हैं.

इन दिनों ऐसे ही सुखों से घिरी हूँ कि आँखें हर वक़्त डबडब करती रहती हैं. क्या है आखिर मुझमें ऐसा? मुझे प्यार की आदत नहीं पड़ी है. सुख की आदत नहीं पड़ी शायद. जब भी प्यार, अपनेपन, सम्मान, स्नेह की बारिशें मुझे भिगोती हैं मैं उदास हो जाती हूँ. कहीं छुप जाना चाहती हूँ. सम्भलता नहीं प्रेम. भरी-भरी आँखों से प्रेमिल लोगों को देखती हूँ. सोचती हूँ इन्हें मुझमें क्या नज़र आता होगा आखिर. क्योंकर मुझे करते हैं इतना प्रेम. ये इन सबकी ही अच्छाई है, मुझमें तो ऐसा कुछ भी नहीं. और फिर आँखें छलक पड़ती हैं.

प्रेम के कारण रुलाने वालों में सबसे नया नाम जुड़ा है विनोद कुमार शुक्ल जी का.

मेरी आँखों में जो गिने चुने सपने थे, जीवन में जो गिनी चुनी ख्वाहिशें थीं उनमें से एक थी विनोद कुमार शुक्ल से मिलने की ख्वाहिश. कई बार ऐसे अवसर बने कि उनसे मिलना होता लेकिन वो अवसर बगलगीर होकर गुजरते रहे. जाने किस लम्हे की तैयारी में कितने लम्हे हमसे छूटते जाते हैं.

इस बार यात्रा की बाबत मैं वहां से लिखूंगी उस अंतिम दृश्य से जो आँखों में बसा हुआ है, फ्रीज हो गया है. रायपुर में विनोद जी के घर से विदा होने का वक़्त. उनका वो जाली के पीछे खड़े होकर स्नेहिल आँखों से हमें देखना और कहना ठीक से जाना, फिर आना. सुधा जी के गले लगना, शाश्वत का कहना मैं चलता हूँ छोड़ने. बमुश्किल उसे मनाना कि तुम रहो यहीं, हम चले जायेंगे.

जैसे नैहर से विदा होती है बिटिया कुछ ऐसी विदाई थी. गला रुंधा हुआ था. और जब तक नजर में रहीं सुधा जी तब तक विदा का हाथ हवा में तैरता रहा.

लौटते समय हम इतने खामोश थे कि हमारी ख़ामोशी के सुर में हवा का खामोश सुर भी शामिल हो गया था. 

(जारी...)

Wednesday, May 11, 2022

पंडित शिव कुमार शर्मा- पानी की आवाज़ का नाम


वो मेरा 20वां जन्मदिन था. उन दिनों जन्मदिन पर मिलने वाले तोहफों में पहले नम्बर पर किताबें होती थीं और दूसरे नम्बर पर कैसेट. ये नम्बर आपस में अदला बदला भी करते थे. सबको पता था कि किताबें और संगीत में मेरी जान बसती है. तो बीसवें जन्मदिन पर एक तोहफा मिला म्युज़िक टुडे की चार एल्बम का एक सेट. पंडित शिवकुमार शर्मा का 'वाटर', पंडित हरी प्रसाद चौरसिया का 'रिवर', जाकिर हुसैन का डेजर्ट और वनराज भाटिया का 'अर्थ'. देने वाले को यह पता था कि पानी मेरी कमजोरी है. बारिश की एक बूँद मुझे बावरी बना देती है. लेकिन उसे यह नहीं पता था कि वो मेरी ज़िन्दगी में एक नयी राह खोल रहा है.

बिलकुल संकोच नहीं यह कहने में कि फिलिप्स के उस टेप रिकॉर्डर में जिन कैसेट्स की रील सबसे ज्यादा घिसीं, फंसी उनमें से एक थी पंडित शिव कुमार शर्मा के 'वाटर' और हरि प्रसाद चौरसिया के 'रिवर' की. जीवन में पानी की आवाजों ने जगह इस कदर बना ली कि भीतर की नदी खूब खिलखिलाने लगी. उसने भीतर के जंगल को भी खूब हरा रखा. मैं जो थोड़ी सी जंगली, थोड़ी सी नदी सी बची रह गयी हूँ उनमें 20 वें जन्मदिन में मिले तोहफे में शिव कुमार शर्मा और हरि प्रसाद चौरसिया का बड़ा योगदान है.

