Tuesday, July 23, 2024

मौसम बने हैं डाकिया



एक रोज लड़की ने रेगिस्तान में बोयी
इश्क़ की बारिश
पीले कनेर भर उठे बूंदों से
और धरती को लग गए पंख

एक रोज नदियों ने गुनगुनाए
कश्तियों के गीत
और मुसाफिरों ने जानबूझकर
गुमा दिये रास्ते

एक रोज दुनिया भर की सेनाओं ने
गुमा दिये सारे हथियार
और सरहदों पर उगाये
सफ़ेद फूल

एक रोज लड़के ने
लड़की के माथे पर टाँक दिया चुंबन
दुनिया सुनहरी ख्वाबों की आश्वस्ति से
भर उठी

एक रोज दुनिया भर की किताबें
प्रेम पत्रों में बदल गईं
और सारे मौसम बन गये डाकिये

इस दुनिया को ख़्वाब सा हसीन होना चाहिए....



Monday, July 1, 2024

शहर का मौसम जैसे रुबाई कोई...



देर रात बैंगलौर की सड़कों से गुजरते हुए स्मृतियों के तमाम पन्ने उलटने-पलटने लगे। मानो कल की ही तो बात है जब मैंने डरते-सहमते इस शहर में कदम रखा था। वह मेरी पहली यात्रा थी बिना किसी बड़े का हाथ थामे खुद निकलने की। छुटकी सी बिटिया का हाथ थामे तमाम असहमतियों और नाराजगियों को निकलते वक़्त के किसी नेग की तरह आँचल में बांधे बस निकल पड़ी थी। थोड़े से पैसे जमा किए थे इसलिए पैसों के लिए किसी पर निर्भर नहीं थी वरना किसी तरह यह संभव नहीं होता। थोड़ी सी हिम्मत भी बचाकर रखी थी ऐसे मौकों के लिए। हिम्मत और आर्थिक निर्भरता ने कंधे थपथपाये और हम माँ बेटी निकल पड़े थे।


 हम दोस्त ज्योति के घर आए थे। न शादी था, न ब्याह न मुंडन न जनेऊ और न ही कोई रिश्तेदार थी ज्योति। कोई कैसे समझे इस जरूरत को, इस यात्रा की जरूरत को। ऊंहू यात्रा नहीं, दहलीज़ के बाहर पहला कदम। अजीब सा लग रहा है न सुनने में। बिलकुल। मुझे कहने में भी लग रहा है। जीने में भी लग रहा था। कि मैं नौकरी में थी, लिबरल फैमिली की परवरिश में पली बढ़ी फिर भी यूं कभी न सोचा निकलने के बारे में, न घरवालों को इसकी आदत पड़ी।

कभी-कभी सोचती हूँ कितना आसान है हर बात का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना। हालात, आस-पास के लोग, सामाजिक बेड़ियाँ, अलां, फलां। ये सब होते हैं मुश्किल का सबब निसंदेह लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल है हमारी खुद की इच्छा, हिम्मत। हम खुद कहाँ आँख भर सपने देखते हैं। हम कहाँ सांस लेने से आगे का जीवन जीना चाहते हैं। जैसा कहा गया वैसा जीने लगना, जैसा कहा गया वैसे ही सोचने लगना, जो तय किया गया उस रास्ते पर चलना कितनी तो सुविधा है इस सबमें।

मैंने खुद कहाँ आँख भर सपने देखे कभी। सपने जिसमें मैं थी।

कल रात जब बैंगलोर की सड़कों पर अकेले थी, कोई डर नहीं था। अब मुझे किसी शहर, किसी देश में किसी भी वक़्त डर नहीं लगता। झिझक नहीं होती। इस निडर प्रतिभा में उस लम्हे का जब अकेले निकलने का निर्णय लिया था, उस पहले सफर का बड़ा योगदान है।

 

शहर का मौसम सच में सुंदर है। हवा गालों को छू रही थी, मानो दुलार रही हो।

एक रोज किसी ने कहा था, ‘तुम्हारी आँखें कितनी सुंदर हैं’ और मैंने यूं ही लापरवाह सी अल्हड़ हंसी में डूबे हुए कह दिया था, ‘सपनों से भरी हैं न, इसलिए’ कहने वाले को क्या समझ आया क्या नहीं, नहीं जानती लेकिन कहने के बाद मेरे भीतर एक छोटी सी रुलाई फूटी थी। कब देखे मैंने सपने, काश देखे होते। मैंने सपने क्यों नहीं देखे। कौन सा डर मुझे रोके रहा। सपनों के टूटने का डर या कुछ और। पता नहीं।

इसके बाद जब भी आईना देखा अपनी आँखों को सूना ही पाया।

एक रोज एक दोस्त ने पूछा था, ‘तुम क्या चाहती हो अपने जीवन से’ और मेरे पास कोई जवाब ही नहीं था। फिर कुछ देर सोचने के बाद मैंने कहा, ‘मैं खूब सारी बारिश में भीगना चाहती हूँ। नदी के किनारे की बारिश में, समंदर के किनारे की बारिश में, जंगल की बारिश में, सड़क पर भीगते हुए भागना चाहती हूँ....मैं बहुत भीगना चाहती हूँ।‘ ‘बस...बस...इतना भीगोगी तो बुखार आ जाएगा।‘उसने हँसकर कहा था।

