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Monday, February 7, 2022

कहानी- थैंक यू


पिंक साड़ी पहनूं या ब्लैक? या फिर ग्रीन वाली? साड़ी में आंटी जी तो नहीं लगने लगूंगी मैं? जींस कुर्ता पहन लूं स्मार्ट लगेगा. नहीं वो काफी कैजुअल हो जायेगा. मैं दिखना स्पेशल चाहती हूँ लेकिन लगूं कैजुअल सी. यानी कैजुअल स्मार्ट. क्या करूँ...क्या करूँ....पूरे बिस्तर पर साड़ियाँ कुरते दुप्पट्टे बिखरे हुए थे. पूरी ड्रेसिंग टेबल पर झुमके, चूड़ियाँ, कड़े अंगूठियों की नुमाइश लगी थी. रेवती को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था वो कैसे तैयार हो, क्या पहने. घर के बाहर लगी मधुमालती रेवती की हैरानी पर मुस्कुराये जा रही थी. उस पर बैठी चिड़िया देर से जाने कहाँ देख रही थी. चिड़ियों की भी उलझनें होती होंगी क्या? चिड़िया उलझन में होती होगी तो क्या करती होगी? पता नहीं. लेकिन चिड़िया की उलझन रेवती की उलझन जैसी तो नहीं होती होगी. माने क्या पहने.

यूँ तो यह राग हमेशा का है. जैसे ही कोई फंक्शन या कोई कार्यक्रम का इनवाइट आता है सबसे पहला सवाल क्या पहने? पिछले कुछ बरसों में यह सवाल लगातार बड़ा होता जा रहा है. जबकि कॉलेज के दिनों में यही रेवती बिंदास घूमती थी. जो मिल गया पहन लिया, बालों को उमेठ के जूडा बना लिया और कॉलेज पहुँच गयी. एक बार तो स्लीपर में ही पहुँच गयी थी कॉलेज. अलका ने जब ध्यान दिलाया तब रेवती को होश आया. रेवती के बाल बहुत लम्बे और घने थे, अब भी हैं, कॉलेज के ज़माने में तो गजब ही थे. लेकिन मजाल है उसने उन बालों को सलीके से सहेजा हो कभी, कसी चोटी या जूडा वो भी लापरवाही से बनाया हुआ बस इतना ही. जैसे यह भी बोझ हो.

शादी के बाद सजना-संवरना शुरू हुआ लेकिन मन कभी नहीं लगा उसका इस सबमें. बस जरूरत की तरह करती गयी. बिटिया अनु जब बड़ी होने लगी तो याद दिलाने लगी ‘क्या मम्मा आप ठीक से तैयार ही नहीं होती. कितनी सुंदर हो आप और ठीक से तैयार ही नहीं होतीं.’ रेवती को हंसी आ जाती. फिर उसने पैरेंट टीचर मीटिंग में जाने के लिए तैयार होना शुरू किया. लेकिन पिछले एक बरस से उसका सजने-सँवरने को लेकर रुझान बढ़ गया है. हालाँकि यह कोई नहीं जानता कि पिछले एक बरस में उसकी उदासी भी बढ़ रही है.

लेकिन अभी समस्या यह है कि आज जिससे मिलने जाना है वो कोई मामूली शख्स तो है नहीं वो है पिया की सहेली. कितना फ़िल्मी लग रहा है रेवती यह सोचकर मन ही मन मुस्कुराई. इस मुस्कराहट में न जाने कितनी उदासी थी कि पलकों में आने से छुप न सकी. क्या करे ऐसा, क्या कहे वो मानसी को कि फ़िल्मी न लगे. हाँ यही नाम है उसका. रेवती ने खुद मानसी को बुलाया है. आज शाम 4 बजे उससे इंडियन कॉफ़ी हाउस में मुलाकात तय हुई है. अभी बज रहा है 12. पहले वाला समय होता तो वो कहती पूरे चार घंटे हैं अभी जाने में तब तक एक नींद सो लेती हूँ लेकिन अब उसे लग रहा है कि सिर्फ 4 घंटे हैं. तैयार होने का इतना दबाव उसने अपने ऊपर कभी महसूस नहीं किया. क्यों वो एक स्त्री के कांपटीशन में खुद को धकेल रही है उसने खुद से पूछा. पिछले एक बरस से खुद को इसी कांपटीशन में ही पा रही है वो. थक गयी है अनजानी रेस में दौड़ते-दौड़ते. क्यों स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रतियोगिता में ईर्ष्या में द्वेष में उतर जाती हैं प्रेमिका और पत्नी के रूप में आमने-सामने होते ही. कोई असुरक्षा ही होती है जो यह सब करवाती है. उस पुरुष को खोने की असुरक्षा जो दोनों की ज़िन्दगी में महत्व पाने लगा है. देवता तब तक ही तो देवता है जब तक भक्त हैं. सोचते-सोचते मुस्कुरा दी रेवती.

मानसी और प्रशांत एक ही दफ्तर में काम करते हैं. दोनों की अच्छी दोस्ती थी. इस दोस्ती के बारे में रेवती को भी खूब पता था. लेकिन उस दोस्ती के बीच प्रेम ने कब जगह बना ली यह सबसे बाद में पता चला रेवती को. पत्नी को पति के अफेयर के बारे में पता चले तो है तो यह एक विस्फोटक घटना लेकिन घटी सामान्य तरह से ही. रेवती ने बिलकुल रिएक्ट नहीं किया. घर परिवार रिश्ता सब सामने चलता रहा. इतना सामान्य कि प्रशांत को हैरत होने लगी. रेवती इस रिश्ते के बारे में जानते ही आत्मविश्लेष्ण में चली गयी. क्यों हुआ होगा ऐसा? क्यों प्रशांत किसी और स्त्री की ओर गया. प्यार तो वो बहुत करता था उसे. वो भी प्रेम करती थी. फिर क्या हो गया बीच में. इस घटना के बाद रेवती ने खुद पर ध्यान देना शुरू किया, सजना-संवरना शुरू किया.

इकोनोमिक्स में टॉपर रही रेवती सक्सेना ब्यूटी पार्लर के चक्कर लगाने लगी. प्रशान्त उसे हैरत से देखता और खुश होता. रेवती खुश होती कि प्रशांत अब भी उस पर ध्यान दे रहा है वरना किसी और के प्रेम में डूबा व्यक्ति कहाँ देखता है अपनी पत्नी की ओर. इस बात को शुभ संकेत मान वो प्रशांत को वापस लौटा लाने की रेस में और तेज़ और तेज़ दौड़ने लगी. घर प्रशांत के पसंद के पकवानों की खुशबू से और ज्यादा महकने लगा. वो खुद प्रशांत की पसंद के रंगों से सजने लगी. अनु कहती कहती ‘पापा मम्मा इज सो चेंज्ड न?’ प्रशांत हंसकर कहता, ‘हाँ चलो अब आई तो अक्ल तेरी माँ को.’

सजने-संवरने की इस प्रक्रिया में उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में पहली बार झाँक कर देखा. नहीं पहली बार नहीं शादी के बाद पहली बार. वहां उसे कोई सपना नहीं मिला. एक भी नहीं. वो सपने कहाँ गए सारे के सारे जो आँखों में इस कदर भरे थे कि छलकते रहते थे. कॉलेज के टाइम तो न जाने कितने सपने थे इन आँखों में. ये सपनों वाला राजकुमार राजकुमारी के सपने क्यों चुरा लेता है? वो उन सपनों का क्या करता है. रेवती अपनी सपनों से खाली आँखों में डूबने उतराने लगी.

कैसे दौड़ती भागती-फिरती थी वो. कॉलेज की कोई इवेंट रेवती सक्सेना और अलका मिश्रा के बिना संभव ही नहीं होती थी. दोनों पक्की सहेलियां और दोनों एक दूसरे की सबसे बड़ी कांपटीटर भी. डिबेट हो, डांस, स्पोर्ट्स हो या थियेटर इन दोनों के नाम का डंका बजता था. सारी एक्टिविटी में जोर-शोर से शामिल होने वाली ये राजकुमारियां इम्तिहानों में भी बाजी मार लेतीं.

लेकिन जरूरी नहीं कि हर जगह से गोल्ड मैडल बटोरने वालों के पास ज़िन्दगी को समझने की भी समझ हो. कॉलेज के बाद कॉम्पटीशन दिए. पीसीएस के कुछ प्रीलिम कुछ मेंस निकाले तभी एक ‘अच्छा रिश्ता’ आ गया. लड़के ने पीसीएस क्लियर किया हुआ था. रेवती को पहली ही मुलाकात में प्रशांत अच्छा लगा. उसकी खुली सोच, विचारों में स्पष्टता और दकियानूसी रिवाजों से उसकी नाराज़गी ने रेवती को काफी इम्प्रेस किया. प्रशांत को भी रेवती का स्वाभाविक होना बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहना और उसकी सादगी पसंद आई. ‘अच्छा रिश्ता’ पक्का हो गया और मिस रेवती हो गयीं मिसेज रेवती प्रशांत. आजकल यह भी एक ट्रेंड है प्रेम में अपने पति का नाम अपने नाम के साथ लगाना और अपने सरनेम को न छोड़ना. अजब सा प्रोग्रेसिव होना है ये कि पति का सरनेम या तो अपने सरनेम के साथ चिपक जाता है या पति का नाम चिपक जाता है या दो दो सरनेम लगाने लगी हैं लडकियां. रेवती ने कहा वो दोनों में से किसी सरनेम को नहीं लगाएगी. प्रशांत का नाम लगाएगी. क्योंकि प्रेम तो वो प्रशांत से करती है उसके सरनेम से तो नहीं. यह भी उसका छद्म प्रगतिशील होना ही था यह बात उसे काफी बाद में समझ में आई. क्योंकि प्रेम नाम या सरनेम अपने नाम से चिपकाना है ही नहीं. और अगर है तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुरुष प्यार करते ही नहीं स्त्रियों को क्योंकि न तो वो पत्नी का नाम अपने नाम से जोड़ते हैं न सरनेम. सब कुछ जानते बूझते भी शादी के बाद का उबालें खाता प्रेम और शोबिज़ का नशा ज्यादा सिन्दूर लगाने और पति के नाम को अपनी पहचान से जोड़ना अच्छा लगता है की परिभाषा गढ़ लेता. तो रेवती भी उस उफनते प्रेम में क्यों न डूबती भला.

अच्छा हनीमून बीता, उसके बाद अच्छा जीवन बीतने लगा. रेवती को शादी के बाद लगा उसके पंख कटे नहीं हैं, और खुल गए हैं. इस घर में तो माँ की रोक-टोक भी नहीं थी. प्रशांत केयरिंग था. अब भी है. रेवती ने शादी के बाद भी काम्पटीशन देने की धुन को कुछ दिन जिन्दा रखा लेकिन बहुत जल्दी वह धुन नयी-नयी शादी के नशे में पिघल गयी. जैसे ही वो रात को किताबें खोलती प्रशांत उसे बाहों में खींच लेता. दिन घर की देख रेख में निकल जाता. असल बात यह थी कि उसका मन भी नहीं लग रहा था किताबों में.

सब ठीक चलते-चलते ‘कुछ’ हो जाता है जिसे हम कहते हैं कि ठीक नहीं है. वो क्या होता है. ‘ठीक’ को जब वो ठीक होता है हम सम्भाल क्यों नहीं पाते. या हमें पता नहीं चलता कि वो जो ‘ठीक’ लग रहा था वो ‘ठीक’ है ही नहीं. असल ठीक तो यह है जिसे अब दुनिया गलत कह रही है.

रेवती को जबसे प्रशांत और मानसी के बारे में पता चला है वो ऐसे ही सवालों को घुमा-घुमा कर देखती रहती है. जवाब की आशा में नहीं एक ऐसे सवाल की आशा में जो उसे इस उलझन से निकाल ले.

एक बरस से वो जानती है इस रिश्ते के बारे में लेकिन कभी रिएक्ट नहीं किया. वो जानती है कि रिएक्ट करने से कुछ नहीं होगा. रेवती ने खुद को सजाने-सँवारने और प्रशांत का ध्यान फिर से अपनी ओर खींचने की कोशिश तो शुरू कर दी लेकिन उसने महसूस किया कि उसे कुछ ख़ास दुःख नहीं हुआ उनके रिश्ते के बारे में जानकर. वो खुद को बार-बार टटोलती कि आखिर गड़बड़ कहाँ है. ऐसे मौकों पर फिल्मों और धारावाहिकों में पत्नियाँ जिस तरह तड़प-तड़प के जान देने पर उतारू हो जाती हैं ऐसा उसके साथ कुछ नहीं हो रहा है. न ही मानसी को ऊट-पटांग बोलने का उससे सौतिया डाह महसूस करने जैसा कुछ हो रहा है. रेवती जो सजने-संवरने और पति को वापस लाने की जंग में उतर गयी थी उसमें भी उसकी इच्छा नहीं धारावाहिकों का असर ही ज्यादा था.

साड़ियों और गहनों के बीच पसरे हुए रेवती के मन में न जाने कितने ख्याल उतरा रहे थे. लेकिन किसी भी ख्याल में न दुःख था न ईर्ष्या हाँ एक उदासी थी. लेकिन लोग तो कहते हैं कि ईर्ष्या तो प्रेम की पहचान होती है तो क्या उसे प्रेम ही नहीं था प्रशांत से? यानी इतने सालों से जिसके साथ प्रेम है सोचकर जीती आ रही थी उससे प्रेम ही नहीं था. कुछ तो गड़बड़ है. या तो उसे प्रेम नहीं था या प्रेम को नापने वाला समाज का थर्मामीटर गलत है. क्योंकि प्रेम जिसे कहता है जमाना वो तो था, सेक्स, घूमना फिरना, सरप्राइज गिफ्ट, आउटिंग और भी बहुत कुछ. लेकिन ये सब होने पर प्रेम भी होगा ही इसकी कोई गारंटी है क्या?

उसने गुलाबी साड़ी को परे धकेलते हुए खुद से कहा, ‘क्या हो गया है मुझे? ये मैं तो नहीं. मैं किस रेस में दौड़ रही हूँ. बाहर धूप चटख होती जा रही थी भीतर रेवती के भीतर मंथन चल रहा था. शादी मन से की, शादी के बाद जो भी किया मन से किया फिर भी उसे सुकून क्यों नहीं. कहीं उसे अपने मन को समझने में गलती तो नहीं हुई.

मानसी से क्या कहेगी वो ‘मेरे पति को छोड़ दे कुलच्छिनी..’ ऐसा कुछ. उसे जोर से हंसी आ गयी. ज़िन्दगी कितनी फ़िल्मी है यार. और हर मौके पर कोई फ़िल्मी डायलॉग भी टिका देती है. अचानक उसे लगा कि उसे क्यों मिलना चाहिए से मानसी से? लेकिन अब तो मुलाकात तय हो गयी है, जाना तो पड़ेगा. उसने बिखरी हुई साड़ियों, ज्वेलरी की ओर देखा. क्यों वो मानसी के काम्पटीशन में है? पिछले साल भर से वो कर क्या रही है. खुद को आईने मेकअप और ब्यूटी पार्लर को झोंक दिया. क्या इस तरह वो प्रशांत को वापस पाना चाहती है? पहले कभी पाया था क्या? क्या इसमें प्रशांत की गलती है? मानसी की? या रेवती की? सेल्फ ब्लेमिंग हिन्दुस्तानी औरतों का पहला रिएक्श्न होता है इसके बाद दूसरा रिएक्श्न होता है दूसरों पर आरोप मढ़ना. और ये दूसरा अगर कोई स्त्री है तब तो काम बहुत आसान हो जाता है मढ़ने का. ये पहला दूसरा आपस में अदलता-बदलता रहता है. रेवती ने भी सेल्फ ब्लेमिंग को सेल्फ ग्रूमिंग में बदलना शुरू किया.

‘मैं किसी रेस में नहीं हूँ....’ रेवती बडबडाई. उसने खुद को जो कहते हुए सुना उसे वह सुनने की कबसे इच्छा थी. उसकी आँखें बह निकलीं. दो बजने को हो आये थे. अनु के स्कूल से आने का वक़्त हो गया था. उसने फटाफट जींस और कुर्ता चढ़ाया. गर्मी इतनी थी कि बालों का जूडा ही उसे सूझा. अब वो किसी रेस में नहीं थी. लेकिन अपनी खूबसूरत आँखों और लम्बे घने बालों का वो कुछ नहीं कर सकती थी. उसने आई लाइनर उठाकर किनारे रख दिया. लिपस्टिक भी उसने होठों से बस छूकर रख दी. अनु स्कूल से आई तो उसने चेंज कराकर उसे खाना दिया और कमरा समेटने लगी. अनु ने मम्मा को तैयार देखकर कहा, ‘मम्मा आप कहीं जा रही हो?’ ‘मैं नहीं जा रही बेटा हम जा रहे हैं. मुझे एक आंटी से मिलना है तो आपको नानी के घर छोडकर मैं वहां जाऊंगी. फिर शाम को तुम्हें वहां से ले लूंगी. तुम नानू को आज चेस में हराना तब तक’ ‘हाँ खूब मजा आएगा’ अनु ने खुश होकर कहा.

अनु का कुछ सामान गाड़ी की पीछे वाली सीट पर डालकर रेवती माँ के घर को निकल पड़ी. माँ के घर पर अनु को ड्रॉप करके रेवती ने गाड़ी कॉफ़ी हाउस की तरफ मोड़ दी.

क्या मानसी के दिमाग में भी ऐसा ही कुछ चल रहा होगा? क्या वो ख़ास तरह से तैयार हुई होगी? क्या वो नर्वस हो रही होगी? लेकिन वो क्यों नर्वस होगी वो तो प्रेम में है, नर्वस तो मुझे होना चाहिए. प्रेमिका और पत्नी...कैसे खांचे हैं न? अगर मैं जा रही होती राहुल से मिलने...राहुल अचानक कैसे नाम याद आ गया. कॉलेज के ज़माने का उसका धुआंधार प्रेमी. रेवती के चेहरे पर सड़क के दोनों किनारों पर खिले कचनार के फूलों सी मुस्कान तैर गयी. जैसा वो राहुल के साथ फील करती थी वैसा प्रशांत के साथ कभी उसे महसूस नहीं हुआ. हालाँकि कभी कोई कमी भी महसूस नहीं हुई. ये होने और न होने के बीच क्या होता है जो जीवन बदल के रख देता है. जिसका कोई नाम नहीं है. जिसे कोई पहचानता भी नहीं.

