Friday, April 30, 2021

अपना ख़याल रखना


30 अप्रैल 2021

एक गहरी चुप सी लगी है. कुछ कहते नहीं बनते, कुछ सुनने को दिल नहीं करता. उदास खबरें बीनते बीनते हाथों में फफोले निकल आये हैं. लेकिन इन फफोलों का दर्द नहीं होता. दर्द होता है किसी के दर्द को कम न कर पाने का. कैसी महामारी है ये, ये कैसे बुरे दिन हैं कि चरों तरफ बस मौत बरस रही है. क्या सचमुच लोग वायरस की मार से मर रहे हैं. नहीं, ज्यादा लोग सिस्टम के फेल्यौर से मर रहे हैं. ये मौतें नहीं हैं हत्याएं हैं और हम दुर्भाग्य से इस हत्याकांड के गवाह. क्या हम कुछ नहीं कर सकते? हम कुछ क्यों नहीं कर सकते?

काश रोक पाए होते असमय गए लोगों को. काश गले लगा पाए होते उन सबको जो अपनों से बिछड़ गए. ये काश इतना बड़ा क्यों हो गया. ऐसी बेबसी, ऐसी लाचारी कभी महसूस नहीं की. कभी भी नहीं. एक बार मेरे पड़ोस में रहने वालों ने अपने जवान बेटे को खो दिया था. एक्सीडेंट में. चूंकि वो परिवार हमारे परिवार के काफी करीब था इसलिए वो पारिवारिक क्षति ही थी. इतने बरस हो गए उस बात को आज तक उस बच्चे का मुसुकुराता चेहरा आँखों के आगे घूमता रहता है. इस दौर ने तो न जाने कितने अपनों को. कितने अपनों के अपनों को निगल लिया. दिल इस कदर घबराया रहता है कि अब कोई और खबर न आये, और तब तक दो चार और खबरें तोड़ देती हैं. दिन भर एम्बुलेंस के सायरन की आवाजें दिल की धडकनों को तेज करती रहती हैं.

यह कैसा समय है. क्यों है ऐसा समय. क्या सरकार की फेल्योर दिखती नहीं लोगों को. क्यों नहीं दिखती. कब दिखेगी आखिर. यह नृशंस हत्याकांड है. ठीक है कि इस वक़्त सरकार को कोसने से ज्यादा जरूरी है लोगों की मदद करना, लेकिन यह क्या कि मदद करने वालों के खिलाफ ही कार्रवाई करने लगे सरकार. इसी वक़्त चुनाव भी करवाए सरकार. और हम अभी सरकार को न कोसें.क्यों भला?

सच कहूँ तो समझ में नहीं आ रहा कि मेरे मन में गुस्सा ज्यादा है या दुःख. या दोनों ने मिलकर कुछ नया ही गढ़ लिया है. न जाने कब यह हाहाकार रुकेगा. न जाने कब जिन्दगी सम पर आएगी. ऐसा पहली बार हुआ है कि अब प्यार पर प्यार नहीं आता बस उसकी सुरक्षा का ख्याल आता है. तुम जहाँ रहो सुरक्षित रहो...प्यार का क्या है वो तो अंतिम सांस तक रहेगा ही. वो कब मुलाकातों के भरोसे बैठा था. बस कि सांसें बचाते हुए हम खुद की निर्मिति पर भी ध्यान टिका सकें...काश कि यह ज़िन्दगी किसी के काम आ सके.

तुम अपना ख़याल रखना.

Sunday, April 25, 2021

दुःख


कोई घुटता हुआ दुःख सरक रहा है साँसों में
बाहर निकलने को व्याकुल है दर्द भरी चीख 
जिसकी कोई जगह नहीं अभी बाहर

फफक कर रोने की इच्छा को रौंद दिया है समय ने
कि आँखों में आंसुओं की नहीं
बचे हुओं को बचाने की कोशिशें हैं
भारी होती सांसों पर भारी है
खुद को सहेजने की जिम्मेदारी

खिड़की पर बैठी उदास चिड़िया पूछती है 
क्या सचमुच उम्मीद जैसा होता है कोई शब्द
क्या सचमुच समय के पास होता है 
हर घाव का मरहम है...?

Friday, April 23, 2021

अप्रैल का सीना छलनी है




पेड़ों से पत्तियां नहीं उदासी झर रही है
रिक्त हथेलियों में उतर आया है सूना आसमान
रास्तों की वीरानी टपकती रहती है कोरों से
कि आहटें सिर्फ उदासी की खबर बन आती हैं
'अपना ख्याल रखना' के भीतर
कुंडली मारे बैठी है बेचैनी
अप्रैल का सीना अपनों के दुःख से छलनी है...

Wednesday, April 21, 2021

कविता कारवां के सभी लाइव कार्यक्रम स्थगित



साथियो,

जैसे-जैसे बाहर के हालात ख़राब होते जा रहे हैं मन का मौसम उजड़ता जा रहा है. जब कविता कारवां के पांचवी वर्षगाँठ के अवसर पर सबको साथ लेकर मिल बैठने की सोची थी तब क्या ख़बर थी कि ऐसे मंज़र सामने आयेंगे. इन हालात में कविता कारवां टीम लम्बे समय से उहापोह में थी और आज वह उहापोह ख़त्म हुई. हमने आज से शुरू होने वाले सभी लाइव कार्यक्रमों को फ़िलहाल स्थगित करने का निर्णय लिया है. शायद अभी इस समय हम सबकी भूमिका कहीं और ज़्यादा है. शायद किसी को ऑक्सीजन पहुँचाने, प्लाज़्मा के लिए संपर्क करने, किसी की हिम्मत बढ़ाने के लिए साथ खड़े होने या दो घड़ी उदास लोगों के साथ चुपचाप बैठ जाने की.


