Monday, January 20, 2020

मौसी, माँ की किताब...


सुख क्या है? कोई किताब लिखना? प्रकाशित होना? प्रशंसाओं के घेरे में घिरना? नहीं, यह सुख का भ्रम हो सकता है सुख नहीं. सुख है पीड़ा से मुक्ति जो लिखने से पहले या लिखने के दौरान घेरे होती है, न जीने देती है न मरने देती है. लिख चुकने के बाद तनिक सी जो शांति मिलती है, बहुत थोड़ी सी बहुत कम देर को उसे कभी-कभार सुख जैसा महसूस किया है. वही सुख जो झट से उठकर चल देता है निर्मोही प्रेमी की तरह, बिना पीछे पलटकर देखे. हमें हमारे तमाम नए दुःख, पीड़ा, उलझन, बेचैनी के साथ छोड़कर.
यह छूटना बार-बार का है. सच कहूँ तो अब इस छूटने में ही मन रमता है. खुद का उदास चेहरा ज्यादा अपना सा लगता है.

शोर बाहर घटता है, भीतर घटने वाला सुख या दुःख सब बेआवाज घटता है. ऐसा ही बेआवाज सुख इन दिनों पलकें नम किये रहता है. किताब की बाबत कभी ज्यादा सोचा नहीं, काम के बारे में सोचा. सोचा उसे पूरी निष्ठा और प्रेम के साथ करने के बारे में और उनके बारे में जो इस यात्रा में साथ थे.

किताब की सूचना बहुत संकोच के साथ दोस्तों से साझा की और लगभग सारे ही दोस्तों ने पहली प्रति खरीदने की बात पूरे उत्साह से कही. सबको पहली प्रति खरीदनी थी. किसी ने भी मुझसे अभी तक मुफ्त में किताब की मांग नहीं की है. जो लोग खरीद सके हैं उन्होंने खरीद ली है और जो नहीं पहुँच सके हैं खरीदने तक वो अमेजन के लिंक का इंतजार कर रहे हैं.

दोस्तों का यह प्यार सुख है, और भी एक सुख है, कि पहली किताब खरीदने वाली पहली ग्राहक बनी बिटिया ख्वाहिश. पॉकेटमनी के पैसों से उसने पहली किताब खरीदी भी और औटोग्राफ भी लिया. सुख है किसी के सुख की वजह बनना. किताब दूर कहीं रखी है दोस्त सब बहुत करीब आ गए हैं.

सच, मुझसे किसी ने गिफ्ट में नहीं मांगी किताब...

(फोटो में अनि, ख्वाहिश और दीत्या)

Sunday, January 12, 2020

‘छपाक’ के सबक समाज की ‘सर्जरी’ की जरूरत बताते हैं...



-प्रतिभा कटियार

- एक लड़की अपनी दोस्त से इसलिए नाराज हो गयी क्योंकि उसकी दोस्त ने वो सेल्फी इन्स्टा पर पोस्ट कर दी थी जिसमें वो जरा कम अच्छी लग रही थी.

- एक दुल्हन ने रो-रोकर बुरा हाल कर दिया था कि पार्लर वाली ने उसका मेकअप ख़राब कर दिया था.

- उस रोज घर आये मेहमानों के आगे जाने से एक लड़की ने इनकार कर दिया क्योंकि वो सर में तेल चुपड़ के बैठी थी.

- उसका रंग सांवला था, वो चुपके-चुपके बादाम घिस के लगाने से लेकर फेयरनेस क्रीम तक लगाया करती थी और अकेले में रोया करती थी.

