Monday, July 31, 2023

कुछ सवाल छोड़ती है ट्रायल पीरियड

एक स्त्री का अकेले रहने का फैसला एक पुरुष के अकेले रहने के फैसले से अलग होता है। यह आसान नहीं होता। खुद की मर्जी से लिया गया हो या परिस्थितिवश। जानते हैं यह मुश्किल फैसला क्यों होता है? इस फैसले को निभाना मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि हम सब मिलकर उसे मुश्किल बनाते हैं। हम सब जो उस स्त्री के करीबी हैं, उसके दोस्त हैं, परिवार हैं। 

हर वक़्त उसे यह एहसास कराते हैं कि तुमने गलत फैसला लिया है, तुम इसे बदल दो, अब भी देर नहीं हुई। अगर वो स्त्री लड़खड़ा जाये, कभी उलझ जाय, उदास हो जाय तो ये सारे करीबी मुस्कुराकर कहते हैं, 'देखा मैंने तो पहले ही कहा था।' और अगर साथ में बच्चा भी है तब तो कहना ही क्या। सारा का सारा समाज मय परिवार राशन पानी लेकर चढ़ जाएगा यह बताने के लिए कितना गलत फैसला कर लिया है उस स्त्री ने।  

लेकिन यह वही दोगला समाज है अगर स्त्री के लिए यह फैसला नियति ने किया हो (पति की मृत्यु या ऐसा कुछ) तब यह नहीं कहता कि आगे बढ़ो नए रिश्ते को अपना लो। तब यही लोग कहते हैं अरे, 'बच्चे का मुंह देख कर जी लो।' नियति को स्वीकार कर लो। मतलब सांत्वना देने या ताना देने के सिवा कुछ नहीं आता इन्हें। 

एक मजबूत स्त्री जिसने खुद के लिए कुछ फैसले लिए हों, जिसकी आँखों में सिर्फ बच्चे की परवरिश ही नहीं अपने लिए भी कुछ सपने हों, इनसे बर्दाश्त ही नहीं होती। घूम फिरकर उसे गलत साबित करने पर तुल जाते हैं। अगर वो खुश है अकेले तो भी कटघरे में है और अगर वो उदास है तो भी कटघरे में ही है। हंसी आती है इन लोगों पर। क्योंकि दुख तो अब होता नहीं। 

हाल ही में आई फिल्म ट्रायल पीरियड ने भी ऐसा ही कुछ परोसने की कोशिश की है। मैंने फिल्म रिलीज के दिन ही देख ली थी लेकिन मुझे फिल्म अच्छी नहीं लगी। मैं अपने एंटरटेनमेंट में भी काफी चूजी हूँ। कुछ भी मुझे खुश नहीं कर सकता। 

फिल्म एक एकल स्त्री की कहानी है। जिसका एक छोटा बच्चा है। बच्चा अपने पापा के बारे में पूछता रहता है। यह पूछना उसके पियर प्रेशर से भी ड्राइव होता है। सारे बच्चे पापा के बारे में बातें करते हैं और उसके पापा नहीं हैं। वो अपनी माँ से ट्रायल पर पापा लाने के लिए कहता है। आइडिया मजाक वाला है लेकिन ठीक है। 

त्रासदी वहाँ से शुरू होती है जहां से कौमेडी शुरू होती है। किराए के पापा सुपर पापा हैं। एक बेरोजगार नवयुवक जो किराए के पापा कि नौकरी पर चल पड़ता है। पापा की सारी भूमिकाएँ निभाता है और बच्चे के भीतर पल रही पापा की कमी को पूरा करता है। लगे हाथ माँ को पैरेंटिंग पर लेक्चर भी पिला देता है। खैर, माँ को पैरेंटिंग पर तो लेक्चर यहाँ कोई भी देकर चला जाता है। सो नथिंग न्यू इन इट। 

तो ये नए पापा सब कुछ फिक्स कर देते हैं। खाने से लेकर होमवर्क, स्पोर्ट्स से लेकर एंटरटेंमेट तक। कहाँ हैं ऐसे पापा भाई? पापा वो भी तो हैं जो बच्चे के सामने माँ का अपमान करते हैं, घर के काम करते नहीं बढ़ाते हैं, माँ और बच्चे का हौसला नहीं बढ़ाते बल्कि उन्हें बताते हैं उनकी कमियाँ गलतियाँ। 

और आखिर में वही हिन्दी फिल्मों का घिसा पिटा फॉरमूला कि हीरो हीरोइन बच्चे के साथ हैपी एंडिंग करते हुए मुसकुराते हुए। 

यह फिल्म मिसोजिनी अप्रोच की ही फीडिंग करती है। मेरे लिए यह फिल्म तब बेहतर होती जब हीरो हीरोइन के संघर्ष को सैल्यूट करता, बच्चे को समझाता कि उसकी माँ कितनी शानदार स्त्री है और पापा के न होने से उसका जीवन कम नहीं है बल्कि कुछ मामलों में ज्यादा सुंदर ही है। हीरोइन और मजबूती से खड़ी होती। और किराए के पापा को कोई सचमुच का बढ़िया रोजगार मिल जाता। 

फिल्म में मानव को देखना ही सुखद लगा। बाकी लोगों को देखकर तो ऐसा लग रहा था जैसे या तो वो ओवरकान्फिडेंट थे कि क्या ही करना है एक्टिंग जो करेंगे ठीक ही लगेगा। और जेनेलिया की भर भर के क्यूटनेस कितना देखे कोई। कभी तो उन्हें थोड़ी एक्टिंग भी कर लेनी चाहिए। फिल्म रील नहीं है यह बात उन्हें समझनी चाहिए। 

फिल्म का संगीत अच्छा है। बिना किसी संकोच के कह सकती हूँ फिल्म सिर्फ मानव के कंधों पर चल रही है। फिल्म का चलना सुखद है लेकिन क्यों उन सवालों पर बात नहीं होनी चाहिए जो सवाल फिल्म छोड़ रही है।

(Published in NDTV- https://ndtv.in/blogs/trail-period-film-review-why-doesnt-mother-exist-without-father-pratibhakatiyar-4253377)

Saturday, July 29, 2023

तरला के बहाने

खाना बनाना मुझे खूब पसंद है। शायद बचपन से ही। नयी-नयी रेसिपी बनाना और उसे खिलाकर खाने वाले का मुंह देखना कि कैसी बनी है, अगर अच्छी बनी है सुन लिया तो खुशी से झूम उठना। क्या यह मेरी बात है सिर्फ? नहीं यह लगभग हर स्त्री की, हर लड़की की बात है। अच्छी कुकिंग, घर की साज संभाल, खुद को सुंदर ढंग से प्रस्तुत करना। इनमें सुख की तलाश। यहीं से शुरू, यहीं पर कहानी ख़त्म। 

लेकिन सच्चाई की परत धीरे-धीरे खुलती है। एक रोज मैंने महसूस किया कि मुझे खाना बनाने में खास मजा नहीं आ रहा। आँख खुलते ही किचन में पहुँचना अखरने लगा। उलझन होने लगी। लेकिन क्या इस उलझन का कोई विकल्प था। नहीं। खाना बनाना, घर संभालना तो स्त्री के साथ रक्तमज्जा की तरह चिपका हुआ है। जब तक है जान किचन और घर ही है सारा जहान। 

आप डॉक्टर बन जाएँ, इंजीनियर बन जाएँ, किसी कंपनी की सीईओ बन जाएँ, चाँद पर चली जाएँ किचन तो आपके हवाले है ही, रहेगा ही।  इसका कोई विकल्प नहीं। अगर थोड़ा लिबरल साथी या घरवाले हुए तो कभी जब उनका मन हुआ तो थोड़ा हाथ बंटा दिया। इस हाथ बंटाने का गर्व हाथ बंटाने वाले में तो खूब था ही उन स्त्रियॉं को भी कम न हुआ जिनका हाथ बंटाया गया। उन्होंने गर्व से भरकर कहा, 'मेरे ये तो बहुत अच्छे हैं कभी कभी चाय बना देते हैं मेरे लिए कभी खाना भी बना देते हैं।' मासूम औरतें। 

न जाने कितने सवाल हैं मन में। छोटी-छोटी चीज़ें जिनसे जीवन बनता है। जब मैंने पहली बार कुक रखने की बात रखी तो पूरे परिवार ने ऐसे देखा जैसे कोई गुनाह हो गया हो। 

ख़ैर, मैंने तो गुनाहों की राह पर कदम रख ही दिये थे। सो कुक लग गयी। घर के मर्दों ने ही नहीं स्त्रियों ने भी पुरजोर विरोध किया। हम नहीं खाएँगे कुक के हाथ का खाना से लेकर न जाने क्या-क्या। धीरे-धीरे स्वीकृति मिली। लेकिन हमेशा यह स्वर रहता कि खाने में स्वाद नहीं है। मैं मुस्कुराकर कहती, इस बहाने यह तो याद आया आप लोगों कि अब तक घर की स्त्रियाँ जो बनाती थीं जिस पर ध्यान तक दिये बिना या सिर्फ कमियाँ निकालते हुए खाते रहे असल में उसकी वैल्यू क्या है। 

