Sunday, January 12, 2025

टर्मिनल 3


झारखण्ड से लौट आई हूँ। पूरे 18 घंटे की बेसुध नींद के बाद उठी हूँ तो मन एकदम निर्मल है। हालांकि वापसी में हिन्दी वाला खूबसूरत सफर अँग्रेजी वाले suffer से एक्सचेंज हो जाने के कारण मन थोड़ा कसैला तो था, लेकिन इस जाग में मुझे जो याद है वो पल भर को मेरी पनीली आँखों और थकान में झाँकती उस लड़की की आँखें हैं जिसमें सफर की असुविधा को समझ पाने की और कुछ न कर पाने की निरीहता थी, चलते वक़्त हथेलियों को थामकर कहे वो शब्द थे, 'सॉरी मैम, हम कुछ कर नही पाए ठीक से, आप अपना खयाल रखिएगा।' उस एक पल में मेरा तमाम आक्रोश, सारी असुविधा और थकान मानो ठहर गए थे।

तो किस्सा जरा सा है,राँची से ही फ्लाइट 2 घंटे लेट हो गयी, कारण तकनीकी था। दिल्ली से देहरादून की कनेक्टिंग फ्लाइट थी। सिर्फ 7 मिनट की देरी से वो फ्लाइट मिस हो गयी। हालांकि महान एयर इंडिया का स्टाफ रांची से बेवकूफ बनाने, गैर जिम्मेदार बातें करने और अपनी ज़िम्मेदारी दूसरे पर फेंक देने जैसा व्यवहार कर रहा था। दिल्ली में भी स्टाफ के बेहद खराब व्यवहार और बदइंतजामी के चलते फ्लाइट छूट गयी, जैसे उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, आप जाइए भाड़ में।

इसके बाद इस काउंटर से उस काउंटर, इस ऑफिसर से उस ऑफिसर के बीच झुँझलाते, धक्के खाते टर्मिनल 3 मेरी कहानी का दर्शक बना रहा। बेहद खराब व्यवहार, बेहद खराब व्यवस्था, और बेहद ढीली प्रक्रिया के चलते 1.50 बजे की फ्लाइट मिस होने के बाद मुझे अगले दिन की फ्लाइट का टिकट नसीब हुआ शाम 5 बजे और रहने की व्यवस्था हुई रात 9 बजे वो भी गुड़गाँव के किसी बेहद थके हुए होटल में, जो लगभग धर्मशाला जैसा था। हमें किससे कांटेक्ट करना है हमारे पास कोई नंबर नहीं किसी का। मांगने पर ऐसी झिड़क, कि पूछिये मत। कहा गया कि सुबह आपके पिकअप के लिए कैब भेजी जाएगी। जानते हैं, उस पिकअप कैब के डिटेल्स कब आए? मैं देहरादून पहुँच चुकी थी तब।

कनेक्टिंग फ्लाइट के चलते मेरा सामान भी कहीं गुमशुदा था, जिसकी तलाश में सुबह 3.30 बजे से 5 बजे तक इस काउंटर से उस काउंटर के धक्के खाने का काम शुरू हुआ। और अंत में वो मिला। शुक्र ये रहा कि इस बार फ्लाइट लेट नहीं हुई और देहरादून पहुँच गयी। अब यहाँ जो बैग मिला वो टूटा हुआ था। फिर उसकी कम्पलेन का खेल शुरू हुआ। हालांकि देहरादून का स्टाफ सहयोग भी कर रहा था और विनम्र भी था।

