Sunday, October 24, 2021

कथा नीलगढ़-सपनों को सहेजने की कथा



इतवार की सुबह जाने क्यों हमेशा जल्दी हो जाती है हालाँकि इच्छा में वो देर से होना चाहती है. कि इस दिन रोज की भागदौड़ जो नहीं होती. लेकिन इस दिन की सुबह को इत्मिनान से महसूस किये जाने की तलब बहुत होती है. आज भी सुबह जल्दी हो गयी. चाय की प्याली लिए जैसे ही बालकनी की खिड़की खोली जूही महारानी ने मुस्कुराते हुए ‘गुड मॉर्निंग’ बोला. पास खड़े हरसिंगार ने बस पलकें भर झपकायीं. इस बरस ऐसा है कि अक्टूबर का महीना जूही ने हरसिंगार से चुरा लिया है. हरसिंगार मध्धम सुर में खिल रहे हैं और जूही द्रुत गति से खिल रही है. जूही की मुस्कुराती हुई कलाई को हरसिंगार ने थाम रखा है.

ऐसी ही सुबह में एक नौजवान ने अपनी किस्सों की पोटली खोल ली है. वो कथा नीलगढ़ कहने बैठा है. और मैं उसके किस्सों में लगभग डूब चुकी हूँ. ये किस्से असल में सिर्फ भाषिक सौन्दर्य में लिपटी इबारत भर नहीं हैं ये किस्से हैं जिए हुए समय की हलचल. जैसे बीते समय की नब्ज थामे बैठी हूँ. सब कुछ सामने ही तो चल रहा है. मेरे आंगन की जूही और हरसिंगार नीलगढ़ के उन तमाम पेड़ों, पंछियों, रास्तों, नदियों, बादलों, बारिशों की बाबत सुनने को व्याकुल हैं. सबसे ज्यादा व्याकुल हैं वहां के लोगों के बारे में जानने को विकास के नक़्शे में जिनके अभाव, दर्ज नहीं.

अपने युवापन में समाज को बदलने का सपना होना कोई कमाल बात नहीं लेकिन उन सपनों की ड़ोर को पकड़कर निकल पड़ना एक ऐसे अनजाने सफर पर जहाँ न रहने का ठिकाना, न खाने का. न चमचमाते भविष्य का, करियर का कोई सपना ही. ऐसे ही नौजवान अनंत गंगोला के जीवन के किस्से हैं कथा नीलगढ़. किताब को पढ़ते हुए मालूम होता है कि हम पढ़ नहीं रहे बल्कि सुन रहे हैं वहीं उसी गाँव के चिकना पत्थर पर बैठकर. पास ही एक नदी की धुन कुछ गुनगुना रही है जिसमें नीलगढ़ और धुंधवानी गाँव के बच्चों की किल्लोल घुली हुई है.

दिल्ली के संभ्रांत परिवार में लाड़ प्यार से पला एक नौजवान अपने लिए देखे गए उज्ज्वल भविष्य और करियर के सपनों को पीछे छोड़ किस तरह देश के विकास के नक़्शे में बहुत पीछे छूटे एक गाँव में वहां के बच्चों के भविष्य वहां के गांवों के लोगों में भरोसे के सहेजने के लिए निकल पड़ता है यह जानना जरूरी है. चार दिन तक भूख से बेहाल रहने के बाद गुड़ की डली का जादू कैसा होता है यह है महसूस करना है इस किताब से गुजरना. जिनके घरों में दो वक्त चूल्हा जलने की सहूलियत नहीं उनकी आँखों में बच्चों की शिक्षा का सपना आकार ले रहा है यह देखना है इन किस्सों में. और इस गाँव के बच्चों को शिक्षित करने की बीड़ा उठाने की उस युवा की हौसले भरी यात्रा है इन किस्सों में.

मैं अभी इन किस्सों के मध्य में हूँ. यह किताब जिया गया जीवन है इसे उसी तरह पढ़े जाने की जरूरत भी है. सर्रर्र से पढ़कर किताब खत्म की जा सकती है जीवन की आंच को तो धीमे-धीमे महसूस करना होता है. सो कर रही हूँ. यह किताब इन दिनों हर वक़्त साथ रहने लगी है...इन किस्सों से गुजरते हुए ज़ेहन में छाए असमंजस के बादल छंट रहे हैं...