ये सब क्यों कह रही हूँ मैं अब? क्योंकि अभी-अभी फिल्म 'तरला' देखकर ख़त्म की है। फिल्म पूरा एक जीवन है। खाना जब घर की चारदीवारी से बाहर निकलता है तब क्या होता है। तरला एक सीधी सी हाउस वाइफ है। घर परिवार बच्चा यही उसकी दुनिया है। इस दुनिया के बीच उसके भीतर कुछ करने की इच्छा मध्धम आंच पर पकती रहती है। शादी की दसवीं सालगिरह पर तीन बच्चों और पति के साथ केक काटते हुए, मोमबत्ती जलाते हुए कोई सपना बुझता हुआ उसे महसूस होता है। तरला का पति नलिन एक समझदार और पत्नी को समझने वाला उसका साथ देने वाला व्यक्ति है। फिर भी वो समझ नहीं पाता कि उसकी पत्नी का सपना किस तरह बुझ रहा है। 

फिर अचानक एक रोज ज़िंदगी बदलती है तरला की जब आसपास की स्त्रियाँ उससे खाना बनाना सिखाने का आग्रह करती हैं। क्योंकि एक लड़की ने तरला से सीखी रेसिपी बनाकर अपनी सास को खिलाकर नौकरी करने की अनुमति हासिल कर ली थी। बात अजीब है वही किसी की सहमति के लिए पेट के रास्ते होकर जाने वाली बात। 

तरला कुकिंग सिखाने को ज़िंदगी की खिड़की खोलने के तौर पर देखती है। वो कुकिंग सिखाने से पहले कहती हैं कि अपने सपनों को पकड़कर रखना है। फिल्म आगे बढ़ती है। तरला की कुकिंग क्लासेज चल पड़ती हैं। फिर अवरोध आते हैं और कुकिंग क्लासेज बंद हो जाती हैं। फिर कुक बुक निकाली जाती है जिसके लिए पति नलिन पूरा सहयोग करते हैं। कुक बुक कैसे फ्लॉप से हिट की तरफ जाती है। फिर कुकरी शो की तरफ और कैसे अनजाने ही कहानी में अभिमान की कहानी आ मिलती है। 

पति का सहयोग ठंडा होने लगता है। घर उपेक्षित होने लगता है जिसके ताने तरला को मिलने लगते हैं। माँ, पति, बच्चे सब उसे गिल्ट देने लगते हैं। माँ कहती है, 'तुम जो भी हो उसे बाहर छोड़कर घर आया करो, औरत का पहला काम घर संभालना है।' 

फिल्म कई दरीचे खोलती है जिसमें ढेर सारे नन्हे सवाल जगमगाते हैं। कुकिंग सीखने आने वाली सारी लड़कियां ही हैं। तरला की किताब को पढ़कर प्रोफेशनल उपयोग करने वाला एक लड़का है। 

खाना बनाना सिर्फ स्त्रियों का ही काम क्यों है, घर संभालना कब तक सिर्फ स्त्रियों के मत्थे मढ़ा रहेगा। क्यों बच्चे की बीमारी या घर पर समय पर सब्जी न आने, पर्दे या बेडशीट गंदे होने की ज़िम्मेदारी औरतों के सर मढ़ी जाती रहेगी। 

सारी दुनिया को खाना बनाना सिखाती हो घर में भी खाना बनाया करो। अब कर तो लिया इतना बस भी करो। घर और बच्चों को समय दो। तुम बाहर जो भी झंडे गाड़ो लेकिन घर में तुम बीवी, बहू, माँ ही हो ये कभी मत भूलो और घर की ज़िम्मेदारी संभालो। 

ये सब कितनी उलझन वाली बातें हैं। अब भी। 

तरला दलाल ने किस तरह एक सफर तय किया। किसी मुकाम पर पहुँचीं कहानी यह नहीं है। कहानी मुकाम पर पहुँचना नहीं है, कहानी सपने देखना है, उन्हें मरने न देना है, उन सपनों के लिए एफर्ट करना है। कहानी है कि क्या हम उन्हें सच में जरा भी समझते हैं जिन्हें प्यार करने का दावा करते हैं। 

मैं जानती हूँ 'अरे दो ही रोटी तो बनानी है इसके लिए कुक क्यों रखना' या 'इनकी तो ऐश है कुछ करना ही नहीं। कुक तक तो लगा रखी है' जैसे तानों की बरसात जब तब हो ही जाती है। और ये ताने देने वाली स्त्रियाँ भी कम नहीं हैं। माने खाना न बनाया तो किया ही क्या, और खाना बनाना भी कोई काम है जैसे विरोधाभास के बीच अभी हम नए समय के लिए नयी सोच के लिए तैयार हो रहे हैं। 

जब देख रही यह फिल्म तब नाश्ता बना रही थी और मुस्कुरा रही थी। कुकिंग करना अच्छा या बुरा है की बात नहीं है बात उस च्वाइस की है जो स्त्रियों के पास नहीं है और पुरुषों के पास है।  

तरला के बहाने हमें अपने आसपास को जरा खंगालना चाहिए। 

फिल्म के अंत में तरला के पति की बात असल में पूरे जमाने की बात है जिसे थोड़ा ध्यान से सुनने की जरूरत है। फिल्म अच्छी है, बिना लाउड हुए अपनी बात कहती है और जीवन को कैसे मीठा बनाएँ इसकी रेसिपी बताती है।  



Wednesday, July 26, 2023

तुम्हारे बारे में- मानव कौल


उसने कहा 'तुम्हारे बारे में'। 
मैंने कहा नहीं सोचा,'कि अगर यह मेरे बारे में है तो तुम्हारे पास क्यों है?' 

सारे जमाने में हमेशा यही हुआ कि जिसके बारे में जो था, उसके अलावा वो सबके पास था। मुझे कभी-कभी लेखकों, कवियों पर गुस्सा आता है। दुनिया की सारी त्रासदी उनके लिए रसद है। लेकिन अगले ही पल यह भी लगता है कि सच ऐसा है क्या? काश!  

इस बरसती सुबह में जब कड़वी कॉफी का स्वाद होंठों पर चिपका हुआ है 'तुम्हारे बारे में' का ख़याल अटका हुआ है। असल में यह अटका तो तबसे है, जबसे देखा है। लेकिन कुछ भी लिख पाऊंगी का कमतर एहसास राह रोके रहा। यूं भी जो अटका रह जाता है, वो करीब सरक आता है। 

पृथ्वी थियेटर में पहली बार नाटक देखा 'तुम्हारे बारे में'। 
पृथ्वी थियेटर का माहौल अपनेपन आप में एक जीवन है, जीवंतता है। उसके बारे में फिर कभी। 

अभी उस किरच के बारे में जो चुभी हुई है, जिसने बहुत सारी चुभी हुई किरचों की कसक को बढ़ा दिया है। 
यह नाटक हम स्त्रियॉं के बारे में है, लेकिन यह पुरुषों के बारे में भी है। यह पूरे समाज के बारे में है। व्यक्ति की गढ़न के बारे में है। हमारा व्यवहार जो हमें लगता है हमारा है, हमारा अच्छा लगना, बुरा लगना, खुश लगना सब कुछ क्या सच में हमारा ही लगना है इसे खँगालने की बाबत कहाँ सोचते हैं हम, कहाँ सोच पाते हैं। 
 
'तुम्हारे बारे में' की तीन स्त्रियाँ मिलकर अपना सपना ढूंढती हैं जिसे लिखकर उन्होंने कहीं रख दिया था। एक स्त्री जिसने अपने उड़ने के सपने के बारे में लिखा होगा वो इतिहास की कोई स्त्री थी, यह हम ही थे। वो सपना जो लिखा नहीं गया, वो सपना जो अभी अपनी इबारत गढ़ रहा है, वो सपना जो अभी लिपि में ढला नहीं वो सपना जो खिड़की से दिखते आसमान के बारे में नहीं था एक मुक्त उड़ान के बारे में था। वो सपना जिसके बारे में सोचते ही आँखें भर आती हैं, मन सहम जाता है वो सपना कौन चुरा लेता है हमसे। 

उड़ान का सपना इतना बड़ा क्यों है आखिर? जब पंख हैं, आसमान है और उड़ने की इच्छा है तो अवरोध कहाँ है, क्यों है। हम उड़ना चाहती हैं, हमारे पास पंख हैं, सामने पूरा आसमान है लेकिन... ये कमबख़्त अपनों की शक्ल की बिल्ली...सारी ज़िंदगी उड़ान को रोके रहती है और मुस्कुराती है। 

मैंने यह नाटक दो बार देखा। और दोनों बार मैंने खुद पर खुद को तारी होते महसूस किया। बहते आंसू और खड़े होते रोयें मुझे गहरे मौन में धकेल रहे थे।
 
हम जो कहने से बचा लाते हैं वो हमसे जब-तब बतियाता रहता है। यह बतियाना बचा रहे इसलिए कहाँ लिख ही रही हूँ कुछ भी कि मैं तो इस सुबह में आई एक याद के सामने खड़ी हूँ बस। मेहंदी हसन गाये जा रहे हैं...बारिश बरसे जा रही है। 

मैंने अपनों की शक्ल की बिल्ली की तरफ देखना बंद कर दिया है फिर भी ठिठकी हूँ उड़ने का सपना अपनी हथेलियों में ज़ोर से भींचे हुए। 
मानव, तुमने हम सबके सपनों को क्यों चुरा लिया। वैसे अच्छा ही किया कि हम तो उस सपने को भूल ही गए थे...