क्या मानसी को वो ‘कुछ’ मिल गया है. क्या वो ‘कुछ’ रेवती से खो गया है. क्या वो रेवती के हाथ से फिसलकर मानसी के पास चला गया है. अगर ऐसा है तो उसे कुछ महसूस क्यों नहीं हो रहा है कि ‘कुछ’ चला गया है. ऐसे मौकों पर पत्नियां सामान्य तौर पर बहुत आहत होती हैं. उन आहत पत्नियों के पास क्या वो ‘कुछ’ रहा होता है. और यह कुछ सिर्फ स्त्रियों के हिस्से से ही फिसल जाता है क्या? वो जो आहत होता है वो पत्नी होने का अहंकार होता है या प्रेम? क्या पुरुषों के हिस्से से नहीं फिसलता वो ‘कुछ’. क्या प्रशांत को मानसी के संग वो ‘कुछ’ महसूस हुआ होगा जो रेवती के पास नहीं हुआ. पता नहीं. लेकिन रेवती को इतना पता है कि न तो ईर्ष्या हुई मानसी से न उस पर गुस्सा आया. क्या प्रेमिकाओं को पत्नियों पर भी गुस्सा आता होगा? यही सब सोचते हुए रेवती की कार कॉफ़ी हाउस की पार्किंग में आ गयी. किसी ने गाड़ियाँ उलटी सीधी लगायी हुई थीं. देर तक हार्न बजने के बाद गार्ड आया तो रेवती गार्ड को कार की चाबी देकर आगे निकल गयी यह कहकर कि गाड़ी लगवाकर चाबी रिसेप्शन पर छोड़ दे.

जैसे ही रेवती अंदर पहुंची उसे साइड वाली टेबल पर मानसी बैठी दिखी. सांवली सी इकहरे बदन की लड़की. उसे देख बिलकुल नहीं लग रहा था कि उसने इस मुलाकात के लिए खुद को विशेष तौर पर तैयार किया हो. रेवती के चेहरे पर आत्मविश्वास था जो मानसी के चेहरे पर जरा कम था. यह रिश्तों में बन गयी जगहों का अंतर भर था. इन हालात में अगर प्रशांत होता तो उसके चेहरे पर क्या होता. अगर मानसी सामने है तब और अगर राहुल सामने होता तब? रेवती को हंसी आ गयी.

‘हैलो, मुझे ज्यादा देर तो नहीं हुई न?’ रेवती ने सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा.

‘हाय, एकदम देर नहीं हुई आपको. दरअसल, आप टाइम पर हैं मैं ही थोड़ा जल्दी आ गयी थी.’ मानसी बोली.

‘गर्मी काफी हो रही है. एसी बेअसर हो गए लगते हैं’ रेवती ने कहा. जब बात का कोई सिरा नहीं मिलता तब मौसम की बात करना हमेशा मदद करता है. कोई भी मौसम हो उसके बारे में बात की जा सकती है.

‘जी आप कुछ कहना चाहती थीं?’ मानसी ने सीधे मुद्दे पर आने की कोशिश की.

‘कुछ ख़ास नहीं. बस मिलना चाहती थी.’ रेवती ने सहजता से जवाब दिया.

‘कॉफ़ी और्डर कर लें? कौन सी पियोगी?’ रेवती ने पूछा.
‘वैसे मैं एक कॉफ़ी पी चुकी हूँ लेकिन दोबारा पी सकती हूँ बहुत अच्छी होती है यहाँ की फिल्टर कॉफ़ी.’ मानसी ने भरसक कोशिश करते हुए संयत आवाज़ में कहा.
‘हाँ, फिल्टर कॉफ़ी गजब होती है यहाँ की. कॉफ़ी बीन्स की जो ख़ुशबू होती है वो कहीं और नहीं मिलती.’ रेवती ने मानसी की बात में अपनी सहमति मिलाते हुए कहा.
‘वाह! हमारी पसंद तो मिलती है.’ मानसी ने कहा. उसके मुंह से निकल तो गया लेकिन समझ में आ गया कि गड़बड़ बात निकल गयी है. वो संकोच में एकदम से धंस गयी.
रेवती ने हँसते हुए उसे सहज किया. ‘हाँ पसंद तो मिलती है तभी तो हम यहाँ हैं एक साथ फिल्टर कॉफ़ी पीने.’
‘सॉरी...वो...’ मानसी ने झेंपते हुए कहा.
‘भैया दो फिल्टर कॉफ़ी ला दीजिये और एक पानी की बाटल. थोड़ी ठंडी.’ रेवती ने कॉफ़ी ऑर्डर की अब बात शुरू की जा सकती थी. हालाँकि दोनों में से किसी को पता नहीं था कि क्या बात करनी है.
‘इस मौसम की सबसे सुंदर बात जानती हो क्या है? दहकते गुलमोहर, अमलतास. ऐसा लगता है मौसम से टक्कर ले रहे हों, या कह रहे हों कि तुमसे प्यार है.’ रेवती ने फिर से मौसम का सिरा उठाया बात के लिए.
‘जी’ मानसी का मन मुख्य बात पर लगा हुआ था. उसे लग रहा था ‘कब शुरू होंगी ये आखिर तो इन्हें गालियाँ ही देनी हैं, मुझे ऊट-पटांग ही बोलना है. पता नहीं मैं कितना सह पाऊंगी. कोशिश करूंगी कि उन्हें हर्ट न करूँ, जवाब न दूं लेकिन बहुत बोला तो सह नहीं पाऊंगी.’ मानसी मन ही मन सोच रही थी. प्रशांत ने भी उसे चुपचाप सब सुन लेने को कहा था. उसे गुस्सा आया था इस बात पर. क्या उन्होंने अपनी पत्नी को बोला होगा चुपचाप सब सुनने को. मुझे क्यों बोला. मैं प्रेमिका हूँ तो मेरा सम्मान कम है, वो पत्नी हैं तो उनका सम्मान ज्यादा है. क्यों? मानसी के मन की उथल-पुथल उसके चेहरे से ज़ाहिर होने लगी थी.
‘इतना मत सोचो. मैं बता देती हूँ मैंने तुम्हें क्यों बुलाया है.’ रेवती ने मुस्कुराते हुए मानसी की मन ही मन चलने वाली उलझन को सुलझाने की पहल की. मानसी की मानो चोरी पकड़ी गयी.
‘आप तो मन के भीतर का भी पढ़ लेती हैं?’ मानसी ने संकोच से भरते हुए कहा.
रेवती हंस दी. ‘मैंने तुम्हें थैंक यू कहने के लिए बुलाया है.’ रेवती ने कहा और एक गहरी सांस ली. वेटर ठंडे पानी की बोतल रख गया था उसने गटगट पानी पिया.
‘क्या?’ मानसी ये सुनने को एकदम तैयार नहीं थी. उसने चौंकते हुए कहा.
‘हाँ, सच्ची वाला थैंक यू मानसी. डायरेक्ट दिल से. तुम्हें पता है मैं एक लम्बी गहरी नींद में थी सालों से. तुमने मुझे जगाया. अब समझ में आया कि यह नींद कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गयी. तो तुम्हारा थैंक यू तो बनता है न.’ रेवती ने जो कुछ भी कहा वह उसने सोचा नहीं था. वह खुद को यह कहते हुए सुन रही थी और उसे अच्छा लग रहा था.
‘लेकिन...’ मानसी अभी भी अटकी हुई थी. मतलब ऐसा कौन कहता है.
लेकिन रेवती की मुस्कान बता रही थी कि वो जो कह रही है उसमें सच्चाई है. मानसी को राहत से ज्यादा हैरत हुई. कॉफ़ी आ गयी. दोनों चुपचाप कॉफ़ी पीने लगीं.
‘तो क्या आप प्रशांत को छोड़ देंगी?’ मानसी जानना चाहती थी कि रेवती के मन में चल क्या रहा है.
रेवती जोर से हंस पड़ी. रेवती हँसते हुए इतनी खूबसूरत लगती है कि कोई भी उस पर मुग्ध हो सकता है. प्रशांत कहता तुम्हारी हंसी मोगरे के फूलों सी है सुंदर और महकती हुई. आज वही मोगरे सी हंसी मानसी को घेरे थी.
‘छोड़ दूँगी? किसे? प्रशांत को? मैंने उसे पकड़ा ही कब है? छोड़ना क्या होता है मानसी. पकड़ना क्या होता है.
मैं तो बस इतना जानती हूँ कि तुमने मुझे एक गहरी लम्बी नींद से जगा दिया. खुद से बहुत दूर चली गयी थी मैं...और मुझे पता भी नहीं चला.’

कॉफ़ी खत्म होने को थी. बिल दिया जा चुका था. मानसी कॉफ़ी हाउस की दीवार पर टंगी नीले रंग की पेंटिंग को देख रही थी जिसमें एक स्त्री बुहार रही थी. उसी नीले रंग से नीला लिए बैठी थी सामने एक स्त्री जो जीवन में आये छिछले सुखों को बुहार रही थी.

रेवती काफी हल्का महसूस कर रही थी और मानसी को पता नहीं वो कैसा महसूस कर रही थी. रेवती ने मानसी की तरफ बाहें फैलायीं तो मानसी उनमें हिचकते हुए समा गयी.
‘आपसे किसे प्यार न हो जाए भला’ मानसी ने अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए कहा.

रेवती मुस्कुरा दी. उसने रिसेप्शन से अपनी कार की चाभी ली और कॉफ़ी हाउस से बाहर निकली तो बाहर का मौसम बदल चुका था. धूप कहीं छुप गयी थी. हवाओं में ठंडक उतर आई थी. गार्ड को चाबी देकर उसने कहा गाड़ी निकलवा दे और वो बाहर खड़ी होकर इंतज़ार करने लगी. उसने इंतज़ार करते हुए खुद को बहुत हल्का महसूस किया जैसे वो फिर से कॉलेज वाली रेवती होने लगी थी. उसने हवा के झोंकों से टूटकर गिरते कचनार अपनी हथेलियों में भर लिए. उसने देखा एक फूल उसके कंधे पर भी आ बैठा है. रेवती की मुस्कुराहट बढ़ गयी. वो घर आई तो अनु एकदम तैयार थी चलने के लिए. माँ ने चाय पीने को कहा तो उसने अनु के सर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘आज चाय नहीं माँ आज मैं और अनु पार्टी करेंगे आइसक्रीम खायेंगे.’
‘येहे हे हे....’ अनु एकदम से बहुत खुश हो गयी.

Sunday, January 23, 2022

कहानी- अरुणिमा


- प्रतिभा कटियार

हरसिंगार के फूल हथेलियों में भरकर अरुणिमा के ऊपर गिराने में तरुण को जितना सुख मिलता अरुणिमा को उससे ज्यादा सुख मिलता कभी ठंडा पानी, कभी बर्फ के टुकड़े तरुण पर उछालकर. जब तरुण उसे धप्पा देने के लिए उसके पीछे भागता तो आगे भागती खिलखिलाती अरुणिमा की आभा पूरे घर में बिखर जाती. दोनों की जान बसती है एक दूसरे में. बहुत प्यार करता है तरुण अरुणिमा को और अरुणिमा तरुण को. हालाँकि वो तरुण के मुकाबले थोड़ा कम प्यार करती है तरुण को ऐसा वह खुद मानती है क्योंकि उसे लगता है वह थोडा सा प्यार खुद से भी करती है यह इनके प्रेम का शुरूआती दौर नहीं है. क्योंकि शुरूआती दौर की प्रेम कहानियों में तो ऐसे ही छलकता है प्रेम यह सामान्य बात है. लेकिन तरुण और अरुणिमा की यह प्रेम कहानी है 32 बरस पुरानी. पुरानी मतलब बीत नहीं चुकी चल रही है 32 बरसों से.

पूरे दो बरस बाद अपरिमित वापस आने वाला है. हालाँकि जीवन में आये तो उसे 28 बरस हो चुके हैं. पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया गया था दो बरस बाद घर लौट रहा है. उसकी वापसी पर होना तो ख़ुशी का माहौल था लेकिन छाई उलझन, चिंता और बेचैनी है. हालाँकि यह सब तरुण की तरफ से ही है जिसे देख अरुणिमा को गुस्सा आ रहा है कि उसे कुछ बताया भी नहीं जा रहा और मुंह टेढ़ा है अलग. यूँ दोनों बाप बेटे हमेशा दोस्तों की तरह ही रहे हैं लेकिन अब जब आमने-सामने खड़े हैं तो दोस्त नहीं बाप और बेटे ही हैं. घर का माहौल हमेशा लोकतांत्रिक रहा. हमेशा सबके विचारों की इच्छाओं की स्पेस रही. तरुण खुद आज़ाद ख्याल था. कई बार तो वो अरुणिमा से इसलिए लड़ा कि वो अपने अधिकार के लिए चुप क्यों रही. या इसलिए कि इच्छा नहीं थी किसी काम की तो खुलकर मना क्यों नहीं किया. चाहे वो प्रेम के आंतरिक क्षण ही क्यों न हों. तरुण कहता, ‘किसी को बुरा न लग जाए इस ख्याल के साथ ही रिश्तों में समर्पण और त्याग की शुरुआत होती है और धीरे-धीरे ये किसी एक को निगल जाती है. इसीलिए बहुत कम रिश्ते बराबरी की बुनियाद पर खड़े होते हैं. हालाँकि दिखते जरूर हैं अब काफी रिश्ते बराबरी जैसे. यह भी एक ट्रेंड बन गया है फैशन, आधुनिक विचारों का चोला पहनना, लोकतान्त्रिक दिखना. लेकिन दिखने और सचमुच होने में अभी काफी दूरी है.’ अरुणिमा उसकी बात को लापरवाही से सुनते हुए आसमान में कुछ ढूँढने लगती. या खिड़की के बंद शीशे के बाहर हवा में लहराते झूमते पेड़ को देखने लगती. हालाँकि वह जानती थी कि तरुण कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहा है.

इसी तरह के समझ भरे माहौल में परवरिश हुई है अपरिमित की. अरुणिमा और तरुण दोनों अलग-अलग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर. अरुणिमा को इतिहास में दिलचस्पी थी तो वो बच्चों को इतिहास पढ़ाने लगी तरुण को राजनीतिशास्त्र में दिलचस्पी थी तो पढ़ाने लगा राजनीतिशास्त्र.

अपरिमित इन दोनों की संतान जरूर है लेकिन दोनों से अलग. उसकी आदतें अलग, ख्वाहिशें अलग और सपने अलग. उसे महंगे मोबाईल, बाइक की दरकार होने लगी. अरुणिमा ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अब ये घर, घर हुआ. अब यहाँ दुनिया की ख्वाहिशें आयीं, बाज़ार आया...तरुण हंस देता लेकिन वो अपरिमित की हर ख्वाहिश पूरी करने को मना भी करता. तरुण कहता मुझे इस पीढ़ी की यह बात बहुत अच्छी लगती है कि इन बच्चों में जेंडर को लेकर दुराव नहीं है. हमारे ज़माने में तो लड़कों का लड़कियों से बात करना बहुत बड़ी बात होती थी लेकिन ये सब कितने सहज हैं एक दूसरे से. अरुणिमा हंस देती. ‘सच कह रहे हैं यह पीढ़ी खुलेपन में बहुत आगे है लेकिन काश विचारों के खुलेपन में भी होती.’ अरुणिमा का ध्यान देश के हालात से हट नहीं पाता. ‘छात्रों को किस तरह बरगलाया है भगवा राजनीति ने उन्हें उनके ही खिलाफ करने की उनकी साजिश और वे समझ ही नहीं पा रहे.’

‘सब लोभ की राजनीति है. सब समझ पा रहे हैं. वो अपने और अपने परिवारों के भीतर पलती न जाने कितने पुरानी नफरत को साधने निकल पड़े हैं.’ तरुण को तस्वीर के पार देखना आता था.

‘लेकिन दौर कोई भी हो कोई नेता क्यों नहीं मरता?’ अरुणिमा कहती तो तरुण गांधी..सुभाष...नेहरु...लाल बहादुर शास्त्री....इंदिरा...राजीव...भगतसिंह के नाम गिनाकर उसके सवाल का मुंह बंद कर देता. अरुणिमा सोचती कि इन नामों में कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश, रोहित वेमुला और बहुत से नाम भी तो जुड़ने चाहिये. उसे अर्बन नक्सल के नाम पर जेल में ठूंस दिए गए तमाम चेहरे नजर आने लगे. और याद आ गया वो किस्सा जब तरुण की कक्षा में तरुण ने गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज आदि को एक्टिविस्ट कहा था तब कुछ छात्र उन्हें नक्सली कहकर उग्र हो गए थे. ‘वैसे सर, आपको इतना ही प्यार है उन लोगों से तो आपको भी उन्हीं के पास भिजवा देना चाहिए.’ कहते हुए शैलेश की आँखों में जो हिंसा उभरी थी वो अब तक सिहरन पैदा कर देती है. कितनी मुश्किल से उस दिन कक्षा संभली थी. तरुण को किसी तरह बचाकर स्टाफ रूम तक लाये थे कुछ छात्र छात्राएं लेकिन उस पर स्टाफ रूम में हमले शुरू हो गए थे. तमाम प्रोटेस्ट में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के कारण तरुण को यूँ भी साथी प्रोफेसर ज्यादा पसंद नहीं करते थे. अरुणिमा को भी काफी अपरोक्ष टिप्पणियाँ सुननी पड़ती थीं जिनका वह मजबूती से प्रतिवाद करती. लेकिन उस दिन की घटना के बाद से अरुणिमा भी डर गयी थी.

इधर ये दोनों देश के हालात से अपनी तरह से जूझ रहे थे उधर इन दोनों का लाडला देश की राजनीति पर लानतें भेजते हुए चला गया ऑस्ट्रेलिया. अपरिमित मेडिकल की आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया गया था. आर्थोपेडिक में एमएस करने. वहां उसे अनम मिली और अनम से उसकी दोरती बिना ज्यादा वक्त गंवाए लिवइन रिलेशनशिप में बदल गयी थी. यह बात भी अरुणिमा और तरुण से छुपी नहीं थी क्योंकि छुपाई भी नहीं थी अपरिमित ने. अपरिमित के शब्दों में अनम ब्यूटी विद ब्रेन एंड करेज है. बचपन में माँ बाप को खो चुकी अनम को उसकी मौसी ने पाला. कम ही उम्र में अनम पढाई के साथ काम करने लगी. खुद को खुद उठाया और खुद बनाया.

