Friday, April 29, 2022
पत्र जो दिल को छूते हैं
Wednesday, April 20, 2022
तुम तो प्यार हो...
समय का पंछी उदासी को कुतरने की कोशिश में लगा हुआ था. उदास आँखों में दुनिया जहाँ की नदियाँ लिए भटकती देह को बस एक हौसले ने थाम रखा था कि कोई है जो आयेगा, चुपचाप बैठेगा एकदम करीब. जिसके काँधे पर सर रख के बरस लेंगी कुछ बदलियाँ और साँसों को तनिक सुख मिलेगा. बस तिनका भर उम्मीद हो तो जीवन आसान होने लगता है. और फिर हुआ यूँ कि एक रोज शहर भोपाल चला आया शहर देहरादून से मिलने. भोपाल की झील का देहरादून की पहाड़ियों, नदियों और रास्तों से मुलाकात का मौसम आया. देहरादून यूँ ही बौराया हुआ था. आम और लीची के कच्चे फलों की खुशबू पूरी फिजां में इस कदर बिखरी हुई थी कि कोई कमजर्फ ही होगा जो इस खुशबू से बावरा न हो उठे. इस खुशबू में जब भोपाल के रास्तों की, झील की वहां के दोस्तों की खुशबू शामिल हुई तो देहरादून के मिजाज़ में जरा गुरूर की रंगत भी घुल गयी.
श्रुति कुशवाहा जिसका नाम है वो मेरे लिए भोपाल शहर है पूरा. मेरे लिए भोपाल का अर्थ श्रुति ही है. मैं यूँ भी शहरों को वहां रहने वाले लोगों के नाम से जानना पसंद करती हूँ. ये लड़की मोहब्बत में पगी हुई है. कबसे कहा था इसने कि जब आप बेटू को छोड़कर आएँगी न तब उदास होंगी लेकिन मैं होने नहीं दूँगी और मैं आ जाऊंगी.
मुझे लगता है कोई परेशान हो आसपास तो उसे कुछ कहना नहीं चाहिए, उसकी हथेलियों को थामकर घंटों बैठे रहना चाहिए. श्रुति यह जानती है. हम नदियों में पैर डाले नीले आसमान से झरती खुशबू में डूबे रहते हैं. मेरे काँधे पर उसका सर होता है और मेरी हथेलियों में उसकी हथेलियाँ. लगता है दुनिया सिमटकर इन हथेलियों में आ गयी है. शहर मुस्कुरा रहा है. मेरी आँखें नम हैं. देवयानी कहती है, 'तुम्हारा कुछ समझ नहीं आता, खुश होती हो तो भी रोती हो, दुखी होती हो तो भी.' ज्योति कहती है, 'तुम्हारा ऐसा होना ही नॉर्मल होना है.' संज्ञा कहती है, 'बेटू की चिंता छोड़ दो उसकी मासियाँ हैं यहाँ तुम बस खुद को संभालो.' विभावरी कहती है, 'आपको अब नए सिरे से ज़िन्दगी को जीना शुरू करना चाहिए.' सब दोस्त बस एक पुकार की दूरी पर हैं. सबने सब संभाल रखा है. मैं तो एकदम आज़ाद हूँ. डबडबाती आँखों में प्रेम ही प्रेम है. आसमान से जैसे कोई ख़्वाब बरस रहा है...
श्रुति तुम हो तो जीवन कितना सुंदर लगने लगा है यार.
Thursday, April 14, 2022
ये बूँदें कैसी हैं...
अपने होने की ख़ुशबू, अपने होने का एहसास तनिक और करीब सरक आया है. शब्दहीनता का जादू धीरे-धीरे खुल रहा है. यह जादू किसी तिलिस्म सा है, खींचता है अपनी ओर. जाने नहीं देता. एक डर बना रहता है कि एक रोज यह जादू टूट जायेगा. कोई शब्द आयेगा और इस नर्म जादू को तोड़ देगा. फिर क्या होगा? इन दिनों आवाज़ों से दूर रहना भला लगता है. लेकिन भीतर की आवाज़ों के साथ रहना बुरा नहीं लगता. सुन पा रही हूँ कि भीतर की आवाज़ें भी शोर नहीं हैं. संवाद नहीं हैं. कोई धुन है मध्धम सी जो थामे हुए है.
