Sunday, January 17, 2021

साथ


साथ का सबसे सुंदर पल वह होता है जब आप साथ हों और पैदल चल रहे हों. संवाद स्थगित. भीतर भी बाहर भी. हम दोनों उस रोज ऐसे ही साथ में थे. कदम आगे बढ़ रहे थे और मन उन्हीं क़दमों में लिपटा किलक रहा था. रास्ता वही था लेकिन नयेपन की चादर से झांकता हुआ लग रहा था, मुस्कुराता हुआ. फूल रोज की तरह डालियों पर झूम रहे थे. उन पर सूरज की बारीक किरनें भी रोज की तरह बिखरी हुई थीं. लेकिन उस रोज उनकी मुस्कुराहट में सर्दियों की धूप की गुनगुनाहट भी तारी थी. जैसे कोई ख़्वाब की खिड़की खुली और हम उसमें कूद गए हों, उस ख्वाब को कदम दर कदम जी रहे हों. जैसे किसी पेंटिंग के भीतर हमें इंट्री मिल गयी हो.

हम साथ थे और खामोश थे. ख़ामोशी हमें और करीब ले आती. जैसे-जैसे ख़ामोशी करीब आती जाती मौसम यूँ ठहर जाता मानो उसे किसी ने स्टेचू बोल दिया हो. ख़ामोशी से बचने को फिर हम किसी वाक्य की ओट में खुद को छुपा लेते और कदमों की रफ्तार तेज़ कर देते. हालाँकि हमें पहुंचना कहीं नहीं था फिर भी.

हम दोनों जीवन में जूझ रहे थे और जीवन के प्रेम में आकंठ भरे थे. अचानक उसने कहा, 'मैंने अकेलपन के सुर को साध लिया है. अब मुझे इसकी आदत लग गयी है.' मैंने कहना चाहा, 'हाँ मैं जानती हूँ और यह तुमसे सीखना चाहती हूँ.' लेकिन चुप रही. उस समय सबसे सही सुर चुप का लगा हुआ था. एक छोटा सा वाक्य भी करक रहा था. यह वह समय था जब स्मृतियाँ भी स्थगित थीं. हथेलियों पर वर्तमान का सबसे चमकीला सिक्का मुस्कुरा रहा था जिसे यकीनन उम्र भर खर्च होने से बचाना है. बहुत मुश्किल दिनों में भी. मुश्किल दिनों में इस चमकीले सिक्के को हथेलियों में रखकर सोचूंगी कि इतनी भी कंगाल नहीं और उसे वापस जेब में रख लूंगी शायद.

मैंने फूलों से लाड़ में भरकर कहा, ज्यादा मुस्कुराओ मत लेकिन वो खिलखिला दिए. मैंने हम पर पड़ती, हमारे साथ चलती धूप की किरनों से कहा ज्यादा झिलमिल मत करो लेकिन वे शरारत से हंस दीं और हमारे सर से उतरकर कांधों पर आ बैठीं. कभी चेहरे पर भी गिरतीं वो और कभी पीठ पर सवार हो लेतीं. मैंने रास्तों से कहा और लम्बे हो जाओ. रास्ते अमूमन मेरी बात मानते हैं लेकिन उस रोज उन्होंने भी शरारत की और वो और लम्बे नहीं हुए बल्कि उन्होंने खुद को सिकोड़ लिया. इन सबकी शरारतों को देख मन मुस्कुरा दिया. फिर लगा ठीक ही हुआ. वरना इतना सारा सुख मैं भला कैसे सहेज पाती.

एक दोस्त ने एक बार साथ चलते हुए कहा था कि पैदल साथ चलना सिर्फ साथ चलना नहीं होता साथ में गहरे उतरना होता है. दोस्त का कहा उस रोज सबसे सुंदर अनुभूति बनकर सामने था उस रोज. चुप्पियों की गहनता में उतरे उस साथ में अपनी संगत में चला गया ढेर सारा स्मृति बन अंखुआने को ही था कि रास्तों ने उन्हें रोक दिया. वर्तमान के इस वक्फे में स्मृति की कोई जगह नहीं थी. साथ चलना अगर चुप्पियों की संगत पर हो तो श्रेष्ठ होता है यह उस रोज समझ आया.

