Wednesday, July 28, 2010

तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तेरी पलकों के नर्म साये में

धूप भी चांदनी सी लगती है

और मुझे कितनी दूर जाना है

रेत है गर्म, पाँव के छाले

यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे

प्यार की ये नज़र रहे, न रहे

कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है

तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

- अली सरदार जाफ़री

Sunday, July 25, 2010

बातें जो जाननी जरूरी हैं...


कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ को रोकने के लिए जो कानून संसद के मानसून सत्र के लिए प्रस्तावित है उससे जुड़ी हुई जरूरी बातें-

1- अब तक सेक्सुअल हैरेसमेंट्स को जो मामले में शिकायत करने वाली महिलाओं की हिचक काफी आड़े आती थी. अगर वे शिकायत करती थीं तो उन्हें परेशान करने के दूसरे तरीके भी निकाले जाने लगे. मसलन उनका ट्रांसफर किया जाना, लंबी छुट्टी पर भेजा जाना या नौकरी से ही उन्हें निकाल दिया जाना. ये वो भय थे कि आमतौर पर महिलाएं अपने प्रति होने वाले हैरेसमेंट को या तो चुपचाप सहती रहती थीं या फिर जॉब से ही खुद को विड्रॉ कर लेती थीं.

प्रस्तावित कानून में इस बात का पूरा ख्याल रखा जायेगा कि शिकायत करने वाली महिला को ऑफिस में कोई दिक्कत न आये. जांच कमेटी महिला की पहचान को गुप्त रखेगी. उसकी और उसकी नौकरी की सुरक्षा का ख्याल रखेगी.

- यह कानून सरकारी, अद्र्धसरकारी, संगठित क्षेत्र, निजी तथा असंगठित क्षेत्रों पर एक समान रूप से लागू होगा.

- बिल में यह भी प्रस्ताव है कि अगर इंप्लॉयर कार्यस्थल में होने वाले यौन उत्पीडऩ पर कमेटी का गठन नहीं करता, जांच कमेटी की सिफारिशों पर अमल नहीं करता है, या झूठी शिकायत करने वाले दोषी पाए गए कर्मचारी और गवाह के खिलाफ एक्शन नहीं लेता है तो उस पर 50,000 हजार रुपये का जुर्माना हो सकता है.

- अगर यही गलती दूसरी बार संज्ञान में आती है तो जुर्माने की रकम तीन गुनी हो जायेगी. और उस कंपनी या ऑफिस को बंद भी किया जा सकता है. उसका लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है.

- सरकारी तथा संगठित क्षेत्रों में यौन उत्पीडऩ रोकने के लिए कम से कम दो या अधिकतम 10 सदस्यों वाली आंतरिक शिकायत कमेटी का गठन अनिवार्य हो जायेगा.

- इस कमेटी की अध्यक्षता कोई महिला करेगी.

- असंगठित क्षेत्रों जैसे मजदूर या घरेलू नौकरानियों का यौन उत्पीडऩ रोकने की जिम्मेदारी जिला कलेक्टर की होगी. कलेक्टर को मामलों की जांच 90 दिनों में पूरी होनी जरूरी होगी.

- इस मामले के बारे में जानकारी सूचना के अधिकार के तहत भी नहीं ली जा सकेगी.


क्या है यौन उत्पीडऩ

- ऐसा कोई भी व्यवहार जो एक स्त्री को अवांछित हो और उसे शर्मिन्दा महसूस कराये.

- उससे सेक्सुअल डिमांड करना

- अश्लील टिप्पणी करना

-अश्लील फिल्में दिखाना या उन पर बात करना

- जानबूझकर उससे टकराना या उसके शरीर को छूने की कोशिश करना.

- अश्लील बातें करना

अश्लील एसएमएस करना

- काम में रोड़ा अटकाने की धमकी देना

- मौजूदा और भविष्य के जॉब उपलब्धियों को प्रभावित करने की धमकी देना

- अपने बिहेवियर से कार्यस्थल का माहौल असहज और दखलपूर्ण बनाना.

- अपने व्यवहार से कर्मचारी को बीमार व असुरक्षित बना देना.

- दुकान में उपभोक्ता से गलत व्यवहार करना

क्या हैं कार्यस्थल

- एनजीओ

- हॉस्पिटल्स

- कोचिंग

- कोरियर सेवा

- घरेलू नौकर

- दर्जी, ब्यूटी पार्लर

- स्कूल, कॉलेजेस

- रिसर्च इंस्टीट्यूट्स

- भवन या सड़क निर्माण

- बेकरी, हैंडलूम, कपड़ा प्रिंटिंग

- कृषि, ईंट भट्टा

- पंडा और टेंट कार्य

- शादियां, अचार, पापड़ बनाना, माचिस निर्माण

- मछली व्यवसाय

- डेयरी

- फ्लॉरीकल्चर, गार्डनिंग

- शहद एकत्रीकरण

- अगरबत्ती, बीड़ी, सिगार, मसाला और बिंदी निर्माण

- अखबार की बिक्री, पान की बिक्री

- सुनार की दुकान, हैंडीक्राफ्ट आइटम

- केबल टीवी नेटवर्क, वीडियो फोटोग्राफी

- बैण्ड कंपनी

- होटल उद्योग- रेस्त्रां, ढाबा, क्लब, कैटरिंग

(इस कानून के मिसयूज को रोकने के लिए अलग प्राविधान शामिल करने और अगर सेक्सुअल हैरेसमेंट किसी पुरुष के साथ होता है तो उसके लिए भी कुछ प्राविधान जोडऩे की बात भी उठायी जा रही है.)

