Tuesday, June 29, 2021

कामकाजी औरतें



कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं रोज सुबह घर से
आधे रास्ते में याद आता है सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं
उलझन में पड़ जाता है दिमाग
कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया
जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर

कितनी ही जल्दी उठें और तेजी से निपटायें काम
ऑफिस पहुँचने में देर हो ही जाती है
खिसियाई हंसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर
बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं
सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर
नाखूनों में फंसे आटे को निकालते हुए
अटेंड करती हैं मीटिंग
काम करती हैं पूरी लगन से

पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल
सास की दवाई के बारे में
उनके पास नहीं होता वक्त पान, सिगरेट या चाय के लिए
बाहर जाने का
उस वक्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम
ताकि समय से काम खत्म करके घर के लिए निकल सकें.
दिमाग में चल रही होती सामान की लिस्ट
जो लेते हुए जाना है घर
दवाइयां, दूध, फल, राशन

ऑफिस से निकलने को होती ही हैं कि
तय हो जाती है कोई मीटिंग
जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा
बच्चे की मनुहार जल्दी आने की
रुलाई बन फूटती है वाशरूम में
मुंह धोकर, लेकर गहरी सांस
शामिल होती है मीटिंग में
नजर लगातार होती है घड़ी पर
और ज़ेहन में होती है बच्चे की गुस्से वाली सूरत
साइलेंट मोड में पड़े फोन पर आती रहती हैं ढेर सारी कॉल्स
दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में

घर पहुंचती सामान से लदी-फंदी
देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ
शिकायतों का अम्बार खड़ा मिलता है घर पर
जल्दी-जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए
सबकी जरूरत का सामान देते हुए
करती हैं डैमेज कंट्रोल

मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बतायेंगी घर पर
टूर पर जाने की बात
कैसे मनाएगी सबको
कैसे मैनेज होगा उनके बिना घर

ऑफिस में सोचती हैं कैसे मना करेगी कि नहीं जा सकेंगी इस बार
कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात

कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से
कि शाम को आराम मिलेगा
रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले
कि सुबह हड़बड़ी न हो

ऑफिस में तेजी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुंचें 
घर पर तेजी से काम करती हैं कि ऑफिस समय से पहुंचें

हर जगह सिर्फ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में
एक रोज मुस्कुरा देती हैं आईने में झांकते सफ़ेद बालों को देख

किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से
कहीं कोई खुश नहीं न घर में, न दफ्तर में न मोहल्ले में
वो खुद भी खुश नहीं होतीं खुद से

'मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता के अपराध बोध से भरी कामकाजी औरतें
भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज़
और तब उनके साथी कहते हैं
'ऐसा भी क्या खास करती हो जो इतना ड्रामा कर रही हो.'

मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें
एक रोज तमाम तोहमतों से बेज़ार होकर
जीना शुरूकर देती हैं
थोड़ा सा अपने लिए भी
और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम
सामाजिक समीकरण.

Friday, June 25, 2021

ख़्वाब जो बरस रहा है



कुछ रुकी हुई रुलाइयां हैं, कुछ भिंची हुई मुठ्ठियाँ हैं, कुछ रातों की जाग है कुछ बारिशों की भागमभाग है. कुछ ख़्वाब हैं अनदेखे से कोई खुशबू है बतियाती सी. कविताओं का पता नहीं लेकिन मन की कुछ गिरहें हैं जिन्हें कागज पर उतारकर जीना तनिक आसान करने की कोशिश भर है. ये 'ख़वाब जो बरस रहा है' ये आपको भी मोहब्बत से भिगो दे यही नन्ही सी इच्छा है.

दोस्तों और पाठकों का प्यार था जिसने हौसला दिया एक जगह सहेज देने का. मन एकदम भरा हुआ है. पलकें नम हैं. प्यार ऐसे ही तो भिगोता है.


