Friday, December 19, 2008

एक तुम्हारा होना


एक तुम्हारा होना

क्या से क्या कर देता है

बेजुबान छत दीवारों को

घर कर देता है

खाली शब्दों में

आता है

ऐसा अर्थ पिरोना

गीत बन गया सा

लगता है

घर का कोना कोना

एक तुम्हारा होना

सपनों को स्वर देता है

आरोहों अवरोहों से

समझाने

लगती है

तुमसे जुड़कर

चीज़ें भी

बतियाने लगाती है

एक तुम्हारा होना

अपनापन भर देता है

एक तुम्हारा होना

क्या से क्या कर देता है

..... ...... ........ ........ .............

Saturday, December 13, 2008

आप उसे फोन करें

“आप उसे फोन करें
तो कोई ज़रूरी नहीं

कि उसका फोन खाली हो

हो सकता है उस वक्त वह

चाँद से बतिया रही हो

या तारों को फोन लगा रही हो
वह थोड़ा धीरे बोल रही है सम्भव

है इस वक्त वह किसी भौंरे से

कह रही हो अपना संदेश

हो सकता है वह लम्बी, बहुत लम्बी

बातों में मशगूल हो

हो सकता है एक कटा पेड़

कटने पर होने वाले

अपने दुखों का उससे कर रहा हो बयान
बाणों से विंधा पखेरू मरने के पूर्व

उससे अपनी अंतिम बात कह रहा हो
आप फोन करें तो हो सकता है

एक मोहक गीत आपको थोड़ी देर

चकमा दे और थोड़ी देर बाद में

नेटवर्क बिजी बताने लगे

यह भी हो सकता है

एक छली उसके मोबाइल पर

फेंक रहा हो छल का पासा
पर यह भी हो सकता है कि

एक फूल उससे कांटे से होने वाली

अपनी रोज रोज की लड़ाई के बारे में

बतिया रहा हो या कि रामगिरी पर्वत से चल

कोई हवा उसके फोन से होकर आ रही हो

या कि चातक, चकवा, चकोर

उसे बार बार फोन कर रहे हों
यह भी सम्भव है कि कोई गृहणी

रोटी बनाते वक़्त भी उससे बातें करने का

लोभ संवरणन कर पाये

और आपके फोन से

उसका फोन टकराये

आपका फोन कट जाये
हो सकता है उसका फोन

आपसे ज़्यादा उस बच्चे के लिए ज़रूरी हो

जो उसके साथ हंस हंसमलय नील में

बदल जाना चाहता हो

वह गा रही हो किसी साहिल का गीत

या हो सकता है कोई साहिल

उसकेफोन पर, गा रहा हो उसके लिए प्रेमगीत
या कि कोई पपीहाकर रहा हो

उसके फोन परपीऊ पीऊ

आप फोन करें तो कोई ज़रूरी नहीं

कि उसका फोन खाली हो।”

डाक्टर बद्री नारायण की यह कविता मैंने
सुनी थी उनसे ही। लखनऊ के प्रेस क्लब
में उनहोंने कई कवितायें सुनाई थीं यह मेरे
साथ हो ली। इसका एक कारन यह भी
हो सकता है की इसे मैं पूरा नोट कर पाई थी।
डॉ बद्री ऐसी कवि हैं जिन्हें बिना ज्यादा पढ़े ही
मैं उनकी फैन हूँ ....