पूरा शहर एक मादक खुशबू में डूबा हुआ है. रास्तों से गुजरते हुए जैसे कोई नशा उतरता जाता है भीतर. नए पत्तों की खुशबू, जंगल की खुशबू, फूलों की खुशबू और शायद इन्हीं में कहीं घुली है मेरे होने की खुशबू भी. मैंने अपने रास्तों को लम्बा कर लिया है और गति को धीमा. ख़ुशबू की संगत पर रास्ते लम्बे और लम्बे होते जाएँ तो इससे भला क्या होगा.
सुख क्या है सिवाय इल्यूजन के. लेकिन इसमें आकर्षण बहुत है. हम जैसे ही सुख और दुःख से विरत करके खुद को एक ऐसी जगह रखते हैं जहाँ सूरज ढले तो अपनी पूरी धज से सूरज ही ढले, जहाँ झरनों की झर झर में झरे अपना मन भी कि कोई संवाद, कोई स्मृति इसमें शामिल न हो. हम इन दृश्यों को संवादों से, किसी के होने की ख्वाहिश से, खुद को उन दृश्यों में समाहित करने के लोभ से मैला कर देते हैं. लेकिन यह समझने में एक उम्र खर्च हो जाती है.
सुख के छोटे-छोटे बुलबुले घेरे रहते हैं. मैं उन्हें देख मुस्कुराती हूँ. उनसे कहती हूँ, नहीं आऊंगी तूम्हारी तरफ कि तुम्हारा यह खेल अब समझ चुकी हूँ. मेरा ध्यान सूरज की तरफ है और कोई बुलबुला मेरे काँधे पर आकर बैठ जाता है. मैं उस पर ध्यान नहीं देना चाहती. जानती हूँ जैसे ही ध्यान दूँगी वो टूट जायेगा. मैं बेध्यानी में ही उसका ध्यान किये हूँ. खुद को भरमा रही हूँ. डूबते सूरज ने मेरी मुस्कुराहट को थाम लिया है. जाते-जाते वो मुझे बारिश थमा गया है...
खिड़की के बाहर तो सिर्फ बादल थे. मेरे चेहरे पर ये बूँदें कैसी हैं...
Tuesday, April 12, 2022
प्यार से भीगा मन, नयी आमद की ख़ुशबू
ज़िन्दगी ने नया लिबास पहना हुआ है. इतरा के सामने खड़ी मुस्कुरा रही है. ज़िन्दगी के ढब अक्सर समझ नहीं आते फिर भी अच्छी लगती है. अनचीन्हे लम्हों की तरफ दोस्ती के हाथ बढ़ाने का समय है. उत्सुकता और हैरानी की जुगलबंदी पर मन की संगत अभी बैठ नहीं रही. अभी सुर लगना बाकी है. ये नये सिरे से रियाज़ शुरू करने का समय है. मैं आने वाले समय की ओर निगाहें करती हूँ, बीते समय की पुकार को अनसुना करने की कोशिश करती हूँ. तभी शरारती कबूतर बीते समय की डाल से एक डंडी लेकर खिड़की पर आ बैठा है. वो घोसला बनाने की जुगत में है जिसे बीते वक्त के तिनकों से वो सजायेगा. मेरी आँखें बह निकली हैं. आने वाले लम्हों के मोह में हम कैसे बिसरा दें बीते हुए उन लम्हों को जिन्होंने अपनी आंच में पकाकर माटी को सोना किया है. अचानक बहती हुई आँखें ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलों के आगे सज़दे में झुक जाती हैं...
तभी सर पर कोई हाथ महसूस होता है. सिसकियों को, हिचकियों को सहेजकर देखती हूँ कि कौन है...वो ख़्वाब है जो बरस रहा है...
ज़िन्दगी में जब जैसा जिया, जैसा महसूस किया उसे कहीं सहेज के धर आई थी. वो सब जिया हुआ मोती बन गया. अपनी कविताओं से, अपने लिखे से बहुत प्यार रहा हो ऐसा नहीं रहा कभी बस कि लिखने के सिवा कुछ आया नहीं सो लिखती रही. सच कहूँ कि न लिखती तो शायद मर जाती. तो जिन शब्दों ने जीवन बख्शा उन्हें यूँ समग्रता में देखना कैसा है अभी पता नहीं. महसूस करने की अलग यात्रा होती है. अभी तो बस शुक्रगुजारी है उन तमाम लम्हों की जिन्होंने ठोंका पीटा मुझे और चमकाया. शुक्रगुजारी है दोस्तों की जिन्होंने भरोसा हमेशा बनाये रखा. जिनके होते मैं बेफिक्र रही खुद से. जो मुझसे ज्यादा खुश होते हैं मेरे सुखों पर और मुझसे ज्यादा उदास मुश्किलों पर. जो हाथ पकड़कर निकाल लाते हैं वक्त की अंधी सुरंग से और हाथों में थमा देते हैं भरोसे का पीला फूल.
