Sunday, December 31, 2023

जग दर्शन का मेला


इस बरस की अंतिम सुबह चाय के साथ पहली लाइन पढ़ी, 'जब चाँद को पहली बार देखा तो लगा यही है वह, जिससे अपने मन की बात कह सकती हूँ।' एक सलोनी सी मुस्कान तैर गयी। पहली चाय के साथ जिस पंक्ति का हाथ थाम एक सफर पर निकली थी शाम की चाय तक उस सफर की खुमारी पर चढ़े रंग साथ हैं।

इस बरस....
उसने मुझसे पूछा, 'क्या चाहती हो?'
मैंने कहा, 'मौत सी बेपरवाह ज़िंदगी।' 
उसने वाक्य में से मौत हटा दिया और हथेली बेपरवाह ज़िंदगी की इबारत लिखने लगा। लकीरों से खाली मेरी हथेलियाँ उसे बेहद पसंद हैं कि इनमें नयी लकीरें उकेरना आसान जो है। 
एक रोज मैंने कहा 'आसमान' तो समूचा आसमान मेरी मुट्ठी में था, फिर एक रोज समंदर की ख़्वाहिश पर न जाने कितने समंदर उग आए कदमों तले। 
जाते बरस से हाथ छुड़ाते हुए मैंने उसकी आँखों में देखा, उसके जाने में आना दिखा। रह जाना दिखा। 
जाने में यह सौंदर्य उगा पाना आसान कहाँ। 

इस बरस ...
मैंने अधूरेपन को प्यार करना सीखा। ढेर सारे अधूरे काम अब मुझे दिक नहीं करते। आधी पढ़ी किताबें, आधी देखी फिल्में, अधूरी छूटी बात, मुलाक़ात। इस अधूरेपन में पूरे होने की जो संभावना है वह लुभाती है। सिरहाने आधी पढ़ी किताबों का ढेर मुस्कुरा रहा है। मैं जानती हूँ इनके पढे जाने का सुख बस लम्हा भर की दूरी पर है लेकिन मन के खाली कैनवास पर कुछ लिखने का मन नहीं। तो इस खाली कैनवास को देखती रहती हूँ। कितना सुंदर है यह खाली होना। 

इस बरस...
कुछ था जो अंगुल भर दूर था और दूर ही रहा, कुछ था जो सात समंदर पार था लेकिन पास ही था। कि इस बरस उलझी हुई स्मृति को सुलझाया, कड़वाहट दूर हुई और वह स्मृति मधुर हुई, महकने लगी। जिस लम्हे में हम जी रहे हैं वो आने वाले पल की स्मृति ही तो है। इस लम्हे को मिसरी सा मीठा बना लें या कसैला यह सोचना भी था और सीखना भी। 

इस बरस...
अपने में ही मगन होना सीखा कुछ, बेपरवाही को थामना और जीना सीखा कुछ, सपनों को थामना उन्हें गले लगाना सीखा। किया कुछ भी नहीं इस बरस, न पढ़ा, न लिखा ज्यादा न जाने कैसे फ़ितूर को ओढ़े बस इस शहर से उस शहर डोलती रही। खुश रही। 
खुश होने की बात कहते कहते आँखें नम हो आई हैं। तमाम उदासियाँ सर झुकाये आसपास चहलकदमी करती रहीं। दुनिया के किसी भी कोने में कोई उदास है तो वह खुश होने और खुश दिखने की उज्ज्वल इच्छा पर स्याह छींटा ही तो है। 

चलते चलते- 
वो जो जा रहा है अपना समस्त जिया हुआ हथेलियों पर रखकर उसके पस कृतज्ञ होना है और वो जो आ रहा है नन्हे कदमों से हौले-हौले उसके कंधों पर कोई बोझ नहीं रखना है बस कि जीना है हर लम्हा ज़िंदगी को रूई के फाहे सा हल्का बनाते हुए...वरना कौन नहीं जानता कि एक रोज उड़ जाएगा हंस अकेला...

Sunday, December 24, 2023

इस बरस की खर्ची


इस बरस को पलटकर देखने को पलकें मूँदती हूँ तो आँखों के किनारे कुछ बूंदें चली आती हैं। इन बूंदों में एक कहानी छुपी है। एक नन्ही सी भोली सी कहानी। पलकें खोलने का जी नहीं करता कि बंद पलकों के भीतर एक प्यारी सी बच्ची को छाती से लगाए हुए का एक दृश्य है। पलकें खुलते ही ज़िंदगी की तीखी धूप पसर जाती है। सर्दियों वाली धूप नहीं जेठ के महीने वाली धूप।

किस्सा एक स्कूल का है। एक बच्ची थी प्यारी सी। बहुत सारे बच्चों के बीच। हँसती, खिलखिलाती, मुसकुराती। मैंने सारे बच्चों से कुछ बातें कीं और उनके दोस्त के बारे में लिखने को कहा। बच्चे लिखने लगे। बच्चे छोटे थे, कक्षा 3 के। सरकारी स्कूल के बच्चे जिन्हें न ट्यूशन न किताबें ठीक से न कॉपियाँ। लेकिन हरगिज़ कम मत आंकिए इनकी प्रतिभा को। तो बच्चों ने लिखना शुरू किया। कुछ ने मुझे दिखाया अपना लिखा, कुछ ने सुनाया। फिर मैं चलने को हुई तो आँचल ने अपनी कॉपी बढ़ा दी। मैंने कहा अब मैडम को दिखा देना मैं निकलती हूँ। उसने कुछ कहा नहीं, लेकिन उसकी आँखें उदास हो गईं। मैं बैठ गयी। उदास आँखें छोड़कर कैसे जाती ये तो पाप होता न।