Friday, December 12, 2008

शुक्रिया


शुक्रिया मैं कितनी अहसानमंद हूँ

उनकीजिन्हें मुहब्बत नहीं करती।

यह मान लेने में भी कितना सुकून है

की उनकी किसी और

को मुझसे ज्यादा जरूरत है

और कितना चैन है यह

सोचकर की मैंने भेड़िया

बनकर किसी की bhedon

पर कब्जा नहीं किया

कितनी शान्ति, कितनी आजादी

जिसे न मुहब्बत छीन सकती है

न दे सकती है

अब मुझे किसी का इंतज़ार नहीं

खिड़कियों और दरवाजे के दरमिया

कोई चहलकदमी नहीं

सूरज-घड़ी को भी मात दे रहा है मेरा सब्र।

main समझ गई हूँ जो प्यार नहीं समझ सकता,

मैं माफ़ कर सकती हूँ

जो प्यार नहीं कर सकता।

मुलाकात और ख़त के बीच

अब होते हैं चंद दिन-ज्यादा-से-ज्यादा

चंद हफ्ते कोई युगांतर नहीं होता

जिन्हें मुहब्बत नहीं करती

उनके साथ यातरायें

कितनी सीधी-सरल होती है

उनके साथ किसी संगीत समारोह में

चले जाओ या गिरजाघर में

और जब हमारे बीच होते है

सात पहाड़ और सात नदिया

तो उन पहाडों और नदियों के फासले

किसी भी नक्शे में देखे जा सकते है

आज मैं एक संगीतहीन समतल समय में

एक यथार्थ छितिज से घिरी हुई

सलीम और साबुत हूँ तो

यह उन्हीं की बदुलत है

शायद वे ख़ुद नहीं जानतेकी

उनके खाली हाथों में कितना कुछ है

लेकिन मैंने तो उनसे कुछ भी नहीं पाया

प्यार के पास इसके सिवा भला क्या जवाब होगा

इस सवाल का.....

Friday, December 5, 2008

इस बार नहीं


इस बार जब वो छोटी सी बच्ची

मेरे पास अपनी खरोंच के लेकर आएगी

मैं उसे फू-फू कर नहीं बहलाऊंगा

पनपने दूँगा उसकी टीस को

इस बार नहीं,
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा

नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले

दर्द को रिसने दूँगा, उतरने दूँगा अन्दर

इस बार नहीं,
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा

न ही उठाऊँगा रूई के फाहे

और न ही कहूँगा की तुम आँखें बंद कर लो,

गर्दन उधर कर लो, मैं दवा लगता हूँ

देखने दूँगा सबको खुले नंगे घाव

इस बार नहीं ....

इस बार जब उलझनें देखूँगा, छात्पताहत देखूँगा

नहीं दौडूंगा उलझी दूर लपेटने

उलझने दूँगा जब तक उलझ सके

इस बार नहीं

इस बार कर्म के हवाला देकर नहीं उठाऊँगा औजार

नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत,

नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की

नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर

उतरने दूँगा उसे कीचड में , टेढे मेधे रास्तों पे

नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून

हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग

इस बार नहीं ....

बनने दूँगा उसे इतना लाचार की पान की पीक

और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए

इस बार नहीं.....
इस बार घावों को देखना है गौर से थोड़ा लंबे वक्त तक

कुछ फैसले और उसके बाद हौसले

कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी इस बार

यही तय किया है
... प्रसून जोशी

Sunday, November 30, 2008

mumbai


मुंबई में जो हुआ उसके बाद बस यही ख्याल आया की


क्या कहें और कहने को क्या रह गया ....

Tuesday, November 25, 2008

तुम्हारी भी एक दुनिया है


मित्र आलोक श्रीवास्तव की एक और कविता...

तुम्हारे पास आकाश था

मेरे पास एक टेकरी

तुम्हारे पास उड़ान थी

मेरे पास

सुनसान में हिलती पत्तियां

तुम जन्मी थीं हँसी के लिए

इस कठोर धरती पर

तुमने रोपीं

कोमल फूलों की बेलें

मैं देखता था

और सोचता था

बहुत पुराने दरख्तों की

एक दुनिया थी charon or

थके परिंदों वाली

शाम थी मेरे पास

कुछ धुनें थीं

मैं चाहता था की तुम उन्हें सुनो

मैं चाहता था की एक पूरी शाम तुम

थके परिंदों का

पेड़ पर लौटना देखो

मैं तुम्हें दिखाना चाहता था

अपने शहर की नदी में

धुंधलती रात दुखों से भरी एक दुनिया

मैं भूल गया था

तुम्हारी भी एक दुनिया है

जिसमे कई और नदियाँ हैं

कई और दरखत

कुछ दूसरे ही रंग

कुछ दूसरे ही स्वर

शायद कुछ दूसरे ही

दुःख भी।


Sunday, November 23, 2008

जेवर


ना ना मत मांगो

ये कोई जेवर नहीं

मेरा गम है ये

मेरी तन्हाई है

तुम्हारे बाज़ार में कोई

कीमत नहीं इसकी

Saturday, November 22, 2008

हँसी


धुप में बारिश होते देख के

हैरत करने वाले!

