अमिताभ के कान्स्टीपेशन के लिए तमाम फार्मूले ढूंढते-ढूंढते फिल्म 'पीकू' हमारे दिमाग में कबसे जमी-जमाई, फंसी जड़ मान्यताओं को साफ करने के फार्मूले भी तलाशती है। अपनी स्वर्गवासी के जन्मदिन के मौके पर भी वो उससे नाराज नजर आते हैं...सबको लगता है कि ये कैसी बात है, अब तो वो नहीं हैं इस दुनिया में...फिर भी नाराजगी। उनके इस रवैये पर मौसमी चटर्जी कहती भी है कि 'इसी वजह से दीदी कभी खुश नहीं रही...' लेकिन अमिताभ की उस नाराजगी में सारे जमाने की औरतों के लिए, उनकी सेल्फ स्टीम के लिए जो सम्मान जो प्रेम है वो जाने कितने ही 'आई लव यू जानू' वाले प्रेम पर भारी पड़ता है...क्यों औरतें अपनी पूरी जिंदगी एक आदमी के आगे-पीछे घूमने में, उसकी इच्छा अनिच्छा का ख्याल रखने में लगा देती हैं। क्यों समर्पण की देवी बनने को आतुर रहती हैं। क्या वो खुद कुछ नही हैं। क्यों वे खुद की इच्छाएं उठाकर ताक पर रखने को बेताब रहती हैं। इससे उनके भीतर अनजाना फ्रस्टेशन जन्म लेता है जो उन्हें खुश नहीं रहने देता।
अमतिाभ अपनी बेटी से कहते हंै कि क्यों शादी करनी चाहिए...इसलिए कि सब करते हैं...इसलिए कि किसी की केयर करनी है? वो शादी के औचित्य पर सवाल उठाकर विवाह संस्था के ढांचे की मूल खामियों को इंगित करते हैं। कलकत्ता जाने पर अपने छोटे भाई की पत्नी के चिड़चिड़े स्वभाव की पर्तें वो खोलते हैं कि क्यों तुमने वो नौकरी नहीं की थी जो तुम्हें मिली थी, और उसका वो दबा हुआ सा जवाब कि उसमें मेरी सैलरी इनकी पति की सैलरी से ज्यादा थी। ये झूठमूठ के सैक्रिफाइज अनजानी कुंठाओं को जन्म देते हैं। हम स्वाभााविक व्यक्तित्व नहीं रह जाते। और दूसरों पर भी अपने समर्पण और अपनी अच्छाइयों का बोझ लादते जाते हैं। जबकि इससे कोई खुश नहीं रहता। तमाम शादियों के भीतर चिड़चिड़ करती औरतें...और उनके इस चिड़चिड़ाने से आजिज आ चुके पति...क्या यह सच कभी समझ पाते हैं...भले ही अमिताभ को पेट के कान्स्टीपेशन की दिक्कत है लेकिन वो समाज के जेहनी कान्स्टीपेशन की दवा इस फिल्म में देते नजर आते हैं...कम से कम सिम्टम्स तो उभारते ही हैं।
एक पिता अगर अपनी बेटी के रिलेशनशिप स्टेटस को लेकर उसकी वर्जिनिटी को लेकर इस कदर उदार है तो दूसरी तरफ सिर्फ शादी करने के लिए शादी करने के खिलाफ भी है। हालांकि लाउड मैसेज यह जाता दिखता है कि वो अपने अकेलेपन के डर से बेटी की शादी के खिलाफ है।
फिल्म इस लिहाज भी तारीफ की हकदार है कि सभी किरदार स्वाभाविक हैं। जो जिससे नाराज है वो सामने है, और अपनी नाराजगी खुलकर व्यक्त करता है। गुस्सा है तो है, प्यार है तो है...
एक तरफ ढलती उम्र की दिक्कतें, बुजुर्गों की असुरक्षा की भावना, उनके व्यवहार की दिक्कतें, दूसरी तरफ उन्हें संभालने की परेशानी के बीच ठीक-ठीक संतुलन दिखता है। बुजुर्गियत को महिमामंडित नहीं किया है, दिखाया गया है कि किस तरह वो भी कई बार अनरीजनेबल होते हैं...और इससे बाकी लोगों को परेशानी भी होती है। लेकिन इस परेशानी का अर्थ प्रेम न होना नहीं है। कभी जिन्होंने बच्चों की बेजा फरमाइशों को सर माथे पर रखा था, उनकी जिद के आगे घुटने टेके थे, उनके बुढ़ापे में यह जिम्मेदारी बच्चों पर आती ही है। इससे भागना कैसा...दिक्कत होने का अर्थ दूर जाना तो नहीं। दीपिका सहेजती है अपनी जिम्मेदारी भी प्यार भी. इरफान पूरे कान्स्टीपेशन वाले माहौल में किसी कायम चूर्ण की तरह आते हैं...उनकी उपस्थिति हर हाल में अच्छी लगती है।
पीकू को ठहाके लगाकर देखते वक्त भी दिमाग में सोचने के लिए भी बहुत कुछ रह जाता है। फिल्म खत्म होती है अमिताभ के पेट की राहत के साथ लेकिन दर्शकों के जेहन की कब्जियत की ओर भी इशारा करती जाती है...
(चूंकि यह फिल्म समीछा नहीं है इसलिए फिल्म के दुसरे पछ पर कोई बात नहीं की, एक्टिंग, निर्देशन, कैमरा
वगैरह)