मैं यह पोस्ट क्यों लिख रही हूँ, जबकि एयर इंडिया की शिकायत हर सही जगह पर की जा चुकी है। मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ मानवीय संवेदना की जानिब से। हम किसी भी काम पर हैं, कहीं भी हैं, हमारा व्यवहार कितनी सारी मुश्किलों को कम कर सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में मैंने कई बुजुर्गों को, परिवारों को, छात्रो को इसी तरह परेशान होते देखा। फ्लाइट कैंसिल होना, मिस होना, यह आम बात होगी एयरलाइंस वालों के लिए लेकिन उस व्यक्ति के मन को कौन समझेगा जो किस योजना से कहीं के लिए निकला है। एक बुजुर्ग महिला व्हील चेयर के लिए 4 घंटे से इंतज़ार कर रही थीं। एक बच्ची पहली बार अकेले सफर पर निकली थी पढ़ने के लिए जा रही थी, एक अंकल जो बीमार थे, उन्हें घर पहुँचना था और एक स्टाफ था जो ठीक से बात तक नहीं कर रहा था। दूसरी टिकट कराने और बेकार से होटल में रुकने के इंतजाम को किसी एहसान की तरह दिखाने वाले व्यवहार के खिलाफ मन में ज्यादा गुस्सा था। फिर लगा हमारी इंसानी तरबियत होने में अभी बहुत वक़्त लगेगा। इसका कोई कैप्सूल नहीं, कोई ट्रेनिंग इसे सिखा नहीं सकती। 'हमारी एयरलाइन में आपका स्वागत है, नमस्ते...आपकी यात्रा शुभ हो, आशा है आप हमारी एयरलाइन में फिर से यात्रा करेंगे, आपका दिन शुभ हो ' जैसे नाटकीय वाक्यों में संवेदना कहीं नहीं।
 
संवेदना थी उस बच्ची की आँखों में जिसने कैब में बिठाते हुए मेरी हथेलियाँ थामी थीं। और बस आज की सुबह में उसी हथेलियों की नरमी सिमटी हुई है, वही उम्मीद है। वो ड्यूटी पर तैनात सहेज नहीं थी, इंसानी संवेदना थी...

हाँ, मैं बेहद आशान्वित रहती हूँ हर हाल में, और देखिये न टर्मिनल 3 पर लिखी गयी इस अङ्ग्रेज़ी वाले Suffer की इस कहानी में भी एक आशा तो मुझे मिल ही गयी। 

चित्रा सिंह इस सुबह में गुनगुना रही हैं, सफर में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो...और मैं मुस्कुरा रही हूँ। जीवन के सफर का हाल भी तो कुछ ऐसा ही है न। 

आपकी यात्रा शुभ हो...

Sunday, November 17, 2024

It begins with self


जीवन इतना खूबसूरत है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद इसका आकर्षण खींचता है। खुश होने की इच्छा, सुंदर जीवन की अभिलाषा बार-बार ज़िंदगी को नए सिरे से सँवारने की, फिर-फिर कोशिश करने की ताक़त भी देती है और सलाहियत भी। लेकिन इस कोशिश का नाम सहना नहीं है।

सहने के खिलाफ खड़े होना व्यक्ति के प्रति आक्रोश नहीं है बल्कि वह समझ है जिसमें आत्मसम्मान के फूल खिलते हैं। समझ जो दृष्टि देती है कि परिवार या शादी ही नहीं किसी भी रिश्ते को बचाने में अगर आत्मसम्मान दांव पर लग रहा है तो फैसला लेने का समय आ चुका है।

It Ends with Us पिछले हफ्ते देखी। तब से फिल्म साथ चल रही है, और साथ चल रही हैं न जाने कितनी बातें। आसपास बेवजह रिश्तों को घसीटती स्त्रियों की कहानियाँ। फिल्म पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, कहा जा चुका है, दोहराने की मेरी कोई इच्छा भी नहीं सिवाय इतना कहने के फिल्म जरूर देखनी चाहिए।
फिल्म के बहाने मेरे भीतर जो हलचल है यह बात उसी के बारे में है। फिल्म की नायिका का अपनी माँ से पूछना, 'तुमने सहना बंद क्यों नहीं किया'।

फिल्म की नायिका का अपने पति (जो उसे पीटता है) से यह पूछना, 'अगर तुम्हारी बेटी का बॉयफ्रेंड या पति उसे पीटेगा तो तुम उससे क्या कहोगे' और नायक का पूरी ईमानदारी से यह कहना कि वो कहेगा कि, 'उसे छोड़ दो' कहानी की सघनता को सुंदर ढंग से दिखाता है।

नायक का यह कहना कि 'मैं अब वो सब कभी नहीं करूंगा, मैं अपना इलाज कराऊँगा' यह स्वीकारोक्ति फिल्म के अंत की दिशा बदलने की तैयारी सरीखी लगती है। लेकिन लिली जो फिल्म की नायिका है उसके ज़ेहनी स्पष्टता कितनी सहूलियत से अपना रास्ता चुनती है। यह फिल्म की ताक़त है। बिना किसी लाउडनेस के, बिना कोई चीखमचिल्ली के फिल्म का अंत किसी रोशनी सा खुलता है।