हाँ, नाटक देखना नाटक पढ़ने से, नाटक के बारे में पढ़ने से बहुत अलग होता है। सचमुच। 

चुंबन


जब तुमने पहली बार चूमा था
अज़ान की आवाज़ पिघल रही थी कानों में
गौरेया का जोड़ा थोड़ा करीब सरक आया था
दिन कहीं गया नहीं था
लेकिन शाम की दहलीज पर
रात खड़ी मुस्कुरा रही थी
एक नन्हे बच्चे ने
अपनी गुल्लक खनखनाई थी
मेरी ज़िंदगी की खाली पड़ी गुल्लक में
एक चमकता सिक्का गिरने की
आवाज़ आई थी
खाली पड़ी शाखों पर
अंखुएँ फूटने की आहट हुई थी
धरती उम्मीद से भर उठी थी
कि तुमने सिर्फ एक स्त्री को नहीं चूमा था
तुमने सहेजा था एक स्त्री का भरोसा
मेरे माथे पर तुम्हारा चुंबन
सूरज सा जगमगाता है
मेरी देह से तुम्हारी देह की
खुशबू कभी झरती नहीं...

Thursday, July 20, 2023

खिड़की भर नहीं है आसमान



एक खिड़की थी छोटी सी
एक आसमान था बड़ा सा
लड़कियों को सिखाया गया
खिड़कियों को सजाना-संवारना
उस सजी धजी खिड़की से 
आसमान को देखना
और इतने से ही खुश हो जाना
खुशक़िस्मत समझना ख़ुद को
कि उनके पास खिड़की है तो कम से कम 

उन्हें शुक्रिया कहना सिखाया गया
घर देने वाले का
ताकि वो उसे सजाती-संवारती रहें
खिड़की देने वाले का
जिसमें वो एक टुकड़ा
आसमान थोड़ी सी बूँदों की झालर
लगाती रहें
लोग कहते रहें
कितना सुंदर घर सजाती हो

लड़कियों को खिड़कियाँ और दीवारें लांघकर
बाहर जाना नहीं सिखाया गया
उन्हें नहीं बताया गया 
कि आसमान सिर्फ़ देखने के लिए नहीं होता
उड़ान भरने के लिए होता है.

लड़कियों ने खुद ही सीख लिया एक रोज़
बिना दीवारों वाला घर बनाना
आसमान सिर्फ़ देखना नहीं
उसमें ऊँची उड़ान भरना भी 
 
अब वो सिर्फ़ घर, दहलीज़ 
और खिड़कियाँ नहीं सजातीं 
पूरी दुनिया को सुंदर बना रही हैं
अपनी मुस्कुराहटों से भी 
और अपने प्रतिरोध से भी.

Monday, July 17, 2023

Notes to Myself


Reading the book 'Notes to Myself' by Hugh Prather is listening to my own breath, sensing my emotions, getting relaxed from over thinking, holding my own hand, and walking on green carpet of nature. It has been a mesmerizing experience. The book is holding me inside like a beloved one saying, 'do not worry, everything is okay I am there with you. Reading it, giving a feel like I am standing in front of the mirror which is taking me inside me to see my soul, my tiny botheration and unnecessary guilt. The book is taking me to deep dive into myself. Since long I was waiting for to read something like that.

यह शहर एक कविता है



एक गहरी लंबी सांस के साथ अपनी कलाई को खुद थामते हुए मैंने सुबह से वादा किया कि 'अपना साथ हमेशा निभाऊँगी। चाहे कुछ भी हो जाये, उम्मीद पर भरोसा करना कभी नहीं छोड़ूँगी।' पिछले दिनों यही छूटने लगा था शायद। मन की जिस दशा को मुंबई की सुंदर सी यात्रा भी संभाल नहीं पाई, उसे इन पहाड़ों ने सहेज लिया।

रिल्के के कहे के हवाले जीवन करने के बाद जीवन को दृष्टा की तरह देखने का प्रयास करती हूँ। हर आने वाले पल की आहट पर कान लगाए रहती हूँ कि जाने इस लम्हे में क्या हो। जीवन जैसा आता है, उसे प्यार से अपना लेती हूँ, कुछ जो पसंद नहीं आता तो झगड़ भी लेती हूँ। हालांकि उसे झगड़ा कहना गलत है, उसे जीने का ढब कहना ही ठीक होगा शायद। क्योंकि जीवन में आए अनचाहे के सामने डटकर खड़े होते समय भी जीवन साथ ही था। जब हमें लगा कि वो हमारे खिलाफ़ है तब वो असल में हमारी बांह थामे हुए था।


कई बरस पहले जब बाबुषा कहती थी कि ज़िंदगी से लड़ो नहीं, उसे जियो तो मुझे उसकी बात समझ नहीं आती थी, गुस्सा आता था उसकी बात पर। अब लगता है वो ठीक कहती थी। जीवन से लड़ना नहीं होता, उसे जीना होता है। हमारे जीवन में जो अवांछित है जिससे हम लड़ते हैं वो जीवन नहीं। हम घटनाओं को जीवन का नाम देने लगते हैं। घटना अच्छी या बुरी हो सकती है, लोग अच्छे बुरे हो सकते हैं, जीवन नहीं। उन घटनाओं और लोगों के साथ हमारा संबंध, उनका हम पर पड़ने वाला प्रभाव हमें प्रभावित करता है। वहीं से कुंठा, अहंकार, गुस्सा, प्रतिकार जैसे भाव  उपजते हैं। मैंने तो अपने अनुभव में यही पाया है कि ये भाव जब जीवन का हिस्सा होने लगते हैं ये जीने में बाधा बनने लगते हैं। कितना बोझ लिए घूम रहे हैं हम, न जाने किन-किन बातों का। जबकि जीवन कितना सरल है, प्यास में पानी जैसा, भूख में रोटी जैसा, अकेलेपन में दोस्त की दुलार भरी डांट जैसा, रास्तों पर राहगीर जैसा और सुबह की चाय जैसा।

जैसे अभी मेरे सामने जो बरस रहा है जीवन रिमझिम रिमझिम। आज मुझे लंबी सुबह की दरकार थी। हमें झूलापुल के लिए जल्दी निकलना था लेकिन जिन दोस्तों के साथ जाना था उन्हें कुछ काम आ गया और हमारा निकलना थोड़ा मुल्तवी हुआ। इस तरह मेरी सुबह लंबी हो गयी। देर तक बालकनी में खामोश बैठे हुए मैंने बारिश को रुकते और मौसम को खुलते देखा। महसूस हुआ कि मन के कुछ सीले कोनों तक भी अंजुरी भर धूप गिर रही है। खामोशी का कैसा तो जादू होता है। लंबे समय से अकेले रहते हुए इस खामोशी की संगत की इतनी अभ्यस्त हूँ कि लगता है यही एक सुर है जो ठीक से लग पाता है जीवन का।

बैग पैक हो चुके थे। आज पाइन रिसौर्ट से विदा का दिन था। वो कमरा जो तीन दिन से मुझे सहेजे हुए थे उससे हाथ छुड़ाना था। मैंने 'सब कुछ को शुक्रिया' कहा। यहाँ एक आखिरी चाय पीते हुए सामने बिखरे तमाम हरे को आँखों से अकोरा।

कुछ देर में दोस्त आ पहुंचे। कुछ ही देर में हम झूलघाट के रास्ते में थे। धूप निकल आयी थी। कार में सुंदर गाने बज रहे थे। दोस्त रास्ते में आने वाली जगहों के बारे में बताते जा रहे थे साथ ही उन जगहों से जुड़े अपने अनुभवों पुराने किस्से भी सुनाते जा रहे थे।
 

थोड़ी ही दूरी तय की थी हमने। यह आर्मी एरिया था। कार एक किनारे रुकवाई गयी। यह जगह थी जलधारा हुडकन्ना। पता चला कि यहाँ का पानी बहुत स्वादिष्ट होता है बहुत ही मीठा और ताकीद मिली कि मुझे जरूर पीना चाहिए। पानी के स्वाद की बाबत तो मैं कुछ नहीं कहूँगी वो तो पीकर ही जाना जाना चाहिए लेकिन इस पानी से जुड़े किस्से मजेदार थे। मसलन जो यहाँ का पानी पीता है उसकी तमाम मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, यहाँ का पानी पीकर पुत्र प्राप्ति होती है, अगर किसी को बोलने में दिक्कत है, जबान साफ नहीं है तो यहाँ का पानी पीकर एकदम ठीक हो जाती है समस्या।

इन किस्सों के बारे में बताते हुए दोस्तों का चाव और उनकी हंसी दोनों ही रोचक थी। उन्होने हँसते हुए कहा कि उनके पड़ोस के एक व्यक्ति ने दो साल तक यहाँ का पानी मंगवाकर पिया फिर उसे बेटी हो गयी...हम सब हँसते हुए वहाँ से आगे बढ़े।

बात हंसी की थी सो हंसी में टल गयी लेकिन एक सर्द लकीर दिल में कहीं तड़क गयी। 'फिर उसे बेटी हो गयी...'। यह तो पहाड़ का एक दूरस्थ सा गाँव है लेकिन पुत्र प्राप्ति का यह मोह और उसके लिए किए जाने वाले टोटके शहरों में कौन से कम हैं। बस वो प्रगतिशीलता के चोले में छुपा लिया है चतुर सुजान लोगों ने।

धर्म और आस्था चप्पे-चप्पे पर बिखरी हुई थी। हर थोड़ी देर पर कोई नए देवता दिख जा रहे थे। ऐसे-ऐसे देवता जिनका नाम भी नहीं सुना कभी। बताया गया कि यहाँ हर गाँव के अलग देवता होते हैं। हो सकता है इसका भौगोलिक कारण हो। फिर पता चला कि किसी की मृत्यु के बाद अगर उसकी आत्मा भटकती है मुक्त नहीं होती तो उसके नाम का मंदिर बना देते हैं गाँव वाले। इस तरह देवताओं की सूची बढ़ती जाती है। ये सब बातें कितनी युक्ति संगत, तर्क संगत हैं नहीं पता लेकिन लोक के कहन में तो हैं ही। तभी पता चला कि यहाँ एक खुदा देवता भी हैं...मैंने तीन बार कनफर्म किया हाँ खुदा देवता ही। थोड़ी हैरत हुई थोड़ा सुख हुआ। कितना सुंदर हो कोई अल्लाह कभी शिव मंदिर में मिलने लगें और कोई गणेश कोई हनुमान किसी मस्जिद में टकरा जाएँ। किसी चर्च में किसी गुरुद्वारे में मिलें सब और मिलकर निकालें राह हर धर्म के नाम पर होते उत्पात से बचने के।