शायद तुने मेरी हँसी को

छूकर

कभी नहीं देखा

Tuesday, November 18, 2008

तेरे ख्याल में


हरे लान में

सुर्ख फूलों की छांव में बैठी हुई

मई तुझे सोचती हूँ

मेरी उंगलियाँ

सब्ज पत्तों को छूती हुई

तेरे हमराह गुजरे हुए मौसमों की महक चुन रही हैं

वो दिलकश महक

जो मेरे होठों पे आके हलकी gulabi हँसी बन गई है

दूर अपने ख्यालों में गम

शाख दर शाख

एक तीतरी खुशनुमा पर समेटे हुए उड़ रही है

मुझे ऐसा महसूस होने लगा है

जैसे मुझको पर मिल गए हों।





Sunday, November 16, 2008

पहली नजर का प्यार


वे दोनों मानते हैं

की अचानक एक ज्वार उठा

और उन्हें हमेशा के लिए एक कर गया

कितना खूबसूरत है शंशय हीन विश्वास

पर शंशय इससे भी खूबसूरत है

अब चूँकि वे पहले कभी नहीं मिले

इसलिए उन्हें विश्वास है

की उनके बीच कभी कुछ नहीं था इससे पहले

तो फ़िर वह शब्द क्या था

जो गलियों, गलियारों या सीढियों पर

फुसफुसाया गया था?

क्या पता वे कितनी बार एक दूसरे के

एक-दूसरे के kareeb से गुजरे हों

mai उनसे पूछना चाहती हूँ

क्या उन्हें याद नहीं

रिवाल्विंग दरवाजे में घुसते हुए सामने पड़ा एक चेहरा

या भीड़ में कोई sorry कहते हुए आगे बढ़ गया था

या शायद किसी ने रौंग नम्बर कहकर फोन रख दिया था

लेकिन mai जानती हूँ उनका जवाब

नहीं उन्हें कुछ भी याद नहीं

उन्हें ये जानकर ताज्जुब होगा

की अरसे से संयोग उनसे आन्ख्मिचोनीखेल रहा था

पर अभी वक़्त नहीं आया था

की वह उनकी नियति बन जाए

वह उन्हें बार- बार करीब लाया

और दूर ले गया

अपनी हँसी दबाये उसने उनका रास्ता रोका

और फ़िर उछालकर दूर हट गया

नियति ने उन्हें बार-बार संकेत दिए

चाहे वे उन्हें न समझ पाए हों

तीन साल पहले की बात है

या फ़िर pichale मंगल की

जब एक सूखा हुआ पत्ता

किसी एक के कंधे को छूते

दूसरे के दामन में जा गिरा था

किसी के हांथों से कुछ गिरा

किसी ने कुच उठाया

कौन जाने वह एक गेंद ही हो

बचपन की झाडियों में खोई हुई

कई दरवाजे होंगे

जहाँ एक की दस्तक पर

दूसरे की दस्तक पड़ी होंगी

हवाई-अड्डे होंगे

जहाँ पास-पास खड़े होकर

सामान की जाँच करवाई होगी

और किसी रात देखा होगा एक ही सपना

सुबह की रौशनी में धुंधला पड़ता हुआ

और फ़िर हर शुरुआत

किसी न किसी सिलसिले की

एक कड़ी ही तो होती है

क्योंकि घटनाओं की किताब

जब देखो अधखुली ही मिलती है.....


शिम्बोर्स्का की यह कविता हर प्यार करने वाले

को बेहद अजीज लगती है...यही शिम्बोर्स्का का

जादू है जो एक बार सर चढ़ जाए तो फ़िर कभी नहीं

उतरता....