Tuesday, July 13, 2010

बंद कीजिये हाय हाय !

एक बार फिर संस्कृतियों के पहरेदारों की नींद में खलल पड़ गया है. महिलाओं के लिए एक और कानून जो बनने जा रहा है. ये कानून होगा वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट्स को रोकने का. वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट की बारीकियों को समझते हुए आने वाले मानसून सत्र में इसे कानून बनाने की योजना है. यह पूरी तरह सच है कि बदले हुए माहौल में ज्यादा महिलाएं, हर तरह के काम की ओर बढ़ रही हैं. ऐसे में वे यौन हिंसा की शिकार भी ज्यादा हो रही हैं. 
1997 में दिये गये विशाखा बनाम स्टेट ऑफ जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल में महिलाओं के प्रति होने वाली यौन हिंसा को लेकर जो दिशा-निर्देश दिए थे, वो शायद अब काफी नहीं रहे. आज इतने बरस बाद अगर मुड़कर देखें तो हालात बहुत बदल गये हैं. इन बदलावों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के तमाम नये-नये रूप सामने आ रहे हैं. कार्यस्थलों पर होने वाले यौन उत्पीडऩ के मामले में अगर सरकारी आंकड़ों पर ही न$जर डालें तो 2006 से 2008 के बीच दो लाख से ज्यादा महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुई हैं. ये सरकारी आंकड़े हैं. हम सब जानते हैं कि असल संख्या इससे कई गुना ज्यादा है क्योंकि ऐसे मामलों में मुखर होने वालों की, मोर्चा लेने वालों की, और मामलों को दर्ज कराने वालों की हिचक अब तक टूटी नहीं है. 
खैर, हम बात कर रहे थे संस्कृति के पहरेदारों की. उन्हें डर है कि महिलाओं के हाथ में फिर एक बार एक और कानून पकड़ा दिया जायेगा जिसका वे फिर मिसयूज करेंगी. समाज के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है. यकीनन ये आदर्श स्थिति नहीं है. हां, वे चुपचाप हर तरह की हिंसा को सहती रहें ये आदर्श स्थिति है. इतने बरसों से तो हम एक आदर्श समाज में जी ही रहे हैं. आदर्श समाज, आदर्श परिवार, आदर्श रिश्ते. हमें अपने सामाजिक ढांचे पर गर्व है. तो अब ये क्या होने लगा कि ये आदर्श ढांचा भरभराने लगा. एक के बाद एक महिलाओं के लिए कानून बनाकर उनका दिमाग खराब कर दिया गया है. बताइये, कोई बात है कि दहेज के नाम पर पूरे के पूरे परिवार सजायाफ्ता हो जाते हैं. बताइये, कि उनकी एक एप्लीकेशन पर किसी की नौकरी पर बन आयेगी. ये भी कोई बात हुई? इन कानूनों ने उन्हें जगाना शुरू कर दिया है. जाहिर है समाज के पहरेदारों की नींद तो हराम होनी ही हुई. इस देश में जहां, हर कदम पर, हर जगह, हर चीज का मिसयूज हो रहा है. टाडा जैसे कानूनों तक का मिसयूज हो गया. पॉलीटीशियन इतने सालों से कर ही क्या रहे हैं, सिवाय सत्ता सुख लेने के और अपने अधिकारों का मिसयूज करने के. ऐसे में सारी चिंताएं महिलाओं के कानूनों के दुरुपयोग को लेकर ही क्यों उभरती हैं ये सोचकर अब हैरत नहीं होती.
हां, मानती हूं कि मिसयूज नहीं होना चाहिए. किसी भी कानून का नहीं होना चाहिए. लेकिन सच यह भी है कि कुछ मामलों में हुए मिसयूज के चलते हम कानून की जरूरत पर सवाल तो नहीं उठा सकते. मिसयूज रोकने के तरीकों पर बात करना वाजिब है. ऐसे मामलों को इंडीविजुली ऑब्जर्व किये जाने की और उन पर कार्रवाई किये जाने की भी जरूरत से इनकार नहीं लेकिन चंद ऐसे उदाहरणों के चलते कानून के अस्तित्व पर ही सवाल उठाना कहां का न्याय है. यूं भी कानून का लाभ उठाना चॉकलेट का रैपर खोलकर खाने जैसा आनन्ददायक तो नहीं होता है. बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है, उसमें भी हाय-तोबा. इसका तो एक ही इलाज है, आप बनाइये न सचमुच ऐसा आदर्श समाज, जहां कभी किसी महिला को किसी कानून का सहारा लेने की जरूरत ही न पड़े. बराबरी की बुनियाद पर खड़ा सह अस्तित्व का समाज. जहां रिजर्वेशन बिल भी बेमानी हो जाये, और ढेर सारे महिला कानून भी. जब तक ऐसा समाज नहीं बनता तब तक हाय-हाय तो बंद कीजिये...सोचिए कि कानून का जन्म अपराध की कोख से ही होता है हमेशा.