Thursday, October 21, 2021

आप सबके साथ एक छोटी सी ख़ुशी साझा कर रही हूँ. मेरी कविता ‘ओ अच्छी लड़कियों’ को स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में दो अलग-अलग कोर्स में स्थान दिया गया है. यह सचमुच सम्मान की बात है. जिन कवियों और लेखकों को पढ़ते हुए बड़ी हुई हूँ (रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रान्दन पंत, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, हरिवंश राय बच्चन, केदारनाथ सिंह, सोहनलाल द्विवेदी, गिरजाकुमार माथुर, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, नीरज, कुंवर नारायण, अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव और जय प्रकाश कर्दम) उनके साथ सूची में अपना नाम देखना संकोच और गर्व की मिली-जुली अनुभूति से भर रहा है.













Tuesday, October 19, 2021

सजदे में हूँ उधमसिंह के


यह फिल्म शुजित सरकार की नहीं है. यह फिल्म विकी कौशल की भी नहीं है. यह फिल्म है एक टुकड़ा इतिहास है. खून से लथपथ चीखते चिल्लाते इतिहास के उस पन्ने की जिस पर रखकर आज हम बर्गर पिज्जा खा रहे हैं. मेरी नसें तनी हुई हैं. आँखें गुस्से और दुःख से लाल हैं. मुझे नहीं लगता मैंने कोई फिल्म देखी है. असल में देखी भी नहीं. लगा कि जलियांवाला बाग़ के किसी कोने में खड़ी हूँ. मुझसे रोटी नहीं खाई गयी. सोया नहीं गया. रोया भी नहीं गया. ऐसी है उधमसिंह. फिल्म के एक दृश्य में जब अंग्रेजों की यातना (जिसे देखकर सिहरन होती है) को सहते हुए मुसुकुराते हुए उधमसिंह कहते हैं, 'अब दर्द नहीं होता' तो सिसकी बाहर आ जाती है. सच में दर्द के जैसे मंजर उधमसिंह ने देखे थे उसके क्या मौत का डर और क्या दर्द. लेकिन एक पल को भी प्यार से दूर नहीं हुआ यह नौजवान. दर्द के दरिया में डूबते हुए हर बार उसकी स्मृतियों में प्रेम ने उसे थाम लिया, मरहम सा प्रेम. अदालत में सत्य और निष्ठा की कसम खाने के लिए वो जिस किताब को चुनते हैं वो है 'हीर रांझा'. कैसी झुरझुरी होती है इस क्रन्तिकारी को देखते हुए. कौन होगा जो इश्क़ में लबरेज इस युवा के इश्क़ में न पड़ जायेगा?

इसे आप फोन पर बात करते हुए, किचन में सब्जी में कलछी घुमाते हुए, फेसबुक या वाट्सप पर निगाह रखते हुए मत देखिएगा. आप देख नहीं सकेंगे.

जब भी इतिहास के इन टुकड़ों के सामने जाकर खड़ी होती हूँ न जाने कितने सवाल मन में कौंधते हैं. यूँ वे सवाल रहते तो हमेशा ही हैं साथ. फिल्म में जो दिखाया गया, वो सच है. लेकिन फिर भी पूरा सच तो इस दिखाए गये से ज्यादा ही निर्मम रहा होगा. जिन दृश्यों को देखकर बेचैनी होती है वो दृश्य रचे नहीं गए जिए गए हैं, मरे गए हैं. उधमसिंह को देखते हुए हर पल सवाल उठते हैं कि हमने इतनी सारी कुर्बानियां देकर जो आज़ादी पाई है उसका हमने किया क्या.

बहुत मुश्किलों से हमने ये आज़ादी पायी है. बहुत दर्द सहा है लोगों ने इस आज़ादी के लिए, मौत को गले लगाया है. और हम क्या कर रहे हैं. क्रूर राजनीति के पहिये मासूमों को अब भी तो कुचल रहे हैं. धर्म के नाम पर एक-दूसरे से लड़ाकर तमाशा देखने वाली राजनीति, भोली, मासूम जनता को आईटी सेल में झोंककर तरक्की के नाम पर झूठे वादे. हत्या, बलात्कार, मॉब लिंचिंग, महंगाई, देश प्रेम के नाम पर नौजवानों को युध्ध में झोंकना यह है आज की आज़ादी. क्या इसी दिन के लिए क्रांतिकारियों ने जिन्दगी गंवाई थी. सवाल इत्ता सा है लेकिन इत्ता सा ही नहीं यह सवाल.