जिन भी साथियों ने इन पांच दिन के लाइव के लिए रजिस्ट्रेशन किये, सहमति दी उन सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उम्मीद करते हैं कि हालात सामान्य होने पर हम फिर से कार्यक्रमों के ज़रिये जुड़ रहे होंगे.

आप सब अपना बहुत सारा ख़्याल रखिये. कविता कारवां परिवार इस दुःख और त्रासदी के समय में आपके साथ है.

शुक्रिया!

Monday, April 19, 2021

तुमसे प्यार है



किसी से कहना हो
कि तुमसे प्यार है
तो कह दो
इस मुश्किल वक़्त में
कौन जाने ये शब्द
थाम लें किसी की टूटती साँसों को

अपने होने को उड़ेल दो
दूर बैठे किसी अपने के सीने में
जो अकेले बैठ राह ताके हो
तुम्हारी एक कॉल की

वो जिसका ठीक होना अटका हुआ है
सिर्फ इस इंतजार में कि
कम से कम इन हालात में
शायद तुम किसी रोज पूछोगे
'ठीक हो न?'
उसे ठीक कर सकते हैं तुम्हारे शब्द

अब भी अगर कहने से खुद को बचा ही रहे हो
तो किस दिन के लिए आखिर
अपने प्रिय से सुनना कि 'तुमसे प्यार है'
इस समय की सबसे बड़ी औषधि है.

सब ठीक हो, सब ठीक हों...



रोज खुद को टटोलती, अपनी सांसों की आवाज सुनती, नब्ज पर कान धरकर सुनती मध्धम हलचल. रोज दिल की धड़कनों की आवाज पर ध्यान लगाती. सोचती, ठीक ही तो हूँ एक जरा सी हरारत ही तो है, बस जरा सी खराश ही तो है गले में. ऐसी न जाने कितनी हरारतों को अनदेखा कर दौडते-भागते काम पर मुस्तैदी से जुटी रही हूँ. लेकिन इस बार इसी हरारत ने जान सांसत में डाल रखी थी. टेस्ट के लिए इधर-उधर भटकते हुए, लम्बी लाइन में लगते हुए डर बढ़ना शुरू हुआ कि इस अफरा-तफरी का हिस्सा बनते हुए न हुआ होगा, तो हो जाएगा कोविड. डर के साथ घर वापस लौट आई. अब बुखार पहले से ज्यादा डरा रहा था. चार दिन बाद टेस्ट हुआ और खैरियत यह हुई कि रिपोर्ट उसी दिन आ गयी और रिपोर्ट निगेटिव थी. निगेटिव शब्द ने पहली बार राहत दी. वो चार दिन कैसे गुजरे मैं ही जानती हूँ. मन को बुरे ख्यालों से दूर रखने के जितने उपाय हो सकते थे सब किये कुछ काम न आया. सबसे ज्यादा चिंता बेटू की हुई कि अगर मुझे एडमिट होना पड़ा तो उसका ख्याल कौन रखेगा. कैसे संभालेगी वो खुद को, अकेले.

यह कितना छोटा सा वाकया था. लेकिन इसने मुझे हिला कर रख दिया था. लेकिन उनका क्या जो कोविड की चपेट में आ गए हैं, परिवार के परिवार जूझ रहे हैं, कुछ निकल आये हैं कुछ जूझ रहे हैं. चारों तरफ तबाही का मंजर है. जैसे मौत बरस रही है. एक परिवार की तीन बच्चियां जिन्होंने कुछ ही समय पहले एक सडक हादसे में पिता को खोया था अब माँ को खो दिया. कोविड का यह कहर उन मासूम बच्चियों के जीवन पर हमेशा के लिए चस्पा हो गया. हर रोज न जाने कितने जानने वालों के गुजर जाने की खबरों के बीच रोज के काम निपटाते हुए सोचती हूँ जो गुजर गये उनका दोष क्या था आखिर. उन्हें सचमुच वायरस ने मारा या अव्यवस्था ने?

शब्द निष्प्राण हैं, यह भी कहते नहीं बनता कि सब ठीक हो जायेगा...हालाँकि दिल इसी दुआ से भरा है कि सब ठीक हो जाए, सब ठीक हो जायें. लेकिन सब ठीक कहाँ होता है. जो गुजर गए उनके परिवार क्या इस सब ठीक को कभी भी महसूस कर पायेंगे. कितनी ही हिम्मत कितना ही धैर्य सब कम पड़ रहा है. होंठ बुदबुदा रहे हैं...सब ठीक हो, सब ठीक हों...

