Monday, October 31, 2016

ख्वाहिश लंदन डायरी- 4


स्कॉटलैण्ड- सुबह जैसे ही आंख खुली तो देखा कि घर में हड़बड़ी मची हुई थी क्योंकि मैं तो भूल ही गई थी कि आज हमें सुबह पांच स्कॉटलैण्ड के लिए निकलना था। मैं भी जल्दी से उठकर तैयार हो गई और मम्मी, मैं, मामा, मामी निकल पड़े घर से ट्रेन पकड़ने के लिए। जब हम लोग टेªन में बैठे तब एक राहत की सांस ली। वहां की ट्रेन में सफर करना भी एक अलग अनुभव था। वहां ट्रेन में बैठकर मुझे यहां की ट्रेन और भारतीय ट्रेन में कुछ खास अंतर तो नहीं लगा बस यह था कि इन ट्रेनों की गति बहुत तेज थी और ये साफ सुथरी थीं। हर अनुभव के बाद मैं यही सोचती थी कि कब मैं अपनी दोस्तों से मिलकर अपनी अविस्मरणीय अनुभव बाटूंगी। सर थोड़ा-थोड़ा अधूरी नींद के कारण चकरा रहा था इसलिए टेªन में एक छोटी सी झपकी मार ली और आधा सुंदर रास्ता छूट गया। वहां पर जब मैंने इतने बड़े बड़े खुले हुए हरे मैदान देखती थी तो कुछ ऐसा लगता था कि या तो यहां के लोगो को जमीन का उपयोग करना नहीं आता या फिर प्रकति के प्रति सर्वाधिक प्रेम है।
चार घंटे के उस सफर के बाद हम पहुंच गए एडिनबरा। यह स्कॉटलैण्ड की राजधानी है। किसी ने अपना एक खाली फ्लैट हमें दो दिन के लिए रेंट पर दिया था। स्टेशन से पहले से बुक किये गए फ़्लैट की तरफ जाते हुए दूध और ब्रेड लिया और चल दिए। दो कमरे के इस फ्लैट में पहुंचकर हमें लगा कि हम घर में ही आ गए हों। शाम को हम घूमने निकले लेकिन उस शाम सिर्फ सड़कें ही छानीं। इंडियन रेस्टोरेंट की तलाश में इधर-उधर घूम रहे थे और जब तक खाना खाया तब तक काफी रात हो चुकी थी और हम वापस फ्लैट की तरफ लौटे। वहां पहुंचकर मामा मामी ने बताया कि उन्होंने हमारे लिए एक बस टूर बुक किया है जो हमें पूरा दिन एडिनबरा की सुंदर कंट्रीसाइड घुमायेगा क्योंकि वो लोग एक बार पहले ही यह सब घूम चुके थे तो वो लोग हमारे साथ नहीं गए. सुबह-सुबह मामा ने हमें बस में बिठाया. तकलीफ यह थी कि मुझे यह डर था कि मुझे कहीं बस में चक्कर न आयें। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब वहां के हरे-भरे पहाड़ और इनमें से गुजरते बादल देखे तो मेरी तो आंखें खुली की खुली रह गईं। रास्ता बहुत ही खूबसूरत था। पहली जगह जब बस रुकी तो आधे घंटे मे हमें घूमकर वापस आना था। पास में ही एक ब्रेकफास्ट और गिफ्ट
शॉप थी जहां लोग व्यस्त थे लेकिन मैंने और मम्मी खाने को प्राथमिकता नहीं दी और आधे घंटे का सही उपयोग करते हुए आसपास घूमने लगे। वहां पर दो याक दिखे जो कि जाली के पीछे थे। जिनमें से एक भूरे रंग का याक था जो मस्ती से घास चर रहा था। मम्मी की वह बात हमेशा याद आती है कि जैसे ही एडिनबरा की बातें होती थीं मममी हमेशा कहती थीं कि वह दिन एकदम एक अनदेखा सपना प्रतीत होता था। मम्मी की फोटोग्राफी खूब चल रही थी ऐसा लग रहा था कि मम्मी इसी नजारे का इंतजार कर रही थीं। मम्मी वहां के हर नजारे का अपने कैमरे की पोटली में छुपाने में लगी थीं। मैं बेचारी बच्ची मम्मी के कैमरे के कपड़े यानी कैमरे का कवर संभालने में लगी थी जब मम्मी कहती थी कि बेटा जरा फोटो खिंचाओ तो मुस्कुरा के खड़ी हो जाती या फिर उनकी खींचने लगती। यह सब चलता रहता था। हम लोग फिर जाकर बैठ गये रास्ते भर मेरी और मम्मी की वार्तालाप में सौ बार आह शब्द का प्रयोग हुआ। हमारा बस ड्राइवर बहुत ही चुनिंदा और खूबसूरत
जगहों पर बस रोक देता था। सामने झील का नजारा और पहाड़ होते। वो कहता कि आप लोग जल्दी से फोटो खींचकर आ जाइये। अगली जगह जहां बस रुकी वहां मुझे और मम्मी को बहुत ज्यादा भूख लग रही थी। पर खाना लेने में डर इस बात का था कि कहीं नॉनवेज न मिल जाये क्योंकि वहां के लोग तो मछली को भी वेजीटेरियन ही मानते थे और गाय के मास को भी। आखिर में सोच विचार के बाद हम लोगों ने एक टुकड़ा केक और कोल्ड डिंक की बोतल ली और शांति से एक पत्थर के उपर बैठकर हमने खाना खाया। भूख पूरी तरह से मिटी तो नहीं थी लेकिन एक बात की तसल्ली थी कि हम जो भी खा रहे थे वो वेजीटेरियन था। बस ड्राइवर द्वारा थोड़ी देर में अनांउसमेंट हुई तो हम लोग बस में जाकर बैठ गये । हम लोगों ने वहां की मशहूर लेक लॉकनेस के लिए टिकट बुक करवा ली. थोड़ी देर बाद जब हम लॉकनेस के पास उतरे तो मौसम खूब अच्छा हो चुका था और धीमी धीमी बारिश हो रही थी। हम लोग टिकट लेकर वहां पर बोट का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद छोटा क्रूज वहां आया। उस क्रूज के उपरी हिस्से में हम पहुंचकर बैठ गये। वह लेक बहुत सुंदर थी। एकदम साफ और नीली। आसपास पहाड़ थे। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गये हमें वहां का मशहूर एडिनबरा का किला दिखने लगा।
हम वहां उतरे नहीं लेकिन हमारा क्रूज एकदम कैसल यानी किले के करीब जाकर खड़ा हो गया। वो किला जो अब किसी खंडहर में बदल चुका था। वहां कई सारे पीले रंग की झाडि़यां थीं और तकरीबन एक घंटे की लॉकनेस की घुमाई के बाद हम बस में वापस लौट आये। इसी के साथ हमारा वापसी का सफर शुरू हुआ। हम वापस वहीं पहुंचे जहां से सुबह सफरªª शुरू किया था। मामा और मामी हमारा इंतजार कर रहे थे। हम बहुत थक चुके थे और भूखे थे। हमने वहां एक पुर्तगाली रेस्टोरेंट में पीटा ब्रेड और हमस खाया, बर्गर भी खाये। खाने के बाद हम लोग पैदल चलते हुए अपने फलैट तक पहुंचे जो हमने यहां बुक किया हुआ था। उस रात हम लोग बहुत जल्दी सो गये। दिन भर की यादें और थकावट लेकर हम गहरी नींद में सो गये। अगले दिन मौसम ने हमारा एकदम साथ नहीं दिया। बहुत बारिश हो रही थी इसलिए हम कहीं घूमने नहीं जा पाये। उसी दिन हमारी शाम की लंदन वापसी की ट्रेन थी। हमने दो बजे उस जगह को जहां हम रुके थे छोड़ दिया और धीमी-धीमी बारिश में ही स्टेशन की ओर चल दिए। हमने बहुत सारी तस्वीरों को अपने कैमरे में भर लिया था। वापसी के समय हमने ट्रेन में एक बड़ा सा रेनबो देखा। बल्कि डबल रेनबो जो खूब बड़ा सा था। रेनबो के सारे रंग उभरकर आ रहे थे। इतना बड़ा और क्लियर रेनबो मैंने पहले कभी नहीं देखा था। हम चारों रास्ते भर बातें करते रहे और पता ही नहीं चला कि सफर कब खत्म हो गया। हम लोग रात में लंदन पहुंचे। स्वाति दीदी ने हमारे लिए पहले से ही छोले पूड़ी बनाकर रखे थे. हम स्वादिष्ट छोले पूड़ी खाकर सो गये।