इस तरह साथ चलते हुए जो आपस में टकरा जाने के दौरान उग आये होते हैं नन्हे-नन्हे स्पर्श वो जिन्दगी की बहुत बड़ी अमानत होते हैं. ये स्पर्श ढेर सारे शोर के बीच मौन की उस नदी से होते हैं जिनमें डुबकी लगाकर हम कभी भी तरोताजा हो सकते हैं. उन नन्हे स्पर्शों की खुशबू जीवन को जीवन भर महकाती है. साँसों की लय को जीवन बनाती है.

आज जीवन के तमाम कोलाहल के बीच मौन की उस नदी का पानी कलकल कर रहा है. मैं अपनी अंजुरी में मौन का पानी लिए बैठी हूँ. भीतर के तमाम सूखे को नमी मिल रही हो जैसे. आज की सुबह की चाय में बीते दिनों की कोई छाया चली आई है. सोचती हूँ स्मृतियाँ न हों तो भला क्या हो जीवन. और वर्तमान में ऐसा कुछ जिया हुआ न हो तो क्या हों स्मृतियाँ. मेरी सुबह की चाय में उसकी स्मृति है उसकी सुबह में चाय के साथ कौन होगा?

उस रोज के साथ चलते हुए का सारा जिया हुआ जिन्दगी के ढेर सारे ठहरे हुए को गति दे रहा है और ढेर सारी बेवजह की भागदौड़ को ठहरने की एक जगह दे रहा है. मैं अपने भीतर चलते हुए उस जगह पहुँच चुकी हूँ जहाँ एक पंछी मौन की नदी में अपनी चोंच डुबोकर इधर-उधर देखने लगता है और फिर से अपनी चोंच उस नदी में डुबो देता है. यह पंछी बेहद खूबसूरत है. उसकी गर्दन पर नीले रंग की धारियां हैं और उसकी चोंच लाल है. क्या यह स्मृति का पंछी है?


Tuesday, January 12, 2021

अगर धड़के न दोबारा


धडकन सांसें नहीं बनती 
अगर धड़के नहीं दोबारा
कदम आगे नहीं बढ़ते
अगर पड़ते नहीं दोबारा
बूँद बरसात न बनती
अगर बरसे नहीं दोबारा
मौसम मौसम नहीं होते
अगर आते नहीं दोबारा...

मेरी आँखें नम हैं. थोड़ा सुकून है, थोड़ी उदासी. ज्यादा सुख. अभी-अभी एक प्रेम कविता पढ़कर नहीं नहीं, अभी-अभी एक प्रेम कविता देखकर उठी हूँ. प्रेम साँसों में सरक रहा है. नन्हे मासूम सवालों की मध्धम सी कोई लौ है जो प्रेम में उगते हैं उसी लौ की रौशनी में उसके जवाब झांकते हैं. कोई पढ़ पाता है कोई पढ़ने से चूक जाता है.
अभी-अभी मैं इस दोबारा नाम की कविता देखकर उठी हूँ. जैसे प्रेम आता है जीवन में वैसे ही यह फिल्म उतरी है परदे पर.
उन दोनों को वो दोनों पसंद थे. उन दोनों ने साथ रहना चुना. वो दोनों बहुत अच्छे थे. दोनों एक-दूसरे का ख्याल रखते थे. एक-दूसरे के दुःख में दुखी होते और सुख में झूम उठते थे. साथ रहते थे, साथ चलते थे फिर भी न जाने कैसे उन दोनों के बीच एक अबोला आ बैठा, एक उदासी ने जगह बना ली. शिकायतें कोई नहीं थी, गलती किसी की नहीं थी फिर भी कुछ था जो अटक गया था. वो क्या था...ये अटक जाना प्यार न होना तो नहीं, इसके ठीक उलट कुछ न अटका होना प्यार का होना भी तो नहीं. पता नहीं लेकिन यह पता करने की जद्दोजहद में दोबारा देखना सुख है.