यह फिल्म मनोरंजन नहीं है लेकिन मेरी इल्तिजा है कि इतिहास के इस पन्ने के आगे एक बार सजदे में झुकना जरूरी है. खुद से पूछना जरूरी है कि इतनी जिंदगियों के मोल चुका कर जो आज़ादी मिली है कहीं हम उसका दुरूपयोग तो नहीं कर रहे...

सोचती हूँ विकी कौशल और शुजित सरकार इस फिल्म को करते हुए और करने के बाद कितनी रातों सो नहीं पाये होंगे. 
#उधमसिंह


Wednesday, October 13, 2021

दिल जीत लेती है ये MAID


- प्रतिभा कटियार 

स्त्रियों के हिस्से रिसते हुए रिश्तों के जख्म जब आते हैं तब जीवन कैसा होता है यह समझना हो तो नेटफ्लिक्स पर MAID देखनी चाहिए. देखनी ही चाहिए. मैं अपने आस-पास न जाने कितनी ही ऐसी स्त्रियों को जानती हूँ जो कम्प्रोमाइज़िंग रिलेशन में हैं. हर दिन घुट रही हैं. बाथरूम में तेज नल खोलकर रो चुकने के बाद अच्छे से ड्रेसअप होकर पार्टी में जाती हैं. जिस रिश्ते की बजबजाहट से सिहर उठती हैं उसी रिश्ते की मुस्कुराती तस्वीरें साझा करती हैं. ढेर सारे बहाने या बहानों के भेष में (अनजाने भय) हैं जिसके चलते वे कहती हैं कि ऐसा होता तो वैसा करती.

लेकिन MAID देखते हुए लगता है कि एक स्त्री अपने आत्मसम्मान और अपने बच्चे की भावनात्मक सुरक्षा के लिए दुनिया की हर अभेद्य दीवार से टकरा सकती है. MAID की नायिका एलेक्स एक रोज अपनी 3 साल की बेटी MADDY को साथ लेकर अपने आत्मविश्वास के साथ निकल पड़ती है. कोई पूछे उससे कि हुआ क्या उसके साथ ऐसा जो घर छोड़ना पड़ा तो इसका कोई ठीक-ठीक जवाब भी नहीं उसके पास. हाँ, ऐसे सवालों से उसकी आँखें किसी स्याह उदासी के भंवर में डूबने लगतीं और उसे कुछ समझ में नहीं आता कि वो क्या कहे. दो वक्त का खाना नहीं उसके पास, छत नहीं. वो डीवी सेंटर यानी डोमेस्टिक वायलेंस सेंटर जाती है. उससे पूछा जाता है क्या तुम्हारी पिटाई की तुम्हारे पति ने? वो कहती नहीं. क्योंकि पिटाई तो नहीं हुई. लेकिन जो हुआ वो क्या पिटाई से कम था. वो जो रोज होता है धीमे-धीमे. फिर उस होने की गति बढ़ती जाती है. कि आपको घर में सम्मान नहीं मिलता. चीखना चिल्लाना, शुरू हो जाता है जब-तब. आप घर में अनवांछित सामान की तरह रखे होते हैं और जब-तब आप पर मालिक की तिरस्कार भरी नजर पड़ती रहती है. इस पर भी घर के उससे सारे काम करवाना और सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह इस्तेमाल किया जाना जारी रहता है. बच्चों पर भी इसका असर पड़ता है. 

और फिर एक रोज बिना ज्यादा सोच-विचार किये अपने आत्मसम्मान की राह पर एलेक्स निकल ही पड़ती है. वो लोगों के घर में MAID का काम करती है और न जाने कैसे-कैसे अनुभवों से गुजरती है. हर मुश्किल से बड़ी मुश्किल उसके स्वागत के लिए हमेशा तैयार खड़ी होती है. एलेक्स जो पढ़ना चाहती थी, एलेक्स जिसकी आँखें सपनों से भरी थीं, एलेक्स जिसके भीतर एक लेखक था उसने लोगों के घरों के ट्वायलेट साफ़ करते हुए भी कभी सपने देखना बंद नहीं किया. हिम्मत नहीं हारी. एलेक्स की माँ पौला भी एक अब्यूजिव रिलेशन का शिकार रही है और अब एक खुली बिंदास ज़िंदगी जीने की कोशिश कर रही है. हालाँकि उसके भी अलग तरह के संघर्ष हैं. 