(अगली कड़ी में लीड्स की सैर....जारी )

Saturday, October 29, 2016

ख़वाहिश की लंदन डायरी - 3

स्टेटफोर्ड अपॉन एवन- अगला दिन मेरे लिए जानकारियों से भरा हुआ था। हम लोग गए विलियम शेक्सपियर के गांव। इतना सुंदर गांव मैंने पहले कभी नहीं देखा था। यहां के लोगों ने शेक्सपियर के घर को अच्छे से संभाला हुआ था। यहां खूब सुंदर बगिया भी थी और जानकारियां भी। उस मेज पर बैठना जहां वो अपना अमूल्य समय बिताया करते थे काफी रोमांचक था। वही पलंग] वही खाने की मेज] वही कमरा...सब वैसा का वैसा। उनके सोचने का नज़रिया भी जैसे हर कमरे में झलकता था। उनके घर में खूब सारा समय बिताकर वहीं पास के एक पार्क में हम लोग जाकर बैठ गए। ठीक नदी के किनारे जहां बहुत सारे हंस और बत्तख थीं। वहीं कहीं एक बुलबुले बनाने वाली मशीन जैसा खिलौना बेचने वाला भी था। उसके पास ऐसा खिलौना था जिससे बहुत बड़े-बड़े बुलबुले बन रहे थे। मैंने भी उससे एक खिलौना खरीदा और अपने आसपास का माहौल बुलबुलों से भर दिया।

मैडम तुषाद- अगला दिन तो अब तक सबसे सुंदर दिन था। उस दिन मैं और मम्मी पहली बार खुद अकेले लंदन घूमने निकले। हमारे हाथ में मैडम तुषाद की दो टिकटें थीं और हम लोग बेकर स्ट्रीट से गुजरते हुए पहुंच गए
मैडम तुषाद म्यूजियम। वहां हम जैसे ही टिकट दिखाकर सामने अंदर पहुंचे सामने की दीवार पर कई तस्वीर खींचते मीडिया फोटोग्राफर्स की तस्वीरें लगी थीं थ्री डी में और आवाजें आ रही थीं। ऐसा महसूस करवाने के लिए जैसे हम कोई सेलिब्रिटी हों। हम अंदर जैसे ही पहुंचे चारो तरफ पुतले ही पुतले। पहले तो हमें यह लगा कि वहां इंसान ही खड़े हैं लेकिन ऐसा नहीं था। पुतले बड़े ही बखूबी बनाये गए थे। मैं तो एकदम आश्चर्यचकित हुई जब मैंने वहां कैटरीना कैफ, सलमान खान, अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, शाहरूख खान जैसे कई हिंदुस्तानी सिनेमा के स्टार्स के पुतले देखे। हमने हर पुतलों के साथ तस्वीरें खिंचवाईं। वहां पर टॉमक्रूज का भी पुतला था। वैसे तो वहां कई नामी लोगों के पुतले थे पर सबसे अच्छा असली पुतला लग रहा था एल्बर्ट आइंस्टीन का। उसके बाद हमने वहां पर एक अच्छा सा इंडियन रेस्टोरेंट ढूंढा और खाना खाकर घर की तरफ बढ़ गए।

थेम्स नदी में सारा दिन -अगले दिन के लिए मैं थोड़ी डरी हुई थी। लेकिन शायद वह दिन मेरे दिमाग में छप गया था। अगले दिन मौसम ने कुछ खास साथ नहीं दिया। पहले हम लोग वहां के मशहूर एक्वेरियम सी-लाईफ में गये। वो काफी बड़ा भी था और मजेदार भी। मैंने वहां पर पहली बार पेंग्विन्स देखे और बहुत खुश हुई। लेकिन असली
मजा तो तब शुरू हुआ जब हम वहां से बाहर निकले और मूसलाधार बारिश शरू हो गई। हमने गीले होने से बचने के लिए टोपियां पहनीं और पुल के दूसरे छोर पर पहुंचे। जहां पर मामा खड़े थे यह बताने के लिए कि अब हमें कहां जाना है और अगली सवारी थी थेम्स बोट राइड की। हम लोग लाइन में लगकर उस छोटे से क्रूज में चले गए। मम्मी के मना करने के बाद भी मैंने जिद की और हम लोग क्रूज की छत पर चले गये। अब बारिश भी कम होने लगी थी और दो घंटे हम लोग पानी और मौसम का आनंद उठाते रहे। सच में ऐसा लग रहा था कि अभी पानी में से विशाल जलपरी निकलेगी. उस दिन की सबसे अच्छी बात यह थी कि हमने एक बार फिर से टॉवर ब्रिज को खुलते देखा।

(अगली कड़ी में स्कॉटलैंड....जारी )

Friday, October 28, 2016

ख्वाहिश की लंदन डायरी- 2

बर्किंघम पैलेस, चर्चिल हाउस, टेफल्गेर स्कॉवयर-

पहले दिन नाश्ता करने के बाद मामी ऑफिस चली गईं और हम सबका घूमने जाने का प्लान बना। हम सबकी टोली निकली लंदन की सैर करने। पहली दफा वहां की सड़कों पर चलना किसी ख्वाब जैसा था। मुझे काफी समय लगा खुद को यह समझाने में कि हां सचमुच मैं लंदन में ही हूं। यह कोई सपना नहीं है। हम सबने ट्यूब पकड़ी और पहुँच गये ग्रीन पार्क। वहां से गुजरते समय ऐसा लगा कि इतनी हरियाली है यहाँ. यही पेड़ भारत में भी तो हैं लेकिन मैंने उन्हें इस नजरिये से कभी क्यों नहीं देखा। चाहे जितनी भी तारीफ कर ली जाए लंदन की लेकिन अपने भारत की सुंदरता भी कुछ कम नहीं। 

ग्रीन पार्क से गुजरने के बाद मेरे सामने अकल्पनीय, आलीशान हवेली थी। बातचीत के दौरान मामा ने बताया कि यह रानी एलिजाबेथ-2 का महल है। हां, ये वही रानी है जिसके मुकुट में कोहिनूर हीरा जड़ा है। बहुत सुंदर थी वह हवेली। हर तरफ लंबी टोपी और वर्दी वाले सिपाही सुरक्षा में खड़े थे। अंदर जाने की किसी को अनुमति नहीं थी। भीड़भाड़ और चर्चाएं यह चल रही थीं कि रानी अभी किसी दूसरे देश में गई हैं।
लंदन की सड़कों पर चलने का भी एक अलग अनुभव था। लगभग जितना भी लंदन हमने घूमा या तो पैदल या ट्यूब में। महल से कुछ ही दूर पर यूके के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की आलीशान मूर्ति थी। उस मूर्ति के साथ फोटो खिंचवाने के लिए लंबी लाइन थी। इसके बाद हमने टेफल्गेर स्कावयर का रुख किया। वहां आर्ट गैलरी भी थी जहां महान कलाकारों द्वारा बनाई हुई अद्भुत पेंटिग्स बनी हुई थीं। पेंटिंग्स में मुझे कुछ खास समझ तो नहीं आईं पर हां उनमें रंगों का खेल बहुत अच्छा था। देखते ही देखते समय कैसे बीत गया कुछ पता नहीं चला। शाम होने लगी और हम लोग घर की तरफ बढ़ गये। मुझे और मम्मी को भारतीय समय के हिसाब से जल्दी नींद आने लगती थी। घर आते ही हम दोनों सो गये। उस अद्भुत दिन के ख्वाबों में डूबने के लिए।