चौरसिया जी से तो खैर एक दो मुलाकातें भी हासिल हुईं लेकिन शिव कुमार जी से मुलाकात संभव न हो सकी. लेकिन सच कहूँ जिस कदर उनका 'वाटर', 'माउन्टेन', 'वाकिंग इन द रेन' साथ रहता है ऐसा कभी लगा ही नहीं कि उनसे मिली नहीं हूँ. वैसे ज़ाकिर हुसैन साहब का डेजर्ट भी कमाल है. लेकिन आज बात शर्मा जी की.

वाटर सुनने के बाद यूँ हुआ कि संगीत की किताब का पहला पन्ना खुल गया हो जैसे. इसके बाद उन्हें ढूँढकर सुना, खूब सुना. मन खुश हुआ तब सुना, परेशान हुआ तब सुना. दोस्तों की महफिल में सुना, तन्हाई में सुना. पानी की आवाज़ का दूसरा नाम हैं शिव कुमार शर्मा जी.

शायद यही वजह रही कि शिव हरि की जोड़ी ने जितना संगीत रचा फिल्मों में भी वो मेरा फेवरेट हुआ. जिसमें सबसे पहले याद आता है 'सिलसिला', 'चांदनी' और 'लम्हे' का संगीत.

आज जब उनके जाने की ख़बरें नज़रों से गुजर रही हैं जाने क्यों एक नायकीनी सी बनी हुई है. मेरे लिए वो हमेशा से हैं और रहेंगे. वो जा नहीं सकते. सुबह से पानी की आवाज़ कान में पहने घूम रही हूँ. उनका होना हमेशा बना रहेगा. जीवन को सबसे मुश्किल दिनों में भी नमी को बचाए रखेगा. 

Tuesday, May 10, 2022

वो मुझमें रहती है मैं बनकर


आना सिर्फ एक शहर से दूसरे शहर आना नहीं होता. आना होता है सांस लेने में जिन्दगी बनकर. हमें खुद न पता हो हमारी प्यास का और कोई दरिया बहता चला आये प्यास बुझाने ऐसा भी होता है कभी. ऐसे ही दिन थे, छलके-छलके से अटके भटके से. न किसी से बात करे न मिलने का. बस कि अपनी चुप की नदी में चुपचाप पड़े रहने को दिल करे. ऐसे वक्त में किसी दोस्त का आना और अपनी पलकों से छूकर लम्हों को परों से हल्का बना देना क्या तो सुख है. सुख जिसका नाम है श्रुति.

यह श्रुति की भोपाल से देहरादून की यात्रा नहीं थी. यह एक एकल आत्मा की दूसरी एकल आत्मा तक की यात्रा थी. एकांत का सुंदर सुर लगा रहा इसमें. इस सुर में हम डूबते-उतराते रहे. कोई हड़बड़ी नहीं बस कि साथ का एहसास. उसे किसी टूरिस्ट स्पॉट देखने में कोई रुचि नहीं उसे सिर्फ मेरे पास रहना था.

जैसे कितने बरसों से ऐसे किसी साथ की तलाश थी. साथ जो घुल जाए वजूद में. घर में. शहर में. वो मुझे दूसरी नहीं लगती मेरा ही एक हिस्सा लगती. मुझसे बेहतर होकर जो मुझे मिला हो.

लम्बे अरसे से अकेले रहते हुए कुछ ऐसा हो गया है मन कि अब किसी का भी होना असहज करने लगा है. ऐसे में खुद को थोड़ा समेट लेती हूँ और किसी के साथ के बीतने का इंतजार करने लगती हूँ. लेकिन श्रुति तुम्हारे साथ होकर समझ में आया कि इकसार होना कैसा होता है. इसका कैसा तो सुख होता है. और सबसे सुंदर बात यह कि यह सब इतना एफर्टलेस है. जैसे एक ही वक़्त पर चाय की तलब लगना, एक ही वक़्त पर नज़रें उठाकर देखना एक-दूसरे को, एक ही वक़्त पर पलकें झपकाना और हथेलियों को थाम लेना. इकसार होना ऐसा ही होना चाहिए.