अरुणिमा ने अपरिमित की परवरिश में उसकी टीन एज में हुए पहले ब्रेकअप के वक्त एक ही बात कही थी, ‘जो भी रिश्ते बनाना तब बनाना जब उन्हें संभाल पाने की कूवत हो जाय. उन रिश्तों को जैसे भी जीना, उनमें कितना गहरे उतरना कितना नहीं यह सब तुम खुद तय करना लेकिन याद रहे कभी किसी कंधे की तलाश नहीं करना. यानी अपने दुःख उठाने की ताकत खुद पैदा करना. और ध्यान रखना कि किसी के दुःख की वजह तुम न बनो. एक सत्रह साल के लड़के के लिए जिसका अभी-अभी पहला ब्रेकअप हुआ हो ये सब बातें बहुत अजीब थीं. उसे ज्यादा कुछ समझ तो नहीं आया सिवाय इसके कि मम्मी पापा को उसके अफेयर से कोई प्रॉब्लम नहीं है.

अपरिमित आकर तरुण के पाँव छूने झुका तो तरुण ने उसे हमेशा की तरह लपक कर सीने से लगाने की बजाय रूखा सा ‘खुश रहो’ भर कहा. अरुणिमा ने सीने से लगा लिया अप्पू को पीठ पर हाथ फेरते हुए बिना यह जाने कि गड़बड़ क्या है उसके कान में फुसफुसाकर कहा, ‘सब ठीक हो जाएगा.’ एक अबोला घर में डोलने लगा हालाँकि सब आपस में बात कर रहे थे फिर भी. जब तक कोई बात जो केंद्र में हो उस पर बात नहीं होती सारी बातें फिलर जैसी ही लगती हैं.

अरुणिमा जानती है कि फिलर्स कई बार बहुत कीमती होते हैं. तरुण और अरुणिमा जब शुरूआती दिनों में मिला करते थे, दुनिया भर की बातें किया करते थे सिवाय प्रेम के. राजनीति, समाज, धर्म, खबरें जाने क्या क्या. और घंटों बातें करने के बाद भी प्यासे ही लौट जाते थे. एक रोज अरुणिमा ने ही खिसियाकर कहा, ‘मुझे नहीं करनी ये सब बातें’ और वो रुआंसी हो आई थी. तरुण समझ तो गया था लेकिन अनजान बनते हुए बोला, ‘तो तुम बताओ कौन सी बात करनी है...’ अरुणिमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें तरुण की आँखों में धंसा दीं. ‘तुम्हें नहीं पता?’ वो बोली. तरुण ने ढीठ बनते हुए मुस्कुराकर कहा, ‘नहीं’. अरुणिमा गुस्सा होकर चल दी, ‘तो ठीक है फिर मैं जा रही हूँ.’ तरुण ने उसे रोक लिया था, रुको एक कविता सुनाता हूँ उसके बाद जाना..’

क्या जीवन की इस ऊबड़-खाबड़ डगर पर
घनी धूप में मेरे साथ चलोगी
क्या तुम धारधार बारिश में
जीवन भर मेरे साथ भीगोगी
क्या तुम सर्द रातों में
जीवन के अलाव की आंच बढ़ाने को
अपने साँसों का ईंधन खर्च करोगी
मैं तुम्हारे जूड़े में अमलतास लगाना चाहता हूँ
तुम पर हरसिंगार बरसाना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ गुलमोहर का एक पौधा रोपना चाहता हूँ
जो तब भी खिले जब हम न रहे...
बोलो क्या तुम मेरे साथ वो पौधा लगाओगी?


वो कविता नहीं थी अरुणिमा की जिन्दगी थी. उसकी आँखें डबडबा आई थीं. उस कविता का असर यह हुआ कि गुलमोहर का पौधा घर के बाहर खिलखिला रहा है और अपरिमित प्यार जीवन में लहक रहा है.

लेकिन अभी अरुणिमा को यह जानना था कि साहबजादे ने ऐसा क्या कर दिया कि तरुण इस कदर गुस्से में है. ‘तुम्हें पता है अनम प्रेग्नेंट है ?’ गुस्से में उफनते हुए तरुण ने कहा. 28 साल का मैच्योर लड़का ऐसी फूहड़ गलती कैसे कर सकता है’ तरुण ने दांत भींचते हुए कहा.

अरुणिमा को अब जाकर मामला समझ में आया.
उधर अपरिमित सोच रहा था कि कैसे बताये पापा को कि प्रिकाशन लिया था उसने, फेल हो गया. साले कंडोम कम्पनी वालों पर केस करना चाहिए. इनके चक्कर में न जाने कितनी फटे हुए कंडोम की औलादें जन्म ले रही हैं.

‘ह्म्म्म तो यह बात है, अब इस समस्या का समाधान एक ही हो सकता है शादी.’ अरुणिमा ने अपनी ख़ुशी को जज्ब करते हुए कहा. हालाँकि अरुणिमा को शादी को हल के रूप में देखना खुद भी अजीब लग रहा था. शादी न भी हो तो भी क्या लिव इन लीगल है भाई. बस क्लियर हो जाओ और रहो साथ. लेकिन रहना साथ. यह जरूरी है. लिव इन को लाइटली लेकर निकल मत लेना बीच से.

अनम बच्चा अबौर्ट करने को राजी नहीं है. अपरिमित ने कहा.
‘हाँ तो क्यों अबौर्ट करना है?’ अरुणिमा को इस बात का कोई तुक ही समझ में नहीं आया.
‘यानी वो तुम पर शादी का दबाव बना रही है? क्यों? समाज के डर से ही न? वो सिर्फ तुम्हें धमका रही है. ब्लैकमेल कर रही है.’ तरुण ने अपना तमाम अनुभव विश्लेष्ण में पिरो दिया.
‘नहीं पापा, अनम शादी की बात इसलिये नहीं कह रही है कि सोसायटी से डरती है वो. वो बहुत हिम्मती है. वो शादी करना चाहती है क्योंकि वो मुझसे सच में प्यार करती है, और मुझसे ज्यादा तो उसे मेरा फैमली पसंद है. खासकर मम्मा. शी वांट्स अ फैमली’ कहते हुए अपरिमित के भीतर की तरलता उसकी आवाज में घुल गयी.
अरुणिमा इतनी खुश हुई यह सुनकर, ‘अनम मुझे बहुत पसंद है अगर वह बहू बनती है तो इससे अच्छा क्या होगा भला.’ उसने कहा.
तरुण ने गुस्से में कहा,’ तुम बिना कुछ जाने रिश्ते मत बनाने लगो.’
‘तो बताओ मुझे कि असल समस्या क्या है?’

‘अप्पू को आये चार दिन हो गए आप लोग कोई बात ही नहीं कर रहे. सस्पेंस खत्म करो और बताओ मुझे कि क्या चल रहा है तुम दोनों के दिमाग में जो मैं नहीं जानती.’ अरुणिमा ने चाय टेबल पर रखते हुए कहा. बाहर गुलमोहर अपनी रंगत पर इतरा रहा था. भीतर तनाव पसरा हुआ था.
‘क्या बताऊँ? ऐसा फंसा दिया है साहबजादे ने?’ तरुण ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखा और चाय उठाई.
‘पापा मैं भी तो फंस गया हूँ मैं क्या करूँ. हो गयी गलती.’
‘तो मैं बता रही हूँ, अप्पू और अनम की शादी करा दो बस बात खत्म’ मैं दादी बनने वाली हूँ इस बात की कोई ख़ुशी भी नहीं मनाने दे रहा.’ अरुणिमा ने हंसते हुए माहौल को सहज करते हुए कहा.
‘यार वो लड़की मुसलमान है, पाकिस्तान से है कैसे होगी शादी?’ तरुण ने शब्दों को चबा चबाकर कहा. अरुणिमा को झटका लगा तरुण के मुंह से यह सुनकर. हालाँकि अनम मुसलमान है पाकिस्तानी है यह बात नहीं पता थी अरुणिमा को लेकिन तरुण ‘इस बात’ से परेशान है इस बात का झटका लगा अरुणिमा को.
‘क्या? इस बात से परेशान हो तुम? तुम तरुण?’ अरुणिमा ने बेहद हैरत से कहा. उसे लगा वो इस तरुण को जानती ही नहीं है. तरुण ने अपनी निगाहें खिड़की के बाहर टिका दीं.
‘तुम जरूर मजाक कर रहे हो यह वजह नहीं हो सकती तुम्हारी चिंता की. सच बात बताओ.’ अरुणिमा की नायकीनी बढ़ती ही जा रही थी.
‘मैं कोई मजाक नहीं कर रहा.’ तरुण ने खिड़की के बाहर नजर टिकाये हुए ही कहा.
‘तुम तो हमेशा ऐसी बातों की खिलाफत करते रहे. सारी जिन्दगी प्रोटेस्ट किया, हिन्दू मुस्लिम एकता की बातें की. हिंदुस्तान पाकिस्तान के बीच दोस्ताना संबंधों की बात करते रहे, छात्रों को एकता के पाठ पढ़ाते रहे. आज जब घर में प्यारी सी बहू और पोता या पोती आने को है तुम यह कह रहे हो? यह बात?‘ अरुणिमा ‘यह बात’ पर केन्द्रित थी. यह ‘यह बात’ यूँ तो कॉमन है समाज में खासकर इन हालात में लेकिन तरुण ऐसी बात कहेगा यह अरुणिमा के लिए आश्चर्यजनक और असहनीय हो रहा था.

‘एक तो तुम पहले ये बहू और पोता पोती की बात करना बंद करो मम्मी.’ यह अपरिमित का स्वर था. एकदम चिढ़ा हुआ. अब अरुणिमा हैरत से बेटे को देख रही थी.

‘पापा, मुझे धोखा दिया है उस लड़की ने. मैं आपसे कह रहा हूँ आप सुनते क्यों नहीं मेरी बात?’
अरुणिमा को लग रहा था वो अजनबी लोगों के बीच है.

‘धोखा दिया है?’ ये क्या बात कर रहे हो? क्या हुआ है बताओगे मुझे भी. मैं भी रहती हूँ न इसी घर में. कोई मुझे कुछ बतायेगा.’ अरुणिमा लगभग चीख पड़ी थी.
‘मम्मा उसने मुझे बताया ही नहीं कि वो मुसलमान है. लिव इन में आने के साल भर बाद मुझे पता चला जब उसकी मासी आईं उससे मिलने. उसे देखकर कोई कह ही नहीं सकता वो मुसलमान है.’
‘क्या....क्या बात कर रहा है ये लड़का. कोई बताता है क्या कि वो मुसलमान है? क्या कोई लड़की किसी लड़के से मिलने से पहले मैं मुसलमान हूँ का टैग लगाकर जायेगी. उसे देखकर लगता नहीं का क्या मतलब है. पता चला का क्या मतलब है और अगर है तो फर्क क्या पड़ता है.’ अरुणिमा बौखला गयी थी एकदम. तरुण की बात अप्प्पू की बात. एक पति है, दूसरा बेटा है.
जिन्दगी भर सेकुलर दिखने वाला पति कह रहा है वो मुसलमान है, पाकिस्तान से है कैसे होगी शादी?’ और मुक्त लोकतान्त्रिक परिवेश में पले बढ़े साहबजादे कह रहे हैं, ‘उसने मुझे धोखा दिया यह न बताकर कि वो मुसलमान है.’
‘फर्क पड़ता है...’ अप्पू और तरुण दोनों ही एक साथ बोले.
‘तुम उसे बोल दो कि तुम्हारे पैरेंट्स नहीं मान रहे?’ तरुण ने अप्पू को समझाते हुए कहा.
‘पापा आप समझ नहीं रहे हैं. मैं खुद उससे शादी नहीं करना चाहता. मैं एक पाकिस्तानी से शादी कैसे कर सकता हूँ. लिबरल होने का यह अर्थ तो नहीं कि मैं मुसलमान बच्चे पैदा करूँ’. अपरिमित ने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया.
‘अरे वाह, फिर तो मामला क्लियर है’ तरुण के चेहरे पर ख़ुशी के भाव आ गए.
‘नहीं है क्लियर मामला क्योंकि वो अबार्शन के लिए राजी नहीं है.’ अप्पू ने कहा. और अगर उसने बच्चे को जन्म दिया जो वो देगी ही क्योंकि वो बहुत जिद्दी है और खुद मुख़्तार भी तो जीवन भर दिल में फांस रहेगी कि मेरा एक बच्चा है जिसकी माँ मुसलमान है. लिव इन से हुए बच्चे भी लीगल राईट रखते हैं न अब तो.’
अपरिमित बोले जा रहा था. अरुणिमा को चक्कर से आने लगे थे. उफ्फफ कितना कुछ सोच चुका है वो. इतनी घृणा उससे जिससे प्रेम किया जिसकी कोख में इसका बच्चा है? और घृणा का कारण देश और धर्म. तरुण जो हमेशा कहता था ‘बच्चे हिन्दू मुसलमान पैदा नहीं होते’ वो इस बात पर इतना खुश कि अप्पू शादी नहीं करना चाहता उससे.
‘मैं तो यह सोचकर आया था कि मम्मा शायद अनम से बात करें तो वो मान जाए. मम्मा को बहुत पसंद करती है वो. उन्हें बहुत एप्रीशिएट भी करती है...’ अप्पू ने रुक रुक कर कहा.
‘क्या?’ अरुणिमा के चौंकने का सिलसिला लगातार चले ही जा रहा था. शाम अब रात का रूप धरकर घर के भीतर घुस आई थी. अरुणिमा को लगा घर के भीतर ही नहीं जीवन के भीतर भी घुस आई है रात.
‘मुझे लगा था मुझे तेरे पापा को मनाना है तेरी शादी के लिए लेकिन मुझे तो अनम को मनाना है एबार्शन के लिए..?’ अरुणिमा लगभग रो पड़ी थी कहते-कहते.
‘तो इसमें प्रॉब्लम क्या है. कुछ बातें प्रैक्टिकल होकर सोचनी ही पड़ती हैं.’ तरुण ने अरुणिमा की ओर देखते हुए कहा.
अरुणिमा को अनम का चहकता हुआ चेहरा याद आने लगा. ‘प्रॉब्लम’ कहाँ है समझ ही तो नहीं पायी मैं तरुण’. कोई दुःख चीरता हुए नसों में उतर गया अरुणिमा के.
‘धोखा अनम ने तुम्हें नहीं दिया बेटा धोखा तो मुझे मिला है.’ अरुणिमा ने कहा तो तरुण ने मानो सुना ही नहीं.
टेबल पर रखा अपरिमित का फोन बज उठा. अनम का फोन था. अरुणिमा ने कहा ‘उठा ले अप्पू तू चाहता था न मैं उससे बात करूँ ला मैं करती हूँ बात.’ अरुणिमा के यह कहते ही तरुण और अपरिमित दोनों के चेहरे पर राहत सी आ गयी. अप्पू ने फोन उठाकर अरुणिमा को दे दिया,
‘हैलो आंटी..’ अनम ने बोला तो सुनते ही अरुणिमा की आँखें छलछला आयीं. वो भीगी हुई आँखों से अनम को देखती रही. स्त्री जब गर्भ से होती है तो एक अलग ही आभा दिपदिपाती है उसके चेहरे पर. वही आभा थी अनम के चेहरे पर जिसमें अपरिमित की बोई अवसाद की लकीरें भी शामिल थीं.
‘अनम, कैसी हो तुम? अपना ख्याल तो रख रही हो न?’
‘जी आंटी. आप कैसी हैं?’ अरुणिमा सोचने लगी कि वो कैसी है और गीली सी हंसी चेहरे पर बिखेर कर उसने कहा’ अच्छी हूँ. बहुत अच्छी हूँ.’ उधर तरुण और अपरिमित इस प्रेमिल वार्तालाप को ध्यान से सुन रहे थे कि उन्हें इस वार्तालाप में से आती उम्मीद की धुन सुनाई दे रही थी.
‘अनम, तुम अपना और बच्चे का ख्याल रखना. चिंता एकदम न करना.’ ‘अनम का चेहरा खिल उठा उसे लगा उसकी शादी फैमिली से और अपरिमित से अप्रूव हो गयी है हालाँकि वो क्यों इस अप्रूवल का इंतजार कर रही थी उसे भी पता नहीं. वो अपरिमित से अक्सर कहा करती थी ‘मैंने अपनी माँ को नहीं देखा लेकिन आंटी को देखकर मुझे लगता है काश वो मेरी माँ होतीं.’ जब वो यह कहा करती थी तब शादी और प्रेगनेंसी की बात दूर-दूर तक नहीं थी.
‘मैं जानती थी आंटी अपरिमित को आप जरूर समझा सकेंगी. वो मान गया न?’ अरुणिमा ने मोबाईल के स्क्रीन से नजर उठाकर अपरिमित के सपाट चेहरे की ओर देखा. ‘सॉरी अनम, मैं किसी को कुछ नहीं समझा सकी. खुद ही समझ गयी हूँ कुछ बातें.’ यह कहते हुए अरुणिमा ने बारी-बारी से तरुण और अप्पू को उदास गुस्से के साथ देखा.
अनम की आँखें डबडबा आई थीं. अरुणिमा की आँखों में भी कोई धार फूट पड़ने को थी. और ये बरसने को व्याकुल आंसू कमजोरी की निशानी हरगिज़ नहीं थे.
‘अनम मेरा एक काम करोगी प्लीज़?’ अरुणिमा ने मानो मन ही मन कोई फैसला कर लिया हो.
‘जी आंटी बताइए न’ अनम के कहने में अपनापन छलक रहा था.
‘मेरा एक एयर टिकट करा दो अपने पास आने का. मैं जल्दी से तुम्हें गले लगाना चाहती हूँ.’ यह कहते हुए रुकी हुई धार अरुणिमा की आँखों से बह चली.
‘हाँ, जरूर’ कहते ही अनम का दुःख का रोना सुख के रोने में बदलकर मोबाईल स्क्रीन पर मोतियों की तरह बिखरने लगा.
तरुण और अपरिमित किसी पराजित सैनिक की तरह सर झुकाए बैठे थे.