मामूली सी नजर आने वाली ये बातें हमारे आसपास की ही हैं. ‘छपाक’ फिल्म देखते हुए महसूस होता है कि कितनी बेमानी हैं ये वजहें. दिखना, सुंदर दिखना क्यों इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया है. उसी सुदंरता पर हमला करके एक जिन्दगी को जिन्दगी से बाहर करने की घिनौनी हरकत करता है समाज. स्त्री को उसकी सुन्दरता और यौनिकता भर में इस कदर जकड़ दिया गया है कि समूची कुंठा चाइल्ड अब्यूज, रेप या एसिड अटैक के जरिये निकालने में ही जुटा है सम्पूर्ण हिंसक पितृसत्तात्मक समाज. इसमें हमलावर को बचाते लोग, सिस्टम और कानून हमलावर से कम दोषी नहीं हैं.

छपाक देखते हुए गला सिसकियों से रुंध जाता है. देह में सनसनाहट दौड़ती है. क्योंकि जो परदे पर चल रहा था वो लिखी हुई कहानी नहीं, भोगा हुआ हुआ सच था. अख़बारों की कतरनों में खबर को पढ़ना और उसे जिन्दगी पर गुजरते हुए महसूस करना दो बहुत अलग बाते हैं. छपाक उस दूरी को पाटती है.

कैसे लिखूं फिल्म पर, क्या लिखूं कि फिल्म अच्छी है, विक्रांत और दीपिका की एक्टिंग अच्छी है, निर्देशन कमाल का है और मेकअप वर्क जो कि इस फिल्म की जान है वह भी बहुत अच्छा है. क्या कहूँ कि गुलज़ार का लिखा गीत ‘कोई चेहरा मिटा के, और आँख से हटा के, चंद छींटे उड़ा के जो गया, छपाक से पहचान ले गया...’ दिल को झकझोर देता है.

नहीं...यह सब लिखने का मन नहीं. मेरे जेहन में तो फिल्म के कुछ दृश्य फ्रीज़ हो गए हैं. वो पहला दृश्य जब पीले और गुलाबी सलवार कमीज में सडक पर चलती लड़की अचानक सडक पर गिर पड़ती है, तड़पने लगती है, वो तड़पना अब तक जारी है. उसकी चीखें कानों में अब तक जा रही हैं.

अदालत का वो दृश्य जब राजेश लड़की का वो दोस्त जिस पर इतने बड़े हादसे के बावजूद मालती को भरोसा है कि ‘वो ऐसा क्यों करेगा’ अपने बयान से मुकर जाता है.

वो लड़की जो एसिड अटैक में शामिल है. उसके चेहरे के भाव और आँखों से झांकता कमीनापन भुलाये नहीं भूलता.

एसिड अटैक करने वाले बशीर के घर की औरतें जो मालती को हेय दृष्टि से देखती हैं और बशीर का साथ पूरी निर्लज्जता से देती हैं.

बशीर की शादी का लड्डू मालती के भाई के मुंह में ठूंसने वाली वो औरत.

मालती के भाई का मजाक उड़ाते दोस्त.

वकील जो मालती के खिलाफ केस लड़ रहा है और उसके सवाल.

मालती से बेतुके सवाल पूछते रिपोर्टर.

एक दृश्य जहाँ एसिड अटैक की विक्टिम पिंकी राठौर की मृत्यु हो जाती है और कोने में चुपचाप खड़ी मालती धीरे से कहती है कि ‘मुझे इससे जलन हो रही है.’

इन सबके बीच लक्ष्मी अग्रवाल जिन पर यह फिल्म बनी है एक रियलिटी शो में उनका यह कहना कि ‘जब मैं हिम्मत करके घर से बाहर निकली तो सबसे ज्यादा नकारात्मकता महिलाओं से मिली.’

‘छपाक’ सिर्फ फिल्म नहीं है आईना है जो हम सबके सामने रखा है. स्त्रियों के सामने भी पुरुषों के सामने भी. जो फिल्म का बायकाट कर रहे हैं उनके लिए तो बस एक ही बात मन में आती है कि कितना अच्छा होता कि आप तेजाब की खुलेआम बिक्री को बायकाट करते.