Friday, November 14, 2008

लम्हा लम्हा जिंदगी


लम्हा लम्हा जिंदगी जब खुदा ने करवट बदली थी, तब धरती का मौसम बदला था।तो ये जो मौसम है न दरअसल, खुदा का करवट बदलना होता है। वो जो चाँद है न उसमें एक बुढ़िया रहती है। वो चरखा चलाती रहती है.जब कोई मर जाता है तो तारा बनकर आसमान में चला जाता है। ये बातें कब सुनी, किस से सुनी ये तो पता नहीं लेकिन कानो से गुजरकर ये बातें जेहन में चस्पा जरूर हो गयीं हैं। दुनिया भर की किताबें पढ़ डालीं, ढेर सारा समझदारी का साबुन लगाया लेकिन मजाल है की मौसम बदलें और यह बात ध्यान में न आ जाए की जरूर खुदा ने करवट बदली होगी। हाँ, इस ख्याल के साथ अब एक हलकी सी मुस्कराहट भी आ जाती है। हम सबकी जिंदगी में ढेर सारी ऐसी बातें हैं, जिनके पीछे कोई लोजिक नहीं फ़िर भी वे हैं और बेहद अजीज हैं।कोई सुने तो अजीब लग सकता है की मुझे मुकम्मल तस्वीर से ज्यादा खूबसूरत लगती है नए हाथों से रची गई अनगढ़ अधूरी तस्वीर। न जाने क्यों कुम्हार जब चक चलाते चलाते थक जाता होगा और उस से तो टेढा- मेदा मटका बन जाता होगाउसे मैं ढूंढकर लती थी। उसमे न जाने कितने आकार मुझे नजर आते थे। उपन्यास, कहानियो या कविताओं से ज्यादा अधूरी लिखी रह गई डायरी, पत्र हमेशाज्यादा लुभाते रहे मुझे. वो जो कम्प्लीट है, परफेक्ट है, वो इन्हीं अनगढ़, ऊंचे-नीचे,ऊबड़- खाबड़ रास्तों से होकर ही तो गुजरा है। ना जाने कब, कहाँ, पढ़ा था की काफ्काको सारी उम्र बुखार रहा। यह दरअसल, उनके भीतर पलने वाले प्रेम की तपन थी। उस ताप में जलते हुए काफ्का के प्रेम की तपिश को उनकी हर रचना में मैंने खूब महसूसकिया, बगैर इस बात की तस्दीक़ किए की इसमें कितनी सच्चाई थी। एक बार मई या जूनकी दोपहर में एक अधेड़ सी औरत दिखी। काली, नाती और दुनिया की नजर में बदसूरतही कही जाने वाली वह औरत अपनी गुलाबी साड़ी और ठीकठाक मेकप में, मुझे उस वक़्तइतनी सुंदर लगी की मैं बता नहीं सकती। मुझे लगा की उसने कितने एंगल से ख़ुद को देखाहोगा, किसी के लिए ख़ुद को बड़े मन से सजाया होगा। उसके भीतर के वो मासूम भावः,उसके चेहरे पर साफ नजर आ रहे थे। शायद ऐसे छोटे-छोटे, बिना लोजिक के रीजन्स ने ही फ़िल्म रॉक ओन के इस गाने का शेप लिया होगा की मेरी लांड्री का एक बिल, आधी पढ़ी हुई नोवेल, मेरे काम का एक पेपर, एक लड़की का फ़ोन नम्बर pichchle सात दिनों में मैंने खोया....कभी फ़िल्म के नॉन एडिटेड पार्ट से रु-बा-रु होने का मौका मिला हो तो देखिये कितना मजा आता है। ऐसा लगता है की फ़िल्म को कितने dymention मिल सकते थे final प्ले से कम मजेदार नहीं होता उसका रिहर्सल। एक-एक संवाद को याद करते, एक-एक ऍक्स्प्रॅशन के लिए जी- जान लड़ते हुए लोगों को देखना काफी दिलचस्प होता है। शानदार पेंटिंग एक्सिबिशन की बजाय, पेंटिंग वर्कशॉप में जाइये, रंगों से, लकीरों से जूझते आर्टिस्ट के भावों को पढिये, उनकी पूरी बॉडी लैंगुएज उस समय क्रिअतिविटी के उफान पर होती है।लीजिये सबसे इंपोर्टएंट बात तो रह ही गई। दुनिया की सबसे ख़ास चीज जो हर किसी को आकर्षित करती है, वो है प्रेम और प्रेम में कोई लोजिक नहीं होता वह तो बस होता है। कहते हैं न की नापतौल कर तो व्यापआर होता hai prem तो बस होता है(agar hota hai to)और आप चाहे न चाहें। हम सब व्यवस्थित होने की धुन में मस्त रहते है, व्यस्त रहते हैं लेकिन कभी, कहीं कुछ होता है, जो हमारे भीतर के उन कोनो को छु जाता है, जो अब तक दुनिया की समझदारियों के हवाले नहीं हुए। जिनमे बिना लोजिक की ढेर sari कहानियाँ हैं। ऐसी न जाने कितनी चीजें है, जो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें हम कभी मुस्कुराकर इग्नोर कर देते है, आगे बढ़ जाते है और कभी वे हमारा दामन पकड़कर अपने पास बिठा लेती है। अगर लोजिक तलाशें, वैलेद रीजन्स की खोज करें तो इन चीजों कर यकीनन कोई मतलब नहीं है। दिस इज आल वेस्ट मेटेरिअल...लेकिन इन वेस्ट मेटेरिअल लम्हों से, बातों से, चीजों से जिंदगी सजायी भी जन सकती है.

