Wednesday, December 25, 2019

कवि का कोई देश नहीं होता- मारीना


- प्रियदर्शन, एनडीटीवी 

करीब एक सदी पहले रूस में हुई थी‌ एक कवयित्री- मारीना त्स्वेतायेवा। रूसी क्रांति के जलते हुए दिनों में वह एक कुलीन घर में बड़ी हुई थी। जीवन, प्रेम और मनुष्यता से भरी उसकी कविता उस समय की सत्ता के लिए ज़रूरी शर्तों और मुहावरों में ढल नहीं पाई थी। इसकी कई सज़ाएं उसने भुगतीं- भयावह‌ ग़रीबी, निर्वासन, अपने बच्चे की मौत, वापसी के बाद का मरणांतक संघर्ष और अंततः आत्महत्या। उसने लिखा था, कवि का कोई देश नहीं होता।

लेकिन रूस अपनी इस‌‌ कवयित्री को बहुत देर तक उपेक्षित नहीं रख सका। उसकी कविताएं छपीं‌ और कई‌ भाषाओं में अनूदित हुईं- हिंदी में भी।

सौ बरस बाद हिंदी की एक कवयित्री ने इन्हीं अनुवादों की मार्फत उसे पढ़ा। वह‌‌ उन कविताओं में डूबती चली गई। वह ख़ुद मारीना त्स्वेयातेवा होती चली गई। उसने उन पर लिखना शुरू किया। कई बरस लगा कर पूरी किताब लिख डाली।
अब इस पुस्तक मेले में यह किताब आ रही है। प्रतिभा कटियार की यह किताब 'मारीना' जिन कुछ लोगों ने छपने से पहले पढ़ी है, उनमें सौभाग्य से मैं भी हूं।
लेकिन यह किताब सिर्फ मारीना की जीवनी नहीं है- उसकी कविताओं की व्याख्या भर नहीं है। वह दो अलग-अलग कालखंडों और अलग-अलग देशों में पैदा हुई दो कवयित्रियों का वह अंतरंग संवाद भी है जो कविता या साहित्य से संभव होता है। यह‌ किताब नए सिरे से याद दिलाती है कि साहित्य या मनुष्यता में कोई एक चुंबकीय तत्व ऐसा होता है जो इतिहास, भूगोल, भाषाओं और संस्कृतियों के पार जाकर भी हमें जोड़ देता है- वहीं हमें इतनी गहनता भी देता है कि हम सदियों और सरहदों के पार जाकर किसी लेखक से इस तरह जुड़ जाएं कि बिल्कुल एक हो जाएं।
संभव है, किसी को एतराज़ हो कि रूसी भाषा से अनभिज्ञ एक कवयित्री ने मारीना पर किताब लिखने की‌ जुर्रत क्यों की। यह भी संभव है कि कुछ लोग नामों के बिल्कुल शुद्ध उच्चारण के आग्रह के साथ इसकी आलोचना करें।‌‌‌‌ लेकिन हम सब जानते हैं कि हर भाषा अपनी प्रकृति के अनुरूप, अपने मुख-सुख के हिसाब से अपने उच्चारण ख़ुद तय करती है। हमने अलेक्जेंडर को सिकंदर बना दिया है, चाइना को चीन, मस्क्वा‌ को मास्को और ऐरिस्टोटल को अरस्तु। अंग्रेजों ने भी सिंधु को इंडस बनाया और गंगा को गैंगेज़ जैसा कुछ। हज़ारों शब्द हैं जो अपना मूल स्वरूप खो चुके हैं फिर भी हमारे भीतर अपने मूल अर्थों में ही ध्वनित होते हैं। व्यक्तिवाचक संज्ञाएं भी स्थानिकता की मिट्टी का लेप लगा कर सहज हो जाती हैं। विष्णु खरे का आग्रह होता था कि मुसोलिनी को हम मुसोल्लीनी लिखें और फेलिनी को फेल्लीनी।
यही नहीं कुछ नामों के कई रूप चल पड़ते हैं।‌ जर्मनी में ही अलग-अलग हिस्सों में ब्रेख्त और ब्रैश्ट चलते हैं। 'मेरा दागिस्तान' जैसी अनूठी किताब के लेखक रसूल हमजातोव की‌ कविताएं रसूल गमजातोव के नाम से छपीं।
यानी साहित्य की संवेदना ऐसे शुद्धतावादी आग्रहों से ऊपर होती है। वैसे भी यह किताब ऐसी ही संवेदना के असर में लिखी गई है- एक प्यारी सी किताब, जिसको पढ़ते हुए हम कुछ और समृद्ध और संवेदनशील होते हैं- कुछ मारीना जैसे होना चाहते हैं और कुछ प्रतिभा जैसे। यह किताब संवाद प्रकाशन से आ रही है।


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