कॉपी ली और पढ़ने लगी। तीसरी पंक्ति में लिखा था 'मैं और मेरी दोस्त गौरी बहुत मजे करते थे।' मुझे लगा उसने गलती से 'थे' लिख दिया है। आगे पढ़ा तो उस 'थे' का विस्तार बढ़ता ही जा रहा था। उसे पपीता बहुत पसंद था। हम साथ में घूमने जाते थे। अंतिम वाक्य था 'मुझे उसकी बहुत याद आती है। अब मैं कभी पपीता नहीं खाती।'

अंतिम वाक्यों तक आते हुए मैं बिखर चुकी थी। 30 बच्चों की हल्ले गुल्ले वाली कक्षा के बीच उसे भींचकर गले लगाने की इच्छा को जाने किस संकोच ने रोक लिया लेकिन उसकी हथेलियाँ मैंने अपने हाथों में ले लीं। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में सागर से बड़े-बड़े आँसू टपक रहे थे लेकिन होंठ लगातार मुस्कुरा रहे थे।

मैंने धीमे से इतना ही पूछा, 'क्या हुआ था'
उसने कहा, 'पता नहीं। शाम को खेलकर गयी थी फिर उसके पापा ने उसे मारा था। सब कहते हैं वो बीमार थी।'
क्या दुनिया की किसी भी भाषा में कोई शब्द है जो ऐसे वक़्त में किसी को दिलासा दे सके। मुझे तो नहीं मिला अब तक सो मैंने उसकी हथेलियों को ज़ोर से भींच लिया।

आँचल अब भी मिलती है। हम दोनों में एक अनकहा सा रिश्ता है जो उसकी आँखों में मुझे देखते ही खिल उठता है।
'मैं अब कभी पपीता नहीं खाती...का वाक्य गूँजता रहता है।'

हम इस बहस में ही उलझे हुए हैं कि बच्चों को कैसा साहित्य देना चाहिए, कैसी कहानियाँ। उनमें मृत्यु, दुख, दर्द होना चाहिए या नहीं। असल में हमें बच्चों को हम जैसा जीवन दे रहे हैं वैसा ही साहित्य देना होगा। अगर सिर्फ हँसता मुसकुराता साहित्य देना चाहते हैं तो हँसता मुसकुराता जीवन देने की कोशिश करनी होगी। कहानियाँ बदलने से कुछ नहीं होगा।


इस बरस के तमाम हिसाब-किताब के बीच आँचल से मेरा जो मेरा रिश्ता बना वही मेरा इस बरस का हासिल है कि उसकी आँखें मुझे भरोसे और प्यार से देखती हैं।

Monday, December 4, 2023

पतझड़- नया उगने की आहट

सुबह की चाय पीते हुए कैथरीन से मिली। उसकी आँखों में बीते समय की परछाईं थी। मैंने उससे पूछना चाहा, 'क्या तुम बदल गयी हो?' लेकिन कुछ भी बोलने का मन नहीं किया। चुपचाप उसके पास बैठी रही। कानों में झरते पत्तों की आहट का मध्ध्म संगीत घुल रहा था। 

पतझड़ हाथ में है या मन में या जीवन में सोचते हुए झरे हुए पत्तों को देखते हुए मुस्कुराहट तैर गयी। कश्मीर याद आ गया। कश्मीर यूनिवर्सिटी की वो दोपहर जब बड़े से कैंपस के एक कोने में बैठकर चिनारों के झरते पत्ते देख रही थी। किसी जादू सा लग रहा था सब। झरते हुए पत्ते जैसे झरने का आनंद जानते हैं। वो पूरा जीवन जी चुके होते हैं। बड़े सलीके से शाख से हाथ छुड़ाते हैं। शाखों के कानों में उम्मीद की कोंपल का मंत्र फूंकते हुए और लहराते हुए, हवा में नृत्य करते हुए धरती को चूमने को बढ़ते हैं। सर्द हवाएँ इस खेल को और भी सुंदर बनाती हैं और झरते पत्तों का नृत्य हवा में कुछ देर और ठहर जाता है। 

इन्ही ठहरे हुए खुश लम्हों का सुख नयी कोंपलों की खुशबू बन खिलता है।

'कैथरीन क्या तुम मुझे पहचानती हो'? पूछने का जी हो आया। फिर सोचा वो कैसे पहचानेगी भला? लेकिन क्यों नहीं पहचानेगी आखिर हम सब दुनिया भर की स्त्रियाँ एक ही मिट्टी की तो बनी हैं। चेहरे अलग, नाम अलग, देश अलग पर वो जो धड़कता है सीने में दिल वो जो नरमाई है वो क्या अलग है। 

आईना देखा तो इसमें न जाने कितने चेहरे नज़र आने लगे, कैथरीन,रूहानी, जंग हे, सारथी, पारुल, रिद्म और भी न जाने कितने। जी चाहा पोंछ दूँ तमाम पहचानें, उतार फेंकूँ नाम, चेहरे से चेहरा पोंछ दूँ। फिर किसी नयी कोंपल सा उगे कोई नया चेहरा, नई मुस्कान। 

तभी एक बच्ची की हंसी कानों में झरी। वो स्कूल ड्रेस में खिलखिलाते हुए स्कूल जा रही थी। मैंने कैथरीन को देखा उसने मुझे...हम दोनों ज़िंदगी की पाठशाला में नए सबक सीखने को बढ़ गए। सलीम मियां सारथी और रिद्म नाम की पगडंडियों को दूर से देख रहे थे। 

दोनों पगडंडियों पर खूब फूल खिले थे....

(पढ़ते-पढ़ते)