ग्रीनविच- एक बात इस देश की बड़ी ही अजीब थी कि गर्मियों में यहां रात के आठ बजे सूरज ढलता था। दस बजे तक तो उजाला ही रहता था। सुबह चार बजे ही फिर से सूरज दादा प्रेजेंट लगा देते थे। वहां धूप कितनी भी रहे हल्की सी हवा ठिठुरा ही देती थी। अगले दिन हमारे साथ मामी भी गईं। हम सब लोग जा रहे थे ग्रीनविच। माना जाता है कि ग्रीनविच से एक काल्पनिक रेखा गुजरती है जिसे समय का घर भी कहा जाता है। 
अंदर जाकर एक संग्रहालय था जिसमें छोटे-छोटे पुर्जों से बनी हुई कई छोटी सी मशीने थीं। एक लकड़ी से बनी दूरबीन भी थी जो कि पहले के समय में बहुत दूर तक का रास्ता दिखाती थी। सबसे सुंदर चीज वहां मुझे लगी खुले हरे-भरे मैदान। वहां कई बड़े व हरे मैदान थे जो कि सारा ध्यान अपनी ओर खींचते थे। उस दिन हमने वहां का सबसे चर्चित ब्रिज, 'टॉवर ब्रिज' देखा और एक अच्छा संयोग यह बना कि जब हम लोग वहां से गुजर रहे थे तब ही वहां उस टॉवर ब्रिज के नीचे से एक बड़ा जहाज गुजरा और अब समय था उस ब्रिज के खुलने का। ब्रिज धीरे-धीरे खुला। यह एकदम अकल्पनीय दृश्य था। मामा ने कहा की वो इतने सालों से लंदन में हैं लेकिन ऐसा नज़ारा तो उन्होंने भी कभी नहीं देखा था. उसके बाद हम लोग मामी के एक दोस्त के घर डिनर के लिए गए। वहां जाकर हमने ढेर सारी मस्ती की. 

(अगली कड़ी में शेक्सपियर का घर, मैडम तुषाद म्यूजियम और थेम्स में मस्ती...जारी...)

Thursday, October 27, 2016

सपनों सा सफ़र, सफर में सपने...ख्वाहिश की लंदन डायरी



जबसे पता चला था कि 2 जून 2016 को मैं अपने मामा मामी के पास मम्मी के साथ लंदन जाने वाली हूं वो भी पूरे 20 दिन के लिए मुझे यह सब एक सपने जैसा लग रहा था। मैंने यह सब बात अपनी सबसे प्रिय मित्र कोमल को बताई तो वह भी मेरे लिए बहुत खुश हुई। वह रोज मुझसे पूछती कि मेरी तैयारी कहां तक पहुंची। हर दिन मानो जैसे एक साल जितना लंबा लगता था। दिन ही नहीं कट रहे थे। दिन में कम से कम मेरी और मम्मी की लंदन जाने के बारे में  दस बार बात होती थी। सबसे ज्यादा उत्सुकता मुझे यह थी कि नया देश देखना कैसा अनुभव होता है. मेरे लिए यह सब किसी ख्वाब सा था। मम्मी को हल्की सी चिंता भी थी कि हम लोग ठीक से बिना किसी मुश्किल के मामा के पास पहुंच जायें। 

आखिर वो दिन आ ही गया जिसका इंतजार था। सफर कुछ इस तरह था कि हम पहले देहरादून से दिल्ली गये और फिर दिल्ली से लंदन। हम लोग सुबह से तैयारी करते-करते आखिरकार ट्रेन  में बैठ ही गये। रात का वक्त था। हम लोग खाना खाकर ख्वाबों के साथ सो गये। सुबह आंखें खुलीं तो मानो सूरज कह रहा हो कि बस अब उठो, दिल्ली आ चुका है। जल्दी से मैं और मम्मी ट्रेन से उतरे और जैसा कि तय हुआ था पापा हमें स्टेशन लेने आये। हम पापा के साथ मेट्रो पकड़कर सीधे एयरपोर्ट पहुंचे। पहली बार मैंने अंतरर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा देखा था। हम लोग अंदर गये और पता नहीं क्यों मुझे अजीब सा लगने लगा। जबकि यह तो पता ही था कि 20 दिन बाद वापस आना है। शायद यह पहली बार अपने देश से दूर जाने का एहसास के कारण हुआ हो। हर काउंटर पर जाकर पासपोर्ट दिखाना, जांच की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद हम एक जगह बैठे और हमने सबको फोन करके बता दिया कि हम अब हवाई जहाज में बैठने जा रहे हैं। थोड़ी ही देर में हम हवाई जहाज के अंदर थे। 

इतना बड़ा हवाई जहाज देखकर तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गयीं। जब मैंने यह देखा कि हमारी कुर्सियों के आगे छोटे-छोटे टीवी लगे हैं तो मैंने सोचा कि अब दस घंटे अच्छे से कटेंगे। पर मेरी तबियत कुछ खास ठीक नहीं रही। मैंने अपना सर धीरे से मम्मी की गोद में रखा और ऐसे ही सफर कट गया। मैंने रास्ते में कुछ भी नहीं खाया पिया। जब मैं उठी तो उद्घोषणा हुई कि हम लंदन में उतरने वाले हैं। मम्मी के मना करने के बाद भी कान में एयर प्रेशर कम  करने वाली एक्सरसाइज न करके कान में रूई लगाई ताकि हवा के दबाव से दर्द न हो। 

कुछ ही समय के बाद हम लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर थे। वहां पर इमिग्रेशन कराने के बाद सामान लेकर हम बाहर निकले। सामने ही मामा खड़े नजर आए जो कि हमें लेने आए थे। हम लोग जैसे ही उनसे मिले मामा ने मम्मी के पैर छुए और मुझे गले लगा लिया। हम बाते करते हुए टैक्सी तक पहुंचे। वहां की ठण्ड देखकर मानो ऐसा लग रहा था कि भारत की सारी ठण्ड यही लोग चुरा लाए हों। दांत भी किटकिटा रहे थे। हम लोग टैक्सी की खिड़की के बाहर आश्चर्य से देख रहे थे। भारतीय समय के हिसाब से रात के 1 बजे थे इसलिए आंखों से नींद झलक रही थी। सब कुछ एक सुंदर सपना लग रहा था और ऐसा महसूस हो रहा था कि अभी मम्मी जोर से आवाज देंगी और सपना टूट जायेगा। लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। हां, मैं हकीकत में लंदन में थी। हम जैसे ही मामा के घर पहुंचे मेरी मामी और स्वाति दीदी ने हमारा स्वागत किया। इतने लंबे सफर के बाद मामी का बनाया हुआ स्वादिष्ट खाना खाकर मुझे बहुत मजा आया। क्योंकि मैंने रास्ते में कुछ नहीं खाया था इसलिए मेरी भूख भी खूब बढ़ी हुई थी। 

हमें नींद भी बहुत आ रही थी। हमने खाना खाने के बाद कुछ बातें की फिर सो गई। और फिर जेटलेग के हिसाब से हम सुबह पांच बजे उठ गये इसके बाद शुरू हुई हमारी घुम्मकड़ी...