वह एक रिश्ते से निकलकर दूसरे रिश्ते में जाने की गलती नहीं करती, वक़्त लेती है, अपने वक़्त को अपने हाथ में थामती है। सूरज उसका माथा सहलाता है। मैं जानबूझकर एटलस के किरदार की बात नहीं कर रही क्योंकि मैं मानती हूँ कि एटलस जैसे सुंदर और यूटोपियन किरदार के बगैर भी लिली का फैसला यही होता और होना चाहिए।
हमारे आसपास जो तमाम लिली मुरझा रही हैं, जो फैसला नहीं ले पा रही हैं। जिनसे साथ सहा भी नहीं जा रहा लेकिन छोड़ भी नहीं पा रही हैं, यह उनके बारे में है। मानो लिली उन सबसे कह रही हो, खुद पर भरोसा करो और उठो। क्योंकि कुछ फैसले जो लगते तो व्यक्तिगत हैं लेकिन वो पीढ़ियों के लिए जरूरी होते हैं। शारीरिक हिंसा तो सिर्फ एक वजह है जो दिखती है, ज़्यादातर वजहें तो दिखती भी नहीं है लेकिन जिनकी मार हर दिन झेलनी होती है, और क्या अलग होना ही अंतिम फैसला है, यह सब व्यक्ति का खुद का निर्णय है। लेकिन आत्मसम्मान जब लगातार रिस रहा हो, रिश्ते में खुद के होने न होने पर रोज सवाल उठ रहा हो तो सोचना तो चाहिए। फैसलों के बाद का रास्ता आसान तो नहीं होता लेकिन रोशनी से भरा होता है इतना तो जरूर है। फिल्म की नायिका उसी रास्ते को दिखाती है।

बच्चों की खातिर जुड़े रहने की तरक़ीब सिखाने वाले चालाक समाज को अब ये बताना होगा कि जिस बच्चे को ढाल बनाकर शादी संस्था को बचा रहे हो उसमें बच्चे भी घुटन के शिकार हैं और आगे चलकर वे उलझे हुए व्यक्ति के रूप में बड़े होते हैं और समाज को कुछ नई किस्म की उलझनें ही देते हैं।

फिल्म का नाम है It Ends With Us लेकिन असल में यह फिल्म कहती है It begins with self.

Saturday, November 9, 2024

मेयअड़गन यानि सत्य की सुंदरता


जैसे जी भर के रो चुकी लड़की के कांधे पर गिरा हो हरसिंगार का एक फूल एकदम बेआवाज़, महक से सराबोर। जैसे खाली पड़े कैनवास पर किसी बच्चे ने रंग उड़ेल दिये हों और कैनवास भर उठा हो उम्मीद की ख़ुशबू से। जैसे तेज़ धूप में नंगे पाँव चलते पैरों से कोई नदी लिपट गयी हो। जैसे निराश मन ने जलाया हो आस्था का एक दिया और ज़िंदगी में उजास फूट पड़ा हो...

मेयअड़गन...(शायद ऐसे ही लिखते होंगे) देखना खुद की हथेलियों में अपना चेहरा रखकर जी भर के रो लेना है। जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत। और हम न जाने किन चीजों में उलझे हैं। बाद मुद्दत किसी फिल्म को देखते हुए खूब रोई हूँ, बार-बार रोएँ खड़े हुए हैं। अरविंद तो लाजवाब हैं ही, कार्थी भी कमाल के हैं। फिल्म का विषय, उसका ट्रीटमेंट सबकुछ जैसे स्क्रीन पर लिखी गयी प्रेम कविता हो।
 
छोटी से छोटी चीजों की ऐसी प्यारी डिटेलिंग है कि आसपास पड़ी ज़िंदगी जो हमसे छूटी ही रह जाती है, उसे उठाकर गले लगाने का जी कर उठता है। अगर कोई आप पर भरोसा करता है, निस्वार्थ प्यार करता है, आप बदलने लगते हैं। मैं इस फिल्म के प्यार में हूँ, फिर फिर देखूँगी, सबको देखनी चाहिए। चुप रहकर देखनी चाहिए।
मेयअड़गन तमिल फिल्म है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'सत्य की सुंदरता'।