Thursday, November 13, 2008

पूरनमाशी

पूरनमाशी की रात जंगल में
जब कभी चाँदनी बरसती है
पत्तों में तिक्लियाँ सी बजती हैं
पूरनमाशी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
चाँदनी में धूलि हुई मद्धम
भीगी- भीगी उदास आवाजें
नाम लेकर पुकारती हैं तुम्हें
कितनी सदियों से ढूँढती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवाजें

Friday, November 7, 2008

एक दिन आएगा

आलोक श्रीवास्तव की यह कविता बहुत खूबसूरत है।
वैसे उनकी और भी कवितायें बहुत सुंदर हैं लेकिन
आज यही.....

एक दिन आयेगा
जब तुम जिस भी रस्ते से गुजरोगी
वहीं सबसे पहले खिलेंगे फूल
तुम जिन भी झरनों को छूऊगी
सबसे मीठा होगा उनका पानी
jin भी दरवाजों पर
तुम्हारे हाथों की थपथपाहट होगी
खुशियाँ वहीं आएँगी सबसे पहले
जिस भी शख्श से तुम करोगी बातें
वह नफरत नहीं कर पायेगा
फ़िर कभी किसी से।
जिस भी किसी का कन्धा तुम छुओगी
हर किसी का दुःख उठा लेने की
कूवत आ जायेगी उस कंधे में
जिन भी आंखों में तुम झांकोगी
उन आँखों का देखा हर कुछ
वसंत का मौसम होगा
जिस भी व्यक्ति को तुम प्यार करोगी
चाहोगी जिस किसी को दिल की गहराइयों से
सरे देवदूत शर्मसार होंगे उसके आगे....








Tuesday, November 4, 2008

ओ वाणी

ओ वाणी, मुझसे खफा न होना
की मैंने तुझसे उधार लिए
चट्टानों से भरी शब्द
फ़िर ताजिंदगी उन्हें तराशती रही
इस कोशिश में
की वे परों से हलके लगें...
शिम्बोर्स्का

Monday, November 3, 2008

मुठ्ठी भर आसमान

तुमने कहा
फूल....
और मैंने बिछा दी
अपने जीवन की
साडी कोमलता
तुम्हारे जीवन में।

तुमने कहा
शूल.......
मैं बीन आयई
तुम्हारी राह में आने वाले
तमाम कांटें

तुमने कहा
समय......
और मैंने अपनी सारी  उम्र
तुम्हारे नाम कर दी।

तुमने कहा
ऊर्जा...
तो अपनी समस्त ऊर्जा
संचारित कर दी मैंने
तुम्हारी रगों में.