 मुझे खुदा देवता के दर्शन तो नहीं हुए लेकिन एक सुंदर सी घाटी के करीब चाय की दुकान के दर्शन हो गए। चाय से ज्यादा लोभ हुआ उस जगह पर रुकने का। कार रुकी, कौन चाय पिएगा, कौन क्या खाएगा का हिसाब लगाने का काम दोस्त के सर छोड़ मैं भागती फिरी उस घाटी की ओर जहां से काली नदी अपने सौंदर्य और आवाज़ से लुभा रही थी। नन्ही बूंदों की फुहार के बीच नदी की ओर दौड़ते मेरे कदमों से ज्यादा रफ्तार मन की थी।

जब दूर-दूर तक कोई न हो तो कुदरत का संगीत कितना स्पष्ट सुनाई देता है। झींगुर, चिड़ियों, नदी और बूंदों की आवाज़ों के बीच मैंने पत्तियों और फूलों की आवाज़ भी सुनी। उस आवाज़ की एक पंखुरी बालों में टाँक ही रही थी कि आवाज़ आई, 'आ जाओ चाय बन गयी है।'

चाय बहुत अच्छी थी और मौसम उससे भी अच्छा। चाय के साथ कुछ काले चने और उस पर पहाड़ी रायता भी था खाने को। खाने का मन एकदम नहीं था लेकिन कुछ नया था यह तो चखना तो बनता ही था। फिर पहाड़ी केले भी खाने को मिले। दो-दो इंच वाले केले। स्वाद में एकदम अलग। ऐसे केले तो मैंने दक्षिण भारत में खाये थे इलायची केले के नाम से। ये यहाँ कैसे। पता चला ये यहाँ के खास केले हैं। केले मुझे खास पसंद नहीं लेकिन इनका स्वाद अलग था। नतीजा यह हुआ कि तमाम केले ले लिए गए। नहीं जानती थी कि इन्हें मेरे साथ देहरादून रवाना होना है।


सफर आगे बढ़ा और हम झूलापुल की ओर बढ़ते गए। रास्ते में मिली ममता जलेबी। पता चला ये बहुत फेमस है। दोस्त ने हँसकर बताया कि ममता जलेबी पर खूब सारे गाने यूट्यूब पर मिलेंगे। अरे वाह, ऐसा क्या खास है जानना जरूरी था लेकिन पेट एकदम नो मोर ईटिंग वाला बोर्ड लगाए हुए बैठा था। तो तय हुआ कि ममता जलेबी को वापसी के समय निपटाया जाएगा। ममता जलेबी तकरीबन 50 साल पुरानी दुकान है। संभवतः उन दिनों मिठाई के नाम पर आई जलेबी का आकर्षण रहा होगा। सुनने में आया कि इसे चीनी से नहीं मिश्री से बनाते हैं। हालांकि जब हमने जलेबी खरीदी तो वो मिश्री की तो नहीं थी। दुकान वाले ने कहा अब कहाँ मिश्री। मिश्री इतनी महंगी हो गयी है। बहरहाल ममता जलेबी का जलवा अभी भी कायम है। और यह राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित है ऐसा भी इन्टरनेट बताता है। 
(https://www.youtube.com/watch?v=HK5mOAsT__A- ममता जलेबी का गाना)

ममता जलेबी के ठीहे से आगे बढ़े तो काली नदी करीब आती दिखी।  थोड़ी ही देर में झूलापुल दिखने लगा था। यह नदी दोनों देशों की सीमाओं को साथ लेकर बहती है। इसके एक हाथ में नेपाल है दूसरे में भारत। ठीक इसी तरह झूला पुल भी दोनों देशों को जोड़ रहा था। मुझे चाव होता है इस तरह जोड़ने वाली चीजों को देखने का। जैसे ही हम कार से उतरे मैं नदी के किनारे की ओर बढ़ने लगी। जाने कितनी बातें काली नदी के मन में होंगी, हर नदी की अपनी कहानी है। हर नदी की अपनी अलग ही रवानी है। मैंने उससे पूछा, 'ठीक तो हो?' उसने मुस्कुराकर कहा,'आ गईं तुम?' मैं चुप रही। सच मेरी योजना में कभी नहीं था इस नदी से मिलना। कहाँ कुछ भी होता है हमारी योजना में। सब योजनाएँ जीवन के खलीते में होती हैं और वो हमें कभी कुछ नहीं बताता।

 

पुल के इस पार एक छोटा सा सुरक्षा घेरा था। जो लगभग निष्क्रिय या कहूँ औपचारिकता भर था। एक आधार कार्ड भर दिखाकर हमें उस पार जाने की अनुमति मिल गयी। चार कदम, बस चार कदम और नेपाल। झूला पुल के ठीक बीच जब मैं खड़ी थी और नदी के दोनों छोर देख रही थी मेरी आँखें सजल हो उठीं। मैंने रोएँ खड़े होते महसूस किए।

सरहद क्या होती है एक राजनैतिक व्यवस्था ही तो। फिर इन सरहदों के नाम पर इतना रक्तपात, इतना द्वेष कैसे फैल गया। क्या फर्क है चार कदम इस पार और चार कदम उस पार में। क्या फर्क है नदी के इस किनारे में और उस किनारे में। इस सरहद के बहाने देश की बल्कि तमाम देशों की सरहदों का खयाल ज़ेहन में आ गया था। नेपाल तो मित्र देश है लेकिन सरहद तो सरहद। इस पल में मैं जहां खड़ी हूँ वो किसी सरहद में नहीं। ठीक बीच में। दो देशों के ठीक बीच में, जीवन के ठीक बीच में। मेरी रुचि न इस पार में है, न उस पार में। मेरी रुचि है इस लम्हे में जिसमें जीवन मुस्कुरा रहा है। किसी भी सरहद के इस पार या उस पार और क्या चाहिए सिवाय जीवन के। जीवन जो मोहब्बत से, जीने की समर्थता से और सम्मान से भरा हो। जीना कौन नहीं चाहता भला, प्यार किसे नहीं चाहिए, सम्मान किसकी जरूरत नहीं। झूठ कहते हैं सब कि रोटी पहली जरूरत है, हाँ, वो है लेकिन वो रोटी सम्मान से मिलनी भी जरूरी है। यही छूट जाता है...क्यों हों ऐसे हालात कि इंसान को सम्मान और रोटी में से चुनना पड़े एक को। मन में विचारों का कोलाहल था सामने नदी का।  

काली नदी कह रही थी 'ज्यादा मत सोचो मेरे पास आओ।' सामने नेपाल मुस्कुरा रहा था। और दो कदम बढ़ाकर मैं नेपाल में थी। सारा मामला सोच का है वरना क्या फर्क था इस पार में, उस पार में। नेपाल की सीमा लगते ही दुकानें दिखने लगीं। सामान से भरी दुकानें। लेकिन ग्राहकों से खाली दुकानें।


 लोगों ने बताया कि कोविड के बाद से यह बाजार पनप नहीं पाया। पहले यहाँ खूब भीड़ होती थी। सस्ता सामान लेने लोग टूटे रहते थे। इस देश की करन्सी, यहाँ के टैक्स भारत के मुक़ाबले सामान को सस्ता बनाते होंगे शायद। 23 बरस पहले की अपनी काठमाण्डू यात्रा याद आ गयी जब साथ आए लोगों में घूमने से ज्यादा सस्ता सामान खरीदने का चाव देखकर हैरत होती थी।

मैं नेपाल से अपने लिए क्या ले जाऊँ सोचते हुए मैंने अपनी फेवेरेट औरेंज कैंडी का एक पैकेट लिया। मैंने उस पार से इस पार की तस्वीरें लीं और खूब सारा महसूस किया दुनिया के इस कोने में अपना होना।

जब लौट रहे थे हम तो भीतर कोई खामोशी पसर गयी थी। दिन तेज़ी से बीत रहा था और मुझे यह बीतना अच्छा नहीं लग रहा था कि अगले दिन वापसी जो थी।

फिलहाल आज के दिन में अभी बहुत सारा दिन बचा हुआ था। पिथौरागढ़ पहुँचकर कविता कारवां की बैठक में शामिल होना था। यह बैठक खास मेरे आग्रह पर महेश पुनेठा जी ने रखी थी। मुझे बड़ा चाव था कि इस सुंदर शहर की एक शाम में खुद को सुंदर कविताओं के संग घुलते देखने का। कविता कारवां को जिस कदर प्यार मिल रहा है हर शहर में वह जीवन में लोगों की आस्था ही तो बयान करता है वरना जब सब अपने मैं का टोकरा उठाए हाँफ रहे हों किसको फुर्सत है कि समय निकाले किसी और की कविता सुने और सुनाए।


कविता कारवां की सुंदर शाम थी। किसी पहाड़ी गाँव में, बरसती बूंदों के साये में एक कप चाय के साथ अपनी पसंद की कवितायें सुनने और सुनाने का सपना ही केंद्रीय तत्व था कविता कारवां का। मुझे कविता कारवां के अपने साथी सुभाष से थोड़ी ईर्ष्या हुई कि वो उत्तराखंड की अलग-अलग जगहों पर ही नहीं देश के अलग-अलग शहरों में भी शामिल हुआ है। वो सचमुच पागल है, कविता कारवां से जितना प्रेम सुभाष को है वही इस कारवां को आगे बढ़ाए है और अब यह प्रेम सबमें बिखर गया है। हेम इस बैठक में शामिल थे हेम रुद्रपुर हल्द्वानी में बैठकों को अलग-अलग अंदाज में करते हैं और अलग ही रौनक देते हैं। महेश जी भी पिथौरागढ़ में खूब प्रयोग करते रहते हैं कविता कारवां की बैठकों के साथ। सबसे सुंदर यह हुआ कि मुझे कहा गया कि आप इसके नियम और यात्रा के बारे में बताइये। मैंने कुछ कुछ बताया और जो छूट गया मुझसे वो जोड़ा उन साथियों ने जिन्हें मैं पहली बार मिल रही थी। जो अन्य बैठकों में शामिल थे और कविता कारवां के कांसेप्ट और नियमों से अच्छी तरह से वाकिफ थे। यही, बस यही सबसे सुंदर हासिल है। हमें छूटते जाना है, लेकिन कारवां बढ़ते जाना है...