हाथ में लिए बैठी हूँ एक बरसता हुआ ख़्वाब जो अब सिर्फ मेरा नहीं है...
इस संग्रह का समर्पण लिखते हुए जितने चेहरे नज़रों से गुजरे उन सबके प्रति मन प्रेम से भरा हुआ है.
किताब के खूबसूरत प्रोडक्शन और सहज कम्युनिकेशन (एग्रीमेंट सहित तमाम बातों) के लिए रुद्रादित्य प्रकाशन का आभार.
Monday, April 4, 2022
सीखना है कितना कुछ
हमें क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है. किस बात पर हमें हंसी आती है किस बात पर गुस्सा आता है ये सब हमारे व्यक्तित्व को दर्शाने वाले पैरामीटर्स हैं. व्यक्ति अपने चेहरे, रंग, कद से नहीं बनता. न जाति, धर्म, लिंग से बनता है वह बनता है अपनी सोच से, अपने व्यवहार से. कोई नयी बात तो नहीं है यह लेकिन फिर भी इतनी दूरी सी क्यों लगती है इस बात से. बहुत सारी अच्छी बातें करने वाले भी जब किसी फूहड़ से चुटकुले पर हंस देते हैं तब असल में उनके बड़े से बौध्धिक व्यक्तित्व की कलई खुल जाती है.
एक समय था जब कॉमेडी शोज़ की शुरुआत हुई थी. टीवी पर ये शो काफी लोकप्रिय हुआ करते थे. हर घर में इनका बोलबाला था लेकिन मैंने ये कभी नहीं देखे. क्योंकि जब भी इन शोज़ के कुछ टुकड़े मेरी नज़र से गुजरे मुझे ये बहुत दिक्कत भरे लगे. फूहड़ और भद्दे. बॉडी शेमिंग से भरे, जेंडर बायस्ड से भरे चुटकुले कैसे हंसा सकते हैं हमें. लेकिन वह फूहड़ दौर फलते-फूलते यहाँ तक आ पंहुचा है कि वाट्स्प फ़ॉरवर्ड में ऐसे चुटकुले, वीडियो, मीम्स भरपूर जगह पाते हैं और लोग इनका जमकर लुत्फ़ लेते हैं. हाँ, सच में. स्त्री विरोधी चुटकुलों को स्त्रियाँ खूब फ़ॉरवर्ड करती हैं.
मैं समझना चाहती हूँ कि दिक्कत कहाँ है. हमारा सेन्स ऑफ ह्यूमर इतना क्रूर क्यों है. इतना फूहड़ क्यों है. ऐसा क्यों है कि स्टैंडअप कॉमेडी जैसी नयी खूब फल-फूल रही इंडस्ट्री जो एक जरूरी दखल भी देती है, राजनैतिक खलीफाओं से पंगा भी लेती है वो भी गालियों को सामान्य मानती है. गालियाँ वही सब की सब स्त्री विरोधी. इसके पीछे तर्क है कि यह तो नॉर्मल है. इस नॉर्मल को स्त्रियाँ भी अपनाने लगीं वो भी स्त्री विरोधी गालियों को ले आयीं व्यवहार में. क्या सच में ऐसा होना था? बात शुचितावादी अप्रोच की नहीं है बात उस हिंसा की है जो उन शब्दों में समाई है जिन्हें हम नॉर्मल तरह से एक्सेप्ट कर रहे हैं.
तो इस नॉर्मल की जड़ तक जाने की कोशिश करते हैं. जाने क्यों समाज की हर छोटी-बड़ी बुराई का हल शिक्षा के करीब नजर आता है. स्कूल के वो दिन याद करती हूँ जब हम खेलते-खेलते या चलते-चलते गिर जाते थे, हम चोट के दर्द से ज्यादा अपमान के दर्द से गुजरते थे. किसी को गिरते देखना हंसने को कैसे जन्म देता है और क्यों इसे कोई रोकता नहीं. कुर्सी खींचकर हटा देना और गिरा देना फिर हँसना. कैसे किसी का शरीर किसी की हंसी की वजह बनता है. मोटा, थुलथुल, गंजा, काला ये सब चुटकुलों का सामान कब और कैसे बना. कैसे बने चुटकुले पति पत्नी वाले जहाँ पति विक्टिम है और पत्नियाँ दुष्ट खलनायिकाएं या मूर्ख.