मैंने अपनी मुट्ठी की ओर इशारा करते हुए कहा,’तो पैरासीटामाल खा लूँगी...’ हम दोनों हंस दिये थे।

हाँ, सच में इतनी सी ही तो हैं मेरी ख़्वाहिशें...कि दुनिया में बेहिसाब मोहब्बत हो इतनी कि किसी को किसी से झगड़ने का वक़्त ही न मिले। और बेहिसाब बारिश हो कि धरती का कोई कोना सूखा न रहे, हाँ, बाढ़ भी न आए ख़्वाहिशों में समझ का यह पुच्छल्ला अपने आप आकर चिपक गया था।

जिस कमरे में ठहरी हूँ वो चौदहवीं मंजिल पर है। रात कमरे में जब दाखिल हुई तो जाने कब लिखकर भूल गयी ख़्वाहिश की एक पर्ची टेबल पर रखी मिली जिस पर लिखा था, ‘तुम्हारा एक नन्हा ख्वाब’। ये ख़्वाब मैंने देखा था याद नहीं। हाँ, शायद यूं ही कोई इच्छा उछाल दी थी हवा में कि ऐसे कमरे में होने का ख़्वाब जहां से शहर, आसमान, बादल सब एकदम करीब नज़र आयें। बस पर्दा हटाओ और बादलों को छू लो। ये क़ायनात भी न, सुन तो लेती है।

देर रात में अपने कमरे से, अपने बिस्तर से टिमटिमाते शहर को देखती रही। सुबह उठी तो आसमान एकदम उजला था। शहर शायद अभी काम पर निकलने की तैयारी में है। मैंने मुस्कुराकर आसमान की ओर हाथ बढ़ाया और उससे पूछा, ‘तुम देहरादून के आसमान से मिले हो कभी? बहुत सुंदर है वो भी?’ ये बैंगलोर का आसमान है, इसने कोई जवाब नहीं दिया शायद काम पर निकलने की जल्दी में होगा। न सही, मुझे क्या। मैं तो दो कप चाय पीकर आराम से वक़्त के करतब देख रही हूँ। और बीता हुआ कल स्मृतियों के झरोखे में बैठे हुए मुस्कुराते हुए मुझे देख रहा है।

सोचा था, नए शहर में उसकी याद जरा कम आएगी...पर देख रही हूँ सबसे पहला धावा याद ने ही बोला है और चाय पर मुझे अकेला नहीं छोड़ा है।

Friday, June 21, 2024

बहुत दिन हुए


बहुत दिन हुए 
किसी झरे हुए पत्ते को
हथेली पर रखकर
देर तक निहारा नहीं

बहुत दिन हुए
किसी सूखी नदी से नहीं सुना
पानी की स्मृति का गीत

बहुत दिन हुए
किसी सपने से टकराकर
चोट नहीं खाई

बहुत दिन हुए 
किसी ने दिल नहीं तोड़ा 
कोई छोड़कर गया नहीं 

बहुत दिन हुए 
किसी कविता ने माथा नहीं सहलाया 
गले से नहीं लगाया 

बहुत दिन हुए कोई दुख
बगलगीर होकर गुजरा नहीं

कितना सूना है जीवन
बहुत दिनों से....

Tuesday, June 18, 2024

स्क्रीन पर प्रेम रचता है ये लड़का


एक बदली पलकों पर आ बैठी है...उस बदली को मेरे मुस्कुराने का इंतज़ार है और मुझे उसके बरसने का। हम दोनों इंतज़ार की ड्योढ़ी पर बैठी हुई हैं। बारिशें बस होने को हैं। राहत की बारिशें, उम्मीद की बारिशें... 

इन दिनों यात्राओं में नहीं हूँ लेकिन यात्रा पर ही हूँ। अक्सर ऐसा महसूस होता आया है किसी यात्रावृत्त को पढ़ते हुए लेकिन इन दिनों ऐसा हो रहा है यात्रा में किसी को देखते हुए। तकनीक के बढ़ते कदम कितनी राहतें लेकर आए हैं। बस हमें ढूंढनी हैं ये राहतें। इन दिनों मेरी राहतें हैं कनिष्क गुप्ता के ट्रैवेल वीडियो। पहली बार जब कनिष्क का वीडियो देखा था तब ही लगा था कि ये कुछ अलग है। ट्रैवेल वीडियो के नाम पर दृश्य, सूचनाओं के ढेर और अति उत्साह में की गयी कमेंटरी कुल मिलाकर कुछ खास कनेक्ट नहीं कर पाते।