तुम्हारे साथ बैठकर खुद की जकड़नों को करीब से देखा है उनसे आज़ाद होने की तरफ पहला कदम बढ़ाया है. तुम्हारे साथ रहकर जाना है कि साथ होने के असल मानी कैसे होते हैं जब किसी के साथ होकर हम पहले से ज्यादा तरल और सरल होने लगते हैं, हमारे माथे की लकीरें चमक उठती हैं.

अब जबकि तुम चली गयी हो वापस तो देखो तो किस कदर छूट गई हो यहीं. बिखरी पड़ी हो घर के कोने-कोने में, शहर के हर हिस्से में, मेरी मुस्कुराहटों में.

Saturday, May 7, 2022

जीवन मुझे अभी और मांजना चाहता है...

- प्रतिभा कटियार

इस भोर में बीती रात की ख़ुशबू शामिल है. हाथ में चाय का कप लिए बौर से लदे पेड़ों को देखती हूँ. नयी कोंपलों से सज रही शाखों को देखती हूँ. मौसम आँखों पर बढ़िया चश्मा लगाये, फूलों की उठती गंध का इतर लगाये एकदम टशन में है. यह इश्क शहर है, देहरादून. फूलों में होड़ है खिलने की, रास्तों में मनुहार है गले लगने की. दस बरस हो गए मुझे इस शहर के इश्क़ में पड़े. दस बरस हो गये मुझे इस शहर में साँस लेते.

कितने किस्से हैं इस शहर और मेरे इश्क की दास्ताँ के. ये किस्से या तो यह शहर जानता है या मैं जानती हूँ. दस बरस पहले की बात है. जीवन से, रिश्तों से निराश टूटी-बिखरी अवसाद के घने अंधेरों में घिरी एक स्त्री को इस शहर ने आवाज़ दी, ‘आ जाओ’. जब खुद पर भरोसा न हो तब उनके भरोसे पर भरोसा करो जिन पर तुम्हें भरोसा है. यह बात एक बार प्रभात सर ने कही थी. बात साथ रह गयी. देहरादून से आवाज़ देने वाली स्वाति को भी शायद नहीं पता होगा कि उसकी आवाज़ में मेरी ज़िन्दगी बदल देने की ताकत है. दवाइयों की बड़ी सी पोटली लिए मैं इस शहर में दाखिल हुई. डरी, सहमी, सकुचाई. खुद पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं बचा था. बस एक चीज बची थी आत्मसम्मान को सहेजने की इच्छा.

दवाइयों की गिरफ्त में सोयी रहने वाली इस टूटी-फूटी मन दशा की स्त्री को चाह थी कि सर पर हाथ फेर दे कोई और कह दे, ‘सब ठीक हो जाएगा. मैं हूँ’. और यह कहा शहर देहरादून ने. इस शहर ने मुझे मेरा होना महसूस कराया, मेरे भीतर धंसी अवसाद की परतों को आहिस्ता-आहिस्ता निकाला और मुझे आज़ाद किया. इस शहर के रास्तों ने मेरे आंसू संभाले, यहाँ की बारिशों ने मेरा माथा सहलाया. फूलों ने ज़िन्दगी में आस्था बनाये रखना सिखाया.

पहली बार कोई फैसला किया था अपने जीवन का जिसमें सिर्फ मैं शामिल थी और कोई नहीं. ऐसा फैसला जिससे कोई सहमत नहीं था. अच्छी खासी नौकरी, घर, अपना शहर सब छोड़ कर अनजान शहर जाने का फैसला आसान नहीं था. आसान नहीं था अविश्वास से भरे, लगातार पीड़ा देने वाले रिश्ते से हाथ छुड़ाकर निकलना. मेरे सामने अकेले अनजान शहर में छोटी सी बच्ची को लेकर आने के फैसले के मुकाबले तमाम सुविधाएँ थीं. शहर छोड़ने का, नए सिरे से सब शुरू करने का, संघर्ष की राह चुनने का विकल्प अंतिम विकल्प नहीं था. बहुत सारे और चमचमाते विकल्प भी थे लेकिन मैंने इस राह पर चलने को पहले विकल्प की तरह लिया क्योंकि मैं अपनी ज़िन्दगी को एक मौका देना चाहती थी. खुद को आज़मा कर देखना चाहती थी.

मैंने जीकर जाना है कि जब मन मुश्किल में हो तब अजनबी लोग, अनजान शहर बड़े मददगार होते हैं. अजनबी लोग आपसे सवाल नहीं करते, आपको बात-बात पर जज नहीं करते. वो आपको आपके अतीत के मद्देनजर नहीं परखते, वो आपको आज के व्यवहार व काम जानिब देखते हैं. इस शहर ने, यहाँ के लोगों की अजनबियत ने मरहम का काम किया.