(अगली कड़ी में बर्किनघम पैलेस, चर्चिल हाउस, ट्रेफ्लेगर स्क्वॉयर और, ग्रीनविच...)

Wednesday, October 26, 2016

ख्वाहिश का पहला लेख- लंदन यात्रा


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ख्वाहिश १३ बरस की हैऔर घुम्मकड़ी की शौक़ीन है. कब वो चुपके-चुपके अपनी डायरियों में अपने अनुभव लिखने लगी मुझे पता नहीं. पहली बार दो बरस पहले उसने खुद बताया था कि वो डायरी लिखती है लेकिन चाहती है उसकी डायरी कोई न पढ़े. जाहिर है मेरी जिम्मेदारी उसकी इस प्राइवेसी को बचाने की भी हो गयी. उसकी डायरियां भरने लगीं. मैंने यह ज़रूर महसूस किया कि उसे डायरी में एक बेस्ट फ्रेंड मिल गया है. एक बार जब उसकी डायरी गुम गयी थी, वो बेहदउदास हुई थी अपनी बेस्ट फ्रेंड के बिछड़ने से. तब जाना कि लिखना उसकी भी ज़रुरत है शायद, ऐसी जगह जहाँ उसे रिलीफ मिलती है. 

बहरहाल वो लिखती है, अपने लिए. लिखकर खुश रहती है. उसे पढने का भी कम शौक नहीं...लेकिन उसकी पढने की किताबें मेरे जाने बूझे से काफी अलग है...मैं उससे हर दिन सीखती हूँ. पिछले दिनों मैं और ख्वाहिश अपनी पहली विदेश यात्रा पर थे. ख्वाहिश ने इस यात्रा को भी अपनी डायरी में दर्ज किया. सुभाष राय अंकल ने जब उससे उन डायरी के कुछ पन्ने प्रिंट करने को मांगे तो उसने संकोच के साथ दे दिए...यह पहली बार था जब मैं अपनी बेटी की डायरी को पढ़ रही थी...जाहिर है उसकी इज़ाज़त से. मेरी पलकें नम थीं...उसकी भाषा, उसकी अभिव्यक्ति, और भाषा पर पकड़...सब कितना अनायास कितना सहज. माँ हूँ, ज़ाहिर है मेरे लिए ये पल ख़ास है...जब उसे पढ़ रही हूँ शब्दों में भी...लोगों को उसे पढ़ते हुए देख रही हूँ...

बहरहाल सुभाष अंकल की रिक्वेस्ट मानकर ख्वाहिश ने अपने नानू को तो खुश किया ही इस बहाने मुझे मेरी ही बेटी के भीतर छुपे कुछ नए अंदाज़ देखने, सुनने का मौका भी मिला. ख्वाहिश ने अपनी लंदन डायरी को प्रिंट करने की इज़ाज़त दे दी है...आज पहली बार प्रतिभा की दुनिया में प्रतिभा की ख्वाहिश का स्वागत करते हुए बहुत खुश हूँ...उसकी लंदन यात्रा के तमाम पन्ने एक सिलसिले की रूप में यहाँ लगातार सहेजती जाऊंगी...

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ख्वाहिश- लन्दन डायरी...जारी...

Thursday, October 20, 2016

सिर्फ तुम्हारा ख़याल...


सिर्फ तुम्हारा ख़याल
खिला देता है हजारों गुलाब
बहा देता कल कल करती नदियाँ
सदियों की सूखी, बंजर ज़मीन पर

तुम्हारा ख़याल
कोयल को कर देता है बावला
और वो बेमौसम गुंजाने
लगती है आकाश
टेरती ही जाती है
कुहू कुहू कुहू कुहू

तुम्हारा ख़याल
हथेलियों पर उगाता है
सतरंगा इन्द्रधनुष
काँधे पर आ बैठते हैं तमाम मौसम
ताकते हैं टुकुर टुकुर
खिलखिलाती हैं मोगरे की कलियाँ
बेहिसाब
हालाँकि मौसम दूर है
मोगरे की खुशबू का

तुम्हारे ख़याल  से
लिपट जाती है
मुसुकुराहटों वाली रुनझुन पायल
खनकती फिरती है समूची धरती पर

दुःख सारे चलता कर दिए हों
मानो धरती से
और चिंताएं सारी विसर्जित कर दी हों
अटलांटिक में
तुम्हारे ख़याल  ने

कंधे उचकाते ही
आ लगता है आसमान सर से
देने को आशीष
हवाओं में गूंजती हैं मंगल ध्वनियाँ
ओढती है धरती
अरमानों की चुनर

बस एक तुम्हारा ख़याल  है
मुठ्ठियों में और
शरद के माथे पर
सलवट कोई नहीं...

Tuesday, October 18, 2016

महिलाओं के सम्मान का नाटक फिर से - करवाचौथ के बहाने


लो जी, एक बार फिर करवाचौथ के मुद्दे पर चुप लगाकर रखने के मेरे निश्चय को डिगा ही दिया गया. इस बार यह काम किया है उत्तराखंड सरकार ने. सुबह-सुबह अदरक इलायची वाली चाय का जायका बेमजा कर दिया इस खबर ने कि उत्तराखंड सरकार करवाचौथ पर अवकाश घोषित करके इसे महिला सम्मान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है. माने कि देवियों, करवाचौथ के निर्जल अवकाश ने आपके दैवीय प्रभुत्व को और ऊंचा कर दिया है. मजे की बात यह है कि हमेशा की तरह पितृसत्ता का यह खेल एक बार स्त्रियों के खिलाफ ही है और लग इस तरह रहा है जैसे ये उनके हक में लिया गया कोई फैसला है.

महिला सम्मान दिवस मनाने के लिए स्त्रियों द्वारा पति की लम्बी आयु की कामना करने वाले इस निर्जला उपवास को क्यों चुना होगा सरकार ने? इस तरह तो बहुत सारे व्रत उपवासों को भी इस नज़र से देखे जाने की ज़रूरत होगी. आखिर क्यों हर बरस करवाचौथ का यह पागलपन बढ़ता ही जा रहा है..? क्योंकि इस खेल के बढ़ते जाने से सबका फायदा है सिवाय उस स्त्री के जो इसके निशाने पर है...वो ख़ुशी ख़ुशी सज संवर के तैयार होकर, न सिर्फ पितृसत्ता की जड़ें मजबूत कर रही है, इससे खुश भी है.

हम पढ़ते लिखते लोग हैं, समाज हैं. जनगणना के पिछले आकडे बताते हैं कि हम एक अशिक्षित समाज से शिक्षित समाज में तब्दील हो चुके हैं. हमने पहले की अपेक्षा ज्यादा डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, पीसीएस पैदा किये हैं. ये डिग्रीधारी समाज सचमुच शिक्षित भी हुआ है क्या इस पर काफी सवाल हैं. हमारी सोचने विचारने की गति और दिशा कहाँ से तय होती है. क्या हम स्वयं तार्किक होते हैं या हवाओं के रूख के साथ चल पड़ते हैं.

सवाल सिर्फ करवाचौथ का नहीं है सम्पूर्णता में हमारे सोचने और विचारने का है, बने-बनाए चमकीले रास्तों को छोड़कर चलने का है. क्यों किसी स्त्री ने खुद आवाज नहीं उठाई कि ‘महिला सम्मान दिवस’ के तौर पर मनाने को यही त्यौहार मिला था सरकार को. यह सरकार का स्त्रियों को तोहफा नहीं है उसके द्वारा पित्र्सत्ता को मजबूत करने की साजिश है. सरकार की भूमिका होती है कि वो ऐसे समाज का निर्माण करे जहाँ सबके हितों की रक्षा हो. समता, समानता के समाज की संविधान की परिकल्पना को सरकारें इस तरह मुह चिढाएंगी तो क्या उम्मीद की जा सकती है.