इस कारवां से निकले तो पहुंचे जनता पुस्तकालय। कितना तो सुंदर रास्ता था। कब चढ़ना, कब उतरना, खेतों के बीच से पानी की कलकल के बीच से गुजरते हुए एक सुंदर से घर में प्रवेश किया। महेश पुनेठा, शीला पुनेठा और अभिषेक का घर। अपनेपन का एहसास घर के कोने-कोने में समाया हुआ था।

सरल जीवन की खुशबू में किताबों की महक घुली हुई थी। मैंने बहुत से घरों में किताबें देखी हैं, लेखकों के घर देखे हैं उनके घर की उनकी लाइब्रेरी देखी हैं। मैं खुद लाइब्रेरी वाले घर में पली बढ़ी हूँ। लेकिन यहाँ बात एकदम अलग है। ये लाइब्रेरी जनता के लिए है। इतनी सारी किताबों की सार संभाल आसान तो न होती होगी। यह पूरा परिवार किस कदर पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने और इस दुनिया को तनिक और सुंदर बनाने के लिए जुटा हुआ है देखकर सुख होता है। अभिषेक अपने दोस्तों के साथ आरंभ स्टडी सर्किल चला रहे हैं यह एक खूबसूरत प्रयोग है। यह जनता पुस्तकालय एक ख्वाब है कि लोग पढ़ेंगे फिर समझेंगे कि असल में दुनिया भर का साहित्य बेहतर सोचने, समझने महसूस करने को कहता है ताकि हम समझ सकें कि जीवन सिर्फ प्रेम है बाकी सब बेमानी है। यह घर और इस घर के लोग मुझे कविता से लगे और अपनी ही एक कविता की लाइन याद आ गयी- 'मुझे इस धरती पर मनुष्यता की फसल उगाने वाली कवितायें चाहिए।' इस घर में ऐसी कवितायें लिखने वाले लोग रहते हैं।

दिन को यूं तो काफी पहले बीत जाना चाहिए था लेकिन कुछ मौकों पर हम उसे रोके रहना चाहते हैं और जी लेना चाहते हैं। दोस्त के घर आज डेरा था अपना। खुश रंगों से सजे इस घर में पहले भी आ चुकी हूँ। यहाँ आपकी एक नहीं चलती, डांट-डांटकर खिलाया जाता है, मनुहार से नहीं हक़ से खयाल रखा जाता है। कौन से बीज कभी छिटक गए होंगे जो मित्रता के ऐसे खूबसूरत बिरवे उगे हैं। ये मित्रताएं जीवन का संबल हैं।

अपनेपन की उसी गर्माहट के साथ गप्पे लगाते हुए कब सो गयी पता ही नहीं चला।

चलते चलते...

 रात भर बारिश एक लय में गिरती रही। कभी-कभी लय घट बढ़ भी रही थी। नींद उचट गयी। एक डर मन में घिरने लगा। ये निरंतर बरसती बदलियाँ कल रास्ता न रोक लें कहीं। पहाड़ जीतने सुंदर होते हैं यहाँ की दुश्वारियाँ भी कम नहीं होतीं। घूमने आना, तस्वीरें लेना चले जाना एक बात है और यहाँ रहना दूसरी बात। पैदल, नंगे पाँव शहर में चलना, सारे मौसम बदन पर उतरने देना, स्थानीयता की, लोक की, संस्कृति की खुशबू से रू-ब-रू होना और रोज की दिक्कतों को भी चखकर देखना जरूरी होता है। चूंकि मुझे इस शहर से इश्क़ हो गया था तो शहर ने भी मुझे पूरी तरह अपनाने की ठान ली थी। 

सुबह में तनाव था। तनाव सिर्फ मुझे नहीं था दोस्तों ने भी बारिश देखकर अंदाजा लगा लिया था कि रास्ता रुका हुआ हो सकता है। लैंड स्लाइड का खतरा बढ़ चुका था। सब अपनी तरह से पता लगाने की कोशिश कर रहे थे। और सुबह की पहली चाय के साथ ही पता चल गया कि लैंड स्लाइड हुआ है, रास्ता रुका हुआ है। रास्ते दो जगह बंद थे। एक जगह तो टैंकर ही मलबे में फंस गया था। समझ में आ गया था कि मुश्किल आ चुकी है। 

दोस्त लगातार हौसला बढ़ा रहे थे कि पहाड़ों में यह आम बात है, रास्ता खुल जाएगा। पिथौरागढ़ से रुद्रपुर तक पहुँचने में 6 घंटे का समय लगता है इसलिए ज्यादा फिक्र तो नहीं थी लेकिन फिक्र तो थी। इधर बारिश भी रुक नहीं रही थी। हालांकि सुकून यह था कि मैं घर में थी, सुरक्षित थी। 

कैसे समय से मैं स्टेशन पहुँच पाऊँ ताकि वहाँ से देहारादून की ट्रेन पकड़ी जा सके इसकी जुगत लगाने में तमाम लोग लगे हुए थे। 

आखिर राह निकली और मैं ढेर सारी मधुर स्मृतियों की गठरी के साथ शहर से विदा हुई। सच है, थोड़ी सी रह गयी हूँ वहीं, पूरी कहाँ लौटी हूँ। किसी भी यात्रा से हम पूरे के पूरे वैसे ही कहाँ लौटते हैं जैसे गए थे, और यही तो यात्रा का हासिल होता है...

Saturday, July 15, 2023

उम्मीद भरी आँखें और सवाल तमाम


जब रात भर ख़्वाब सुकून से सोने देने के लिए पलकों की दहलीज़ पर बैठकर पंखा झले तो नींद की झील में तैरते फिरने का आनंद ही कुछ और होता है। देह पंखों से हल्की और मन एकदम मुक्त। कोई बोझ नहीं। न विगत का, न आगत का। यूं मुझे देर तक सोना पसंद है लेकिन सुबह जागने के सुख का स्वाद जबसे लगा है तबसे दो सुखों में जंग चलती है। देर तक सोने का सुख अक्सर जल्दी उठकर वॉक पर जाने के सुख पर भारी पड़ता है। लेकिन जब घर से बाहर होती हूँ, किसी नए शहर में तो उस शहर की सुबह में घुल जाने को जी करता है।

मैं चाहूँ भी तो शहर सोने नहीं देता। आवाज़ देता है, हाथ पकड़कर ले जाता है अपनी गलियों में, सड़कों में, बागीचों में। और यह शहर जिससे कल ही इश्क़ हुआ है वो भला कैसे मेरी सुबह पर अपना नाम दर्ज न होने देगा। नींद और जाग के मध्य ही थी कि चिड़ियों की पुकार और बारिश कि मध्धम धुन ने माथे पर हाथ रखा। ताप नहीं था, ताप के निशान थे थोड़े से। दुपट्टा लपेटा और बालकनी में जाकर पाँव पसार दिये। आँखों से नींद पूरी तरह झरी नहीं थी लेकिन उनमें सुबह समाने लगी थी।

बिना ज़िम्मेदारी वाली ऐसी सुबहें हम स्त्रियॉं के हिस्से में कितनी कम आती हैं। चाय तक बनाने कि ज़िम्मेदारी से मुक्त सुबह। सोचती हूँ जो हमारा बमुश्किल हाथ आया सुख है पुरुषों का तो वह रूटीन का सुख है जिसकी उन्हें इतनी आदत है कि उन्हें वह सुख महसूस तक नहीं होता। कितनी ही बातें कर लें, भाषण दे लें बराबरी के, कितनी ही कवितायें कहानियाँ लिख लें लेकिन अभी स्त्रियॉं की असल ज़िंदगी की कहानी में बहुत कुछ बदलना बाकी है। अपनी ही गहरी सांस को सुनते हुए बरसती बूंदों पर ध्यान लगा देती हूँ।
 
धुंध की धुन सुनते हुए अरसे बाद अपने दिल की धड़कनें सुनीं। नब्ज़ की रफ़्तार को महसूस किया, बंद आँखों में हरा समंदर उगते देखा और हरे समंदर में खुद को बिखरते हुए। बिखरना अगर इस तरह हो तो क्या ही सुंदर है। इस तरह तो मैं ज़िंदगी भर बिखर जाने को तैयार हूँ सोचते हुए होंठों के पास खिलती मुस्कुराहट को महसूस किया। इन दिनों चाय पीना बढ़ गया है सोचते हुए एक और चाय का रुख़ किया और हथेलियों को बूंदों के आगे पसार दिया। हथेलियों पर सुख बरस रहा था। मैंने उस सुख को पलकों पर रख लिया...