Wednesday, September 11, 2024

कुछ लड़कियां, बहुत सारी लड़कियां


फोटो क्रेडिट-गूगल 

कुछ लड़कियां खूब पढ़ रही हैं
कुछ लड़कियां अच्छे ओहदों पर पहुँच रही हैं
कुछ लड़कियां अपने हकों के लिए लड़ रही हैं
कुछ लड़कियां कवितायें लिख रही हैं
कुछ लड़कियां डरती नहीं किसी से
कुछ लड़कियां पार्टी कर रही हैं
कुछ लड़कियां खुलकर हंस रही हैं
कुछ लड़कियां प्यार में हैं

कुछ लड़कियों को देख लगता है
अब लड़कियों की दुनिया बदल चुकी है
उनकी दुनिया का अंधेरा मिट चुका है

लेकिन अभी भी बहुत सारी लड़कियां
पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहीं
जूझ रही हैं अपनी पसंद के विषय की पढ़ाई के लिए,
आगे की पढ़ाई के लिए
बहुत सारी लड़कियां
अपनी पसंद के रिश्तों के सपने से भी बाहर हैं
बहुत सारी लड़कियां पूरी पढ़ाई करके भी
जी रही हैं अधूरी ज़िंदगी ही
बहुत सारी लड़कियां पैसे कमा रही हैं
लेकिन नहीं कमा पा रही हैं अपने हिस्से के सुख 
बहुत सारी लड़कियां उलझी हुई हैं
साज-शृंगार में, तीज त्योहार में
बहुत सारी लड़कियां
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी की जा रही हैं
बहुत सारी लड़कियां अन्याय को सह जाने को अभिशप्त हैं
कुछ लड़कियों और बहुत सी लड़कियों के बीच एक लंबी दूरी है
कुछ लड़कियों के बारे में सोचना सुख से भरता है
लेकिन हक़ीक़त की धूप हथेली पर रखे इस जरा से सुख को
पिघला देती है

कुछ लड़कियों के चेहरे बहुत सारी लड़कियों जैसे लगने लगते हैं
‘अब सब ठीक होने लगा है’ का भ्रम टूटने लगता है
कि ज्यादा नुकीले हो गए हैं
स्त्रियों की हिम्मत को तोड़ने वाले हथियार
ज्यादा शातिर हो गयी हैं
उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की साजिशें
झूठ की पालिश से खूब चमकाए जा रहे हैं मुहावरे
कि अब सब ठीक ठाक है...

जबकि असुरक्षा के घेरे से बाहर न ये कुछ लड़कियां हैं
न बहुत सारी लड़कियां।

Friday, August 23, 2024

जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं- प्रियदर्शन

हम क्या देखते हैं, कितना देख पाते हैं। क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं। अपने जानने को लेकर, अपने समझे को लेकर कितने आग्रही हैं, कितने जिद्दी हैं इस बारे में सोचने की न कोई जरूरत किसी को महसूस होती है और न ही ऐसी कोई प्रक्रियायें हैं। हम बिना सोचे समझे, करते जाने वाले समाज का हिस्सा हैं। नतीजा यह कि जब समझना, सोचना तर्क करना  सीखा, शुरू किया भी तो उस पर पिछली सलवटें तारी रहीं। जिद की लौ बढ़ती रही और हिंसक होने में बदलने लगी। 

पहले किसी से असहमति होती थी तो गुस्सा आता था, अब नहीं आता। अब उदासी होती है कि सफर लंबा है अभी...यूं भी समझ के बीज जरा आहिस्ता ही उगते हैं यह सोचते हुए हालात की उथल-पुथल और उससे जुड़ी चिंताओं पर खिंचती भाषाई तलवारें (कई बार सचमुच की तलवारें भी) सोचने पर मजबूर करती हैं, पढ़ना क्या सच में पढ़ना है। लिखना क्योंकर आखिर? 