Sunday, June 20, 2021

फादरहुड


किसी पुरुष के बच्चे छोटे हैं और उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाए तो सारे परिवारजन और रिश्तेदार मिलकर पत्नी की चिता की आग ठंडी होने से पहले ही पुरुष के पुनर्विवाह के बारे में सोचने लगते हैं. क्योंकि बच्चे छोटे हैं, कैसे पाल पायेगा वो अकेले. बच्चों की खातिर पुरुष भी विवाह के लिए तैयार हो जाते हैं. यह बच्चों की खातिर पुनर्विवाह की सुविधा स्त्री के लिए नहीं है. उससे कहा जाता है, 'बच्चों का मुंह देखकर जी लो.; इस तरह के व्यवहार को खूब होते देखा है. नतीजा आपको एकल पैरेंटिंग में जितनी महिलाएं मिलेंगी उतने पुरुष नहीं. इसमें पुरुषों का दोष नहीं है. उस सोशल कंसट्रकशन का दोष है जो यह माने बैठा है कि बच्चे पालने का बड़ा हिस्सा माँ के हिस्से आता है. ऐसे बहुत से पिताओं को जानती हूँ जिन्हें पता ही नहीं उनके बच्चे कब बड़े हो गए. एक ही घर में रहते हुए जान नहीं पाए कि कब पत्नी बीमार होकर खुद ही ठीक हो गयी और कब बच्चे बड़े हो गये. उनकी भूमिका बस होने की थी सो वो हुए. इससे ज्यादा न हो पाये.

मुझे हमेशा से लगता है कि पैरेंटिंग को लेकर भारतीय समाज में अभी बहुत जागरूकता आनी बाकी है. पुरुषों और स्त्रियों दोनों को यह समझने की जरूरत है कि गर्भधारण, प्रसव और स्तनपान के अतिरिक्त कोई ऐसा काम नहीं जो स्त्री कर सकती है पुरुष नहीं. तो अपने परम आदर्श पतियों को पैरेंटिंग के लिए प्रोत्साहित कीजिये. और अगर वो डायपर चेंज करते हैं, बच्चे का फीड तैयार करते हैं, मालिश करते हैं (कभी-कभार नहीं, नियमित) तो उन्हें यह सुख लेने दीजिये. और इसे किसी एहसान या महान गुण की तरह न देखकर सामान्य तौर पर देखना शुरू करिए. माँ की महानता के गुणगान के पीछे पिता के कर्तव्य आराम करने चले गए हैं. उन्हें बाहर निकालना जरूरी है. बच्चे पालने का सुख दोनों को लेना है न आखिर. और अगर किसी कारण कोई भी एक सिंगल पैरेंटिंग के लिए बचता है तो वो उसे निभा सकता है. अकेले. स्त्री भी, पुरुष भी.

कल नेटफ्लिक्स पर 'Fatherhood' देखी. प्यारी फिल्म है. बच्ची की माँ की मृत्यु बच्ची के जन्म के समय हो जाती है और तब हमेशा से लापरवाह समझे जाना वाला शख्स पिता बनकर उभरता है. न आया की मदद, न नानी दादी की न बच्ची का वास्ता देकर दूसरी शादी. नौकरी और बच्ची को संभालता पिता. फिल्म प्यारी है.

Friday, June 18, 2021

श्रीकांत कैसे हो गया फैमिली मैन?

“कुछ गंभीर सवाल उठ रहे हैं. श्रीकांत इतना कुछ कर रहा है, फिर भी सुचित्रा खुश नहीं है. आखिर सुचित्रा चाहती क्या है?”
प्रतिभा कटियार


‘द फैमिली मैन’ देख लिया था. तब ही, जब आया था. मैं फैमिली मैन पर बात नहीं करना चाहती. उस पर काफी बात हो चुकी है. मैं बात करना चाहती हूं सुचित्रा के किरदार पर. हालांकि, उस पर भी काफी बात हो चुकी है. फिर भी मैं उस पर बात करना चाहती हूं. सुचित्रा के किरदार को लेकर खूब तानाकशी हो रही है. मीम बन रहे हैं. कुछ गंभीर सवाल उठ रहे हैं, ज्यादातर मजाकिया कि औरतों को कोई खुश नहीं कर सकता. श्रीकांत इतना कुछ कर रहा है उसके लिए, फिर भी वो खुश नहीं है. रिश्ते के बाहर तांकझांक कर रही है. आखिर सुचित्रा चाहती क्या है?

क्या चाहती है सुचित्रा से पहले, श्रीकांत जो एक आदर्श फैमिली मैन भी है, देश की रक्षा में लगा हीरो भी, वो क्या चाहता है, पर भी बात होनी चाहिए.