Friday, January 14, 2022

कहानी- छुट्टी


- प्रतिभा कटियार
‘मम्मा, आज ऑफिस न जाओ. प्लीज़ मम्मा.’ बिस्तर में कुनमुनाते हुए विशु ने मंदिरा का हाथ पकड़ लिया. तेज़ी से घर के काम निपटाती मंदिरा एक पल को भरभरा के गिरने हुई जैसे. यार अब ये लास्ट मूमेंट इमोशनल क्राईसिस कैसे मैनेज करेगी वो. अभी और भी काम पड़े हैं घर के. विशु के लिए फ्रूट्स काटकर रखने हैं, अपना नाश्ता पैक करना है और हाँ बाल भी बनाने हैं अभी तो. उसने मन ही मन सोचा बालों को लपेटकर जूड़ा बना लेगी फिर ऑफिस के वाशरूम में ठीक से बना लेगी. नाश्ता भी चलो पैक कर लेगी टी ब्रेक में खा लेगी लेकिन अब विशु का वो क्या करे. अपनी तमाम अधीरता को समेटते हुए, ढेर सारा लाड़ आवाज़ में घोलते हुए उसने विशु के माथे को चूमना चाहा तो उसे उसका माथा तपता हुआ लगा. छूकर देखा तो उसे बुखार था.

मंदिरा वहीँ बैठ गयी. सब कुछ संभालने की जद्दोजहद ऐसे मौकों पर एकदम से ढह जाती है. ऑफिस की मीटिंग, उसका प्रेजेंटेशन सब फ्रीज़ हो गया एकदम से. नौ बरस के बच्चे को बुखार में छोड़कर कैसे जा सकती है वो. लेकिन एन वक्त पर ऑफिस से छुट्टी भी कैसे ले सकती है. दोनों ‘कैसे’ के बीच घड़ी की सुई मुंह चिढ़ाते हुए टिक टिक कर रही थी.

महेश को फोन मिलाया हालाँकि वो जानती है कि उसे फोन मिलाने से कोई फायदा नहीं होगा फिर भी उसने महेश का नम्बर डायल कर दिया. पहली कॉल महेश ने उठायी नहीं, दूसरी कॉल पर वो झल्ला पड़ा ‘यार सुबह से ही तुम क्यों परेशान करने लगती हो अभी ऑफिस पहुंचा हूँ, काम शुरू हुआ है. बाद में कॉल करना.’ कहकर महेश ने फोन काट दिया.

मंदिरा को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन अभी गुस्से का समय नहीं था क्राइसिस मैनेजमेंट का समय था. उसने फिर से फोन मिलाया, ‘विशु को बुखार है महेश उसे बुखार में मेड के सहारे छोड़कर नहीं जा सकती. तुम आज छुट्टी ले लो प्लीज़’ इस बार मंदिरा ने महेश को बोलने का कोई भी मौका दिए बिना अपनी बात कह दी.

‘अरे तो तुम छुट्टी ले लो न, मुझे क्यों कह रही हो’ महेश अब भी उसी चिढ़ी हुई आवाज़ में बात कर रहा था. ‘अगर ले सकती तो तुम्हें फोन नहीं करती. नहीं ले सकती छुट्टी मैं आज. मीटिंग है ऑफिस में. मेरा प्रेजेंटेशन है.’

‘तुम कहना क्या चाहती हो, तुम्हारी मीटिंग, तुम्हारा ऑफिस इम्पोर्टेंट है और मेरा नहीं.’ महेश की आवाज़ की तेजी और रूखापन बढ़ता जा रहा था.

‘मैंने ऐसा नहीं कहा, आज मेरे ऑफिस में ऐसी स्थिति नहीं है कि मैं छुट्टी ले सकूं. मेरा होना जरूरी है वहां. हमेशा तो लेती ही हूँ.’ मंदिरा ने घर के बचे हुए कामों को तेज़ी से समेटते हुए कहा.

‘ओह हमेशा तुम छुट्टी लेती हो? यानी तुम ही सब करती हो. मैं कुछ नहीं करता? यार तुमको न ये हीरोइन बनने का कुछ ज्यादा ही शौक नहीं है. देखो मैं छुट्टी नहीं ले सकता. तुम मैनेज करो. और अब फोन मत करना.’ महेश ने फोन काट दिया लेकिन मंदिरा के पास महेश की बातों का बुरा मानने का वक्त ही नहीं था. उसने ऑफिस के ग्रुप में मैसेज किया कि बच्चे की तबियत ठीक नहीं थोड़ी देर से पहुंचेगी.

मुखर्जी आंटी को फोन लगाया, ‘आंटी आज मैं विशु को आपके यहाँ छोड़ सकती हूँ क्या? असल में उसे थोड़ा बुखार है और मैं छुट्टी नहीं ले सकती आज.’

मुखर्जी आंटी पापा के ऑफिस में काम करती थीं. अब रिटायर हो गयी हैं और अकेली रहती हैं. इस तरह के हालात में पहले भी कई बार वो काम आ चुकी हैं. मुखर्जी आंटी को उस रोज कहीं जाना था लेकिन उन्होंने मंदिरा की इमरजेंसी को देखते हुए अपना जाना स्थगित किया.

मंदिरा ने विशु को जल्दी से कपड़े बदलवाए, सामान के साथ विशु और मीना को गाड़ी में बिठाया और मुखर्जी आंटी के घर की ओर चल पड़ी. विशु को मुखर्जी आंटी के घर जाना पसंद नहीं है जानती है मंदिरा लेकिन अभी उसके पास कोई दूसरा ऑप्शन नहीं था. उधर विशु लगातार रोये जा रहा था, शिकायत किये जा रहा था, ‘मम्मा आप बहुत गंदी हो. मैंने आपको बोला आप घर पर ही रुक जाओ और आप मुझे ही घर से बाहर लेकर जा रहे हो. मैं आपसे कभी बात नहीं करूंगा.’

मंदिरा के पास विशु की बात का बुरा मानने या उसे समझाने का न समय था, न ताकत.

मुखर्जी आंटी गेट पर ही मिल गयीं. सामान की तरह मंदिरा ने विशु का हाथ मुखर्जी आंटी के हाथ में थमाया और मीना से बोला आंटी को परेशान न करना. ध्यान रखना बेबी का. विशु आंटी को तंग नहीं करना. कहकर मंदिरा ने गाड़ी मोड़ी ऑफिस की तरफ.

पूरे एक घंटे देर से पहुंची वो ऑफिस. सबकी नजरों में उसे एक अजीब सा तंज़ दिखा जिसे उसने इग्नोर किया. ‘क्या हुआ विशु को’ भावना ने फुसफुसा कर पूछा. ‘बुखार है’ मंदिरा ने भी फुसफुसा कर ही जवाब दिया और प्रेजेंटेशन के लिए लैपटॉप खोलने लगी.

व्यस्तताओं के तूफ़ान में घिरी मंदिरा को पहली फुर्सत तब मिली जब उसे वाशरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. वाशरूम में पहुँचते ही उसे जोर से रोना आया. आईने में उसने अपनी शक्ल देखी तो याद आया कि उसने तो ठीक से बाल भी नहीं बनाये थे जूड़ा कसा था कि ऑफिस में ठीक से बनाएगी. तभी पेट में ऐंठन महसूस हुई. उसे ध्यान आया कि उसने ब्रेकफास्ट भी नहीं किया है. फोन देखा तो विशु के ढेर सारे कॉल पड़े थे. मुखर्जी आंटी के कॉल भी थे. उसने मुखर्जी आंटी को उसने फोन किया तो उन्होंने गुस्से में कहा, ‘बहुत लापरवाह हो मंदिरा तुम. तुमने विशु को खाली पेट ही दवा खिला दी थी. उसे उल्टियाँ हो रही हैं. कितना रो रहा है वो. और तुम फोन भी नहीं उठा रही.’ उन्होंने गुस्से में फोन काट दिया.

मंदिरा को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे संभाले सब कुछ. काश महेश छुट्टी ले लेता आज सोचते हुए उसे रोना आ गया. जब वो बच्चा प्लान कर रहे थे तो महेश हमेशा यही कहता था, ‘तुम चिंता मत करो एकदम. मैं पालूंगा बच्चे को. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. देखना कैसे सब सम्भाल लूँगा.’

मीटिंग का लंच ब्रेक होने को था उसने सोचा बोल देगी बॉस को कि बेटा बीमार है आज हाफ डे लेगी वो. हाफ डे का सोचते ही उसे जैसे सांस आई. सांस आते ही विशु के चेहरा घूम गया आँखों के सामने, ‘मम्मा आज ऑफिस मत जाओ’ की उसकी गुहार कानों में तैर गयी. उसकी गिल्ट गहरी होने लगी.

‘सर, मैं लंच के बाद मीटिंग में नहीं रह पाऊंगी. बेटे की तबियत ठीक नहीं जाना होगा मुझे.’ मंदिरा ने अश्विनी को बोला तो अश्विनी की त्योरियां चढ़ गयीं. ‘मंदिरा ऐसे कैसे चलेगा. तुम्हारे प्रेजेंटेशन पर बात होगी लंच के बाद और तुम ही नहीं होगी. बी प्रोफेशनल.’ अश्विनी का स्वर एकदम सख्त था.

सर, जाना पड़ेगा.’ मंदिरा ने दो टूक कहा और निकल गयी. रास्ते से ही उसने मुखर्जी आंटी को फोन किया तो उन्होंने बताया कि उलटी होने के बाद थोड़ा हल्का महसूस कर रहा है विशु. अभी नाश्ता कराकर सुला दिया है उसे. मंदिरा सोचने लगी, जब विशु ने कहा, मम्मा आज ऑफिस मत जाओ तो उसके पास महसूस करने का वक़्त भी नहीं था. बुखार के कारण उपजी चिंताओं पर ध्यान ज्यादा था बुखार पर सबसे कम. कैसी हो गयी है वो. विशु करवट भी बदलता था तो भागकर पहुँचती थी वो उसके पास. क्या उसे नौकरी छोड़ देनी चाहिए? क्या वो एक करियर वुमन हो गयी है और लापरवाह माँ? उसके भीतर अपराधबोध बढ़ता जा रहा था तभी फोन घनघनाया. मीनल का फोन था.

‘यार, सिंगल पैरेंटिंग बहुत मुश्किल काम है. आज रिया के स्कूल में एक्सिबिशन थी और मैं वहां जा ही नहीं पायी. बड़ा बुरा लग रहा है.’ मीनल ने छूटते ही कहा. मंदिरा ने कहना चाहा कि सिंगल पैरेंटिंग से भी बुरे हालात हैं उसके. सिंगल हो तो कम से कम पता होता है कि सब आपको ही करना है कोई आपको तानों की बौछार से भिगोता नहीं है. लेकिन मंदिरा चुप रही. मीनल और मंदिरा बचपन के दोस्त हैं हर सुख दुःख के साथी. उसने मीनल से इतना ही कहा, ‘हो सके तो टाइम निकालकर हो लेना एग्जिबिशन में वरना गिल्ट से मर जाओगी.’

‘हाँ यार हर वक्त गिल्ट ही तो रहती है साथ. कभी यह भी लगता है कि शुभम से अलग न होती तो ठीक होता शायद.’ मंदिरा ने धीमे से बस इतना कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है.’

गाड़ी मुखर्जी आंटी के घर के सामने आ गयी थी उसने मीनल से कहा, ‘यार बाद में बात करती हूँ’

विशु का बुखार उतर चुका था. वो सो रहा था. मंदिरा ने उसके माथे पर हाथ फेरा तो उसने आँखें खोल दीं, ‘मम्मा, अब आप नहीं जाओगी न?’ मंदिरा ने कहा ‘हाँ बेटा अब मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी. तुम आराम से सो जाओ, मम्मा यहीं है. थोड़ी देर में हम घर चलेंगे फिर.’ दवा का असर माँ के स्पर्श के साथ मिलकर अच्छी नींद में बदल गया और विशु फिर से सो गया लेकिन इस बार उसकी नन्ही हथेलियों ने माँ की हथेलियों को थामा हुआ था.

मुखर्जी आंटी ने मंदिरा को उसे इशारे से बुलाया और कॉफ़ी दी.

शाम के तीन बजे दिन की पहली कॉफ़ी पीते हुए मंदिरा का शरीर बिखरने को हुआ हो जैसे. आंटी कुछ खाने को दीजिये साथ में सुबह से कुछ खाया नहीं है. शायद मीना ने सुन लिया था मंदिरा को कहते हुए वो टिफिन में रखे पराठे गर्म करके ले आई थी.

‘सोच रही हूँ नौकरी छोड़ दूं?’ पराठे का पहला टुकड़ा मुंह में धकेलते हुए मंदिरा ने कहा.

‘नहीं, ऐसा हरगिज मत करना’ मुखर्जी आंटी ने उसे कहा तो मीना भी बोल पड़ी, ‘दीदी आप मुझे समझाती हो कि औरतों को काम जरूर करना चाहिए और खुद ऐसी बात कर ही हो.’ कभी कभी होता है न ऐसा तो, मैं और आंटी जी संभाल लेंगे. लेकिन आप नौकरी मत छोड़ना वरना बड़े होकर यही बच्चे कहेंगे कि तुमने कुछ किया क्यों नहीं.’ मुखर्जी आंटी मीना को प्रशंसा भरी नज़रों से देख रही थीं.

‘लेकिन आंटी बहुत गिल्ट होता है, बच्चे के पास होना चाहिए था मुझे और मैं कहाँ थी.’

‘बच्चे के पास तो महेश को भी होना चाहिए था, वो कहाँ है. उसे गिल्ट है क्या?’ मुखर्जी आंटी ने कहा तो मंदिरा चुप हो गयी.

घर आकर मंदिरा ने अगले दिन की भी छुट्टी लगाईं और विशु के बगल में आकर लेट गयी.
‘मम्मा, आप जॉब मत छोड़ना. मैं आपको परेशान नहीं करूँगा’ विशु ने मंदिरा के सीने में दुबकते हुए कहा तो दिन भर के भरे हुए उदास बादल मंदिरा की आँखों से छलक पड़े.

(14 जनवरी को नवजीवन में प्रकाशित)

Monday, January 10, 2022

कहानी- बकरियां जात नहीं पूछतीं




-प्रतिभा कटियार

‘हुर्र...हुर्र....हट हट...हिटो रे हिटो....गुडबुड गुडबुड गुडबुड गुडबुड गप्प...आरे..आरे...’ शशांक ने अपनी लिरिक्स बनाई थीं जिन्हें वो अपनी ही बनाई धुन पर दिन भर गाता था. न उसने रैप सीखा न कोई और संगीत लेकिन उसकी इस ‘गुडबुड गुडबुड गप्प....हिटो रे हिटो’ को कोई सुन ले तो थिरकने जरूर लगे. शशांक भी दिन भर अपनी इस धुन के संग थिरकता फिरता था. और उसके संग थिरकती थीं उसकी बकरियां. खूब धमाल मचाते जंगलों में शशांक और उसकी बकरियां. आजकल उसकी बकरियों के रेवड़ में नयी बकरियां भी आ गयी हैं. मोहन की बकरियां.

मोहन जबसे स्कूल जाने लगा है उसकी बकरियां शशांक चराने ले जाने लगा है. मोहन ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि एक दिन वो स्कूल जाए और एक दिन मोहन. और जिस दिन जो स्कूल न जाए उस दिन वो दोनों की बकरियां चराए. प्रस्ताव अच्छा था. वैसे भी इस्कूल इस्कूल बहुत हो रा आजकल जिसको देखो पढो-पढो करते रहते हैं. जाने पढ़े-लिखे लोगों ने क्या ही कर लिया अब तक. शशांक के छोटे से मन में यह बात आई. उसने इतना सोचा कि चलो इस्कूल चलकर देख लिया जाय.

टीवी पर जबसे उसने छात्रों को पुलिस से पिटने वाली तस्वीरों को देखा है, तबसे उसे कुछ समझ नहीं आता. पढ़ने की वजह से पिटाई हो रही या इनके नम्बर कम आये इसलिए पिटाई हो रही. इस्कूल में टीचर पिटाई करे और ज्यादा पढ़ के कॉलेज चले जाओ तो टीचर जी पुलिस को बुला लें पिटाई करने को. बड़ा बुरा हो रा ये सब तो. कमबख्त पढाई न ही करो तो ठीक या फिर पुलिस बन जाओ बड़े होकर और दे दनादन दे दनादन...सोचकर ही शशांक को बड़ा मजा आता. वो सोचता अगर कहीं वो पुलिस बन गया तो सबसे पहले उस ठेकेदार को दे दनादन दे दनादन करेगा जो पापा को परेशान करता है.

उस दारू बेचने वाले की दुकान तोड़ेगा दे लाठी दे लाठी...जहाँ से दारू लाकर पापा रोज रात टुन्न होकर गाली बकते हैं, माँ को पीटते हैं. उन लड़कों को तो बहुत ही दे दनादन लाठी भंजेगा जो हमेशा उसे ‘भंगी भंगी’ या फिर ‘तेरी जात क्या है बे...’ कहकर चिढ़ाते हैं. उसका मन करता है मुंह नोच ले उन लड़कों का. क्या ऊँचे जात वाली लड़कियां भी ऐसा करती होंगी? उसे पता नहीं क्योंकि अभी तक किसी लड़की ने तो उससे पूछा नहीं कि ‘तेरी जात क्या है बे....’. उलटे बड़ी कोठी वाली सुमन को जब वो देखता है तो वो मुस्कुराती भी है. उसकी मुस्कान के बारे में सोचते ही शशांक के चेहरे पर भी मुस्कान खिल गयी. उसे लगा लड़कियां और बकरियां एक जैसी होती हैं. वो जात नहीं पूछतीं.

मोहन ने जब एक दिन छोडकर स्कूल जाने का प्रस्ताव रखा तो उसने सुमन के बारे में सोचकर प्रस्ताव उसे स्वीकार कर लिया कि वो भी इस्कूल जाती थी. इस तरह शशांक अपने कुल खानदान का पहला चिराग बना जिसने स्कूल का मुंह देखा. सरकार बोले है जिसे फर्स्ट जनरेशन लर्नर. शशांक को सरकार क्या बोले है इससे कोई लेना-देना न है.

उसने मोहन के हवाले बकरियां करते हुए कहा, ‘सुन ख्याल रखना. किसी को कुछ होना नहीं चाइये.’ मोहन ने उसे आश्वस्त किया.