 

आज के दिन के लिए मन में काफी उत्साह था। आज युवाओं से संवाद था। नहीं जानती थी कि उनके प्रश्न क्या होंगे, लेकिन सुख था कि ऐसे युवाओं के बीच होने वाली हूँ जिनके मन में सवाल हैं। मेरी भूमिका जवाब देने की कम उन सवालों को प्यार करने की ही होने वाली है यह मुझे अच्छी तरह से पता था।

पत्रकारिता के दिनों में गेस्ट फैकेल्टी के तौर पर कई साल पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया है या कहूँ कि उनसे मुखातिब हुई हूँ, वो दिन याद आ गए। सामने बैठे अपने छात्रों के चेहरे भी। आज का दिन नयी उम्र की खुशबू के संग इकसार होने का दिन था। नियत समय से पहले ही जा पहुंची थी। बरसते भीगते मौसम में यूं शहर से गुजरना, छतरियों के साये में गंतव्य तक पहुँचना रूमानी था।


पिथौरागढ़ टीम के साथ संवाद में एक गढ़न थी। साथियों को लग रहा होगा वो मुझसे कुछ पूछ रहे थे असल में मैं उन्हें सुन रही थी। कहने से ज्यादा सुनना सुंदर होता है यह अच्छे से जानती हूँ इसलिए सुनने के रियाज़ पर काम करती रहती हूँ।

सारा दिन तरह-तरह के सवालों से घिरी रही। जवाब का पता नहीं लेकिन हम सवालों पर बात करते रहे। पहाड़ी वोकल एक युवा समूह है जो आज मुझसे बात करने वाला था। नियत समय से पहले ही अनौपचारिक बातचीत मैं युवाओं के सवालों और जिज्ञासाओं के समंदर में घिरी बैठी थी।


शाम हुई और क्या खूब हुई। इतने खूबसूरत सवाल, इतने मौजूं सवाल और इतने सारे युवा चेहरे देखकर मन उम्मीद से भर उठा। सवाल जाति, धर्म, जेंडर भेद के। सवाल कैसे इस दुनिया को सुंदर बनाया जाय। पढ़ना कैसे बेहतर मनुष्य बनने में मदद करता है, क्या पढ़ना चाहिए, मन न लगे पढ़ने में तो क्या करें। लिखना कैसे बेहतर हो, कैसे पहचानें फेक न्यूज़ को। कुछ कवितायें पढ़ी गईं उन पर भी बात हुई। सवालों का सैलाब आया हुआ था और यक़ीनन यह खूबसूरत मंज़र था। ज़िंदगी को, समाज को देश को प्रेम से भर देने के लिए, एक-दूसरे को बिना किसी भी विभेद के सम्मान से पेश आने के सिवा और क्या इस धरती को सुंदर बना सकता है।

और फिर आया एक सवाल जिसने मेरे पूरे व्यक्तित्व की नब्ज़ पर हाथ रख दिया, 'आपके लिखे में प्यार शब्द बहुत आता है, आपके लिए प्यार क्या है?' इस सवाल से मैं खिल उठी। 'बचपन में जिस गुलमोहर के पेड़ के नीचे किताबें पढ़ा करती थी वो पेड़ मेरा पहला प्यार है,' मैंने कहा। यह कहते हुए मैंने खुद को गुलमोहर के साये में ही महसूस किया। स्मृति की शाख से टूटकर गुलमोहर का एक फूल अपने कंधे पर गिरता हुआ मालूम हुआ। मैंने मुस्कुराकर उसे 'हैलो' कहा और अपनी बात को कहना जारी रखा कि 'असल में जीवन में सब कुछ प्यार है। सब कुछ। धरती, आसमान, हवा, पेड़, पंछी, नदी, हम सब प्रेम ही तो हैं। प्रेम से विहीन जीवन की कल्पना ही असहनीय है। हम सब प्यार के तलबगार हैं। कौन है इस दुनिया में जिसे प्यार की आस नहीं है, तलाश नहीं। सबको प्यार मिले सम्मान मिले, जीने के समान अवसर मिलें इत्ती सी बात यूटोपिया क्यों लगने लगती है लोगों को। लेकिन अगर यह यूटोपिया है, तो है। मेरी प्यार में, जीवन में, प्रकृति में बहुत आस्था है और यही मेरे लिखे में बार-बार दिखता है जो कि लाज़िम है।'



कुछ कविताओं के पोस्टर साथियों ने बनाए थे। अनुष्का और रश्मि ने बताया कि आपकी कवितायें हमें, हमारे दोस्तों को खूब पसंद हैं। वोकल पहाड़ी की टीम के बाकी साथी सुधांशु, मुकेश, पूनम, शीला, यशोदा, राखी, ज्योति भी खूब उत्साहित थे और शाम को सजाने में पूरे मनोयोग से लगे हुए थे। इस युवा समूह की ऊर्जा और उत्साह को एकदम चुपचाप बिन बताए कुछ लोग सहेज रहे थे। हर्षा, अमित, अंकित, दीपिका, जुगल, संतोष, नन्दिता, सुरेन्द्र, मेघा, नदीम, रीतिका, अखिल। यह एक जोशीली और उम्मीद भरी शाम थी। जिसके बीतते-बीतते दिन की कलाई पर सांवला रंग उतर आया था। बारिश कहीं गयी नहीं थी।

कोई दिन कई दिन लेकर आता है। दिन बीत रहा होता है लेकिन ठहरा रहता है। ये ऐसे ही दिन थे। शाम तक चेहरे पर थकान की लकीरें उभर आई थीं, जिनमें भूख भी शामिल थी। एक पक्का दिन जिसका हासिल एक लंबा और सार्थक संवाद था हाथ छुड़ाने को तैयार था, लेकिन...क्या यह इतना आसान था। बीतते दिन का बीतना अभी बाकी था। अचानक मैंने खुद को चंडाक के रास्तों पर पाया। उतरती शाम को अपनी दोनों हथेलियों में उठाए रास्ते खुशनुमा थे। बारिश ने आँचल समेट लिया था। पंछी आसमान में खेल रहे थे। हम और आगे और आगे बढ़ते जा रहे थे। बहुत सुना था इस जगह के बारे में।


 चंडाक का नाम चंडाक क्यों है, है क्या यहाँ पर, इन सवालों के जवाब गूगल पर मौजूद थे। मेरे भीतर इच्छा थी घने देवदार के जंगल की ख़ुशबू को अपनी साँसों के उतार लेने की। यह किसी गूगल या यूट्यूब पर संभव नहीं। रास्ते की निस्तब्धता का आकर्षण अलग ही था।

'सुनो देवदार, मुझे बहुत भूख लगी है' मैंने सोचा था पहुँचकर सबसे पहले यही कहूँगी। लेकिन कुछ भी कहने कहाँ देता है यह शहर कहने से पहले इच्छायें पूरी होती जाती हैं। कब सोचा था कि किसी रोज वादियों में चल रहा होगा बदली और धूप का खेल और मेरे सामने होगी अच्छी सी कॉफी और पकौड़े।


उस जरा सी देर में वादियों के इतने रूप बदले कि दिल अश अश कर उठा। अभी कुछ देर पहले जहां धुंध थी, बस जरा सी देर बाद वहाँ धूप के गुच्छे उग आए थे और कुछ देर पहले की सुफेद पहाड़ियाँ अचानक सोने में मढी हुई लगने लगीं। देवदारों के सीने से लगकर रो लेने का जी किया, चीड़ के पेड़ों की शाखों को हथेलियों में भींच लेने का जी किया। ज़िंदगी इस कदर खूबसूरत है, प्रकृति का वैभव हमें हर पल विस्मित करता है। एक जीवन कितना कम है इस सुख को अकोरने के लिए और हम उस एक जीवन में छल, प्रपंच, ईर्ष्या, नफरत की फसल उगा बैठते हैं। शायद अभी हमें मनुष्य के तौर पर इस जीवन को जीने की योग्यता हासिल करना बाकी है। यूं सांस लेना और लेते जाना भी कोई जीना हुआ भला। 

कल जब दीप्ति पूछ रही थीं साहित्य क्या है तो यही तो आया था मन में कि यह जो बिखरा हुआ है चारों ओर यही तो है साहित्य। इसे अभी लिखा जाना बाकी है। तमाम भाषाएँ इसे जस का तस लिख पाने में असमर्थ हैं। इसे जीकर ही पढ़ा जा सकता है।


 
प्र्कृति के सम्मुख हम कितने बौने हैं। कितना तुच्छ है वो जीवन जो इस विराट सौंदर्य के करीब होकर भी अपने भीतर के खर-पतवार को बीन न पाये। जी चाहा देवदार के आगे धूनी जमाकर बैठी रहूँ, बस बैठी रहूँ। लेकिन अब पीठ कराहने लगी थी और कह रही थी कि थोड़ा आराम चाहिए सो लौटना पड़ा।

जब हम लौट रहे थे तो साथ में एक ख़ुशबू लौट रही थी। ख़ुशबू जिसे लिखा नहीं जा सकता लेकिन जो इस समय स्मृति की कोटर से निकलकर लैपटॉप में झांक रही है। देवदार की ख़ुशबू, वादियों में बिखरी धुंध की ख़ुशबू और ख़ुशबू कॉफी की।

लौटते समय शहर ने सितारों से टंकी ओढनी ओढ़ रखी थी। यह बिना बारिश वाली रात थी। कमरे में पहुँचकर बिस्तर ने पीठ के दर्द को जिस मोहब्बत से देखा मुझे सच में हंसी आ गयी। समय बीत रहा था और मैं इसे थाम लेना चाहती थी। खाने के बाद देर तक दूर तक टहलने जाने का मोह कैसे छूटता भला कि अब मेरे पास बस एक दिन शेष था इस शहर में। सुबह हमें जाना था झूलाघाट। जहां से नेपाल का रास्ता खुलता है। यानी हम नेपाल जाने वाले थे अगले दिन।

एक मुक्कमल दिन को जी लेने की खुशी रसगुल्ले के साथ सेलिब्रेट करते हुए नींद का रुख किया। नींद जो न जाने कितनी देर से बाहें पसारे अपने आगोश में लेने को व्याकुल थी...