एलेक्स के पिता जो अपनी दूसरी पत्नी और दो बच्चियों के साथ अलग रहते हैं पूरे वक्त एलेक्स की चिंता करते नजर आते हैं लेकिन असल में उनका चेहरा कुछ और ही है. किस तरह पितृसत्ता के कुचक्र सारे शोषकों को एक सूत्र में जोड़ लेते हैं यह दिखाती है सीरीज. शोषक पिता और शोषक पति किस तरह एक साथ हैं यह देखना विस्मय से तो नहीं दुःख से भरता जरूर है. सचमुच शोषण का दुःख का पीड़ा का चेहरा पूरी दुनिया में एक सा ही तो है. मैंने इस सीरिज को देखते हुए कई बार खुद को सिसकते हुए पाया. कभी-कभी लगता है ऐसा कुछ सिलेबस में क्यों नहीं होना चाहिए. लड़कियों को क्यों नहीं बताया जाना चाहिए कि तुम्हारे सपनों और तुम्हारे आत्मसम्मान से बड़ा कुछ नहीं. अब्यूसिव रिलेशन में रहना जिन्दगी से बढकर नहीं हो सकता. नायिका का आत्मविश्वास, उसका संघर्ष, उसकी जिजीविषा और सबसे ज्यादा उसकी अपने आपको लेकर स्पष्टता मोह लेती है. कोई आपकी मदद करता है तो आप उससे प्यार करने लगें ऐसा नहीं होता. मदद मदद होती है प्यार प्यार होता है. यह समझ होना जरूरी है. अब्यूसिव रिलेशन में रहते हुए जो हर पल का टॉर्चर झेलना होता है उससे निकलने की हिम्मत क्यों नहीं कर पाते. बच्चों के लिए रिश्ते में बने रहने का आग्रह करने वाला समाज शायद यह नहीं जानता कि ऐसे रिश्तों को सबसे ज्यादा बच्चे ही झेलते हैं. 

हाँ, इस अमेरिकन सीरीज को देखते हुए वहां के शेल्टर होम, सरकारी योजनायें और उन योजनाओं से जुड़े संवेदनशील लोगों की बाबत भी पता चलता है. भारत में अगर कोई स्त्री घर छोडती है तो उसके पास कोई ठिकाना नहीं होता जहाँ उसे सुरक्षा और स्नेह एक साथ मिले. यह सीरिज स्त्रियों के आपसी रिश्तों की बाबत भी बात करती है. एक नौकरानी और मालकिन के बीच किस तरह प्रेमिल रिश्ते बन जाते हैं यह देखना सुखद है. किस तरह शेल्टर होम में सब स्त्रियाँ एक दूसरे को समझती हैं, साथ देती हैं यह भी किसी यूटोपिया सा लगता है. खासकर भारत के सन्दर्भ में. लेकिन ऐसे समय, सरकारी योजनाओं, संवेदनशील व्यवहार के बारे में सोचना, देखना अच्छा लगता है. एलेक्स पौला और मैडी के रिश्तों में जो एक धागा है वही इस सीरिज की मजबूत डोर है. इंसानी कमजोरियों, हताशाओं, सही-गलत निर्णयों, सपने देखने की जिजीविषा को बखूबी सम्भाला गया है सीरीज में. रिश्ते नहीं टूटने चाहिए यकीनन. लेकिन अगर रिश्तों में जिन्दगी टूटने लगे तो ज़िन्दगी बचायी जानी जरूरी है. 
MAID@NETFLIX

(https://indiagroundreport.com/maid-review-netflix-homelessness-drama/)

Sunday, October 10, 2021

मेरी आत्मा मुरझाती जा रही है- मारीना


- प्रतिभा कटियार

अपना देश छोड़ने के बाद मारीना घने अकेलेपन में घिरने लगी थी. उसके आसपास जिस तरह के हालत और लोग थे, उसे लगता था कि उसके लिखे को समझ पाने वाला कोई नहीं. वह अपनी नोटबुक और शब्दों के साथ लगातार गहरे एकांत में उतरती जा रही थी. कलम और नोटबुक उसके इकलौते संवाद के साथी रह गए थे. इन दिनों के बारे में उसकी बेटी आल्या यानी अरिदाना ने 1969 में अपने एक संस्मरण में लिखा, ‘मारीना ऐसे लोगों में से थी, जो लोगों से मिलने-जुलने, कहने-सुनने में, साझेदारी में यक़ीन करती थी. लेकिन यहाँ पेरिस में यह संभव होता नहीं दिख रहा था. मारीना को कोई अगर एक आवाज़ दे तो वह चलकर नहीं, भागकर वह पहुँचने वालों में से थी.’