श्रीकांत एक अलग तरह की नौकरी करता है, वह नौकरी उसका पैशन है, उसके प्राण बसते हैं उसमें. उस नौकरी या कहें काम के लिए, उसने घरवालों के रिश्तेदारों के ताने सहे, बच्चों के भी कि इतनी मेहनत करके भी ज्यादा कमा नहीं पाता है. वो फिर भी वही नौकरी करता है. यह नौकरी उससे ढेर सारा समय, अटेंशन और जोखिम मांगती है. जो जाहिर है वो देता है.

तो फिर वो फैमिली मैन कैसे है? घर के किसी काम में वो कोई सहयोग नहीं दे पाता. कभी-कभार दी गयी जिम्मेदारियां भी उसके हाथ से फिसल जाती हैं. जाहिर है जिन्हें देशप्रेम के लिये त्याग की चाशनी में लपेटकर जस्टिफाई किया जा सकता है. वो बच्चों को स्कूल से लाना भूल जाता है, बीवी की प्रेगनेंसी हो, डिलीवरी हो या कोई भी दूसरा मौका, वो कहीं नहीं हो पाता. फिर वो फैमिली मैन कैसे है? और तो और अपनी पसंद के काम को इतनी तवज्जो देना वाला व्यक्ति पत्नी के यह कहने पर कि वो अपने टीचिंग जॉब से ऊब गयी है, कुछ नया करना चाहती है, इस बात को समझ नहीं पाता.


दूसरे सीजन में वो परिवार के लिए अपनी पसंद की नौकरी छोड़कर कॉरपोरेट जॉब कर लेता है. जहां उसे हर दिन घुटन हो रही है, जो पूरे वक्त दिखती है या दिखाई गई है. दर्शक उस घुटन से कनेक्ट कर पाते हैं, लेकिन सुचित्रा की घुटन से, उसकी उलझन से कनेक्ट नहीं कर पाते. टेक्निकल तरह से श्रीकांत परिवार के साथ समय बिताना, साथ डिनर करना, डिनर पर फोन का इस्तेमाल न करने का नियम बनाना आदि कोशिशें करता है जो दर्शकों को नजर आती हैं और वो कह उठते हैं “बेचारा कितना तो कर रहा है और क्या करे?”

जबकि रिश्ते में, जीवन में आये ठहराव से जूझने की कोशिश सुचित्रा भी कर रही है. वो काउंसलिंग के लिए जा रही है. श्रीकांत को भी ले जाती है, जिसका श्रीकांत मजाक उड़ाता है. यह आम भारतीय पुरुषों की समस्या है काउंसिलिंग का मजाक बनाना, उसे महत्व न देना. और इस बात को काउंसलर के किरदार को बेहद हल्के तरह से गढ़कर मामला श्रीकांत के पक्ष में रख दिया गया. यह खतरनाक है.

क्या डायरेक्टर कहना चाहते हैं कि काउंसिलिंग जैसी कोई चीज नहीं होती या उसका कोई महत्व नहीं होता. शायद इसलिए सुचित्रा की उस कोशिश के मर्म को समझने की बजाय वह पूरा वाक्य मजाकिया ढंग से गढ़ दिया गया है.

अगर ‘फैमिली मैन’ श्रीकांत ने परिवार के लिए नौकरी बदली है तो सुचित्रा ने भी नौकरी छोड़ी है. वो भी घर पर बैठी है परिवार के लिए. फिर एक दिन अपने मैनेजर के साथ श्रीकांत जो करता है उसे देख कितनों के जख्मी दिलों को राहत मिली, लेकिन उसी घुटन, उसी तरह की पीड़ा से गुजर रही सुचित्रा जब वापस अपने काम पर लौटती है, तो इसे इस तरह दिखाया गया जैसे वो इश्क लड़ाने के लिए काम पर गई है.

सुचित्रा का एक ही संवाद मेरी पूरी बात को कहने के लिए काफी है, “15 साल से पूरी गृहस्थी अकेले संभाल रही हूं मैं. तुम अचानक से एक दिन आते हो और कुछ कोशिश करते हो और तुरंत तुम्हें बेस्ट हसबैंड और बेस्ट फादर का अवॉर्ड चाहिए.”