जारी.. 

Friday, July 14, 2023

तुमने दिल ले लिया है यार पिथौरागढ़


हर रात को सुबह का पता नहीं होता। हालांकि हर रात को सुबह की तलाश जरूर होती है। पिछली कई रातों की जाग, लंबे सफ़र और कुदरत के करिश्मों से जी भर के हुई मुलाक़ात का जादू यूं हुआ कि वक़्त से पहले आँख लग गयी। बाद मुद्दत ऐसी गहरी नींद हुई। सुबह हुई चिड़ियों की आवाज़ से। कमरे का दरवाजा खोला और पल भर में पूरा मौसम कमरे में आ धमका। मौसम ने मुसकुराकर कहा,'कितना सोती हो, चलो चाय पीते हैं।' मैंने कहा, बड़े दिन बाद अच्छी नींद आई है तो टोको तो मत। उसने मुट्ठी भर बौछार में हवा का झोंका मिलाया और मेरे मुंह पर उछाल दिया। सारा आलस सामने लगे चीड़ और देवदार के पेड़ पर जा बैठा। 

बालकनी में बैठकर आसमान, चिड़िया, पेड़ ताकना और चाय पीते-पीते भूल जाना और अगला घूंट लेना ये पुराना शगल है। लेकिन आज इस शगल में कुछ नया सा सुरूर था। बारिश एक लय में थी। पेड़ से टकराते हुए बूंदें मेरे पैरों को भिगोने की कोशिश में लगातार लगी हुई थीं।


ये लंबी सुबह थी। इसकी डोर मेरे हाथ में थी। मैं इसे कितनी भी देर तक थामे रह सकती थी। बूंदों का यूं एक लय में गिरना, चिड़ियों का खेल और सामने बिछा हरा समंदर, जिनकी निगरानी में खड़े खूबसूरत जंगल...दूर पहाड़ी पर उड़ते बादलों का बड़ा सा गुच्छा...ये कौन चित्रकार है...का ख्याल साथ था। ऊपर से चाय पसंद की मिल जाय तो कहना ही क्या। घर से बाहर अक्सर मन की चाय मिलना मुश्किल ही रहा है लेकिन ये शहर जिसने न्योता देकर बुलाया था, खयाल रखना जानता है। चाय के स्वाद को संभाल लेना भी।

लैपटॉप खोला कुछ लिखने के लिए लेकिन दृश्य से आँखें हटें तब न। सो लैपटॉप बेचारा चाय के कप के बगल में रखे हुए खुद को उपेक्षित महसूस करता रहा। उसका यूं उपेक्षित महसूस करना कहीं सुख भी दे रहा था। हमेशा सारी फुटेज खा लेता है वो लेकिन जब सामने मौसम हो तो इन महाशय की एक नहीं चलती।
 

बारिश का यूं है इस शहर में दिन भर मनमानी चलती है मैडम की। कभी भी कितनी भी। और जब मन भर जाये बरस के तो मुट्ठी भर धूप उछाल के गायब। अभी मैं बारिश में चल रहे चिड़ियों के खेल में गुम ही थी कि सामने की वादी धूप से चमक उठी। नन्ही सी हरे रंग की चिड़िया (नाम मुझे पता नहीं) सफ़ेद धारी वाली और लाल मुकुट वाली चिड़िया के साथ मिलकर कोई खेल खेलने निकल पड़ीं। चिड़ियों का मूड कैसा है यह उनकी उड़ान देखकर जाना जा सकता है। वो चिड़िया खुश थीं सब की सब।

एक कप और चाय की तलब उठी तो चाय मंगा ली। हालांकि अब सुबह समेटने का समय हो आया था। मुझे आज साहित्य और शिक्षा पर बात रखनी थी। सारे रास्ते मैं यही सोचती आ रही थी कि क्या बात करूंगी। एक संकोच, एक झिझक हमेशा साथ होती है क्या मैं बात रख पाऊँगी, क्या मैं इस बात की समझ भी रखती हूँ। फिर माँ का कहा याद आता है, 'सरल रहो बस।' मैं इसे सूत्र वाक्य की तरह बुदबुदाती हूँ। फिर हंस पड़ती हूँ, मुझे इसके सिवा आता भी क्या है। सरल होना सरल होना ही होता है उसके लिए प्रयास करते ही वो कठिन होने लगता है।


साहित्य और शिक्षा पर क्या बात हुई, कैसी बात हुई यह नहीं जानती लेकिन इतना पता है कि लोगों ने संवाद को पसंद किया। मुझे खुशी हुई एक प्यारी सी लड़की दीप्ति से मिलने की। सरल सी, प्यारी सी लड़की जो मुझसे संवाद कर रही थी। बातचीत के मध्य ही दिल चाहा कि उसे गले लगा लूँ। सरलता मुझे आकर्षित करती है।

शीला जी से मिलना हुआ वो भी एकदम सहज सरल और अपनेपन से मिलीं। लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। फिर एक के बाद एक लोगों से मिलना होता रहा। सब निश्चल और मौसम जैसे प्यारे लोग। 

थकान और देर तक बात कर चुकने के बाद एक अच्छी सी कॉफी पीने कि इच्छा ने एक कैफे में ला बिठाया। जाएँ कहीं भी, शहर अपने मौसम का टोकरा लिए साथ ही चल रहा था। मैं उसकी शरारत समझ चुकी थी। कॉफी पीते पीते मैंने मौसम की एक शाख को बालों में अटकाया और कॉफी पी चुकने के बाद चल पड़े बादलों के गाँव में।


जैसे-जैसे रास्तों पर आगे बढ़ रहे थे मौसम सुहाना होता जा रहा था। जैसे किसी प्रिय मेहमान के घर आने पर हम  उसके सम्मुख बेस्ट चीज़ें प्रस्तुत करते हैं, घर को करीने से सजाते हैं कुछ वैसा ही बल्कि उससे ज्यादा ही कर रहा था यह शहर। अपने सौंदर्य को खुलेमन से लुटा रहा था। खूब बरस चुकने के बाद पहाड़ और वादियाँ जिस तरह धुंध के खेल खेलती हैं उसका कोई मुक़ाबला ही नहीं। मैं रास्तों पर आगे बढ़ रही थी और उलझनें पीछे छूट रही थीं। मौसम ने ठान रखा था कि मुझसे मुझे चुरा ही लेगा। और मैं तो कबसे यूं खुद से बेजार होने को बेताब थी।

वो अटकी हुई लंबी सिसकी इस सौंदर्य के आगे सजदे में थी। गालों पर गीली लकीरों का खेल जारी था। दुख से, उदासी से डील करना आसान है उसकी तो खूब आदत है लेकिन जीवन के ऐसे ख्वाबिदा से लम्हों को करीब आते देखते ही सब्र छूटने लगता है। हिचकिचाते हुए सुख की डली को मुंह में रखते हुए महसूस किया कि ओह यह है सुख, इसका स्वाद तो वाकई बहुत अच्छा होता है। 

उदासियों का सामना डटकर करने वाली प्रतिभा कटियार को सुख के आगे घुटने टेकते जरा भी वक़्त नहीं लगता। सो टेक दिये घुटने और बह जाने दिया उस बरसों से अटकी सिसकी को। हथेलियों पर बादलों को लिए सड़कों पर झूमते नाचते हुए एक इच्छा ने जन्म लिया, काश, अभी इसी पल मैं मर जाऊँ। इन्हीं वादियों में सशरीर गुम हो जाऊँ। किसी को मिलूँ ही नहीं। फिर पेड़ बनकर उगूँ, पेड़ जो गुलाबी फूलों से भर उठे और जिसकी शाखों पर चिड़ियों के घोसले हों, उनके खेल चलें इस डाल से उस डाल। मृत्यु के इस रूमानी ख्याल से मन झूम उठा। कल्पना ही सही सुंदर तो है। यूं भी विनोद कुमार शुक्ल कहते ही हैं, यथार्थ झूठ है, कल्पना सच है।


 बहरहाल, अपनी ही मृत्यु के रूमानी ख्याल में डूबती उतराती फिलहाल ज़िंदगी में थी मैं और ज़िंदगी खूबसूरत थी। एक पूरा दिन थकान के साथ-साथ सर थपथपा कर राहत देकर जाने को था। मैंने उसे भरी हुई आँखों से देखा, उसने कहा, तुम्हारे लिए सुंदर रात मंगाई है। और सच में दिन में जो शहर बादलों के खेल और बारिश के मेल में महक रहा था रात को वो इस तरह चमक रहा था जैसे आसमान का सितारों भरा कटोरा किसी शरारती बच्चे ने गिरा दिया हो। एकदम शांत निस्तब्ध रास्ते और जगमग शहर...मैंने आँखें मूँदीं और गहरी सांस ली।


तुमने दिल ले लिया शहर पिथौरागढ़, बेसाख्ता होंठ बुदबुदाये। शहर मुस्कुरा दिया। उसने भी बुदबुदाते हुए जवाब दिया,'यही तो मैं चाहता था।'

खूबसूरत शहर मीठे लम्हों की गर्माहट वाला दोशाला देकर जा चुका था। सोने को हुई तो देखा, वो कहीं गया नहीं था वहीं छुपकर मुझे सोते हुए देख रहा था। देह में तनिक हरारत चढ़ आई थी, हवा रात भर ठंडी पट्टियाँ रखती रही। बादल का एक टुकड़ा जो बालों में अटका हुआ साथ चला आया था, बंद आँखों से रात भर बरसता रहा। हाँ, ये राहत की बारिश थी।  



जारी....