Wednesday, April 14, 2021

'अब ऐसा कुछ नहीं होता' का सच


क्या आपने अपनी नंगी पीठ पर खाए हैं 
अपनी जाति के कारण पड़ने वाले चाबुक 
क्या आपके बच्चे सोये हैं कई रातों तक 
भूख से बिलबिलाते हुए 
क्या आपकी पीढियां गुजरी हैं उस दर्द से 
जो सिर्फ झूठन पर जिन्दगी गुजारने से जन्मता है 
और उसे उन्हें उम्र भर सहना पड़ता है

क्या आपके कुल खानदान में से कभी कोई उतरा है 
गटर की सफाई के लिए और गंवाई है जान 
क्या अपने अस्तित्त्व को गाली की तरह
इस्तेमाल होने का स्वाद चखा है आपने  
क्या आपको कहानियां लगती हैं 
दलितों पर अत्याचार की घटनाएँ 

क्या आप समझते हैं कि दिन में एक बार 
चावल का माड़ पीकर सोने वाले बच्चे 
और सुविधाओं से घिरे आपके 
शहजादे की परवरिश एक सी है 
क्या सचमुच आपको कोई फर्क महसूस नहीं होता 
भूखे पेट ढिबरी में पढने 
और भरपेट खाने और चार ट्यूशन से पढने में 

क्या आपकी नसें तनी हैं कभी दलित स्त्रियों से बलात्कार की खबरों से 
या मान लिया है आपने कि उनका जन्म ही हुआ है इसके लिए 
क्या आपको लगता है कि 'हमने तो नहीं देखी बराबरी' कहकर 
समय और समाज की बड़ी हकीकत को झुठला सकते हैं आप 
क्या आपको सचमुच नहीं पता कि 
बिना सम्मान के पीढ़ी दर पीढ़ी जीते जाना कितना पीड़ाजनक होता है 
जाति के कारण कुँए के सामने प्यास से दम तोड़ते लोगों के बारे में जानना 
क्या आपको किसी काल्पनिक उपन्यास का कोई पन्ना लगता है 

क्या नहीं पसीजता आपका दिल 
नन्हे के एक वक्त के दूध की खातिर 
देह को बिछाने की पीड़ा सहती स्त्री के बारे में जानकर 

तो देवियों और सज्जनों, 
अपने गले की नसें टूटकर बिखर जाने की सीमा तक 
चीखते हुए कहना चाहती हूँ कि 
आप मुगालतों की दुनिया में हैं 
क्योंकि यह सब होता है आज भी, अब भी 
यहीं कहीं आपके बहुत पास 
न जाने कितनी सिसकियाँ होंगी 
जो आपने सुनी नहीं 
दृश्य जो आपने देखे नहीं 

कृपया अपने मुगालतों की दुनिया से बाहर निकलिए 
उतारिये कुछ देर को जाति की उच्चता की 
वह आलीशान पोशाक जो जन्म के साथ ही 
आपके लिए तमाम सुविधा समेत आपको पहना दी गई है 

कल्पना कीजिये न सिर्फ एक बार वह सब जीने की 
जिसके होने को नकार रहे हैं आप 
और अगर नहीं कर सकते ऐसा 
तो कृपया बंद करिए फरमान देना 
कि 'अब ऐसा कुछ नहीं होता' 
क्योंकि होता तो अब भी सब कुछ ऐसा ही है 
बल्कि कुछ ज्यादा ही शातिर ढंग से.

(बाबा साहब की जयंती और उदास मन) 

Monday, April 12, 2021

‘नो टू सेक्स फॉर वाटर’



- प्रतिभा कटियार
(समकालीन जनमत में प्रकाशित लेख)

मेरे घर के ठीक सामने एक कुआँ था. कुआँ अपनी सामन्य भव्यता के साथ मुस्कुराता था. यानी वो पक्का कुआँ था. उसकी जगत पक्की थी, मुंडेर उठी थी और पानी खींचने की गडारी (पहियेनुमा चकरी जिसमें रस्सी डालकर पानी खींचना आसान होता था.) थी. वो कुआं मुझे आज क्यों याद आ रहा है, यह बाद में बताऊंगी अभी यह बताने का मन है कि कुँए की बाबत क्या-क्या याद आ रहा है.

जैसे उस कुँए से पानी लेने जाने के वक़्त घर के भीतर स्त्रियों की चहल-पहल, सजना-संवरना, कुँए पर स्त्रियों की हंसी-ठिठोली, कुँए के किसी कोने पर अपने सुख दुःख साझा करती स्त्रियाँ.

ज्यादातर ब्याहता महिलाएं लम्बे घूँघट में होती थीं और कुंवारियां अपने कुंवारेपन की ठसक में. घर कैद की दीवारों से मुक्ति जैसा था कुँए से पानी भरने जाना या नहर पर कपड़े धोने जाना.

इस कुँए की बाबत दूसरी बात याद आती है कि सुबह की पानी भरने की पाली खत्म होने के बाद पुरुषों का कुँए पर आकर नहाना. वैसे ही जैसे वो आज भी कहीं भी कैसे भी नहाने के लिए आज़ाद मानते हैं खुद को. नहाते हुए बेडौल पुरुषों को देख स्त्रियों की खुसुर-फुसुर और मसखरी भी शामिल होती ही थी.