श्रीकांत जैसे तमाम लोग आसपास नजर आते हैं. हर समय अपनी मनमर्जी करने के बाद किसी रोज गिफ्ट देकर या डिनर पर ले जाकर सोचते हैं वो बीवी के लिए कितना कुछ तो कर रहे हैं और क्या चाहिए उन्हें? और अंत में यह जुमला “क्या चाहिए इन्हें आखिर... इनकी तो आदत है बड़-बड़ करने की.” और फिर धीरे से उन्हें इग्नोर करना और उनके जरिये मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग करना पुरुष समाज सीख जाता है.

मुझे लगता है सुचित्रा को, श्रीकांत को जो और जितना चाहिए, उससे काफी कम ही चाहिए था, लेकिन उसे वो कभी मिला नहीं. लगातार अकेले गृहस्थी में पिसते-पिसते वो घुटन से अवसाद से भरने लगी. और तब उसे एक दोस्त मिल गया जो उसे उसके काम की ऊब से छुटकारा दिलाकर नए काम में उसे शामिल करना चाहता है. यहीं मसाला मिल गया पब्लिक को या दे दिया गया.

दूसरे सीजन तक तो अफेयर स्टेब्लिश भी नहीं हुआ सुचित्रा का, अभी से उसे क्यों ट्रोल कर रहे हो भाई. और अगर यही क्राइटेरिया है तो श्रीनगर में बॉस के रूप में मिली पुरानी गर्लफ्रेंड से मिलकर खुश हो रहे श्रीकांत को भी सामने रखो न. वह भी बस खुश ही है और सुचित्रा भी बस खुश ही है अपने दोस्त से मिलकर. जबकि श्रीकांत अपनी पत्नी की जासूसी करने से भी पीछे नहीं हटता है.


एक और बात, श्रीकांत के लिए कभी भी चाहे श्रीनगर जाना हो या चेन्नई जाना हो ड्यूटी के लिए मुश्किल नहीं रहा. सामान पैक किया और निकल गया. लेकिन अपनी नयी जॉब में जब सुचित्रा को अगले हफ्ते लंदन जाने का प्रस्ताव आता है, तो यकीन मानिए मेरी सांस थम गयी थी कि कैसे दोनों बच्चों को छोड़कर जाएगी वो?

वर्किंग वुमन के लिए पूरा दिन घर से बाहर रहते हुए घर और बच्चों को मैनेज करना ही इतना बड़ा चैलेंज होता है कि टूर पर जाना किसी विपदा के आने जैसा महसूस होता है, खासकर तब जब वो अकेले ही संभाल रही हों सब कुछ. यह चैलेंज श्रीकांत के सामने तो कभी नहीं आया न? कभी नहीं आता न?

तो सुचित्रा के किरदार को ट्रोल करना बंद करिए. अपने आसपास की स्त्रियों को थोड़ा और समझने की कोशिश करिए. अरे हां, अगर तीसरे सीजन में सुचित्रा का अफेयर डायरेक्टर स्टेब्लिश भी कर दे, तब भी उसे जज करने से पहले ठहरकर सोचिएगा जरूर.

The Quint में प्रकाशित 
लिंक- https://hindi.thequint.com/voices/opinion/the-family-man-amazon-prime-stop-trolling-suchitra-shrikant-tiwari-job#read-more

Thursday, June 10, 2021

डाक्टर वरयाम सिंह जी जन्मदिन मुबारक


जब भी डाक्टर वरयाम सिंह के बारे में सोचती हूँ तो मन एकदम से खुश हो जाता है. उनका जिक्र भर सुख और आत्मविश्वास से भर देता है. खुद पर भरोसा करना उन्होंने ही सिखाया. सोचती हूँ तो लगता है उन पर एक पूरी किताब लिख सकती हूँ. और जब लिखने बैठती हूँ तो सिर्फ 'सुकून' लिख पाती हूँ. इस कम लिख पाने में आत्मीयता का विशाल समन्दर है जो मुझे उनसे मिला है. आस्थावादी होती तो कहती भाग्य. लेकिन अभी कहती हूँ भाग यानी मेरा हिस्सा. उनके होने में जो मेरा हिस्सा है उसमें कितने खूबसूरत किस्से हैं.