शायद मारीना की उदासी की यही वजह रही होगी कि उसके आसपास लोग ही नहीं थे, उस माहौल में उस देश में मारीना के लेखन को संभवतः काफी लोग समझ नहीं पा रहे थे. इसी वजह से उसके लिखे की आलोचना भी खूब हो रही थी, लेकिन कुछ लोग थे जो उसे अपना दोस्त मानते थे, उसके लेखन को पसंद को पसंद करते थे और उसकी यथासंभव मदद भी करते थे.

इसी दौरान मारीना की दोस्ती येलेना अलेक्सेंद्रोवना से हुई. वह रूस के पूर्व विदेश मंत्री की बेटी थी. वह अनुवाद करके इन दिनों पैसे कमा रही थी. उसने मारीना को इसके पहले सिर्फ तस्वीरों में देखा था. उससे मिलने के बाद ही वे दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगीं.

वह मारीना के बारे में लिखती है-

‘मैं जिस मारीना से मिली वह मुझे कोई और ही लगी. मैंने, ’माइलस्टोन’ पढ़ते समय जिस मारीना की तस्वीर देखी थी, वह बेहद आकर्षक, गोल चेहरे वाली प्यारी सी मारीना थी, लेकिन जिससे मैं उस शाम मिली वह न तो खूबसूरत थी न ही आकर्षक. वह दुबली पतली, पीली पड़ी हुई निस्तेज सी स्त्री थी. उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो जीवन ने उसे बर्बाद किया है. उसका चेहरा मुरझाया हुआ था, उसके कटे हुए बाल बेजान से थे. उनमें सफेदी झलकने लगी थी. उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी. लेकिन फिर भी वह कुछ विशिष्टता को बरकरार रखे हुई थी. हमने उस शाम देखा कि वह एकदम मुरझाई हुई है. लेकिन बहुत जल्द उसने समय के मुताबिक खुद को बदला और शाम को होने वाली बातचीत में सक्रिय प्रतिभाग किया. वह लोगों से मिलने-जुलने की इच्छुक रहती थी. उनकी उपेक्षा नहीं करती थी. उसकी संवेदना हमेशा उसे लोगों से जोड़कर रखती थी. वह लोगों से जुड़कर रखने की हरसंभव कोशिश किया करती थी.

येलेना अपनी माँ के साथ मारीना के घर के पास ही रहती थी. मारीना उससे मिलने के लिए कभी-कभी उसके फ़्लैट में जाया करती थी. वो वहां उपस्थित लोगों की पसंद की मुताबिक कवितायेँ भी पढ़ा करती थी. येलेना मारीना के वहां आने और मारीना के घर जाने के बारे में लिखती हैं-

हम अक्सर मारीना के घर जाया करते थे. वहां, कविता, साहित्य, प्रकृति व कलाओं पर काफी बातचीत हुआ करती थी जिससे मारीना का उदास चेहरा खिल उठता था. मैं इस तरह की बुद्धिजीवी, तेज बुध्धि वाली सहज बातचीत करने वाली किसी शख्सियत से पहले कभी नहीं मिली थी. हम उसके घर जाते थे. वह हमें कभी चाय तो कभी वाइन पिलाया करती थी. हम कभी-कभी पास के सेंट जॉर्ज चर्च भी जाया करते थे. धर्म के बारे में मारीना के अलग विचार थे. लेकिन वह चर्च की गतिवधियों को बारीकी से देखा करती थी.

सबसे बड़ी दिक्कत मारीना के सामने यह थी कि उसे लिखने का वक़्त बिलकुल नहीं मिल रहा था. रात के खाने से पहले उसे घंटों घरेलू कार्यों को देने होते थे. पुत्र मूर की देखभाल करनी होती थी कभी-कभी दोस्त भी आ जाया करते थे. नतीजतन सब निपटाने के बाद उसका अपने विचारों से, लिखने की इच्छा से नाता टूट जाया करता था. उसने इसके बारे में तेस्कोवा को लिखा-