मोहन असल में पढ़ना चाहता था और चूंकि उसके माँ-बाप दोनों मजदूरी करने जाते थे तो बकरियां उसके हवाले थीं और और छोटा भाई उसकी बहन कविता के हवाले. कविता जो मोहन से बस एक साल छोटी थी घर पर रहकर घर के काम संभालती और छोटे भाई गुल्लक को भी संभालती. गुल्लक नाम मोहन ने ही रखा था उसका. इसके पास बहुत पैसे आयेंगे...फिर हम जब चाहे निकाल लेंगे कहते हुए मोहन ने ठठाकर हंसते हुए कहा ‘मैं तो इसे गुल्लक ही बुलाऊंगा.’ ‘लेकिन तू इसे तोड़ेगा तो नहीं न? कविता ने उसे छेड़ा.’ ‘अरे ये टीन वाली गुल्ल्ल्क है, इसे तोड़ना नहीं खोलना पडेगा बस. उसने मेले में देखी हुई ताले वाली गुल्लक की याद करते हुए कहा. गुल्लक...कहकर मोहन ने गुल्लक को पहली बार गोद में उठाया. किसको कैसा लगा यह नाम पता नहीं लेकिन धीरे-धीरे सबकी जबान पर गुल्लक ही चढ़ गया. कुछ ही दिनों में गुल्ल्ल्क पुकारने पर वह अपनी चिमधी आँखों से पुकारने वाले की तरफ देखने लगता. मोहन को बड़ा मजा आता वो कभी उसे दायीं तरफ जाकर पुकारता गुल्लक...तो गुल्लक दायीं ओर आँखें घुमाता फिर मोहन झट से बायीं तरफ जाकर पुकारता गुल्लक तो वो बायीं ओर टपर-टपर देखने लगता. गुल्लक और मोहन काफी हिलमिल गए थे. हालाँकि कविता को गुल्लक से ख़ास लगाव नहीं था. उसके सर इतना काम बढ़ गया था उसके आने से कि वो गुल्लक से चिढ़ने लगी थी. सारे दिन सू-सू पौटी साफ़ करो, बोतल का दूध बनाओ पिलाओ जब सो जाए तो घर के काम करो.

मोहन को कविता से बहुत प्यार था उसका मन करता था कि बड़ा होकर वो मजदूरी नहीं करेगा पढ़ा-लिखा साहब बनेगा. कविता को खूब आराम देगा. उसकी खूब बड़े साहब जैसे लड़के से शादी करेगा जो उसकी बहन को खूब खुश रखे. मम्मी पापा को भी आराम देगा. गुल्लक भी पैसे कमाएगा. तो दोनों भाई मिलकर सबको खूब खुश रखेंगे.

कुछ दिन पहले जब उसने गाँव की लड़कियों को सुबह-सुबह तैयार होकर लाल रंग का रिबन बालों में लगाकर और स्कूल की ड्रेस पहनकर स्कूल जाते देखा तो उसका मन किया काश कि उसकी बहन कविता को भी स्कूल जाने का मौका मिलता. उसे स्कूल जाने वाले और स्कूल से लौटते बच्चे बहुत अच्छे लगते.

उसने सुना था सारे बच्चों को स्कूल जाने का मौका सरकार देती है. सरकार कैसे देती है यह मौका यह उसे पता नहीं. एक दिन जब स्कूल की मैडम उसके पापा से बात करने आयीं तो पापा तो घर पर थे नहीं तो वो उससे ही कहने लगीं ‘तू स्कूल क्यों नहीं आता?’ मोहन का मन स्कूल आने के नाम पर खिल गया. ‘मैडम जी क्या हम स्कूल आ सके हैं? पैसे न हैं मेरे पापा के पास.’ अरे बुध्धू सरकार ने सब बच्चों की पढाई का इंतजाम किया है. स्कूल में दोपहर का खाना भी मिलता है और स्कूल की ड्रेस भी, किताबें भी. मोहन की आँखें चमक उठीं. मैडम जी तो घर के हालात न जाने थीं ज्ञान देकर चली गयीं लेकिन घर में टेंशन बढ़ गयी उस दिन से.

‘पापा मैं बकरियां चराने न जाऊंगा कल से’ मोहन ने रात को पापा को बोला. पापा दिन भर की थकान और दारू के नशे में थे. बोले, ‘अच्छा? तो कहाँ जाएगा भाई तू?’ ‘पापा मैं कल से स्कूल जाऊँगा. मैडम जी आई थीं आज स्कूल वाली. उन्होंने बताया कि सरकार खाना भी देवे दोपहर का और किताबें भी, ड्रेस भी. पापा मुझे स्कूल जाना है. मुझे पढ़ने का बहुत मन है.’

‘दिमाग ख़राब हो गया क्या तेरा, तू स्कूल जायेगा? तू? हमारी जात के लोग स्कूल न जाते बेटे मजूरी पे जाते हैं. यई क्या कम है कि अब मैला ढोने की बजाय बोझा ढोना पड़ता है.’ जात की बात सुनकर मोहन चुप हो गया. उसे मालूम है स्कूल जाने वाले लड़के लड़कियां उससे ठीक से बात नहीं करते, दूर रहते हैं. उसकी जात का कोई स्कूल नहीं जाता. शशांक भी उनमें से ही है.

मोहन उस दिन तो चुप हो गया लेकिन उसका मन उदास हो गया. गुल्लक मम्मी के सीने से चिपका हुआ पेट भर रहा था, कविता के बर्तन मांजने की आवाज और पापा के खर्राटों की आवाज के बीच उसे किताबें दिखाई दे रही थीं. किताबों और स्कूल के बारे में सोचते-सोचते मोहन सो गया. लेकिन स्कूल जाने की बात उसके मन से निकल न रही थी.

अब मोहन के सामने दो समस्याएं थीं जब वो स्कूल जायेगा तो उसकी बकरियां कौन चरायेगा दूसरी उसकी जात के कारण उसे स्कूल में जाने को मिलेगा या नहीं. उसने मन ही मन यह भी सोच लिया था कि अगर उसे मैडम स्कूल आने देगी तो वो अपना टाट लेकर जाएगा और अलग कोने में चुपचाप बैठा रहेगा. वैसे इसकी तो उसे आदत थी ही. मम्मी पापा को भी उसने बडी कोठी के लोगों के यहाँ कोने में अलग बैठते और अलग बर्तन में खाते देखा ही है. तो यह उसके लिए सामान्य बात थी. मान-अपमान की समझ के बीज अभी उसके जेहन में अंकुरित नहीं हुए थे.

उधर शशांक जो उम्र में तो सिर्फ एक ही साल बड़ा था मोहन से उसके जेहन में मान-अपमान वाले बीज अंकुरित ही नहीं हुए थे बड़े भी होने लगे थे. उसे यह बहुत बुरा लगता जब उसे जात के कारण बच्चे चिढ़ाते या बड़े उसको या उसके परिवार को बेचारा कहकर पुकारते. या त्योहारों पर उतरन के कपडे और बचा हुआ खाना देकर जाते. उसने कभी बड़ी कोठी से आये बचे-खुचे मालपुए नहीं खाए. शशांक के पापा भी मोहन के पापा के साथ ही मजदूरी करते थे हाँ, उसकी माँ मजदूरी पर नहीं जाती थी क्योंकि वो बहुत बीमार रहती थी. पापा हमेशा यही कहते ‘आधी कमाई तो तेरी दवाई में लग जाती है क्या खिलाऊँ बच्चों को और क्या पहनाऊँ.’ मम्मी सिसकते हुए बस इतना कहती ‘मैं क्या जानबूझकर बीमार हुई हूँ...’ और रोते-रोते माँ खांसने लगती. शशांक की बड़ी बहन थी, वही घर संभाले थी. गरिमा दीदी शशांक को सीने से लगा लेती और मम्मी को चुप रहने को कहती. पापा बुरे नहीं थे हालात बुरे थे फिर पापा दारू पी लेते और रोते रहते. नशे में वो अपने बीवी से, बच्चों से माफ़ी मांगते ‘मैं कुछ न कर सका तुम लोगों के लिए मुझे माफ़ कर दो.’ मम्मी के पाँव में लोट जाते वो और मम्मी तब और ज्यादा रोने लगतीं. शशांक देखता कि दीदी भी रो रही है फिर वो भी रोने लगता. और इस तरह अक्सर इस घर में रोते-रोते सब सो जाते और सुबह को लगता कुछ हुआ ही नहीं. रात की रोटी खाकर शशांक बकरियां लेकर जंगल की तरफ गुडबड गुडबड हिटो हिटो का गाना गाते हुए निकल जाता.

शशांक की अपनी बकरियों से अच्छी दोस्ती थी. उसे बकरियां इसलिए भी अच्छी लगती थीं क्योंकि वो उससे उसकी जात नहीं पूछती थीं. वो उसके पास आती थीं, प्यार जताती थीं. उसे गरिमा दीदी की याद आ जाती. जब गरिमा दीदी उसे सीने से लगाकर प्यार करती हैं तो उसे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन उसे नहीं पता कि गरिमा दीदी हमेशा उदास क्यों रहती हैं. शायद बीमार माँ की सेवा करते-करते वो थक गयी हैं. कभी-कभी शशांक को लगता अगर माँ मर जाए तो कितना अच्छा हो. सब कुछ ठीक हो जाए तब. गरिमा दीदी भी हँसे तब शायद. मम्मी की दवाईयों का पैसा भी बचेगा तो नए कपड़े और अच्छा खाना भी आने लगेगा. ऐसा सोचते-सोचते शशांक की आँखों में आंसू आ गए. माँ को खोने का दर्द उसकी आँखों में उतर आया. शशांक को खुद पर बहुत गुस्सा आया और उससे ज्यादा रोना आया. मुझे नहीं चाहिए अच्छे कपडे, अच्छा खाना मुझे मम्मी चाहिए. वो रोता हुआ घर की ओर भागा और मम्मी के गले से चिपक गया जाकर. मम्मी ने सर पर हाथ फेरते हुए लाड किया और बोली ‘क्या हुआ मेरे भैया को.’ मम्मी उसको भैया ही बोलती थीं. शशांक ने रोते-रोते कहा, ‘तुम कहीं मत जाना हमें छोडकर कभी मत जाना.’ वो देर तक मम्मी की छाती से चिपका रहा मम्मी लाड से उसकी पीठ पर हाथ फेरती रही.

अगले दिन जब मोहन ने उसे स्कूल जाने वाली बात फिर से कही तो पहली बार उसका मन हुआ कि वो स्कूल जाये, पढ़-लिखकर कुछ बन जाए और मम्मी का इलाज करा सके. नन्ही आखों में खूब बड़े-बड़े से सपने तैरने लगे.

पहले दिन मोहन स्कूल गया और उसकी बकरियां शशांक ने चराई दूसरे दिन शशांक को स्कूल जाना था. थोड़ा उत्साह, थोड़ा संकोच लिए स्कूल गया तो मैडम जी ने नाम तो लिख लिया उसका लेकिन उनके बोलने के ढंग में कड़वाहट महसूस हुई उसे. फिर वो कक्षा 2 में बिठाया गया. जैसे ही वो कक्षा में गया उसने देखा सुमन भी उसी कक्षा में है. वो थोड़ा खुश हो गया. वो जाकर सामने वाली बेंच पर बैठ गया. तो पास में बैठा मोहित मुंह बनाकर उठा और अलग जाकर बैठ गया. रवि ने जाकर मैडम को बताया कि शशांक सबके साथ बैठ रहा है. मैडम कक्षा में आयीं और झूठी मिठास घोलते हुए शशांक से कहा, ‘बेटा आप नए हो न तो उधर बैठो किनारे. वहां’ उन्होंने कोने में लगी एक डेस्क की तरफ इशारा किया. वहीँ पर रजनी भी बैठी थी. शशांक को ज्यादा कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन उसे अच्छा नहीं लगा. वो चुपचाप जाकर कोने में बैठ गया. उसके पास न किताबें थीं न ड्रेस. एक झोले में वो सिर्फ थाली लेकर आया था. क्योंकि मोहन ने कहा था कि खाने के लिए अपनी थाली लेकर जाना. किताबें और ड्रेस तो स्कूल से मिलेंगे.

मैडम ने कुछ कवितायेँ करवाई बच्चों से, ‘एक मोटा हाथी झूम के चला, मकड़ी के जाले में जाके फंसा...’ कित्ता बड़ा हाथी....मैडम पूछती और बच्चे दोनों हाथ फैलाकर फिर हाथों से सूंड बनाकर मैडम को बताते खूब बड़ा हाथी...फिर सब खिलखिलाकर हंस देते. यह दुनिया तो बड़ी अच्छी है. शशांक को स्कूल अच्छा लगा. वो भी खूब हंसा ‘इत्ता बड़ा हाथी’ कहते हुए.

इंटरवल में सब बच्चे लाइन से लगकर खाना ले रहे थे तो वो भी अपनी थाली लेकर लाइन में लग गया. बच्चे बिदक गए...’ तू इस लाइन में नहीं लग सकता, दूर जा. हट यहाँ से.’ ‘लेकिन क्यों नहीं लग सकता’ शशांक ने गुस्से और अपमान से भरकर पूछा. ‘क्योंकि तू नीची जात का है, तू भंगी है.’ वैभव ने उसके मुंह पर हँसते हुए कहा. शशांक की आँखों में आंसू आ गए. वो भंगी है इसमें उसकी क्या गलती है सोचते-सोचते शशांक की भूख ही मर गयी. रजनी भी उसी की जात की थी वो कोने में खड़ी थी. भोजन माता ने उसे दूर से खाना दिया. शशांक को भी बुलाया देने को लेकिन शशांक गया नहीं.

उसे अब छुट्टी की घंटी बजने का इंतजार था.

शशांक को स्कूल जाकर अच्छा नहीं लगा. सुमन ने भी बाकियों की तरह उससे दोस्ती नहीं की. लेकिन मोहन को स्कूल जाना अच्छा लग रहा था. वो कोने में बैठकर ही पढ़ाई करने में भी खुश था. शशांक ने मोहन ने कहा, देख तू स्कूल जा मैं तेरी बकरियां चरा लिया करूँगा. फिर जब तू साहब बन जायेगा तो अपनी बकरियां चराने के लिए मुझे ही रख लेना. तब तो तेरे पास बहुत सी बकरियां होंगी. शशांक और मोहन देर तक इस बात पर हँसते रहे. हँसते हुए शशांक का नया-नया निकलता दांत ज्यादा ही चमक उठता. गरिमा दीदी कहती तू खरगोश लगता है एकदम. स्कूल में मिलने वाले खाने और और हाथी वाली कविता की याद में कभी-कभी शशांक का मन होता कि स्कूल जाए लेकिन फिर बच्चों, टीचर जी और भोजन माता सबकी झिड़क याद आ जाती और वो बकरियों के रेवड़ में ही खुश रहना मंजूर करता.

इधर जबसे शशांक मोहन की बकरियां चराने लगा है मोहन शशांक की खूब सेवा करने लगा है. दोनों में पहले से ज्यादा दोस्ती हो गयी है. घर में कुछ अच्छा बनता तो वो शशांक के लिए ले आता. सुबह की रोटी वो शशांक के लिए ले आता यह सोचकर कि उसे तो स्कूल में खाना मिल ही जायेगा. शशांक की अब मोहन की बकरियों से भी दोस्ती होने लगी थी. उसका रेवड़ बड़ा हो गया था. मोहन स्कूल के बाद शशांक की बकरियां भी चरा लेता. कभी-कभी दोनों दोस्त बकरियों के रेवड़ के बीच बैठकर गप्पें लगाते. उनकी बातों में स्कूल ज्यादा होता. स्कूल की बातें सुनते हुए शशांक का मन तो करता स्कूल जाने का लेकिन फिर बुझ भी जाता.

इसी बीच मोहन ने उसे बताया कि स्कूल में नयी टीचर जी आई हैं. वो बहुत अच्छी हैं. उन्होंने उसे आगे वाली डेस्क पर बिठाया है. वो सब बच्चों को मेरे साथ खेलने को भी समझाती हैं. वो बहूऊऊऊऊऊऊत् अच्छी हैं...कहते हुए मोहन की आवाज में ‘बहुत’ ख़ुशी बनकर खिल उठा.

‘अच्छा?’ शशांक खुश हो गया. उसने ऐसी बहुत अच्छी किसी मैडम को देखा नहीं. शायद किसी को भी नहीं. वो अब तक मिले तमाम लोगों के बारे में सोचने लगा लेकिन सबकी आँखों में या उसके लिए हिकारत या बेचारगी ही दिखी थी. तो ये बहुत अच्छी मैडम कैसी होंगी जिनके बारे में मोहन बताता है उसकी जानने की इच्छा हुई. उसने मोहन से कहा ‘एक दिन के लिए स्कूल जाऊं मैं मैडम को देख आऊँगा.’ मोहन खुश हो गया. ‘हाँ हाँ...तू जा न. मैं बकरियाँ चरा लूँगा उस दिन.’

अगले दिन शशांक ने सुबह उठकर नहा लिया और सबसे साफ़ वाली बुशर्ट पहनी. उसके मन में बहुत अच्छी मैडम की तस्वीरें बादल में बनने वाली आकृतियों की तरह बन बिगड़ रही थीं. उसका नाम अब भी स्कूल की रजिस्टर में दर्ज था. उसे स्कूल में आया देखकर ही बड़ी मैडम ने ताना मारा, ‘आ गए लाट साहब? एक दिन स्कूल आकर रजिस्टर में नाम लिखकर गायब हो जाते हैं ये लोग. इनका पढने-लिखने से कोई मतलब नहीं पता है मुझे. सरकार को जाने क्यों लगे है कि सब पढकर कलक्टर बन जायेंगे. हुंह...सब पता है मुझे खाने और कपड़े के चक्कर में स्कूल आ जाते हैं ये लोग. हमारा काम बढ़ जाता है अलग से. अब इनका हिसाब रखो, क्यों नहीं आ रहे, क्यों नहीं पढ़ रहे.’ बड़ी मैडम ने सब भड़ास निकाल ली. शशांक का मन किया कि अभी भाग जाए स्कूल से तभी उसे सामने से नयी मैडम आती दिखीं. अरे ये तो उसकी गरिमा दीदी की तरह लगती हैं. इतनी साधारण लगीं नयी मैडम शशांक को कि उसका दिल ही टूट गया जैसे. ऊपर से बड़ी मैडम के तानों से स्वागत हुआ था वह अपमान भी था ही. पापा ने उसे लाख समझाया कि बेटा मान-सम्मान के रायते बड़े लोगो के होते हैं. हमें तो जो दो बखत की रोटी और तन ढंकने को कपड़े दे दे वही हमारा भगवान है. लेकिन शशांक इस बात को अपना नहीं पाया था इसलिए उसकी सबसे खूब लड़ाई भी होती थी और वो अक्सर नाराज भी रहता था.

नई मैडम ने उसे निराश किया और बड़ी मैडम ने उसे अपमानित. उसने मन ही मन तय कर लिया कि कल से वो और उसकी बकरियां फिर से ऐश करेंगे. भाड़ में जाय तुम लोगों का स्कूल फिस्कूल.