इस फिल्म को देखते हुए बिजॉय नाम्बियार के प्रेम में पड़ना लाजिमी है. उन्होंने फिल्म को कविता की तरह ही बरता है. कैमरे का काम हो, लोकेशन हो, बैकग्राउंड म्युज़िक हो, संवाद हों या फिर सर्द दिनों में हथेलियों पर आ बैठी धूप सी चुप हो...सब दाल में नमक जितना. शायद कई बार देखूँगी यह फिल्म कभी अलेप्पी के दृश्यों के लिए, कभी पार्वती और मानव कौल के अभिनय के लिए और कभी उन चुप्पियों के लिए जो संवादों से ज्यादा मुखर हैं, ज्यादा मीठी.

इसे देखने की इच्छा कबसे थी मन में आखिर सब्स्क्रिप्शन लेना ही पड़ा Zee5 का. मानव का अभिनय हमेशा की तरह शानदार है.

Sunday, January 3, 2021

कई शेड्स की है ये नेल पौलिश


नेल पॉलिश देख ली. क्राइम मेरा जौनर नहीं है हालाँकि क्रिमिनल जस्टिस जैसी कुछ सीरीज देखी ही हैं. अगर यह मानव कौल की फिल्म न होती तो शायद मैं इसे देखने की सोचती भी नहीं. लेकिन अगर ऐसा होता तो सच में कुछ मिस कर देती. मानव कौल संभावनाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अभिनय करते हैं. एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी वाला चरित्र है उनका. अभिनय के इतने शेड्स हैं इसमें मानव के कि आप हैरत में पड़ते जायेंगे. 
शुरू के 40 मिनट थोड़े कैजुअल से थे. लगा देखा जाना सा है कुछ. अर्जुन रामपाल अपने लुक्स के साथ डामिनेट करते हुए नजर आते हैं. अर्जुन को पर्दे पर देखना अच्छा लगता है दर्शकों को इसका निर्देशक का भरपूर अंदाजा था.
फिर यह फिल्म सरककर मानव के पास आ जाती है और मानव इस पर मजबूत पकड़ बना लेते हैं. हिंसक दृश्यों से लेकर, रूमानी और मासूम दृश्यों तक की रचना में वो गहरे उतरते हैं.

अब आती हूँ उन सवालों पर जो इसे देखने के बाद बचे रह गये. पहला सवाल पहले दृश्य को लेकर है. अर्जुन रामपाल की गर्लफ्रेंड गुस्से में घर छोड़कर जा रही है और अर्जुन बेपरवाह निशाना साधने में लगे हैं. वो कहती है 'तुम स्वार्थी हो.' अर्जुन का जवाब, 'तुम्हें भी होना चाहिए.' बस इतनी सी बात के लिए उस दृश्य को रचा गया. तुम्हें भी होना चाहिए कहने वाले अर्जुन ग्रे शेड वाले हीरो हैं. ऐसे हीरो आसपास भी खूब नजर आते हैं और उनकी दीवानियाँ भी. तो सुनो लड़कियों....तुम्हारे हीरो ने क्या कहा. और जब तुम भी हो जाओगी स्वार्थी तो तुम्हारे लिए बहुत सारी भद्दी गालियाँ, जुमले हैं ही इनके पास. निर्देशक के मन में क्या था आखिर इस दृश्य की रचना के वक़्त यह मेरा सवाल है और यह सवाल पहली बार नहीं है.

फिल्म का दूसरा स्त्री किरदार है मधु का जो जज बने रचित कपूर की पत्नी हैं. मधु की वापसी सुंदर है लेकिन उनके किरदार पर और काम होना चाहिए था शायद. उन्हें बस नशे में धुत्त स्त्री का किरदार मिला है जो खूबसूरत है और अंत में जज साहब के 'न शक किया न भरोसा वाली थेरेपी से नशे की लत से बाहर निकल आती हैं. और वैसा ही जजमेंट करते समय जज साहब को करने को कहती हैं. काफी रेडीमेड सा लगा यह.

तीसरा स्त्री किरदार है कश्मीर की चारू रैना यानी समीरन कौर. उनके लिए करने को कुछ खास है नहीं इसलिए चंद सुंदर रूमानी दृश्यों का निर्माण करने के बाद वो आराम से मानव कौल में समा जाती हैं और मानव उन्हें बखूबी अपना लेते हैं.