पलटकर देखती हूँ, तो सारे ज़ख्म, सारी पीड़ाएं, सारी मुश्किलें मानो दोनों हाथों से आशीर्वाद दे रहे हों. मेरा सर झुक जाता है उनके आगे. उनके प्रति आभार से मन द्रवित हो जाता है कि क्या होती मैं अगर जीवन यूँ मुश्किल न होता. क्या होती मैं अगर जीवन में ठोकरें न मिली होतीं, धोखे न खाए होते. जब हम मरकर जीना सीखते हैं तब जीवन निखरता है, हम निखरते हैं. अब जब भी जीवन में कोई सुख का लम्हा आता है मैं उसका एक हिस्सा उन दुखों, उन चोटों को अर्पित करती हूँ जिन्होंने मुझे गढ़ा, जिन्होंने मजबूत बनाया.

यूँ देखा जाय तो ऐसा भी कुछ बुरा नहीं हुआ था मेरे साथ. जब अपने आसपास के लोगों को देखती हूँ तो सोचती हूँ इन सबके मुकाबले तो कितना कम सहा मैंने. ये सब लोग खासकर स्त्रियाँ कितना ज्यादा सहती हैं और उसे नॉर्मल होना ही मानती हैं. यह हमारी गढ़न की बाबत है. क्या पढ़े-लिखे लोग, क्या अनपढ़. क्या अमीर, क्या गरीब. यह सच में गढ़न का मामला ही है कि हमें सदियों से सहना सिखाया गया. वो हमारी आदत में है.

कितनी ही स्त्रियों को जानती हूँ जो गले तक दुःख, पीड़ा, अपमान से भरी हैं लेकिन एसर्ट करने की, उससे निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहीं. हिम्मत न जुटा पाने की बात मानती भी नहीं कि उस हिम्मत न जुटा पाने को तमाम तर्कों में छुपा देती हैं. कभी बच्चों की परवरिश तो कभी कुछ और.

मैंने हमेशा चाहा कि रिश्ते साफ़ होने चाहिए. जैसे ही उनमें सलवटें पड़ने लगती हैं, वो सड़ने लगते हैं वो नुकसान पहुँचाने लगते हैं. ऐसे रिश्ते सबसे ज्यादा नुकसान बच्चों को पहुंचाते हैं. जिन बच्चों की खातिर हम रिश्तों को सहेजते हैं वो ही बच्चे उन रिश्तों से चोटिल हो रहे होते हैं.

उलझनों से हाथ छुड़ाना आसान नहीं होता. इसमें एक ईगो भी होता है कि अरे मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है. मैं सब संभाल लूंगी. फिर हम और ताकत झोंक देते हैं सब सुलझाने में गुनगुनाते हुए ‘सुलझा लेंगे उलझे रिश्तों का मांझा...’. इस सुलझा लेने की, सब ठीक कर लेने की जिद का हासिल होता है और चोट, और घाव. क्यों यह सब ठीक कर लेने की जिद महिलाओं में ही ज्यादा होती है?

एक रोज इस ‘ठीक’ शब्द से इत्मिनान से लम्बी बात की. और समझ यह आया कि ‘ठीक’ की गढ़न को हम वैसा ही देखते हैं जैसे समाज हमें दिखाता है. यानी ऐसा करो यह ठीक है, ऐसे जियो यह ठीक है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह गलत है. यह भी होता है कई बार कि ‘मेरे मन का ठीक’ यह है लेकिन इसे कोई और लाकर मेरी हथेली पर रख दे. गलत है यह. अपना ठीक खुद ही ढूंढना होता है. उसके लिए खुद ही चलना पड़ता है. रेडीमेड वाला ठीक भरम होता है ठीक का. मुझे लगा मैं जिस ‘ठीक’ के पीछे भाग रही हूँ असल में वो ठीक है ही नहीं. और यह बात समझने में एक उम्र खर्च हो गयी.