आज जब साहित्य की तरफ कोई रेस सी लगी नजर आती है. कोई होड़. एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ ही नहीं एक-दूसरे की टांग फंसाकर गिराकर आगे निकलने की होड़ ऐसे में डाक्टर वरयाम सिंह की मुस्कुराहट के संग बैठ जाती हूँ. देखती हूँ सारे खेल तमाशे. 

मारीना पर काम करने के दौरान मैं सिर्फ मारीना तक नहीं पहुंची, उससे पहले पहुंची एक ऐसे व्यक्तित्व के पास जो ज्ञान से, प्रतिभा से, ओहदे से लबरेज थे. लेकिन आप अगर उनसे मिले हैं तो उन्हें याद करने पर पहली बात जो याद आती है वो है उनकी सादगी और उनसे मिला अपनापन.

फूलों और फलों से भरी डाल किस तरह झुकती जाती है उसका व्यक्तित्व से मिलान करना हो तो वरयाम जी याद आते हैं. कितना आसान है उनसे मिलना, बातें करना. उनसे तोहफे में ढेर सारी किताबें लेना. हर मौके बे मौके फोन पर बतिया लेना. उनकी उंगली  थाम रूस की गलियों में भटकते फिरना. कितना सुखद है अपनी शरारतों पर उनसे डांट खाना. 

सच में, उनके साथ मैंने खूब सारा समय जिया है. पलाश खिलने के मौसम में लगभग हर बरस दिल्ली में साहित्य अकादमी के प्रांगण में मेरा उनसे मिलना होता. मारीना धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी और मैं उनसे मिलते ही छोटी हो जाती थी. उनके पास बैठते ही लगता अब सब ठीक है. मैं अपनी तमाम गलतियों को उनके साथ बेहिचक बाँट लेती. वो एक बात को कई बार बताने पर भी कभी खीझते नहीं.

किताबें पढ़कर ही सब जाना नहीं जाता लोगों से मिलकर बहुत कुछ सीखा जाता है. वरयाम जी एक पूरा स्कूल हैं यह समझने का कि पढ़ने-लिखने से अहंकार नहीं नम्रता आती है, सहजता आती है जो पल भर में किसी अनजान को भी अपना बना लेती है. वो हिमाचल में रहते हैं. उनके गाँव बंजार का मौसम उनके जैसा ही है, प्यारा सा. आड़ू, नाशपाती, पुलम के फूलों और फलों वाले इस गाँव ने फूलों की घाटी में बदलते हुए खिलखिलाना, निश्छल प्यार लुटाना जरूर वरयाम जी से ही सीखा होगा.

आज उनके जन्मदिन पर मैं हमेशा की तरह बहुत बहुत खुश हूँ. उनके होने में जो मेरा छोटा सा हिस्सा है उसे मैं हमेशा सहेजकर रखूंगी. आप खूब जियें, स्वस्थ रहें, आपसे बहुतों को बहुत कुछ सीखना है अभी.

आपका जन्मदिन मुबारक आपको भी, हमें भी


Friday, June 4, 2021

स्मृति ही जीवन है


उदासी भी एक समय के बाद छीजने लगती है. उसे खुद से उकताहट होने लगती हो मानो. लेकिन जब तक उदास होने की वजह खत्म न हो आखिर रास्ता ही क्या इसमें धंसे रहने के सिवा. कोविड महामारी का यह दौर स्थाई उदासियाँ देकर गया है.और अभी गया भी कहाँ है. लेकिन सामान्य जीवन की पुकार इस कदर आकर्षक है कि पाँव खिंचते ही चले जाते हैं उस ओर. यह मानव स्वभाव है. देखा जाए तो इसी में जीवन की उम्मीद छुपी है. 'जीवन चलने का नाम' की तर्ज पर फिर से बाजार, दफ्तर फेसबुक गुलजार होने को हैं. लेकिन सोचती हूँ कि यह सामान्य होना क्या है. हम किस जीवन की ओर लौटने की इच्छा से भरे हैं? वही जीवन जो महामारी से पहले था या कोई और जीवन?