उसने भड़ास निकालने के लिए राहुल की कॉपी फाड़ दी. जिसके बदले में हुई पिटाई का उसे बुरा नहीं लगा. उसने सोचा आज छुट्टी होने तक कुछ बच्चों की कॉपियां और फाड़ दूंगा. कल से मुझे कौन सा आना है स्कूल. कॉपी फाड़ने की सजा में उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया जिससे उसे अच्छा ही लगा. अब वो स्कूल में इधर-उधर घूमने लगा. इंटरवल हुआ उसने खाना नहीं खाया. नयी मैडम ने देखा कि शशांक सुबह से अलग-थलग है, कुछ गुस्सा है और अब खाना भी नहीं खा रहा. वो उसके पास आयीं और उसके सर पर लाड से हाथ फेरते हुए कहा, ‘क्या हाल हैं आपके? अपना नाम नहीं बताएँगे? नई मैडम ने जाने कौन सी नस छू ली शशांक की सर पर हाथ फेरकर कि उसकी आँखें भर आयीं. उसे लगा ये तो गरिमा दीदी से भी ज्यादा प्यार करना जानती हैं. ‘चलो खाना खा लो फिर अगली क्लास में मजे करेंगे.’ कहकर उसके बालों में उँगलियाँ फिरते हुए नई मैडम भोजन माता की तरफ चली गयीं. ‘सबको प्यार से खाना परोसना शांति, और सबका पेट भरे इसका ध्यान रहे. बच्चे भूखे नहीं रहने चाहिए. कहते हुए राजमा परोसने का चमचा मैडम ने खुद अपने हाथ में ले लिया और शांति अम्मा चावल परोसने लगीं. शशांक दूर खड़ा सोचता रहा खाना खाए न खाए. उसके झोले में पड़ी थाली और पेट में कुलबुलाती भूख बड़ी मैडम के ताने और नई मैडम के दुलार के बीच कहीं फंसी हुई थी. यूँ भी अगर वो खाना चाहेगा भी तो उसे तो आखिरी में अलग से दूर से ही खाना दिया जायेगा. वह अभी यह सब सोच हो रहा था कि नई मैडम ने पुकारा ‘अरे तुम वहां क्यों खड़े हो आओ, देखो आज राजमा मैंने खुद बनाया है, बताओ खाकर कैसा बना है.’ नई मैडम ने उसे देखते हुए मुस्कुराकर कहा. अब शशांक को समझ में आया मोहन के उस ‘बहुत अच्छी’ का मर्म. भूख ने मैडम के प्यार की पुकार से दोस्ती करते हुए बड़ी मैडम के ताने से हाथ छुडा ही लिया. वो झोले से थाली निकालकर किनारे खड़ा हो गया. नई मैडम ने उसे पास बुलाया और सबके साथ ही उसकी थाली में भी खूब प्यार से खाना परोसते हुए कहा ‘अच्छे से खाना भरपेट. फिर क्लास में मस्ती करेंगे.’ शशांक का पेट मैडम के प्यार से ही भर गया था. उसे इतने प्यार से कभी किसी ने खाना नहीं परोसा. गरिमा दीदी ने भी नहीं. वो इतनी उदास रहती है कि खाने में भी उदासी ही परोसती हो जैसे. शशांक ने पहला कौर खाया ही था कि उसे लगा यह स्वाद तो अद्भुत है. शशांक ने भरपेट खाना खाया और वो पूरे वक्त नई मैडम को देखता रहा. उसने सोचा काश कि वो रोज स्कूल आ सकता. लेकिन फिर मोहन का क्या होगा. एक दिन छोडकर आने वाला प्रोग्राम फिर से शुरू करना होगा. यह सब सोच-विचार चल ही रहा था कि घंटी बज गयी और सब बच्चे क्लास में चले गए. शशांक बाहर ही खड़ा रहा. बड़ी मैडम उसे बीच-बीच में घूर रही थीं. नई मैडम जब क्लास में आयीं तो उन्होंने शशांक को भी क्लास में बुलाया.

राहुल ने उसे देखते हुए चिढ़कर कहा, ‘मैडम इसने मेरी कॉपी फाड़ी थी इसलिए इसे दिन भर क्लास से बाहर रहने की सजा मिली है.’

नई मैडम ने मुस्कुराकर कहा, ‘अच्छा? कॉपी फाड़ना तो बुरी बात है. मैं इसकी सजा बदल देती हूँ. आज से इसे सबसे आगे बैठना होगा. ठीक है?’ राहुल और शशांक दोनों को समझ में नहीं आया कि यह कैसी सजा है. शशांक अपनी थाली वाला झोला लिए हिचकते हुए आगे की ओर बढ़ा कि सुमन ने सूचनार्थ नई मैडम को बताया कि, ‘मैडम ये भंगी है. बड़ी मैडम इसे अलग बिठाती हैं. आप इसे सबके साथ मत बिठाइए.’ शशांक ने अपमान से सर झुका लिया और जहाँ था वहीँ रुक गया. नई मैडम आगे बढ़कर हाथ पकडकर शशांक को आगे ले आई और अपनी मेज के ठीक सामने वाली डेस्क पर उसका झोला रख दिया. ‘अब तुम यहाँ बैठोगे रोज.’ शशांक के फूले गालों में जो उदासी भरी थी उसे प्यार से सहलाकर नई मैडम ने दूर कर दिया. लेकिन सुमन पर शशांक का गुस्सा बरकरार था. उसने मन ही मन सोचा नहीं लडकियाँ और बकरियां एक सी नहीं होतीं. लडकियाँ भी जात पूछती हैं सिर्फ बकरियां जात नहीं पूछतीं. उसे अपनी बकरियों पर प्यार आने लगा. नई मैडम ने एक कहानी सुनाई और उस कहानी पर बच्चों से बातें की. शशांक बड़ी बड़ी आँखों से नई मैडम को देखता रहा. उसे कहानी से ज्यादा अच्छा लग रहा था मैडम का कहानी सुनाने का तरीका. सुनाई गयी कहानी से अलग एक कहानी उसके मन में भी बनने लगी थी.

छुट्टी की घंटी बज चुकी थी. बच्चे खुश होकर बस्ता बाँधने लगे थे. शशांक आज स्कूल आकर एकदम खुश था. उसने मन ही मन सोच लिया था अब वो और मोहन एक दिन छोड़कर स्कूल आने और बकरियां चराने का कार्यक्रम जारी रखेंगे.

वो कई दिन तक सर पर नई मैडम के हाथ फिराने के सुखद एहसास में झूमता रहा.

Thursday, July 25, 2019

साढे चार मिनट



कमरे में तीन ही लोग थे। वो मैं और एक हमारी दोस्त...

तीनों ही मौन थे।
मैं वहां सबसे ज्यादा थी या शायद सबसे कम।
वो वहां सबसे कम था या शायद सबसे ज्यादा।
दोस्त पूरी तरह से वहीं थी।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी।

सब खामोश थे। यह खामोशी इतनी सहज थी कि किसी राग सी लग रही थी। मैं खिड़की के बाहर लगे अनार के पेड़ों पर खिलते फूलों को देख रही थी। जिस डाल पर मेरी नजर अटकी थी वो स्थिर थी हालांकि उस पर अटकी पत्तियां बहुत धीरे से हिल रही थीं।

उन पत्तियों का इस तरह हिलना मुझे मेरे भीतर का कंपन लग रहा था। मुझे लगा मैं वो पत्ती हूं और वो...वो स्थिर डाल है। डाल स्थाई है। पत्तियों को झरना है। फिर उगना है। फिर झरना है...फिर उगना है।

'मुझे मां से बात करनी है...' वो बोला।

उसके ये शब्द खामोशी को सलीके से तोड़ने वाले थे।
मैं मुड़ी नही। वहीं अनार की डाल पर अटकी रही।
दोस्त ने कहा, 'अच्छा, कर लीजिए।'
'क्या वो यहीं हैं...?' उसने पूछा।
'हां, वो अंदर ही हैं।' बुलाती हूं।

कुछ देर बाद कमरे में चार लोग थे। मां मैं वो और दोस्त।
मैं अब भी खिड़की के बाहर देख रही थी।
'आप अंकल से बात कर लीजिए...' उसने मां से कहा।
मां चुप रहीं।

'लेकिन...' दोस्त कुछ कहते-कहते रुक गई।
'किसी लेकिन की चिंता आप लोग न करें...मैं सब संभाल लूंगा। सब।'
उसने मां की हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया।
दोस्त ने कहा, 'फिर भी।'
'परेशान मत हो। यकीन करो। ' उसने बेहद शांत स्वर में कहा।

कमरे में मौजूद लोगों की तरफ अब तक मेरी आधी पीठ थी। अब मैंने उनकी तरफ पूरी पीठ कर ली ताकि सिर्फ अनार के फूल मेरे बहते हुए आंसू देख सकें।

मां कमरे से चलीं गईं...दोस्त भी।

वो मेरे पीछे आकर खड़ा हुआ। अब वो भी कमरे के बाहर देख रहा था। शायद अनार के फूल...या हिलती हुई पत्तियां। कमरे में कुछ बच्चे खेलते हुए चले आए। उसने बच्चों के सर पर हाथ फिराया...बच्चे कमरे का गोल-गोल चक्कर लगाकर ज्यूंयूयूँ से चले गए।

अब कमरे में वो था और मैं...बाहर वो अनार की डाल...
उसकी तरफ मेरी पीठ थी....उसने कहा, 'तुमने पूरे साढ़े चार मिनट से मेरी तरफ नहीं देखा है...'

गहरी सर्द सिसकी भीतर रोकने की कोशिश अब रुकी नहीं।
अनार की डाल मुस्कुरा उठी।
'सिर्फ साढ़े चार मिनट नहीं, साढ़े चौदह साल...' मैंने कहा...

उसने मुझे चुप रहने का इशारा किया।
हम दोनों अनार की डाल को देखने लगे...
बच्चे फिर से खेलते हुए कमरे में आ गए थे...उसने फिर से उनकी पीठ पर धौल जमाई...

वो आखिरी बार था जब मां की जिंदा हथेलियों को इस तरह किसी ने अपनी हथेलियों में रखा था।
उसी रात मां मर गई।
रोज की तरह चांद गली के मोड़ वाले पकरिया के पेड़ में उलझा रहा।
मां रात को सारे काम निपटाकर सोईं और फिर जगी नहीं।
बरसों से वो उचटी नींदों से परेशान थीं। सुबह उनके चेहरे पर सुकून था। वो सुकून जो उनके जिंदा चेहरे पर कभी नहीं दिखा।

वो आता, थोड़ी देर खामोशी से बैठता, चाय पीता चला जाता।
न वो मेरी खामोशी को तोड़ता न मैं उसकी।
हमारे दरम्यिान अब सवाल नहीं रहे थे। उम्मीद भी नहीं।
लाल कलगी वाली चिडि़या जरूर कुछ उदास दिखती थी।
मां ने पक्षियों को दाना देकर घर का सदस्य बना लिया था। वो घर जो उन्हें अपना नहीं सका, उस घर को उन्होंने कितनों का अपना बना दिया।

'तो तुमने क्या सोचा?' एक रोज उसने खामोशी को थोड़ा परे सरकाकर पूछा।
मैं चुप रही।
वो चला गया।
मैं भी उसके साथ चली गई थी हालांकि कमरे में मैं बची हुई थी।

दोस्त मेरी हथेलियों को थामती। मुझसे कहीं बाहर जाने को कहती, बात करने को कहती। उसे लग रहा था कि मैं मां के मर जाने से उदास हूं।
असल में मां की इतनी सुंदर मौत से मैं खुश थी। इसके लिए मैं उसकी अहसानमंद थी।
जीवन भर मां को कोई सुख न दे सकी कम से कम सुकून की मौत ही सही।

अनार की डाल पर इस बरस खूब अनार लटके। इतने कि डालें चटखने लगीं।
लाल कलगी वाली चिडि़या फिर से गुनगुनाने लगी।
मां की तस्वीर पर माला मैंने चढ़ने नहीं दिया।

उस रोज भी कमरे में चार लोग थे।
वो, मैं दोस्त और मां तस्वीर में.
वो जो सबसे कम था लेकिन था
मैं जो थी लेकिन नहीं थी
दोस्त पिछली बार की तरह वहीं थी न कम न ज्यादा
मां कमरे में सबसे ज्यादा थीं, तस्वीर में।

'साथ चलोगी?' उसने पूछा.
'साथ ही चल रही हूं साढे़ चौदह सालों से,' मैंने कहना चाहा लेकिन चुप रही।
'कहां?' दोस्त ने पूछा।
'अमेरिका....' उसने कहा
'लेकिन...' दोस्त ने कुछ कहना चाहा पर रुक गई।
'यहां सबको इस तरह छोड़कर...कैसे...' दोस्त ने अटकते हुए कहा।
शायद उसे उम्मीद थी कि वो पिछली बार की तरह उसे रोक देगा यह कहकर कि, 'लेकिन की चिंता मत करो, मैं संभाल लूंगा। सब। बस यकीन करो।'

उसने कुछ नहीं कहा। मैं मां की तस्वीर को देख रही थी।
'हां, मैं भी वही सोच रहा था।' उसने आखिरी कश के बाद बुझी हुई सिगरेट की सी बुझी आवाज में कहा।
'आपका जाना जरूरी है?' दोस्त राख कुरेद रही थी।

वो खामोश रहा।
चांदनी अनार के पेड़ पर झर रही थी।
'हां,' उसने कहा। दोस्त उठकर कमरे से चली गई। शायद गुस्से में। या उदासी में।
अब कमरे में तीन लोग थे मैं वो और मां।

'तुमने मेरी मां को सुख दिया,' कहते हुए मेरी आवाज भीगने को हो आई।
'तुम्हें भी देना चाहता था...' उसने कहा।
मेरे कानों ने सिर्फ 'था' सुना...

वो बिना ये कहे कमरे से चला गया कि 'तुमने पूरे साढ़े चार मिनट से मेरी तरफ नहीं देखा।'
न मैं यह कह पाई कि 'उम्र भर उसे न देख सकने का रियाज कर रही हूं...'

Thursday, March 28, 2019

चॉकलेट का पेड़ और उर्मि


उर्मि हर रोज शाम को घर लौटते पंछियों के झुण्ड को देखने को सब काम छोड़ छत पर आ जाती थी. दादी कहतीं कि शाम को पंछी लौटते हैं. वो कहाँ गये थे, कहाँ को लौट रहे थे नन्ही उर्मि को कुछ समझ में नहीं आता था. उसने दादी से कई बार पूछा, दादी वो कहाँ से लौटते है दादी ने हंसकर एक ही जवाब दिया, 'तेरे पापा की तरह वो भी तो ऑफिस जाते होंगे. है न?'

उर्मि की दुनिया में पंछियों के ऑफिस, गाय, भैंसों के ऑफिसों का दृश्य बनने लगते. वो सोचते-सोचते खुश होने लगती. 'दादी, मुझे भी जाना है पंछियों का ऑफिस देखने. वहां क्या काम होता होगा? चिडिया भी फ़ाइल देखती होगी.' ऑफिस का मतलब फ़ाइलों का ढेर और टाईपराइटर की खटर-पटर ही जाना था उर्मि ने अब तक. इसका कारण भी पापा के ऑफिस में कभी-कभार उसका जाना था.

'दादी, आराम से फुर्सत में पैर फैलाकर, खरबूजे के बीज छीलते हुए कहतीं, चिड़ियों के ऑफिस में घोसले की बात होती होगी शायद. कौन से पेड़ पर कौन सी चिड़िया का घोसला हो शायद यह तय होता होगा.'

'फिर तो उनका ऑफिस न ही होता हो यही अच्छा. उनको तो किसी भी पेड़ पर कितना भी बड़ा घोसला बनाने की आज़ादी होनी चाहिए. है न दादी?'
दादी चुप रहतीं. उर्मि का दिमाग चलता रहता.

'उनकी सैलरी कहाँ से आती होगी? कित्ते पैसे मिलते होंगे दादी?' वो भो अपने बच्चों के लिए चौकलेट लाते होंगे घर लौटते समय?

'हो सकता है वो शाम को बच्चों के लिए जो दाना लाते हों उसमें चॉकलेट होती हो.' दादी को भी उर्मि की बातों में मजा आने लगता.

'और गाय भैंस के ऑफिस में क्या होता होगा दादी?'
'क्या पता क्या होता होगा. तुम सोचो तो.'

उर्मि ने कहा, 'दादी गाय बैल को तो वैसे ही इतना काम करना होता है वो ऑफिस में कैसे काम करते होंगे. दिन भर तो खेत में काम करते हैं न बैल. गाय भी. ऊँट भी.'

'तो हो सकता है चारा चरके लौटते हों.' दादी ने कहा.

'अरे हाँ, कित्ता मजा आता होगा फिर तो. पिकनिक से लौटने जैसा. उनकी किटी पार्टी होती होगी. है न?
सुनो बहन, मेरा मालिक मुझे बहुत मारता है, क्या करूँ समझ में नहीं आता. एक कहती होगी. दूसरी कहती होगी, हाँ बहन मेरा भी यही हाल है. सारा दिन काम कराता है, सब दूध निकाल लेता है और खाना भी कम देता है. जी चाहता हूँ कहीं भाग जाऊं.'

उर्मि गाय, बैल की नकल करके ताली पीटकर हंस दी. लेकिन जल्दी ही उदास भी हो गयी. फिर तो वापस लौटते समय खुश नहीं होते होंगे न ये लोग. वही खूंटा, वही चारा, वही काम.'

दादी ने सोचा बच्ची फंस गयी है तो उसे उलझन से निकाल दें. 'लेकिन उसके बच्चे भी तो इंतजार करते होंगे न. जैसे तू करती है अपनी मम्मी, पापा का.' दादी ने कहा.

'हाँ, वो भी बच्चों के लिए चॉकलेट लाते होंगे क्या?' उर्मि की सुई चॉकलेट पर अटकी हुई थी.

'लेकिन दादी उनके पास तो पैसे नहीं होते होंगे फिर वो चॉकलेट कैसे लाते होंगे. वो कुछ भी कैसे लाते होंगे.' उर्मि फिर उदास हो गयी.

'दादी अगर मैं सबको खूंटे से खोल दूं तो ?' यह कहते हुए उर्मि की आँखें चमक उठी थीं.
 दादी ने कहा 'तुम बताओ फिर क्या होगा?'
'वो लोग भी ऑफिस जायेंगे, काम करेंगे और पैसे कमाएंगे. फिर शाम को चॉकलेट लेकर आयेंगे.'