‘ऐसा लगता है कि सिर्फ मेरा दिमाग ही नहीं मेरी आत्मा भी लगातार मुरझाती जा रही है. कभी-कभी मैं इस तरह भी सोचती हूँ कि भावनाओं के लिए समय की जरूरत होती है, विचारों के लिए नहीं. विचार किसी बिजली की तरह कौंधते हैं जबकि भावनाएं उस रौशनी के नन्हे धागों से जुड़ी होती हैं जैसे दूर किसी तारे की रौशनी से...महसूस करने के लिए वक्त चाहिए...आप भय के, तनाव के साये में महसूस नहीं कर सकते. एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ, मेरे सामने फर्श पर ढेर सारी मछलियाँ पड़ी हैं मैं इसके बारे में सोच तो सकती हूँ लेकिन महसूस नहीं कर सकती. मछलियों से आने वाली महक महसूस करने से रोकती है. यानि भावनाओं को विचारों से ज्यादा वक़्त चाहिए. या तो सब कुछ या कुछ नहीं. मैं इन दिनों अपनी भावनाओं को समय नहीं दे पा रही हूँ. अपने महसूस करने को. मैं हर वक़्त लोगों से घिरी रहती हूँ. सुबह के 7 बजे से रात 10 बजे तक मैं घरेलू कार्यों और लोगों से मिलने-जुलने में उलझी रहती हूँ. बेहद थक जाती हूँ. फिर महसूस करने को कुछ नहीं बचता. महसूस करने के लिए वक़्त भी चाहिए और ऊर्जा भी.’

ये हालात, ये द्वंद्व उसकी कविता ‘माइलस्टोन’ में भी दिखते हैं. इन हालात के बारे में उसने लिखा-

‘मैंने जीवन से बहुत कम अपेक्षाएं रखी थीं फिर भी उसने मुझे भयंकर कष्ट दिए. यहाँ पेरिस में लोगों ने उपेक्षित किया, मुझसे नफरत की. वे लोग मेरे लिखे का कुछ भी अर्थ निकालकर उस पर अनाप-शनाप बकवास लिखा करते हैं. उनकी घृणा ने मुझे वहां के सामान्य जीवन से अलग कर दिया है. अख़बार अपने हिसाब से अपनी कहानियां लिख रहे हैं.’

इसके अलावा उसने आगे लिखा-

‘क्या आपने सुना है यूरेशियन द्वारा तंग की जाने वाली घटनाओं के बारे में. संक्षिप्त जानकारी है कि यूरेशियन्स को बोल्शेविकों द्वारा समन भेजे जा रहे हैं. जाहिर है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिलेंगे वह जो लेखक हैं और प्रवासी हैं वे इसे समझ सकते हैं. मैं इन सबसे बाहर हूँ लेकिन मेरी राजनैतिक शिथिलता पर भी असर पड़ रहा है. यह बिलकुल उसी तरह है जैसे मुझे भी बोलेशेविक समन मिल रहे हैं. सेर्गेई भी इस सबसे काफी परेशान है. वह सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक एक स्टूडियो में काम करता है, जिसके बदले उसे दिन के 40 फ्रेंक मिलते हैं. जिनमें से 5 फ्रेंक आने-जाने के किराये में खर्च हो जाते हैं. 7 फ्रेंक लंच में. सिर्फ 28 फ्रेंक ही बच पाते हैं.’

इस समय मारीना के परिवार में कोई सहयोग राशि नहीं आ रही थी. येलेना उनकी हालत के बारे में बताती हैं-

‘हम अपनी आँखों के सामने मारीना को लगातार गरीबी की ओर जाते, जूझते देख रहे थे... आह...मारीना...वह अपनी क्षमताओं से ज्यादा काम कर रही थी फिर भी कभी-कभी उन्हें भूखा रहने की भी नौबत आ जाती थी. पेरिस में रह रहे रूसी लोगों ने उसके जीवन की आपदाओं को महसूस किया. क्योंकि कविताओं और नाटकों को लिखकर जीवन के निर्वाह के लिए पैसे कमा पाना कितना मुश्किल है यह किसी से छिपा भी नहीं था, लेकिन वह इसके अलावा और कुछ कर भी नहीं सकती थी. ‘अ सोसायटी टू हेल्प फॉर मारीना त्स्वेतायेवा’ का गठन हुआ. जिसके जरिये मारीना के घर के किराये और राशन का इंतजाम किया जाने लगा. रूस से निर्वासितों को देखते हुए समझा जा सकता था कि वाकई में गरीबी होती क्या चीज़ है. मेयुडिन में पड़ोसियों ने मारीना की मुश्किलों को बांटने की कोशिश की. हम उसे यथसंभव मदद करते, लेकिन उसने हम सबको जो दिया उसके मुकाबले वह मदद कुछ भी नहीं...सचमुच कुछ भी नहीं.’