सामान्य शब्द का डायस मेरे हाथों में हैं. इसे लगातार घुमा रही हूँ. सामान्य क्या है? जो था, क्या वहीं लौटना अभिप्राय है या कहीं और जाना है. असल में वापस लौटने जैसा कुछ नहीं होता, कभी नहीं होता. होना भी नहीं चाहिए, लौटने में हमेशा एक नयापन शामिल रहता है. शामिल होना चाहिए. सुबह काम पर निकलते वक़्त जो हम थे, शाम को लौटते वक़्त उससे थोड़ा अलग हों तो बेहतर. थोड़ा बेहतर होते रहना मनुष्य की जिजीविषा होनी ही चाहिए. है भी शायद. लेकिन वो हमसे कहीं खो गयी है. या ढर्रे पर घिसटते हुए तथाकथित सफलता के पायदानों पर चढ़ते जाने के दबाव ने उसे हमसे छीन लिया है.

मुश्किल वक्त कभी खाली हाथ नहीं आता. पीड़ा और संताप के अलावा भी वह हमें बहुत कुछ देकर जाता है. क्या हम उसे देख पाते हैं? पीड़ा और संताप का वेग इतना प्रबल होता है कि हम कुछ और देख नहीं पाते. बहुत कम लोग देख पाते हैं उसे. बहुत कम.

इस महामारी की प्रलय से अगर हम सुरक्षित बच सके हैं तो इतना ही काफी नहीं है अब हमारे ऊपर दायित्व बढ़ा है ज्यादा बेहतर मनुष्य होने का, ज्यादा मानवीयता से भर उठने का. जीवन क्या है, कितना क्षणिक. कब छूट जाएगा कुछ पता नहीं. कभी भी, कहीं भी मृत्यु अपनी टांग अड़ा देगी और जीवन के तमाम हिसाब-किताब मुंह के बल गिर पड़ेंगे. वही हिसाब किताब जिनके लिए हम क्रूरता, अमानवीयता की हदें पार करते जाते हैं. क्यों? क्या होगा जो एक प्रमोशन कम मिलेगा, क्या हो जायेगा जो एक गहना कम होगा देह पर, क्या फर्क पड़ेगा अगर मानवीय मूल्यों के चलते हमें थोड़ा कम सफल व्यक्ति के तौर पर आँका जायेगा. असल सुख तो है चैन की वो नींद जो हर रोज हमें बेहतर मनुष्य होने के रास्ते पर चलते हुए आई थकन से उपजती है.

इस दौरान अच्छे भले व्यक्ति को 'बॉडी' बनते कई बार देखा. सांस के रहते तक वह व्यक्ति, व्यक्ति था उसका नाम था, पहचान थी सांस रुकते ही वह बॉडी हो गया. जिसके लिए आईसीयू, ऑक्सिजन, दवाइयों के लिए दौड़ते फिर रहे थे उसके लिए श्मशान घाट में नम्बर आने पर फूंकने का इंतजार होने लगा. वो व्यक्ति कैसे अचानक स्मृति भर बनकर रह गया. इस स्मृति की यात्रा कितनी लम्बी है यह उसके जिए हुए पर निर्भर करता है. फेसबुक पर आये श्रृध्धांजलियों के उछाल के बाद जो शेष बचती है जीवन में वह स्मृति. वह स्मृति ही असल में जीवन है.

दुःख, पीड़ा, अवसाद ने इस बार इतना खरोंचा है कि मन एकदम लहूलुहान है. इस दौर में कितनी ही बार ख्याल आया जाने अब हम अपनों से कभी मिल भी पायेंगे या नहीं. कितनों से तो नहीं ही मिल पायेंगे. कब कौन सी बात आखिरी बन गयी, कौन सी मुलाकात आखिरी बन गयी...हम अवाक देखते रह गये. उस आखिरी रह गयी मुलाकात और बात को मुठ्ठियों में बाँध लिया है, उस स्मृति में सांस शेष है. जो लगातार कह रही है, जीवन को दुनिया के क्षुद्र छल-प्रपंचों से बचाकर जियो, हर लम्हा भरपूर जियो. किसी की आँख का आंसू न बनो, किसी के आहत मन का कारण न बनो, बस इतना बहुत है.

शरीर और जीवन का बहुत मोह नहीं करना चाहिए, जो लम्हे सामने हैं जीने को उन लम्हों का मोह करना चाहिए, इस दारुण समय से हमने कुछ नहीं सीखा तो सामान्य जीवन की तरफ लौटने की हड़बड़ी किसी काम की नहीं.

link- https://epaper.jansatta.com/3116898/Jansatta/04-June-2021#page/6/2