जब अपने मन का ‘ठीक’ तलाशने की सोची तो ढेर सारी चुनौतियों ने घेर लिया. लेकिन मेरे हाथ में मेरी नन्ही बिटिया की उंगली थी. उससे ताकत मिलती थी. बस उसी नन्ही सी उंगली को थामकर निकल पड़ी अपने हिस्से की जमीं, अपने हिस्से का आसमां तलाशने. यह आसान नहीं था, मुश्किल था. बहुत मुश्किल था लेकिन जरूरी था. और आज कह सकती हूँ कि बहुत अच्छा भी था.

अपने इस सफर की बाबत लिखते हुए मैं सोच रही हूँ उन सारी स्त्रियों के बारे में जिनका हक़ है एक बेहतर ज़िन्दगी जीने का लेकिन जो बरसों से सिर्फ रिश्तों के भीतर घुट रही हैं. हिम्मत नहीं कर पा रहीं. हर रोज जिस रिश्ते की चुभन आपको बेध रही है, उसके बारे में बात करने की, उसे सम्भालने की कोशिश करने की भी कोई तो सीमा होती होगी. हम भारतीय स्त्रियों की वह सीमा बहुत मजबूत है.

ज्यादातर स्त्रियाँ कविताओं में, कहानियों में, भाषणों में, किटी पार्टी में तो मजबूत दिखती हैं लेकिन असल जीवन में हार मान जाती हैं. जो जैसा है उसे वैसे निभाते जाने की सदियों पुरानी कंडीशनिंग और कम्फर्ट के चलते उन्हें सहते जाना आसान च्वायस लगती है शायद.

यह बात कहकर नहीं कही जा सकती कि जीने के लिए एफर्ट करना पड़ता है, जोखिम लेने पड़ते हैं. लेने चाहिए. वरना सांस लेने और जीने के फर्क को समझे बगैर न जाने कितने लोग जी ही रहे हैं. इन दस बरसों में जीवन ने मुझे बहुत सिखाया. रुलाया या हंसाया लेकिन कभी बिसराया नहीं. हाथ थामे रहा. तब भी जब मैंने जीवन का हाथ छोड़ दिया. तब भी यह साथ ही रहा. आज जीवन मेरे बगल में बैठा मुस्कुरा रहा है. मेरे कप की चाय से चाय पी रहा है. मैं उसे कहती हूँ, ‘ज्यादा इतराओ नहीं, मैंने भी तुम्हें दिल से सहेजा है.’ उसकी मुस्कुराहट बड़ी हो गयी है.

सांस सबके हिस्से आती है, जीवन सबके हिस्से नहीं आता. हालाँकि होता वो आसपास ही है. इन दस बरसों में मारीना का साथ रहा, रिल्के का साथ रहा. मौसम का साथ रहा. इन सारे साथ को महसूस कर सकूं इसके लिए मेरी माँ और मेरी बेटी का साथ रहा. मारीना कहती है, ‘जीवन जैसा है मुझे पसंद नहीं’ मैं उसके इस कहन का तात्पर्य कुछ ऐसे समझ पाती हूँ कि जीवन जैसा है उसे वैसे जीते जाने की बजाय उसे वैसा बनाओ जैसा उसे होना चाहिए, जैसा उसे तुम जीना चाहते हो. इसमें एफर्ट लगता है. कम्फर्ट टूटता है. हम टूटने से डरते हैं. मैं भी डरती रही. शायद अब भी डरती हूँ. लेकिन अब मैंने कुदरत पर भरोसा करना सीख लिया है. जब हम अपनी ज़िन्दगी के फैसले नहीं ले पाते तब कुदरत हमारी मदद करती है, बस उस मदद को देखना, समझना और अपनाना सीखना होता है.

मैं कोई बहुत मजबूत स्त्री नहीं थी. मुझे भी इसी समाज ने गढ़ा है. मुझे भी अच्छी लड़की बनकर जीना अच्छा लगता था. मैंने भी अच्छी बेटी, अच्छी बहू, अच्छी बीवी, अच्छी बहन, अच्छी भाभी बनने के लिए वो सब जतन किये जो फिल्मों में, धारावाहिकों में या आस-पड़ोस में देखे सुने थे. मैंने भी करवाचौथ के निर्जला व्रत किये, समर्पण के सुख का पाठ पढ़ते हुए जीने की कोशिश की. लेकिन कुदरत ने मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा था शायद और तब मेरे ठहरे हुए जीवन में तूफ़ान आया. वो तूफ़ान जरूरी था. मध्यवर्गीय जड़ता भरे जीवन से निकलना मेरी जरूरत थी और मुझे इस बारे में पता भी नहीं था. वही सबको सुखी रखने में सुख ढूंढते हुए बूढ़ी हो जाने की मेरी पूरी तैयारी थी. तब कुदरत ने कहा, ‘उठो प्रतिभा’. मैंने मन ही मन सोचा. सब ठीक तो है. लेकिन यह जो सब ठीक है का भ्रम है न यही तोड़ना होता है. और उम्र भर इसे ही बचाए रखने के हम लाख जतन करते रहते हैं. कितनी ही बातों को अनदेखा करते हैं, कितने ही जख्मों से दोस्ती कर लेते हैं. मैंने भी कर ही ली थी शायद.