कुँए को लेकर एक याद और है कि शादी के वक्त (लडके की शादी) लड़के की माँ कुँए में एक पैर लटकाकर बैठती थी और तब लड़का उसे मनाता था और तब बरात जाती थी. यह ब्याह की एक रस्म थी. कहा जाता है कि लड़के की माँ बेटे से कहती थी कि वो वादा करे कि बहू आने के बाद भी वो उसकी बात मानेगा तब बारात जाने देगी वो वरना कुँए में कूद जायेगी. लड़का माँ को वादा करता था और बारात लेकर बहू यानी आज्ञाकारी स्त्री जो घर के काम संभाले, माँ बाप की सेवा करे और पति की इच्छाएं पूरे करे को ब्याह लाता था.

फिर वो स्त्री इसी कुँए से पानी भरने आती और सखियों से अगर वो बनी हैं तो अपने मन की पीर कहती वरना घूँघट में सिसकते हुए पानी भरकर मटके पर मटके रखकर घर को पानी से भर देती. हालाँकि उसकी आँखों के पानी को कोई नहीं देखता.

स्त्रियों का पानी से गहरा नाता है. ये स्मृतियाँ मेरे बचपन की हैं. मैदानी इलाके के गाँव की. ऐसी ही मिलती-जुलती छवियाँ राजस्थान, पहाड़ों की भी हैं जहाँ स्त्रियाँ पानी भरने के लिए न जाने कितना मुश्किल और लम्बा सफर तय करती हैं. स्त्रियाँ बीमार हों, गर्भवती हों किसी भी हाल में पानी उन्हें ही भरना होता था. जब मैं ‘था’ लिख रही हूँ तो बहुत उदास हूँ क्योंकि जानती हूँ अब भी यह कई जगहों पर ‘है’ ही है. इसे ‘था’ बनने में न जाने कितना समय लगेगा अभी.

अब आती हूँ उस बात पर जिसकी वजह से वो कुआँ मेरी स्मृतियों से निकलकर बाहर आ गया. मैंने कल रात एक हॉलीवुड फिल्म देखी The Source. 2011 में रिलीज हुई यह फिल्म उत्तरी अफ्रीका के एक ऐसे गाँव की कहानी है जहाँ पानी और बिजली जैसी जरूरी चीज़ें नहीं हैं. वह सूखे पहाड़ों वाला कोई गाँव है वो और वहां दूर एक पानी का सोता है जहाँ से स्त्रियों को पानी भरकर लाना होता है. स्त्रियाँ सदियों से इस काम को एक परम्परा की तरह निभा रही हैं. इस परम्परा को निभाते हुए न जाने कितनी स्त्रियाँ पानी भरकर लौटते हुए गिरकर मर गयीं, कितनी स्त्रियों के बच्चे उनके गिरने से गर्भपात के कारण मर गए, नौवें महीने की प्रसूताओं को भी कोई रियायत नहीं थी वो भी डंडे में दोनों छोर पर बाल्टियाँ लटकाकर घर में पानी लाती थीं. जबकि ठीक उस वक्त गांव के मर्द शराब पी रहे होते, बैठकी में गपशप कर रहे होते या कुछ और मनोरंजक काम कर रहे होते थे.

लडकियों को पढ़ाना नहीं चाहिए, उनका दिमाग बेकाबू हो जायेगा फिर वो धर्म की बात मानने से इंकार कर देंगी, स्त्रियों का काम है मर्दों की बात मानना और उनकी सेवा करना, पुरुषों की हुक्म उदूली धर्म के खिलाफ है जैसी बातों को गाँठ में बांधे ये स्त्रियाँ एक यातना शिविर से जीवन में जीने को अभिशप्त थीं और इसे ही नियति माने जिए जा रही थीं. 18, 20, 16 , 12 बच्चे पैदा करने वाली स्त्रियों ने कुछ ही जीवित संतानों को गले लगाया. ज्यादातर संतानें यातना शिविरों में जन्म लेने से पहले ही मर गयीं या कुछ जन्म लेने के बाद.

कहानी तब शुरू होती है जब एक रोज लैला नामक युवा स्त्री जो गाँव की बहू है और थोड़ी पढ़ी-लिखी भी है स्त्रियों से कहती है पानी लाना हमारा ही काम क्यों? तर्क मिलता है क्योंकि पानी घर के कामों में खर्च होता है इसलिए यह स्त्रियों को ही लाना चाहिए क्योंकि घर के काम स्त्रियों को ही करने चाहिए ऐसा धर्म की किताब में लिखा है. धर्म की वो किताब जिसे कोई स्त्री पढ़ नहीं सकती. लैला ने धर्म की किताबें भी पढ़ी हैं और बेहतर जिन्दगी का सपना भी देखा है. वो गाँव में पानी लाने के लिए गाँव की स्त्रियों को एक अजीब सी हड़ताल करने का आवाहन करती है. हड़ताल ये कि सभी स्त्रियाँ पुरुषों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने बंद कर दें. कब तक? जब तक गाँव में पानी न आ जाए.