कनिष्क ने कुछ प्रयोग किए हैं। उनके वीडियो शुरू होते हैं और स्क्रीन पर सुंदर दृश्यों के साथ ठहरा हुआ स्वर उभरता है। कितनी ही बार रोएँ खड़े हुए इन वीडियो को देखते हुए। कितनी बार सुख आँखों से फिसलकर गालों पर टहलता हुआ भी मिला है। कनिष्क खूब रिसर्च करते हैं लेकिन उस रिसर्च को सूचनाओं की तरह नहीं किसी प्रेमगीत की तरह साझा करते हैं। आप उनके साथ मेघालय जाइए, दार्जिलिंग जाइए, हर्षिल, स्पीति, अरुणाचल या कहीं और आप भूल जाएंगे कि आप किसी कमरे में बैठे हैं और देख रहे हैं। 

कनिष्क स्क्रीन पर कोई जादू रचते हैं। बादलों का उठता हुआ सैलाब, हरियाली का उगता समंदर, घर, जंगल, फल, फूल, रोटी, चाय, लोग, मुस्कुराहटें ऐसे संग आ बैठते हैं करीब कि मन हल्का होने लगता है। बैकग्राउंड म्यूजिक ऐसा जैसे बारिश गुनगुनाने लगी हो, धरती नृत्य करने लगी हो। एक ही वीडियो को न जाने कितनी बार देखने के बाद भी मन नहीं भरता तो किसी दोस्त को भेज देती हूँ कि लो, तुम भी तो देखो। काम की आपाधापियों के बीच में एक छोटे से ब्रेक में भी इन वीडियोज़ ने राहत दी है।

घूमना कैसा होना चाहिए, कैसे होना चाहिए ये बताते हैं कनिष्क। कैमरा वर्क तो शानदार है ही कनिष्क की कमेंटरी जैसे कोई संगीत सा झरता हो। कोई हड़बड़ी नहीं, कहीं पहुँचने की कोई जल्दी नहीं, कुछ बताने की जल्दबाज़ी नहीं। कनिष्क वीडियो के बहाने हर लम्हे को जी भरके जीते हैं, खुश रहते हैं और यह उनके बोलने में, चलने में, मुस्कुराने में, थक कर बैठ जाने में भी खूब झलकता है।

इन दिनों ये वीडियो राहते हैं....प्रकृति और प्रेम को बचा लीजिये सब बचा लेंगे। प्रकृति के प्रेम में डूबा यह लड़का दुनिया में कितना कुछ बचा रहा है, ये बात शायद ये खुद भी नहीं जानता। फिलहाल कनिष्क राहत हैं...प्रेम हैं...भरोसा हैं, सुख है।
@KanishkGupta
https://www.instagram.com/knishkk/

Saturday, June 15, 2024

अब जीने से डरती नहीं हूँ



जैसे कोई अपना ही ख़्वाब रखा हो जरा सी दूरी पर। टुकुर-टुकुर ताक रहा हो। हाथ बढ़ाते हुए भाग जाता हो। जैसे बचपन का कोई खेल। ऐसे ही तुम आए थे जीवन में। 'आए थे'...इसे लिखते हुए जैसे खुद का ही कोई हिस्सा कटकर गिर गया हो। मैंने वाक्य को दुरुस्त किया और लिखा ऐसे ही तुम आए जीवन में।

कोई भी जिया हुआ लम्हा हमसे कभी जुदा नहीं होता। और हम व्यक्ति के जुदा होते ही उस खुश लम्हे की स्मृति में भी उदास रंग घोलने लगते हैं। हमें जीना नहीं आता। हमें खुश होना नहीं आता। हमें उदास होना भी नहीं आता। आज जब अपने जिये हुए लम्हों को छूकर देखती हूँ तो वो हँसकर पूरे घर में बिखर जाते हैं। मेरी देह में जैसे सावन उतर आता है। वो सारा जिया हुआ संगीत, सारी जी हुई शरारतें, सारा साथ पैदल चला हुआ, सारा साथ में भीगा हुआ सब कुछ पोर पोर में खिल उठा है।

हम कहते हैं एक लम्हे का मुक्कमल सुख पूरे जीवन की मुश्किलों पर भारी होता है। वो एक लम्हा जो हमारे समूचे वजूद को रूई के फाहे की तरह हल्का बना देता है। तमाम उलझनों से निकाल लेता है, वही लम्हा तो जीवन है।

मैंने उन लम्हों को यादों के कोठार में बंद करके उन लम्हों की प्रतिकृति बनाने की कोशिश में खुद काफी जख्मी कर लिया। और तब अक्ल आई कि प्रतिकृति सिर्फ प्रतिकृति ही है। मैंने कोठार का दरवाजा खोला और घर स्मृति में बसे खुश लम्हों की खुशबू से भर गया। Keeny G का संगीत मेरी मुस्कुराहट का सबब कभी भी बन सकता है।

मैं अब ख़्वाब देखने से डरती नहीं हूँ। उन्हें छूने से भी नहीं घबराती। और हाँ, अब मैं जीने से भी नहीं डरती हूँ। इस सुबह में जीवन खिला हुआ है। नींद खुल गयी है और ख़्वाब टूटा नहीं है।