सितम्बर, 1927 में मारीना के घर मेहमान आ गए. ये मेहमान और कोई नहीं उसकी बहन अनस्तासिया थी, जो इटली से आई थी. इस समय वह मास्को के उसी फाइन आर्ट्स के संग्रहालय में काम कर रही थी, जो उसके पिता ने स्थापित किया था. वो मैक्सिम गोर्की पर एक किताब लिखने की योजना में थी. इस बारे में उसने गोर्की को लिखा भी. गोर्की ने उसे और मारीना को महीने भर के लिए इटली आमंत्रित किया. उन्होंने लिखा कि दोनों बहनें चाहें तो उनके घर आकर उनसे मिलें और कुछ दिन साथ रहें. अनस्तासिया ने इटली जाने की बजाय अपनी बहन मारीना के पास पेरिस आने का चुनाव किया.

उसने अपने पेरिस निवास के बारे में लिखा-

‘आल्या और मूर से लम्बे समय बाद मिलकर बहुत ख़ुशी हुई. उनका फ़्लैट भी काफी अच्छा था, लेकिन ऐसा लगा कि मारीना थक चुकी है और शिथिल पड़ने लगी है. उस पर उम्र का असर भी दिखने लगा है. उसने महसूस किया कि मारीना अपने बेटे मूर की परवरिश, आल्या की परवरिश से अलग कर रही है. इस बार परवरिश में वह ज्यादा संवेदनशील दिखी. मारीना की ऊर्जा मास्को से आने वाली खबरों के चलते लगातार कम हो रही थी.

एक शाम जब मारीना अपने छोटे से दीवान पर लेटी थी, जहाँ वह अक्सर लिखने-पढ़ने का काम भी किया करती थी और कभी-कभी सो भी जाया करती थी उसने आँखों में आंसू भरकर सिगरेट पीते हुए कहा, ‘क्या कोई समझ सकता है कि मैं इन हालत में कैसे लिख पाती हूँ. जब मुझे लिखने की इच्छा होती तब मुझे बाजार जाना होता है, अपने पास बचे हुए पैसों का हिसाब रखना होता है और बाज़ार में देखना होता है कि कैसे सस्ता खाना मिल जाए जो मेरे पास बचे हुए पैसों में आ सके. मैं अपने पर्स में हमेशा घर और घर से जुड़ी चिंताएं और काम लेकर चलती हूँ. इन सबके बाद मुझे घर की सफाई करनी पड़ती है, खाना बनाना होता है, आल्या और मूर का ख़यालरखना होता है, शारीरिक भी और भावनात्मक भी. जब यह सारे काम निपट जाते हैं तो मैं निढाल होकर इसी जगह लुढ़क जाती हूँ. देर रात...शरीर थका हुआ होता है और दिमाग खाली...एक शब्द भी लिख नहीं पाती. मैं अपनी पढ़ने की मेज़, अपने कमरे और लेखन के लिए थोड़े एकांत को तरस रही हूँ, और यह हर रोज का किस्सा हो चला है...’

प्यारी मेज़

तेरह बरस हो गए, हमें एक-दूसरे के साथ
हमारे प्यार और एक-दूसरे के प्रति वफादारी के
तेरह बरस
मुझे तुम्हारे एक-एक कण के बारे में पता है
और तुम्हें मेरे.
क्या हुआ कि तुम कोई लेखक नहीं हो
एक के बाद एक जिज्ञासाओं को तुमने संभाला है
बताया है कि आने वाला कल कुछ नहीं होता
जो होता है आज होता है, अभी होता है.
मेज़, जिसने सहेजे पाठकों के पत्र और पैसे
डाकिए की लाई चीज़ें
काम ख़त्म करने की समय सीमाएं
और रोज़ लिखी जाने वाली एक-एक पंक्ति
मुझे मिलने वाली ज़िंदगी की चुनौतियाँ
न मिलने वाला सम्मान
हो सकता है कल जब मेरे अतीत को खंगाला जाए
तो कहा जाए बेचारी बेवकूफ़ ग़रीब औरत...
(डेविड मैकडफ के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)
अनुवाद- प्रतिभा

उसने अपनी डायरी में लिखा -

‘मेरे पास वर्तमान में कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकूं...न ही भविष्य की मुठ्ठी में ऐसी कोई उम्मीद थी. इस इतनी बड़ी समूची दुनिया में मुझे मेरे लिए एक इंच जगह भी ऐसी नहीं नजर आती थी, जहाँ मैं अपनी आत्मा को निर्विघ्न, बिना किसी डर के उन्मुक्त छोड़ सकूं. मैं धरती के उस अंतिम टुकड़े पर हूँ जिस पर मैं इसलिए खड़ी हूँ, क्योंकि मेरे होने से वह ख़त्म नहीं हो सका है. मैं इस छोटे से टुकड़े पर अपनी पूरी ताकत से खड़ी हूँ.