जैसा कि हमेशा से होता है ज्यादातर स्त्रियों ने इस बात का मजाक उड़ाया और पानी लाने के काम को अपना धर्म बताया. लेकिन धीरे-धीरे स्त्रियों को बात कुछ-कुछ समझ में आने लगी और उन्होंने हड़ताल शुरू कर दी. वो रात में पुरुषों से मार खातीं, दिन भर काम करतीं लेकिन उन्होंने सम्बन्ध बनाने नहीं दिए. सुनने में लगता है क्या यह इतनी बड़ी बात थी? लेकिन थी. क्योंकि गाँव के पुरुष असुरक्षित हो रहे थे, उनकी स्त्रियों ने पहली बार उन्हें इंकार किया था. स्त्रियों पर धर्म का दबाव डाला गया लेकिन लैला ने धर्म की किताबें पढ़ी थीं जिसमें स्त्री और पुरुष की बराबरी की सम्मान की बात लिखी थी स्त्री को पुरुष का गुलाम नहीं कहा गया था.

बहरहाल, इस अनोखी हड़ताल ने उस गाँव में तो पानी ला ही दिया मेरी आँखों में भी पानी भर आया. दुनिया के किसी भी कोने में स्त्रियाँ सिर्फ सह ही रही हैं. दुनिया के हर कोने में स्त्री को गुलाम बनाकर रखने की फितरत क्यों परवान पर है. और प्यार का मतलब सेक्स ही समझकर उस पर धर्म का लबादा उढ़ाकर स्त्रियों को सहेजने को क्यों दे दिया गया है आखिर. शहरी खुद को पढ़ी-लिखी समझने वाली एक बड़ी आबादी को यह बात अजीब लग सकती है कि इसी हिन्दुस्तान में अब भी न जाने कितनी स्त्रियाँ जिन पतियों के बच्चे पैदा करती हैं उनकी शक्लें उन्होंने कई बरस बाद देखीं, और इसे प्रेम का नाम दिया गया.

बहुत सारी लैलायें चाहिए जो अपनी बात को समूचे गाँव की समुदाय की आवाज बना दें. और ऐसा करने का यह अर्थ भी नहीं कि वो पुरुषों से नफरत करती हैं. नहीं, बल्कि वो खुद को भी थोड़ा सा प्यार करना चाहती हैं, खुद को भी इन्सान की तरह जीते हुए देखना चाहती हैं गुलाम की तरह नहीं. बस इतना ही सा तो ख्वाब है…वह भी क्यों चुभ रहा है.

इस फिल्म में पानी के बहाने स्त्रियों के तमाम मुद्दों पर बात हुई है. मसलन तन ढंकने का अधिकार. गरीब औरतों को तन ढंकने का अधिकार नहीं होता था. जिसे देखते हुए मुझे याद आई हिंदुस्तान की नंगेली जिसने निचली जाति की स्त्रियों के तन ढंकने के अधिकार के लिए अपने स्तन काट दिए थे.

स्त्रियों की गुलामी की जड़ें इतनी गहरी हैं कि आँखें भर आती हैं. तब और जब उन्हीं परम्पराओं का पोषण करने वाली कुछ स्त्रियाँ इतराते हुए उन परम्पराओं पर ‘माय च्वायस’ का लेबल लगाती हैं. क्या वो सच में नहीं जानतीं कि वे उन परम्पराओं पर ‘माय च्वायस’ का लेबल लगा रही हैं जिन परम्पराओं को तोड़ने को स्त्रियों ने जानें दी हैं, और उन्हें निभाते हुए भी जाने गंवाई हैं.

यह फिल्म स्त्री विमर्श की कई लेयर्स पर तो बात करती ही है साथ ही पुरुषों से भी संवाद करती है कि सेक्स ऑब्जेक्ट भर नहीं हैं स्त्रियाँ उन्हें भी इन्सान की तरह जीने का हक है और सेक्स प्यार नहीं होता. प्यार, प्यार ही होता है.

(समीक्षक प्रतिभा कटियार, लखनऊ में जन्मी, पली-बढ़ी. राजनीति शास्त्र में एम ए, एलएलबी, पत्रकारिता में डिप्लोमा. 12 वर्षों तक प्रिंट मीडिया में पत्रकारिता. कहानियाँ और कविताएँ कई पत्रिकाओं और हिंदी अखबारों में प्रकाशित. व्यंग्य संग्रह ‘खूब कही’ और मैत्रेयी पुष्पा के साक्षात्कारों पर आधारित पुस्तक ‘चर्चा हमारा’ का संपादन. रूसी कवियत्री मारीना त्स्वेतायेवा की जीवनी प्रकाशित. इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन देहरादून में कार्यरत.

सम्पर्क: kpratibha.katiyar@gmail.com)

https://samkaleenjanmat.in/review-of-the-film-the-source-by-pratibha-katiyar/

Sunday, April 11, 2021

'सिर्फ मेरे प्रेम पर ही सवाल क्यों?'- मारीना


 कल रात मारीना फिर आई. मुझे मालूम था वो आएगी. हम देर तक बात करते रहे. हालाँकि वो खामोश थी. लेकिन अब हम दोनों ने शब्दहीनता में संवाद करना सीख लिया है. मैंने उसकी कलाई अपने हाथ में लेते हुए पूछा, 'उदास हो?' वो चुप रही. सवाल तो होना चाहिए था 'खुश हो?' कि मारीना के जीवन और जिजीविषा के नाम एक पूरी शाम जो थी. कितना प्रेम मिल रहा था. वही प्रेम जिसके लिए वो जीवन भर तरसती भी रही और वही जिसमें वो जीवन भर निमग्न भी रही. उसकी ख़ामोशी की मुझे आदत है. मैंने कहा कॉफ़ी पियोगी? उसने हाँ कहा. 