लेकिन जीवन को यह मंजूर नहीं था. वही जीवन जो इस वक़्त लैपटॉप में झाँक रहा है और कह रहा है मेरे बारे में और लिखो न. दुष्ट जीवन. प्यारा जीवन. तो जीवन को यह मंजूर नहीं था और वो मेरे जीवन में अविश्वास का, धोखे, अपमान का बवंडर लेकर चला आया. छोटे-छोटे दुखों के संग, गाहे-बगाहे होते रहने वाले छोटे-छोटे अपमानों के संग जीना सीखने में हम स्त्रियाँ माहिर होती हैं. हमें जगाने के लिए बड़े बवंडर जरूरी होते हैं. तो बस उस बवंडर के आगे मैंने घुटने टेकने से इनकार कर दिया और जीवन को चुन लिया. जीवन वो जिसमें अब और अपमान न हो, अविश्वास न हो. जीवन वो जो मेरा हो, जिसमें मैं हूँ. पहली बार निपट अकेले अपने लिए कोई फैसला लिया. और आज पलट कर देखती हूँ तो गर्व होता है अपने फैसले पर. अपनी यात्रा पर.

इन दस बरसों में मैंने सीखा कि हमें दुःख की आवाज़ सुननी नहीं आती. दुःख जो बेआवाज़ टूटता है. हमारे बेहद करीब मुस्कुराहट का लिबास पहने कोई उदास धुन गल रही होती है हम उसे पहचान नहीं पाते. हमें एक समाज के तौर पर यह सीखने की जरूरत है. मैंने जाना कि हम प्रवचन देने वाले लोग हैं. हर कोई प्रवचन की टोकरी उठाये आपके पास चला आएगा और आपको ज्यादा उदास करके चला जाएगा. कभी-कभी प्रवचनजीवियों ने उदासी को अपमानित भी किया है. एक दुःख का दूसरे दुःख से कम्पैरिजन करके हम क्या समझाना चाहते हैं पता नहीं. मैंने जीकर जाना है कि उदास व्यक्ति से कुछ भी कहने से बचना चाहिए लेकिन उसे सुनना जरूर चाहिए.

मुझे सुना अजनबी लोगों ने, रास्तों ने, मेरी डायरी ने. जिन्हें बिना जज किये, बिना ज्ञान दिए कोई सुनने वाला नहीं होता उनका जीवन सच में और ज्यादा मुश्किल होता होगा.

इन दस बरसों में मैंने समझा कि स्त्रियों को खूब एकल यात्राएँ करनी चाहिए. यूँ सबको ही करनी चाहिए लेकिन स्त्रियों को विशेषकर. क्योंकि स्त्रियों के पास ससुराल, मायके, शादी ब्याह या फिर फैमली ट्रिप के अलावा कोई अवसर नहीं होता यात्रा का. इस वजह से उन्हें जब अवसर मिलता भी है तो वो यात्रा की चुनौतियों को स्वीकार नहीं कर पातीं. मैंने जीकर जाना है कि जीने के लिए मरना भी जरूरी होता है. पानी का स्वाद प्यासे को ही पता होता है. धूप में भटकने के बाद ही छाया की तासीर समझ आती है. घुटने फोड़ने के बाद ही ठीक से चलने का शऊर आता है. और इसका कोई नियम नहीं कि कब, किसे, किस फैसले की ओर बढ़ना चाहिए. या रिश्तों से अलग होना ही जीवन है. रिश्तों में रहते हुए या रिश्तों के बिना आत्मसम्मान से समझौता तो नहीं किया जाना चाहिए.