मैं ख़ुद भी किसी दूसरे की दुनिया में दख़ल न देती. किसी तकनीकी दुनिया में जिसका मुझसे कोई जुड़ाव ही न हो. मैं अकेली आत्मा हूँ...जिसे सांस लेने तक के लिए हवा नहीं मिल पा रही. और पास्तरनाक भी कोई नहीं, आंद्रेई ब्येली भी कोई नहीं...हम हैं, लेकिन हम अंतिम हैं. सिर्फ यह पूरा युग ही मेरे ख़िलाफ़ नहीं, सिर्फ लोग ही मेरे ख़िलाफ़ नहीं हैं, मैं भी इनके ख़िलाफ़ हूँ.’

तेस्कोवा को एक पत्र में उसने लिखा-

‘मैं नींद में बकबक करती हूँ. मैं बीस वर्ष के नौजवानों को देखती हूँ और ख़ुद को देखती हूँ, लेकिन कोई मुझे नहीं देखता. मेरे बाल सफ़ेद होने लेगे हैं, मैं सचमुच बूढ़ी होने लगी हूँ. एक स्त्री अपने छोटे से बच्चे के साथ लगातार बूढ़ी होते हुए. पर हो सकता है कि वह वाकई में मुझे देख ही न पा रहे हों. यह बड़ा कड़वा अनुभव है कि आप लोगों के लिए उपस्थित होकर भी न जैसे ही हों. कोई आप पर ध्यान ही न दे रहा हो.’

वेरा बूनिना को एक पत्र में मारीना ने लिखा-

‘पिछले कुछ बरसों में मैंने बहुत कम कविताएँ लिखी हैं. अब मुझसे मेरी कविताएँ कोई नहीं मांगता, न ही उन्हें स्वीकार करता है. उन्होंने मुझे गद्य लिखने के लिए कहा है. जब फ्रीडम ऑफ रशिया’ हुआ करता था तो मैं निश्चिंत होकर किसी भी तरह की कविताएँ लिखा करती थी, क्योंकि मैं जानती थी कि वह मेरी कविताओं को जगह देंगे. उन्होंने मेरी लिखी हर चीज को जगह दी, इसके लिए मैं उनकी दिल से आभारी रहूंगी लेकिन ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में जब से रोज़ोनोव आया और उसने लम्बी कविताओं पर एकदम से रोक लगा दी. उसने कहा कि उसे 12 पेजों के लिए 15 कवियों की जरूरत है.

मैं अपनी लंबी कविताओं को लेकर कहाँ जाऊं? मेरी कविता ’द स्वान’ भी लगभग बेकार गई, क्योंकि वह बहुत लम्बी थी. इन्हीं वजहों से और भी बहुत सी लम्बी कवितायेँ बेकार गयीं. इसी सबके चलते अब गद्य लेखन शुरू हो गया. ऐसा नहीं कि गद्य लिखना मुझसे पसंद नहीं है, मुझे पसंद है लेकिन सच तो यही है कि इस ओर मुझे धकेला गया है, और अब मैं गद्य लिखने के लिए अभिशप्त हूँ.

निःसंदेह कविताएँ मुझ तक खुद आती हैं. लेकिन यह भी सच है कि आप कविताओं को जबरन नहीं लिख सकते. हालाँकि इन दिनों मेरा थोड़ा सा भी खाली वक़्त गद्य लिखने में जाता है. कविताएँ छोटे-छोटे टुकड़ों में डायरी में उतरती रहती हैं. अब भी कभी 8 लाइन, कभी 4 लाइन, कभी 2 लाइन. कभी-कभी मैं उनका तेज़ प्रवाह भी अपने ऊपर महसूस करती हूँ लेकिन फिर मैं कुछ भी नहीं लिख पाती...बहुत सारे ब्लैंक्स दिमाग में आ जाते हैं...सब कुछ धुंधला-धुंधला सा होता है.’

(प्रजातंत्र अख़बार में आज 10 अक्टूबर 2021 को प्रकाशित)