मैं उसे पीले फूलों वाले बागीचे में छोड़कर कॉफ़ी बनाने गयी. कॉफ़ी बनाते वक़्त असल में मैंने अपने भीतर भी कोई उदास धुन को गलते हुए महसूस किया. क्यों है यह उदासी. जबकि मन तो ख़ुशी से भरा होना चाहिए था. मारीना की इतने सारे नये लोगों से दोस्ती हुई कल. इतना प्यार मिला उसे भी, मुझे भी. शायद हर सुख के अन्तस में कोई दुःख का केंद्र है. वही होगा उदासी की वजह. मैंने अक्सर बेहद खुश होने के अवसरों पर एक उदासी तारी होती महसूस की है. लेकिन इस दफे यह तनिक लग उदासी थी. 

मैं उसके आगे कॉफ़ी का मग बढ़ाते हुए कहती हूँ 'प्रेम' 

उसकी निगाहों में नजर आता है प्रेम. 

'जानती हूँ तुम्हारी उदासी की वजह' मैं उससे कहती हूँ. शायद यही वह मुझसे भी कहती है. 

'क्या मेरा जीवन सिर्फ मेरे प्रेम और मेरे रिश्तों के लिए ही जाना जायेगा? या उन दुखों के लिए जो मैंने सहे? या उस मृत्यु के लिए जिसे मुझे चुनना पड़ा? मैं अपनी रचनाओं के लिए भी जाने जाना चाहती हूँ.' उसकी पलकें नम थीं और कॉफ़ी का मग थामे वो दूर निगाहें टिकाये थी. 

कह देने से मन हल्का होता है. उसके कह देने से मेरा मन हल्का हो आया था. रूई सा हल्का. प्रेम अगर स्त्री का  हो, कई प्रेम तो उसकी तमाम प्रतिभाओं के बावजूद जब भी उस पर बात होती है केंद्र में उसके प्रेम ही जाने क्यों आ जाते हैं. मैं उसके कंधे पर हाथ रखकर कहती हूँ, 'दोस्त सौ बरसों का फासला गुजरा जरूर है लेकिन बहुत कुछ बदला नहीं है अभी भी. इसलिए नाराज न हो, उदास न हो कॉफ़ी पियो. कि तुम इस बाबत मुझे पहले ही बता चुकी हो प्रेम बाहर की नहीं भीतर की यात्रा है. कितने प्रेम नहीं कितना प्रेम, कितनी सघन यात्रा. प्रेम के सफर में आने वाले व्यक्तियों को गिने बिना अवसाद की,अधूरेपन की उस यात्रा को देख पाने का शऊर अभी सीखना है दुनिया को. कि जब हम लिबरल होकर कहते हैं न कि हमें उसके तमाम रिश्तों से आज़ाद ख्याली से कोई परेशानी नहीं तब भी कहीं होती है परेशानी.' 

'मैं प्रेम से भरी थी...'  वो कुछ कहने को हुई. 

'रुक जाओ कुछ न कहो.' मैं उसे रोक देती हूँ. 

'जस्टिफिकेशन कोई नहीं दोस्त. किसी को मत दो. लोगों को उनकी समझ के साथ छोड़ते हैं. उन्हें अभी परिपक्व होने में समय लगेगा. हम कॉफ़ी पीते हैं. '

'बस एक सवाल?' मारीना की उदासी आसपास भटकने लगी थी. 

'बस एक?' मैं हंसकर यूँ कहती हूँ जैसे मुझे तो सवालों के जवाब आते ही हैं. जैसे कि मैं तो बुध्धू हूँ ही नहीं. 

'क्या अगर मारीना पुरुष होती तो भी ये सवाल ऐसे ही होते, क्या तब भी समूची रचनात्मकता को उसके तमाम रिश्तों और प्रेम पर केन्द्रित कर सीमित कर दिया जाता?' 

मैं हंस देती हूँ. यह सवाल समूची आदमजात से है. उन सबसे जो एक स्त्री को जज करने के अपने भोथरे हथियारों के साथ सदियों से खड़े रहते हैं. न जाने साहित्यकार, कलाकार हैं दुनिया भर में जहाँ एकाधिक प्रेम के किस्से सहजता से स्वीकारे गए लेकिन एक स्त्री...उसकी रचनात्मकता के आगे उसके चरित्र का विश्लेष्ण खड़ा कर सारा विमर्श समेट दिया जाता है. चाहे उसके संघर्ष हों, उसकी सफलता या उसका जीवन.

'छोड़ो न ये सब, तुमने जीवन भर जिन बातों की परवाह नहीं की तो अब क्यों?'

'परवाह नहीं कर रही दोस्त उदास हूँ इतने बरसों के बाद भी स्त्री को देखने का नजरिया जरा भी नहीं बदला.'