एक स्त्री किरदार और है वकील अमित की पत्नी का जो पति पर भरोसा करने वाली आम मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्री है जो होती तो है लेकिन अपनी कोई छाप नहीं छोड़ती न फिल्म में न जिन्दगी में. एक मारे गए बच्चों की माँ है जो सिर्फ फ्रेम और कहानी को जस्टिफाई करने के लिए सुबकती रहती है कोर्ट की बेंच पर और कभी-कभी कैमरा उधर भी घुमा दिया गया है. कहानी स्त्रियों की थी ही नहीं, जानती हूँ लेकिन शायद उम्मीद है कि कम से कम अब इस ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इन किरदारों को थोड़ा रैशनलाइज किया जाय.

'गुनहगार कौन है दिमाग या शरीर. शरीर तो एक यंत्र है उसे चलाने वाला तो दिमाग होता. शरीर हमेशा दिमाग की ही सुनता है.शरीर वही करता है जो दिमाग उससे करवाता है. इसलिए हम महज शरीर को गुनहगार या दोषी नहीं ठहरा सकते.' यह इस फिल्म का बेस है, केंद्र है. और यही इस समाज का भी केंद्र है. यह एक मजबूत राजनैतिक संवाद है. इसे सिर्फ फिल्म, मनोरंजन और सस्पेंस के तौर पर देखकर न भूल जाएँ, इस संवाद को लेकर फिल्म से बाहर निकलें. देखें, जो लोग जो कर रहे हैं, समर्थन, विरोध, गाली गलोज, हिंसा उनके दिमाग पर कौन सी चारू रैना या पौलिटिकल पार्टी का कब्जा है. तो सजा किसे देनी है, दोषी कौन है वो जो सामने खड़ा है हथियार लिए या वो जो ये सब खेल खेल रहा है लोगों के दिमाग में घुसकर.

देख चुकने के बाद जो बचा रह जाता है उसमें मेरी हमेशा ज्यादा दिलचस्पी रहती है. इन सवालों के साथ इस फिल्म के सीक्वल की भी गुंजाईश बनती नजर आई.
#नेलपालिश

Friday, January 1, 2021

सुबह मिल ही गयी इक रोज



तय किया था कि रात से ही सुबह का पता पूछकर उसकी राह तकूंगी. रात ने कहा था कि सुबह को अगर उसके दिन में दाखिल होते ही मिल लिया जाय तो वो कुछ देर ठहरती है. सोचा सारी रात जागूंगी और कैलेडर वाली नयी सुबह की पहली किरन से मिलकर पूछूंगी इस नए साल का भेद. उसे तो पता होगा कि इस साल की बंद मुठ्ठी में क्या है. लेकिन रात अपना हिस्सा मांगती है. और नींद आ ही गयी. सुबह उठी तो सुबह खिड़की पर टंगी हुई थी. आँख खुली ही थी रौशनी का टुकड़ा मेरी आँखों पर गिरा. अच्छा तो यह शरारत है सुबह की. वो कबसे राह ताके थी कि मेरा वादा था उसे मिलूंगी फिर दोनों देर तक गप्प मारते हुए घूमने जायेंगे. पत्तियों पर ठहरी ओस की बूँदें देखने का सुख ज्यादा देर नहीं ठहरता, न इंतजार करता है. मैंने ओस की बूंदों को हथेलियों में समेट लिया है. अब सुबह के साथ वो बूँद भी मुझे देख रही है. सुबह अपने साथ कितनी सौगातें लेकर आती है. और मैं नींद की दुलारी...आज सुबह की उन सब सौगातों को समेट लिया है. देर से ठहरी हुई है वो. अब तक तीन चाय पी चुकने के बाद एक और चाय पीने की इच्छा से खेल रही हूँ.
मैंने सुबह के कान में फुसफुसा कर पूछा, 'सुनो यह साल अच्छा है न?' उसने पलकें झपकाते हुए पलटकर पूछ लिया, 'यह लम्हा अच्छा है न?. मुझे जवाब मिल चुका था.
सुबह को शाल की तरह कसकर लपेट लिया है. पंडित जसराज गा रहे हैं राग भैरव...