हबीब साहब नहीं रहे, यह खबर भी कभी सुननी पड़ेगी इस बात को जैसे मन कब का नकार चुका था। वे लंबे समय से बीमार थे। फिर भी यह यकीन नहीं था कि वे इस तरह छोड़कर चल देंगे. मन के किसी कोने में कुछ टूटकर बिखर सा गया इस खबर को सुनते ही. न जाने कितनी बातें, कितनी यादें ज़ेहन में घूमने लगीं. पिछली बार मेरी उनसे मुलाकात मुंबई में हुई थी. उनका वो चेहरा जैसे आंखों के सामने आ गया. जैसे वो अभी वो कंधे पर हाथ रखेंगे और कहेंगे चल नहीं रहे हो नाटक देखने?
पिछली बार मुम्बई में जब हम मिले थे, तो उनकी बॉयोग्राफी का पाठ हो रहा था. सारे लोग तन्मयता से उसमें डूबे हुए थे. पाठ खत्म हुआ तो सब लोग पृथ्वी थियेटर की ओर नाटक देखने के लिए जाने लगे. उन्होंने मुझसे कहा, तुम नहीं चल रहे हो? मैंने कहा, मेरे पास इतने पैसे नहीं हंै कि इतना महंगा टिकट लेकर नाटक देखने जाऊं. वो $जरा सा मुस्कुराते हुए कंधे पर हाथ रखकर बोले, पैसे नहीं हैं या दावत में जाना है? नहीं मालूम था उनका वो मुस्कुराता हुआ चेहरा अंतिम स्मृति बन जायेगा. उनका वह वाक्य अंतिम वाक्य. कितना कुछ था उस वाक्य में।
थियेटर के प्रति उनका लगाव तो खैर, सब जानते ही हैं लेकिन उस लगाव के बीज कैसे नई पीढ़ी में बोने हैं यह भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था. हबीब साहब बेहद जिं़दादिल, पॉजिटिविटी से भरपूर इंसान थे. वक्त के बदलाव पर उनकी नज़र थी और वे आगे बढ़कर बदलावों का स्वागत करने वालों में से थे. टेकनीक, कॉस्ट्यूम, प्रेजेंटेशन, तौर-तरीका सब कुछ उन्होंने वक्त-वक्त पर अपडेट किया, यकीनन बेहतरी के लिहाज से. उनका व्यक्तित्व इस कदर मुकम्मल था कि उनका जैसे किसी दूसरे व्यक्ति की कल्पना भी मुिश्कल है. एक्सपेरिमेंट करने में उन्हें बहुत मजा आता था।
पिछली बार जब राष्ट्रीय नाट्य समारोह में वो अपने नाटक 'राजरक्तÓ के साथ लखनऊ में थे. तब मैं सारा दिन उनके साथ था. उनकी एनर्जी देखकर हैरान था. किस कदर काम कर रहे थे वे. एक साथ निर्देशन, इंटरव्यू्र देना, लोगों से बातचीत करना सब कुछ. कहीं कोई थकान नहीं. हम लोग $जरा सी तबियत खराब होती है और निढाल हो जाते हैं. उस शाम को शहर ने एक शानदार नाटक देखा.एक बार हबीब साहब के ऑनर में राज बिसारिया जी के यहां पार्टी थी. मनोहर सिंह, बीएमशाह, सुधीर मिश्रा और भी कई मशहूर हस्तियां वहां मौजूद थीं. मैं भी वहां था. गाना और म्यूजिक वगैरह चल रहा था. कुछ लोग डांस भी कर रहे थे. उन्होंने पूछा, तुम लोग डांस क्यों नहीं कर रहे हो? मंैने कहा डांस नहीं आता. उन्होंने कहा डांस नहीं आता क्या होता है, डांस तो मन से होता है. उसके बाद उन्होंने हाथ पकड़कर हमें उठाया और हमने काफी देर तक डांस किया. इस कदर जि़ंदगी से भरपूर थे हबीब साहब।
मुझे लगता है कि उम्र को दरकिनार कर दें, तो उनसे ज्यादा युवा नहीं था कोई. हबीब साहब को फोक बहुत प्रिय था. एक वाकया बड़ा मजेदार याद आ रहा है उनके इस लोक प्रेम का. 1978 की बात है. मिट्टी की गाड़ी नाटक लेकर वे लखनऊ आये थे. एक दिन हमने देखा उनकी गाड़ी में कई औरतें भरी हैं, जो सड़कों पर ढोलक हारमोनियम वगैरह लेकर घूमती हैं. वे उन्हें लाये और उनसे हमने खूब देर तक कजरी, चैती, सावन, झूला वगैरह सुना. वे रियलिटी को फील करने के लिए उसके करीब जाते थे. मॉडर्न थियेटर की टेकनीक और फोक का सुंदर सामंजस्य देखने को मिलता है उनके नाटकों में।
वे इस कदर फुल ऑफ एनर्जी थे कि उनके साथ थोड़ा सा वक्त बिताना भर हमें जिंदगी से भर देता था. एक बार नाटक से पहले मंच पर कुछ लोग गाना गा रहे थे. वे वहीं थे. उन्होंने कहा, रुको मैं भी आता हूं. वे लपककर मंच पर चढ़ गये और सबके साथ सुर में सुर मिलाकर पूरे जोश में गाने लगे. वे एक निहायत संवेदनशील इंसान थे. आमतौर पर कहा जाता है कि परफेक्शिनस्ट लोगों को गुस्सा बहुत आता है लेकिन मैंने उन्हें गुस्से में कभी नहीं देखा. वे पूरे पेशेंस के साथ रिहर्सल करवाते थे, इंस्ट्रक्शंस देते थे और मुस्कुराते हुए अपने पाइप से खेलते रहते थे. अब तक दिल को यकीन नहीं हुआ है कि वे अब नहीं हैं. ऐसे भी कोई जाता है क्या......
- जुगल किशोर (लखनऊ के रंगकर्मी )
प्रतिभा से बातचीत पर आधारित और आई नेक्स्ट में प्रकाशित