इस बरस....
उसने मुझसे पूछा, 'क्या चाहती हो?'
मैंने कहा, 'मौत सी बेपरवाह ज़िंदगी।'
सुबह की चाय पीते हुए कैथरीन से मिली। उसकी आँखों में बीते समय की परछाईं थी। मैंने उससे पूछना चाहा, 'क्या तुम बदल गयी हो?' लेकिन कुछ भी बोलने का मन नहीं किया। चुपचाप उसके पास बैठी रही। कानों में झरते पत्तों की आहट का मध्ध्म संगीत घुल रहा था।
पतझड़ हाथ में है या मन में या जीवन में सोचते हुए झरे हुए पत्तों को देखते हुए मुस्कुराहट तैर गयी। कश्मीर याद आ गया। कश्मीर यूनिवर्सिटी की वो दोपहर जब बड़े से कैंपस के एक कोने में बैठकर चिनारों के झरते पत्ते देख रही थी। किसी जादू सा लग रहा था सब। झरते हुए पत्ते जैसे झरने का आनंद जानते हैं। वो पूरा जीवन जी चुके होते हैं। बड़े सलीके से शाख से हाथ छुड़ाते हैं। शाखों के कानों में उम्मीद की कोंपल का मंत्र फूंकते हुए और लहराते हुए, हवा में नृत्य करते हुए धरती को चूमने को बढ़ते हैं। सर्द हवाएँ इस खेल को और भी सुंदर बनाती हैं और झरते पत्तों का नृत्य हवा में कुछ देर और ठहर जाता है।
इन्ही ठहरे हुए खुश लम्हों का सुख नयी कोंपलों की खुशबू बन खिलता है।
'कैथरीन क्या तुम मुझे पहचानती हो'? पूछने का जी हो आया। फिर सोचा वो कैसे पहचानेगी भला? लेकिन क्यों नहीं पहचानेगी आखिर हम सब दुनिया भर की स्त्रियाँ एक ही मिट्टी की तो बनी हैं। चेहरे अलग, नाम अलग, देश अलग पर वो जो धड़कता है सीने में दिल वो जो नरमाई है वो क्या अलग है।
आईना देखा तो इसमें न जाने कितने चेहरे नज़र आने लगे, कैथरीन,रूहानी, जंग हे, सारथी, पारुल, रिद्म और भी न जाने कितने। जी चाहा पोंछ दूँ तमाम पहचानें, उतार फेंकूँ नाम, चेहरे से चेहरा पोंछ दूँ। फिर किसी नयी कोंपल सा उगे कोई नया चेहरा, नई मुस्कान।
तभी एक बच्ची की हंसी कानों में झरी। वो स्कूल ड्रेस में खिलखिलाते हुए स्कूल जा रही थी। मैंने कैथरीन को देखा उसने मुझे...हम दोनों ज़िंदगी की पाठशाला में नए सबक सीखने को बढ़ गए। सलीम मियां सारथी और रिद्म नाम की पगडंडियों को दूर से देख रहे थे।
दोनों पगडंडियों पर खूब फूल खिले थे....
(पढ़ते-पढ़ते)