तुमने कहा
बारिश.......
आंखों से बहती बूंदों को
रोककर
भर दिया तुम्हारे जीवन को
सुख की बारिशों से।

तुमने कहा
भूल....
और मैंने ढँक ली
तुम्हारी हर भूल
अपने आँचल से

और एक रोज
तुमने देखा मेरी आंखों में भी
थी कोई चाह
तुमने मुस्कुराकर कहा
तुम्हारा तो है सारा
जहाँ....

मैंने कहा जहाँ नहीं
बस, एक मुठ्ठी भर आसमान

और तुमने
फिर ली नजरें....

Thursday, October 23, 2008

सच्चा प्यार

nओबल पुरस्कार विजेता विस्साव शिम्बोर्स्का की कवितायें
मुझे बहुत priy हैं। आज उनकी यह कविता फ़िर से पढ़ी
और इसे पद्धति ही गई...आज के ज़माने में जब प्यार एक पहेली
बन चुका है शिम्बोर्स्का की कविता में अलग सी मासूमियत छलकती है

सच्चा प्यार
क्या वह नॉरमल है...
क्या वह उपयोगी है...
क्या इसमे पर्याप्त गंभीरता है...

भला दुनिया के लिए वे दो व्यक्ति किस काम के हैं
जो अपनी ही दुनिया में खोये हुए हों...
बिना किसी ख़ास वजह के

एक ही जमीन पर आ खड़े हुए हैं ये दोनों
किसी अद्र्याश हाथ ने लाखों-करोड़ों की भीड़ से उठाकर
अगर इन्हें पास-पास रख दिया
तो यह महज एक अँधा इत्तिफाक था...
लेकिन इन्हे भरोसा है की इनके लिए यही नियत था
कोई पूछे की किस पुण्य के फलस्वरूप....
नही नही न कोई पुण्यकोई फल है...

अगर प्यार एक रौशनी है
तो इन्हे ही क्यो मिली
दूसरों को क्यों नहीं चाहे कुदरत की ही सही
क्या यह नैन्सफी नहीं है
बिल्कुल है...

क्या ये सभ्यता के आदर्शों को तहस-नहस नही कर देंगे...
अजी कर ही रहे है...

देखो, किस तरह खुश है दोनों।
कम से कम छिपा ही लें अपनी खुशी को
हो सके तो थोडी दी उदासी ऊढ़ ले
अपने दोस्तों की खातिर ही सही। जरा उनकी बातें तो सुनो
हमारे लिए अपमान और उपहास के सिवा क्या है
और उनकी भाषा॥
कितनी संधिग्ध स्पष्टता है उसमे
और उनके उत्सव, उनकी रस्मे
सुबह से शाम तक फैली हुई उनकी दिनचर्या
सब कुछ एक साजिश है पूरी मानवता के ख़िलाफ़...

हम सोच भी नही सकते की क्या से क्या हो जाए
अगर साडी दुनिया इन्ही की राह पर चल पड़े
तब धर्म और कविता का क्या होगा
क्या याद रहेगा, क्या छूट जाएगा
भला कौन अपनी मर्यादाओं में रहनाचाहेगा

सच्चा प्यार
मैं poochati हूँ क्या यह सचमुच इतना जरूरी है...
व्यावहारिकता और समझदारी तो इसी में है
की ऐसे सवालों पर चुप्पी लगा ली जाए
जैसे ऊंचे तबकों के पाप कर्मों पर खामोश रह जाते हैं हम
प्यार के बिना भी स्वस्थ बच्चे पैदा ही सकते हैं
और फ़िर यह है भी इतना दुर्लभ
की इसके भरोसे रहे
तो ये दुनिया लाखों बरसों में भी आबाद न हो सके

जिन्हें कभी सच्चा प्यार नही मिला
उन्हें कहने दो की
दुनिया में ऐसी कोई छेज़ होती ही नहीं
इस विश्वास के सहारे
कितना आसान हो जाएगा
उनका जीना और मरना....