महिला सम्मान दिवस...ये सरकारी उन्माद की इंतिहा है, अख़बार, टीवी चैनल कई सालों से जिस तरह इस पागलपन से उफनाये रहते हैं वो कम नहीं थे क्या जो अब सरकारें भी कूद पड़ी हैं इस यज्ञ में. आखिर किस ओर जा रहे हैं हम? अभी हम इन बातों की बहस में ही उलझे थे कि हमारी शिक्षा हमें कितना तार्किक बना रही है. क्या हम वैज्ञानिक सोच के समाज होने की ओर अग्रसर हो सकेंगे कभी. कोई बड़ी बात नहीं कि कल को पाठ्यपुस्तकों में करवाचौथ, अहोई अष्टमी आदि की कथाएं शामिल हो जाएँ.

निश्चित रूप से महिलाएं सरकार की इस घोषणा से खुश होंगी. महिला सम्मान दिवस के तौर पर करवा चौथ मनाते हुए शायद ही किसी के मन में यह ख्याल आये कि यह असल में पतनशील समाज की ओर बढ़ना है. यही है पितसत्ता का खेल. एक सिंहासन बनाकर उस पर स्त्रियों को बिठा दो. जयकारे लगाओ उनकी ममता के, समर्पण के, उनकी खामोश रहकर सब सहने की शक्ति के, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए सोचने के, खुद भूखे रहकर परिवार का पेट भरकर अन्नपूर्णा बनने के, खुद एनीमिया से जूझते हुए मुस्कुराते रहने के, बीमारी की हालात हो या गर्भ का नौवां महीना, उनके निर्जला व्रत रहकर पति और पुत्र की लम्बी आयु की कामना करने के...जय हो...जय हो देवियों...देखो तुम्हारे इस त्याग पर सरकार ने खुश होकर अवकाश घोषित कर दिया है. इसके लिए सरकार ने अपना मोतियों का हार तुम पर निछावर किया है और तुम्हारे सम्मान के रूप में इस दिवस को महिला सम्मान दिवस घोषित किया है. तुम्हारा सिंहासन जितना मजबूत होगा उतना मजबूत होगा पित्र्सत्ता का सिंहासन. स्त्रियों को भी खुद को दैवीय सिंहासन पर बैठने में आनंद आता है और अपने पति को परमेश्वर बनाने में. गैर बराबरी की बुनियाद पर बने रिश्तों वाले समाज में किस निरपेक्ष भाव की उम्मीद कर रहे हैं हम. किस प्रगतिशीलता की.

प्रगतिशील महिलाएं भी अपनी प्रगतिशीलता को कुछ देर को स्थगित कर ही देती हैं. कि मेहँदी, चूड़ी, गहनों से चमकता बाज़ार खींचता जो है. धर्म से, आस्था से, फैशन और बाज़ार तक आते हुए हम भूल गए कि भाई के द्वारा ढेर सारा सामान लेकर न पहुँचने पर छोटी बहू को ताने मारने वाली करवाचौथ की कथा के भीतर किस तरह का मर्म है छुपा है...कि पति की लम्बी आयु के लिए एक भाई का होना ज़रूरी है, उसका धन धान्य से परिपूर्ण होना ज़रूरी है तभी व्रत सफल होगा.

खैर, परम्पराओं के उन्माद के, उनके पोषण के इस खेल में अब जबकि सरकारें भी शामिल हो चली हैं तो बाज़ार के इस उत्सव की चमक को बढ़ना ही है. महिलाओं के सम्मान के बहाने उन्हें लगातार रूढ़िवादिता की ओर धकेलना कौन सी प्रगतिशीलता का परिचायक है सोचना तो होगा ही.



Sunday, October 16, 2016

अक्टूबर की हथेली पर...


अक्टूबर की हथेली पर
शरद पूर्णिमा का चाँद रखा है
रखी है बदलते मौसम की आहट
और हवाओं में घुलती हुई ठण्ड के भीतर
मीठी सी धूप की गर्माहट रखी है

मीर की ग़ज़ल रखी है
अक्टूबर की हथेली पर
ताजा अन्खुआये कुछ ख्वाब रखे हैं

मूंगफली भुनने की खुशबू रखी है
आसमान से झरता गुलाबी मौसम रखा है
बेवजह आसपास मंडराती
मुस्कुराहटें रखी हैं
अक्टूबर की हथेली पर

परदेसियों के लौटने की मुरझा चुकी शाख पर
उग आई है फिर से
इंतजार की नन्ही कोंपलें

अक्टूबर महीने ने थाम ली है कलाई फिर से
कि जीने की चाहतें रखी हैं
उसकी हथेली पर
धरती को फूलों से भर देने की
तैयारी रखी है

बच्चों की शरारतों का ढेर रखा है
बड़ों की गुम गयी ताकीदें रखी हैं
उतरी चेन वाली साइकिल रखी है एक
और सामने से गुजरता
न खत्म होने वाला रास्ता रखा है
अपनी चाबियाँ गुमा चुके ताले रखे हैं
मुरझा चुके कुछ ‘गुमान’ भी रखे हैं

अक्टूबर की हथेली पर
पडोसी की अधेड़ हो चुकी बेटी की
शादी का न्योता रखा है
कुछ बिना पढ़े न्यूजपेपर रखे हैं
मोगरे की खुशबू की आहटें रखी हैं
और भी बहुत कुछ रखा है
अक्टूबर की हथेली में

बस कि तुम्हारे आने का कोई वादा नहीं रखा...

Saturday, October 15, 2016

सिर्फ तुम और मैं



पाब्लो नेरुदा की दो प्रेम कवितायेँ 

 महारानी

मैंने तुम्हें नाम दिया है महारानी
तुमसे ज्यादा कद्दावर लोग हैं, ज्यादा कद्दावर
तुमसे ज्यादा खरे लोग हैं, ज्यादा खरे
तुमसे ज्यादा खुशनुमा लोग हैं,ज्यादा खुशनुमा
लेकिन तुम महारानी हो.

तुम जब गलियों से होकर गुजरती हो
कोई तुम्हें पहचान नहीं पाता
कोई देख नहीं पाता तुम्हारा बिल्लौरी मुकुट
कोई निरख नहीं पाता, लाल सुनहरी कालीन
जिस पर से होकर तुम गुजरती हो
वह मायावी कालीन

और जब तुम सामने आती हो
सारी नदियाँ मेरे भीतर कल कल कर उठती हैं.
घंटियाँ आसमान गुंजाने लगती हैं.
और समूची दुनिया एक ऋचा की गुंजार से भर जाती है

सिर्फ तुम और मैं
सिर्फ तुम और मै मेरे प्यार
उसे सुनते हैं


तुम्हारी हँसी


रोटी मुझसे छीन लो अगर चाहो
हवा छीन लो लेकिन
अपनी हँसी न छीनना मुझसे
गुलाब न छीनना मुझसे
वह नुकीला फूल जिसे तुमने तोडा

पानी जो यक- ब –यक
तुम्हारी ख़ुशी में से फूट निकलता है.
तुममें उठती चांदी की औचक हिलोर.
कठिन ,कठोर है मेरा संघर्ष
थकी और भारी आँखें लिए मैं वापस आता हूँ
कभी-कभी बेहौसला, दुनिया को देख कर,
लेकिन जब तुम्हारी हँसी फूटती है
आसमान तक उठ जाती है मुझे तलाशती हुई
और जिंदगी के सारे दरवाजे मेरे लिए खोल देती है.
मेरे प्यार,

सबसे काले दौर में भी प्रकट होती है तुम्हारी हँसी
और अगर यक- ब-यक
तुम्हें मेरा खून गली के पत्थरों को रंगता नजर आये
प्रिये, तुम हँसना
तुम्हारी हँसी मेरे हाथों के लिए
चमकीली तलवार बन जायेगी.
शरत में सागर से नीचे
तुम्हारी हँसी को उसका फेनिल प्रपात निर्मित करना है
और बसंत में प्रिये
मैं तुम्हारी हँसी को
अपने प्रतीक्षित पुष्प की भांति देखना चाहता हूँ
नीलकुसुम की भांति
अपने अनुगुंजित देश के गुलाब की भांति
हँसो रात पर
हँसो दिन पर
चन्द्रमा पर हँसो
इस द्वीप की बलखाती गलियों पर हँसो
हँसो इस बेढंगे बालक पर
जो तुम्हें प्यार करता है,

लेकिन जब मैं अपनी आँखें खोलूं
बंद करूँ जब मैं अपनी आँखें
जब मेरे कदम बाहर निकलें
जब मेरे कदम वापस लौटें –
रोटी को बेशक मुझे इंकार कर देना
हवा, रोशनी,वसंत को भी चाहे ;
लेकिन अपनी हँसी को कभी नहीं ...
कभी नहीं, वरना में मर जाऊँगा.