यह तो नहीं जानती कि अब भी मैं कितनी मजबूत हो सकी हूँ लेकिन इतना जरूर जानती हूँ कि मेरी बेटी को मुझ पर, मेरे फैसलों पर गर्व है. मुझे सुकून है इस बात का कि मैंने कभी भी जीवन के किसी भी मोड़ पर दोहरा जीवन नहीं जिया. न लिखने में न जीने में. इसकी चुनौतियाँ कम नहीं थीं, कम नहीं हैं लेकिन उन चुनौतियों के बरक्स जो जरा सा सुख है न, सुकून है वो गाढ़ी कमाई है.

जीवन फिर सामने खड़ा है ढेर सारी नयी चुनौतियां, नई ठोकरों को लिए. मैं जानती हूँ वो मुझे अभी और मांजना चाहता है. मैं तैयार हूँ...

(वर्तमान साहित्य के अप्रैल 2022 के अंक में प्रकाशित आत्मकथ्य)


Friday, May 6, 2022

अभिसारिका

पेंटिंग- सुकांत दत्त साभार गूगल  

वह न रातरानी की गमक थी
न मोगरे की लहक
उसकी गुलमोहर सी आतिशी रंगत में 
आ मिली थी अमलतास की खिलखिलाहट 
धरती पर बजती रहती थी 
हरदम उसकी मुस्कुराहटों की पाज़ेब 

बारिश की धानी ओढ़नी 
लहरा रही थी इस छोर से उस छोर
उसके होंठों पर 
रखे थे हिमालय ने बर्फ के टुकड़े 
सूरज की पहली किरन ने 
सजाई थी उसकी मांग 

बेवजह मुस्कुराना 
मुस्कुराते ही जाना 
उसकी झोली में आ गिरा था 
ठीक उस वक़्त जब 
वो अपने जूड़े में लगाने के लिए 
बीन रही थी उदास फूल 

यह विरहणी के 
अभिसारिका बनने की रात थी 
नहीं वो तुम्हारे प्रेम में हरगिज़ नहीं 
तुमने तो गलती से 
उसके भीतर के इतर की शीशी को 
खोल भर दिया
यह प्रेम का इतर उसका अपना है  
लेकिन तुम अब उसकी खुशबू में  
महकते रहोगे उम्र भर 

अभिसारिका और विरहणी 
दोनों प्रेम की एक ही नदी का नाम हैं 
जो अपने समन्दर की तलाश में सदियों से 
बहे जा रही है...  

Wednesday, May 4, 2022

दुनिया को तुम्हारी आँखों की तरह होना चाहिए...



लाड़ो मेरी,
अब जबकि तुम बसंत के 18 रंग देख चुकी हो, तितलियों से तुम्हारी दोस्ती एकदम पक्की हो चुकी है, आसमान भर साहस तुम्हारी आँखों में रहने लगा है तो तुम्हें देखना एक अलग ही सुख से भरता है. तुम्हारी आँखों को देखती हूँ तो लगता है दुनिया को तुम्हारी आँखों की तरह खूबसूरत होना चाहिए. उम्मीदों और सपनों से भरी आँखे.

तुम्हें याद है तुम्हारे कुछ सवालों पर मैं तुमसे कहती थी समय आने पर इन पर बात करेंगे तो शायद अब वो समय आ गया है. और अब जबकि वो समय आ गया है मैं जानती हूँ तुम्हारे वो सवाल अब रहे ही नहीं हैं. सवालों के साथ ऐसा ही होता है. मैंने तो यही समझा है कि सवालों के जवाब तलाशने की हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए बल्कि तसल्ली से उन सवालों के साथ रहना चाहिए. नए सवालों को उगने देना चाहिए. कई बार जिस सवाल का जवाब हम तलाश रहे होते हैं असल में वह सवाल होता ही नहीं है. सवाल तो कोई और होता है. और हम निरर्थक सी किसी खोज में जुटे होते हैं. सवालों की बाबत यह बात वाकई कमाल की है कि जीवन में सवालों के होने में हमारा होना बचा रहता है. कई बार साथ रहते-रहते सवालों के भीतर ही जवाब उगने लगते हैं.