'लेकिन यह भी तो हो सकता है उनके बच्चों को चॉकलेट पसंद ही न हो? जैसे मुझे पसंद नहीं.' दादी को उर्मि की बातों में इतना मजा आ रहा था कि उनकी दोपहर की नींद भी चली गयी थी.

'दादी. आप बूढी हो इसलिए आपको चॉकलेट पसंद नहीं. सब बच्चों को चाकलेट पसंद होती है.' उर्मि को लगा दादी एकदम बुध्धू है. भला चॉकलेट किसे पसंद नहीं होगी.

दादी पोपले मुंह से हो हो करके हंसने लगी. 'ओह मैं तो भूल गयी थी कि मैं बूढी हो गयी हूँ.'

'तो क्या करना चाहिए कि सब बच्चों को चाकलेट मिल जाए.' दादी ने उर्मि को मुश्किल में डालना चाहा.
उर्मि ने कुछ देर सोचा फिर कहा, 'मेरे पास एक आइडिया है.'
'क्या?' दादी ने पूछा.

'मैं नहीं बताउंगी.' उर्मि की आँखों में चमक थी.
दादी की उत्सुकता यह जानने की थी कि उर्मि के पास कौन सा आइडिया है. लेकिन उर्मि ने बताया नहीं.

अगले दिन से घर के बगीचे में लगे पेड़ पर बने घोसले में और पशुओं के बाड़े में  उर्मि की चॉकलेट के रैपर जब तब मिलने लगे. उर्मि अब जब भी चॉकलेट खाती तो उसमें से एक हिस्सा सबके नाम का जमीन में बोने लगी. थोड़ी चॉकलेट घोसलों में चुपके से रख आती कभी जानवरों के चारे में डाल आती.

चाकलेट भले ही चिड़ियों व जानवरों ने न खायी हो, भले ही न उगे हों चॉकलेट के पेड़ लेकिन उन चाकलेट्स की मिठास उर्मि की जिन्दगी में अब तक कायम है.


Friday, December 14, 2018

कहानी- इंतजार के पार


- प्रतिभा कटियार

बादल बरसते-बरसते थक चुके थे. थककर ऊंघने लगे थे. हालाँकि उन्होंने बरसना बंद नहीं किया था लेकिन बरसते-बरसते जो थकान आ गयी थी उससे उनकी गति थोड़ी-धीमी हो गयी थी. थके हुए बादलों को देखना भला लग रहा था. घर में दूध था, आटा था, नमक था इसलिए बरसना बहुत अखर नहीं रहा था. चाय बनने का इंतजाम हो, नमक और आटा हो तो घर से बाहर जाए बिना काफी दिन मजे में निकाले जा सकते हैं. दूर्वा ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराई. वो इन बादलों के रुकने की प्रतीक्षा में नहीं है, इनके जी भरके बरस लेने का इंतजार में है. बरसने की इच्छा को बचाकर रखना बहुत मुश्किल होता है. बरसने को न मिले जिन बारिशों को वो फिर बाढ़ बन सकती हैं, तबाही ला सकती हैं. बेहतर है कि उन्हें वक्त पर बरस लेने दिया जाय. हाथ बढ़ाया तो बारिश उँगलियों को छूते हुए कमरे तक चली आई. कुहनी से टपकती हुई बूँदें फर्श भिगोने लगी. दूर्वा ने महसूस किया अब उसके जीवन में किसी भी तरह की कोई प्रतीक्षा नहीं है न भीतर, न बाहर.

यूँ प्रतीक्षाएं हमेशा रही हैं उसके जीवन में. ठीक उसी तरह जैसे वो हर किसी के जीवन में रहती हैं. कुछ प्रतिक्षाएं पूरी हो जाती हैं, कुछ बूढी हो जाती हैं, उनके चेहरे पर हाथों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, उनकी आवाज कांपने लगती है. कुछ प्रतीक्षायें असमय मौत की शिकार हो जाती हैं जिनकी विदाई कुछ दिन के आंसुओं और उदासी से हो जाती है. कुछ प्रतीक्षाएं अजीब होती हैं. वो बार-बार भ्रम देती हैं कि वो अब नहीं हैं, लेकिन वो रहती हैं शाश्वत. और कुछ की आपस में अदला-बदली होती रहती है. जैसे कुछ देर पहले चाय पीने की इच्छा का इस वक़्त बारिश में भीग लेने की इच्छा से अदला-बदली होना.

बारिश में भीगने की इच्छा को सूखे रेनकोट की तरह तह करके मन के भीतर रखते हुए दूर्वा चाय पीने की इच्छा के साथ चल पड़ी. चाय के खौलते पानी में उसने चाय की पत्ती के दरदरे दानों के साथ अतीत के कुछ लम्हे भी उबलते देखे. सनी के बिना जी नहीं सकेगी लगता था, उसे लगता था कि एक रोज सनी समझेगा इस बात को. सनी समझेगा एक दिन इस प्रतीक्षा में कितने बरस बीत गए. एक दिन यह प्रतीक्षा इस प्रतीक्षा से बदल गयी कि असल में सनी को नहीं उसे खुद को समझना है. और एक दिन दूर्वा सनी की प्रतीक्षा से बाहर निकल आई.

चाय के बनते-बनते बारिश थम सी गयी और दूर्वा चाय लेकर बाहर बालकनी में आ गयी. पत्तियों पर अटकी बूँदें जैसे मन के किसी कोने पर अटका कोई इंतजार हो, खूबसूरत, दिलकश और किसी भी वक़्त टप्प से टपक जाने को व्याकुल.

13 बरस हो गये सनी से अलग हुए. हालांकि १३ सेकेण्ड भी उसकी याद मन से दूर गयी हो ऐसा उसे याद नहीं. आज सनी शहर में है. और वो उससे मिलने आना चाहता है. दूर्वा समझ नहीं पा रही कि उसे कैसा महसूस हो रहा है. वो चाय की एक-एक बूँद को भीतर जाते महसूस कर पा रही है, उसके स्वाद को जबान पर महसूस कर पा रही है लेकिन सनी के 13 साल बाद मिलने आने को महसूस नहीं कर पा रही.

कुछ ही देर को रुकी थी बारिश फिर वापस आ गयी. दूर्वा कमरे में लौटी तो मोबाईल के स्क्रीन पर मैसेज था सनी का. घर का पता पूछ रहा था वो. दूर्वा देर तक मोबाईल के उस मैसेज को देखती रही. जवाब दे न दे, पता भेजे न भेजे तय नहीं कर पा रही थी. फिर उसने पता भेज दिया और चार तकियों के गड्डे पर सर रखकर लेट गयी.

जब सनी के आने के दिन होते थे तो कैसे झूम-झूम कर घर सजाती थी वो. उसकी पसंद की खाने की चीज़ें, बेडकवर, किताबें. गिटार घर में सिर्फ इसलिए है इतने सालों से कि किसी रोज सनी ने कहा था कि उसकी इच्छा है कि उसका एक कमरा हो जिसमें गिटार हो. वो यह बात कहकर भूल गया लेकिन दूर्वा उस बात को उठा लायी. घर में गिटार रहता है तो लगता है सनी भी रहता है थोड़ा सा.

गिटार अब भी रखा है ड्राइंग रूम में हालाँकि अब वह सिर्फ एक सामान की तरह ही है बस. कई बार दिल चाहा कि हटा दें, आखिर उसे कोई बजाने वाला तो हो, म्यूजिक स्कूल है पास में वहीँ रखवा दे लेकिन जाने क्यों दूर्वा गिटार हटा नहीं पाई.

आज जब सनी आ रहा है तो घर एकदम बिखरा पड़ा है, बारिश के चलते न खाना बनाने सावित्री आ रही है, न मोहन भैया जो सफाई कर जाते थे और न ही घर में कुछ सामान है. दूर्वा को थोड़ी सी चिंता हुई, वो उठी सफाई करने को फिर न जाने क्या सोचकर वापस लेट गयी.

मौसम खूब ठंडा हो रहा है, दूर्वा ने शॉल लपेटते हुए चाय का पानी चढ़ा दिया. शायद सनी का इंतजार ही था यह पानी चढ़ाना. लेकिन यह इंतजार तो बीत गया था, फिर भी बचा रह गया क्या?

फोन घरघराया तो दूर्वा चौंकी. सनी ही था. ‘हैलो, मनु! ये माधव जनरल स्टोर से किधर को मुड़ना है, राइट या लेफ्ट?’

‘लेफ्ट, वहां से सीधा लेना फिर एक लेफ्ट उसके बाद एक राईट. बस.’

‘ओके’ कहकर सनी ने फोन काट दिया.
‘कितना लेफ्ट राइट करवा रही हो. एक ठीक सी जगह घर नहीं लिया जाता तुमसे. ऊपर से इतनी बारिश. दिमाग खराब करके रखा है.’ दूर्वा के अतीत के पन्ने खुलने लगे थे जहाँ से सनी कुछ इस तरह बडबडा रहा था.
बारिश और तेज़ होती जा रही थी. कुछ ही देर में सनी घर में था.

‘काफी बारिश हो रही है न?’ सनी ने जूते बाहर उतारते हुए कहा.
‘हाँ’ कहकर दूर्वा किचन में चली गयी पहले से चढ़ाये पानी में चीनी अदरक डालने.
लौटी तो सनी अख़बार पलट रहा था.

‘तुम क्या सारी जिन्दगी अख़बार पढ़ते हुए बिता सकते हो? इतने सालों बाद आये हो और अब भी अख़बार?’ पहले का वक़्त होता तो मुलाकात की शुरुआत इसी के साथ झगड़े से होती. लेकिन दूर्वा ने कुछ नहीं कहा.
‘एक मीटिंग थी यहाँ? उसी में आया था.’ सनी ने कहा.
दूर्वा चुप रही.
कमरे में देर तक चुप छाई रही. यह चुप इतनी बड़ी होती जा रही थी कि दूर्वा को घबराहट होने लगी. वो चाय लेने को उठी तो सनी भी उठ गया.
‘तुम बैठो, मैं ले आता हूँ चाय’ यह अतीत के पन्नों में गुम हो चुका सनी ही था.
‘कप कहाँ हैं, छन्नी कहाँ है?’ सनी ने किचन से ही ऊंची आवाज में पूछा. दूर्वा का जी चाहा जोर से चिल्लाकर बोले 13 साल बाद लौटे हो तो बैठो न मेहमान की तरह, क्यों गए किचन में. उसके भीतर रुदन उखड़ने लगा था. वो गयी और कप और छन्नी निकालकर रख आई.

‘बारिश की वजह से फ्लाईट काफी लेट हैं.’ सनी शायद चुप वापस न आ जाय इसलिए बोल रहा था.
‘मनु, ये वाला घर कब लिया तुमने?’
4 साल हुए. दूर्वा ने जवाब दिया.
मनु, यह नाम कितने अरसे बाद उसने यह नाम सुना अपने लिए. मनु यह नाम सनी ने ही दिया उसे. दूर्वा नाम उसे पसंद नहीं था. कहता था ‘यह कैसा नाम है, तुम घास हो क्या?’
दूर्वा कहती ‘हाँ, जंगली घास, बिना परवरिश के बढती जाती है, जितना कुचलो उतनी और बढती है.’
क्यों कुचले कोई, उन्हह. यह सब बकवास है. मुझे यह नाम पसंद नहीं. तुम मनु हो मेरी, मेरे मन की साथी. मनु. मनु नाम से उसे कोई नहीं बुलाता.
बाहर संवाद कम थे, भीतर संवादों का कोहराम मचा था.
‘मीटिंग अभी है या ख़त्म हो गयी ?’ दूर्वा ने औपचारिकता वश पूछ लिया.
‘खत्म हो गयी.’ सनी ने जवाब दिया.
‘तुम कैसी हो?’ अभी शायद पूछेगा सनी दूर्वा को बार-बार लग रहा था. लेकिन सनी ने नहीं पूछा.
‘चाय मीठी पीने लगी हो तुम?’
नहीं, तुम्हारी वजह से चीनी ज्यादा डाली थी, उसने कहना चाहा लेकिन कहा ‘हाँ’.
‘घर में कुछ खाने को नहीं है, बारिश के कारण निकलना नहीं हो पाता न? ड्राइवर भी छुट्टी पर है.’ दूर्वा ने कहा.
‘अरे तो बता देती न, कुछ लेते आता.’
‘मेरे भर का तो है’ दूर्वा ने अनमने मन से कहा.
‘अरे तो मैं अपने लिए ही ले आता. सनी ने माहौल को हल्का करते हुए कहा.’
‘मनु, तुमने अभी तक गाड़ी चलानी नहीं सीखी?’
‘कितना कुछ तो सीखा है. गाड़ी चलानी ही जरूरी है क्या?’ दूर्वा ने कहना चाहा लेकिन कहा ‘नहीं. मोहन भैया की वजह से कोई दिक्कत नहीं होती. वो आ जाते हैं जब जरूरत होती है’
‘कब तक किसी पर डिपेंड होती रहोगी?’ सनी ने कहा.
‘पता नहीं’

‘तुम कुछ खाओगे?’ दूर्वा ने बात बदलते हुए पूछा.
‘हाँ, लेकिन तुम्हारे घर में तो कुछ है नहीं, कुछ ऑर्डर करें क्या?’ सनी ने कहा.
‘इस बारिश में ऑर्डर भी क्या होगा, कौन आएगा. पिज़्ज़ा मुझे पसंद नहीं तुम जानती हो.’
‘नहीं मैं कुछ नहीं जानती.’ दूर्वा ने दृढ़ता से कहा.
घर में आटा है, आलू, प्याज है. चावल और नमक है.
‘अरे, इतने में तो पार्टी हो जाएगी. प्याज के पराठे बनायें?’ सनी, ने कहा.
दूर्वा बिना कुछ कहे किचन में गयी. पीछे से सनी भी आ गया और प्याज काटने के लिए चाकू तलाशने लगा. दूर्वा आटा माड़ने चली तो सनी ने उसे रोक दिया, मैं करूँगा ये. मुझे पता है तुम्हे आटा माड़ना पसंद नहीं.
दूर्वा चुपचाप बाहर आ गयी. सनी प्याज काटकर आटा माड़ने लगा.
अतीत के पन्नों से फिर कोई स्मृति निकलकर बाहर आ गयी छिटककर. जब वो किचन में होती थी और वो यूँ आ जाया करता था किचन में कितना मुश्किल हो जाता था खाना बन पाना. पीछे खड़े होकर वो उसे बीच-बीच में चूमता रहता था और मसाले अक्सर जल जाया करते थे.
तेज़ हवा का झोंका भीतर आया तो सिहरन से वर्तमान में लौटी दूर्वा. सनी किचन में कुछ गुनगुना रहा था. उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि वो तेरह बरसों का फासला पार करके आया है. अतीत की कोई सलवट नहीं है उसकी आमद में. जबकि दूर्वा बार-बार अतीत में हिचकोले खाने लग रही है.

ये हमेशा से खुद को छुपा ले जाने में माहिर रहा. इस तरह की सहजता से ये क्या बताना चाहता है कि कुछ भी नहीं बदला है? सब पहले जैसा ही है? कि यह मुझे अब भी मुझे पहले जैसे ही प्यार करता है? लेकिन ऐसा तो इसने कभी कहा नहीं था. यह हमेशा कहा कि मैं इसका सर खाती रहती हूँ. तो अब यह मेरा सर क्यों खा रहा है? क्यों आया है? दूर्वा के भीतर घमासान छिड़ा हुआ था.

‘मनु, पराठे के साथ फिर से चाय पियोगी न?’ सनी ने किचन से ही आवाज दी.
‘हाँ’ दूर्वा ने आवाज में आई नमी को भरसक रोकते हुए कहा लेकिन वो भीगापन सनी तक पहुँच गया था. वो चाय और पराठे लेकर लौटा तो दूर्वा किचन में यह कहकर चली गयी कि शायद अचार रखा होगा. और अचार मिल गया.
‘मुझे नहीं चाहिए होता है अचार, तुम्हें पता तो है.’ चाय पराठा बेस्ट कॉम्बिनेशन.
दूर्वा बाहर देखने लगी. चाय उतनी ही बुरी बनी थी जितनी पहले सनी बनाया करता था. हर सिप अझेल हो रही थी.
यह आदमी हमेशा सिर्फ अपने बारे में क्यों सोचता है. इसे पता है इतने दूध वाली और इतनी मीठी चाय मुझे पसंद नहीं फिर भी. दूर्वा को गुस्सा आ रहा था.
सनी शायद काफी भूखा था, 4 पराठे चट कर गया.
‘होटल वाले खाने को नहीं देते क्या?’ दूर्वा ने व्यंग्य में पूछा.
सनी ने दूर्वा की प्लेट से आधा पराठा लेते हुए कहा, ‘देते हैं लेकिन प्याज के पराठे नहीं देते. और मैं बनाता भी तो अच्छे हूँ.’
फिर वही सेल्फ औब्सेसेड. हुंह. दूर्वा का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.
‘तुमको क्या लगता है मनु, 2019 में किस करवट बैठेगा ऊँट?’
‘अरे मुझे क्या पता? क्या तुम मुझसे अबकी बार किसकी सरकार का एग्जिट पोल लेने आये हो?’ दूर्वा मन ही मन खिसिया रही थी. लेकिन मन को सामने क्यों लाना, सनी अब उसके लिए सिर्फ एक मेहमान ही तो है. सिर्फ औपचारिक संवाद ही होने चाहिए सो उसने कह दिया.
‘लगता तो है, कि लौटेगी यही सरकार’
‘यह बहुत बुरा होगा मनु, बुरा तो हो ही रहा है वैसे लेकिन...’
‘सरकार जो बुरा कर रही है उसकी चिंता है, खुद जो मेरे साथ बुरा किया उसके बारे में कोई बात नहीं.’ मनु लगातार भीतर के संवाद में थी.
मैं तो औपचारिक संवाद में हूँ लेकिन यह कहाँ से मेहमान लग रहा है. वैसे ही चपर-चपर करके खा रहा है, उँगलियाँ चाट रहा है, किचन में कब्जा जमा लिया है. इसे देख बिलकुल नहीं लग रहा कि 13 साल बाद लौटा है.

हालाँकि दूर्वा ने महसूस किया कि 13 बरसों का सफर सनी पर भी साफ़ दिख रहा है. बालों की सफेदी काफी बढ़ गयी है. दाढ़ी भी खिचड़ी सफेद हो चुकी है. चश्मा लग गया है. रंग वैसे ही मरीले से पहनता है अब भी वही ग्रे कलर आज भी पहना हुआ है जिसके कारण कितनी बार झगड़ चुकी है दूर्वा. गिरा हुआ ग्रे क्यों पहनते हो तुम? लेकिन मजाल है कि सनी ने पहनना छोड़ा हो. देखो तो इतने बरस बाद मिलने आया है तो भी वही ग्रे. जैसे चिढाने को करता हो ये सब. हालाँकि वो कहा करता था कि किसी के लिए खुद को बदलना अस्थायी है, बदलाव को भीतर से स्व्त्फूर्त आना चाहिए. मुझे जब तक खुद ग्रे से कोई दिक्कत नहीं होगी मैं तो पहनूंगा. हाँ, हो सकता है तुम्हें यह बात न पसंद आये लेकिन यह तुम्हारी दिक्कत है.

वक़्त बीत गया लेकिन चीज़ें बदली नहीं. सनी अब भी ग्रे में अटका है, हालाँकि उस ग्रे की उदासी दूर्वा के जीवन में चली आई और शायद चमक सनी के जीवन में रह गयी. ऐसा दूर्वा को लगता रहा.

‘यार, सबसे घटिया राजनीति होती है भावुकता की राजनीति. लोगों के इमोशन्स पर कब्जा. पब्लिक साली अलग पागल है, मने रोने लगते हैं लोग पागलपन में. लेकिन पब्लिक का यह चरित्र भी तो इन्हीं सालों ने गढ़ा है. सोचो मत, जैसा हम कहते हैं वैसा मानो, जब हम कहें जिस बात कर कहें उस बात पर भावुक हो. जो हम दिखाएँ वही देखो. तो भाई वही देख रही पब्लिक.’ दूर्वा के मन के भीतर चलती उथल-पुथल को सुने बिना सनी बोले जा रहा था, हालाँकि दूर्वा को लग रहा था कि वो अपने भीतर की आवाजों को अनसुना करने के लिए बाहर की आवाजों का सहारा हमेशा से लेता रहा है. जब पहली बार आया था, मिलने तब भी दुनिया भर की राजनीती का गणित समझाता रहा था. हालाँकि न वो सुन रहा था जो वो कह रहा था, न दूर्वा सुन रही थी. वो दोनों वही सुन रहे थे जो कहा नहीं जा रहा था.

‘कितनी अजीब बात है न मनु, किसी की थाली में दो रोटी थी. उसकी भूख तीन रोटी की थी. सरकार ने कहा तुम अपनी दो रोटी मुझे दो मैं चार करके वापस दूंगा. फिर उसने कहा, तुम्हारी रोटी विपक्ष खा गया, पिछली सरकार खा गयी लेकिन फ़िक्र न करो मैं तुमको तुम्हारी रोटी दूंगा. और सरकार ने लम्बे इंतजार के बाद एक रोटी दी.’ गरीब ने कहा, सरकार की जय, सरकार ने हमें रोटी दी. भूख से मरने से बचा लिया. वो भूल गए कि रोटी दी नहीं है बल्कि छीनी है. जो तुम्हें मिली वो तुम्हारी ही रोटी थी. जितनी मिली वो अपर्याप्त है. कोई नहीं सुनेगा यह बात. जो यह बोलेगा वो देशद्रोही कहलायेगा और राजा वोट कमाएगा.

अपनी जमीन, अपनी जिन्दगी, अपने खेतों की फसल के सही दामों के लिए तरस रहे हैं लोग और उन्हीं को वोट दे रहे हैं, अपने ही घर में असुरक्षित हैं लेकिन जिससे सुरक्षा को खतरा है उसी से पनाह मांग रहे हैं. यह अफीम आज नहीं चटाई गई, बरसों से यही हो रहा है.’

सनी, पराठे खाकर एकदम ऊर्जावान हो गया था और उसके भीतर का एक्टिविस्ट सक्रिय हो उठा था.
दूर्वा ने छेड़ दिया, ‘भरे पेट की बात खाली पेट की बात से अलग होती है न?’
सनी, मुस्कुरा दिया. ‘सही कह रही हो’
‘आखिर हम भी तो तमाम लग्जरी जीते हुए सिर्फ बातें ही कर रहे हैं. क्या करें समझ नहीं आता.’ सनी ने प्लेट उठाते हुए कहा.
‘तुमने खाया नहीं पराठा ?’ सनी ने दूर्वा की प्लेट देखते हुए कहा.
‘मैं देखना चाह रही थी कि भूखे पेट इन्सान को भरे पेट इन्सान की बात कैसी लगती है.’ दूर्वा ने कहा.
इस बात के जितने भी अर्थ थे सब सनी ने सुने और वो चुपचाप किचन में चला गया. प्लेट धोने की आवाज सुनकर दूर्वा किचन में गयी, ‘अब, प्लेट तो रहने ही दो धोने को.’ उसने सनी का हाथ पकड़ लिया.

बरसों बाद का स्पर्श शायद दोनों को सहन नही हुआ. सनी ने तुरंत प्लेट छोड़ दी और बाहर आ गया, दूर्वा की पलकें नम हो गयीं.
‘तुम लोग यार कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लो फेमिनिज्म की लेकिन अब भी कामों को जेंडर लेंस से देखना छोड़ नहीं पाई पूरी तरह.’ सनी ने भीतर की सनसनाहट को भीतर धकेलते हुए कहा.
‘ऐसा कुछ नहीं है.’ दूर्वा ने कहा.
‘तुम अब भी चाय बनाना नहीं सीखे’ दूर्वा ने बात बदलने के लिहाज से अपने कप में छोड़ी हुई चाय को देखते हुए कहा.
‘कुछ भी कहाँ बदलता है मनु’ सनी ने कहा. यह कहते हुए उसका स्वर इतना स्थिर था कि दूर्वा ठिठक गयी. सनी बाहर देखने लगा जहाँ एक चिड़िया ने बारिश से बचने की तमाम कोशिशों के बाद आखिर भीगना ही चुन लिया था. सनी का दिल चाहा एक छाता लेकर जाए और चिड़िया के ऊपर लगा दे. जब मनु को जीवन की आँधियों और बारिशों से बचने के लिए प्रेम का छतरी चाहिए था, तब तो वह नहीं था. यह सोचकर सनी की आंखें गीली हो गयीं. उसे लगा वो भीगती चिड़िया मनु है और सनी जिसे छतरी होना चाहिए था वो बारिश हो गया है, वही वजह है उसके इस तरह भीगने की.
‘अंकिता कैसी है?’ दूर्वा ने पूछा.
‘अच्छी है, खूब शैतान. इतना बोलती है क्या बताऊँ.’ सनी की आवाज में खनक आ गयी थी.
दूर्वा उस चमक के भीतर उदास होने लगी.
‘और रश्मि?’ दूर्वा ने अपने पाँव के नाखून पर नज़रें टिकाये हुए पूछा.
‘वो बहुत अच्छी है. अपना काम शुरू किया है बुटीक का. अच्छा चल रहा है. खुश रहती है.’ सनी ने जैसे रटी हुई स्पीच उगल दी हो और उसके बाद राहत की सांस ली हो.
‘और तुम?’ यह दूर्वा के पास सनी के लिए अंतिम प्रश्न था.
‘तुम्हारे सामने हूँ हट्टा-कट्टा. मरा नहीं हूँ तुम्हारे बिना. हा हा हा’ सनी ने गंभीरता को सहजता में बदलने की कोशिश की.
‘सामने होने से कुछ नहीं होता. होना और सामने होना दो अलग बाते हैं.’ दूर्वा धीरे से बुदुदाई.

‘तुम कैसी हो?’ सनी ने पूछा.
‘तुम्हारे सामने हूँ. हट्टी कट्टी मरी नहीं हूँ तुम्हारे बिना.’ दूर्वा ने उसी का जवाब कॉपी पेस्ट कर दिया.’
सनी उदास हो गया.
‘हाँ, क्यों मरना यार. जब लोग भूख से मर रहे हों ऐसे में प्यार में मरने की बात करना लग्जरी ही तो है. हालाँकि न मरना जीना ही है यह कहना मुश्किल है. ‘
बादलों की गडगडाहट तेज़ होती जा रही थी. शायद बिजली गिरी है कहीं. बारिश लगातार तेज़ होती जा रही थी.
‘गाड़ी ठीक है?’ सनी ने पूछा.
‘हाँ. क्यों?’ जाना था कहीं काम से. कुछ देर को. चाबी दोगी?’
दूर्वा ने गाड़ी की चाबी टेबल पर रख दी.
दो घंटे हो गए हैं सनी ने अब तक उसे छुआ तक नहीं. पहले किस तरह बेसब्र हुआ करता था. चाय रखे रखे ठंडी हो जाती थी. चुम्बनों की बौछार होती थी उस पर. कितना नशा था उस स्पर्श का. उसकी बेसब्री किस कदर मोहती थी दूर्वा को. लेकिन 13 बरस का फासला सब बहा ले गया.
‘मैं आता हूँ कुछ देर में? कुछ लाना है? दवाई वगैरह?’
‘नहीं सब है मेरे पास.’ कहते हुए दूर्वा ने सुना कि कुछ भी तो नहीं है मेरे पास क्या-क्या ला सकोगे?
सनी चला गया.

दूर्वा अतीत और वर्तमान के बीच हिचकोले खाती रही. कोई वजह नहीं थी उन दोनों के बीच इस दूरी की. कोई भी वजह नहीं थी फिर भी फासले उगते गये. मनु, कितने बरसों बाद इस नाम से पुकारा जाना अच्छा लग रहा था दूर्वा को. शायद इस तरह का अच्छा लगने का अभ्यास छूट गया था उसका.
दूर्वा अब ज्यादा खामोश हो गयी है. हालाँकि उसके भीतर काफी शोर भर गया है. सनी अब खूब बोलने लगा है लेकिन शायद वो भीतर कहीं मौन हो गया है. बारिश इन दोनों की धुन को समझती है.

सनी लौटा तो उसके दोनों हाथों में सामान था. सब्जियां, फल, राशन का ज़रूरी सामान, मैगी दूध वगैरह.
दूर्वा यह देख चौंककर बोली , ‘यह सब क्या है? इसकी कोई कोई जरूरत नहीं थी.’
‘जो जरूरत है, वो मैं पूरी कहाँ कर पाता हूँ मनु,’ सनी की आवाज़ एकदम भीग चुकी थीं. भीगी पलकें छुपाने के लिए उसने चेहरा घुमा लिया.
बाहर बारिश की धुन और तेज़ हो गयी थी, लॉन में लगी घास बारिश में डूब चुकी थी...

(फेमिना 2018 के नवम्बर अंक में प्रकाशित)




Thursday, December 13, 2018

अभिनय-अंतिम किश्त


दिन भर उज्ज्वला अतिरिक्त उत्साह से भरी रही. जैसे उसे उसके पंख मिल गए हों. कितना सुखी और हल्का महसूस कर रही थी. जब संभावनाओं पर हल्की सी पकड़ कासी, तब उज्ज्वला को महसूस हुआ कि क्या था जिसकी खोज निरंतर जारी थी भीतर. सब कुछ होते हुए भी क्यों अनजानी सी असंतुष्टि घेरे रहती थी उसे. थोड़ी सी नर्वस भी हो रही थी. जाने कर भी पाएगी या नहीं.
'सुषमा तुझे यकीन है मैं कर पाऊंगी.'
सुषमा मुस्कुरा दी. 'हाँ, जरूर कर पाओगी. लेकिन पहले प्रणय से तो पूछ लो. क्या पता उसे पसंद न हो तुम्हारा अभिनय करना.'
'तुम प्रणय की फ़िक्र न करो. प्रणय मुझे खूब समझते हैं. आज तक कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया. जो चाहती हूँ करती हूँ.' उज्ज्वला की आवाज में आत्मविश्वास था.
'ठीक है, तो मेरे साथ चलने की तैयारी कर लो.'
'पता है सुषमा, मुझे बहुत रोमांच हो रहा है यह सब सोचकर. लग रहा है मैं खुल रही हूँ. अब तक कैद थी जैसे कहीं.'
'मैं समझ सकती हूँ उज्ज्वला. खुद पर भरोसा करना और अपनी तरह से जीना गर आ जाए तो बहुत ख़ुशी होती है.'
लेकिन न जाने क्यों सुषमा को उज्ज्वला की ख़ुशी से डर लग रहा था. सुषमा के अनुभव का कैनवास ज्यादा बड़ा है. और उसके वही अनुभव उसे डरा रहे थे. अब तक की जिन सहमतियों की बातें सोचकर उज्ज्वला इतनी खुश है उनमें से एक भी उसके लिए कहाँ थी. घर के पर्दे अपनी पसंद के लगाना और अपनी पसंद के रास्तों पर जीवन को ले जाना बिलकुल अलग बाते हैं. फिर भी सुषमा अपने आप को सांत्वना दे रही थी. हो सकता है प्रणय की सोच थोड़ी फर्क हो. हो सकता है सचमुच वह उज्ज्वला के अरमानों की कद्र करता हो. वह प्रणय को जानती ही कितना है. यही सब सोचते हुए ख़ामोशी के साथ उज्ज्वला की खुशियों में शामिल रही सुषमा.

उज्ज्वला प्रणय से पुनः अभिनय शुरू करने के बारे में बात करना चाहती थी. उसे पूरा यकीन था  कि प्रणय बहुत खुश होगा यह सुनकर. वह प्रणय को अपनी यह इच्छा बताकर चौंका देना चाहती थी.

एक रोज प्रणय ने उसके  चेहरे पर छाए उत्साह और आत्मविश्वास को लेकर जब टोका तो उज्ज्वला को लगा यही मौका है प्रणय को चौंकाने का. मुस्कुराते हुए उज्ज्वला ने कहा, 'प्रणय तुम्हें, एक अच्छी खबर बताती हूँ. तुम तो जानते हो कॉलेज टाइम में मुझे अभिनय का कितना शौक था. सुषमा से बातें करते हुए मेरे भीतर दबा पड़ा अभिनय का बीज फिर से पल्लवित होना चाहता है. मैं दोबारा अभिनय शुरू करना चाहती हूँ. सुषमा मेरी मदद करेगी. वैसे भी दिन भर घर में खाली रहती हूँ. मैं बहुत एक्साइटेड हूँ प्रणय, लेकिन डर भी लग रहा है. जाने कैसे होगा यह सब ? उत्साह उज्ज्वला की आवाज से छलका जा रहा था, प्रणय के किसी भी जवाब या प्रतिक्रिया का इंतजार किये बगैर वह बोलती रही.

'जरा सोचो प्रणय, लोग मुझे मेरे नाम से पहचानेंगे, मेरा काम, मेरी क्षमता और भी निखरेगी. सब कुछ कितना अच्छा होगा. उन दिनों तो लगता था कि अभिनय तो जीवन है. इसके बगैर जी ही नहीं पाऊंगी. अब इतने वर्षों बाद फिर से मंच पर जाने की सोचकर ही अच्छा लग रहा है. सुषमा कह रही थी कि वो मुझे किसी सीरियल में भी रोल दिलवाएगी. पता नहीं कर भी पाऊंगी या नहीं.'

उज्ज्वला बोले जा रही थी. आखिर प्रणय ने ही उसके अतिरेक को लगाम लगाते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, 'तो अब आप सुपर स्टार बनना चाहती हैं. घर घर स्क्रीन पर आपका चेहरा चमकेगा. लोग आपकी तारीफ करेंगे. भई, हम आपकी तारीफ करें, आपको पसंद करें इससे भला संतुष्टि कैसे हो सकती है?'
'क्या बात कर रहे हो प्रणय. मैं सीरियस हूँ और तुम्हें मजाक सूझ रहा है.' उज्ज्वला के स्वर में थोड़ी सी नाराजगी आ मिली थी.
'उज्ज्वला, अच्छा है मैं तुम्हारी बात को मजाक में ले रहा हूँ वरना तो इस बात पर या तो क्रोध आ सकता है या रोना.'
'क्यों भला?'उज्ज्वला कुछ अप्रत्याशित सुनकर चौंक सी गयी थी.
उज्ज्वला देखो, हमारा छोटा सा परिवार है, बच्चे हैं. हम खुश हैं. तुम्हें क्या जरूरी है, यहाँ-वहां धक्के खाने की, काम करने की.'
'क्या तुम संतुष्ट नहीं हो अपने परिवार से, मुझसे?' प्रणय ने उज्ज्वला को भावुकता में बाँधना चाहा.
'बात संतुष्ट होने की नहीं है प्रणय. बात यह है कि मुझे लगता है कि मुझे अभिनय करना चाहिए. मेरा 'मन' होता है  वैसे भी दिन भर खाली रहती हूँ. बच्चे बड़े हो गए हैं, मेरे पास वक़्त है, मैं इस वक़्त को जीना चाहती हूँ. तुम्हारी बात से सहमत हूँ मैं. परिवार से, तुमसे संतुष्ट भी, लेकिन खुद से नहीं शायद. लगता है मेरे भीतर कुछ है जो बाहर आना चाहता है. मुझे समझने की कोशिश करो प्रणय, प्लीज़.'
उज्ज्वला का आग्रह लगतार मनुहार बनता जा रहा था. लेकिन प्रणय का संयम छूट रहा था.
'इस उम्र में तुम्हें यह नाटक नौटंकी का कौन सा भूत चढ़ा है. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है.'
'मैं मानती हूँ प्रणय कि मेरी उम्र काफी हो गयी है लेकिन एक कोशिश करने में क्या बुराई है. वैसे भी अभिनय का उम्र से ज्यादा सरोकार नहीं होता है फिर मैं तो पहले भी खूब एक्टिंग करती रही हूँ.'
'मैं तुम्हे समझा कर थक गया हूँ. तुम अपने सर स यह अभिनय का भूत उतार दो. मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं. आज के बाद इस विषय पर कोई बात नहीं होगी. समझी. सो जाओ अब.'

प्रणय की आवाज में खासी तल्खी घुल गयी थी. वह करवट बदलकर सोने का उपक्रम करने लगा. प्रणय निश्चिन्त सो रहा था. अपनी सारी हसरतों, उत्साह और आत्मविश्वास की किरचें बीनती उज्ज्वला सिसकियों के बीच सोच रही थी कि उसे लगता था कि वो अभिनय करती थी कभी लेकिन अभिनय तो कबसे चल रहा था उसके आस पास.

समाप्त.