फिल्म के बहाने हम सबके भीतर पल रहे न जाने कितने नासूर बह निकलने को बेताब हैं. कुछ सवाल हैं जो नए नहीं हैं कि सुंदर होना होता क्या है आखिर, सुंदर होने के तथाकथित सामजिक मायने इतना ऊंचा ओहदा कैसे पा गए. कोई चिढ, कोई गुस्सा इतना कैसे बढ़ जाता है कि मानवीयता की सारी हदें पार कर जाता है. और एक अंतिम प्रश्न जो शायद पहला होना चाहिए था कि स्त्रियाँ कब इन साजिशों को समझेंगी. कब वो एक-दूसरे की दोस्त बनेंगी. सुख दुःख की साझीदार बनेंगी. हाँ, जानती हूँ कि स्त्रियों के इस जकड़े हुए व्यवहार के लिए भी वो खुद जिम्मेदार नहीं हैं. यह सब एक बड़ी पितृसत्तात्मक साजिश है लेकिन व्यक्तिगत तौर पर भी तो हमें इन साजिशों को बेनकाब करने की ओर बढ़ना होगा. कोई भी सत्ता कोई भी बहकावा, कोई भी प्रलोभन हमें मानवीय होने से कैसे रोक सकता है.

किसी एसिड अटैक सर्वाइवर या रेप सर्वाइवर, चाइल्ड अब्यूज विक्टिम को लेकर हम सबको निजी तौर पर अपने रवैये को खंगालने की सख्त जरूरत है.

छपाक तीन बातों की ओर इशारा करती है एक क्राइम के खिलाफ लड़ने की दूसरी क्राइम न हो इसकी मजबूत व्यवस्था करने की और तीसरी हम सबको अपने भीतर झांककर देखने की और ज्यादा मानवीय होने की ओर बढ़ने की.

अगर हम एसिड अटैक विक्टिम या रेप विक्टिम से बात करते हैं उन्हें गले लगाते हैं तो क्यों ख़ास महसूस करते हैं और हमने कुछ ख़ास किया है यह उन्हें भी क्यों महसूस कराते हैं. किसी को नार्मल फील कराने के लिए हमें खुद उनके प्रति नार्मल होना सीखना होगा. एक-दूसरे का हाथ मजबूती से थामना होगा.

याद यह भी रखना होगा कि जो लड़कियां पढ़ रही हैं, बढ़ रही हैं, सपने देख रही हैं, अपनी बात कह रही हैं वो खटक रही हैं. हालाँकि रेप या चाइल्ड अब्यूज के मामले में तो छह महीने की बच्ची भी निशाने पर है. लड़की होना पहले ही गुनाह सा बना रखा था समाज ने अब बोलने वाली, सोचने वाली, सपने देखने वाली लड़कियां कैसे सहन होंगी भला.

महज फिल्म भर नहीं है छपाक. यह समाज की सर्जरी की जरूरत की ओर इशारा करती है. विक्रांत मैसे का फिल्म में और आलोक दीक्षित का लक्ष्मी अग्रवाल के साथ खड़े होना यह भरोसा देता है कि यह सफर सिर्फ स्त्रियों का नहीं है.

बहुत सारे सवालों को उठाती, झकझोरती यह फिल्म सकारात्मक सफर की, हिम्मत की है, हौसले की फिल्म है. मिलकर किसी भी मुश्किल से बाहर निकलने की है, हालात कैसे भी हों जीने की इच्छा से भरे रहने की, जिन्दगी की ओर कदम बढ़ाने की, मोहब्बत पर यकीन करने की फिल्म है.

published in the quint- https://hindi.thequint.com/voices/opinion/chhapaak-deepika-padukaone-acid-attack-victims-society-analysis

Saturday, January 11, 2020

मारीना- विमोचन 5 जनवरी 2020



5 जनवरी 2020 को शाम 3 बजे मारीना की जीवनी का अनौपचारिक विमोचन हुआ. अभी शाम बीती भी नहीं थी कि जेएनयू में हुए बर्बर हमले की खबर आई. मन बुझ गया. कोई तस्वीर, कोई बात साझा करने का मन ही नहीं हुआ.