लाड़ो मेरी, संभावना एक खूबसूरत शब्द है जो साहस से सजता है. इसके बाद कुछ भी मुश्किल नहीं रह जाता. मुझे ख़ुशी है कि तुम यह जान चुकी हो. हम दोनों ने मिलकर जो उम्मीदों के नन्हे-नन्हे बीज बोये थे वो अब तुम्हारी आँखों में उगने लगे हैं. तुम्हारी सपनों से भरी आँखों से दुनिया बेहद खूबसूरत दिखने लगी है. मैं जानती हूँ जिस तरह तुमने मुझे ढेर सारी नयी बातें सिखायीं, नया नज़रिया दिया दुनिया को देखने का उसका पूरी दुनिया को इंतज़ार है.

अब जबकि तुम पहली बार मुझसे दूर जा रही हो तो कितना कुछ ‘पहली बार’ होना तुम्हारे करीब आ गया है. तुम महसूस करोगी कि आसमान पहली बार हथेलियों में रखा हुआ है. तुम जानोगी सख्त धूप में खिलखिलाते गुलमोहर की हंसी का राज. पहली बार यूँ होगा कि ठोकर लगेगी तो खुद ही उठोगी और सीखोगी कि आने वाली ठोकरों से कैसे बचा जाता है. पहली बार होगा कि कोई सफ़ेद बुलबुला तुम्हें घेरे रहेगा. ऐसा ही बहुत सारा पहली बार मेरी ज़िन्दगी में भी आया है. पहली बार तुम्हें खुद से दूर जाते देखना...पहली बार तुम्हारे लौटने का इंतज़ार, पहली बार तुम्हारी हथेलियों को, पलकों की चूमने की इच्छा होना और चूम न पाना.

तुम अपने ज़िन्दगी के सफर में चल सको मन मुताबिक, कुछ भी किसी को भी साबित करने के दबाव से दूर बिलकुल अपने मन के क़रीब. कि इस दुनिया को सबसे ज्यादा तुम्हारे खुश होने का इंतज़ार है.

तुम्हारी
मम्मा

Tuesday, May 3, 2022

प्रीतम का कुछ दोष नहीं है...



ये ईद की सुबह है. सुबह में मोहब्बत के रंग घुले हैं. अलसाई आँखों ने बड़े बेमन से नींद से दामन छुड़ाया है. सुबह की चाय में आज अलग ही बात है. एक शांति है. सुकून है. देर तक देखती हूँ फलों से लदी डालियों को. कोई हलचल नहीं वहां. सामने सूरजमुखी के बागीचे में भंवरों की टोली डोल रही है. रात भर खिलखिलाती जूही भंवरों की मटरगश्ती देख मुस्कुरा रही है.

मैं अपनी हथेलियों को देखती हूँ. खाली हथेलियाँ. जीवन की नदी में एक-एक कर सब लकीरें गुमा आयीं हथेलियाँ. बिना लकीरों वाली हथेलियाँ खूबसूरत लग रही हैं. ये खाली हथेलियाँ अब नयी लकीरों की मुंतज़िर नहीं. ये लम्हों पर ऐतबार करना नहीं चाहतीं बस उन्हें दूर से देखना चाहती हैं. लम्हों की आवक-जावक जारी है. कोई लम्हा टूटकर गिरता है एकदम करीब जैसे कई बरस गिरा था पलाश का फूल. सिहरन महसूस होती है. दूर से बैठकर लम्हों को आते-जाते देखना सुख है. उनसे मुत्तासिर न होना अभ्यास है. यह ज़िन्दगी के रियाज़ से आता है.

सोचती हूँ लम्हों के कंधों पर उम्मीदों का बोझ न डालना भी तो सुख है. यह बेज़ारी तो नहीं. तो क्या यह निर्विकार होना है. सुख में होना और उससे मुब्तिला न होना. यह आसान नहीं. ज़िन्दगी का रियाज़ आसान नहीं. लेकिन क्या ज़िन्दगी आसान है?

एक दोस्त ने सुबह-सुबह नुसरत साहब की आवाज़ भेजी है. मैं उसे कहती हूँ नुसरत साहब तो असाध्य रोग हैं...लग जाए तो छूटता नहीं. वो हंस देता है. उसे मेरी बातें जरा कम समझ में आती हैं. वैसे मुझे ही कौन से अपनी बातें समझ आती हैं. सच कहूँ तो इस समझने ने बड़ा नुकसान किया है. तो जरा नासमझ होकर देखते हैं ज़िन्दगी के खेल...नुसरत साहब कह रहे हैं प्रीतम का कुछ दोष नहीं है...

जीवन ही तो प्रीतम है...और वो तो है निर्दोष...