Friday, October 14, 2016

मिर्ज़या- एक महकती सी फिल्म...


कुछ है जो गुज़र रहा है. कुछ है जो गुजर चुका है लेकिन गुजर ही नहीं रहा है...दूधिया कोहरे की वादियों में सदियों से बह रही हैं न जाने कितनी प्रेम कहानियां, हिचकी, नींदें...सदियों से कोई प्रेम कहानी सहराओं की गोद में समायी है, कोई चिनाब की धारों में बह रही है...क्या फर्क पड़ता है इन कहानियों के नायक कौन है नायिका कौन है...कैसे बढती है प्रेम की दास्ताँ, कैसे पहुँचती है अंजाम तक...अंजाम होता क्या है, इश्क़ का कोई अंजाम हो भी कैसे सकता है भला...इश्क़ में होना ही तो होना है जीवन में...सही, गलत, अच्छा, बुरा सबसे पार...बस इश्क़.

मिर्ज़या उन सदियों से बहती तमाम इश्क की दास्तानों में से एक दास्तान है...उसे सेल्युलाइड के परदे पर उतारते हुए बेपरवाह रहना बाज़ार के तमाम नियमों से, बेपरवाह रहना बॉक्स ऑफिस के नियमों से...बस प्रेम से जी लेना एक प्रेम कहानी को, और उसे प्रेम से परदे पर सजा देना...गुलज़ार, राकेश ओम प्रकाश मेहरा और शंकर एहसान लॉय का साथ दिया है फिल्म के किरदारों ने. फिल्म रगों में उतरती जाती है...नन्हे मुनीश और सुचित्रा...मुनीशा और सुच्ची की मासूम प्रेम कहानी...तिल के लड्डू का स्वाद, हथेलियों पे पड़ती मास्टर साब की छड़ी...चोट कहीं लगती है और दर्द कहीं होता है...लैला की हथेलियों पे पड़ती छड़ी हो या सुच्ची की हथेलियों पर दर्द तो मजनू और मुनीशा ने ही सहा...

राकेश फिल्म के साथ बहते जाते हैं...और उस बहने का सुख लेते हैं...ज्यादा कहन नहीं है फिल्म में...महसूसना ज्यादा है...दृश्य हैं, भाव हैं...संवाद ज्यादा नहीं...संवाद कविता से झरते हैं...संवादों से ज्यादा झरता है मौन...

कहानी के बारे में बात करने को कुछ है नहीं हमेशा की तरह, प्रेम कहानी एक लाइन की तो होती है...एक लड़का एक लड़की, प्रेम और दुश्मन जमाना...एक का सही दुसरे का गलत...बस इतना ही न.

फिल्म में बेकार की तकरार नहीं, बहसबाजियाँ नहीं, सवाल जवाब नहीं, घटनाओं के होने की वजहों का नैरेशन नहीं बस जो जैसा है, वो वैसा है...सही या गलत.

मिर्जया यानि मुनीश के किरदार में हर्ष, साहिबा यानि सुचित्रा के किरदार में सियामी, जीनत के किरदार में अंजलि पाटिल, करन के किरदार में अनुज चौधरी...अपने अपने प्रेम को अपनी अपनी तरह से जी रहे हैं...जीनत के किरदार में अंजलि पाटिल बेहद प्रभावी हैं. जीनत जितनी देर स्क्रीन पर रहती है उसके चेहरे से प्रेम का नूर टपकता नज़र आता है...हालाँकि कहीं उस प्रेम का प्रदर्शन नहीं है...उसका प्रेम नज़र आता है आदिल यानि हर्ष की पीठ पर लोहे की छड़ से दाग देकर बचपन का आदिल का प्रेम का निशान यानि टैटू मिटाते वक़्त...वो जानती है कि वो जिसके प्रेम में है वो किसी और के प्रेम में है...पहली बार जब सुच्ची को देखती है तो भीग जाता है उसका मन. उसे रस्म के मुताबिक कंगन पहनाती है...सुच्ची भी उसे देखते ही समझ जाती है कि वो आदिल यानी उसके मुनीशा के प्रेम में है...वो भी उसे अपना कंगन पहनाती है...कोई ईर्ष्या नहीं, कोई शिकायत नहीं...दोनों गले लगकर रोती हैं. सिहरन सी महसूस होती है.

फिल्म रोने धोने वाली नहीं है, प्रेम को बूँद-बूँद ज़ज्ब करने वाली है. एक और दृश्य जेहन से उतर ही नहीं रहा जब सुच्ची बरसों बाद लौट रही है. एयरपोर्ट पर उसके पिता, उसका प्रेमी और एक मुनीम जी या सेवक जो भी कहिये वो आये हुए हैं...ये वही मुनीम जी हैं जो बचपन में उसका स्कूल बैग लेकर बस में बिठाने जाते थे...एयरपोर्ट पर सुच्ची पिता से गले लगती है, प्रेमी से भी गले मिलती है लेकिन जो दृश्य आँखें भिगोकर चुपके से निकल जाता है वो है उन मुनीम जी का सुच्ची बिटिया को प्रेम से देखना, नमस्ते करने और उसके सर पर हाथ फेर देना...ऐसा ही तो होता है प्रेम...छोटी छोटी चीज़ों में चुपके से आसपास से गुजरता हुआ.

एक खूबसूरत जिन्दगी सामने थी लेकिन उसके बचपन का प्रेम था कि एक पल को हाथ छोड़ ही नहीं रहा था. हर वक़्त मुनीशा के किस्से, उसकी बातें और एक रोज़ जब मुनीशा अपना होना नहीं ही छुपा पाया तो बस सैलाब तो आना ही था...

कोई दुराव छुपाव नहीं, जो है सो है बस...प्रेम तो ऐसा ही होता है न...बेबस कर देने वाला...बहा ले जाने वाला...एक नदी थी दोनों किनारे थाम के बैठी थी...तोडती तो सैलाब आ जाता. अपने मंगेतर को देखती है, समझती है उसका कोई दोष नहीं फिर भी प्यार तो मुनीशा से ही है...क्या करे वो...

सब अपने अपने एहसासों की जकडन में कैद हैं...कोई ज़माने की परवाह में, कोई अपने अहंकार में, कोई प्रेम में जान ले लेने से हिचकता नहीं, कोई मुस्कराकर जान देक्रर जी लेता है जिन्दगी...

जीनत जहाँ मुस्कुराकर अपनी जान हथेली पे लेकर सुच्ची को मुनीशा से मिलाने जा पहुँचती है और उसकी सुहाग की चुनर पहनकर प्रेम में जीवन को सार्थक करते हुए मौत को गले लगाती है वहीँ करन बन्दूक लेकर निकल पड़ता है जान लेने के लिए...