Wednesday, August 27, 2008

Tuesday, August 26, 2008

लिखती हुई लड़कियां



लिखती हुई लड़कियां
बहुत खूबसूरत होती हैं

लिखती हुई लड़कियां
अपने भीतर रचती हैं ढेरों सवाल
अपने अन्दर लिखती हैं
मुस्कुराहटों का कसैलापन
जबकि कागजों पर वे बड़ी चतुराई से
कसैलापन मिटा देती हैं
कविता मीठी हो जाती है

वे लिखती हैं आसमान
पर कागजों पर आसमान जाने कैसे
सिर्फ़ छत भर होकर रह जाता है

वे लिखती हैं
सखा, साथी, प्रेम
कागजों पर वो हो जाता है
मालिक, परमेश्वर और समर्पण।

वे लिखती हैं दर्द, आंसू
वो बन जाती हैं मुस्कुराहटें

वे अपने भीतर रचती हैं संघर्ष
बनाना चाहती हैं नई दुनिया

वो बोना चाहती हैं प्रेम
महकाना चाहती हैं सारा जहाँ

लेकिन कागजों से उड़ जाता है संघर्ष
रह जाता है, शब्द भर बना प्रेम.

वे लिखना चाहती हैं आग
जाने कैसे कागजों तक
जाते-जाते आग हो जाती है पानी

लिखती हुई लड़कियां
नहीं लिख पाती पूरा सच
फ़िर भी सुंदर लगती है
लिखती हुई लड़कियां.

जो तुमसे चाहता है मन

तुम्हारे साथ हँसना
तुम्हारे साथ रोना
तुम्हारे साथ रहना
तुम्हारे साथ सोना....
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन

तुम्हीं से बात करना
तुम्हीं से रूठ जाना
तुम्हारे साथ जग से जूझना भी
तुम्हे दुनिया से लेकर भाग जाना 
सजल मासूम आँखे चूम लेना
तुम्हारी रात के सपने सजाना 
तुम्हें हर बात में आदेश देना
तुम्हारी चाह को माथे लगना
न जाने कितनी बातें है
जो तुमसे चाहता है मन

विकट अनजान राहों में
तुम्हारा हाथ पाना
तुम्हारे मान का सम्मान करना
अडिग विश्वास से नाता निभाना
तुम्हारे रूप गुन की दाद देना
तुम्हारे शील को साथी बनाना
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन

तुम्ही से ओज पाना
तुम्हारी धार को भी शान देना
तुम्हारे आसुओं के मोल बिकना
की अपनी आन पर भी जान देना
कभी चुपके, कभी खुल के
तुम्ही को चाह लेना
तुम्ही में डूब जाना
अटल गहराइयों की थाह लेना
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन।

- दिनेश कुशवाहा 

मोक्ष

इसी काया में मोक्ष

बहुत दिनों से में
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिचले कई जन्मो से।

एक ऐसा आदमी जिसे पाकर
यह देह रोज ही जन्मे रोज ही मरे
झरे हरसिंगार की तरह
जिसे पाकर मन
फूलकर कुप्पा हो जाए
बहुत दिनों से में
किसी ऐसी आदमी से मिलना
चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया
अपनी आँखों नही देखिये
तो भी यह जन्म व्यर्थ नही गया
बहुत दिनों से मैं
किसी को अपना कलेजा
निकलकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में
भर गया है अपर मर्म
मैं चाहता हूँ कोई
मेरे paas भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकल ले sare रतन
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से
मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही
भक्क से बार जाए आँखों में लौ
और लगे की
दिया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
की paa गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा नहाकर paate थे
बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की
सुन्दरता का मानसरोवर
चूना चाहता हूँ तन की
सुन्दरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई कोई ऐसा
जिससे मन हजार
बहारों से मिलना चाहे
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना
चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मो के पाप मिट गए
कट गए सरे बंधन
की मोक्ष मिल गया इसी काया में .....
ye कविता दिनेश कुशवाह की है ।