कपिल शर्मा शो के पास दर्शकों की बड़ी भीड़ है लेकिन वो कैसे हंसाता है, पुरुषों को स्त्री बनाकर उनकी बॉडी शेमिंग करके. सवाल यह नहीं कि वो क्या बेचकर पैसा कमा रहा है सवाल यह है कि हमें जिन बातों पर दुःख होना था, गुस्सा आना था उन पर हंसी क्योंकर आई.
जब ऐसे फूहड़ शो देखकर लोग हंस रहे होते थे तो मैं अचकचा कर उन हंसने वालों के चेहरे देखती थी, इन्हें हंसी क्यों आ रही है, गुस्सा क्यों नहीं आ रहा. फिर लगने लगा शायद मेरा सेन्स ऑफ ह्यूमर कमजोर है. मुझे किसी भी बात पर हंसी नहीं आती.
काफी पहले की बात है एक न्यूज़ चैनल के बड़े ही वरिष्ठ पत्रकार न्यूज़ प्रेजेंट करते हुए धीमे से तब मुस्कुरा दिए जब एक रैप वॉक में मॉल फंक्शनिंग हो गयी. कुछ सेकेण्ड की वो मुस्कुराहट ऐसी चुभी न कलेजे में कि आज तक उनकी तमाम अच्छी बातें, भाषणों से मुतास्सिर न हो सकी. नज़र में चढ़ने के लिए आपको बहुत मेहनत करनी होती है लेकिन नज़र से गिरने का बस एक लम्हा होता है.
हैरत है कि हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ हमें यह सब नहीं दिखता. महसूस नहीं होता. शिक्षा ने सिर्फ आपको ऑफिसर नहीं बनाना था, मोटा पैकेज, अच्छी सुविधाओं की राह नहीं खोलनी थी उसे बताना था कि किसी के गिरने पर हंसना गुनाह है, दौड़कर उसकी मदद करना जरूरत है. हालाँकि दौड़कर मदद करने को भी बाज़ार ने किस तरह मार्कशीट के नम्बरों में तब्दील किया कि मदद से मदद का भाव गुम हो गया, संवेदना क्षरित हो गयी और दौड़ना बचा रह गया. यह एक अलग ही विषय है जिस पर फिर कभी विस्तार से बात होगी. अभी तो सवाल यह है कि किसी के अपमान को हंसी का सामान बनाना तो क्रूरता है न? लेकिन इस खेल में हम सब शामिल हैं. बुरी तरह शामिल हैं.
पिछले दिनों पूरी दुनिया में जोर-शोर से महिला दिवस मनाया गया. हर साल मनाया जाता है. हर साल मेरे मन में यह ख्याल आता है कि काश हम स्त्री विरोधी चुटकुलों पर हंसना और स्त्रियों को निशाना बनाकर दी जाने वाली गालियों का उपयोग बंद कर पाते तो भी बहुत बड़ी राहत होती. लेकिन इस खेल में तो स्त्री पुरुष सब शामिल हैं. आधुनिक और बोल्ड होने के नाम पर स्त्रियाँ भी स्त्री विरोधी भाषा का उपयोग कर रही हैं. क्या हम सच में कुछ देख, समझ पाने की क्षमता विकसित नहीं कर पाए हैं?
फिर तो अभी बहुत लम्बा सफर बाकी है कि इंसानियत की बुनियादी तालीम अभी हमसे दूर है. यह जरूर लगता है कि अगर शिक्षक बिरादरी तनिक सचेत हो पाती इस ओर तो कुछ उम्मीद की जा सकती है. लेकिन हर उम्मीद का बोझ शिक्षकों पर डालना भी कहाँ का न्याय है आखिर वो भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं. क्या सचमुच, इस तर्क के पीछे शिक्षक बिरादरी को छुप जाने की रियायत है या ठहरकर सोचने का वक़्त है कि कैसे इस तरह के व्यवहार की जड़ को ही हटाना होगा. हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान सीखते हुए कब और कैसे व्यवहार को नरम बनाये रखने वाली संवेदना कहीं छूट जाती है. इस तरह का व्यवहार शुरू स्कूल से नहीं होता. इसकी जड़ें, घरों में, परिवारों में, समाज में गहरे धंसी हैं लेकिन शायद स्कूलों में इस तरह के व्यवहार की निराई संभव है. इसके लिए सबसे पहले तो शिक्षक बिरादरी को अपने भीतर जमी खर-पतवार की निराई करनी ही होगी.