सुच्ची और मुनीशा की इस मीठी सी प्रेम कहानी में मिर्जया और साहिबा की प्रेम कहानी चाय में गुड की तरह आकर घुलती रहती है...वो जबरन लायी गयी नहीं लगती...एहसासों के आवेग को थियेट्रिकल ट्रीटमेंट से बेहद खूबसूरत बना दिया है राकेश ने.

तमाम प्रेम के दृश्य मोहते हैं...संवादों को मौन रिप्लेस करता है...मौत पीछे भाग रही है और दो प्रेमी बाइक पे यूँ उड़ रहे हैं मानो दुनिया से उनको कोई निस्बत ही नहीं...कोई डर नहीं, कोई योजना नहीं...बस प्रेम...बाइक का प्रेट्रोल ख़त्म, दूर दूर तक कोई रास्ता नहीं...उनका पीछा करते लोग कभी भी आ पहुँचने को हैं और दोनो प्रेमी भय विहीन एक दुसरे को जिस तरह देखते हैं...उन्हें देख लगता है जी लिए बस, अब क्या करना है देह का.

साहिबा द्वारा मिर्ज्या के तीर तोडना उसे अपने प्रेम के लिए दूसरों की जान न लेने के एहसास से जुड़ा है. उसे अपने प्रेमी की सामर्थ्य पर पूरा यकीं है और उस यकीं पर वो सर रखकर सो जाती है...सुकून से...सुच्ची...साहिबा...मुनीशा...मिर्ज्या...इस प्रेम कहानी में जीनत का जिक्र अलग से ज़रूरी है.

आसमान से नेह की चादर बरसती है...दोनों प्रेमियों को फूलों से ढँक देती है...दो मोहब्बत जीने वाले लोग...

फिल्म का स्वाद तिल के लड्डुओं के स्वाद सा रह जाता है जबान पर....हथेलियों पर मास्टर जी की छड़ी की चटाक भी दर्ज ही रहती है... पूरी फिल्म कविता है... पेंटिंग है... थियेटर है...रंग है, खुशबू है...फिल्म खत्म हो जाएगी लेकिन उसकी खुशबू खत्म नहीं होगी...वो ज़ेहन में महकती रहेगी...कस्तूरी सा प्रेम...रगों में दौड़ता प्रेम...

सिनेमोटोग्राफ़ी कमाल है और एडिटिंग ने फिल्म में प्राण फूंके हैं...संगीत तो है ही...जो पूरी फिल्म को एक सुर में बांधे रखता है.

तीन गवाह हैं इश्क के...एक तू, एक मैं और एक रब...फिल्म के सारे गाने संवाद का काम करते हैं...हौले हौले मोहब्बत की इस दास्ताँ को झूला झुलाते हुए आगे बढ़ाते हैं...

मोम का सूरज पिघले, आग का पौधा निगले सुन तेरी दास्ताँ ओ मिर्ज्या....

Thursday, October 13, 2016

शोर अच्छा नहीं लगता...



कुछ दिनों से अपने 'स' की तलाश में फिर से भटक रही हूँ. इस भटकन में सुख है. अकसर लगता है कि बस अब पहुँचने वाली हूँ, कहाँ पता नहीं लेकिन वहां शायद जहाँ इस भटकन से पल भर को राहत हो. राहत, क्या होती है पता नहीं... खिड़की के बाहर देखने पर पडोसी के घर के फूल नज़र आते हैं, वो राहत है, अपने पौधों में इस बार कलियाँ कम आई हैं इसकी चिंता है...वो जिसे अपना कहकर रोपा था, उसे सहेज नहीं पा रही हूँ शायद, वो जो कहीं और खिल रहा है वो अपना ही लग रहा है....ये अपना होता क्या है आखिर...वो जिसे सहेज के पास रख सकें या जो दूर से अपनी खुशबू, अपने होने से मुझे भर दे...

आज फिर 'यमन' शुरू किया...फिर से. मुझे इस राग के पास सुकून मिलता है इन दिनों. 'क्यों' पता नहीं. कभी ऐसा सुकून मालकोश के पास मिला करता था. तो क्या राग बदल गया, या मौसम, या मन का मौसम...उन्हू मौसम तो वही है...किसी कमसिन की पाज़ेब की घुँघरूओं सा. सरगोशियाँ करता, इठलाता, मुस्कुराता . राग भी वही है...यानि मुझे खुद से ही बात करनी चाहिए. कर ही रही हूँ. सारे जहाँ में बस एक 'स' नहीं मिलता. सब मिलता है. त्योहारों का मौसम है, बाज़ार सजे हैं...अक्टूबर का महीना है, आसमान से रूमानियत टपक रही है...अनचाहे मुस्कुराहटें घेर लेती हैं...लेकिन 'स' नहीं लग रहा. कल रात लगते लगते रह गया. ये तार झन्न से टूट गया...हमेशा टूटता है...तार बदल सकता था..लेकिन मन नहीं...तार बहुत हैं पास में, मन एक ही है बस.

सुबह के दोस्तों से मुखातिब होती हूँ, उन्हें कोई फ़िक्र नहीं...उन्हें बस दाना खाने से और दाना खाकर उड़ जाने से ही मतलब है..जाने उनका सुख दाना है या उड़ जाना, पर वो सुख में लगते हैं...सुख में लगना भी अजीब है...मैं भी लगती हूँ शायद, सबको लगती हूँ, खुद को भी...लेकिन हूँ क्या...अगर हूँ तो मेरा 'स' कहाँ गुम गया है. अगर वो इतना गैर ज़रूरी है तो उसे ढूंढ क्यों रही हूँ. पागलपन्ती ही तो है सब...कोई 'स' 'व' नहीं होता ज्यादा मत ढूंढ, सो जा चैन से, मन मसखरी करता है...हंसती हूँ...

शोर अच्छा नहीं लगता, मैं उससे कहती हूँ...तो कहाँ है शोर...शांति ही तो है...वो मुझसे कहता है...शांति बाहर है न, भीतर बहुत शोर है...बाहर से आने वाले शोर के रास्ते बंद करना जानती थी, सो कर लिए भीतर के शोर से मुक्ति के रास्ते तलाश रही हूँ...एक झुण्ड पंछियों का लीची के पेड़ से फुर्रर से उड़कर आसमान की ओर रवाना हुआ है...मेरा आसमान कहाँ है....

Wednesday, October 5, 2016

क' से कविता...मैं से मुक्ति का सफ़र....



न जाने किस उम्र में कब उसने अपनी उंगली थमाई थी, बस इतना याद है कि उसकी पहली छुअन बचपन के किसी कोने में दर्ज हुई थी, तबसे आज तक अहसास बढ़ते गये, शिद्दत बढ़ती गई, प्यास बढ़ती गई। प्यास पढ़ने की। कविताएं पढ़ने की। एकाकी बचपन में कोई दोस्त अगर था तो बस किताबें थीं। कविता और कहानी का अंतर भी न पता था, तबसे कविता जी लुभाती है। हालांकि अंतर तो अब भी पता नहीं। जाने कहां-कहां मिल जाती है कविता उपन्यास मंे, कहानी में, बतकही में, आम की बौर में, सड़क पर, पगडंडी में, खेतों में कभी-कभी चमचम करते सुनहरे शहरों में भी।

इसी कविता प्रेम के चलते पिछले कुछ महीनों से कविता की बैठकी शुरू की। क से कविता। देहरादून में तीन दोस्त जमा हुए मैं, सुभाष रावत और लोकेश ओहरी। सोचा कि रोजमर्रा की भागदौड़ में कविताओं से वो जो एक दूरी सी बनने लगी है उस दूरी को कम करते हैं...मिलकर कुछ देर सुनते सुनाते हैं कविताएं...