Friday, August 22, 2008

गोलबंद स्त्रियों की नज़्म


कुछ हंसती हैं आँचल से मुह ढंककर
तो कुछ मुंह खोलकर ठहाके लगाती है
गोलबंद होकर स्त्रियाँ
जाने क्या क्या बतियाती हैं

बात कुए से निकलकर
दरिया तक पहुचती है
और मौजों पर सवारी गांठ
समंदर तक चली जाती है

समंदर इतना गहरा
की हिमालय एक कंकड़ की तरह डूब जाए
ऊँची ऊँची उसकी लहरे
बादलों के आँचल पर
जलधार गिरती
वेदना की व्हेल
दुष्टता की सरक
छुपकर दबोचने वाले
रक्तपायी आक्टोपस
जाने और भी क्या क्या
उस समुद्र में

गम हो या खुशी
चुपचाप नही पचा पाती है स्त्रियाँ
मिलकर बतियाती है मिलकर, गाती है
इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती है
स्त्रियों ने रची है दुनिया की सभी लोककथाएं।
उन्हीं के कंठ से फूटे है अरे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए है
सितारों को उनके नाम

- दिनेश कुशवाह 

कुछ टुकड़े

भीड़ कभी गंभीर नहीं होती, एकांत गंभीर होता है
लिखना एकांत की और चिंतन की उपज है यह
जितना कुछ किसी की अपनी जरूरत बने वाही ठीक है।
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हम सबका सबसे बड़ा गुनाह सचमुच यही है की हम अपने ही भीतर
पड़ी संभावनाओ को नही जानते।
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सपने की हैरानी और खुमारी बताई नही जाती।
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लेखक अपने पाठको का आसमान बड़ा कर सकता है।
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कभी-कभी घोर उदासियाँ भी आंखों में जो पानी नही ला
पति किसी दोस्त की मोहब्बत उस पानी का बाँध तोड़ देती है।
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अपने पात्रों के साथ एक जान हो जाने का तजुर्बा
भी अजीब तजुर्बा होता है।
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सिर्फ़ मुश्किल वक़्त ही नाजुक नही होता। अचानक कहीं से
इतनी पहचान मिले, इतना प्यार मिले ऐसा वक़्त भी उतना ही
नाज़ुक होता है।
गीत मेरे कर दे
मेरे इश्क का क़र्ज़ अदा
की तेरी हर एक स्तर से
आए ज़माने की सदा।
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टेढी सिलाई उधडा हुआ बखिया
यह जीना भी क्या जीना है।
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जीवन में एक बार प्यार जरूर करना चाहिए।
इस्ससे जिन्दगी पूरी हो जाती है।
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मन की धरती पर पड़े हुए ख्यालों के बीच कितने फल पाते
हैं और कितने सूख जाते हैं नहीं जानती। लइन फ़िर भी इन
अशारों का शुक्रिया अदा करती हूँ जिन्होंने बहुत हद तक मेरे
अहसास का साथ दया है।
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Tuesday, August 19, 2008

allav

1८ अगस्त गुलज़ार साहब का जन्मदिन
आज उनकी ये नज़्म मेरे ब्लॉग पर

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखिएँ
काटी तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते
तोडे मैंने जेबों से निकली सभी सुखी नज्म
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोडे
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नमी सूख गयी थी ,
सो गिरा दिन रात भर जो भी मिला
उगते बदन पर हमको काट के दाल दिया
जलते अलावों मैं उसे रात भर फूंकों से
हर लौ को जगाये रखा और दो जिस्मों के इंधन को
जलाये रखा भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

ये गम है मेरा, मेरी तन्हाई है....



न न, मत मांगो मुझसे
ये कोई जेवर नहीं
तुम्हारे बाज़ार में
कोई कीमत नहीं इसकी

ये गम है मेरा
मेरी तन्हाई है....