मैं और मारीना कल शाम की तस्वीरों में खुद को तलाशने लगती हैं. कुछ मुस्कुराहटें हमारा हासिल हैं,  

एक कारवां मोहब्बत का





- प्रतिभा कटियार
सोचती हूँ तो पुलक सी महसूस होती है कि पांच बरस हो गये एक ख़्वाब को हकीक़त में ढलते हुए देखते. पांच बरस हो गए उस छोटी सी शुरुआत को जिसने देहरादून में पहली बैठक के रूप में आकार लिया था और अब देश भर को अपनेपन की ख़ुशबू में समेट लिया है उस पहल ने. एक झुरझुरी सी महसूस होती है. आँखें स्नेह से पिघलने को व्याकुल हो उठती हैं. फिर दोस्त कहते हैं कि सपना नहीं है यह, सच है.

आँखें खुली हुई हैं और प्रेम चारों तरफ बिखरा हुआ है. कविताओं के प्रति प्रेम. पाठकीय यात्रा के रूप में शुरू हुआ यह सिलसिला असल में अपने मक़सद में कामयाब हुआ. मकसद क्या था सिवाय अपनी पसंद की कविताओं की साझेदारी के साथ एक-दूसरे की पसंद को अप्रिशियेट करने के. अपने जाने हुए को विस्तार देने के और लपक कर ढूँढने लग जाना उन कविताओं और कवियों को जिन्हें अब तक जाना नहीं था हमने.

शुरुआत हुई तो नाम था 'क से कविता'. फिर तकनीकी कारणों से नाम हो गया 'कविता कारवां'. जब तकनीकी कारणों से नाम में बदलाव करना पड़ा तो मन में एक कचोट तो हुई कि उस नाम से भी तो मोह हो ही गया था लेकिन यहीं जीवन का एक और पाठ पढ़ना था. मोह नाम से नहीं काम से रखने का.

अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं को एक-दूसरे से साझा करने की यह कोई नयी या अनोखी पहल नहीं थी. ऐसा पहले भी लोग करते रहे हैं अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने शहरों में साहित्यिक समूहों में. कविता कारवां की ही एक सालाना बैठक में नरेश सक्सेना जी ने कहा था कि बीस-पचीस साल पहले ऐसा सिलसिला शुरू किया था उन्होंने भी जिसमें कवि एक अपनी कविता पढ़ते थे और एक अपनी पसंद की. तो ‘कविता कारवां’ ने नया क्या किया. नया यह किया कि इस सिलसिले को निरन्तरता दी. बिना रुके ‘कविता कारवां’ की बैठकें चलती रहीं. उत्तराखंड में ही करीब 22 जगहों पर हर महीने कविता प्रेमी एक जगह मिलते और अपनी पसंद की कविता पढ़ते रहे. कुछ बैठकें मुम्बई में हुईं, कुछ लखनऊ में और दिल्ली में निशस्त दिल्ली के नाम से यह सिलसिला लगातार चल रहा है.

'कविता कारवां' के बारे में सोचती हूँ तो तीन बातें मुझे इसकी यूनीक लगती हैं जिसकी वजह से इसकी पहचान अलग रूप में बनी है. पहली है इसे पाठकों की साझेदारी के ठीहे के तौर पर देखना जिसमें कॉलेज के युवा छात्र, गृहिणी, स्कूल के बच्चे, डाक्टर, इंजीनियर बिजनेसमैन सब शामिल हुए कवि कथाकार पत्रकार भी शामिल हुए लेकिन पाठक के रूप में ही. कितने ही लोगों ने अपने भीतर अब तक छुपकर रह रहे कविता प्रेम को इन बैठकों में पहचाना और पहली बार यहाँ अपनी पसंद की कविता पढ़ी. दूसरी बात जो इसे विशेष बनाती है वो है बिना ताम-झाम और बिना औपचारिकता वाली बैठकों की निरन्तरता. कोई दीप प्रज्ज्वलन नहीं, कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं बल्कि सब मुख्य अतिथि, सब विशेष अतिथि. और तीसरी और अंतिम बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसके चलते पहली दोनों बातें भी हो सकीं वो यह कि ‘कविता कारवां’ की एक भी बैठक में शामिल व्यक्ति इसके आयोजक मंडल में स्वतः शामिल हो जाता है. ज्यादातर साथी जो किसी न किसी बैठक में शामिल हुए थे अब इसकी कमान संभाले हुए हैं पूरी जिम्मेदारी से.

इस सफर का हासिल है ढेर सारे नए कवियों और कविताओं से पहचान होना और एक-दूसरे को जानना. आज पूरे उत्तराखंड और दिल्ली लखनऊ व मुम्बई में कविता कारवां की टीम काम कर रही हैं. हम सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं. एक-दूसरे से मिले नहीं फिर भी पूरे हक से लड़ते हैं, झगड़ते हैं और मिलकर काम करते हैं. एक बड़ा सा परिवार है 'कविता कारवां' का जिसे स्नेह के सूत्र ने बाँध रखा है. वरना कौन निकालता है घर और दफ्तर के कामों, जीवन की आपाधापियों में से इतना समय. और क्यों भला जबकि अपनी पहचान और अपनी कविता को मंच मिलने का लालच तक न हो.