मेरे लिए हर वह वाक्य सार्थक वाक्य है जो बावजूद तमाम मतभेदों के अपनी अभिव्यक्ति की गरिमा को सहेजे हो और जो हाशियाकृत लोगों के साथ बैठकर चाय पीने की ख़्वाहिश रखता हो। वाट्स्प विश्वविद्यालयों के लंबे चौड़े सेलेबस और रीलों के संजाल में घिरे लोगों से थोड़ा सा लॉजिकल होने की उम्मीद भी इन दिनों बड़ी उम्मीद हो चली है।  

ढेर किताबें लिखने, पढ़ने वालों की भाषा में भी जब आक्रामकता देखती हूँ तो सोच में पड़ जाती हूँ। हमेशा से लगता रहा है कि सहमति की भाषा भले ही थोड़ी रूखी हो लेकिन असहमति की भाषा का ज्यादा तरल, ज्यादा मृदु और ज्यादा स्नेहिल होना जरूरी है। क्योंकि असहमति का अर्थ दुश्मन होना तो है नहीं। प्रियदर्शन जी को टुकड़ों में पढ़ती रही हूँ। दो कहानी संग्रह पढ़े हैं, एक उपन्यास और काफी कवितायें पढ़ी हैं। उन्हें सुना भी खूब है। वो जिस भी विषय पर बात करते हैं उसके कई पक्षों को समझकर बात करते हैं। उनकी गहरी समझ राजनैतिक, समाजशास्त्रीय विवेचना का जरूरी असबाब है लेकिन इन सबसे इतर मुझे उनकी भाषा और तेवर का सामंजस्य अच्छा लगता है। कोई उन्हें ट्रोल करे तो भी वो नाराज नहीं होते, हंस देते हैं। यही बात उन्हें अलग करती है। इन दिनों उनकी किताब 'जो हिंदुस्तान हम बना रहे हैं' पढ़ रही हूँ। 7 आलेख पढ़ चुकी हूँ। हैरत में हूँ कि घोर राजनैतिक मुद्दों पर, जिन पर लोग भाषाई युद्ध पर उतारू रहते हैं वो कितनी सहजता से, सरलता से बात करते हैं बात जिसमें पड़ताल के सिरे खुलते हैं। 

'हिंदुओं को कौन बदनाम कर रहा है', 'धर्म के नाम पर धंधा और नफरत की सियासत', 'एक पुराने मुल्क में ये नए औरंगजेब' जैसे लेख पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कितनी जरूरी किताब है ये। छोटे-छोटे लेख हैं। न कोई पक्ष है इसमें न विपक्ष सिर्फ आईना है। 

कुछ अंश- 

'दरअसल दुनिया भर के धर्मों की समस्या रही है कि उन्हें धंधे में बदल दिया जाता है। आज न कोई कबीर को याद करता है, न कबीर के राम को। लोगों को तो वाल्मीकि और तुलसी के राम भी स्मरण नहीं हैं उन्हें बस बीजेपी के राम याद हैं।'

हम इतिहास से कौन सा हिस्सा उठाते हैं और किसे आइसोलेशन में याद रखते हैं यह समझना जरूरी है। 'स्मृतियों का यह चुनाव बताता है कि आप अंततः क्या बनना चाहते हैं।'

'कितना ही अच्छा होता अगर दिल्ली में गालिब, मीर, ज़ौक़, दाग के नाम पर रास्ते होते और हमें रास्ता दिखा रहे होते।'

'वे कौन लोग हैं जो ज्ञानवापी से लेकर कुतुब मीनार के परिसर तक में पूजा करने की इच्छा के मारे हुए हैं? किन्हे  अचानक 800 साल पुरानी इमारतें पुकार रही हैं कि आओ और अपने ईश्वर को यहाँ खोजो? क्या वाकई ईश्वर की तलाश है?'  

सवाल बहुत सारे हैं और इन सवालों पर प्रियदर्शन का बात करने का ढब जितना सहज है वही इस किताब की ताक़त है। असल में तमाम मुद्दों को बहसखोर लोग जिस गली में घसीटकर ले जाते हैं बात कहीं पहुँचती नहीं, अतिरेक से जन्मा माहौल उन्माद, हिंसा, द्वेष जरूर बढ़ता है। बहस उद्देश्यविहीन होकर भटकती फिरती है। फिलहाल इस किताब की सोहबत थोड़ी उम्मीद जगा रही है...मुद्दे हैं लेकिन कोई अतिरेक नहीं। आप इसमें लिखे से असहमत तो हो सकते हैं लेकिन आक्रोशित नहीं होंगे, सोचने के लिए कुछ नया ढूँढेंगे....

किताब अभी पढ़ रही हूँ, बाकी बात आगे होगी। किताब संभावना प्रकाशन से आई है, चाहें तो मंगायें और पढ़ें...