न...न...न...हम तीनों दोस्तों में से कोई भी कवि नहीं है। मुझ पर छुटपुट ये आरोप लगते जरूर हैं लेकिन हूं मैं भी कविता प्रेमी ही अपने बाकी दोनों दोस्तों की तरह। कविता ही क्यों साहित्य, संस्कृति की उन तमाम धाराओं से हमारा लगाव है जो दरअसल मनुष्यता को गढ़ती हैं, उनके हक में खड़ी होती हैं, जो समूची धरती को भौगोलिक नक्शों, असलहों और राजनैतिक बयानों से बहुत दूर रखती है। कविता जो “मैं“ से मुक्त करती है और कवि को फक़ीर बनाती है।

लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि कबीर का दौर बीत चुका है। फकीर कहां रहे अब, कवि बचे हैं बहुत सारे। कभी-कभी लगता है कि इतने सारे कवि हंै कि कविता इन सबसे डरकर दूर कहीं जा छुपी है। चहुंओर मंच सजे हैं, अपनी-अपनी किताबें सर पर लादे तमगे गले में टांगे लोग आत्ममुग्धता में आकंठ पैबस्त हैं। खुद को और अपनी कविता को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने की अजीब सी कवायद चल पड़ी है। ऐसे में एक पाठक है बेचारा जो घबराया हुआ है। उसके पास भी है कुछ कहने को, वो कह नहीं पाता। किसको फुरसत है उसे सुनने की। पाठक हाशिए पर है। पाठक अपनी सरल सी अभिव्यक्ति के साथ उपेक्षित खड़ा है, उसकी अभिव्यक्ति की ओर किसी का ध्यान नहीं।

सोचती हूं कि क्या बिना मनुष्य हुए कवि हुआ जा सकता है? अगर आपकी बहुत अच्छी कविताएं किसी का चूल्हा जलाने के काम आएं तो आपको सुख होना चाहिए...बिना अपना नाम लिखे क्या आपमें अपनी कविताओं को आकाश में उछाल देने का साहस है? क्या सचमुच कविता लिखने के बाद, छपने के बाद, पुरस्कृत होने के बाद भीतर की विनम्रता, चुपके से किसी अंहकार में तब्दील हो गई है और लिखने वाले को पता भी नहीं चला...तो सचमुच ऐसे कवि और कविता दोनों की जरूरत न समाज को है न समय को।

संभवतः ऐसी उथल-पुथल रही होगी जिसके चलते एक लंबे समय से मैंने खुद को समेट लिया था, कहीं साहित्यिक जलसों में आना-जाना, मिलना-जुलना बंद, साहित्यिक पत्रिकाओं को से भी माफी मांग ली थी अरसे से। कभी किसी रोज कोई किताब उठाती बालकनी में धूप सेंकते हुए चिड़ियों के शोर के बीच पढ़ती, कभी नहीं भी पढ़ती। यात्राएं करती...पढ़ती...कभी नहीं भी पढ़ती। नदी के किनारे अकेले घंटों बैठकर चुपचाप किसी पहाड़ी को निहारती और कुछ कविताएं पढ़ती, कभी नहीं भी पढ़ती, कभी मीलों पैदल चलते हुए कोई कविता भीतर से गुजरती हुई मालूम होती, उसकी खुशबू सफर को आसान बना देती...एक अरसे से कविताएं इसी तरह साथ हैं...यकीन मानिए सुख है इनके संग इस तरह होने का। वो शोर नहीं करतीं मुझे पढ़ो, मुझे पढ़ो का, बल्कि कहती हैं मौसम जी ले पगली, मैं भी वहीं हूं। कभी भीतर की कोई पीड़ा, कोई बेचैनी उसके करीब ले जाकर खड़ा कर देती और वो सर पर हाथ फिरा देती।

इस बीच जब “क“ से कविता का विचार बना और सुभाष और लोकेश दोनों दोस्तों को बात जम गई तो यह विचार ही किसी कविता सा लगा कि पहाड़ के किसी कोने में रोजमर्रा की आपाधापी में से चंद लम्हे चुराकर अपनी पसंद की कविताएं सुनना, सुनाना...।

हम चल पड़े कविता का हाथ थामकर...कारवां अब बनने लगा है। लोग आते हैं, खुद। छूटते भी जाते हैं खुद। छूटने वालों को कुछ न जमता होगा, आने वालों को कुछ तो जमता होगा। जो भी हो, हमारी हथेलियों में कुछ अच्छी शामें ठहरने लगीं, कुछ ऐसी कविताओं से परिचय बढ़ने लगा जिन तक अभी पहुंचे न थे।

जब हमने “क“ से कविता के बारे में सोचा था तो यही कि इस कार्यक्रम को चारागाह नहीं बनने देंगे। चारागाह यानी मैं....मैं...मैं....मैं.....के शोर से दूर ही रखेंगे। जल्द ही समझ में आ गया था कि यह आसान नहीं होगा, लोगों के भीतर “मैं“ की खेती इस कदर हो चुकी है कि जाने कहां-कहां से, किस-किस रूप में वो बाहर आता है...पर हमने ठान लिया था चारागाह तो नहीं ही बनने देंगे।

कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं कोई शेष नहीं...सब कविता प्र्रेमी बस...इससे कोई समझौता नहीं...चाहे कोई रूठे, नाराज हो, चाहे अंत में हम तीन ही क्यों न बचें...

फिलहाल सफर चल रहा है, अच्छा चल रहा है। सुभाष इसे उत्तरकाशी, श्रीनगर और हल्द्वानी तक पहुंचा सके हैं। इस सफर में बहुत से अनुभव हो रहे हैं। वो भी सीखना है एक तरह का। लोगों के लिए पहले तो “अपनी कविताएं नहीं सुनाना है“ वाला “मैं“ उतारना ही मुश्किल था, वो उतरा जैसे-तैसे तो यह आग्रह झलकने लगे कि जो मेरी प्रिय है उसे कितनी तवज़्जो मिल रही है, मैं कितनी ज्यादा सुना सकूं।

“मैं कौन हूं...“ यह सवाल जो शायद अब तक खुद से कभी पूछा नहीं, लोगों को बताने आते तो लंबी फेहरिस्त निकलने लगी थी कि मैं ये हूं, मैं वो हूं, मैंने ये किया, मैंने वो किया। अक्सर सुझाव मिलते जो “क“ से कविता को किसी लेक्चर मोड की ओर ले जाते मालूम होते।

वरिष्ठों की वरिष्ठता छलकने के नये-नये रास्ते निकालती, लेकिन हम उन रास्तों के आगे हाथ गाये खड़े थे, खड़े हैं। यह बात सबको समझनी ही होगी कि “क“ से कविता की बैठकी सुनने का संस्कार है...एक-दूसरे की पसंद को एप्रिशिएट करने का भी। यह सिर्फ अपनी कविता न सुनाने भर का मामला नहीं है यह सचमुच धीरे-धीरे अपने “मै“ से निकलकर दूसरे को स्पेस देने, सुनने, समझने, एक-दूसरे की तरफ हाथ बढ़ाने का मामला है....

बैठकी का सुख है, खुद को भूलने का सुख होना...बैठकी का सुख है अच्छी कविताओं के करीब जा बैठना।

“क“ से कविता शायद उस “मैं“ को थोड़ा खुरच सके, उस “मैं“ के भीतर जो मासूम सा इंसान कहीं दुबक गया है एक रोज वो शायद बाहर आ सके....कोई बोझ न हो किसी पर....अपने नाम, अपने काम, अपनी पहचान, अपनी पसंद, नापसंद तक का कोई बोझ नहीं....ऐसे ही मुक्त माहौल में कविताओं के उड़ते फिरने की कामना है “क“ से कविता...

('क' से कविता छ महीने की यात्राः कुछ अहसास)