अक्सर लोग पूछते हैं कविता कारवां की टीम इसे करती कैसे है? कितने लोग हैं टीम में? खर्च कैसे निकलता है? तो हमारा एक ही जवाब होता है हमारी टीम में हजारों लोग हैं वो सब जो एक भी बैठक में शामिल हुए या इस विचार से प्यार करते हैं और हम इसे करते हैं दिल से. जब किसी काम में दिल लगने लग जाए फिर वो काम कहाँ रहता है. हम इसे काम की तरह नहीं करते, प्यार की तरह जीते हैं.

इस सफर में कई अवरोध आये, कुछ लोग नाराज भी हुए कुछ छोड़कर चले भी गए लेकिन 'कविता कारवां' उन सबसे अब भी जुड़ा है उन सबका शुक्रगुजार है कि उनसे भी हमने कितना कुछ सीखा है. हमें साथ चलना सीखना था, वही सीख रहे हैं. साथ चलने के सुख का नाम है 'कविता कारवां', कविताओं से प्रेम का नाम है 'कविता कारवां',

अपने 'मैं' से तनिक दूर खिसककर बैठने का नाम है 'कविता कारवां.'

हम पांचवी सालगिरह से बस कुछ कदम की दूरी पर हैं. उम्मीद है यह कारवां और बढ़ेगा...चलता रहेगा...नए साथी इसकी कमान सँभालते रहेंगे और दूसरे नए साथियों को थमाते रहेंगे... यह तमाम वर्गों में बंटी, तमाम तरह की असहिष्णुता से जूझ रही दुनिया को तनिक बेहतर तनिक ज्यादा मानवीय, संवेदनशील बनाने का सफर है जिसमें कविताओं की ऊर्जा हमारा ईंधन है

Wednesday, April 7, 2021

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो

-कृष्ण बिहारी नूर 

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रस्ता ही नहीं

सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूट की कोई इंतिहा ही नहीं

ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

जिस के कारन फ़साद होते हैं
उस का कोई अता-पता ही नहीं

कैसे अवतार कैसे पैग़मबर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आईना झूट बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं.

Monday, April 5, 2021

वो न समझा है, न समझेगा...


सुबह में ढेर सारी रात अब तक घुली हुई है. शुष्क मौसम सुर्ख लिबास में दाखिल हुआ है. उसकी हथेलियों पर इन्द्रधनुष खिला हुआ है. जैसे फूलों में कोई होड़ हो खिलने की. रास्तों से गुजरते हुए मालूम होता है जैसे किसी ड्रीम सीक्वेंस में हों, पीले, गुलाबी, लाल फूलों से पटे पड़े रास्ते हवा के झोंकों के साथ उड़कर काधों पर आ बैठते हैं....हाँ हाँ...रास्ते फूलों के साथ एक अलग ही ठसक लिए.

भीतर का मौसम भी बदल रहा है. न जाने कितने पत्ते मन की शाखों से मुक्त हुए. अभी नयी कोपलों के फूटने की आहट तो कोई नहीं लेकिन कोई उदासी भी नहीं. भीतर कुछ बदलता हुआ महसूस कर रही हूँ. जिन चीज़ों को देख पगलाया करती थी अब सिर्फ मुस्कुरा देती हूँ. जिन बातों पर हफ़्तों सुबकना जारी रहता था अब उन बातों पर भी मुस्कुरा देती हूँ.

सुबह पंछियों की आवाजों पर कान टिकाये हुए चाय पीना मध्धम आंच पर पकता सुख है. इंतजार कोई नहीं... फरहत शहजाद गुनगुना रहे हैं...

वो न समझा है, न समझेगा, मगर कहना उसे...

(इश्क शहर, मॉर्निंग राग)

Saturday, April 3, 2021

उम्रदराज लोगों का प्यार


बसंत के दिनों में
टहनियों को जोर से पकडे हुए पत्तों सा होता है
उम्रदराज लोगों का प्यार
संजीदा होता है जबकि
बेकरार होता है शरारती हो जाने को.

दुनिया भर की नसीहतों को जी चुका
उम्रदराज लोगों का प्यार
हर सांस सलीके से जीने
हर लम्हे को मजबूती से थाम लेने को उत्सुक होता है,

युवा प्रेमियों को देख मुस्कुराते हुए
ज़िंदगी से और सटकर बैठा होता है
बारिश में भीगने से
निमोनिया हो जाने से, डरता नहीं 
बस कि एक-दूसरे का साथ छूटने से डरता है
उम्रदराज लोगों का प्यार.

योगा क्लासेज हों, जॉगिंग ट्रैक, दवा की दुकानें, अस्पताल
या किसी की मातमपुर्सी की बैठक
इनकी निगाहें एक-दूसरे को कभी भी कहीं भी ढूंढ लेती हैं
और दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं

मधुमेह, रक्तचाप, थायरायड, घुटनों के दर्द के बीच
शाम को साथ में टहलने के लिए
वे चुनते हैं सबसे सुंदर और सलीकेदार लिबास
उन्हें आता है नफासत से पेश आना,

वो जान चुके हैं किसी को खोने का दुःख
इसलिए डरते हुए बढ़ाते हैं कदम एक-दूसरे की और
एक ही कॉटन कैंडी में ढूंढ लेते हैं
तमाम पीले लम्हों की रंगत.

झुर्रियों में सपने तलाशने की कला 
सीख लेता है उम्रदराज लोगों का प्यार.