सोचती हूँ मारीना जीवन भर जैसे राजनैतिक उथल-पुथल से जूझती रही आज इत्ते बरस बाद जब उसकी किताब आई है तब भी हालात कुछ वैसे ही हैं. यह इत्तिफाक ही है शायद. इत्तिफाक यह भी है कि जिस जेएनयू में पढ़ने का मेरा सपना अधूरा रह गया था उसे मारीना ने ही पूरा कराया. मैं वहां पढ़ी नहीं, लेकिन मारीना के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की इच्छा बिना वरयाम जी से मिले, बिना जेएनयू जाए तो पूरी हो ही नहीं सकती थी. फिर उनकी मदद से जेएनयू की रशियन डिपार्टमेंट की लाइब्रेरी में खोज करना, कैंटीन में खाना, गंगा ढाबे पर बैठकर चर्चाएँ करना यह सब संभव हुआ. अधूरा सा इश्क़ था जो मारीना ने पूरा कराया. सोचती हूँ जब कुछ ही दिन जेएनयू में रहकर मैं इस कदर इस जगह से जुड़ी हूँ तो उनका क्या जो यहाँ पढ़े हैं, पढ़ रहे हैं.


जेएनयू के फूल भरे रास्तों पर भागते हुए वरयाम जी से मारीना के किस्से सुनना, वहां की दीवारों पर लिखी इबारतों को देखना महसूस करना कि किस तरह दीवारें दीवारें नहीं रहतीं, इन्कलाब बन जाती हैं इश्क़ बन जाती हैं...

बहुत से दोस्त विमोचन की तस्वीरों की बाबत पूछ रहे हैं. न यह किताब सिर्फ किताब रही न विमोचन. सब प्रेम और स्नेह से रचा गुंथा ही है. दोस्तों ने ही सब सहेजा, दोस्त खुद आये, किताबें खरीदीं, आटोग्राफ लिए, महसूस कराया कि कितनी शिद्दत से वो सब साथ हैं, खुश हैं.

प्रियदर्शन जी ने स्नेहिल टिप्पणी रखी किताब पर, सुभाष मुंह मीठा कराते रहे और बच्चे हाथ थामे रहे. ज्योति और देवयानी अलग कहाँ थीं मुझसे कि मेरी नर्वसनेस वो ही तो संभाल रही थीं.

मेरे लिए यह एक बेहद स्नेहिल शाम थी. दोस्तों की आँखों में जो स्नेह था वो औपचारिक बधाई भर नहीं था वो उससे बहुत ज्यादा था. आलोक, संज्ञा, प्रज्ञा दी, सुजाता, रश्मि रावीजा दी, दिनेश श्रीनेत, अनुपमा जी, रजनी मोरवाल, नील डोगरा, गुनगुन, ऋषभ, शुभंकर, अनीता दुबे, शालिनी, विमल कुमार, अनुराधा बेनीवाल, अबेम, चन्दर, पूजा पुनेठा, प्औेरिका, देवेश,और बहुत सारे लोग...सबने मिलकर एक मामूली व्यक्ति को ख़ास महसूस कराया.

सबसे ख़ास था बिटिया का अपनी पाकेटमनी से पहली किताब खरीदना और किसी का भी किताब मुझसे न माँगना बल्कि खरीदकर मुझसे आटोग्राफ लेना. मैं जानती हूँ यह सिर्फ स्नेह है सबका वरना आटोग्राफ जैसा तो कुछ था नहीं...सबके स्नेह से भीगी हुई हूँ...

Wednesday, January 1, 2020

सब ताज उछाले जाएँगे सब तख़्त गिराए जाएँगे- फैज़


हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो