Saturday, November 27, 2010

डायरीनुमा कुछ अगड़म बगड़म-2

मुझे कभी-कभी सिस्टमैटिक होने से बड़ी शिकायत होती है. बल्कि यूं कहूं कि एक अजीब सी ऊब होती है. कभी-कभी तो यह ऊब इस कदर बढ़ जाती है कि घबराहट में तब्दील होने लगती है. सजा संवरा घर, हर काम का एक वक्त मुकर्रर, जिंदगी एकदम करीने से. ये भी कोई जीना है.
मैंने हमेशा कल्पना की एक सजे-संवरे सुलझे, साफ-सुथरे घर की. अपनी इस कल्पना को साकार करने के लिए काफी मशक्कत भी की. लेकिन मुझे आकर्षित किया हमेशा बिखरे हुए घरों ने. जहां घर भले ही बिखरे हों पर मन एकदम ठिकाने पर. इन दिनों मैं उसी उलझाव को जी रही हूं. सब कुछ बिखरा हुआ है. संभालने का मन भी नहीं. और बिखेर देने का मन है. किताबों की ओर देखने का दिल नहीं चाहता. आइस पाइस खेलने का दिल चाहता है. इक्कम दुक्कम भी. दुनिया की खबरें जानने का मन नहीं करता, मां के संग गप्पें लड़ाने का मन करता है. तेज आवाज में बेसुरा सा गाने को जी चाहता है. जिंदगी को उलट-पुलट करने को जी चाहता है. सूरज को चांद के भीतर छुपा देने का मन होता है. धरती का घूमना रोक कर चांद को घुमाने का मन करता है. सब उल्टा-पुल्टा. मन भी कितना अजीब होता है.

Monday, November 22, 2010

दुख का होना

दुख जब पसारे बांहें
तो घबराना नहीं,
मुस्कुराना
सोचना कि जीवन ने
बिसारा नहीं तुम्हें,
अपनाया है.
दुख का होना
है जीवन का होना
हमेशा कहता है दुख
कि लड़ो मुझसे,
जीतो मुझे.
वो जगाता है हमारे भीतर
विद्रोह का भाव
सजाता है ढेरों उम्मीदें
कि जब हरा लेंगे दुख को
तो बैठेंगे सुख की छांव तले
दुख हमारे भीतर
हमें टटोलता है
खंगालता है हमारा
समूचा व्यक्तित्व
ढूंढता है हमारे भीतर की
संभावनाएं
दुख कभी नहीं आता
खाली हाथ.
हमेशा लेकर आता है
ढेर सारी उम्मीदों की सौगात
लडऩे का, जूझने का माद्दा
अग्रसर करता है हमें
जीवन की ओर
लगातार हमारे भीतर
भरता है आन्दोलन
दुख कभी खाली हाथ नहीं जाता
हमेशा देकर जाता है
जीत का अहसास
खुशी कि हमने परास्त किया उसे
कि जाना अपने भीतर की
ऊर्जा को
कि हम भी पार कर सकते हैं
अवसाद की गहरी वैतरणी
और गहन काली रात के आकाश पर
उगा सकते हैं
उम्मीद का चांद
दुख का होना
दुखद नहीं है.
सचमुच!
(रिल्के के कथन से प्रभावित. रिल्के कहते हैं कि अवसाद का हमारे जीवन में होना हमारा जीवन में होना है.)

Monday, November 1, 2010

एक मीठी सी झिड़की

लंबे अरसे बाद नीरज जी को फोन किया. गोपालदास नीरज जी. उनसे जब भी मिली हूं मन को अच्छा सा अहसास हुआ है. इधर मैंने उन्हें लंबे अरसे बाद फोन किया. नाम सुनते ही शिकायती लहजा उभरा, मैं लखनऊ आया था तुम मिलीं क्यों नहीं. मेरे पास कोई जवाब नहीं था. एक मौन था. क्या व्यस्तता का रोना रोती, क्या जवाब देती. खैर, एक बुजुर्ग की तरह डांटने के बाद आशीर्वाद की झड़ी लगाते हुए जब उन्होंने कहा, सुखी रहो तो मन सुखी हो गया. दो लाइनें उन्होंने चलते-चलते सुनाईं जो उनके आशीर्वाद की तरह साथ हो लीं-
जिंदगी मैंने बिताई नहीं सभी की तरह
हर एक पल को जिया पूरी एक सदी की तरह...