Thursday, July 13, 2023

पिथौरागढ़-अधूरे को पूरता शहर


नहीं यह पिथौरागढ़ के बारे में नहीं है, यह एक कोलाहल के बारे में है। उम्र से लंबी एक उदासी के बारे में है। चलते-चलते इस दुनिया से पार निकल जाने की इच्छा के बारे में है। यह उन तस्वीरों और रील्स की बाबत भी नहीं है जिन्हें देख लोग मुझ पर रश्क कर रहे हैं। यह आँखों में सजे मसकारे और काजल के बीच छुपी उस थकान के बारे में है जिसके बारे में बात करना भी थका देता है।

उस रोज जब मैं अपनी हथेलियों की टूटी-फूटी लकीरों से उलझी हुई थी, आसमान में कोई बदली अटकी हुई थी। मैंने पाया बदली तो कोई भीतर भी अटकी हुई है। तभी कानों में एक पुकार पड़ी। शहर पिथौरागढ़ की पुकार। उसने कानों के एकदम करीब आकर कहा,'आ जाओ मेरे पास।' मैंने चौंक कर उसे देखा, उसके चेहरे पर मुस्कान थी। मेरे माथे पर शिकन। 'ओ पिथौरागढ़, तुम तो दूर-दूर तक नहीं थे, अचानक और वो भी इस तरह न्योते के साथ'। मैंने पूछा। उसने पलकें झपकाकर कहा, 'जीवन को तुम जानती ही हो। उसका कहाँ कुछ तय होता है। सब अनिश्चित, सब अचानक।'

'हाँ, सही कह रहे हो। मैंने गुस्से से जीवन की ओर देखा।' जीवन अपनी दुष्टता पर मुस्कुरा दिया।
 

पिथौरागढ़ पहले भी एक बार जा चुकी हूँ। दस बरस पहले। हिल सिकनेस ने मेरी ऐसी बैंड बजाई थी कि स्मृति में सिर्फ वही बची थी। मैं सिहर गयी इस न्योते पर। सोचती रही, सोचती रही, फिर जाने का मन बना लिया। रिल्के का कहा अक्सर सूत्र वाक्यों कि तरह जब-तब निर्णय लेने में मदद करता है। 'Let life happen to you believe me life is in the right always- Rilke' हालांकि पूरी तरह सहमत नहीं होती हूँ मैं रिल्के से इसलिए अक्सर झगड़ा भी होता रहता है उनसे फिर भी अक्सर उनका कहा मान लेती हूँ। तो जीवन के बहाव के साथ बहते हुए पिथौरागढ़ के रास्तों की ओर कदम बढ़ा दिये।

रास्ते बरसाती झरनों, हरियाली से सजे हुए थे। वादियों में बादलों की चहलकदमी खामोशी के सुर पर चल रही थी। इन दृश्यों को कैद करते हुए हर बार लगा यह संभव ही नहीं। इस सौंदर्य को कैद कर पाना किसी कैमरे के बस की बात ही नहीं। इसे लिख पाना भी असंभव है और इस असंभव के आगे सर झुकाये जब यह लिख रही हूँ स्मृति से निकलकर एक बादल लैपटॉप में झांक रहा है। वो खुद को लिखे जाता देखना चाहता है, और जीवन मुझे उसके सम्मुख हारते देख खुश है। यूं सच कहूँ तो इस तरह हारने से मैं भी खुश हूँ। बूंदों से भरा वो बादल कुछ समझ नहीं पाता और बाहर बरस रहे बादल को देखने लगता है।

रास्ता लंबा था लेकिन इस बार मुश्किल नहीं था। हमारे सारथी गजेन्द्र जानते थे कि मुझे पहाड़ों में थोड़ी मुश्किल होती है और उन्होंने इस बात का इतना ख़याल रखा कि पूरे सफर में मैं सिर्फ बादल, बारिश, जंगल देखने के लिए आज़ाद रही।

चंपावत में कुछ देर समय बिताने के बाद हम अपेक्षित समय से पहले ही पिथौरागढ़ पहुँच चुके थे। बिना हिल सिकनेस का शिकार हुए। तो आधा दिन हथेलियों पर रखा था और पूरा पिथौरागढ़ सामने था।

एक शहर में न जाने कितनी चीज़ें होती हैं देखने की घूमने की। यह हम पर है हम क्या चुनते हैं। मैंने हमेशा कंक्रीट और इतिहास पर प्र्कृति को चुना है। दोस्त यह बात जानते हैं। पिथौरागढ़ के दोस्तों ने हाथ थामा और एक बेहद सुंदर रास्ते पर रख दिया। इतना हरा बिखरा हुआ था कि ज़िंदगी की तमाम हार भूल जाये इंसान। हरे में हार भुलाने की ताक़त होती है यह मैंने कई बार महसूस किया है। मैं हतप्रभ और मौन इन सुंदर रास्तों पर चलती जा रही थी। हमने कई गाँव पार किए, करते गए। पहाड़ी खेतों का सौंदर्य, उसमें काम करती स्त्रियाँ, लंबी खाली सड़क पर अचानक इत्मीनान से बतियाती दो औरतें, और लंबे खाली रास्ते को पार करने के बाद सड़क पर क्रिकेट खेलते कुछ लड़के। लंबे से हरे मैदान के बीच चमकता एक लाल टीन वाला घर। चारों ओर बिखरी इस हरियाली की खुशबू। एक ठीहे पर बैठकर मैं लंबी सांस लेती हूँ और सुनती हूँ उस लंबी सिसकी को जो न जाने कितने बरसों से भीतर छुपकर रह रही है। ऐसे मौकों पर वह बाहर आने को अकुलाने लगती है। मैं उसे आज़ाद करती हूँ और गालों पर उसे चुपचाप रेंगने देती हूँ।

 

ये जो दृश्य हैं सामने, ये क्या सिर्फ दृश्य हैं? क्या इन्हें ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है। क्या उस लाल टीन वाले घर के लाल को लिखा जा सकता है जिस पर आसमानी नीले की छाया है और जिसकी किनारी पर धरती के हरे की कशीदाकारी है। मैं एकटक उसे देखती जाती हूँ। आड़ू के पेड़ ललचाते हैं मैं उन्हें दूर से देखती हूँ। उनकी ओर भागती नहीं। अपनी सीमाओं का मुझे भान है, ता उम्र मैं इस ख़ुशबू को नहीं लिख पाऊँगी लेकिन इस दृश्य को जी सकती हूँ, इस खुशबू को पी सकती हूँ, यह मुझे आता है।

कुछ ही देर में मैं उस हरे कालीन में पड़े कढ़ाई के किसी बूटे की तरह शामिल हो जाती हूँ। विलीन। जज़्ब।


 पहाड़ हर मौसम में सुंदर होते हैं। दोस्त बताते हैं कि मार्च में इनका निखार अलग ही होता है। मैं सोचती हूँ क्या इससे भी सुंदर कुछ हो सकता है। सिगरेट पीने की शदीद इच्छा को टालकर चाय पीने की इच्छा पर टिकती हूँ और उसी हरे समंदर के भीतर बैठकर चाय पीती हूँ।

पानी के नैचुरल स्रोत को देखना उसे सहेजने की टेकनीक देखना मजेदार था। दोस्त ने गुलदार के ठिकानों के बारे में बताया और यह भी कि अगर इंसान उन्हें न छेड़ें तो वो भी नहीं छेड़ता। लेकिन इंसान उनके घर तक पहुँच जाना चाहता है, आखिर वो इंसान है।

मुझे उन गांवों के नाम याद नहीं लेकिन नाम जो भी हों मुझे उनकी ख़ुशबू याद है। लौटते समय मैंने देखा ढेर सारी स्त्रियाँ स्वेटर और जैकेट पहनकर घूम रही हैं। थोड़ी हैरत हुई मुझे लेकिन कुछ दूर जाने पर जब अपनी देह पर सर्द हवा का फिसलना महसूस हुआ तो उनके स्वेटर पहनने का कारण स्पष्ट हो गया।

लौटना हमेशा अधूरा होता है लेकिन उस अधूरे में बहुत कुछ पूरा हो रहा होता है तो उस अधूरे पूरे के साथ हम शहर लौटे। किताबों का एक मेला लगा था शहर में उसमें शामिल होना था।


जारी...

Wednesday, July 12, 2023

प्रेम



बारिशों को अपने जूड़े में बांधकर
लड़की बुदबुदाती है
सब कुछ प्रेम है
स्मृति भी
इंतज़ार भी
वेदना भी
मिलन भी
विरह भी
हाँ, सब कुछ प्रेम है। 

'सब कुछ होना
बचा रहेगा'
पास में रखी किताब
में दर्ज है। 

जिंदगी की किताब में भी।