मेरी उम्मीद नयी पीढ़ी से सबसे ज्यादा है. बच्चे जब मिसोजिनी को समझ पाते हैं, जब वो टोकते हैं कि यह कोई चुटकुला नहीं है, यह क्रूरता है. कैसे किसी की सेक्सुअलिटी को रिस्पेक्ट देना है, कैसे और कब कोई जजमेंटल हो जाता है. कैसे शिक्षक के उदाहरण इन्सेंसटिव हैं, रेसिस्ट हैं तो लगता है हाँ, यही तो होना था. इसी की जरूरत है. इस पीढ़ी को यह जिम्मा लेना है और हमें भी समझना है कि वो क्या कह रहे हैं, क्यों कह रहे हैं. हमसे चूक कहाँ हो रही है.
समय है बहुत सारा अनलर्न करने का. अपने व्यवहार को उलट-पुलटकर देखने का. यक़ीन मानिए अगर यह प्रक्रिया शुरू हो गयी तो जिन बातों पर अभी हंसी आती है न उन पर रोना आने लगेगा और दुःख होगा कि कितना कम जानते थे हम अब तक.
https://jansandeshtimes.net/view/5542/lucknow-city/
Friday, April 1, 2022
उम्मीद हमेशा बची रहती है
लड़की ने मुठ्ठियों को जोर से भींच रखा था. इस कदर कि अपने ही नाखूनों की चुभन से हथेलियाँ छिलने लगी थीं, खून रिसने लगा था. उसे अपनी हथेलियों में रखी लकीरों से डर लगता था. कितनी ही नदियों में, समन्दरों में उसने चाहा कि इन लकीरों को बहा दे लेकिन वो न बहीं, वहीं रहीं. लड़की का सपनों से ऐतबार उठे जमाना हुआ. वो अब सपने नहीं देखती. बीते दिनों देखे गए सपनों की किरचें बीनने में एक उम्र गुजार चुकने के बाद भी उसकी पोरों के जख्म भरे नहीं हैं अब तक. रिसते रहते हैं.
जब भी कोई प्यार में डूबा जोड़ा देखती लड़की की आँखें सुख से बह निकलतीं. बच्चों के सर पर हाथ फिराते हुए उसे मिलता सुकून. अजनबी चेहरों को मुस्कुराहटों में मुब्तिला देख उसकी सांसें खिल उठतीं. व्यक्ति से समष्टि तक का सफर ऐसे ही शुरू होता हो शायद कि लड़की ने अपने तमाम सपनो को पूरी दुनिया के लिए आज़ाद कर दिया था.
हर बरस की तरह इस बरस भी पूरा शहर मंजरियों की मादक खुशबू में डूबा हुआ था. हर बरस की तरह इस बरस भी बच्चे अपने बस्तों में कॉमिक्स छुपा के स्कूल जा रहे थे और नई किताबों और नई ड्रेस का उत्सव मना रहे थे. हर बरस की तरह इस बरस भी मेहँदी हसन साहब फरहत शहज़ाद के लिखे को आवाज़ दे रहे थे कि कोंपले फिर फूट आयीं...नयी कोंपलों का मौसम खिलखिला रहा था.
लेकिन वो ज़िन्दगी ही क्या जो एक सम पर चले. बरसों पहले मुरझा चुकी सपनों की शाख हरियाने लगी. नयकीनी गज़ब की शै है. अपने तमाम डर हम इस नायकीनी के हवाले करके खुद को बचा लेना चाहते हैं. लेकिन सपनों की शाख पर अंखुआता वो नन्हा सा हरा जैसे मुस्कुरा कर कह रहा हो, उम्मीद हमेशा बची रहती है.
हाँ, उम्मीद हमेशा बची रहती है. फूटती कोंपलों के मौसम के आगे दुनिया के तमाम दुःख, तमाम नाउम्मीदी सजदे में है.
कोई ख़्वाब है जो बरस रहा है...